संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सरहदी-आदिवासी प्रदेशों में इतना तनाव क्या ठीक है?
29-Sep-2025 4:11 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : सरहदी-आदिवासी प्रदेशों में इतना तनाव क्या ठीक है?

कुछ हफ्ते पहले नेपाल में एक जनआंदोलन के बाद सत्तापलट हुआ, तो हमने लिखा था कि बाकी देशों को भी इससे सबक लेना चाहिए। अलग-अलग कई किस्म के देशों में जनता का आंदोलन सरकार को पलट चुका है, या सरकार को अपना रूख बदलने पर मजबूर कर चुका है। अरब स्प्रिंग कहे जाने वाले जनआंदोलन की शुरूआत 2010-11 में ट्यूनिशिया से हुई थी, बाद में यह मिस्र, लीबिया, यमन, बहरीन, और सीरिया जैसे देशों में फैल गया। कुछ देशों में इसने सत्ता प्रमुख को हटने या गिरने पर मजबूर किया, तो कुछ जगहों पर यह गृहयुद्ध बन गया। इसे जनजागरूकता का एक बड़ा आंदोलन कहा जाता है। फिर हाल के बरसों में हमने श्रीलंका, बांग्लादेश में जनता की बगावत, या जनक्रांति से सत्ता बदलते देखी है, और सबसे ताजा मिसाल तो नेपाल की अभी सामने है।

भारत एक बहुत बड़ा देश है, और ऊपर जिन देशों का हमने जिक्र किया है उन सबसे अलग यह एक बड़ा मजबूत लोकतंत्र है। यहां पर किसी जनआंदोलन से सत्तापलट जैसा कोई खतरा नहीं है, लेकिन जनआंदोलनों के सत्ता के लिए अपने खतरे रहते हैं, और लोगों को याद होगा कि 2014 में यूपीए सरकार के जाने की वजह दिल्ली में केजरीवाल, और उनके भागीदारों के चलाए जनआंदोलन भी थे। अन्ना हजारे, रामदेव, किरण बेदी, केजरीवाल, और श्रीश्री रविशंकर ने मिलकर जो माहौल बनाया था, और रामदेव 35 रूपए में डीजल-पेट्रोल, 40 रूपए में डॉलर, हर खाते में विदेशों से लौटे कालेधन के 15-15 लाख, देश के हर गांव को स्विटजरलैंड जैसा बनाना, ये सारे हसीन सपने भगवा लंगोटी के साथ देश को पेश कर रहे थे, और लोगों ने इस आंदोलन के बाद यूपीए सरकार को चुनाव में हटा दिया था। इस तरह भारत में जनआंदोलन कोई बगावत या क्रांति नहीं बनते, लेकिन वे एक सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा बन सकते हैं, कभी-कभी बने हैं।

अब हम लद्दाख की बात करना चाहते हैं जहां पर राज्य में छठी अनुसूची लागू करने की भाजपा के ही घोषणापत्र की बात दुहराते हुए एक गांधीवादी आंदोलनकारी सोनम वांगचुक आंदोलन कर रहे थे। उनका अनशन और आंदोलन अहिंसक चल रहा था, लेकिन लद्दाख में कुछ दूसरे आंदोलनकारी बेकाबू हो गए, पुलिस गाडिय़ों, और भाजपा दफ्तर को आग लगा दी। इस हिंसा का विरोध करते हुए सोनम वांगचुक ने अपना अनशन खत्म कर दिया, लेकिन इस केन्द्रशासित प्रदेश पर काबिज केन्द्र सरकार ने उन्हें गिरफ्तार करके राजस्थान की जोधपुर जेल भेज दिया है। लोगों को अच्छी तरह याद है कि जब मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर को तोडक़र तीन अलग-अलग इलाके बनाए थे, तो लद्दाख के सोनम वांगचुक ने मोदी सरकार की तारीफ की थी, उन्हें धन्यवाद दिया था। वे बुनियादी तौर पर एक पर्यावरणवादी हैं, और पूरी दुनिया में उन्हें उनके इस पहलू की वजह से बड़े सम्मान से देखा जाता है। वे मोदी सरकार की कुछ पर्यावरण पहल की तारीफ कर चुके हैं, सार्वजनिक रूप से भी, और केन्द्र सरकार को चिट्ठी लिखकर भी। ऐसे में लद्दाख में हुई आगजनी की हिंसा की तोहमत उन पर थोपते हुए उनको गिरफ्तार करके जिस तरह एक गर्म प्रदेश जोधपुर की जेल में भेजा गया है, उससे केन्द्र सरकार ने बातचीत की एक संभावना को खत्म कर दिया है। देश के सरहदी राज्यों को लेकर भारत सरकार पर अलग-अलग समय पर अलग-अलग दबाव बने रहते आए हैं, लेकिन केन्द्र सरकार और देश के हित में यही रहता है कि इन राज्यों में शांतिपूर्ण बातचीत के लिए कोई स्थानीय नेता रह सकें। कश्मीर के मामले में तो अभी-अभी यह तथ्य सामने आया है कि वहां के कुछ अलगाववादी नेताओं को भी भारत के अलग-अलग कुछ प्रधानमंत्रियों, अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान में बसे नेताओं से बातचीत का जिम्मा दिया था। जब कभी किसी तनावग्रस्त इलाके में बातचीत के लिए नेता उपलब्ध हों, तो सरकार का काम आसान होता है। लेकिन आज लद्दाख में सोनम वांगचुक की गिरफ्तारी से न सिर्फ वहां से दिल्ली को जोडऩे वाला एक पुल गिरा दिया गया है, बल्कि पूरी दुनिया में इस पर्यावरणवादी आंदोलनकारी की वजह से लद्दाख का मुद्दा खबरों में आ गया है, और दुनिया की नजरें लद्दाख पर टिक गई है। एक बहुत अच्छी अंतरराष्ट्रीय साख वाले शांतिप्रिय आंदोलनकारी को लद्दाख जैसे नाजुक इलाके से हटाना सरकार की एक बड़ी चूक है। हम देख रहे थे कि लद्दाख में चीन के साथ साढ़े 8 सौ किलोमीटर लंबी सरहद है, और लद्दाख के कई हिस्सों पर चीनी कब्जे को लेकर विवाद भी है। पाकिस्तान के गिलगित-बाल्टिस्तान इलाके से भी लद्दाख जुड़ा हुआ है, और अफगानिस्तान से भी। लद्दाख से बड़ी संख्या में पहाड़ी स्थितियों में काम करने के काबिल नौजवान भारतीय फौज में जाते हैं, और एक सरहदी राज्य को इस तरह उलझाना समझदारी नहीं है। कुछ रिटायर्ड फौजी अफसर कल ही यह याद दिला रहे थे कि लद्दाख ऐसी खिलवाड़ के लायक प्रदेश नहीं है।

लेकिन लगे हाथों हम असम की बात करना चाहते हैं जहां पर राज्य की आबादी के करीब 12 फीसदी आदिवासी समुदाय आंदोलन करते हुए सडक़ों पर हैं जिन्हें आरक्षण के तबके में शामिल नहीं किया गया है। पिछले कुछ महीनों में ये समुदाय लगातार बेचैन हैं, और अभी-अभी इनके बहुत बड़े-बड़े जुलूस निकले हैं, बड़े-बड़े प्रदर्शन हुए हैं। लद्दाख और असम दोनों जगहों पर स्थानीय जनता को यह आशंका है कि उनकी जमीन बाहरी कारखानेदारों को, या खदान मालिकों को दी जा सकती है। असम में अभी एक स्वायत्तशासी परिषद, बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल के चुनाव में केन्द्र और राज्य दोनों जगह सत्तारूढ़ भाजपा की करारी शिकस्त हुई है। वहां भाजपा की सीटें आधी रह गईं, और बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट ने बहुमत पा लिया है। अब एक बड़े स्थानीय चुनाव में शिकस्त, राज्य में भाजपा के देश के सबसे हमलावर मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा के खिलाफ जनआक्रोश के साथ-साथ जब वहां के आदिवासी आंदोलन को देखें, तो लगता है कि इस एक और सरहदी राज्य में बेचैनी कुछ अधिक फिक्र की बात होनी चाहिए। असम का भूटान के साथ बॉर्डर तो ढाई सौ किलोमीटर से कुछ अधिक है, लेकिन वह अधिक फिक्र की बात नहीं है। बांग्लादेश के साथ ठीक इतना ही लंबा बॉर्डर है, और यह देश की एक बहुत संवेदनशील सरहद है।

लद्दाख और असम के साथ जोडक़र मणिपुर को भी देखा जाना चाहिए, जहां पर 2023 से आदिवासी-गैरआदिवासी हिंसा चल रही है, सैकड़ों लोग मारे गए हैं, और दसियों हजार लोग बेदखल होकर शरणार्थी शिविरों में हैं। राज्य में भाजपा के मुख्यमंत्री के खिलाफ भयानक आक्रोश रहा है, और उन्हें लंबे समय तक बनाए रखने से भी सुलगता हुआ तनाव लपटों में बदला है। अब दो बरस से अधिक का वक्त हो चुका है, और मणिपुर में हिंसा का खात्मा अभी करीब दिख नहीं रहा है। जिन तीन राज्यों का हम जिक्र कर रहे हैं, इन तीनों में ही आंदोलन कर रहे लोग आदिवासी हैं, उनके मुद्दे भी स्थानीयता के, और आदिवासी हकों के हैं। यह समुदाय शहरियों के मुकाबले अधिक लंबे और समर्पित आंदोलन चलाने वाला है। देश की सरकार वैसे तो बहुत ताकतवर और समझदार है, लेकिन इन तीन राज्यों पर एक साथ चर्चा करना जरूरी था, सरकार तो अपना काम करती रहती है, देश की जनता को भी इनके बारे में सोचना चाहिए, क्योंकि ये तीनों ही राज्य दूसरे देशों के साथ लगे हुए हैं। मणिपुर की म्यांमार के साथ चार सौ किलोमीटर लंबी सरहद है, बांग्लादेश से भी 14 किलोमीटर सीमा जुड़ी हुई है। ऐसे माहौल में लद्दाख के एक शांतिपूर्ण आंदोलनकारी को सजा दिए सरीखे गर्म प्रदेश में ले जाकर कैद करना, और पाकिस्तान के साथ संबंधों की तोहमत लगाकर बदनाम करना, अटलजी के शब्दों में, अच्छी बात नहीं है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


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