संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कन्या-शिक्षा में बड़े शानदार योगदान को मैग्सेसे पुरस्कार
सुनील कुमार ने लिखा है
02-Sep-2025 8:44 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : कन्या-शिक्षा में बड़े शानदार योगदान को मैग्सेसे पुरस्कार

एशिया का नोबल पुरस्कार कहा जाने वाला मैग्सेसे पुरस्कार इस बरस भारत की एक गैरसरकारी संस्था ‘एजुकेट गर्ल्स’ को मिला है जिसकी संस्थापक सफीना हुसैन कन्या-शिक्षा के लिए लगातार लगती रहती है। 1957 में फिलीपींस के राष्ट्रपति रैमन मैग्सेसे की स्मृति में यह पुरस्कार हर बरस चार वर्गों में लोगों या संस्थाओं को दिया जाता है। इस बार भारत के इस कन्या-शिक्षा एनजीओ को यह सम्मान मिलने से भारत में लड़कियों की कुल जमा स्थिति, और उनकी पढ़ाई की हालत के बारे में एक बार फिर चर्चा छिड़ सकती है, छिडऩी चाहिए। सफीना हुसैन ने 2007 से राजस्थान से काम शुरू किया, और 50 गांवों से शुरू पायलट प्रोजेक्ट के तहत ग्रामीण लड़कियों को स्कूल लाने, या स्कूल छोड़ चुकी लड़कियों को वापिस लाने, और उन्हें वहां पर बनाए रखने पर मेहनत की। अब तक यह राजस्थान, और बाहर करीब 30 हजार गांवों तक पहुंच चुका है, और 20 लाख से अधिक लड़कियां इस कोशिश से स्कूल वापिस आई हैं। इस संस्था के आंकड़े बताते हैं कि इसकी कोशिशों से स्कूल पहुंचने या लौटने वाली लड़कियों में से 90 फीसदी ने पढ़ाई जारी रखी है। सफीना दिल्ली में पैदा हुईं, और एक मौसी की मदद से उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकॉनामी से पढ़ाई की, फिर अमरीका में कुछ काम किया, और फिर भारत आकर सामाजिक क्षेत्र में काम शुरू किया। 2007 में राजस्थान के पाली जिले में समाज के सहयोग से, और सरकारी स्कूलों के साथ मिलकर शुरू यह प्रोजेक्ट लड़कियों की जिंदगी में एक बड़ा बदलाव लेकर आया है।

आने वाले दिनों में लोगों को सफीना हुसैन और उनके संगठन के बारे में काफी कुछ पढऩे और सुनने मिलेगा, लेकिन हम आज उनके उठाए मुद्दे को लेकर आगे बात करना चाहते हैं कि भारत में लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई की क्या चुनौतियां हैं? राजस्थान, हरियाणा, या उत्तर भारत के कई दूसरे प्रदेशों और क्षेत्रों में परिवार और समाज ही लडक़े-लड़कियों में बड़ा फर्क करते हैं। घर के रोजाना के खानपान से लेकर, इलाज की जरूरत पडऩे पर लडक़ी का इलाज परिवार की प्राथमिकता नहीं रहती। लड़कियां पढऩे में लडक़ों के मुकाबले अधिक गंभीर और तेज रहती हैं, मौका मिलने पर वे मेरिट लिस्ट, दाखिला इम्तिहान, या नौकरी में भी लडक़ों से आगे रहती हैं, लेकिन घर के भीतर से शुरू भेदभाव उनकी क्षमता और संभावना दोनों के पर कतरने में लगे रहता है, और देश के, खासकर उत्तर भारत, और हिन्दी प्रदेशों में लड़कियों के साथ भेदभाव अधिक हद तक हिंसक रहता है, यही वजह है कि दक्षिण भारत और महाराष्ट्र में लड़कियां उत्तर के मुकाबले अधिक आगे बढ़ती हुई दिखती हैं। लेकिन पूरे देश में जो एक समस्या एक सरीखी है वह खेल के मैदान, क्लासरूम, प्रयोगशाला, और किसी भी दूसरी स्कूल-कॉलेज की गतिविधि में लड़कियों पर लडक़ों और पुरूषों की ओर से मंडराते हुए खतरे की है। अड़ोस-पड़ोस से लेकर रिश्तेदारों तक, और स्कूल-कॉलेज से लेकर नौकरी या कामकाज की जगह तक लड़कियों को भेदभाव के अलावा शोषण का भी शिकार होना पड़ता है, और भारतीय सामाजिक और न्याय व्यवस्था ने इंसाफ मिलने की गुंजाइश पहाड़ की चढ़ाई जैसी रहती है। ऐसे में स्कूल शिक्षा से लेकर बाद में किसी कामकाज तक लडक़ी और महिला पर मंडराता हुआ खतरा उनके आगे बढऩे की संभावनाओं को सीमित करते रहता है।

लेकिन सफीना हुसैन की जिस कोशिश को यह बड़ा अंतरराष्ट्रीय सम्मान मिला है, वह किसी राज्य में सत्तारूढ़ पार्टी की सोच से परे, कई पार्टियों के शासन वाले राज्यों में बराबरी से चल रही है, और सरकारों के साथ मिलकर चल रही है। यह तालमेल जरूरी इसलिए भी है कि भारत में कई तरह के सामाजिक कार्यक्रम और आंदोलन इसलिए दम तोड़ देते हैं कि वे अपने बुनियादी एजेंडे से परे जाकर सरकार या राजनीतिक व्यवस्था से एक टकराव की तरफ मुड़ जाते हैं। अब किसी भी व्यक्ति या संस्था की ताकत और क्षमता सीमित रहती हैं, इसलिए इस बात पर गौर करना जरूरी रहता है कि सरकारें, या पार्टियां किसी से टकराव के बिना संस्थाओं को अपने बुनियादी मुद्दे की पहली प्राथमिकता को ही आखिरी प्राथमिकता भी बनाना चाहिए। अब कुछ लोगों को यह लग सकता है कि छात्राओं को स्कूल पहुंचाने वाली संस्था को स्कूलों के दूसरे मुद्दे भी उठाना चाहिए, और पाठ्यक्रम में हो रहे फेरबदल पर भी बात करनी चाहिए। लेकिन जो संस्था ऐसा करेगी, वह सरकार और सत्तारूढ़ पार्टियों के निशाने पर आ जाएगी, और बच्चियों को स्कूल पहुंचाने की उसकी कोशिश किनारे कर दी जाएगी। ऐसे में हम इस बात को महत्वपूर्ण मानते हैं कि पिछले दो दशक में सफीना हुसैन और उनके संगठन ने कई राज्यों में अपना काम फैलाया, और वहां आती-जाती राजनीतिक ताकतों से अपने को अछूता भी रखा।

इस बात से यह भी सीखने मिलता है कि हर किसी को अपनी प्राथमिकताएं तय करनी चाहिए। किसी भी तरह के सामाजिक आंदोलन एक बहुत ही जटिल सामाजिक व्यवस्था के भीतर ही जन्म लेते हैं, पनपते हैं, और अपना मकसद पूरा करने की कोशिश करते हैं। प्रमुख सामाजिक आंदोलनकारियों, और संगठनों को गैरजरूरी विवाद से बचकर भी रहना चाहिए। भारत में आज अजीम प्रेमजी फाउंडेशन जिन कई दायरों में काम कर रहा है, उनमें स्कूल-शिक्षा भी एक है। वह शिक्षा में उत्कृष्टता में लगा हुआ है, और किसी प्रदेश में कांग्रेस की सरकार रहे, भाजपा की, या किसी और पार्टी की, यह संगठन वहां बिना किसी राजनीतिक दुराग्रह के काम जारी रखता है। यह समझ कई दूसरे संगठनों को भी विकसित करनी होगी जो कि अपने बुनियादी मकसद से भटककर राजनीति का हिस्सा बनने लगते हैं, और फिर सरकारों से टकराव में अपना मूल काम खो बैठते हैं। जिन लोगों को राजनीतिक जागरूकता का काम करना है, वे घोषित रूप से वही काम करें, लेकिन अगर वे इलाज के लिए, या पढ़ाई के लिए काम करते हैं, तो राजनीतिक एजेंडा अलग रखकर काम करें। एक मुस्लिम महिला की कोशिशें देश के कई राज्यों में इस हद तक कामयाब हुई हैं, इसके पीछे उनकी सुलझी हुई प्राथमिकताओं का हाथ भी समझना होगा। आज की यह बातचीत कुछ तो कन्या-शिक्षा के महत्व के बारे में है, और कुछ सामाजिक कार्यक्रम चलाने वालों के बारे में।

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