-सरोज सिंह
त्योहार लोहड़ी का है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सुबह-सुबह लोगों को बधाई और शुभकामना का संदेश दिया. लेकिन दिन चढ़ते-चढ़ते त्योहार के दिन उनके बीजेपी खेमे में सन्नाटा पसर गया.
पिछले तीन दिन में बीजेपी के 10 से ज़्यादा विधायकों ने इस्तीफ़ा दे दिया है जिसमें तीन मंत्री भी शामिल हैं. ये सब कुछ टिकट बंटवारे की घोषणा के ठीक पहले हो रहा है. संभावना जताई जा रही है कि इस्तीफ़ों की संख्या और बढ़ सकती है.
चुनावी मौसम में इस तरह से पार्टियों से नेताओं का निकलना और दूसरी पार्टियों में शामिल होना भारतीय राजनीति में कोई नई बात नहीं है. कुछ नेताओं का ऐसा करने पर सुर्ख़ियों में आना स्वाभाविक भी है.
लेकिन इस बार जो बात नई हुई है वो है इस्तीफ़ों की स्क्रिप्ट, अखिलेश यादव के फ़ोटो ट्वीट करने का सिलसिला और केशव प्रसाद मौर्य का उन नेताओं को मनाने वाला एक ट्वीट. ज़्यादातर इस्तीफ़े में यही पैटर्न देखने को मिला.
बीजेपी से निकलने वाले हर नेता ने कमोबेश अपने इस्तीफे़ में ग़रीब वंचित तबके के प्रति बीजेपी के बर्ताव को ज़िम्मेदार ठहराया. इस्तीफ़े की ख़बर आते ही अखिलेश यादव अपने साथ उनमें से कुछ-एक नेता की तस्वीर ट्वीट करते और उनके लिए स्वागत संदेश लिखते नज़र आए.
बीजेपी ने भी बुधवार को तीन चेहरे अपने साथ शामिल किए जिनमें से एक मुलायम सिंह यादव के क़रीबी बताए जाते हैं. लेकिन उसकी चर्चा मीडिया में कम हुई.
लोहड़ी के दिन ही कांग्रेस ने यूपी चुनाव के लिए 125 उम्मीदवारों की सूची जारी की. इसमें 50 महिलाओं को टिकट दिया गया. ये ख़बर हर जगह चली, लेकिन इतनी 'वायरल' नहीं हुई जितनी अखिलेश यादव की ट्वीट की गई फ़ोटो और इस्तीफ़े की स्क्रिप्ट.
इमरान मसूद का दल बदलना चर्चा में रहा, लेकिन उनके सगे भाई का बीएसपी में शामिल होने पर कहीं उफ़ तक नहीं हुई. जबकि मायावती ने लोहड़ी के दिन इस बारे में ट्वीट भी किया.
ऐसा क्यों? उत्तर प्रदेश चुनाव में यूं तो आम आदमी पार्टी, एआईएमआईएम जैसी छोटी पार्टियां भी भाग्य आज़मा रही हैं और सपा,बीएसपी, भाजपा और कांग्रेस भी मैदान में हैं, लेकिन चर्चा में दो पार्टियां ज़्यादा रहती हैं.
बीजेपी और समाजवादी पार्टी पर ज़्यादा चर्चा
क्या उत्तर प्रदेश के चुनाव में मुख्य मुक़ाबला केवल दो पार्टियों समाजवादी पार्टी और बीजेपी के बीच ही रह गया है या फिर कांग्रेस और बीएसपी भी ज़मीनी लड़ाई में अपना भविष्य देख सकते हैं?
चुनाव में राजनीतिक पार्टियों की सफलता-असफलता कई बातों पर निर्भर करती है जैसे पार्टी का संगठन और बूथ मैनेजमेंट कैसा है, टिकट बंटवारे में किन-किन बातों का ख़्याल रखा गया, हर सीट के जातिगत समीकरण कैसे हैं, पार्टी ने गठबंधन किनके साथ किया है, चुनाव से पहले प्रचार-प्रसार किसने, कितना किया आदि-आदि.
इसके अलावा पार्टी का मीडिया प्रबंधन और दूसरी कई बातें जीत हार तय करती है. इस बार कोरोना महामारी भी एक बहुत बड़ा फैक्टर है. वरिष्ठ पत्रकार सुनीता एरॉन कहती हैं, "बड़े स्तर पर देखें तो उत्तर प्रदेश में मुख्य मुक़ाबला बीजेपी और समाजवादी पार्टी के बीच है. पिछले 10-15 दिनों में परिस्थितियां तेज़ी से बदली हैं. जिस तरह से विधायकों का 'पलायन' बीजेपी से समाजवादी पार्टी की तरफ़ हो रहा है, उससे दो पार्टियों के बीच मुकाबला होने की बात को और बल मिलता है."
पिछले दो दिन में 10 से ज़्यादा विधायक इस्तीफ़ा दे चुके हैं जिनमें तीन मंत्री शामिल हैं.
वो आगे कहती हैं, "राजनीति में विधायकों को 'मौसम वैज्ञानिक' कहा जाता है क्योंकि वो जीत-हार का रूख़ पहले भांप लेते हैं. बीजेपी छोड़ने वालों का समाजवादी पार्टी में जाना इस बात का इशारा है कि विधायकों को भी लग रहा है मुकाबला इन्हीं दोनों के बीच है."
कांग्रेस और बीएसपी की स्थिति
बीएसपी के बारे में वो कहती हैं, " बीएसपी कहती है पहले टिकट बंटवारा होगा और बाद में मायावती चुनावी रैलियां और दौरे करेंगी. ये उनके प्रचार का पैटर्न है. पार्टी में नंबर 2 की हैसियत रखने वाले सतीश चंद्र मिश्रा आरक्षित सीटों का दौरा कर चुके हैं, लेकिन चुनाव के पहले वाले प्रचार मोड में वो नहीं दिखे. उनकी पार्टी भी बहुत लोगों ने छोड़ी है, पार्टी में कुछ नए लोग आए भी हैं."
कांग्रेस बारे में सुनीता एरॉन कहती हैं, "प्रियंका गांधी सक्रिय दिख रही हैं. कुछ मुद्दे उन्होंने समाजवादी पार्टी से पहले उठाए जैसे लखीमपुर खीरी का मामला हो या हाथरस का मामला, वो ख़ुद हाथरस पहुँचीं भी. लेकिन कांग्रेस के पास उस तरह की अपील अब नहीं है जो दूसरी पार्टियों के पास है. कांग्रेस उत्तर प्रदेश में बूथ लेवल पर कमेटी का गठन अब भी कर ही रही है. बीजेपी का बूथ मैनेजमेंट बहुत अच्छा है, बीएसपी भी जहाँ अच्छा प्रदर्शन करती है वो बूथ मैनेजमेंट की बदौलत ही करती है. अखिलेश यादव ने अभी अपना बूथ मैनेजमेंट सुधारा है."
लेकिन वो ये भी जोड़ती हैं कि दो पार्टियों के बीच मुक़ाबला कहने का मतलब ये नहीं कि बाक़ी पार्टियों का वजूद ही नहीं रहा या उनका कोई असर नहीं होगा. बीएसपी, कांग्रेस या दूसरे छोटे दलों को इसलिए ख़ारिज नहीं कर सकते क्योंकि बहुत सीटों पर उम्मीदवार, जातिगत समीकरण, लोकल मुद्दे, नोटा, वोट काटने वाले दलों के उम्मीदवार - ये भी मायने रखते हैं.
चुनाव में हर महीने बदलता नैरेटिव
उत्तर प्रदेश चुनाव की तारीख़ का एलान हुए अभी कुछ ही दिन हुए हैं, लेकिन इसको लेकर हलचल पिछले एक साल से चल रही है.
सबसे पहले लगा जैसे किसान आंदोलन यूपी चुनाव का मुख्य मुद्दा होगा, फिर अब्बाजान, जिन्ना और औरंगज़ेब पर बात होने लगी, फिर काशी- मथुरा और हिंदुत्व का दौर भी आया, बीच में पूर्वांचल एक्सप्रेस वे और बाक़ी विकास की योजनाओं पर बहस हुई, फिर पलायन, बेरोज़गारी, महँगाई को लेकर चर्चाएं हुईं, रह-रह कर कोरोना महामारी के प्रबंधन पर सवाल उठे तो कभी किसान सम्मान निधि और मुफ़्त राशन को गेम चेंजर करार दिया गया.
अब पिछले तीन दिन से ओबीसी वोट बैंक की चर्चा है.
वरिष्ठ पत्रकार अदिति फडनीस कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों से जनता का चुनावी मिज़ाज टटोलकर वापस लौटी हैं. वो कहती हैं कि उत्तर प्रदेश चुनाव में मुख्य मुक़ाबला बीजेपी गठबंधन और समाजवादी पार्टी के गठबंधन के बीच ही है. कांग्रेस और बीएसपी लड़ाई में नहीं दिख रहे.
अपने आकलन के पीछे वो तर्क भी देती हैं. जाति के आधार पर उत्तर प्रदेश में चुनाव पहले भी लड़े जाते थे और इस बार भी लड़े जा रहे हैं. लेकिन पिछले कुछ दिनों के घटनाक्रम के बाद साफ़ दिख रहा है कि ओबीसी वोट बैंक काफी मुखर हो कर अपना मत व्यक्त कर रहा है. ये संयोग नहीं है कि योगी सरकार से निकलने वाले मंत्री और विधायक लोअर ओबीसी से आते हैं.
वो आगे कहती हैं, "चुनाव के एलान के बाद और टिकट बंटवारे से पहले नेताओं का पार्टियां बदलना आम बात है. लेकिन जिस अंदाज़ में इस्तीफ़े दिए गए और जनता के बीच जो पर्सेप्शन जा रहा है वो ये है कि बात टिकट बंटवारे से आगे निकल चुकी है. आने वाले समय में उत्तर प्रदेश चुनाव में 'सोशल जस्टिस' यानी 'सामाजिक न्याय' का मुद्दा बहुत ज़ोर-शोर से अचानक से उठेगा."
अखिलेश यादव भी पिछले तीन दिन से ट्विटर पर पोस्ट करने वाले तस्वीर के साथ 'सामाजिक न्याय' शब्द जोड़ना नहीं भूल रहे.
सामाजिक न्याय के मुद्दे को विस्तार से समझाते हुए अदिति कहती हैं कि इस मुद्दे को बीजेपी विरोधी इस तरीके से भुनाने की कोशिश करेंगे की बीजेपी ठाकुरों और ब्राह्मणों की पार्टी है और ग़रीब, वंचित, ओबीसी, दलितों का ख़्याल नहीं रखती. उनके मुताबिक़ पहले भी चुनाव में इस तरह के मुद्दे उठते रहे हैं लेकिन खुल कर इस पर बात और बहस पहली बार हो रही है.
ग़ौरतलब है कि योगी सरकार के तीनों बड़े मंत्रियों और बाक़ी विधायकों के इस्तीफे़ की लाइनें लगभग एक जैसी हैं. दारा सिंह चौहान ने अपने इस्तीफे़ में लिखा - सरकार की पिछड़ों, वंचितों, दलितों, किसानों और बेरोज़गार नौजवानों के घोर उपेक्षात्मक रवैए के साथ-साथ पिछड़ों और दलितों के आरक्षण के साथ जो खिलवाड़ हो रहा है, उससे आहत होकर मैं उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे रहा हूँ. धर्म सिंह सैनी और स्वामी प्रसाद मौर्य के इस्तीफ़े में भी समाज के इन वर्गों के ख़िलाफ़ दोहरे रवैये की बात की गई थी.
महिला वोट और वोटर
इन सबके बीच एक नेरेटिव बदलने की कोशिश कांग्रेस की तरफ़ से भी की जा रही है.
कांग्रेस ने इस बार के चुनाव में नारा दिया है, 'लड़की हूँ लड़ सकती हूँ'. महिलाओं को अपने साथ लाने के लिए गुरुवार को पार्टी ने 50 महिलाओं को टिकट देने की घोषणा की.
उत्तर प्रदेश विधानसभा में अभी 44 महिला विधायक हैं, यानी महिलाओं की भागीदारी 10 प्रतिशत है. इसमें भारतीय जनता पार्टी की 37, समाजवादी पार्टी की 2, बीएसपी की 2, कांग्रेस की 2 और अपना दल की 1 महिला विधायक हैं.
अदिति कहती हैं, 'शी फ़ैक्टर' पर सभी पार्टियां पहले से काम कर रही हैं. उत्तर प्रदेश में ही नहीं बाक़ी राज्यों में भी. यहाँ तक की केजरीवाल की पार्टी ने भी महिलाओं को हर महीने पैसे देने का भी एलान किया है."
सुनीता एरॉन कहती हैं, "उत्तर प्रदेश में महिला वोटरों की संख्या भी अच्छी है और साल दर साल उनके विधानसभा में जीत कर आने की संख्या भी बढ़ी है. लेकिन अब भी प्रदेश में एकजुट होकर वोट बैंक की तरह वोट नहीं करतीं. कांग्रेस के नए नारे के बाद, ये मान लेना कि अब प्रदेश की महिलाएं केवल कांग्रेस के लिए इस वजह से वोट करेंगी की प्रियंका गांधी महिला हैं या उनकी उम्मीदवार महिला है. हो सकता है कि कुछ महिलाएं ऐसा करें, लेकिन उत्तर प्रदेश में इस पूरे नेरेटिव को एक अलग मुद्दा बनाने में समय लगेगा."
सुनीता मानती हैं कि बदलते मुद्दों के बीच जो दो बातें पूरे समय चुनाव में रह-रह कर उभर कर आएंगी वो दो ही हैं - हिंदू और ओबीसी का मुद्दा या फिर कहें हिंदुत्व और मंडल का मुद्दा."
टिकट बंटवारे के असर
वैसे इस्तीफ़ों की झड़ी के बीच एक ख़बर ये भी आ रही है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अयोध्या से चुनाव लड़ सकते हैं. इसे भी बीजेपी के हिंदू एजेंडे से जोड़ कर देखा जा रहा है. हालांकि ख़बर लिखे जाने तक बीजेपी की तरफ़ से इसकी पुष्टि नहीं हुई थी.
तो क्या अंत समय में टिकट बंटवारे से चीज़ें बदल या बिगड़ सकती हैं?
अदिति कहती हैं, "टिकट बंटवारे से चुनाव का रुख़ तब बदल सकता है जब पार्टी ने किसी का टिकट बदला हो, काटा हो और उस सीट से जिसका टिकट कटा वो इतना ताक़तवर हो कि संगठन की पहुँच से उसकी पहुँच ज़्यादा हो. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और बीएसपी के पास ऐसे चेहरे नहीं हैं कि जो इस तरह से सीटों पर समीकरण बदल दें."
हालांकि कई जानकार मानते हैं बीजेपी और सपा खेमे में टिकट बंटवारे का सीधा असर नतीज़ों पर दिखेगा. टिकट बंटवारा ही बीजेपी में मची भगदड़ का मुख्य सबब है और आने वाले दिनों में सपा खेमे से भी कुछ रूठने-मनाने की ख़बरें आ सकती हैं.
2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 325 सीटों पर जीत मिली थी, समाजवादी पार्टी 50 का आँकड़ा नहीं छू पाई थी. बीएसपी को 19 सीटों से संतोष करना पड़ा था जबकि कांग्रेस के खाते में 7 सीटें ही आई थीं. (bbc.com)