संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : मुश्किल हालातों में एक मिसाल, इससे लोग और समाज भी सीखें
15-Jul-2021 4:39 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय  : मुश्किल हालातों में एक मिसाल, इससे लोग और समाज भी सीखें

आज जब देश भर में चारों तरफ से महिलाओं पर जुल्म की खबरें आती हैं, छोटी-छोटी बच्चियों से सामूहिक बलात्कार की खबरों से अखबार पटे रहते हैं, सोशल मीडिया पर अफसोस जाहिर करते हुए लोग यह नहीं समझ पाते कि यह सिलसिला कहां जाकर थमेगा, तो ऐसे में महिलाओं से जुड़ी हुई कोई भी अच्छी खबर मन को बहुत खुश करती है। राजस्थान के जोधपुर में सडक़ों पर सफाई करने वाली एक म्युनिसिपल कर्मचारी आशा कंडारा ने बिल्कुल ही विपरीत परिस्थितियों में पढ़ाई की, और राजस्थान प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में शामिल होकर उसके लिए कामयाबी पाई है। यह महिला अपने दो बच्चों के साथ पिछले 8 बरस से पति से अलग रह रही है और सडक़ों पर झाड़ू लगाकर अपना घर चलाती है। आशा कंडारा को अभी 12 दिन पहले ही म्युनिसिपल में सफाई कर्मी की पक्की नौकरी मिली थी, इसके पहले वह अस्थाई सफाई कर्मचारी थी, और साथ-साथ पढ़ भी रही थी। अब म्युनिसिपल में झाड़ू लगाने की नौकरी मिलते ही, एक पखवाड़े के भीतर ही उसे राजस्थान लोक सेवा आयोग की राजस्थान प्रशासनिक परीक्षा में कामयाबी मिली है।

ऐसे मामले कलेजे को एकदम ठंडा कर देते हैं। एक तरफ तो मध्य प्रदेश जैसे राज्य में पिछले कई बरस से व्यापम घोटाले का भूत हवा में टंगा ही हुआ है और उसके आरोपी बनते बनते रह गए एक राज्यपाल गुजर भी चुके हैं, उस मामले के जाने कितने ही गवाह बेमौत मारे गए हैं, कितने ही लोग गिरफ्तार हुए हैं, और दाखिलों में बेईमानी, सरकारी नौकरी पाने में बेईमानी का सिलसिला देशभर के अधिकतर राज्यों में चलते ही रहता है। ऐसे में एक गरीब और मेहनतकश महिला ने दो बच्चों के साथ जीते हुए ऐसी विपरीत परिस्थिति में भी एक परीक्षा में कामयाबी पाई है, तो इससे देश के उन तमाम लोगों को नसीहत लेनी चाहिए जो मां-बाप की छाती पर मूंग दलते रहते हैं।

इससे एक बात यह भी सूझती है कि विपरीत पारिवारिक और सामाजिक परिस्थितियों वाली एक महिला किस तरह अपने दमखम पर एक तैयारी कर सकती है, और अपने बच्चों के साथ घर चलाते हुए भी वह एक ऐसे मुकाबले में कामयाब होकर दिखाती है जिसकी कोचिंग के लिए लोग लाखों रुपए की फीस भी देते होंगे। इससे यह भी साबित होता है कि बिना कोचिंग के भी बहुत से लोग इस तरह कामयाब हो सकते हैं, और समाज में ऐसी संभावनाओं वाले लोगों को थोड़ा सा और बढ़ावा देने के लिए सरकार और समाज दोनों को सोचना भी चाहिए। एक बात जो इससे लगी यह भी सूझती है कि एक महिला अपनी आत्मनिर्भरता की वजह से पारिवारिक परिस्थितियों से बाहर निकल कर अपने बच्चों के साथ अकेले जीने का हौसला जुटा सकती है। और इसके लिए उसके पास कोई बड़ी नौकरी भी नहीं थी वह झाड़ू लगाने का सबसे ही तिरस्कृत समझा जाने वाला काम कर रही थी, लेकिन उतनी आत्मनिर्भरता भी बच्चों के साथ जिंदगी के लिए काफी थी, और जो कमी थी वह उसका हौसला पूरा कर रहा था। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भी उसने इस मुकाबले की तैयारी की और कामयाबी पाई। यह कामयाबी तैयारी करने की सहूलियत वाले लोगों के आईएएस बनने के मुकाबले भी कहीं अधिक मायने रखती है क्योंकि यह बिल्कुल ही वंचित तबके और विपरीत परिस्थिति की कामयाबी है।

आज इस मुद्दे पर लिखते हुए दरअसल सूझ रहा है कि समाज को वंचित तबके को बराबर की संभावनाएं जुटाकर देने के लिए क्या-क्या करना चाहिए। अब यह महिला तो असाधारण रूप से प्रतिभाशाली और कामयाब दोनों ही निकली, लेकिन बहुत से और युवक-युवतियां रहते हैं जो तैयारी की कमी से बराबरी तक नहीं पहुंच पाते। जिस तरह बिहार में एक आनंद कुमार आईआईटी में दाखिले के लिए गरीब बच्चों को तैयारी करवाते हैं, वैसा काम देशभर में बहुत से लोग कर सकते हैं, और हम ऐसी पहल और ऐसी कोशिशों को सिर्फ दाखिला इम्तिहानों तक सीमित रखना नहीं चाहते, बल्कि कई तरह के ऐसे हुनर सिखाने के बारे में भी हम सोच रहे हैं जिनसे लोग अपने-अपने दायरे में ही तरक्की कर सकें। आज हिंदुस्तान में करोड़ों लोग घरेलू सहायक के रूप में काम करते हैं, लेकिन उनमें से अधिकतर ऐसे रहते हैं जो कि जो कि घरेलू कामकाज में भी बहुत सी चीजें नहीं जानते। ऐसे लोगों को दूसरी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी का मौका दिलवाने के बाद अगर वहां उन्हें कामयाबी नहीं मिलती है तो उनके हुनर में कुछ खूबियां जोडऩे की कोशिश करनी चाहिए ताकि वे जहां हैं, वहां बेहतर काम कर सकें और बेहतर तनख्वाह पा सके। सरकार से कुछ तबके तो बढ़ावे की उम्मीद कर सकते हैं, जैसे कि कई राज्यों में दलित और आदिवासी बच्चों के लिए दाखिला परीक्षाओं के प्रशिक्षण केंद्र चलते हैं, लेकिन तमाम गरीब और जरूरतमंद बच्चों के लिए ऐसी मदद की गुंजाइश बाकी ही है, और समाज को इस बारे में सोचना चाहिए। सरकारों को यह भी सोचना चाहिए कि सरकारी स्कूल-कॉलेज का जो ढांचा शाम और रात के घंटों में खाली रहता है, छुट्टियों के दिनों में खाली रहता है, उसका इस्तेमाल ऐसी तैयारियों के लिए करने देना चाहिए और आसपास के कुछ उत्साही लोग पढ़ाने के लिए शिक्षक भी ढूंढ सकते हैं। राजस्थान की इस एक महिला ने संभावनाओं की एक नई राह दिखाई है, समाज की यह जिम्मेदारी है कि वह इसे आगे बढ़ाएं।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 


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