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रायपुर, 30 जुलाई। ‘‘पवित्र-निर्मल-उज्जवल बनाने जैसी यदि कोई चीज है तो वह है हमारा मन। सन्मार्ग पर चलने के लिए देश बदला, परिवेश बदला, वेश बदला और सब कुछ बदल दिया पर मन न बदला, मन संसार में ही अटका रहा तो सब कुछ बेकार हो जाता है। मन की दशाएं न बदलीं तो सारे बदलाव व्यर्थ हो जाते हैं। मन की बदलती दशाओं के नियामक हम खुद हैं।’’
ये प्रेरक उद्गार राष्ट्रसंत महोपाध्याय श्रीललितप्रभ सागरजी महाराज ने आउटडोर स्टेडियम बूढ़ापारा में जारी दिव्य सत्संग ‘जीने की कला’ के अंतर्गत स्वास्थ्य सप्ताह के पंचम दिवस शुक्रवार को ‘मन के दोषों को कैसे करें दूर’ विषय पर व्यक्त किए।
राष्ट्र्संत चंद्रप्रभजी द्वारा रचित प्रेरक गीत ‘जिया कब तक उलझेगा संकल्प-विकल्पों में, कब तक यूं भटकेगा तू मन के द्वंद्वों में...’ के बोधगम्य गान से दिव्य सत्संग का शुभारंभ करते हुए संतप्रवर ने कहा कि मन की चंचलता-उसकी बदलती दशाओं के नियामक हम खुद हैं।
ये मत कहो कि मुझे गुस्सा आ गया, गुस्से को आपने खुद पैदा किया है। हमारे मन की दशा मंथन के दौरान सृजक बने समुद्र की तरह है, जो अपने में से अमृत देता है तो जहर भी देता है। आदमी का मन भी बड़ा गजब का है, कभी इसमें से अमृत निकलकर आता है और कभी जहर निकलकर आता है।
इस दुनिया में जो अमृत पीते हैं वे देव, जो जहर पीते हैं वे महादेव और जो बेचारे अमृत और विष दोनों को पीते हैं वे इंसान कहलाते हैं। मन की भावदशाओं अर्थात् मन की बदलती दशाओं का परिणाम ऐसा घातक भी हो सकता है कि आराधनाएं भी विराधना में बदल सकती हैं।
मन की भावदशाएं बदल जाएं तो खुद को जीतने निकला संन्यासी-संत भी संसार की आसक्तियों से हार सकता है। जीवन की अंतिम सांस तक जिसके मन में परम वैराग्य के भाव बने रहते हैं वह संत होता है।
उसकी साधना सफल हो जाती है।
कोई राम तो कोई रावण, यह मन की दशा का खेल
संतश्री ने कहा कि ये मन की दशा का खेल है- मन सुधरा तो एक इंसान राम बन जाता है, मन बिगड़ा तो एक इंसान रावण बन जाता है।


