संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सामूहिक जनचेतना कुछ नहीं होती, देश अपने लोगों को जिम्मेदार बनाते चलें...
सुनील कुमार ने लिखा है
19-Sep-2025 5:51 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  सामूहिक जनचेतना कुछ नहीं होती, देश अपने लोगों को जिम्मेदार बनाते चलें...

नेपाल में अभी हुए आंदोलन में राजधानी काठमांडू के बाहर भी सरकारी दफ्तरों, और सरकारी सम्पत्ति को खूब नुकसान हुआ। एक अमरीकी अखबार की रिपोर्ट बताती है कि संसद, सुप्रीम कोर्ट, और सैकड़ों सरकारी दफ्तरों में लगी आग से इमारतें जल गईं, और दसियों लाख फाईलें खत्म हो गईं। सुप्रीम कोर्ट में 60 हजार से ज्यादा मुकदमों की फाईलें पूरी तरह जल गईं, और कम से कम 20 मंत्रालयों की इमारतें, और तमाम कागज खत्म हो गए। संसद, राष्ट्रपति भवन, और प्रधानमंत्री कार्यालय के सारे कागज जल गए। जन्म-मृत्यु के रिकॉर्ड, कंपनियों के रिकॉर्ड, बैंकों के जमा और निकासी के रिकॉर्ड खत्म हो गए। कुल मिलाकर हालत यह है कि नेपाल ने आनन-फानन एक कामचलाऊ सरकार तो बना ली, लेकिन न मंत्रालय रह गए, न दफ्तर, और पुलिसवाले बिना इमारत, बिना गाड़ी, कहीं भी तम्बू लगाकर काम कर रहे हैं। जब जनआक्रोश बेकाबू होता है, और उसके निशाने पर सरकार ही रहती है, सरकार के कामकाज से उसे नफरत हो जाती है, वह सरकार को पलट देना चाहता है, तब वह इस तरह की आत्मघाती बर्बादी करता है जो कि सरकार के जाने के बाद भी कायम और जारी रहती है। अब जिस सरकार को हटाना था, वह श्रीलंका में भी हटा दी गई, बांग्लादेश और नेपाल में हटा दी गई, अफगानिस्तान और सीरिया में हटा दी गई, लेकिन जहां-जहां सार्वजनिक सम्पत्ति, और सरकारी कागजात को जलाया गया, उसकी कोई भरपाई नई और पसंदीदा सरकार के बन जाने पर भी नहीं हो पाएगी।

जले हुए नेपाल की इस हालत से छत्तीसगढ़ के बलौदाबाजार जिले में अभी कुछ अरसा पहले एक आंदोलन के बाद कलेक्टर और एसपी दफ्तरों की इमारतों को लगाई गई आग याद पड़ती है जिसमें बाहर खड़ी हुई गाडिय़ों सहित सब कुछ जला दिया गया था। यह मौका भी बड़ा अजीब था कि भारत के किसी जिले में कलेक्टर-एसपी के दफ्तर इस तरह जला दिए गए थे। आंदोलनरत मणिपुर में ऐसा हुआ कि वहां भी बहुत सारे सरकारी दफ्तर, और बहुत सी सार्वजनिक सम्पत्ति जला दी गई। ऐसी नौबत के बारे में देश को सोचना चाहिए कि मांगें पूरी होने के बाद भी यह नुकसान तो किसी तरह वापिस नहीं जाता। लेकिन जब हम देश के सोचने की बात करते हैं तो हमारे सामने कुल मिलाकर एक उन्मादी भीड़ रहती है, जिसका निशाना सार्वजनिक या सरकारी सम्पत्ति रहती हैं, और बहुत से मामलों में निजी सम्पत्तियां भी रहती हैं। कई आंदोलनों में निजी गाडिय़ों को, दुकानों और बाजारों को भी जला दिया जाता है जिनके बारे में ऐसे कानून बने हैं कि आंदोलनकारियों से ही ऐसे नुकसान की भरपाई की जाएगी। लेकिन सरकारी रिकॉर्ड जल जाने की भला क्या भरपाई किसी से की जा सकती है?

देश में उत्तेजना और उन्माद के माहौल में भी, सार्वजनिक हिंसा के बीच भी निशाना किसे बनाया जाए, और किसे छोड़ा जाए, यह फर्क कर पाना आसान नहीं रहता है। किसी समझदार ने बहुत पहले यह लिखा था- कि भीड़ में सिर बहुत रहते हैं, दिमाग कोई नहीं रहता। इसलिए भीड़ से किसी तर्कसंगत, और न्यायसंगत फैसले और कार्रवाई की उम्मीद नहीं की जा सकती। जो लोग भी अपने देश या अपने समाज की शान में सामूहिक जनचेतना जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, उन्हें यह समझना चाहिए कि जापान, या योरप के कुछ बहुत जिम्मेदार, सभ्य और विकसित लोकतंत्रों को छोड़ दें, तो बाकी जगहों पर सामूहिक जनचेतना हर जगह गौरवशाली नहीं रहती। बहुत सी जगहों पर, या कि अधिकतर जगहों पर सामूहिक जनचेतना बड़ी आसानी से नफरत और हिंसा की तरफ मुड़ जाती है, और मुल्क के कानून के खिलाफ हाथों में पत्थर उठा लेती है। सामूहिक जनचेतना का नाम बड़ा होता है, उसका दर्शन छोटा। लोकतंत्र अपनी व्यवस्था को बहुत सभ्य साबित करने के लिए, या अपने नागरिकों को परिपक्व दिखाने या बनाने के लिए सामूहिक जनचेतना जैसे शब्दों का इस्तेमाल करता है, लेकिन वे मृगतृष्णा सरीखे रहते हैं, उनका कोई अस्तित्व नहीं रहता। और फिर दूसरी तरफ देशों को अपनी सरकारी इमारतों और सार्वजनिक सम्पत्ति को बचाने के लिए जितनी बड़ी पुलिस और फौज की जरूरत रहती है, उसका खर्च बहुत संपन्न देश भी नहीं उठा पाते। जिन देशों में लोकतंत्र नहीं रहता है, वहां शाही या फौजी हुकूमत, कमजोर लोकतांत्रिक अधिकारों की वजह से आंदोलनों को कुचल पाते हैं, लेकिन जहां कहीं भी लोकतंत्र की जगह रहती है, वहां हालात बड़ी तेजी से बेकाबू हो जाते हैं, जैसे कि अभी-अभी नेपाल में चार दिन के भीतर ही हो गए थे।

अब उत्तेजित और उन्मादी भीड़ को उसका खुद का भला, उसके देश का भला सिखाने के लिए क्या सचमुच कुछ किया जा सकता है, या कि आज की हमारी यह पूरी चर्चा फिजूल की है। हो सकता है कि हमारी यह बात सिर्फ कागजी हो, और इसकी जमीन पर कोई संभावना न हो। फिर भी लोकतंत्र के हित में हम चाहते हैं कि लोकतांत्रिक देशों की जनता अहिंसक आंदोलन करना सीखे, जैसा कि गांधी ने कर दिखाया था। या फिर भारत में इमरजेंसी के खिलाफ भी जो आंदोलन चले थे, वे मोटेतौर पर सरकारविरोधी होते हुए भी अहिंसक थे, और जनमत इतना मजबूत था कि उसने इमरजेंसी की इंदिरा गांधी को अपना इरादा बदलने पर मजबूर कर दिया था, और एक शांतिपूर्ण मतदान से नेहरू की बेटी को हरा दिया था। भारत के ऐसे कुछ आंदोलन यह साबित करते हैं कि हर बार जनआंदोलन का हिंसक और तबाही लाने वाला होना जरूरी नहीं रहता। आज नेपाल जितने किस्म की दिक्कतों को झेल रहा है, उनमें सरकारी सम्पत्ति, और रिकॉर्ड के जल जाने का नुकसान अपूरणीय है, उसे कभी पूरा नहीं किया जा सकेगा। देश के नागरिकों में जिम्मेदारी की एक भावना विकसित होना एक पीढ़ी का काम नहीं है, धीरे-धीरे कई पीढिय़ों में जाकर ऐसी जिम्मेदारी आ सकती है, इसलिए दुनिया के बाकी देशों को भी नेपाल से सबक लेना चाहिए कि वे किसी भी मुद्दे पर अपनी जनता को अराजकता न सिखाएं, क्योंकि उन्मादी और हिंसक भीड़ क्या-क्या जलाकर राख कर देती है, इसका कोई ठिकाना तो रहता नहीं है।

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