संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : राज्यपाल-राष्ट्रपति पर समय सीमा के खिलाफ सरकारी लड़ाई कहां तक?
सुनील कुमार ने लिखा है
21-Aug-2025 6:26 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  राज्यपाल-राष्ट्रपति पर समय सीमा के खिलाफ सरकारी लड़ाई कहां तक?

सुप्रीम कोर्ट में इस बात पर बहस चल ही रही है कि किसी विधानसभा के पास किए हुए विधेयक को रोकने का अधिकार राज्यपाल और राष्ट्रपति के पास कितने समय के लिए होना चाहिए? यह बहस सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले से आगे बढ़ी जिसमें अदालत ने इसके लिए तय किया कि राज्यपाल और राष्ट्रपति एक समय सीमा के भीतर विधेयकों पर फैसला लें। सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल और राष्ट्रपति के अभी तक के चले आ रहे असीमित अधिकारों की एक सीमा तय की। और इसी के साथ तमिलनाडु के जिस मामले को लेकर यह सुनवाई चल रही थी, वहां भी एनडीए के मनोनीत राज्यपाल हैं, राज्य सरकार केन्द्र की एनडीए सरकार के खिलाफ है, और यह बात केन्द्र सरकार को बहुत ही बुरी तरह खल गई कि राज्यपालों को बरसों तक विधेयकों पर बैठने का हक नहीं मिले। इसे लेकर मामला जब राष्ट्रपति तक पहुंचा, और सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि राष्ट्रपति भी तीन महीने के भीतर राज्यपाल के भेजे हुए ऐसे किसी विधेयक पर फैसला ले लें, तो फिर राज्यपाल की तरफ से भी सुप्रीम कोर्ट से इस मामले पर राय ली गई, और केन्द्र सरकार ने तो अदालत में इसका बहुत जमकर विरोध किया कि यह अदालत के अधिकार क्षेत्र में ही नहीं है कि वह राज्यपाल और राष्ट्रपति के फैसलों की समय सीमा तय करे।

कुछ महीने पहले जब सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला आया था, उस वक्त भी हमने उसकी तारीफ में जमकर लिखा था कि राज्यपाल हो या राष्ट्रपति, उनके अधिकार कहीं भी अलोकतांत्रिक नहीं हो सकते। ये दोनों ओहदे तो बने ही लोकतंत्र के तहत हैं, और भारत का संविधान भी लोकतंत्र के तहत ही बना है। संविधान लोकतंत्र से ऊपर नहीं है, और इसीलिए समझदार लोग इस बात को कहते हैं कि संविधान के शब्दों के साथ-साथ उसकी एक भावना भी होती है। केन्द्र सरकार राज्यपाल और राष्ट्रपति के अधिकारों को असीमित बनाने के लिए अदालत में बहुत ही अलोकतांत्रिक, और हास्यास्पद तर्क दे रही है। जिस पर अभी सुनवाई चलते बीच ही हम एक बार फिर लिख रहे हैं, ताकि पाठकों के सामने इस बहुत महत्वपूर्ण संवैधानिक मुद्दे पर हम अपनी सोच और समझ सामने रख सकें। सुप्रीम कोर्ट में कल इस पर चल रही बहस के दौरान केन्द्र सरकार के वकील ने कहा कि राज्यपाल के पास से बिल को मंजूरी नहीं मिलने का मतलब है कि वह बिल समाप्त हो गया। पांच जजों की संविधानपीठ ने इस पर कहा कि अगर विधेयक लौटाए बिना राज्यपाल रोककर अंतहीन रख सकते हैं, तो इसका मतलब तो यह हो जाएगा कि जनता के द्वारा निर्वाचित सरकारें अब राज्यपाल की मर्जी से चलेंगी। मुख्य न्यायाधीश ने केन्द्र सरकार के वकील से पूछा कि जो सरकार कह रही है उसका मतलब तो यह है कि बहुमत से चुनी गई सरकार राज्यपाल की मनमानी की मोहताज होगी। बेंच के एक जज ने कहा कि ऐसा नहीं हो सकता कि राज्यपाल अनुमति देने से इंकार करें, और विधेयक खत्म हो जाए। इस पूरे मामले पर ऐसी दिलचस्प बहस चल रही है कि आम लोगों को भी खबरों में उसे पढऩा चाहिए, या अगर वे अंग्रेजी समझ सकते हैं, और सुप्रीम कोर्ट की इस मामले की कार्रवाई का प्रसारण हो तो उसे देखना चाहिए।

हम तो लोकतंत्र की भावना को लेकर अपनी पिछली बात को दुहरा भी रहे हैं, और आगे भी बढ़ा रहे हैं कि राज्यपाल हो या राष्ट्रपति, उन्हें लोकतंत्र में तानाशाह के हक नहीं दिए जा सकते। भारत की संवैधानिक व्यवस्था को समझने की जरूरत है। राज्यपाल पूरी तरह से केन्द्र सरकार के मातहत काम करते हैं, और संवैधानिक रूप से उन्हें कागजों पर राष्ट्रपति के प्रति जवाबदेह भी बताया जाता है। यह बात बिल्कुल साफ-साफ लिखी गई है कि राष्ट्रपति के कोई भी फैसले केन्द्रीय मंत्रिमंडल के लिए गए फैसलों के मुताबिक ही रहते हैं। ऐसे में जाहिर है कि राज्यपाल जो कि केन्द्र सरकार द्वारा मनोनीत रहते हैं, केन्द्र सरकार को रिपोर्ट करते हैं, केन्द्र के प्रति जवाबदेह रहते हैं, वे केन्द्र सरकार के ही एक किस्म से एजेंट रहते हैं जो कि अंग्रेजीराज में रहते थे। जहां कहीं राज्य की निर्वाचित सरकार केन्द्र की निर्वाचित सरकार से असहमति वाली रहती है, वहां पर राज्यपाल तिकड़म के खेल खेलते हैं, सरकारों को अस्थिर करने का काम करते हैं, दलबदल के खेल में वे खेल प्रशिक्षक बनकर मैदान को सुबह पांच बजे भी खोल देते हैं, जैसा कि महाराष्ट्र में हुआ था। भारत की लोकतांत्रिक संवैधानिक व्यवस्था में राज्यपाल और राष्ट्रपति ये दोनों ही केन्द्र सरकार की मर्जी से काम करते हैं, और इनके ओहदों को सुर्खाब के कितने ही पर खोंस दिए जाएं, ये केन्द्र के मनोनीत रहते हैं, और केन्द्र के ताबेदार रबरस्टाम्प रहते हैं। इनके रहमोकरम पर निर्वाचित सरकार और विधानसभा के भेजे गए विधेयकों को छोडऩे का मतलब उन्हें सीधे-सीधे केन्द्र सरकार के रहमोकरम पर छोड़ देना है।

अगर सुप्रीम कोर्ट के जजों का बहुमत लोकतंत्र का सम्मान करेगा, तो केन्द्र सरकार की सारी आपत्तियों को सिरे से खारिज कर देगा। लेकिन पूरी दुनिया में जगह-जगह जब सरकारों की दखल जज बनाने में रहती है, तो जजों की दिलचस्पी उन सरकारों की पसंद-नापसंद से जुड़ जाती है। भारत के सुप्रीम कोर्ट के जजों के बारे में हम अलग से कोई बात कहना नहीं चाहते, लेकिन बहुत से ऐसे मुख्य न्यायाधीश हुए हैं, या दूसरे जज हुए हैं जिनकी सरकार के प्रति एक खास रहमदिली की चर्चा होती ही रही है। अब पांच जजों की इस बेंच में बहुमत की रहमदिली लोकतंत्र के साथ है, या कि सरकार के साथ है, इसका कोई अंदाज हमें नहीं है। फिर भी केन्द्र सरकार आज देश के अधिकतर राज्यों में अपनी सरकारों को देखते हुए, और सौ फीसदी राजभवनों में अपने मनोनीत राज्यपालों की वजह से, अपनी बनाई हुई राष्ट्रपति को देखते हुए इन दो ओहदों को तानाशाह बनाने पर उतारू दिख रही है। यह सिलसिला कोई भी लोकतांत्रिक संवैधानिकपीठ खारिज करेगी ही। आने वाले हफ्तों या महीनों में इस मामले पर फैसला होगा, और यह भी हो सकता है कि उस फैसले के बाद सुप्रीम कोर्ट की किसी और बड़ी बेंच तक इसे ले जाया जाए क्योंकि केन्द्र सरकार जिस स्तर पर इस मामले को लड़ रही है, वह हार जाने पर यहीं पर थम नहीं जाएगी। यह मामला लोगों के लोकतांत्रिक-शिक्षण के लिए एक बहुत अच्छा मामला है, और आम लोगों को भी इस बहस में दिलचस्पी लेना चाहिए।

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