संपादकीय

छत्तीसगढ़ के सरगुजा के बलरामपुर में गणेश विसर्जन के दौरान तेज शोरगुल वाले संगीत में नाचते-नाचते एक नाबालिग लडक़े की तबियत बिगड़ी, और अस्पताल ले जाने पर वह मरा हुआ वहां पहुंचा। यह अभी साफ नहीं है कि इस लडक़े की मौत शोरगुल की वजह से हुई, या अधिक नाचते हुए उसका हार्ट फेल हुआ। जो भी हो यह तो साफ है कि 15 साल का एक लडक़ा विसर्जन के शोरगुल के बीच इस तरह मारा गया कि उसमें शोरगुल का हाथ भी हो सकता है। छत्तीसगढ़ में हाईकोर्ट बीते बरसों से डीजे कहे जाने वाले, संगीत के नाम पर इस भारी शोरगुल पर रोक लगाने की नाकामयाब कोशिश कर रहा है। इसके पहले भी इस राज्य में लाउडस्पीकरों पर बैंड और संगीत के हल्ले में मौतें हो चुकी हैं, और ऐसे ही झगड़ों में कत्ल भी हो चुके हैं। जिस राजधानी रायपुर को पुलिस के हिसाब से एक आदर्श व्यवस्था की जगह होना चाहिए, कल वहां सडक़ों पर अंधाधुंध बदअमनी चलती रही, हाईवे पर गणेश के कार्यक्रमों के बड़े-बड़े ढांचे बनाए गए, और खुद प्रशासन ने शोरगुल की जो सीमा तय की है, उससे दुगुनी ऊंची आवाज तो रिकॉर्ड की गई है, लेकिन पूरे शहर में जगह-जगह गाडिय़ों पर लादे गए स्पीकरों से जो भयानक नजारा पेश किया गया, वह पूरी तरह बेकाबू नौबत है। प्रदेश में इक्का-दुक्का जगहों पर कुछ स्पीकरों को जब्त कर लिया गया है, लेकिन सडक़ों पर अराजकता हाईकोर्ट का मुंह चिढ़ाते हुए प्रदेश में जगह-जगह जारी है। इस मुद्दे पर लगातार लिखने, और अपने यूट्यूब चैनल, इंडिया-आजकल, पर लगातार बोलने की वजह से हमारे पास ही लोगों के भेजे हुए दर्जनों वीडियो इकट्ठे हो गए हैं कि हाईकोर्ट के आदेशों को कुचलते हुए कैसे प्रदेश की सडक़ों पर भयानक शोरगुल किया जा रहा है। जिन रास्तों से प्रतिमाओं और विसर्जन के जुलूस निकलते हैं वहां के लोगों का जिंदा रहना मुश्किल हो रहा है, और उस सडक़, और आसपास के लोग ऐसे दिनों पर किसी रिश्तेदार या परिचित के यहां दूर जाकर रहते हैं। हमारे पास ऐसे लोगों की भी जानकारी आई है जो इन दिनों अपने घर में नहीं रह पाते, जिनका ब्लडप्रेशर बढ़ जाता है, और हर बरस जिन्हें दूसरों के घरों में शरण लेनी पड़ती है।
बोलचाल में जिसे डीजे कहा जाता है, उस बारे में यह साफ कर देना जरूरी है कि इसका मतलब डिस्क-जॉकी होता है, ये ऐसे लोग होते हैं जो तरह-तरह के रिकॉर्ड (डिस्क) या दूसरे माध्यमों पर रखा गया संगीत मिलाकर पेश करते हैं, और पार्टियों में एक बड़े संगीत-टेबिल के पीछे हेडफोन लगाकर तरह-तरह के संगीत की मिक्सिंग करते अमूमन कोई नौजवान दिखता है। अभी छत्तीसगढ़ की सडक़ों पर बैंड, नगाड़ा पार्टी, और पहले से रिकॉर्ड किया गया संगीत जिस तरह से जीना हराम करता है, वह डीजे से अलग है, लेकिन प्रचलन में हर किस्म के संगीत के शोरगुल को डीजे कहा जाने लगा है, और हाईकोर्ट भी यही भाषा इस्तेमाल कर रहा है। खैर, भाषा की बारीकियों पर गए बिना हम यह कहना चाहते हैं कि धार्मिक आयोजनों के दौरान किसी भी तरह के शोरगुल, अराजकता, रौशनी को फेंकने के तरह-तरह के नए लैम्प, इनमें से किसी को भी काबू नहीं किया जा सकता, क्योंकि हजारों धर्मान्ध-उन्मादियों की भीड़ को काबू में करने के लिए उनसे अधिक संख्या में पुलिस लगेगी, जो कि मुमकिन ही नहीं है। इसलिए सरकार और हाईकोर्ट इन दोनों को हर त्यौहार पर सडक़ों पर होने वाली इस टकराहट, नागरिकों की नर्क सरीखी जिंदगी, और हाईकोर्ट की परले दर्जे की बेइज्जती को रोकने के लिए कोई दूसरा रास्ता ही निकालना चाहिए।
हमने पिछले महीनों में कुछ बार यह भी सुझाया है कि जब धर्म बना था, तब तो न बिजली थी, न लाउडस्पीकर थे। इसलिए लाउडस्पीकर किसी भी धार्मिक प्रथा का अनिवार्य हिस्सा नहीं है। हर उपासना स्थल से बेदर्दी से लाउडस्पीकरों को स्थाई रूप से हटा देना चाहिए। और इसके साथ-साथ छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट को चाहिए कि वह दस फीट से अधिक दूर तक आवाज फेंकने वाले हर तरह के स्पीकर पर रोक लगा दे। पत्तों का इलाज करने से तब तक कोई समस्या हल नहीं होगी, जब तक बीमारी को जड़ से खत्म नहीं किया जाएगा। और जड़ है लाउडस्पीकर, या बड़े-बड़े स्पीकर। हम हाईकोर्ट को भी यह सुझाना चाहते हैं कि आज जिंदगी का जनहित का ऐसा एक भी काम नहीं है जो कि बड़े स्पीकरों के बिना पूरा न हो सके। ये बड़े स्पीकर शोर फैलाने वालों के अलावा और किसके काम के हैं? इन स्पीकरों की खरीद-बिक्री, और इनके इस्तेमाल पर पूरी रोक के बिना छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट अगले सौ बरस तक सरकार को नोटिस जारी कर सकता है, उसके बाद भी उसका कोई असर नहीं होगा। धर्मान्ध भीड़ के सामने पुलिस अपनी शारीरिक क्षमता से अधिक का काम नहीं कर सकती। गब्बर सिंह के गिरोह को पकडऩे के लिए लाठी लिए हुए दो पुलिस जवानों को भेजने से भला कभी डकैती रूकेगी? इसलिए हाईकोर्ट को सबसे पहले तो दस फीट से दूर तक आवाज फेंकने वाले हर किस्म के स्पीकर, और लाउडस्पीकर पर तुरंत रोक लगा देनी चाहिए। सरकारें चलाने वाले राजनीतिक दल हर कुछ बरस में किसी न किसी चुनाव में वोट के लिए जनता के पास जाते हैं। और जनता का धर्मान्ध हिस्सा उन्हें डराता है। इसलिए राजनेता चाहे वे सत्ता में हों, चाहे विपक्ष में, वे अराजकता को खुलकर बढ़ावा देते हैं, और अदालती आदेशों की हेठी करना उन्हें एक किस्म से जनता की वाहवाही भी दिलाता है। इसलिए अदालत सत्ता पर बैठे लोगों से कोई उम्मीद नहीं कर सकती। और यह बात तो पूरी तरह फिजूल की है कि बड़े स्पीकरों के रहते हुए उन्हें चलाने वाले लोगों से उम्मीद की जाए कि वे शोरगुल एक ऐसी सीमा से ऊपर न जाने दें जिसे नापने के उपकरण खुद सरकार के पास नहीं हैं, नीयत तो है ही नहीं।
कोलाहल के खिलाफ केन्द्र सरकार के, अटल सरकार के बनाए गए कानून को भी उनकी पार्टी की सरकार छत्तीसगढ़ में लागू करना नहीं चाह रही है। सरकार के वकील हाईकोर्ट में टालमटोल करते दिखते हैं, और समय मांग-मांगकर आने वाले त्यौहार को शोरगुल के साथ गुजार देने की कोशिश भी करते हैं। अगर हाईकोर्ट को सचमुच ही जनहित की फिक्र है, तो उसे आज के जमाने में पूरी तरह गैरजरूरी, और हिंसक साबित हो चुके बड़े स्पीकरों को ही गैरकानूनी करार देना चाहिए, इससे कम में सरकार धर्मान्धों पर कोई कार्रवाई नहीं कर सकेगी। अदालतों के कई आदेश ‘अमल करने के योग्य नहीं’ दर्जे के रहते हैं, यह आदेश भी कुछ वैसा ही दिख रहा है। हम हाईकोर्ट से यह भी उम्मीद कर रहे थे कि वह कुछ निष्पक्ष लोगों को ऐसे शोरगुल के खिलाफ कोर्ट-कमिश्नर नियुक्त करे, लेकिन ऐसा अब तक तो कुछ हो नहीं पाया है। हो सकता है कि नियति ने शोरगुल बंद होने के पहले कुछ और बलियां तय कर रखी होंगी, और अभी कई और लोगों का इस शोरगुल से मरना बाकी हो। ईश्वर करे कि उसकी तय की हुई ये मौतें जल्द से जल्द हो जाएं ताकि उसके बाद लोग चैन से जी सकें। हाईकोर्ट भी शायद अभी यह अंदाज नहीं लगा पा रहा है कि और कितनी मौतों के बाद उसे असरदार ढंग से इस जानलेवा शोरगुल को रोकना चाहिए।