संपादकीय
चिकित्सा विज्ञान की नई खबर है कि सुअर की किडनी इंसानों में लगाने के लिए अमरीका में क्लिनिकल ट्रॉयल की मंजूरी मिल गई है। इस तकनीक में सुअर में कुछ डीएनए बदलाव करके उसे इंसानों के लायक बनाया जाता है, और फिर उनके अंग निकालकर जरूरतमंद इंसानों में लगाए जाते हैं। आज किडनी की जरूरत वाले इंसानी-मरीजों की कतार अगले कई साल के लिए लगी हुई है। किडनी की उपलब्धता कम रहती है, और मरीज उससे कई गुना अधिक रहते हैं। फिर आधुनिक जीवनशैली के चलते हुए तरह-तरह की बीमारियां बढ़ती चली जानी है, और दानदाताओं से या परिवार के सदस्यों से मिलने वाले अंग उस मांग को पूरा नहीं कर पाएंगे। आज भी नहीं कर पाते हैं। भारत में तो भला हो महिलाओं का जिनकी वजह से पुरूष मरीजों को अंग मिल जाते हंैं। आज की खास बात से थोड़ा अलग हटकर यह चर्चा जरूरी है कि भारत में 90 फीसदी अंगदान महिलाओं से आता है, लेकिन अंगदान पाने वालों में कुल 10 फीसदी महिलाएं हैं। मतलब यह कि पुरूष सिर्फ परिवार की सदस्य महिलाओं का फायदा उठाते रहते हैं।
अब हम एक बार फिर जेनोट्रांसप्लांटेशन पर आ जाए, जो कि एक प्राणी से दूसरे तरह के प्राणी में अंग प्रत्यारोपण के लिए बनाया गया शब्द है। इसमें सबसे अधिक संभावना आज सुअर के अंग इंसानों में लगने की दिख रही है। शरीर विज्ञान के हिसाब से सुअर के अंग आकार, आंतरिक ढांचे, और कामकाज के हिसाब से इंसानों के अंगों से बहुत मिलते-जुलते हैं। यह अलग बात है कि इंसान गाली बकने के लिए दूसरे बुरे, या गंदे लोगों को सुअर कहकर गाली देते हैं। अब पता नहीं आने वाले बरसों में जब बहुत से लोग सुअर की किडनी, लिवर, या दिल लगाकर घूमेंगे, तो उनके आसपास के लोग सुअर की गाली देना बंद कर पाएंगे या नहीं। फिलहाल तो यह है कि चिकित्सा वैज्ञानिकों ने अंग निकालने के लायक सुअर में उनके जींस की एडिटिंग करके उनमें इंसान के जींस डालकर उन्हें इस लायक तैयार किया है कि जब उनके अंग इंसानों में लगाए जाएं, तो इंसानी शरीर उसे खारिज न कर दे। अंग प्रत्यारोपण में यह सबसे बड़ी समस्या रहती है कि मरीज का शरीर नया अंग पाने के बाद उसे स्वीकार नहीं कर पाता, और खारिज कर देता है। ऐसे में किसी मरीज के लिए छांटे गए सुअर को जब पहले से उस इंसान के लायक तैयार किया जाएगा, तो इंसानी शरीर उस सुअर के अंग को विदेशी अंग मानकर खारिज नहीं करेगा।
इंसान वैसे भी अपनी जरूरत के लिए धरती के अधिकतर किस्म के जानवरों को खा लेते हैं। भारत जैसे देश में कुछ राज्यों में गाय खाने पर रोक है, दुनिया के बहुत से देशों में वन्यप्राणी का दर्जा प्राप्त जानवरों को मारने और खाने की छूट नहीं है। लेकिन सुअर को तो इंसानी खानपान के लिए बड़े पैमाने पर पाला जाता है, और गैरमुस्लिमों के बीच यह खासा लोकप्रिय है। ऐसे में इंसान के बदन की जरूरतों के लिए अगर सुअर के अंग निकाले जाते हैं, तो इससे न तो गाय सरीखी कोई धार्मिक भावना प्रभावित होती है, न ही वह वन्यप्राणी है, और न ही सुअर का किसी और किस्म का महत्व है। इसलिए जिन मुस्लिमों के बीच सुअर को अपवित्र माना जाता है, उन्हें छोड़ दें, तो बाकी लोगों को अपनी जिंदगी बचाने के लिए किसी जानवर के अंग लगवाने में कोई दिक्कत नहीं होगी। आज भी इंसान, शाकाहारी इंसान भी जानवरों के कई तरह के हिस्सों से बनी हुई दवाईयां खा-पी लेते हैं, वे इस बात को अनदेखा कर जाते हैं कि वे गैरशाकाहारी चीज खा रहे हैं। जब जान बचाने की नौबत आती है तो अधिकतर लोग धार्मिक और दूसरी नैतिक मान्यताओं से समझौता कर लेते हैं। इसलिए अपने बदन के भीतर सुअर का एक हिस्सा लेकर चलना भी लोग सीख ही जाएंगे।
हाल के बरसों में अमरीका में जिन मरीजों में सुअर की किडनी लगाई गई, वो महीनों बाद तक जिंदा रहे, और उनमें से कुछ की मौत किसी दूसरी वजह से हुई, प्रत्यारोपित किडनी की वजह से नहीं। अब मानव-परीक्षण की इस नई इजाजत के बाद अमरीका में दर्जनों मरीजों को सुअर की किडनी लगाकर एक नई जिंदगी दी जाएगी, चिकित्सा विज्ञान को इतने प्रयोगों की वजह से काफी कुछ सीखने भी मिलेगा। 2022 में ही एक इंसानी मरीज को जीन-एडिटेड सुअर का दिल लगाया गया था, जो दो महीने तक चला था। प्रारंभिक प्रयोगों में ये दो महीने भी कम नहीं होते हैं, और इनसे सीखकर चिकित्सा विज्ञान आगे बेहतर काम करने के लायक हो जाएगा।
अंग्रेजी के विज्ञान-उपन्यास पढऩे वाले लोगों को एक विख्यात लेखक रॉबिन कुक का लिखा हुआ क्रोमोजोम-6 नाम का उपन्यास याद होगा जिसमें एक कंपनी किसी निर्जन टापू पर एक किस्म के चिंपाजी छांटकर उन्हें अलग-अलग इंसानों के लिए अंगदान के लिए तैयार करती है। इन इंसानों के जींस उन चिंपाजियों में डाले जाते हैं जिन्हें कि ऐसे मरीजों के लिए छांटा गया है। फिर जरूरत और नौबत आने पर इन मरीजों को वहां के अस्पताल में भर्ती किया जाता है, और चिंपाजी को रेडियोकॉलर जैसी किसी तकनीक से ढूंढकर लाया जाता है, और फिर अंग प्रत्यारोपण किया जाता है जिसकी कि कानूनी इजाजत नहीं रहती है। चिकित्सा विज्ञान से मोटी कमाई करने की यह कहानी 1997 की है, और अब 25-30 बरस बाद वह एक किस्म से कानूनी दर्जाप्राप्त हकीकत बन रही है।
इंसानों को अपने आपको दोनों-तीनों चीजों के लिए तैयार करना चाहिए, सुअर के अंग लेने के लिए अपने धार्मिक और नैतिक पैमानों में थोड़ी मरम्मत करनी होगी, उसकी तैयारी करनी चाहिए, सुअर को गाली देना बंद करना चाहिए, और भारत जैसे देश में जो गली-मोहल्ले में सुअर गंदगी में घूमते दिखते हैं, बाकी दुनिया में सुअर किसी डेयरी की गाय, या पोल्ट्री की मुर्गी की तरह साफ-सुथरे रखे जाते हैं। इसलिए अब सुअर को गंदा प्राणी मानना हिन्दुस्तानी मोहल्लों में तो ठीक है, दुनिया के दूसरे देशों में उसे मांस-उपयोग के लिए साफ-सुथरे तरीके से पाला जाता है। इसलिए अंग प्रत्यारोपण के लिए छांटे गए सुअर जाहिर है कि चिकित्सा विज्ञान के उच्चतम पैमानों पर साफ-सुथरे रखे जाएंगे। आज से सौ-पचास साल बाद की दुनिया में कई भाषाओं की किताबों से सुअर गाली की तरह हट जाएगा, और दुनिया के एक बड़े दानदाता की तरह दर्ज होगा। हो सकता है कि सौ बरस बाद लोग कहें कि दूसरों की जान बचाने के लिए सुअर जैसा बड़ा दिल रखो! (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


