संपादकीय
देश की एक पर्यावरण-संस्था आई-फॉरेस्ट की अभी जारी हुई राष्ट्रीय सर्वे रिपोर्ट कहती है कि भारत में एयरकंडीशनरों से निकलने वाली ग्रीन हाऊस गैसें अब देश में वाहनों के प्रदूषण से निकलने वाली गैसों के बराबर हो गया है। और अगर इस पर तुरंत कार्रवाई नहीं की गई, तो अगले दस बरस में एसी-प्रदूषण, वाहन-प्रदूषण से दुगुना हो सकता है। इस सर्वे में यह पाया गया है कि 42 फीसदी एयरकंडीशनरों को हर साल गैस री-फिलिंग की जरूरत पड़ती है। इस संस्था का कहना है कि एसी से गैस रिसाव कम करना, कुछ हद तक एक समाधान हो सकता है। एयरकंडीशनरों, और गाडिय़ों, दोनों से ही होने वाले गैस-उत्सर्जन से भारत के पर्यावरण को खतरा हो रहा है, और यह जलवायु परिवर्तन में एक जिम्मेदार पहलू है। विज्ञान की मामूली जानकारी बताती है कि ग्रीन हाऊस गैसों से लोबल वॉर्मिंग बढ़ती है, ओजोन परत को नुकसान पहुंचता है, और ओजोन परत के कमजोर होने से, उसमें छेद होने से, सूरज की नुकसानदेह अल्ट्रावॉयलेट किरणें अधिक आती हैं जिससे पर्यावरण असंतुलन बढ़ता है, और प्राणियों में त्वचा कैंसर पैदा होता है।
अब हम इस अध्ययन, और पर्यावरण से जुड़ी बारीक तकनीक को छोडक़र एक बहुत ही मामूली समझ की बात करें तो यह बात जाहिर है कि भारत में एयरकंडीशनर लगाने और सुधारने का काम बड़ी संख्या में अप्रशिक्षित लोग करते हैं। मोटेतौर पर बेरोजगार नौजवान जो कि मजदूरी के लायक रहते हैं, वे ही एसी उठाने, चढ़ाने, लगाने, सर्विस करने, और मरम्मत करने का काम करते रहते हैं। फिर भारत में बहुत हाईक्वालिटी के पुर्जों के इस्तेमाल का चलन भी कम है। एसी के भीतर लगने वाले पुर्जे, उसमें भरी जाने वाली गैस लोगों को अपनी नजरों से तो दिखती नहीं हैं, इसलिए वे पूरी तरह अप्रशिक्षित कर्मचारियों की कही बातों पर आश्रित रहते हैं। भारत में सर्विस का स्तर आमतौर पर बहुत घटिया है, नकली पुर्जों का चलन खूब है, और कामगारों में बेईमानी आम बात है। फिर गैस से जुड़ी हुई प्रणाली की बारीकी से जांच करने के बजाय लोग भारत की बहुत आम, जुगाड़-तकनीक से काम चला लेते हैं, और ऐसे में गैस लीक होने का खतरा अधिक रहता है। फिर भी हम यह नहीं मानते कि यह कारों से निकलने वाले प्रदूषण के साथ तुलना के लायक नहीं है, क्योंकि कारों का प्रदूषण नापने वाले सेंटर बिना कुछ जांचे फर्जी सर्टिफिकेट देते रहते हैं, और चूंकि भारत में बचाव लागू करने के सभी काम एक जैसी बेईमानी, लापरवाही, और गैरपेशेवर अंदाज से होते हैं, इसलिए किसी एक के आंकड़े ही गलत होते हों, ऐसा नहीं होता।
लेकिन इस खतरे को समझने की जरूरत है कि कारों का एक हिस्सा बैटरी से चलने वाला होते जा रहा है, और गाडिय़ों की बढ़ती संख्या में प्रदूषण उस अनुपात में नहीं बढ़ेगा। दूसरी तरफ एसी के नए-नए ग्राहक पैदा हो रहे हैं, पुराने ग्राहकों के घर-दफ्तर, या दुकान में एसी की गिनती बढ़ती जा रही है, और अब एसी शान-शौकत के बजाय मामूली सहूलियत का सामान बन चुका है, इसलिए उसका इस्तेमाल बढ़ते जा रहा है, और उसी अनुपात में गैस लीक होना भी। अब विज्ञान और टेक्नॉलॉजी के सामने यह चुनौती है कि पर्यावरण के लिए नुकसानदेह एसी-गैस को कैसे कम नुकसानदेह गैस से बदला जाए, और दूसरी तरफ कारों या दूसरी गाडिय़ों के प्रदूषण को कैसे घटाया जाए। आई-फॉरेस्ट के अध्ययन में इन दो परस्पर असंबद्ध बातों को तुलना के लिए जरूर सामने रखा गया है, लेकिन इन दोनों का आपस में कोई भी रिश्ता नहीं है, और इन दोनों का अलग-अलग समाधान किया जाना जरूरी है।
फिलहाल हम जितनी बातें कर रहे हैं, वे एक नासमझी की अधिक हैं। समझदारी तो यह होगी कि निजी गाडिय़ों के सार्वजनिक परिवहन के विकल्प सोचे जाएं, और उन पर तेजी से अमल किया जाए। फिर धरती के वायुमंडल की गर्मी अंधाधुंध बढऩे दी जाए, और अपने कमरों को ठंडा रखने के लिए एसी का अंधाधुंध इस्तेमाल किया जाए। ये दोनों ही बातें आज अदूरदर्शिता से सोची जा रही हैं। निजी गाडिय़ां अगर बैटरी वाली भी हैं, तो भी वे किसी बैटरी-बस के मुकाबले धरती पर बहुत अधिक बोझ है, बनाने में भी, और बिजली से बैटरी चार्जिंग में भी। जरूरत इस बात की है कि सार्वजनिक परिवहन की गाडिय़ां, चाहे वे बसें हों, चाहे मेट्रो या दूसरे किस्म की ट्रेन हों, उन्हें निजी गाडिय़ों के मजबूत विकल्प की तरह चलन में लाना होगा। दूसरी तरफ शहरों में पेड़ बढ़ाकर, जंगल लगाकर, निर्माण की नई ग्रीन-तकनीक का इस्तेमाल करके इमारतों को गर्म होने से बचाना होगा, वरना कांक्रीट के जंगल को कितने भी एसी कम पड़ते रहेंगे। और लोग अपने एक ककून जैसे छोटे से दायरे को ठंडा करने के लिए बाहर की हवा को कई गुना गर्म करते रहेंगे, जो कि धरती को जलाकर राख कर देगा। हमने इन दोनों जरूरतों से होने वाले प्रदूषण से चर्चा शुरू की है, लेकिन उससे काफी कुछ अधिक करने की जरूरत है।
आज ट्रम्प के अमरीकी राष्ट्रपति बनने के बाद दुनिया के संपन्न, और अधिक ऊर्जा-खपत वाले देशों के बीच जलवायु परिवर्तन को धीमा करने की जिम्मेदारी घट गई है। जब इस मोर्चे के सबसे बड़े मुजरिम, अमरीका ने ही अपनी जिम्मेदारी से हाथ खींच लिया है, तो फिर बाकी देश भला क्यों अपनी जिम्मेदारी आसानी से पूरी करेंगे, क्योंकि जलवायु परिवर्तन धीमा करने के लिए लगने वाले भारी-भरकम खर्च किसी भी देश के बजट में एक लुभावना आंकड़ा नहीं रहते। बाजार तो यही चाहेगा कि निजी गाडिय़ां भी बढ़ती रहें, और हर इंसान अपने कमरों को एयरकंडीशंड बनाते रहें। लेकिन इन दोनों चक्कों पर टिकी हुई गाड़ी धरती की बर्बादी की तरफ ही चल रही है। जलवायु परिवर्तन को धीमा करने के लिए शहरी आवाजाही, और शहरी कांक्रीटीकरण दोनों के बुरे असर को घटाने के बारे में तुरंत ही सोचना होगा। आज वैसे भी जलवायु परिवर्तन को रोकने का काम बहुत धीमे इसलिए चल रहा है कि इसे धरती को बचाना कहा जा रहा है। धरती का कुछ नहीं बिगड़ रहा है, वह तो आखिरी इंसान के खत्म होने पर भी बची रहेगी। नुकसान तो इंसानों का हो रहा है, जिन्हें बचाने के लिए एसी की जरूरत घटानी होगी, और निजी गाडिय़ां भी।


