संपादकीय
छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने 24 साल पुराने एक बलात्कार-प्रकरण में जिला अदालत की दी गई सजा को अभी रद्द कर दिया है, और आरोपी को घटना के समय नाबालिग पाकर उसके मामले को अब किशोर न्याय बोर्ड को भेजा है। हाईकोर्ट ने यह भी कहा है कि इस मामले में बोर्ड छह महीने के भीतर फैसला दे। 2001 के इस मामले में 2002 में सात साल की सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई थी, और इसे हाईकोर्ट में चुनौती दी गई थी। यह मामला परिवार के भीतर एक नाबालिग लडक़ी, और उसके मौसेरे भाई के बीच का था, और घर में हुए इस बलात्कार पर गांव की पंचायत के बाद पुलिस में रिपोर्ट लिखाई गई थी। स्कूली रिकॉर्ड के मुताबिक यह लडक़ा घटना के वक्त 17 बरस से कम का था।
अब इससे कई सवाल उठते हैं, जिन पर हम यहां चर्चा करना चाहते हैं। पहली बात तो यह कि घर के भीतर करीबी रिश्तेदार नाबालिग भाई-बहनों के बीच इस तरह का खतरा कहीं भी खड़ा हो सकता है, और परिवारों को यह सोचना चाहिए कि वे अपने बच्चों को किस तरफ सही राह पर रख सकें। इसके लिए कई बार यह भी हो सकता है कि घर-परिवार के भीतर भी मां-बाप, या परिवार के दूसरे लोगों को एक सावधानी बरतनी होगी, ताकि ऐसी नौबत ही न आए, ऐसा खतरा ही खड़ा न हो सके। ये तो कमउम्र किशोर-किशोरियां थे, इसलिए यह माना जा सकता है कि बहुत अधिक परिपक्व नहीं थे। लेकिन परिवारों में बालिग रिश्तेदारों के बीच भी जगह-जगह जबर्दस्ती सेक्स के मामले सामने आते हैं, और उससे दर्जनों गुना अधिक मामले शायद कभी सामने आते ही नहीं हैं। इसलिए जैसा कि बड़े बुजुर्ग कहते आए हैं, आग और घी को पास नहीं रखना चाहिए। परिवारों को ऐसी स्थितियों का ध्यान रखना चाहिए जिनमें ऐसे वर्जित, या अवांछित संबंध हो सकते हैं। और बात सिर्फ अदालत से सजा दिलवाने तक की नहीं है, जब कभी परिवार में, करीबी रिश्तों में, या अड़ोस-पड़ोस में ऐसी अवांछित बातें होती हैं, तो उससे पारिवारिक और सामाजिक कड़वाहट भी पैदा होती है, और लंबे समय का नुकसान होता है। परिवार के भीतर ही एक बलात्कार की शिकार रहे, और परिवार के करीबी, या दूर के रिश्तेदार बरसों के लिए जेल में रहें, तो इससे परिवार का ढांचा भी चरमरा जाता है। सबसे अच्छी नौबत तो यही है कि लोग अपने बच्चों को किशोरावस्था में जाने के पहले भी अच्छे और बुरे स्पर्श के बारे में बताकर रखें, और उन्हें अकेले किसी खतरनाक नौबत में न छोड़ें। यह कहते हुए हमको इस बात का पूरा अहसास है कि गरीब मां-बाप के पास एक कमरे के मकान में न तो बच्चों को अलग से बचाकर रखने और सुलाने की गुंजाइश रहती है, और न ही मां-बाप दोनों मजदूरी पर जाते हुए बच्चों की चौकसी कर सकते। ऐसे में अड़ोस-पड़ोस के लोगों को मिलकर एक सामाजिक-सुरक्षा की सोच भी विकसित करनी चाहिए। यह बात भी हमारे लिए कहना आसान है, लेकिन इस पर अमल काफी मुश्किल होगी।
दूसरी बात यह कि जिला स्तर के सत्र न्यायालय ने 2002 में बलात्कार के इस मामले में आरोपी नाबालिग को जो सजा दी थी, उसे हाईकोर्ट ने खारिज करते हुए उसी लडक़े के स्कूली रिकॉर्ड के मुताबिक उसे नाबालिग माना है। अब सवाल यह उठता है कि स्कूली रिकॉर्ड तो सत्र न्यायालय में भी रखे गए होंगे, और उन्हीं के आधार पर सात बरस की कैद हुई। हाईकोर्ट ने कुछ अधिक बारीकी से ये दस्तावेज परखे होंगे, और अब तक बालिग मानकर सजायाफ्ता इस लडक़े को अब किशोर न्यायालय भेजा है। यह चूक किसी नाबालिग की जिंदगी में बहुत बड़ी हो सकती है, हुई है, जिसमें उसमें बालिगों की जेल में रखा गया होगा, और बालिग की तरह नाबालिग से बलात्कार की सात बरस की सजा सुनाई गई। हाईकोर्ट को इस एक मामले में दिए गए अपने फैसले से परे भी यह सोचना चाहिए कि आगे किसी नाबालिग के साथ उम्र की सीमा रेखा पर ऐसी चूक न हो, उसके लिए क्या सावधानियां बरती जाएं, इसकी एक लिस्ट बनानी चाहिए। यह एक अलग बहस का मुद्दा होगा कि बलात्कार और हत्या जैसे कुछ किस्म के मामलों में नाबालिग को बालिग मानकर केस चलाने, या बालिग होने की उम्र को कम करने पर सुप्रीम कोर्ट में एक अलग बहस चल रही है। हम उस बहस को यहां जोडऩा नहीं चाहते, क्योंकि हम यहां परिवार और जिला अदालत की सावधानी पर ही चर्चा केन्द्रित रखना चाहते हैं।
बहुत पुरानी पीढ़ी की बात छोड़ दें, तो अब तो नई पीढ़ी के जन्म, और उसकी पढ़ाई-लिखाई के रिकॉर्ड अधिक आसानी से उपलब्ध रहते हैं। अब अदालतों को नए लोगों की उम्र तय करने में उतनी अधिक दिक्कत नहीं होनी चाहिए। यह भी हो सकता है कि आने वाले दिनों में सुप्रीम कोर्ट, या संसद कुछ किस्म के अपराधों में 18 बरस की बालिग होने की सीमा को घटा दे। वैसा होने पर एक बार फिर उम्र के दस्तावेज बहुत महत्वपूर्ण हो जाएंगे, क्योंकि आज के नाबालिग तबके के कुछ लोग भी उस वक्त अदालती कार्रवाई में बालिग की तरह गिने जाएंगे, और उम्र एक अधिक बड़ा मुद्दा रहेगी। इसलिए स्कूल सरीखी जगहों को, जन्म प्रमाणपत्र जारी करने वाले दफ्तरों को अब एक विवादहीन इंतजाम करना चाहिए, ताकि कोई सचमुच का मुजरिम अपने को नाबालिग बताकर सजा में रियायत न पा ले, और कोई नाबालिग मुजरिम बालिग की तरह सजा न भुगते। कुल मिलाकर यह मामला जन्म प्रमाणपत्र जारी करने वाले अस्पतालों, या जन्म रिकॉर्ड करने वाले पंचायत और म्युनिसिपलों से शुरू होता है, और उसी जगह पर इसे बारीकी से दर्ज करना चाहिए। हाईकोर्ट को भी निचली अदालतों से ऐसे मामलों में चूक न करने की नसीहत देनी चाहिए, क्योंकि कई बार जजों की गलती से, और कई बार काम का बोझ अधिक होने से भी बेइंसाफी हो जाती है। अब इस मामले में यह तकलीफदेह तस्वीर सामने आई है कि बलात्कार के 24 बरस बाद जाकर अब मुजरिम का मामला किशोर न्यायालय भेजा जा रहा है, और वहां से फैसला आने तक इस जुर्म को शायद चौथाई सदी हो चुकी होगी। दुनिया के किन्हीं भी पैमानों पर इतनी देर से मिले इंसाफ को इंसाफ नहीं कहा जा सकता।


