संपादकीय
ईद पर दो सहेलियों के साथ एक दुपहिए पर निकली लडक़ी के साथ ऐसा बुरा हादसा हुआ कि बेकाबू दुपहिया डिवाइडर से जा टकराया, और मोपेड चला रही छात्रा का सिर डिवाइडर के लोहे से कटकर धड़ से अलग हो गया। तीनों मुस्लिम लड़कियां खुशी मनाने निकली थीं, एक गुजर गई, और दो बुरी तरह जख्मी हुईं। स्कूल की इन लड़कियों के पास जाहिर तौर पर दुपहिया चलाने का लाइसेंस नहीं रहा होगा, सिर पर हेलमेट का तो सवाल ही नहीं उठता था, नियम और समझ के खिलाफ दुपहिए पर तीन लड़कियां थीं, और हादसे का वीडियो देखने पर लगता है कि रफ्तार भी बेकाबू अधिक थी। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में हुए इस सडक़ हादसे से कई सवाल उठते हैं, और कुछ लोगों को यह भी लग सकता है कि परिवारों की गमी के ऐसे मौके पर ये सवाल नाजायज हैं, लेकिन हमारा मानना है कि ऐसे ही मौकों पर समाज और सरकार सबको इन सवालों का सामना करना चाहिए।
ट्रैफिक नियम कहते हैं कि इस उम्र के बच्चों को कोई गाड़ी चलाने की इजाजत नहीं है। यह बात मां-बाप को भी मालूम रही होगी। लेकिन सडक़ों पर नियम को तोडऩा इतना आम हो गया है कि लोगों को लगता है कि नियम तोडऩा कानूनी हक है। जो मां-बाप अपने बच्चों को बिना ड्राइविंग लाइसेंस दुपहिए-चौपहिए दे देते हैं, वे खुद भी एक जुर्म करते हैं, और उस पर कैद का कानून भी है। लेकिन कहीं कोचिंग सेंटर आने-जाने के नाम पर, तो कहीं स्कूल आने-जाने के नाम पर मां-बाप बच्चों को गाडिय़ां देना अपनी मजबूरी बताते हैं। नतीजा यह होता है कि बच्चे इसी को कानूनी इंतजाम मान लेते हैं, और अपनी उम्र की उत्तेजना में कभी दोस्तों के साथ मुकाबला करते हुए, तो कभी अपनी शान और बहादुरी बघारते हुए वे गाडिय़ां अंधाधुंध दौड़ाते हैं। देश में दुपहियों पर हेलमेट का नियम लागू है, और इसके न लगाने पर जुर्माना भी है। लेकिन हम बड़ी सी बड़ी स्कूलों में देखते हैं कि छात्र-छात्राएं दुपहियों पर आते हैं, और स्कूलों ने उनकी हिफाजत के लिए हेलमेट को भी अनिवार्य नहीं किया हुआ है। कुछ छात्र तो साढ़े तीन हॉर्स पॉवर या उससे भी अधिक ताकतवर मोटरसाइकिल लेकर आते हैं, और उन्हें रोकने वाले कोई नहीं रहते। नतीजा यह है कि जिन स्कूलों में इसे सबसे आसानी से लागू किया जा सकता था, वहां की लापरवाही और गैरजिम्मेदारी से ये बच्चे दिन-रात उसी तरह नियम तोड़ते घूमते हैं। और सरकार या स्थानीय पुलिस अधिकारी पता नहीं जनता की नाराजगी के ऐसे किस खौफ में जीते हैं कि वे हेलमेट का नियम लागू नहीं करवाते हैं। हेलमेट से न सिर्फ सिर की चोट से बचाव मिलता है, बल्कि जिम्मेदारी की एक भावना भी आती है, जिससे कि कई दुर्घटनाएं बचती हैं। अब कल के ही हादसे को लें तो अगर दुपहिए पर दो ही लड़कियां होतीं जिनके पास लाइसेंस होता, सिर पर हेलमेट होता, तो हो सकता है कि उन्हें एक सीमित रफ्तार में गाड़ी चलाने की जिम्मेदारी का अहसास भी होता। लेकिन जब मिजाज एक नियम को तोडऩे का हो जाता है, तो वह मिजाज कई दूसरे नियमों को भी लापरवाही, बेफिक्री, और बेरहमी से तोड़ते चलता है। लोगों को अपने बच्चों से मोह इतना रहता है कि उनकी जिद पर या तो अपनी गाडिय़ां उन्हें चलाने दे देते हैं, या फिर ट्यूशन और कोचिंग की वजह से, या खेलने की प्रैक्टिस जैसे किसी काम की वजह से उन्हें अलग से गाड़ी दिला दी जाती है। इससे अधिक तकलीफ की और क्या बात होगी कि स्कूल की बच्चियां इस हादसे की ऐसी शिकार हुई हैं।
हम सरकार के बारे में तो बार-बार इस बात को लिखते हैं कि उसे सडक़ पर लोगों की हिफाजत के नियम-कानून सौ फीसदी कड़ाई से लागू करने चाहिए, क्योंकि वहां किसी एक को छूट देेने का मतलब औरों की जिंदगी को भी खतरे में डालना होता है। फिर हमारा यह भी हमेशा से मानना रहा है कि सडक़ों पर किसी को नियम तोडऩे की रियायत देने का सरकार को हक ही नहीं है। लेकिन इसके साथ-साथ सरकार के लिए तो किसी एक इंसान की जिंदगी पूरी आबादी में से एक आम जिंदगी ही रहती हैं, दूसरी तरफ परिवार के लिए अपने सदस्य की जिंदगी उसके मुकाबले बहुत अधिक कीमती रहती है क्योंकि घर के ऐसे बच्चे कलेजे के टुकड़े रहते हैं, खानदान के चिराग रहते हैं, आंखों के तारे रहते हैं, और भविष्य की उम्मीद भी रहते हैं। हर दिन सडक़ों पर हो रही अंधाधुंध मौतों की खबरों को देख-सुनकर भी, अखबारों में भयानक तस्वीरें पढक़र भी लोगें को अगर अपने परिवार की हिफाजत की नहीं सूझती है, तो क्या कहा जाए? लोगों की जागरूकता का स्तर जमीन के नीचे गहरे गड्ढे में जा चुका है जो उन्हें सडक़ों पर न दूसरों की हिफाजत की फिक्र रहती, और न ही अपने परिवार की जिंदगी की।
हमारा ख्याल है कि यह सरकार के दखल देने की एक नौबत है जो कि उससे नीचे किसी और के बस की बात नहीं है। लोगों को याद होगा कि एक समय कन्या भ्रूण हत्या होती थी, बाल विवाह होते थे, सतीप्रथा भी मौजूद थी, और अभी कुछ बरस पहले तक मुस्लिमों में तीन तलाक जैसा बेइंसाफ रिवाज था। इनमें से हर किसी को खत्म करने में सरकार और कानून को दखल देनी पड़ी, क्योंकि लोग खुद होकर जिम्मेदार नहीं बन पाए, सामाजिक जागरूकता नहीं आ पाई। कुछ ऐसा ही हाल ट्रैफिक के नियमों को लेकर है कि लोग खुद नहीं सुधर पा रहे हैं, और छोटे-छोटे नाबालिग बच्चों को मां-बाप गाडिय़ां दे दे रहे हैं, जो कि अंधाधुंध रफ्तार से उन्हें दौड़ा रहे हैं, कहीं मर रहे हैं, तो कहीं मार रहे हैं। इस सिलसिले को रोकना सामाजिक जागरूकता के बस का नहीं है। जागरूकता अगर आएगी भी तो तब तक हर दिन की मौतों को जोडक़र लाखों और मौतें हो चुकी रहेंगी। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने सडक़ सुरक्षा के नियम कड़ाई से लागू करने का फैसला दिया है। इसीलिए केन्द्र सरकार ने सडक़ों के नियम कानून, जुर्माने और कैद का इंतजाम किया है। अब राज्यों के भीतर इन पर अमल करना राज्य सरकारों का हक है, और उनकी जिम्मेदारी भी है। केन्द्र सरकार आकर गाडिय़ों का चालान नहीं कर सकती। और दिक्कत यह है कि छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में सरकारी अमला राजनीतिक दबाव की बात कहते हुए, या खुद ही सोचते हुए कुछ नहीं करता, और सरकार एक सत्तारूढ़ पार्टी से लोगों की नाराजगी न हो जाए, यह सोचते हुए सडक़ पर अपने अमले को कुछ नहीं करने देती। कल जिस तरह राजधानी रायपुर में दिनदहाड़े शहर के बीच ऐसे भयानक हादसे में एक बच्ची का सिर धड़ से अलग हो गया, उसके लिए जिम्मेदारी कैसे तय की जाए? परिवार जिसने कि अपनी बच्ची खोई है, उस पर भला क्या कार्रवाई हो सकती है कि उसने नाबालिग बच्ची को दुपहिया दिया, वह तो सबसे बड़ी सजा पा ही चुका है, और शायद जिंदगी भर इस तकलीफ से नहीं उबर पाएगा। घूम-फिरकर हमें जिंदगियां बचाने का अकेला रास्ता सरकार की पहल में ही दिखता है, उसे हादसों के मूकदर्शक बने रहने के बजाय सडक़ सुरक्षा के नियम कड़ाई से लागू करने चाहिए, क्योंकि हिन्दुस्तान के जिन शहरों में ये लागू हैं, वहां कामयाबी से लागू हैं, और ऐसा भी नहीं है कि इन्हें लागू करने वाली सरकार चुनाव हार जाती है। सरकार को बिना देर किए अपनी जिम्मेदारी पूरी करना शुरू करना चाहिए, क्योंकि उसे ऐसा न करने का कोई हक भी नहीं है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)