संपादकीय
महाराष्ट्र में अभी ठाणे की एक अदालत में 2015 के दंगों के मामले में सभी 17 आरोपियों को बरी कर दिया। इस दंगे में सार्वजनिक सम्पत्ति की बड़ी बर्बादी की गई थी, और पुलिसवालों को भी हमले में चोटें लगी थीं। एक जिला अदालत ने यह पाया कि हथियारों से लैस भीड़ में रेलवे स्टेशन पर भीड़ के बीच यह दंगा किया था, लेकिन पुलिस आरोपियों की न तो पहचान स्थापित कर सकी, और न ही सुबूत पेश कर सकी। जज ने माना कि जांच में बहुत कमजोरियां रहीं। और इस आधार पर सारे के सारे लोग अदालत से छूट गए। लोगों को याद होगा कि अभी पिछले महीनों में ही हफ्ते भर के फासले से दो फैसले आए, एक में साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, और उनके साथ के लोग मालेगांव बम धमाके केस से बरी हो गए, और एक दूसरे मामले में मुम्बई ट्रेन विस्फोट के सारे मुस्लिम आरोपी बरी हो गए क्योंकि जांच एजेंसियां अदालत में उनके खिलाफ अपराध साबित नहीं कर पाई।
इससे भारत की पुलिस और दूसरी जांच एजेंसियों की हालत पर भी गंभीर सवाल उठते हैं, और इस बात पर भी कि क्या जांच एजेंसियां सत्तारूढ़ पार्टी के किसी दबाव में, या कि किसी और तरह के असर से जांच को इतना कमजोर कर देती हैं कि अदालत किसी को सजा नहीं दे पाती? जो लोग किसी मामले की जांच को करीब से देखते हैं, या कि पुलिस और न्याय प्रक्रिया को बेहतर तरीके से जानते हैं, उन्हें यह मालूम रहता है कि कमजोर कड़ी कहां-कहां रहती है। किन गवाहों को खरीदा जा सकता है, कौन से जब्त दस्तावेज गायब हो सकते हैं (जैसा कि साध्वी प्रज्ञा के केस में हुआ), अपराध अनुसंधान प्रयोगशाला में कौन-कौन से सुबूत बदलवाए जा सकते हैं, जांच अफसर को किस तरह दबाव या लुभाव से प्रभावित किया जा सकता है, और अदालत में पहुंचने के बाद न्याय प्रक्रिया को कैसे प्रभावित किया जा सकता है। भारत में लोग यह बात भी अच्छी तरह जानते हैं कि शिकायतकर्ता से लेकर गवाह तक को बाहर कैसे धमकाया जा सकता है। देश के बड़े-बड़े बहुचर्चित मामले ऐसे भी हैं जिनमें शिकायतकर्ता या गवाह का कत्ल हो जाता है। आसाराम का मामला हो, या मध्यप्रदेश में व्यापमं घोटाला हो, इनमें गवाह, आरोपी, या शिकायतकर्ता इतनी बड़ी संख्या में मारे गए कि उसके बाद न्याय प्रक्रिया मखौल सरीखी हो गई।
भारत में अभी तो लोग इसी बात पर फिक्रमंद रहते हैं कि निचली अदालतों में करोड़ों मामले बरसों से पड़े हुए हैं, और इनके निपटारे के लिए क्या किया जाए। दूसरी तरफ जिस पर अधिक चर्चा नहीं होती है, वह जांच एजेंसियों की है। देश के बहुत से कानून अभी इसी बरस बदले हैं, और जांच एजेंसियों के पुराने कर्मचारी इनसे अच्छी तरह परिचित भी नहीं है। अब अपराध की जांच के साथ कई तरह की शर्तें जोड़ दी गई हैं, और उन शर्तों को अगर बारीकी से पूरा नहीं किया जाएगा, तो आरोपियों के वकील बड़ी आसानी से पुलिस केस की धज्जी उड़ा देंगे। आज भी बहुत से मामलों में जहां यह जाहिर रहता है कि मुजरिम कौन हैं, वहां भी जांच या अदालती प्रक्रिया की कमजोरी की वजह से वे छूट जाते हैं। यह नौबत देश के लिए शर्मनाक है, लेकिन यह लोकतंत्र अधिक फिक्रमंद नहीं है। आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा धर्म में इस तरह जुड़ा हुआ है कि मानो ईश्वर हर चीज का इंसाफ कर देगा, हर गुनहगार को सजा दे देगा। जबकि ईश्वर का असर जज, सरकारी वकील, पुलिस, और गवाह पर आमतौर पर मुजरिम को बचाने के लिए पड़ता है, शिकायतकर्ता या जुर्म के शिकार को इंसाफ दिलाने के लिए नहीं। धर्म में बुरे को बचाने की अपार क्षमता रहती है, और देश की आबादी का तकरीबन पूरा ही हिस्सा किसी न किसी धर्म के नशे में डूबा हुआ है। उसे यह लगता है कि इस जन्म में जो बुरा उनके साथ हो रहा है, वह उनके पिछले जन्म के कुकर्मों का नतीजा है, और इस जन्म में वे जितना बर्दाश्त करेंगे, त्याग करेंगे, अगले जन्म में उन्हें उतना ही सुख मिलेगा। इसलिए वे इंसाफ की बात सोचते भी नहीं हैं। धर्म नाम का नशा लोगों की तर्कशक्ति, न्यायशक्ति, इन सबको कमजोर कर देता है। इसलिए लोग बेइंसाफी को देखते हुए भी उसके खिलाफ बागी नहीं होते हैं, और यही वजह है कि पुलिस, और दूसरी जांच एजेंसियां लापरवाही से लेकर मनमानी तक कई तरह की गलत बातें करती हैं, और मुजरिम बच निकलते हैं।
भारत में अधिकतर मामलों की जांच राज्य सरकारों की पुलिस के हवाले रहती है, कुछ राज्यों में पुलिस बाकी राज्यों के मुकाबले बेहतर है, लेकिन बहुत से राज्यों में तो पुलिस बहुत बुरी तरह अनपढ़ और अज्ञानी है। फिर नीम चढ़े करेले की तरह, वह अधिकतर जगहों पर साम्प्रदायिक भी हो गई है, और राजनीतिक दबाव के सामने उसने अपनी पेशेवर जिम्मेदारियों को खो दिया है। ऐसी बहुत सारी बातें मिलकर देश में बड़े-बड़े चर्चित मुकदमों में भी मुजरिमों को बचा जाती हैं क्योंकि भारतीय न्यायपालिका की भावना ही यह है कि चाहे सौ गुनहगार छूट जाए, एक भी बेगुनाह को सजा नहीं होना चाहिए। नतीजा यह होता है कि संदेह के लाभ में, सुबूतों की कमी से मुजरिम छूट जाते हैं, और फिर उनका भरोसा देश की न्याय व्यवस्था पर होने के बजाय अपने जुर्म की ताकत पर अधिक हो जाता है।
आज हमने मधुमक्खी के छत्ते में पत्थर मारने जैसा यह मुद्दा छेड़ा है, जिसके बहुत से पहलू हैं। अलग-अलग बहुत से सरकारी विभाग, राजनीतिक और संवैधानिक संस्थाएं इस नौबत के लिए जिम्मेदार हैं। इसलिए आज की इस बात का कोई आसान इलाज नहीं निकल सकता। यह लोकतंत्र नाम के मल्टी स्पेशलिटी हॉस्पिटल की कई ब्रांचों के विशेषज्ञ चिकित्सकों के मिलकर इलाज करने लायक मर्ज और मरीज है। क्या भारतीय लोकतंत्र में आज केन्द्र या राज्य सरकारों में किसी ने ऐसी विहंगम दृष्टि है कि वे ऐसे इलाज की जरूरत भी समझें? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


