विचार/लेख
राहुल गांधी पर रामचन्द्र गुहा, और
उनसे असहमत राजमोहन गांधी
देश के एक प्रमुख राजनीतिक-इतिहासकार रामचन्द्र गुहा आमतौर पर मोदी के आलोचक के रूप में अखबारों में दिखते हैं। लेकिन मोदी की आलोचना का मतलब यह नहीं कि वे राहुल गांधी के प्रशंसक हों। उन्होंने अभी एनडीटीवी पर एक लेख में ऐसी वजहें गिनाई हैं कि राहुल गांधी किन पांच वजहों से मोदी के मुकाबले खड़े नहीं हो सकते।
अब उनके तर्कों के मुकाबले एक दिलचस्प मोड़ तब आया जब एक भूतपूर्व केन्द्रीय मंत्री, वर्तमान में अमरीका में पढ़ा रहे राजमोहन गांधी ने एक जवाबी लेख लिखा- मैं राहुल गांधी पर रामचन्द्र गुहा के आंकलन से असहमत हूं।
हम एनडीटीवी के सौजन्य से ये दोनों लेख यहां दे रहे हैं, लोग पहले रामचन्द्र गुहा का लेख पढक़र फिर राजमोहन गांधी का लेख पढ़ें, और फिर अपना दिमाग खुद बनाएं। -संपादक
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I Disagree With Ram Guha's Assessment Of Rahul Gandhi
by - Rajmohan Gandhi
I am responding not because I am devoted to the prospect that seems to depress Guha - the projection of Rahul Gandhi as an electoral alternative to Modi. The year 2024 is too far, and by then the Congress, the opposition and the country may have several options to choose from. My problems with Guha's article are different.
Before spelling them out, let me summarize Guha's "five reasons". Firstly, says Guha, Rahul comes up with poor slogans. Next, Rahul's speaking skills are weak, especially in Hindi. Thirdly, Rahul has no experience of managing a government department or a private company. Fourthly, he lacks stamina and tenacity. Finally, Rahul is a dynast at a time when, in Guha's assessment, the public is more willing to blame an heir for the failures, real or perceived, of forebears than to look up to someone because of his or her ancestry.
My first problem is with the article's suggestion that "the battle against Hindutva", to use one of Guha's phrases, is primarily an electoral affair. Much before we face another national election, we have to recognize what is taking place before our eyes right now: the systematic hacking of pillars that have kept our democratic house from falling to the ground.
We see the Supreme Court deferring critical petitions that involve the lives and rights of millions. Enforcement officers making well-timed raids on opposition politicians and their relatives. A parliament unable or unwilling to debate pressing issues. Policemen chasing the kin but not the killers of a murdered person.
A Prime Minister monopolizing state-owned media and government-paid hoardings across the country but refusing to face a probing reporter. Private but pervasive TV channels filling the country's air with toxic ill-will towards particular communities. Universities pressurized to compromise on scholarly independence. Students being coerced, often with police batons, to fall in line. Etcetera, etcetera.
क्लिक करें और यह भी पढ़ें : 5 Reasons Why Rahul Gandhi Cannot Take On Modi For PM - Ramachandra Guha
While well aware of this reality, Ram Guha gives undue centrality to the electoral challenge. He also seems to imply that a future electoral battle will be a fair one. Will it?
Where will opposition parties find the money? Will even remotely fair debates be allowed on TV channels? How will opposition candidates, and their relatives and supporters, cope with raids by officers of the state? With criminal charges of inciting disaffection and violence, or of sedition? With physical threats?
It's a tribute to the Election Commission of India (and to the thousands of government employees placed under its control for the weeks of voting) that most Indian elections so far seem to have reflected popular opinion. Can we be certain that this will be so in the future too?
Believing that it will be, elections will be fought in 2024. But guts will then be more important than ever before, and far more important than oratorical skills. There appears to be sufficient evidence that Rahul Gandhi is not deficient in this indispensable requirement.
A seasoned scholar of political and historical personalities, Guha should acknowledge this quality in his analysis of Rahul Gandhi. For the sake of fairness, Guha should also, I think, admit that suit-boot-ki-sarkar was a pretty effective slogan that Rahul employed. And while chowkidar chor hai did not prove a winning slogan, and was also disapproved by many of his supporters, Rahul has played a necessary role in puncturing (for a good number of Indians) the manufactured image of a larger-than-human Modi.
Taking a politician down may be an unavoidable and even a required task in a democracy, but I would like to suggest that in today's India, all of us who think of ourselves as critical commentators may need to re-examine our role.
With democracy, dissent, secularism and pluralism under sustained attack from forces with immense resources, lovers of these values will help their purpose by building up every individual who puts up a genuine fight to defend the values. Rahul Gandhi is certainly not the only one in the Congress or in the opposition as a whole who is putting up a real fight.
But he definitely seems to be fighting. I love him for that. And he has been fighting month after month, and year after year. I admire him for that.
Anyone working for liberty, equality and fraternity in India is my ally today. She or he or they may be in the Congress, in the Communist Party, the NCP, the TMC, the DMK, whatever. In the Shiv Sena, the Muslim League. Or in the BJP or the JDU. It doesn't matter. They may be rich or poor, Dalit or Brahmin or Rajput or OBC or whatever. Doesn't matter. Hindu, Sikh, Muslim, Christian, atheist, whatever. Doesn't matter.
Anonymous, unknown, or a dynast. Doesn't matter. I will root for any and every person working for more liberty, equality and fraternity in India. And I will quietly pray for mutual goodwill among all these persons.
When the time comes, popular pressure will compel political unity, and the right person will be chosen to lead an electoral alliance against domination and coercion.
The Test matches are some distance away, but important contests are taking place every day. It's a tough pitch to play in today, the light is poor, there's wind and rain, and we don't know how impartial the umpires are. But Rahul Gandhi is playing with pluck. Bravo!
(Rajmohan Gandhi is presently teaching at the University of Illinois at Urbana-Champaign.)
- Dhruv Gupt
तमाम काल्पनिक देवी-देवताओं और अंधविश्वासों के बीच भी हमारे पुराणों में ऐसी कुछ चीजें हैं जो अपनी दृष्टिसम्पन्नता और सरोकारों से चकित करती हैं। शिव और पार्वती के पुत्र गणेश प्रकृति की शक्तियों के ऐसे ही एक विराट रूपक है। गणेश का मस्तक हाथी का है। चूहे उनके वाहन हैं। बैल नंदी उनका गुरू। मोर और सांप परिवार के सदस्य ! पर्वत उनका आवास है। वन उनका क्रीड़ा-स्थल। आकाश उनकी छत। गंगा के स्पर्श से पार्वती द्वारा गढ़ी गई उनकी आकृति में जान आई थी, इसीलिए उन्हें गांगेय कहा गया। गणेश के चार हाथों में से एक हाथ में जल का प्रतीक शंख, दूसरे में सौंदर्य का प्रतीक कमल, तीसरे में संगीत का प्रतीक वीणा और चौथे में शक्ति का प्रतीक परशु या त्रिशूल हैं। उनकी दो पत्नियां - रिद्धि और सिद्धि वस्तुतः देह में हवा के आने और जाने अर्थात प्राण और अपान की प्रतीक हैं जिनके बगैर कोई जीवन संभव नहीं।
गणेश और प्रकृति के एकात्म का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि उनकी पूजा महंगी पूजन-सामग्रियों से नहीं, प्रकृति में मौजूद इक्कीस पेड़-पौधों की पत्तियों से करने का प्रावधान है। हरी दूब गणेश को प्रिय है। जबतक इक्कीस दूबों की मौली उन्हें अर्पित नहीं की जाय, उनकी पूजा अधूरी मानी जाती है। शास्त्रों में उल्लेख है कि आम, पीपल और नीम के पत्तों वाली गणेश की मूर्ति घर के मुख्यद्वार पर लगाने से घर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। हमारे पूर्वजों द्वारा गणेश के इस अद्भुत रूप की कल्पना संभवतः यह बताने के लिए की गई है कि प्रकृति की शक्तियों से सामंजस्य बिठाकर मनुष्य शक्ति, बुद्धि, कला, संगीत, सौंदर्य, भौतिक सुख और आध्यात्मिक ज्ञान सहित कोई भी उपलब्धि हासिल कर सकता है। यही कारण है कि संपति, समृद्धि, सौन्दर्य की देवी लक्ष्मी और ज्ञान, कला, संगीत की देवी सरस्वती की पूजा गणेश के बिना पूरी नहीं मानी जाती है।
होता यह है कि प्रतीकों को समझने की जगह हम प्रतीकों को ही आराध्य बना लेते हैं और वे तमाम चीज़ें विस्मृत हो जाती हैं जिनकी याद दिलाने के लिए वे प्रतीक गढ़े गए थे। गणेश के वास्तविक स्वरुप को भुलाने का असर प्रकृति के साथ हमारे रिश्तों पर पड़ा है। आज प्रकृति अपने अस्तित्व के सबसे बड़े संकट से रूबरू हैं और इस संकट में हम उसके साथ नहीं, उसके खिलाफ खड़े हैं। गणेश के अद्भुत स्वरुप को पाना है तो उसके लिए मंदिरों और मूर्तियों, मंत्रों और भजन-कीर्तन का कोई अर्थ नहीं। गणेश हम सबके भीतर हैं। प्रकृति, पर्यावरण और जीवन को सम्मान और संरक्षण देकर हम अपने भीतर के गणेश को जगा सकते हैं !
मित्रों को गणेश चतुर्थी की शुभकामनाएं !
अनंत प्रकाश
केंद्र सरकार ने बीते बुधवार सरकारी क्षेत्र की तमाम नौकरियों में प्रवेश के लिए एक राष्ट्रीय भर्ती एजेंसी गठित करने का फैसला किया है।
सरकार का दावा है कि ये एजेंसी केंद्र सरकार की नौकरियों में प्रवेश प्रक्रिया में परिवर्तनकारी सुधार लेकर आएगी और पारदर्शिता को भी बढ़ावा देगी।
इस एजेंसी के तहत एक कॉमन एलिजिबिलिटी टेस्ट यानी समान योग्यता परीक्षा आयोजित की जाएगी जो कि रेलवे, बैंकिंग और केंद्र सरकार की नौकरियों के लिए ली जाने वाली प्राथमिक परीक्षा की जगह लेगी।
वर्तमान में युवाओं को अलग अलग पदों के लिए आयोजित की जाने वाली परीक्षाओं में भाग लेने के लिए भारी आर्थिक दबाव और अन्य तरह की मुश्किलें झेलनी पड़ती हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने आधिकारिक ट्विटर अकाउंट से ट्वीट करके कैबिनेट के इस फ़ैसले की प्रशंसा की है।
प्रधानमंत्री मोदी ने लिखा है, राष्ट्रीय भर्ती एजेंसी करोड़ों युवाओं के लिए एक वरदान साबित होगी। सामान्य योग्यता परीक्षा (कॉमन एलिजिबिलिटी टेस्ट) के जरिये इससे अनेक परीक्षाएं ख़त्म हो जाएंगी और कीमती समय के साथ-साथ संसाधनों की भी बचत होगी। इससे पारदर्शिता को भी बड़ा बढ़ावा मिलेगा।
कॉमन एलिजिबिलिटी टेस्ट क्या है?
भारत में हर साल दो से तीन करोड़ युवा केंद्र सरकार और बैंकिग क्षेत्र की नौकरियों को हासिल करने के लिए अलग अलग तरह की परीक्षाओं में हिस्सा लेते हैं।
उदाहरण के लिए बैंकिंग क्षेत्र में नौकरियों के लिए ही युवाओं को साल में कई बार आवेदन पत्र भरना पड़ता है। और प्रत्येक बार युवाओं को तीन-चार सौ रुपये से लेकर आठ-नौ सौ रुपये तक की फीस भरनी पड़ती है।
लेकिन नेशनल रिक्रूटमेंट एजेंसी अब ऐसी ही तमाम परिक्षाओं के लिए एक कॉमन एलिजिबिलिटी टेस्ट का आयोजन करेगी।
नेशनल रिकू्रटमेंट एजेंसी क्या है, जिसे मोदी युवाओं के लिए वरदान कह रहे हैं
नई शिक्षा नीति क्या लड़कियों की स्कूल वापसी करा पाएगी?
इस टेस्ट की मदद से एसएससी, आरआरबी और आईबीपीएस के लिए पहले स्तर पर उम्मीदवारों की स्क्रीनिंग और परीक्षा ली जाएगी।
प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो के मुताबिक, कॉमन एलिजिबिलिटी टेस्ट एक ऑनलाइन परीक्षा होगी जिसके तहत ग्रेजुएट, 12वीं पास, और दसवीं पास युवा इम्तिहान दे सकेंगे।
ख़ास बात ये है कि ये परीक्षा शुरू होने के बाद परीक्षार्थियों को अलग अलग परीक्षाओं और उनके अलग-अलग ढंगों के लिए तैयारी नहीं करनी पड़ेगी।
क्योंकि एसएससी, बैंकिंग और रेलवे की परीक्षाओं में पूछे जाने वाले सवालों में एकरूपता नहीं होती है। ऐसे में युवाओं को हर परीक्षा के लिए अलग तैयारी करनी पड़ती है।
कैसे होगी ये परीक्षा?
इन परीक्षाओं को देने के युवाओं को कम उम्र में ही घर से दूर बनाए गए परीक्षा केंद्रों तक बस और रेल यात्रा करके जाना पड़ता था।
सरकार की ओर से ये दावा किया जा रहा है कि राष्ट्रीय भर्ती परीक्षा युवाओं की इन मुश्किलों को हल कर देगी क्योंकि इस परीक्षा के लिए हर जिले में दो सेंटर बनाए जाएंगे।
इसके अलावा इस परीक्षा में हासिल स्कोर तीन सालों तक वैद्य होगा। और इस परीक्षा में अपर एज लिमिट नहीं होगी।
इस परीक्षा से क्या बदलेगा?
शिक्षा क्षेत्र से जुड़े विशेषज्ञ मान रहे हैं कि ये एक ऐसा सुधारवादी कदम है जिसकी काफी समय से प्रतीक्षा की जा रही थी।
करियर काउंसलर अनिल सेठी मानते हैं कि सरकार के इस कदम अच्छा है और इसका असर भी दीर्घकालिक होगा लेकिन ये बात नहीं भूलनी चाहिए कि ये सुधार की दिशा में पहला कदम है।
वे कहते हैं, अगर आपको अलग अलग बहुत सारे दरवाजों पर जाना है, बहुत सारी जगह फॉर्म भरने हैं और अलग अलग जगह स्क्रूटनी होनी है तो ये एक लंबी प्रक्रिया है। इसमें लोगों को बहुत दिक्कतें होती हैं। ये मेरी व्यक्तिगत राय है कि ये बहुत साल पहले हो जाना चाहिए था।
एसएससी, बैंक और रेलवे ये तीन रास्ते हैं जहां से सरकारी नौकरियों में प्रवेश होता है। ऐसे में व्यक्ति जब ये इम्तिहान देगा तो इसका स्कोर तीन साल तक वैध रहेगा। इसके बाद युवा एसएससी, बैंक और रेलवे में से किसी भी परीक्षा में बैठ सकेगा। मेरे ख्याल से ये एक बेहतर कदम है।
अब सवाल उठता है कि ये कदम परीक्षार्थियों पर कैसा असर डालेगा।
बीबीसी से बात करते हुए ऐसे ही एक परीक्षार्थी पूर्वेश शर्मा बताते हैं कि ये कदम उन जैसे तमाम स्टूडेंट्स के लिए कुछ दुश्वारियों को कम कर देगा।
नेशनल रिकू्रटमेंट एजेंसी लेगी सरकारी नौकरियों की परीक्षा
वे कहते हैं, अब तक जो जानकारी मिल रही है, उसके मुताबिक ये अच्छा होगा। क्योंकि अब तक आप एक पेपर दिया करते थे। लेकिन अगर आपकी तबियत खराब होने या किसी अन्य वजह से आप वह पेपर नहीं दे पाते थे तो आपका पूरा साल खराब हो जाता था। अब सरकार ने जो बताया है, उसके मुताबिक ये पेपर साल में दो बार होगा।
एक बड़ी बात ये भी है कि पहले आपको हर पेपर के लिए अलग अलग फॉर्म भरने होते थे। एसएससी में क्लर्क और सीजीएल दोनों का पेपर देना होता था तो दोनों के लिए फॉर्म अलग से भरने पड़ते थे। ऐसे में गऱीब छात्रों के लिए बड़ी दिक्कत हो जाती है क्योंकि आईबीपीएस का एक फॉर्म ही जनरल कैटेगरी के लिए आठ सौ रुपये का होता है। और अब बच्चों को ऐसे कई फॉर्म भरने होते हैं, ऐसे में बच्चों पर काफ़ी बोझ पड़ जाता है। अब कम से कम प्री की परीक्षा एक ही हो जाएगी जिसके बाद आप अपनी इच्छा से जिस भी सेक्टर में जाना चाहें, उसके मेंस परीक्षा की तैयारी करवा सकते हैं।
तैयारी कर रहे बच्चों की प्रतिक्रिया साझा करते हुए पूर्वेश बताते हैं, मैं खुद तैयारी कर रहा हूँ और कुछ बच्चों को पढ़ा भी रहा हूँ। जब से ये ख़बर आई है तब से कुछ बच्चों के फोन आ रहे हैं कि अब क्या होगा। मैं मानता हूँ कि ये एक अच्छा कदम है लेकिन अब तक हमें सारी जानकारी नहीं है कि ये इम्तिहान 2021 से होगा तो इसमें साल 2020 की परीक्षा ही होगी या 2021 की होगी क्योंकि अगर 2021 वाली परीक्षा सीईटी के तहत आयोजित की जाएगी तो 2023 तक ये परीक्षा नहीं हो पाएगी। ऐसे में लब्बोलुआब ये है कि सीईटी को लेकर ज़्यादा जानकारी सामने आनी चाहिए। (bbc.com/hind)
हेमंत कुमार झा
अखबारों में छपी खबरों के अनुसार रेलवे ने स्पष्ट किया है कि निजी रेलगाडिय़ों की अपनी मर्जी होगी कि वे किस स्टेशन पर रुकें, कहां न रुकें। वैसे ही, जैसे भाड़ा के निर्धारण में उनकी अपनी मर्जी ही चलेगी। जाहिर है, अब वे दिन लदने वाले हैं जब अपने शहर के स्टेशन पर किसी ट्रेन के ठहराव के लिए पब्लिक आंदोलित होती थी, नेताओं पर दबाव बनाती थी और नेताजी लोग रेलवे बोर्ड या मंत्रालय में जाकर गुहार लगाते थे।
यह रेलवे पर जनता के अधिकारों के सिकुडऩे का अगला अध्याय होगा। जनता की जरूरतें एक तरफ, निजी ट्रेन के मालिकों के व्यावसायिक हित दूसरी तरफ। दोनों में कोई सामंजस्य नहीं। अब जब, निजी ट्रेन और स्टेशनों के मालिकान अपनी मर्जी के मालिक होंगे, जो कि स्वाभाविक भी है, तो भाड़ा के निर्धारण या ठहराव आदि में ही नहीं, नियुक्तियों में भी उनकी मर्जी ही चलेगी।आप आरक्षण के झुनझुने को बजाते रहिये, नियुक्तियों में विकलांग या कमजोर वर्गों के अन्य कोटे के गीत गाते रहिये, मालिक लोग अपनी मर्जी चलाएंगे।
‘रेलवे आपकी अपनी संपत्ति है, इसकी रक्षा आपकी जिम्मेदारी है।’...बचपन से ही इस तरह के बोर्ड हम रेलवे स्टेशनों पर देखते रहे हैं। यह रेलवे के साथ जनता के रागात्मक संबंधों के लंबे अध्याय का एक खास पन्ना हुआ करता था। समय आ रहा है कि अब धीरे-धीरे ये बोर्ड उखड़ते जाएंगे और उनकी जगह स्टेशनों पर हमें जल्दी ही ऐसे बोर्ड नजर आने वाले हैं, ‘...यह रेलवे स्टेशन छंगामल भुजियावाले की निजी संपत्ति है, कृपया उपयोग में सतर्कता बरतें...’
यह रेलवे का सरकारी ढांचा था जो जनता की जरूरतों के अनुसार और जनता की मांगों के अनुसार उन क्षेत्रों में भी पसरता गया जो व्यावसायिक हितों के बहुत अनुकूल नहीं थे। अब व्यावसायिक हित प्रधान होंगे और जनता की जरूरतें गौण होंगीं। मुनाफा की संस्कृति जनता के व्यापक हितों के साथ तालमेल बिठा ही नहीं सकती। यह संभव ही नहीं है।
इसलिये, विचारकों का बड़ा वर्ग शिक्षा, स्वास्थ्य और सार्वजनिक परिवहन के क्षेत्रों को व्यायसायिक हितों के लिए बंधक बनाने का विरोधी बना रहा। किन्तु, हमारी पतनशील राजनीतिक संस्कृति कुछ खास वर्गों के व्यावसायिक हितों की बंधक बनती गई, जिसका एक नतीजा रेलवे के निजीकरण के रूप में सामने आ रहा है। स्कूल और अस्पताल तो कब के निजी क्षेत्र के चारागाह बन चुके हैं। बहुत सारे लोग अभी यह सोचने-समझने को तैयार नहीं कि रेलवे का क्रमश: निजीकरण हमारी संस्कृति और सामूहिक चेतना को किस हद तक नकारात्मक अर्थों में प्रभावित करने वाला है।
रेलवे की ही क्या बात करें, लोग तो कुछ भी सोचने-समझने के लिए तैयार नहीं और एक-एक कर हमारी तमाम राष्ट्रीय संपत्तियों को निजी हाथों में सौंपने का सिलसिला जारी है। विविधता में एकता और राष्ट्र के सामूहिक मानस का प्रतीक भारतीय रेलवे आने वाले समय में निजी हाथों का एक उपकरण होगा, जो जनता के हित की जगह मुनाफा की संस्कृति से संचालित होगा। पता नहीं यह राष्ट्रवाद का कौन सा अध्याय है जिसके तमाम हर्फों में अंध निजीकरण अपना अर्थ ग्रहण करता जा रहा है।
यहीं आकर स्पष्ट होता है कि राष्ट्रवाद का यह विशिष्ट स्वरूप दरअसल लोगों की मति को भरमा कर कारपोरेट राज का घोषणा पत्र जारी कर रहा है और बेहद चतुराई से इसके एक-एक लफ्ज़़ को हकीकत में बदल रहा है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने घोषणा की है कि उनके प्रदेश में अब नौकरियां मध्यप्रदेश के लोगों को ही दी जाएंगी। मध्यप्रदेश की नौकरियां अन्य प्रदेशों के लोगों को नहीं हथियाने दी जाएंगी। शिवराज चौहान की यह घोषणा स्वाभाविक है। इसके तीन कारण हैं। पहला, कोरोना की महामारी के कारण बेरोजगारी इतनी फैल गई है कि इस घोषणा से स्थानीय लोगों को थोड़ी सांत्वना मिलेगी।
दूसरा, कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने घोषणा की थी कि मप्र सरकार की 70 प्रतिशत नौकरियां मध्यप्रदेशियों के लिए आरक्षित की जाएंगी। ऐसे में चौहान पीछे क्यों रहेंगे? तुम डाल-डाल तो हम पात-पात। तीसरा, 24 विधानसभा सीटों पर कुछ ही माह में उपचुनाव होने वाले हैं। उनमें कई पूर्व कांग्रेसी विधायकों को भाजपा अपना उम्मीदवार बनाकर लड़ाएगी। यह बड़ी विकट स्थिति है। ऐसे में भाजपा की तरफ से आम मतदाताओं के लिए तरह-तरह की चूसनियां लटकाना जरूरी हैं। इसके अलावा ऐसी घोषणा करने वाले शिवराज चौहान अकेले नहीं हैं। कई मुख्यमंत्रियों ने पहले भी कमोबेश इसी तरह के पैंतरे मारे हैं और उन्हें उनके सुपरिणाम भी मिले हैं।
शिवसेना ने महाराष्ट्र में ‘मराठी मानुस’ का नारा दिया था। 2008 में महाराष्ट्र सरकार ने नियम बनाया था कि जिस उद्योग को सरकारी सहायता चाहिए, उसके 80 प्रतिशत कर्मचारी महाराष्ट्र के ही होने चाहिए। गुजरात सरकार ने भी कुछ इसी तरह के निर्देश जारी किए थे। आंध्र, तेलंगाना और कर्नाटक में भी यही प्रवृत्ति देखी गई है। ऐसी स्थिति में शिवराज चौहान और कमलनाथ की घोषणाएं स्वाभाविक लगती हैं लेकिन जो स्वाभाविक लगता हो, वह सही हो, यह जरूरी नहीं है। इसके भी कई कारण हैं। पहला, यदि हम पूरे भारतवर्ष को अपना मानते हैं तो हर प्रदेश में किसी भी भारतीय को रोजगार पाने का अधिकार है। जब हम दूसरे राष्ट्रों में रोजगार पा सकते हैं तो अपने ही देश के दूसरे राज्यों में क्यों नहीं पा सकते?
दूसरा, उक्त प्रावधान हमारे संविधान की धारा 19 (1) का उल्लंघन करता है, जिसमें कहा गया है कि धर्म, वर्ण, जाति, भाषा, जन्म स्थान आदि के आधार पर भेदभाव करना अनुचित है। तीसरा, जिस भाजपा ने धारा 370 और 35 ए खत्म करके कश्मीरी प्रतिबंधों को समाप्त किया है, उन्हें भाजपा की एक प्रादेशिक सरकार क्या अपने प्रदेश में फिर लागू करेगी? चौथा, नौकरियां तो मूलत: योग्यता के आधार पर ही दी जानी चाहिए, चाहे वह किसी भी प्रदेश का आदमी हो। यदि नहीं तो सरकारें निकम्मों की धर्मशालाएं बन सकती हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
- ललिता मौर्य
2017 से 2030 के बीच भारत में 68 लाख बच्चियां का जन्म नहीं होगा, क्योंकि बेटे की लालसा में उन्हें जन्म लेने से पहले ही मार दिया जाएगा। यह जानकारी 19 अगस्त को जर्नल प्लोस में छपे एक नए शोध में सामने आई है। शोधकर्ताओं ने इसके लिए देश भर में हो रही कन्या भ्रूण हत्या को जिम्मेवार माना है। यह शोध फेंग्किंग चाओ और उनके सहयोगियों द्वारा किया गया है जोकि किंग अब्दुल्ला यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी, सऊदी अरब से जुड़े हैं।
भारत में कन्या भ्रूण हत्या का इतिहास कोई नया नहीं है। लम्बे समय से लड़कों को दी जा रही वरीयता का असर लिंगानुपात पर भी पड़ रहा है। समाज में फैली इस कुरुति ने संस्कृति का रूप ले लिया है। लड़का वंश चलाएगा यह मानसिकता आज भी भारत में फैली हुई है। सिर्फ अनपढ़ और कम पढ़े-लिखे परिवारों में ही नहीं बल्कि शिक्षित लोगों में आज भी यह मानसिकता ख़त्म नहीं हुई है। 1970 के बाद से तकनीकी ज्ञान ने इस काम को और आसान कर दिया है। इसमें भ्रूण की पहचान बताने वाले अल्ट्रासाउंड सेंटर और नर्सिंग होम की एक बड़ी भूमिका है।
हर साल औसतन 469,000 कन्या भ्रूण नहीं ले पाएंगी जन्म
इस शोध में शोधकर्ताओं ने देश के 29 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को शामिल किया है और उनमें जन्म के समय लिंगानुपात का विश्लेषण किया है। 2011 के आंकड़ों के अनुसार यह देश की 98.4 फीसदी आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं। जिसमें से 9 में स्पष्ट तौर पर बेटे की वरीयता साफ झलकती है। इसमें से उत्तरपश्चिम के राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की स्थिति सबसे ज्यादा खराब है।
यदि पूरे भारत को देखें तो 2017 से 2030 के दौरान 68 लाख कन्या भ्रूण जन्म नहीं ले पाएंगी। यदि 2017 से 2025 के बीच का वार्षिक औसत देखें तो यह आंकड़ा 469,000 के करीब है। जबकि 2026 से 2030 के बीच यह बढ़कर प्रति वर्ष 519,000 पर पहुंच जाएगी। शोधकर्ताओं के अनुसार कन्या जन्म में सबसे अधिक कमी उत्तर प्रदेश में होगी, जिसमें अनुमान है कि 2017 से 2030 के बीच 20 लाख बच्चियां जन्म नहीं ले पाएंगी।
केवल कानून से नहीं मानसिकता बदलने से आएगा बदलाव
हालांकि देश में इसको रोकने के लिए पीसी पीएनडीटी एक्ट अर्थात प्रसव पूर्व निदान तकनीक (विनियमन एवं दुरूपयोग निवारण अधिनियम-1994) बनाया गया था जिसे 1996 में लागु किया गया था। वर्ष 2003 में इसे संशोधित किया गया था, इसके तहत लिंग निर्धारण करते हुए पहली बार पकड़े जाने पर तीन वर्ष की सजा एवं 50 हजार का जुर्माना लगाने का प्रावधान था। जबकि दूसरी बार पकड़े जाने पर पांच वर्ष की जेल एवं एक लाख रुपये का अर्थ दंड निर्धारित किया गया है। इसके बावजूद देश में अभी भी इस कानून का उल्लंघन जारी है।
यह स्थिति तब तक नहीं सुधरेगी जब तक लोगों की मानसिकता नहीं बदलती। केवल कानून बना देने से इस समस्या का समाधान नहीं होगा। भारतीय समय में मानसिकता के बदलाव की जो प्रक्रिया है वो बहुत धीमी है। आज भी लोग बेटियों की जगह बेटों को तरजीह देते हैं। जिसके पीछे की मानसिकता यह है कि बेटों से वंश चलता है, जबकि बेटियां पराया धन होती हैं। जो शादी के बाद पराये घर चली जाती हैं।
देश में आज भी लड़की का मतलब परिवार के लिए अतिरिक्त खर्च होता है। इसमें समाज की भी बहुत बड़ी भूमिका है, बच्चियों के खिलाफ बढ़ते अपराधों की वजह से भी लोग बेटी के बदले बेटा चाहते हैं। तकनीक की मदद से गर्भ में ही बच्चे के लिंग का पता चल जाता है और बेटी होने पर गर्भपात करा दिया जाता है। ऐसे में कानून के साथ-साथ मानसिकता में भी बदलाव लाने की जरुरत है, जिससे वास्तविकता में बेटियों को बराबरी का हक़ दिया जा सके।(downtoearth)
-रमेश शर्मा
कई ऐतिहासिक अन्यायों को सुधारते हुये, न्याय की स्थापना के लिये लाये गये वनाधिकार क़ानून (2006) की लोकप्रियता इस बात से समझी जा सकती है कि एशिया और अफ्रीका के कुछ देश अपने मूलवासियों के लिये भी ऐसी ही पहल करना चाहते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ का विश्व खाद्य और कृषि संगठन पहले ही इसे मूलवासियों/ आदिवासियों के अधिकारों के लिये दुनिया के बेहतरीन कानून का दर्जा दे चुका है। दुनिया के अनेक देशों में लोगों के जंगल-जमीन पर अधिकारों की मान्यता और स्थापना के लिये भारत का यह वनाधिकार क़ानून, आज सर्वाधिक चर्चित और महत्वपूर्ण सन्दर्भ है।
भारत में वन कानूनों के जन्मने का इतिहास और लागू होने का भूगोल यहां के अनेक उन सशक्त जमीनी आंदोलनों के प्रतिक्रियास्वरूप आकार लेते गये, जो विगत दो सदी में हुये। स्वाधीनता के पूर्व के संघर्ष, यदि उन गुलाम बनाने वाले कानूनों के प्रति खिलाफत थे, तो आजादी के बाद के आंदोलन उन औपनिवेशिक कानूनों की समाप्ति का सत्याग्रह बना। वनाधिकार कानून के लिये संघर्ष और सफलता का अध्याय इसी बिंदु से शुरू होता है। वनाधिकार कानून लागू करते हुए भारत सरकार की यह स्वीकारोक्ति की यह कानून 'ऐतिहासिक अन्याय' को समाप्त करने में मील का पत्थर साबित होगा, बेहद महत्वपूर्ण वैधानिक प्रयास था। लेकिन जारी ऐतिहासिक अन्याय समाप्त हुआ या नहीं आज इसके ज़मीनी पड़ताल की आवश्यकता है।
यह जगजाहिर है कि अंतराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों का, भारत सहित तीसरी दुनिया के जंगलों के प्रति हरित-प्रेम के अपने सुलझे-उलझे आर्थिक तर्क रहे हैं । दुर्भाग्य से सरकार का एक पूरा तंत्र और अमला उन हरे-भरे अंतर्राष्ट्रीय निवेशों का लाभार्थी था/है, जिसके लिये आदिवासी को जंगल में अतिक्रमणकर्ता और अवांछित साबित कर दिया गया। भारत में वन संपदा के दोहन और संरक्षण के नाम पर लाये गये तमाम वानिकी परियोजनाओं के विस्तार और उनके विध्वंसक परिणामों के प्रभाव-दुष्प्रभाव से यह देखा और समझा जा सकता है। जाहिर है, अंतर्राष्ट्रीय निवेशों के लिये बनाये गये इस वन-तंत्र में जंगल के सनातन रक्षक अर्थात आदिवासी समाज के मौलिक अधिकारों को खारिज़ किये बिना, वन संपदा की खुली लूट संभव थी ही नहीं।
बाद के बरसों में वैश्वीकरण और निजीकरण के नये आर्थिक तर्कों के साथ नवें दशक के मध्य से तथाकथित विकास के नाम पर जल जंगल और जमीन जैसे संसाधनों के संगठित लूट के ऐतिहासिक अन्याय का जो अध्याय शुरू हुआ वो आज तक तमाम अंतर्विरोधों और बाहरी प्रतिरोधों के बावज़ूद भी जारी है। नयी सदी के भारत गढ़ने के लिये जनहित के नाम पर शुरू की गयी विकास - योजनाओं की तमाम सदाशयताओं के साथ ही जल जंगल और जमीन के अधिग्रहणों का जो दौर आया, उसमें आदिवासी समाज, लगभग नेपथ्य में धकेल दिया गया। भारत में उत्खनन, औद्योगीकरण और वृहत परियोजनाओं का अवांछित परिणाम हुआ कि करोड़ों आदिवासी और वनाश्रित लोगों को हमेशा के लिये उजाड़-उखाड़ दिया गया। इसीलिये वनाधिकार कानून जैसे कवच की जरूरत थी जो जारी ऐतिहासिक अन्यायों और आदिवासी / वनाश्रित समाज के मध्य सुरक्षात्मक दीवार बन सके।
ऐतिहासिक अन्याय के प्रमाणों और परिणामों के तर्कों के साथ लाये गये अब तक के सबसे क्रांतिकारी वनाधिकार कानून (2006) का प्रथम लक्ष्य, आदिवासी और वनाश्रित समाज के उन लिखित-अलिखित अधिकारों की पुनर्स्थापना और मान्यता थी, जिसके बिना देश के प्रथम समुदाय के न्याय, अस्मिता और सम्मान का मार्ग प्रशस्त होना संभव ही नहीं था। वास्तव में ऐतिहासिक अन्याय के दृष्टिकोण से उन सभी कानूनों, नियमों, नीतियों और व्यवस्था को समाप्त किया जाना अपरिहार्य था जो अब तक अन्याय को पोषित करते रहे थे। लेकिन आदिवासी और वनाश्रित समाज के प्रति पूर्वाग्रहों से ग्रसित वन कानूनों और उससे जुड़े वन-तंत्र में आमूलचूल परिवर्तन के अभाव में वनाधिकार कानून का क्रियान्वयन वास्तव में आज विरोधाभासों से भर गया है।
आदिवासी और वनाश्रित समाज को निर्णायक भूमिका में लाने की प्रतिबद्धता के साथ वनाधिकार क़ानून का जो प्रारूप लागू हुआ वह निःसंदेह 'अस्मिता और अधिकारों' के सवालों का सबसे सार्थक उत्तर था/है। लेकिन वनाधिकार कानून के लागू होने के बाद लगभग एक दशक से अधिक के प्रयास और परिणाम यह साबित कर रहे हैं कि समूचे तंत्र के माध्यम से पोषित जारी ऐतिहासिक अन्यायों को महज़ एक नये क़ानून भर से समूल समाप्त नहीं किया जा सकता है। वास्तविक चुनौती तो उस पूरे तंत्र से है जहां आदिवासी अस्मिता और अधिकारों को अब भी नैतिक, राजनैतिक और वैधानिक रूप से पूरी तरह आत्मसात नहीं किया गया है। यथार्थ है कि वन विभाग और मौजूदा वन कानूनों के दायरे में यदि आदिवासी समुदाय महज़ एक लाभार्थी और आवेदनकर्ता भर है तो पंचायत विभाग भी अब तक पांचवी अनुसूची के प्रावधानों को धरातल पर नहीं उतार सका है। प्रशासनिक तंत्र के लिये आदिवासी समाज जहाँ केवल एक अनुसूचित वर्ग है तो राजनैतिक बिरादरी के लिये आदिवासी अधिकारों के सवाल, महज़ उलझाये रखे जा सकने वाले चंद मुद्दे हैं। आज वनाधिकार क़ानून का आधा-अधूरा क्रियान्वयन इन विरोधाभासों का ही प्रतिबिम्ब है।
जाहिर है आदिवासी समाज को अतिक्रमणकर्ता मानने वाले असंवैधानिक प्रावधानों को समूल समाप्त किये बिना आदिवासी समाज के अस्मिता और अधिकार की स्थापना न तब संभव था और न आज है। इसीलिये जंगल को राजस्व का साधन और संसाधन मानने वाले समूचे वन-तंत्र और आदिवासी समाज के आदिवासियत के मौलिक मूल्यों बीच यह सनातन द्वन्द आज भी जारी है। वनाधिकार कानून की सीमित सफलतायें और संदिग्ध क्रियान्वयन, अब तक जारी द्वंदों का ही सार्वजनिक प्रमाण और परिणाम है।
वनाधिकार क़ानून (2006) के लागू होने के बाद विगत 12 बरसों के लेखा-जोखा से इसे समझने की कोशिश की जा सकती है। जनगणना (2011) के अनुसार भारत में कुल आदिवासी परिवारों की संख्या लगभग 2.2 करोड़ है। आदिवासी मामलों के मंत्रालय (भारत सरकार) द्वारा जारी रिपोर्ट (2020) के अनुसार अब तक लगभग 20 लाख परिवारों को वनाधिकार प्रदान किया गया है। अर्थात विगत 12 बरसों में अब तक 10 फ़ीसदी से भी कम आदिवासी परिवारों को वनाधिकार दिया गया है। आदिवासी मामलों के मंत्रालय (भारत सरकार) द्वारा 2 जुलाई 2020 को जारी एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार अब तक लगभग 12 लाख प्रकरणों का निरस्तीकरण हुआ है। इन सरकारी रिपोर्टों का सारांश यह है कि लगभग 80 फ़ीसदी आदिवासी परिवार अब भी अपने अस्मिता और अधिकार के लिये आवेदकों के कतार में बेबस प्रतीक्षारत खड़े हैं।
एक समसामयिक सवाल यह हो सकता है कि क्या वन विभाग के बिना, जंगल और आदिवासी समाज दोनों संपन्न रह सकते हैं? यदि बहुमत इसके पक्ष में है, तो आज फिर ऐतिहासिक न्याय की स्थापना लिये जंगल-जमीन के पूरे नये लोकतंत्र की जरूरत होगी। किन्तु लोकतांत्रिक राज्य का इसके पक्ष में न होने का संभावित परिणाम उन सभी संघर्षों की नये सिरे से शुरुआत होगी जिसे वनाधिकार कानून (2006) के बाद आदिवासी तथा वनाश्रित समाज के न्याय और विकास के लिये संधि मान लिया गया था। आदिवासी और वनाश्रित समाज समाज आज किसी स्पष्ट उत्तर की प्रतीक्षा में है। (downtoearth)
-पुलकित भारद्वाज
राजस्थान के पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट पिछले हफ्ते जयपुर लौट आए. मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से अदावत के चलते वे एक महीने से ज़्यादा समय से भाजपा शासित हरियाणा में रुके हुए थे. जयपुर आने से एक दिन पहले पायलट और उनके समर्थक विधायकों ने कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और पार्टी की महासचिव प्रियंका गांधी से मुलाकात की थी. सचिन पायलट गुट का दावा है कि इस मुलाकात में उनकी मांगों और शिकायतों को तफ़सील से सुना गया. इस मुलाकात में कथित तौर पर सचिन पायलट ने भी भरोसा दिलाया कि गहलोत सरकार को कार्यकाल पूरा करने में उनकी तरफ़ से कोई व्यवधान नहीं पहुंचेगा. इसके बाद 14 अगस्त को बुलाए गए विधानसभा सत्र में अशोक गहलोत सरकार ध्वनिमत से बहुमत साबित करने में सफल रही. वहीं रविवार देर रात पार्टी हाईकमान ने पायलट की मांगों और शिकायतों के निदान के लिए वरिष्ठ नेता अहमद पटेल, के सी वेणुगोपाल राव और अजय माकन की सदस्यता वाली कमेटी का गठन कर दिया.
इस सब को देखते हुए जानकारों के एक वर्ग का मानना है कि राजस्थान में अब तक जो सियासी घमासान मचा हुआ था उसका निपटारा हो चुका है. लेकिन कई विश्लेषक ऐसे भी हैं जिनके मुताबिक यह खींचतान फिलहाल भले ही थमती नज़र आ रही है. लेकिन यह स्थिति कब तक बनी रहेगी, इसका अनुमान लगा पाना मुश्किल है.
पहले सचिन पायलट की ही बात करें तो वे राजस्थान आ तो गए हैं, लेकिन अब उनके पास न तो उपमुख्यमंत्री का पद है और न ही पार्टी प्रदेशाध्यक्ष का. फिर जयपुर आने के बाद उन्होंने मीडिया में जितने भी बयान दिए हैं उनमें एक ही लाइन को बार-बार दोहराया है कि ‘पद हो या ना हो, प्रदेश की जनता के प्रति अपने दायित्व को निभाता रहूंगा’. उनकी इस बात का यह मतलब निकाला जा रहा है कि शायद राजस्थान में उन्हें पार्टी या सरकार में हाल-फिलहाल कोई बड़ी जिम्मेदारी नहीं मिलने वाली है. वे अपने समर्थकों को जताना चाहते हैं कि उनकी लड़ाई सिर्फ स्वाभिमान के लिए ही थी और उन्हें कभी किसी पद का कोई लालच नहीं था. संभावना यह भी जताई जा रही है कांग्रेस हाईकमान पायलट को संगठन में प्रदेश के बजाय राष्ट्रीय स्तर पर कोई जिम्मेदारी सौंप सकता है. हालांकि यह किसी से नहीं छिपा है कि उनका मन केंद्र के बजाय राजस्थान की राजनीति में ही ज़्यादा रमता है.
विश्लेषकों के मुताबिक यदि सचिन पायलट तमाम हालातों के मद्देनज़र दिल्ली में कोई जिम्मेदारी संभाल लेते हैं तो उनके लिए 2023 के अगले विधानसभा चुनाव तक राजस्थान की सरकार और पार्टी संगठन में कोई प्रत्यक्ष और प्रभावशाली भूमिका निभा पाने की गुंजाइश कम ही नज़र आती है. इस हिसाब से राजस्थान की राजनीति में सचिन पायलट का करियर कम से कम तीन वर्ष के लिए पीछे खिसकता दिख रहा है. और यदि 2023 में राजस्थान के मतदाताओं ने चुनाव-दर-चुनाव सत्ता बदलने की अपनी परंपरा को बरक़रार रखा तो मुख्यमंत्री बनने के लिए पायलट को कम से कम आठ साल का इंतज़ार करना पड़ेगा. तब तक उनकी उम्र 50 का आंकड़ा पार कर चुकी होगी. और उस वक्त भी उनका वक्त तब आएगा जब सारी राजनीतिक परिस्थितियां उनके पक्ष में होंगी.
कुछ विश्लेषकों का कहना है कि इस दौरान पार्टी हाईकमान सूबे में किसी तीसरे चेहरे को मुख्यमंत्री पद के लिए आगे बढ़ाने पर भी विचार कर सकता है. कई पायलट समर्थकों का भी यह कहना है कि सचिन पायलट की पूरी लड़ाई ख़ुद मुख्यमंत्री बनने की नहीं बल्कि गहलोत को पद से हटाने की थी. इनकी बात के समर्थन में कहा जा सकता है कि तीसरे मुख्यमंत्री का विकल्प पायलट ने 2018 में भी पार्टी शीर्ष नेतृत्व के सामने रखा था. हालांकि इसे समझना कोई मुश्किल बात नहीं कि पायलट के लिए यह मजबूरी का विकल्प ही रहा होगा. और इस विकल्प को सामने रखकर वे किसी न किसी तरह खुद की दावेदारी ही मजबूत करना चाह रहे होंगे
वर्तमान घटनाक्रम से पहले तक इस बात का ठीक-ठीक अंदाजा शायद कम ही लोगों को था कि राजस्थान में कांग्रेस के सभी विधायकों में से कितने पायलट के पक्ष में हैं और कितने गहलोत के. लेकिन हालिया घटनाक्रम के दौरान पायलट के साथ पार्टी के 100 में से सिर्फ 18 और तेरह निर्दलीय में से महज तीन विधायकों ने ही हरियाणा में डेरा जमाया था. ग़ौरलतब है कि मुख्यमंत्री गहलोत के ख़िलाफ़ खोले गए मोर्चे में पायलट अपने कई करीबी विधायकों और मंत्रियों तक का समर्थन हासिल नहीं कर पाए. इनमें राज्य के परिवहन मंत्री प्रताप सिंह खाचरियावास प्रमुख थे जो इस पूरे विवाद के दौरान अपने बयानों के ज़रिए पायलट पर बड़े हमले बोलने की वजह से चर्चाओं में रहे थे. जबकि स्वास्थ्य मंत्री रघु शर्मा बहुत पहले ही पायलट से दूरी बना चुके हैं.
जानकारों की मानें तो कांग्रेस आलाकमान राजस्थान में नेतृत्व परिवर्तन की सचिन पायलट की मांग पर सिर्फ़ तभी विचार कर सकता था जब वे पांच सप्ताह हरियाणा में जमे रहने के बजाय शुरुआती दिनों में ही उससे जाकर मिल लेते. सूत्रों के मुताबिक उन दिनों ख़ुद प्रियंका गांधी ने कई बार पायलट से संपर्क साधने की कोशिश की थी. पर नाकाम रहीं. लेकिन जब पायलट को इस बात का अहसास हुआ कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत उन्हें और उनके समर्थक विधायकों को अयोग्य घोषित करवाने के बाद बहुमत भी साबित कर देंगे तब जाकर उन्हें गांधी परिवार की याद आई. पायलट के इस डर को भाजपा की कद्दावर नेता व प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के अस्पष्ट राजनीतिक रुझानों ने भी हवा देने का काम किया. दरअसल सचिन पायलट आरोप लगाते रहे हैं कि विपक्षी दलों से होने के बावजूद सिंधिया और गहलोत पर्दे के पीछे एक-दूसरे की मदद करते रहते हैं.
ऐसे में जानकारों का मानना है कि पायलट अब एक खुली मुट्ठी की तरह हो गये हैं जिनके लिए कांग्रेस हाईकमान ने अपने दरवाजे भले ही खोल दिए हों लेकिन वह उनकी हर शर्त को मानेगा ही यह कह पाना मुश्किल है! हालांकि राजस्थान में पायलट समर्थकों को शीर्ष नेतृत्व द्वारा गठित की गई कमेटी से बड़ी उम्मीदें है. इन समर्थकों का मानना है कि यह कमेटी ऐसा कोई रास्ता ज़रूर निकालेगी जिसके सहारे उनके नेता सूबे में सम्मानजनक तरीके से सक्रिय रह सकें. लेकिन विश्लेषकों का यह भी मानना है कि यदि कमेटी पायलट गुट को कुछ खास संतुष्ट कर पाने में नाकाम रही तो एक बार फिर कांग्रेस को राजस्थान में अस्थिरता का माहौल देखने को मिल सकता है. ग़ौरतलब है कि मीडिया को दिए अपने बयानों में पायलट ने जिस एक और बात को दोहराया है उसका लब्बोलुआब है कि ‘जो बीत गया उसकी चर्चा आवश्यक नहीं और जो भविष्य में होने वाला है उसके बारे में आज निश्चित तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता है.’
सचिन पायलट की नाराज़गी के दौरान मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का एक बयान ख़ूब चर्चाओं में रहा था कि ‘पायलट बिना रगड़ाई के ही पार्टी प्रदेशाध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री बन गए, इसलिए वे अच्छा काम नहीं कर पा रहे हैं.’ इस पर प्रदेश के एक वरिष्ठ पत्रकार चुटीले लहजे में कहते हैं कि बीते एक महीने में पूर्व उपमुख्यमंत्री की शायद उचित रगड़ाई हो चुकी है. इस दौरान उन्होंने अपने विश्वस्तों की सलाह को आंख मूंदकर मानने के दुष्परिणाम भी झेले हैं और राजनीति के कई रंगों से भी उनका सामना पहली बार ही हुआ है.
ग़ौरतलब है कि जैसे ही पायलट के गांधी परिवार के साथ मुलाकात की ख़बरें सामने आईं, उनके खेमे के कुछ विधायक तुरंत ही जयपुर स्थित मुख्यमंत्री आवास पर हाज़िरी लगाने पहुंच गए. भंवरलाल शर्मा ऐसा करने वाले पायलट गुट के पहले विधायक थे. वे शर्मा ही थे जिन पर कांग्रेस ने एक ऑडियो टेप जारी कर राजस्थान में विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त करने और गहलोत सरकार को गिराने का षडयंत्र रचने का आरोप लगाया था. इस टेप में शर्मा कथित तौर पर केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत से फ़ोन पर बात कर रहे थे. लेकिन गहलोत से मुलाकात के बाद भंवरलाल शर्मा ने मीडिया को स्पष्ट बयान दिया कि ‘अन्य बाग़ी विधायकों को भी जयपुर लौट आना चाहिए. राजस्थान में हमारे मुखिया अशोक गहलोत हैं.’
सचिन पायलट के साथ हरियाणा जाने वाले विधायकों में प्रदेश के कुछ पुराने व नए जाट विधायक विशेष तौर पर सुर्ख़ियों में रहे थे. इनमें भरतपुर के पूर्व राजघराने से ताल्लुक रखने वाले विश्वेंद्र सिंह और छात्र राजनीति से जुड़े रहे नागौर जिले के मुकेश भाकर और रामनिवास गावड़िया शामिल थे. बग़ावत के दौरान विश्वेंद्र सिंह ने कई बार भाकर और गावड़िया की हरसंभव तरीके से जमकर हौसला अफजाई और तारीफ़ें की थीं. कहा जा रहा है कि ऐसा उन्होंने जान-बूझकर किया ताकि वे दोनों मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और राजस्थान के दिग्गज जाट नेताओं की नज़रों में खटक सकें. जानकार कहते हैं कि विश्वेंद्र सिंह अपने बेटे अनिरुद्ध सिंह को मुख्यधारा की राजनीति में उतारने की तैयारी में हैं. ऐसे में वे शायद ही चाहेंगे कि राज्य में सर्वाधिक आबादी वाले जाट समुदाय से अनिरुद्ध सिंह का हमउम्र कोई भी नेता ज़्यादा आगे बढ़े.
यदि इन कयासों में थोड़ी भी सच्चाई है तो सचिन पायलट को भविष्य में कोई बड़ी उड़ान भरने से पहले न सिर्फ़ विपक्ष और कांग्रेस में अपनेे विरोधी गुट बल्कि अपने ख़ुद के खेमे में भी पनप रही राजनीति को समझते हुए उससे पार पाने का हुनर भी सीखना होगा. ग़ौरतलब है कि जयपुर आने के बाद अन्य बाग़ी विधायकों की ही तरह सिंह ने भी अशोक गहलोत को अपना नेता मानने से गुरेज़ नहीं किया. जबकि कांग्रेस ने जो ऑडियो टेप जारी किया था उसमें उसने भंवरलाल शर्मा के साथ विश्वेंद्र सिंह की भी आवाज़ होने का दावा किया था. शर्मा और सिंह के जयपुर आने के बाद प्रदेश कांग्रेस ने उन्हें निलंबित करने के आदेश को रद्द कर दिया है और इन दोनों नेताओं के ख़िलाफ़ बैठाई गई सभी जांचें भी अब ठंडे बस्ते में जाती दिखाई दे रही हैं.
बहरहाल; पायलट के ही लहजे में कहा जाए तो ‘भविष्य में जो भी हो’ लेकिन हाल-फिलहाल इस पूरी उठापटक का उनकी लोकप्रियता पर विपरीत प्रभाव पड़ता नज़र आया है. दरअसल राजस्थान के जनमानस में पायलट ने जाने-अनजाने अपनी छवि एक ऐसे नेता के तौर पर स्थापित कर ली थी जिससे पीछे हटने की उम्मीद कम ही की जा सकती है. ऐसे में एक बड़ा राजनीतिक बवाल खड़ा करने के बाद क़दम पीछे खींच लेने की वजह से उनके समर्थकों में निराशा है. इसे सूत्रों के इस दावे से समझा जा सकता है कि बुधवार को पायलट पहले विमान से दिल्ली से जयपुर आने वाले थे. फिर उन्होंने इस यात्रा के लिए सड़क मार्ग को चुना. लेकिन यह बात चौंकाने वाली थी कि 250 किलोमीटर से ज़्यादा के उस सफ़र में कहीं भी उनका कोई बड़ा स्वागत नहीं हुआ. जबकि यह पूरा क्षेत्र गुर्जर बाहुल्य है और सचिन पायलट व उनके दिवंगत पिता राजेश पायलट की कर्मभूमि रह चुका दौसा जिला भी इसी रास्ते में पड़ता है. यही नहीं पूर्व उपमुख्यमंत्री के स्वागत के लिए उनके जयपुर स्थित निवास पर भी जो भीड़ जुटी वह भी अपेक्षा से बेहद कम थी.
इसके जवाब में सचिन पायलट के करीबी होने का दावा करने वाले लोग कहते हैं कि उनके नेता ख़ुद इस तरह का कोई आयोजन नहीं चाहते थे. वहीं कुछ जानकारों के मुताबिक यह भी हो सकता है कि हाईकमान की तरफ़ से ही पायलट को ऐसा कोई भी राजनीतिक स्टंट न करने का निर्देश मिला हो.
मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पर असर!
इस पूरी उठापटक में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत जीते हुए भी नज़र आ रहे हैं और नहीं भी! वे अपने पद और सरकार को तो बचा पाने में सफल नज़र आ रहे हैं. लेकिन उनकी जो मुख्य कवायद पायलट की सदस्यता रद्द करवाकर उन्हें हमेशा के लिए पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने की थी उसमें वे नाकाम हुए हैं. कुछ जानकारों के अनुसार शायद गहलोत को इस बात का अंदाजा पहले से था कि देर-सवेर गांधी परिवार पायलट के साथ संवाद करने के लिए तैयार हो जाएगा. इसलिए ही उन्होंने इस मामले में अति की जल्दबाज़ी भी दिखाई. लेकिन पहले तो पायलट गुट ने अदालत जाकर और फिर राजस्थान के राज्यपाल कलराज मिश्र ने विधानसभा बुलाने की अनुमति न देकर गहलोत को अपनी रणनीति में कामयाब नहीं होने दिया.
कांग्रेस का राजनीतिक इतिहास बताता है कि वह बाग़ियों को मौके देने में विश्वास रखती आई है. इसे सचिन पायलट के पिता राजेश पायलट के उदाहरण से ही समझा जा सकता है. 1998 में जब सोनिया गांधी ने पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए दावेदारी पेश की तो बाग़ी नेता जितेंद्र प्रसाद ने उनके ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी. उस चुनाव में राजेश पायलट ने जितेंद्र प्रसाद का साथ दिया था. लेकिन इसके बावजूद राजेश पायलट के ख़िलाफ़ पार्टी आलाकमान ने कोई बड़ा क़दम नहीं उठाया. अब उस हिसाब से देखें तो सचिन पायलट की बग़ावत कुछ भी नहीं है.
इस पूरे विवाद के दौरान गांधी परिवार की तरफ़ से कभी भी पायलट के ख़िलाफ़ खुलकर नाराज़गी ज़ाहिर नहीं की गई. पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तो कोरोना महामारी के दौरान राजस्थान सरकार को अस्थिर करने की कोशिश करने का आरोप लगाया था. लेकिन तब भी उन्होंने सीधे पायलट को लेकर कुछ नहीं कहा. वहीं, सचिन पायलट भी इस पूरी अवधि में पार्टी या किसी भी नेता के ख़िलाफ़ बयान देने से बचते रहे, फ़िर चाहे वह अशोक गहलोत ही क्यों न हों. जानकारों के मुताबिक आख़िर में पायलट को इस ख़ामोशी का बड़ा फ़ायदा मिला है. भले ही यह राजनीतिक कमज़ोरी की वजह से अपनाई गई थी या रणनीति के तहत या फिर मर्यादा के चलते.
जानकारों की मानें तो इस पूरी रस्साकशी के बाद सचिन पायलट को राहुल गांधी के करीबी होने का लाभ तो मिला ही है, लेकिन कहा यह भी जा रहा है कि पायलट को पार्टी से बाहर कर गांधी परिवार भी गुजरात से लेकर राजस्थान, उत्तरप्रदेश और दिल्ली तक के बड़े हिस्से में अपना प्रभाव रखने वाले गुर्जर समुदाय को नाराज़ नहीं करना चाहता है. कुछ लोग यह कयास भी लगाते हैं कि इन विपरीत परिस्थितियों में पायलट के ससुराल पक्ष यानी कश्मीर के अब्दुल्ला परिवार ने उनके और कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व के बीच एक मजबूत कड़ी का काम किया. वहीं कुछ का मानना है कि खास तौर पर प्रियंका गांधी को इस बात का अनुमान लग गया था कि सचिन पायलट की विदाई के बाद मुख्यमंत्री अशोक गहलोत एक बार तो बहुमत के मुहाने पर खड़ी अपनी सरकार को बचा लेंगे. लेकिन भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के इस मामले में खुलकर सक्रिय होने के बाद गहलोत के लिए भी ऐसा लंबे समय तक कर पाना आसान काम नहीं होता. और शायद गहलोत भी इस बात को समझ रहे थे इसीलिए उन्होंने इस विवाद के आख़िरी दिनों में बाग़ी विधायकों को लेकर अपना रुख नर्म कर लिया था.
मुख्यमंत्री गहलोत के राजनीतिक करियर में इससे पहले ऐसा कोई मोड़ नज़र नहीं आता जब वे प्रदेश कांग्रेस में मन की कर पाने या अपने किसी बड़े विरोधी नेता को पूरी तरह पटकनी दे पाने में नाकाम रहे हैं. इस पूरे घटनाक्रम से पायलट का क़द ज़रूर प्रभावित हुआ है, लेकिन उनके तेवर और संतुलन में कोई कमी नहीं आई है. शुक्रवार को भी विधानसभा सत्र के दौरान जब उनके बैठने की व्यवस्था को हमेशा की तरह आगे की बजाय पीछे गैलेरी में कर दिया गया तो प्रतिक्रिया में उन्होंने बहुत प्रभावी ढंग से यह कहकर अपने आलोचकों का भी ध्यान खींच लिया कि - आपने (विधानसभा अध्यक्ष) मेरी सीट में बदलाव किया. पहले जब मैं आगे बैठता था, सुरक्षित और सरकार का हिस्सा था. फिर मैंने सोचा मेरी सीट यहां क्यों रखी है. मैंने देखा कि यह पक्ष और विपक्ष की सरहद (बगल में भाजपा विधायकों की लाइन शुरु होती) है. सरहद पर अपने सबसे मजबूत योद्धा को भेजा जाता है... इस सरहद पर कितनी भी गोलीबारी हो मैं कवच और ढाल, गदा और भाला बनकर इसे सुरक्षित रखुंगा.’
जबकि इसी सत्र के दौरान अशोक गहलोत ने उनकी सरकार को अस्थिर करने का आरोप लगाते हुए भारतीय जनता पार्टी के साथ पायलट पर भी अप्रत्यक्ष रूप से जमकर निशाना साधा था. विश्लेषकों का मानना है कि इस पूरे घटनाक्रम के दौरान गहलोत जिस तरह से पेश आए वह उनकी छवि के बिल्कुल विपरीत था. एक-एक शब्द को कई-कई बार सोचकर बोलने के लिए पहचाने जाने वाले मुख्यमंत्री गहलोत ने बीते दिनों मीडिया को दिए बयान में पायलट को नकारा और निकम्मा तक कह दिया था. इसके लिए उन्हें बड़े स्तर पर आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था. इसके अलावा उन्होंने यह साबित करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी कि सचिन पायलट भारतीय जनता पार्टी के संपर्क में आकर ही उनकी सरकार को अस्थिर करने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन इस सब के बाद भी गांधी परिवार जिस तरह से सचिन पायलट को अपनाने के लिए तैयार दिखा है उससे निश्चित तौर पर गहलोत को झटका लगा होगा.
इसकी ताजा बानगी के तौर पर रविवार देर रात प्रदेश संगठन में हुए बदलाव को देखा जा सकता है. कांग्रेस आलाकमान ने राजस्थान में पार्टी प्रभारी अविनाश पांडे को हटाकर उनकी जगह पूर्व केंद्रीय मंत्री अजय माकन को ये जिम्मेदारी सौंपी है. ग़ौरतलब है कि पायलट-गहलोत विवाद के बीच अविनाश पांडे का झुकाव शुरुआत से ही गहलोत की तरफ़ देखा गया था. पायलट ने इसकी शिकायत शीर्ष नेतृत्व से कर दी और पांडे को इसका ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा. सूत्र बताते हैं कि पांडे को बचाने के लिए मुख्यमंत्री गहलोत ने अपनी तरफ़ से हर ज़रूरी प्रयास किया. लेकिन सफल नहीं हो पाए. वहीं, माकन राहुल गांधी के विश्वस्त नेताओं में शुमार रहे हैं. इसलिए माना जा रहा है कि पार्टी हाईकमान ने उन्हें दोहरी जिम्मेदारी (प्रभारी और कमेटी में सदस्यता) देकर सचिन पायलट को सहज रखने की कोशिश की है. आलाकमान के इस निर्णय ने पायलट के पक्ष में बड़ी हवा बनाने का काम किया है.
इस सब को देखते हुए कयास लगाए जा रहे हैं कि राजस्थान में बहुप्रतिक्षित मंत्रिमंडल विस्तार और राजनीतिक नियुक्तियों का सिलसिला कुछ और समय के लिए ठंडे बस्ते में जा सकता है. क्योंकि मुख्यमंत्री गहलोत अपने साथ रुके सौ से ज़्यादा विधायकों के हितों को प्राथमिकता देने की घोषणा सार्वजनिक तौर पर कर चुके हैं. वहीं दूसरी तरफ़ सचिन पायलट भी अपने करीबी विधायकों को लाभ पहुंचाने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंकने में शायद ही कोई कसर छोड़ेंगे. सूत्र बताते हैं कि इन हालातों के मद्देनज़र मुख्यमंत्री गहलोत जल्द ही कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व से मुलाकात करने दिल्ली जा सकते हैं. यदि ऐसा हुआ तो देखने वाली बात होगी कि वे वहां सचिन पायलट को लेकर कितना मोल-भाव कर पाते हैं.
हाईकमान द्वारा गठित की गई कमेटी की भूमिका!
कांग्रेस हाईकमान द्वारा गठित की गई उच्चस्तरीय कमेटी में राज्यसभा सांसद अहमद पटेल का शामिल होना इस पूरे मामले के सबसे अहम पहलुओं में से एक साबित हो सकता है. यह तो तय है कि पायलट-गहलोत विवाद को लेकर यह कमेटी जो भी रिपोर्ट तैयार करेगी उस पर पटेल का बड़ा प्रभाव रहेगा. लिहाजा पटेल का झुकाव इन दोनों कद्दावर नेताओं में से जिस किसी की भी तरफ़ रहेगा कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व द्वारा उसी के पक्ष में जाने की संभावना बढ़ जाती है. ऐसे में विश्लेषकों की मानें तो सचिन पायलट और मुख्यमंत्री गहलोत के बीच चयन की स्थिति में अहमद पटेल गहलोत को तवज्जो दे सकते हैं. इसके तीन बड़े कारण माने जा रहे हैं.
पहला तो यह कि बीते कुछ वर्षों से कांग्रेस पार्टी बड़े स्तर पर युवा बनाम वरिष्ठ नेताओं की अंदरूनी खींचतान से जूझ रही है. पार्टी में जब तक राहुल गांधी का वर्चस्व रहता है युवा नेताओं का पलड़ा भारी हो जाता है जो वरिष्ठ नेताओं के अनुभवों को दरकिनार कर नए तौर-तरीकों से संगठन को दोबारा खड़ा करना चाहते हैं. लेकिन संगठन में अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी का दखल बढ़ते ही वे वरिष्ठ नेता मजबूत स्थिति में आ जाते हैं जो इंदिरा गांधी के जमाने से ही पार्टी के विश्वस्त रहे हैं. यह खेमा पार्टी के युवा नेताओं को कम योग्य भी समझता है लेकिन उनसे असुरक्षित भी महसूस करता है. लिहाजा ये दोनों ही गुट एक-दूसरे को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से कमतर साबित करने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते. ऐसे में इस बात की संभावना जताई जा सकती है कि राजस्थान कांग्रेस की भी युवा बनाम वरिष्ठ की इस लड़ाई में अहमद पटेल का रुख स्वाभाविक तौर पर वरिष्ठ के प्रति ही ज़्यादा नरम रहेगा.
दूसरे, 2017 में गुजरात की तीन सीटों के लिए हुए राज्यसभा चुनाव में अहमद पटेल को जितवाने में अशोक गहलोत ने बड़ी भूमिका निभाई थी. वे तब कांग्रेस की तरफ़ से गुजरात के चुनाव प्रभारी थे. भाजपा के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के सीधे दखल वाला यह चुनाव पटेल के लिए नाक का सवाल बन गया था जिसमें उनकी लाज बड़ी मुश्किल से बच पाई थी. ऐसे में माना जा रहा है कि अशोक गहलोत के प्रति अपनी कृतज्ञता जताने का अहमद पटेल के पास यह एक अच्छा मौका हो सकता है. सूत्र बताते हैं कि 2018 में भी मुख्यमंत्री की रेस में पटेल ने पायलट की बजाय गहलोत को आगे बढ़ाने में अंदरखाने जमकर मदद की थी.
और तीसरे, अहमद पटेल हमेशा से केंद्रीय राजनीति में सक्रिय रहे हैं जबकि मुख्यमंत्री गहलोत का ध्यान प्रदेश की राजनीति पर ज़्यादा रहा है. अब यदि किसी कारण से गहलोत को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ता है तो उनके क़द के हिसाब से हाईकमान को उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर कोई बड़ी जिम्मेदारी देते हुए दिल्ली बुलाना पड़ेगा. और उनके दिल्ली पहुंचने से कांग्रेस के जिस नेता पर सबसे ज़्यादा प्रभाव पड़ सकता है वे अहमद पटेल ही हैं. क्योंकि पटेल की ही तरह गहलोत भी सोनिया गांधी के विश्वस्त हैं. गुजरात और कर्नाटक के विधानसभा चुनावों में जिस तरह पार्टी ने उनके मार्गदर्शन में बेहतर प्रदर्शन किया उसके चलते वे पटेल से इक्कीस नज़र आने लगे हैं. ऐसे में सामान्य समझ से भी यह बात कही जा सकती है कि पटेल गहलोत को उनके ही नहीं बल्कि अपने फ़ायदे के लिए भी राजस्थान तक ही सीमित रखना चाहेंगे. और ऐसा तभी हो सकता है जब वे मुख्यमंत्री बने रहें. लेकिन यह शायद सचिन पायलट को बर्दाश्त नहीं होगा.
इस सब के मद्देनज़र राजस्थान के वरिष्ठ पत्रकार राकेश गोस्वामी हम से कहते हैं कि ‘पहले भी हाईकमान ने इन दोनों नेताओं (पायलट और गहलोत) के बीच राजीनामे के लिए एक कमेटी का गठन किया था. लेकिन बमुश्किल उसकी एक ही बैठक आयोजित हो पाई थी. लिहाजा ये संभावना कम ही लगती है कि ये नई कमेटी भी इन दोनों नेताओं के बीच विवाद का कोई उचित हल निकाल पाने में कामयाब रहेगी.’ बकौल गोस्वामी, ‘पायलट और गहलोत की अदावत कोई तात्कालिक तो है नहीं जिसे दो-पांच दिन में मिल-बैठकर दूर कर लिया जाए. ये नाराज़गी कई वर्षों की उपज है जिसे दूर करने में भी एक समय लगेगा. हाल-फिलहाल तो इन दोनों कद्दावर नेताओं ने सार्वजनिक तौर पर हाथ मिला लिए हैं. लेकिन इनके दिल भी कभी मिल पाएंगे, ये कहना मुश्किल है!’
वहीं वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक राजन महान का इस बारे में मानना है कि ‘आने वाले दिनों में मंत्रिमंडल विस्तार और राजनीतिक नियुक्तियों के मौके पर एक बार फिर राजस्थान कांग्रेस में बड़ी उठापटक देखने को मिल सकती है. क्योंकि दोनों ही खेमे सत्ता में ज़्यादा से ज़्यादा भागीदारी चाहते हैं. ऐसे में दोनों में से किसी एक पक्ष के विधायकों को तो मन मसोस कर रहना पड़ेगा.’ सत्याग्रह से हुई बातचीत में महान आगे जोड़ते हैं, ‘इस सब के चलते राजस्थान कांग्रेस में जो अस्थिरता पैदा हो सकती है उसे भुनाने में भारतीय जनता पार्टी इस बार कोई चूक नहीं करेगी. वो तो वैसे भी किसी भी राज्य में ‘ऑपरेशन लोटस’ को अंजाम देने के लिए हरदम तैयार रहती है!’(satyagrah)
मनजीत कौर बल
विगत दो दिनों से छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में एचआईवी संक्रमित बच्चियों के संरक्षण और ‘आश्रयगृह’ को लेकर ‘विवाद सुखिऱ्यों में आया। मुद्दा बहुत गंभीर लगा और अभी भी है। मुद्दा इसलिए गंभीर नहीं लगा कि वो किस आश्रय गृह में हैं और उन्हें किस आश्रय गृह में ले जाया जा रहा है? (क्योंकि हर सामाजिक कार्यकर्ता का संस्थाएं चाहती ही हैं कि सरकारी व्यवस्थाएं ऐसी स्थिति को संभालें) वरन इसलिए लगा कि उनके सरंक्षण और स्थानांतरण पर असुरक्षित होने का भय पैदा हुआ और गलत तरीके से ले जाए जाने के लिए प्रशासन ने शक्ति का उपयोग किया। इसके कारण बड़ा विवाद होने लगा।
कौन सही और कौन गलत जब तक स्पष्ट हो पाता तब तक दो ही दिनों में विवाद का मुद्दा बच्चियों से हटकर व्यक्ति विशेष की ओर सहानुभूति के साथ जाने लगा और पूरे सोशल मीडिया में मुद्दे का स्वरुप बदलकर पुलिस और प्रशासन की कार्यवाही के साथ प्रशासन में बैठे लोगों की अनियमितता पर केंद्रित होते-होते सहानुभूति के साथ एक व्यक्ति विशेष पर होने लगी।
इस तरह जब भी कोई किसी सामाजिक मुद्दे को उठाता है, तो एक स्पष्टता हमेशा रहती है या होनी चाहिए कि किस भूमिका में उठाया जा रहा है और उस मुद्दे को हल करने कि रणनीति उस भूमिका के साथ कैसी है या होनी चाहिए? एक राजनीतिज्ञ विरोधी पार्टी के सदस्य के रूप में, एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में, एक पत्रकार या एक प्रोफेशनल व्यक्ति के रूप में?
इस घटनाक्रम में मुद्दे को हल करने की शुरुआत हुई एक वकील के रूप में, फिर परिस्थिति की गंभीरता या आवश्यकता या भावनात्मक दबाव या राजनितिक जिम्मेदारी के रूप में भूमिका बदली लेकिन इस में रणनीति व्यवस्था सुधार के बजाए आश्रय गृह संचालित करने वाले दंपत्ति विशेष के साथ खड़े होना आश्चर्य करता रहा हो सकता है चिंता जायज हो कि जितने बेहतर तरीके से उन दंपत्ति ने बच्चियों को रखा था, उतना बेहतर सरकारी व्यवस्था में नहीं रखा जायेगा। लेकिन जब ऐसी चिंता हो तब भी सरकारी व्यवस्था में स्थानांतरित करने के मुद्दे के बजाय सरकारी व्यवस्था को मजबूत करने के मुद्दे पर लड़ाई होती तो इस लड़ाई में सभी आगे आते क्योंकि पूरे राज्य के आश्रय गृहों के संचालन पर मॉनिटरिंग की आवश्यकता होती है और करनी भी चाहिए क्योंकि एक राजनीतिज्ञ या सोशल एक्टिविस्ट की भूमिका में हर कोई सरकारी व्यवस्था को मजबूत करने की और ही लड़ाई लड़ता है।
लेकिन जब लड़ाई किसी स्थान या व्यक्ति विशेष की हो तब यह लड़ाई मुद्दे के लिए नहीं वरन अपने जिद को पूरा करने का दिखाई देता है। ऐसी लड़ाईयों का समाधान इसलिए भी कभी नहीं निकलता क्योंकि यह दो व्यक्तियों के पोजीशन की लड़ाई बनते जाती है, इसमें मुद्दा भटक जाता है।
ऐसी स्थिति को स्पष्ट करके इस लड़ाई को पुन: सही दिशा में ले जाया जाना चाहिए कि यह मुद्दा-
1. बच्चियों के सरकारी व्यवस्था में ले जाए जाने के बाद के असुरक्षा की आशंका को लेकर है?
2. बिलासपुर के महिला बाल विकास विभाग के किसी अधिकारी विशेष के कार्य प्रणाली और भ्रष्टाचार को लेकर है?
3. दंपत्ति के द्वारा संचालित किए जा रहे आश्रय गृह के संचालन की निरंतरता को लेकर है?
4. यह मुद्दा कार्यवाही के दौरान पुलिस और प्रशासन द्वारा किए गए बर्ताव पर है?
5. या उपरोक्त सभी पर है?
इसके स्पस्टता के बाद बहुत से साथी ठीक से मुद्दे के साथ खड़े हो पाएंगे क्योंकि शासन की कार्यवाही पर सवाल उठाते समय एक्टिविस्ट को बेहतर पाता होता है कि आगे कितने जोखिम आएंगे, मुझे नहीं लगता कि कार्यवाहियां मुद्दे बनेंगी वरन बच्चियों के आश्रय गृह को लेकर दोनों पक्षों की रूचि को ठीक से समझकर ही लड़ाई आगे सार्वजानिक रूप से लड़ी जानी चाहिए।
सवाल है कि
1. आखिर एक पक्ष सरकार की व्यवस्था पर विश्वास क्यों नहीं कर पा रहा है और सरकार इसे गंभीरता से क्यों नहीं ले रही है?
2. क्यों कोई अधिकारी दोनों पक्ष के बीच बेहतर समन्वय नहीं करवा पा रहा, जबकि दोनों ही पक्ष बच्चियों की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार मानते है स्वयं को।
3. दूसरा पक्ष सरकारी आश्रय गृह में स्थानांतरित करने की जिद क्यों कर रहा? उसके बजाए सरकारी व्यवस्था में सही करवाने के लिए प्रयासरत हो सकता है?
4. अगर यह लड़ाई न्यायालय तक पहुंची थी तो आगे अपील क्यों नहीं की गई?
इस पूरे प्रकरण में किसी भी दुव्र्यवहार और गलत कार्यवाही (जिसकी स्पष्ट जानकारी मुझे नहीं हुई है, अगर ऐसा कुछ हुआ हो तो) का सभी भरपूर विरोध करते हैं लेकिन इस बात की चिंता अभी भी बनी हुई है कि दंपत्ति द्वारा संचालित आश्रय गृह की शुरुआत में बच्चियां वहां कैसे आईं? और अचानक उन्हें सरकारी आश्रय गृह में कैसे ले जाया जाने लगा?
कुछ लेखों से पढऩे से जानकारी हुई कि माननीय न्यायलय के आदेशानुसार किया जा रहा है? तो आदेश का विरोध क्यों? वर्तमान में बच्चियों कि स्थिति कैसी है? क्या आशंकाएं सही हो रही है? अगर हाँ ! तो आगे की रणनीति क्या है? अगर नहीं तो पूरी लड़ाई क्यों हुई? और क्या आगे पुलिस और प्रसाशन की कार्यवाही पर लड़ाई जारी किया जाना है?
ऐसे कुछ सवाल हैं? इसके साथ ही किसी भी तरह से बच्चियों की सुरक्षा या देखभाल में कमी पर नजर रखने के लिए हमेशा साथ खड़े हैं और उस व्यवस्था को मजबूत करने की लड़ाई में मैं भी साथ हूँ अगर यह लड़ाई अनियमितता और गलत नियुक्ति को लेकर है तो कागजों से ही लगातार लड़ी जानी चाहिए और अगर यह लड़ाई मात्र सहानुभूति पाने का प्रयास है तो लडऩे की विधि में बच्चियों को केंद्रित करने पर सोचने की आवश्यकता है? क्योंकि कोई भी लड़ाई मजबूती के साथ लड़ी जानी चाहिए, सहानुभूति के साथ नहीं।
बस अंतिम बार एक प्रयास सभी के लिए कि अभी भी समय है बच्चियों की स्थिति पर सभी नजर रखें और पूरे राज्य में ऐसे व्यवस्था को मजबूत करने आगे आएं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नगालैंड की समस्या हल होते-होते फिर उलझ गई है। 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद नगा नेताओं से जो समझौता करवाया था, वह आजकल खटाई में पड़ गया है। नगा विद्रोहियों के सबसे बड़े संगठन ‘नेशनल सोश्यलिस्ट कौसिंल ऑफ नगालिम’ के नेता टी. मुइवाह आजकल दिल्ली में डेरा डाले हुए हैं और धमकियां दे रहे हैं कि उन्हें भारत के विरुद्ध फिर हथियार उठाने पड़ेंगे। ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि नगालैंड के वर्तमान राज्यपाल आर.एन. रवि और मुइवाह के बीच तलवारें खिंच गई हैं।
रवि मूलत: भारत सरकार के अफसर रहे हैं और वे बरसों से नगा-विद्रोहियों से शांति-वार्ता चला रहे हैं। वे सफल वार्ताकार के तौर पर जाने जाते हैं लेकिन पिछले साल जुलाई में उन्हें नगालैंड का राज्यपाल बना दिया गया। जब से वे राज्यपाल बने हैं, उन्हें नगा-सरकार के अंदरुनी सच्चाइयों का पता चलने लगा है। उन्होंने नगा मुख्यमंत्री एन.रियो को भी साफ-साफ कहा और अपने स्वतंत्रता-दिवस भाषण में भी खुले-आम बोल दिया कि नगा-प्रदेश आपाद-मस्तक भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है। केंद्र से आने वाला धन नगा-जनता के कल्याण के लिए खर्च होना चाहिए लेकिन वह उसके पास पहुंचने के पहले ही साफ हो जाता है।
उन्होंने नगा-संगठन का नाम लिए बिना यह दो-टूक शब्दों में कह दिया कि नगा-प्रदेश में ‘हथियारबंद गिरोह’ एक समानांतर सरकार चला रहे हैं। उधर राज्यपाल रवि के खिलाफ नगा-संगठन ने कटु अभियान छेड़ दिया है। जब 2015 में उस समझौते पर दस्तखत हुए तो उसे उजागर नहीं किया गया था लेकिन मुइवाह का कहना है कि समझौता तभी लागू होगा, जबकि उन तीन मांगों पर अमल होगा। नगालैंड का अपना संविधान होगा, अपना ध्वज होगा और आस-पास के प्रदेशों में फैले नगा इलाकों को जोडक़र वृहद नगालैंड उन्हें दिया जाएगा।
हो सकता है कि वार्ताकार के नाते रवि ने नगा नेताओं को कुछ गोलमाल भरोसा दे दिया हो लेकिन राज्यपाल के नाते पिछले साल भर में इन नेताओं से उनकी अनबन हो गई हो। यों भी वार्ताकार की अनौपचारिक और मैत्रीपूर्ण हैसियत तथा राज्यपाल के औपचारिक रुतबे में काफी फर्क होता है। व्यक्तिगत तालमेल के बिगडऩे से नगा-समझौता भी बट्टेखाते में चला जाए, यह ठीक नहीं है। केंद्र सरकार चाहे तो नगा नेताओं के साथ नए सिरे से वार्ता शुरु कर सकती है और रवि का किसी दूसरे राज्य में तबादला भी कर सकती है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
विभुराज और सलमान रावी
देश की सबसे बड़ी अदालत यानी सुप्रीम कोर्ट ने जानेमाने वकील प्रशांत भूषण के दो विवादित ट्वीट्स को लेकर उन्हें अवमानना का दोषी माना है। कंटेम्ट ऑफ कोर्ट्स ऐक्ट, 1971 के तहत प्रशांत भूषण को छह महीने तक की जेल की सजा जुर्माने के साथ या इसके बगैर भी हो सकती है। इसी कानून में ये भी प्रावधान है कि अभियुक्त के माफी मांगने पर अदालत चाहे तो उसे माफ कर सकती है। गुरुवार को वरिष्ठ पत्रकार एन राम, अरुण शौरी और एडवोकेट प्रशांत भूषण ने कंटेम्ट ऑफ कोर्ट्स ऐक्ट के कुछ प्रावधानों की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली अपनी याचिका वापस ले ली थी।
मामला क्या है?
सुप्रीम कोर्ट ने एडवोकेट प्रशांत भूषण के इन ट्वीट्स पर स्वत: संज्ञान लेते हुए अदालत की मानहानि का मामला शुरू किया था।
कोर्ट ने कहा, ‘पहली नजर में हमारी राय ये है कि ट्विटर पर इन बयानों से न्यायपालिका की बदनामी हुई है और सुप्रीम कोर्ट और खास तौर पर भारत के चीफ जस्टिस के ऑफिस के लिए जनता के मन में जो मान-सम्मान है, ये बयान उसे नुकसान पहुंचा सकते हैं।’
चीफ जस्टिस बोबडे पर की गई टिप्पणी पर प्रशांत भूषण ने अपने हलफनामे में कहा कि पिछले तीन महीने से भी ज़्यादा समय से सुप्रीम कोर्ट का कामकाज सुचारू रूप से न हो पाने के कारण वे व्यथित थे और उनकी टिप्पणी इसी बात को जाहिर कर रही थी।
उनका कहना था कि इसकी वजह से हिरासत में बंद, गरीब और लाचार लोगों के मौलिक अधिकारों का ख्याल नहीं रखा जा रहा था और उनकी शिकायतों पर सुनवाई नहीं हो पा रही थी।
लोकतंत्र की बर्बादी वाले बयान पर प्रशांत भूषण की ओर से ये दलील दी गई कि ‘विचारों की ऐसी अभिव्यक्ति स्पष्टवादी, अप्रिय और कड़वी हो सकती है लेकिन ये अदालत की अवमानना नहीं कहे जा सकते।’
लेकिन ऐसा नहीं है कि प्रशांत भूषण सुप्रीम कोर्ट की अवमानना के केवल इसी मामले में कठघरे में खड़े हैं। उन पर सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का एक और मामला लंबित है।
अदालत की अवमानना का एक और मामला
प्रशांत भूषण ने साल 2009 में ‘तहलका’ मैगजीन को दिए एक इंटरव्यू में आरोप लगाया था कि भारत के पिछले 16 मुख्य न्यायाधीशों में आधे भ्रष्ट थे।
इस मामले में तीन सदस्यों की बेंच ने 10 नवंबर, 2010 को कंटेम्प्ट पिटीशन पर सुनवाई करने का फ़ैसला सुनाया था।
इसी महीने की 10 तारीख को सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘जजों को भ्रष्ट कहना अवमानना है या नहीं, इस पर सुनवाई की आवश्यकता है।’
गौर करने वाली बात ये भी है कि पिछले दस सालों में इस मामले पर केवल 17 बार सुनवाई हुई है।
प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट को एक लिखित बयान में खेद जताने की बात कही थी। लेकिन अदालत ने इसे ठुकरा दिया।
जस्टिस अरुण मिश्रा की अगुवाई में सुप्रीम कोर्ट के तीन सदस्यों वाली बेंच ने इस मामले की अगली सुनवाई की तारीख़ 17 अगस्त तय की है।
सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अवमानना के बीच एक पतली रेखा है। जजों ने कहा है कि वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार और एक संस्था के रूप में जजों की गरिमा की रक्षा की ज़रूरत को संतुलित करना चाहते हैं।
दूसरी ओर, वकील प्रशांत भूषण का कहना है कि भ्रष्टाचार के उनके आरोप में किसी वित्तीय भ्रष्टाचार की बात नहीं थी बल्कि उचित व्यवहार के अभाव की बात थी। उन्होंने कहा कि अगर उनके बयान से जजों और उनके परिजनों को चोट पहुँची है, तो वे अपने बयान पर खेद व्यक्त करते हैं।
कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट का मतलब क्या है?
हिमाचल प्रदेश नेश्नल लॉ यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर चंचल कुमार सिंह कहते हैं, ‘भारत के संविधान के अनुच्छेद 129 और 215 में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट को ‘कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड’ का दर्जा दिया गया है और उन्हें अपनी अवमानना के लिए किसी को दंडित करने का हक भी हासिल है।’
‘कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड से मतलब हुआ कि सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के आदेश तब तक प्रभावी रहेंगे जब तक कि उन्हें किसी कानून या दूसरे फैसले से ख़ारिज न कर दिया जाए।’
साल 1971 के कंटेम्ट ऑफ कोर्ट्स ऐक्ट में पहली बार वर्ष 2006 में संशोधन किया गया।
इस संशोधन में दो बिंदु जोड़े गए ताकि जिसके खिलाफ अवमाना का मामला चलाया जा रहा हो तो ‘सच्चाई’ और ‘नियत’ भी ध्यान में रखा जाए।
इस कानून में दो तरह के मामले आते हैं - फौजदारी और गैर फौजदारी यानी ‘सिविल’ और ‘क्रिमिनल कंटेम्प्ट।’
‘सिविल कंटेम्प्ट’ के तहत वो मामले आते हैं जिसमे अदालत के किसी व्यवस्था, फैसले या निर्देश का उल्लंघन साफ़ दिखता हो जबकि ‘क्रिमिनल कंटेम्प्ट’ के दायरे वो मामले आते हैं जिसमें ‘स्कैंडलाइजिंग द कोर्ट’ वाली बात आती हो। प्रशांत भूषण पर ‘आपराधिक मानहानि’ का मामला ही चलाया जा रहा है।
प्रोफेसर चंचल कुमार सिंह कहते हैं, ‘कोर्ट की आम लोगों के बीच जो छवि है, जो अदब और लिहाज है, उसे कमजोर करना कानून की नजर में अदालत पर लांछन लगाने जैसा है।’
‘कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट’ बनाम ‘
अभिव्यक्ति की आजादी’
अभिव्यक्ति की आज़ादी को लोकतंत्र की बुनियाद के तौर पर देखा जाता है।
भारत का संविधान अपने नागरिकों के इस अधिकार की गारंटी देता है।
लेकिन इस अधिकार के लिए कुछ शर्तें लागू हैं और उन्हीं शर्तों में से एक है अदालत की अवमानना का प्रावधान।
यानी ऐसी बात जिससे अदालत की अवमानना होती हो, अभिव्यक्ति की आज़ादी के दायरे में नहीं आएगी।
प्रोफेसर चंचल कुमार सिंह की राय में संविधान में ही इस तरह की व्यवस्था बनी हुई है कि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के पास ‘कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट’ की असीमित शक्तियां हैं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार इसके आगे गौण हो जाता है।
दिल्ली ज्यूडिशियल सर्विस एसोसिएशन बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया और सीके दफ्तरी बनाम ओपी गुप्ता जैसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट बार-बार ये साफ कर चुकी है कि संविधान के अनुच्छेद 129 और 215 के तहत मिले उसके अधिकारों में न तो संसद और न ही राज्य विधानसभाएं कोई कटौती कर सकती है।
दूसरे लोकतंत्रों में क्या स्थिति है?
साल 2012 तक ब्रिटेन में ‘स्कैंडलाइजिंग द कोर्ट’ यानी ‘अदालत पर लांछन’ लगाने के जुर्म में आपराधिक कार्यवाही का सामना करना पड़ सकता था।
लेकिन ब्रिटेन के विधि आयोग की सिफारिश के बाद ‘अदालत पर लांछन’ लगाने के जुर्म को अपराध की सूची से हटा दिया गया।
बीसवीं सदी में ब्रिटेन और वेल्स में अदालत पर लांछन लगाने के अपराध में केवल दो अभियोग चलाए गए थे। इससे ये अंदाजा लगाया जा सकता है कि अवमानना से जुड़े ये प्रावधान अपने आप ही अप्रासंगिक हो गए थे।
हालांकि अमरीका में सरकार के ज्यूडिशियल ब्रांच की अवज्ञा या अनादर की स्थिति में कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट के प्रावधन है लेकिन देश के संविधान के फर्स्ट अमेंडमेंट के तहत अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता के अधिकार को इस पर तरजीह हासिल है।
विरोध और समर्थन में चि_ी
प्रशांत भूषण के खिलाफ अदालत की अवमानना के मामलों ने समाज में बहस छेड़ दी है।
जहां कुछ पूर्व न्यायाधीशों, पूर्व नौकरशाहों, वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध किया था कि ‘सर्वोच्च न्यायलय की गरिमा को देखते हुए प्रशांत भूषण के खिलाफ अवमाना के मामले वापस लिए जाएं।’
तो एक दूसरे समूह ने भारत के राष्ट्रपति को पत्र लिखकर संस्थानों की गरिमा को बचाने का अनुरोध किया था।
भूषण के पक्ष में जारी किए गए बयान में जिन 131 लोगों के हस्ताक्षर थे। उनमें सुप्रीम कोर्ट के ही पूर्व चीफ जस्टिस जस्ती चेलामेस्वर, जस्टिस मदन बी लोकुर के अलावा दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस (रिटायर्ड) एपी शाह, पटना उच्च न्यायालय की जस्टिस (रिटायर्ड) अंजना प्रकाश शमिल हैं।
इनके अलावा हस्ताक्षर करने वालों में इतिहासकार रामचन्द्र गुहा, लेखक अरुंधति रॉय और वकील इंदिरा जयसिंह भी हैं। वहीं, राष्ट्रपति को पत्र भेजने वाले पूर्व न्यायाधीशों, वकीलों, पूर्व नौकरशाहों और सामजिक कार्यकर्ताओं के एक दूसरे समूह का कहना था कि कुछ प्रतिष्ठित लोग संसद और चुनाव आयोग जैसी भारत की पवित्र संस्थाओं को दुनिया के सामने बदनाम करने का कोई मौका नहीं छोडऩा चाहते हैं। अब सुप्रीम कोर्ट भी उनके निशाने पर है।
राष्ट्रपति को भेजी गई इस चि_ी पर हस्ताक्षर करने वालों में राजस्थान उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश अनिल देव सिंह, सिक्किम हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस प्रमोद कोहली के अलावा 15 रिटायर्ड जज शामिल हैं।
कुल मिलाकर 174 लोगों के हस्ताक्षर वाले इस पत्र में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट में अवमाना का मामला पूरी तरह से प्रशांत भूषण और अदालत के बीच का मामला है। इसपर सार्वजनिक रूप से टिप्पणियाँ कर सुप्रीम कोर्ट के गौरव को हल्का दिखाना है।
समर्थक और विरोधी क्या कह रहे हैं?
सेंट्रल एडमिन्सट्रेटिव ट्रिब्यूनल (सीएटी) के अध्यक्ष और सिक्किम हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस रह चुके प्रमोद कोहली कहते हैं, ‘अवमाना का क़ानून अगर ना हो तो कोई भी सुप्रीम कोर्ट या दूसरी अदालतों के फ़ैसलों को नहीं मानेगा।’
उनका कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले पूरे देश पर लागू होते हैं और सभी अदालतें और कार्यपालिका उन फैसलों को मानने के लिए बाध्य हैं। सुप्रीम कोर्ट की स्वतंत्रता, अखंडता और साख बनी रहे, ये सुनिश्चित करना सबके लिए ज़रूरी है। लेकिन कानून के जानकारों की राय इस मुद्दे पर बंटी हुई है।
दिल्ली हाई कोर्ट के रिटायर्ड चीफ जस्टिस एपी शाह कहते हैं, ‘ये अफसोसनाक है कि जज ऐसा सोचें कि आलोचना को दबाने से न्यायपालिका की प्रतिष्ठा बढ़ेगी।’
शाह के अनुसार, अवमानना के कानून पर फिर से गौर किए जाने जरूरत तो है ही, साथ ही ये भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि इसका इस्तेमाल किसी तरह की आलोचना को रोकने के लिए नहीं किया जाए।
आलोचना बनाम अवमानना
कानून के जानकारों को लगता है कि टकराव वहाँ होता है जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और संविधान के अनुच्छेद 129 आमने-सामने आ जाते हैं।
संविधान के अनुसार हर नागरिक अपने विचार रखने या कहने के लिए स्वतंत्र है। लेकिन जब वो अदालत को लेकर टिप्पणी करे तो फिर अनुच्छेद 129 को भी ध्यान में रखे।
अदालत की अवमाना को लेकर भारत के न्यायिक हलकों में हमेशा से ही बहस होती रही। दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस (रिटायर्ड) एपी शाह के अनुसार अवमानना का कानून विश्व के कई देशों में और खास तौर पर मजबूत लोकतांत्रिक देशों में अप्रचलित होता जा रहा है। मिसाल के तौर पर अमरीका में अदालतों के फैसलों पर टिप्पणियाँ करना आम बात है और वो अवमानना के दायरे में नहीं आते हैं।
लेकिन पूर्व चीफ जस्टिस प्रमोद कोहली कहते हैं कि अगर अवमाना का कड़ा कानून नहीं हो तो फिर अदालतों का डर किसी को नहीं रहेगा। कार्यपालिका और विधायिका को मनमानी करने से रोकने का एक ही जरिया है और वो है न्यायपालिका।
वो कहते हैं, ‘अगर कानून और अदालतों का डर ही खत्म हो जाए तो फिर अदालतें बेमानी हो जाएंगी और सब मनमानी करने लगेंगे। इस लिए अदालत और कानून का सम्मान सबके अंदर होना जरूरी है।’
कैसे वजूद में आया अवमानना कानून
साल 1949 की 27 मई को पहले इसे अनुच्छेद 108 के रूप में संविधान सभा में पेश किया गया। सहमति बनने के बाद इसे अनुच्छेद 129 के रूप में स्वीकार कर लिया गया।
इस अनुच्छेद के दो प्रमुख बिंदु थे- पहला कि सुप्रीम कोर्ट कहाँ स्थित होगा और दूसरा प्रमुख बिंदु था अवमानना। भीम राव आंबेडकर नए संविधान के लिए बनायी गई कमिटी के अध्यक्ष थे।
चर्चा के दौरान कुछ सदस्यों ने अवमानना के मुद्दे पर सवाल उठाया था। उनका तर्क था कि अवमाना का मामला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए रुकावट का काम करेगा।
आंबेडकर ने विस्तार से सुप्रीम कोर्ट को इस अनुच्छेद के जरिये अवमानना का स्वत: संज्ञान लेने के अधिकार की चर्चा करते हुए इसे जरूरी बताया था।
मगर संविधान सभा के सदस्य आरके सिधवा का कहना था कि ये मान लेना कि जज इस कानून का इस्तेमाल विवेक से करेंगे, उचित नहीं होगा।
उनका कहना था कि संविधान सभा में जो सदस्य पेशे से वकील हैं वो इस कानून का समर्थन कर रहे हैं जबकि वो भूल रहे हैं कि जज भी इंसान हैं और गलती कर सकते हैं।
लेकिन आम सहमति बनी और अनुच्छेद 129 अस्तित्व में आ गया। (bbc.com/hind)
-पुस्तक ‘माई ईयर्स विथ राजीवः ट्रायम्फ एंड ट्रैजेडी’
बीस अगस्त, 1944 को भारत उस साम्राज्यवादी आधिपत्य की जकड़न में ही था जिसने हमारे विनाश के लिए हमारा शोषण किया था, लेकिन राजीव गांधी के परिवार-जैसे कई लोगों के प्रयास की वजह से स्वतंत्रता हासिल करने ही वाला था। इसी युवा भारत में मेरे स्कूल के साथी राजीव बड़े हुए और बाद में प्रधानमंत्री बने। वह ऐसे दोस्त थे जो अंतिम समय तक मेरे दोस्त बने रहे। विभाजन के बाद भारत के इतिहास में विस्तार के नजरिए से अभूतपूर्व हिंसक सदमे के बीच वह प्रधानमंत्री-पद तक पहुंचे। उन्होंने भगवद्गीता के 9वें अध्याय के 7वें श्लोक के विसृजामि (मैं रचता हूं) के तौर पर यह समझते हुए खुद को कभी भी नहीं देखा था कि किसी का घाव भरने की शक्ति के लिए जरूरी है कि स्वस्थ करने वाला अधिक मजबूत हो। विदेश नीति के मामले में राजीव ने अपने जीवनकाल में यही बात आगे बढ़ाई थी- परमाणु-मुक्त दुनिया के लिए काम करना। देश के अंदर इसका मतलब शक्ति के मोर्चे के तौर पर सामंजस्य था।
और इस तरह, प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने पूर्वोत्तर में म्यांमार से सटते मिजोरम और असम से लेकर दुराग्रही पाकिस्तान की सीमा से लगते पंजाब और कश्मीर तक देशभर के असंतुष्ट तत्वों के साथ समझौते को आगे बढ़ाया। विदेश नीति में इसका मतलब गुटनिरपेक्ष आंदोलन के नेता के तौर पर भारत की प्रतिष्ठा का उपयोग करते हुए वैश्विक परमाणु-मुक्ति के लिए आग्रह करना था जिसे पूरा होते देखने के लिए वह जीवित नहीं रहे, लेकिन इस दिशा में बढ़ने के उनके प्रयत्न का ही फल था जिसने तब सोवियत संघ तक से परमाणु प्रसार को रोकने में मदद पहुंचाने की बात कहलवाई जब वह गुटनिरपेक्ष आंदोलन के औचित्य के समापन की बात कहने लगा था। इस आंदोलन की परिकल्पना उनके नाना जवाहरलाल नेहरू ने की थी और निश्चित तौर पर वैश्विक व्यवस्था में यह उनकी प्रमुख भागीदारी थी। संयुक्त राष्ट्र के वैश्विक मंच पर राजीव ने ‘भारत और गुटनिरपेक्ष आंदोलन’ की बात कहते हुए इसे नई दिशा दी थी- ‘खास तौर पर परमाणु निःशस्त्रीकरण के तौर पर इच्छापूर्वक निःशस्त्रीकरण की वकालत। हमारा अंतिम लक्ष्य प्रभावी अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षण में पूर्ण निःशस्त्रीकरण होना चाहिए।’ इस संदर्भ में उन्होंने गुटनिरपेक्षता की दुर्बलता वाली भावना को नवीन दृष्टि दी, ‘गुटनिरपेक्षता के क्षेत्र का विस्तार वैश्विक टकरावों के खतरे को कम करता है।’
फिर भी, शांति को बढ़ावा देते हुए राजीव गांधी ने भारतीय रक्षा क्षमता में किसी तरह का समझौता करने से दृढ़तापूर्वक इनकार कर दिया। मैं जब वाशिंगटन में भारतीय दूतावास में सामुदायिक मामलों का मंत्री था और दुनिया के एकमात्र सुपरपावर की राजधानी में महात्मा गांधी मेमोरियल की स्थापना के लिए बिल के कांग्रेस से अनुमोदन की तैयारी कर रहा था, तब बीजेपी के अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार ने पोखरण में परमाणु परीक्षण किया और भारत परमाणु शक्ति वाले देशों में शामिल हो गया। यह इसलिए संभव हो पाया क्योंकि यह राजीव की व्यक्तिगत विरासत थी। राजीव ने लगातार माना था कि भारत के पास ऐसी शक्ति पहले से है। 1986 में राजीव गांधी ने रिटायरमेंट के 33 साल बाद जनरल के.एम. करियप्पा को फील्ड मार्शल नियुक्त किया। वह आजाद भारत के पहले देसी कमांडर-इन-चीफ थे। फील्ड मार्शल तकनीकी तौर पर कभी रिटायर नहीं होते और वह सक्रिय सूची में बने रहते हैं, यह मानते हुए राजीव गांधी ने करियप्पा को उनकी अवकाश प्राप्ति के काफी वर्षों बाद प्रोन्नत कर सेना की परंपरा तोड़ी। करियप्पा औपनिवेशिक सेना को भारतीय रक्षा सेवा के गौरव के तौर पर परिवर्तित करने में सफल रहे थे। कोई भी इस तरह की बड़ी प्रतिष्ठा अर्पित नहीं कर सकता था। इस तरह उन्होंने भारत की दृढ़ सैन्य रीढ़ को भी सम्मान दिया।
राजीव ने दुख में डूबे देश की इच्छा से सत्ता की सीढ़ियां चढ़ीं लेकिन उनसे इक्कीसवीं सदी की इच्छित कूद में ले जाने की अपेक्षा भी थी और राजीव के कार्यकाल के पांच साल की सफलता देश को ऐसा करने का नेतृत्व देने का साक्षी भी है। राजीव ने वसीयत में विरोधाभासों की पहेली पाई थी और यह पहेली अब भी बनी हुई है। भीमकाय साम्राज्यवाद से आजादी पाने के चालीस साल बाद भी गरीबी को वह नितांत अनुचित स्तरों वाला मानते थे। यह उन्हें कष्ट देता था। इससे उनकी प्राथमिक चिंताएं जन्मीं जो टेक्नोलॉजी मिशन बनीं:
- ग्रामीण पेयजल
- टीकाकरण
- वयस्क शिक्षा
- खाद्य तेल में आत्मनिर्भरता
- टेलीकॉम नेटवर्क का विकास
- डेयरी विकास
युवाओं के लिए भी उन्हें खासी चिंता थी और इसीलिए अगले पांच साल के अपने कार्यकाल के लिए उन्होंने एक अन्य मिशन का ड्राफ्ट तैयार किया था। दुर्भाग्य से यह अवसर नहीं आया। हालांकि भारत को ओलम्पिक में मेडल मिलते थे लेकिन वे आम तौर पर हॉकी तक ही सीमित थे। 1952 हेल्सिंकी में हमें कुश्ती में कांस्य मिला था। आज हमारे पास ओलम्पिक और एशियाई खेलों- दोनों के कई पदक जीतने वाले और वैश्विक प्रतिस्पर्धी हैं। 1982 में भारत में हुए एशियाई खेलों की आयोजन समिति के अध्यक्ष राजीव थे और भारत ने इसमें 57 मेडल हासिल किए थे। यह सबसे ज्यादा संख्या थी। ये पदक टेनिस, भारोत्तोलन, मुक्केबाजी, कुश्ती के साथ-साथ ऐसी बैडमिंटन स्पर्धा में भी मिले थे जिसमें चीन का एक तरह से एकाधिकार था। और यह राजीव ही थे जिन्होंने 18 साल के लोगों को मताधिकार दिया। यह राजनीतिक तौर पर सचेत भारतीयों की पीढ़ी को दिया गया अधिकार था जो चुनावों में आज निर्णायक तत्व हैं।
आज का भारत गरीबी से आक्रांत है जिसे राजीव ने अपनी प्राथमिक चुनौती के तौर पर देखा था और राजीव के बाद लाए गए आर्थिक उदारीकरण के कारण नाटकीय विकास के बावजूद अमीर और गरीब के बीच खाई बढ़ती ही जा रही है। राजीव को इस तरह के दुःस्वप्न की आशंका थी। उन्हें इस क्षति को संभालने का अवसर नहीं मिल पाया। फिर भी, कोई भी निरपेक्ष पर्यवेक्षक कहेगा कि भारत आज पुरातन अवशेष नहीं बल्कि ऐसा आधुनिक देश है जो 21वीं सदी में टेक्नोलॉजी के साथ अपनी चुनौतियों का सामना कर रहा है।
राजीव आज इतिहास के अंग, अपनी प्राचीन भूमि के समय के विस्तार में महज झिलमिलाहट हैं लेकिन वह भारत के न सिर्फ दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के तौर पर उभार के विकास में विशाल कद वाले व्यक्ति के तौर पर खड़े हैं बल्कि सुशासन की सार्वजनिक भागीदारी के मामले में सबसे प्रमुख व्यक्तित्व हैं। और इससे भारत भौगोलिक अभिव्यक्ति के तौर पर ब्रिटेन के विंस्टन चर्चिल से अपनी आजादी हासिल करने के समय से लेकर ऊर्जा, अपने अंतहीन विरोधाभासों में समरूपता पाने और फिर भी इससे निरंतर एकताबद्ध होने से कंपायमान होता गया है। एक व्यक्ति के तौर पर राजीव गांधी की महत्ता शेक्सपीयर के मार्क एंटोनी के अपने शत्रु ब्रूटस के बारे में बताते हुए शब्दों में सबसे बढ़िया ढंग से बताई जा सकती है। उनका जीवन सौम्य था और उसमें कई सारे तत्व इतनी अच्छी तरह समाहित थे कि पूररी कायनात खड़ी होकर सारी दुनिया से कह सकती है, ‘हां, वह एक अच्छा आदमी था।
- Ritika
बबली तीन महीने की गर्भवती हैं। वह अपने दूसरे बच्चे के लिए उत्साहित तो हैं पर डरी हुई भी हैं। बबली अपनी स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए पूरी तरह सरकारी अस्पताल पर निर्भर हैं लेकिन कोरोना वायरस और लॉकडाउन के कारण वह अब तक सिर्फ एक बार ही अस्पताल जा सकी हैं। वह कहती हैं, ‘हमारे पास निजी अस्पताल में जांच कराने जितने पैसे नहीं हैं। हमारे लिए सरकारी अस्पताल ही एकमात्र विकल्प है। मैं जिस अस्पताल में अपनी जांच करवाने जाती थी वहां फिलहाल कोरोना के मरीज़ों का इलाज चल रहा। इसलिए मैं अस्पताल जाने से डरती हूं क्योंकि अगर मैं संक्रमित हो गई तो अपना इलाज कैसे करवाऊंगी?’ ये कहानी सिर्फ पटना की बबली की ही नहीं है। कोरोना वायरस के कारण लागू किए गए लॉकडाउन ने देश की कई गर्भवती महिलाओं को बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित कर दिया है।
बेरोज़गारी, आर्थिक तंगी, स्वास्थ्य सुविधाओं की दयनीय स्थिति, बढ़ता मानसिक अवसाद, महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा में बढ़त, शिक्षा में रुकावट, ये वो चंद समस्याएं हैं जो भारत में 24 मार्च से लागू हुए लॉकडाउन के कारण पैदा हुई। लॉकडाउन से भारत में कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने में मदद मिली या नहीं इस पर संशय बरकरार है। आज 26 लाख से अधिक कोरोना वायरस के मामलों के साथ भारत दुनिया में तीसरे नंबर पर पहुंच चुका है। कोरोना वायरस लॉकडाउन के कारण ग्रामीण भारत पर क्या असर हुआ इसपर मीडिया संस्था गांव कनेक्शन ने एक सर्वे किया है। यह सर्वे ग्रामीण भारत पर लॉकडाउन के असर को बताता देश का पहला सर्वे है। इस सर्वे की डिजाइनिंग और डेटा विश्लेषण सेंटर फॉर स्टडी डेवलपिंग सोसायटी और लोकनीति ने किया है। यह सर्वे देश के 23 राज्यों के 179 ज़िलों में किया गया है। इस सर्वे में 25 हज़ार 300 लोगों के जवाब और प्रतिक्रियाएं दर्ज की गई हैं।
कोरोना महामारी की दस्तख के साथ ही देश में अन्य बीमारियों से ग्रसित मरीज़ हाशिये पर चले गए। लॉकडाउन की शुरुआत में ही सभी अस्पतालों के ओपीडी बंद करने के आदेश दे दिए गए थे। ऐसे में कोरोना के इतर दूसरी बीमारियों का इलाज करवा रहे मरीज़ों, खासकर गर्भवती महिलाओं के लिए यह लॉकडाउन किसी परीक्षा से कम नहीं था। लॉकडाउन के दौरान गर्भवती महिलाओं को किन परेशानियों से गुज़रना पड़ा गांव कनेक्शन के इस सर्वे में इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया गया है।
क्या कहता है सर्वे
गांव कनेक्शन के सर्वे के मुताबिक सर्वे में शामिल हर आठ में से एक परिवार में एक गर्भवती महिला मौजूद थी। सर्वे में हर पांच में से एक परिवार ने माना कि लॉकडाउन के दौरान उन्हें अस्पताल या डॉक्टर के पास जाने की ज़रूरत पड़ी। सर्वे के मुताबिक लॉकडाउन के दौरान ग्रामीण भारत की 42 फीसद गर्भवती महिलाएं न ही किसी जांच के लिए गई और न ही उनका टीकाकरण हो पाया। ग्रीन ज़ोन में 40 फीसद, ऑरेंज ज़ोन में 36 फीसद और रेड ज़ोन में 56 फीसद गर्भवती महिलाओं की न जांच हुई, न ही टीकाकरण। यह स्थिति तब है जब भारत की स्वास्थ्य सुविधाएं पहले से ही लचर हैं।
राजस्थान में 87 फीसद, उत्तराखंड में 84 फीसद, बिहार में 66 फीसद गर्भवती महिलाओं ने माना कि लॉकडाउन के दौरान उन्हें जांच और टीकाकरण की सुविधा मिली। सबसे खराब हालत पश्चिम बंगाल में देखने को मिली जहां सिर्फ 29 फीसद गर्भवती महिलाओं को इस दौरान जांच और टीकाकरण की सुविधा मिली। जबकि ओडिशा में सिर्फ 33 फीसद गर्भवती महिलाओं को ये सुविधाएं मिल सकी।
गर्भवती महिलाओं को जहां बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित होना पड़ा, वहीं दूसरी तरफ लाखों महिलाएं अपना सुरक्षित गर्भसमापन नहीं करवा सकी।
लॉकडाउन में गर्भवती महिलाओं को किन परेशानियों का सामना उठाना पड़ा इस स्थिति की गंभीरता का अंदाज़ा हम इसी बात से लगा सकते हैं कि नोएडा की एक गर्भवती महिला नीलम कुमारी गौतम को सिर्फ एक बेड के लिए 15 घंटे में 8 अस्पतालों के चक्कर काटने पड़े थे। लॉकडाउन के दौरान जब हज़ारों मज़दूर पैदल ही अपने घरों को निकल पड़े थे, उसमें गर्भवती महिलाएं भी बड़ी संख्या में शामिल थी। महाराष्ट्र के नासिक से मध्य प्रदेश के सतना के लिए पैदल अपने घर के लिए निकली एक गर्भवती महिला को सड़क किनारे ही अपने बच्चे को जन्म देना पड़ा था। प्रसव के महज़ 2 घंटे बाद ही उसने अपने नवजात बच्चे के साथ 150 किलोमीटर का सफर तय किया था।
कोरोना वायरस के आने से पहले भी भारत में गर्भवती महिलाओं की स्थिति कुछ खास नहीं थी। साल 2016 में विश्व स्वास्थ्य संगठन की आई रिपोर्ट बताती है कि भारत में हर पांच मिनट एक महिला की मौत गर्भावस्था या प्रसव से जुड़ी जटिलताओं के कारण होती है। हालांकि रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया के आंकड़ों के मुताबिक साल 2015-17 के मुकाबले साल 2016-18 में मातृ मुत्यु दर में 7.3 फीसद की गिरावट आई है। लेकिन संयुक्त राष्ट्र द्वारा तय किए गए 3.1 फीसद के लक्ष्य के मुकाबले भारत की मातृ मृत्यु दर अभी भी दोगुनी है।
लॉकडाउन में 18.5 लाख महिलाएं सुरक्षित गर्भपात से हुई वंचित
लॉकडाउन न सिर्फ गर्भवती महिलाओं के लिए परेशानियों का सबब बनकर आया बल्कि उन महिलाओं को भी खासी दिक्कतों का सामना करना पड़ा जो किसी कारणवश गर्भ समापन करवाना चाहती थी। इपस डेवलपमेंट फाउंडेशन द्वारा 12 राज्यों में किए गए सर्वे के मुताबिक लॉकडाउन के दौरान करीब 18.5 लाख महिलाएं अपना सुरक्षित गर्भपात नहीं करवा पाई। अधिकतर महिलाओं का गर्भसमापन तय समय से देर से हुआ और कुछ महिलाओं को मजबूरन बच्चे को जन्म देना पड़ा।
फैमिली प्लानिंग एसोसिएशन ऑफ इंडिया से जुड़ी ऋचा साल्वी के मुताबिक ज्यादातर महिलाएं लॉकडाउन के दौरान क्लिनिक आने में असमर्थ थी। वहीं, कई केस ऐसे भी सामने आए जहां महिलाओं को अपने गर्भवती होने की बात छिपानी पड़ी। यह स्थिति तब पैदा हुई जब गर्भसमापन को लॉकडाउन के दौरान ज़रूरी सेवाओं की सूची में शामिल किया गया था। हम बता दें कि भारत के स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक हर दिन 10 महिलाओं की मौत असुरक्षित गर्भसमापन के दौरान हो जाती है। भारत में करीब आधे गर्भपात असुरक्षित तरीके और अप्रशिक्षित लोगों द्वारा किया जाता है।
इतना ही नहीं, असम, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु जैसे राज्यों में अबॉर्शन पिल्स की भी कमी देखने को मिली। फाउंडेशन फॉर रिप्रोडक्टिव हेल्थ सर्विसेज़ की रिपोर्ट बताती है कि इन राज्यों में 79 फीसद दवा विक्रेताओं के मेडिकल अबॉर्शन पिल्स का स्टॉक जनवरी से मार्च के दौरान ही खत्म हो गया था।
गर्भवती महिलाओं को जहां बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित होना पड़ा, वहीं दूसरी तरफ लाखों महिलाएं अपना सुरक्षित गर्भसमापन नहीं करवा सकी। हम आंकड़ों पर अगर ध्यान दें तो पाएंगे कि ये समस्याएं भारत के लिए नई नहीं है। इन समस्याओं को बस लॉकडाउन और इस महामारी ने पहले से भी अधिक गंभीर बना दिया। कोरोना महामारी को मानो एक बहाना बना लिया गया अन्य स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों को नज़रअंदाज़ करने के लिए। ये समस्याएं सीधा सवाल उठाती हैं भारत की स्वास्थ्य व्यवस्थाओं और सरकार की नीतियों पर क्योंकि कोरोना महामारी के आने से दूसरी बीमारियां और मरीज़ों की परेशानियां खत्म नहीं हुई हैं।
( यह रिपोर्ट पहले फेमिनिज्मइनइंडियाडॉटकॉम पर प्रकाशित हुई है)
-राजु सजवान
देश में कोरोनावायरस की वजह से अब तक 50 हजार से अधिक लोगों की मौत हो चुकी हैं, लेकिन कोरोनावायरस की वजह से राज्यों की जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में आई गिरावट भी लोगों की मौत का कारण बन सकती है। भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) के अर्थशास्त्रियों द्वारा जारी की जाने वाली इकोरैप रिपोर्ट में कहा गया है कि जिन राज्यों की जीडीपी में 10 फीसदी से अधिक कमी आएगी, तो वहां कोविड-19 मृत्यु दर में 0.55 से 3.5 प्रतिशत अतिरिक्त वृद्धि होगी। हालांकि रिपोर्ट में कहा गया है कि सभी राज्यों की जीडीपी में औसतन 16 फीसदी की गिरावट हो सकती है।
रिपोर्ट बताती है कि राज्य की जीडीपी में सबसे अधिक नुकसान महाराष्ट्र को होने वाला है। रिपोर्ट में 2018 में राज्य की मृत्यु दर को आधार बनाया गया है। इसके मुताबिक महाराष्ट्र में आधार मृत्यु दर 5.5 फीसदी थी, कोविड-19 की वजह से चालू मृत्यु दर में 0.34 फीसदी की वृद्धि हुई है और यदि जीडीपी में 10 फीसदी की कमी आती है तो यहां मृत्यु दर 1.28 फीसदी और इजाफा हो सकता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि राज्यों में लॉकडाउन खुलने के बाद अनियोजित तरीके से आजीविका संबंधी कामों पर पाबंदी लगाई जा रही है, बल्कि फिर से नए तरीके से अनियोजित लॉकडाउन लगाए जा रहे हैं, जिसका असर राज्यों की जीडीपी पर दिखेगा।
राज्यों को नुकसान
रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि कोविड-19 की वजह से महाराष्ट्र को वित्त वर्ष 2020-21 में 5.39 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हो सकता है। महाराष्ट्र को 38,841 रुपए प्रति व्यक्ति आय के नुकसान की आशंका जताई गई है, जबकि राज्य की जीडीपी में 17.6 फीसदी नुकसान का भी आकलन किया गया है। जबकि तमिलनाडु में 18.2 फीसदी का जीडीपी का नुकसान हो सकता है।
कोविड-19 से होने वाले नुकसान के मामले में उत्तर प्रदेश तीसरे नंबर पर है। उत्तर प्रदेश को 3 लाख 11 हजार 850 करोड़ रुपए के नुकसान का आकलन लगाया गया है। राज्य की जीडीपी में 16.1 फीसदी और प्रति व्यक्ति आय में 14006 रुपए के नुकसान की आशंका जताई गई है।
22 राज्यों में पीक देखना बाकी
इकोरैप में कहा गया है कि कोरोनावायरस संक्रमण अब ग्रामीण क्षेत्रों की ओर बढ़ रहा है और अब ऐसे जिलों की संख्या बहुत कम रह गई है, जहां 10 से कम कोरोना केस हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि इन राज्यों में अभी कोरोना केसों का पीक आना बाकी है। एसबीआई के अर्थशास्त्रियों ने 27 राज्यों का विश्लेषण किया है और दावा किया है कि अभी कम से कम 22 राज्यों को पीक देखना बाकी है। जिन राज्यों में कोरोना केसों की संख्या उच्च स्तर (पीक) तक पहुंच चुकी है, उनमें तमिलनाडु, दिल्ली, गुजरात, जम्मू कश्मीर और त्रिपुरा शामिल है। इस रिपोर्ट में 14 अगस्त तक के आंकड़ों का विश्लेषण किया गया है।(downtoearth)
- भागीरथ श्रीवास
हाउसिंग एंड लैंड राइट्स नेटवर्क (एचएलआरएन) की ताजा रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 2017-19 के दौरान करीब 5,68,000 लोग बलपूर्वक विस्थापित किए गए हैं। मंगलवार 18 अगस्त 2020 को जारी रिपोर्ट “वर्ष 2019 में भारत में जबरन बेदखली: एक राष्ट्रीय संकट” में बताया गया है कि पिछले तीन वर्षों के दौरान 1,17,770 से अधिक आवासों को उजाड़ा गया। इस दौरान औसतन 108 मकानों को प्रतिदिन उजाड़ा गया। दूसरे शब्दों में कहें तो रोज करीब 519 लोगों ने अपना घर खोया और हर घंटे 22 लोग जबरन बेदखल किए गए। वर्ष 2019 में कम से कम 22,250 घरों को उजाड़ा गया जिससे 1,07,600 से अधिक लोग विस्थापित हुए।
रिपोर्ट बताती है कि वर्तमान में लगभग डेढ़ करोड़ लोग बेदखली और विस्थापन के खतरे के बीच रह रहे हैं। एचएलआरएन के अनुसार, यह एक न्यूनतम अनुमान है और वास्तविक स्थिति का एक हिस्सा भर प्रदर्शित करते हैं। भारत में बेदखल और विस्थापित लोगों की कुल संख्या के साथ-साथ विस्थापन के खतरे में रहने वाले लोगों की संख्या लिखित आंकड़ों से अधिक होने की संभावना है। रिपोर्ट के अनुसार, जबरल बेदखली के लगभग सभी मामलों में राज्य के अधिकारियों ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों द्वारा स्थापित उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया।
बेदखली के बहाने
सर्वाधिक विस्थापन या बेदखली (46 प्रतिशत) का कारण झुग्गी बस्ती को हटाना, अतिक्रमण हटाना और सौंदर्यीकरण अभियान को बताया गया। 27 प्रतिशत मामलों में विस्थापन का कारण बुनियादी ढांचा और अस्थायी विकास परियोजनाएं रहीं। 17 प्रतिशत मामलों में पर्यावरणीय परियोजनाओं, वन संरक्षण और वन्यजीव संरक्षण का हवाला दिया गया। सात प्रतिशत विस्थापन की वजह आपदा प्रबंधन के प्रयास और तीन प्रतिशत विस्थापन की वजह अन्य कारण (जैसे राजनीतिक रैली) बताए गए।
पुनर्वास केवल 26 प्रतिशत
एचएलआरएन के अनुसार, 2019 में बेदखली के दस्तावेजीकृत मामलों में केवल 26 प्रतिशत मामलों में पुनर्वास किया गया। अधिकांश मामलों में पुनर्वास के अभाव में प्रभावित व्यक्तियों को अपने वैकल्पिक आवास की व्यवस्था खुद करनी पड़ी अथवा उन्हें बेघर ही रहना पड़ा। जिन लोगों का राज्य सरकारों द्वारा किसी प्रकार का पुनर्वास प्राप्त हुआ, उनका पुनर्वास दूरदराज के इलाकों में किया गया। ये इलाके आवश्यक नागरिक व बुनियादी सामाजिक सुविधाओं से वंचित थे। बेदखली के कारण बच्चों, महिलाओं, विक्लांग व्यक्तियों, बुजुर्गों, दलितों, अनुसूचित जनजातियों और हाशिए पर रहने वाले समूहों को सबसे अधिक नुकसान उठाना पड़ा। रिपोर्ट के अनुसार, 2019 में उच्च न्यायालयों, स्टेट कोर्ट और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के आदेश से 20,500 से अधिक लोग विस्थापित हो गए।(downtoearh)
नई दिल्ली, 20 अगस्त ( एजेंसी ) | कोरोना वायरस को काबू करने के लिए जब भारत में लॉकडाउन लगा तो रातों रात बेरोजगार हुए ब्रजेश के लिए फैसला करना मुश्किल हो गया. उन्हें वापस गांव चले जाना चाहिए या फिर दिल्ली में अपनी टीबी की दवा मिलने का इंतजार करना चाहिए?
जब टीबी सेंटर जाने का कोई साधन नहीं बचा तो उन्होंने अपना बोरिया बिस्तर बांधा और अपने गांव की तरफ निकल पड़े जो दिल्ली से 1,100 किलोमीटर दूर पूर्वी बिहार में है.
दिल्ली के बाहरी इलाके में कबाड़ी का काम करने वाले 44 साल के ब्रजेश कहते हैं, "सब कुछ बंद हो गया, इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि मुझे अपनी टीबी की दवा मिलेगी. मेरे पास बहुत कम बचत थी. मुझे चिंता सताने लगी कि अपनी पत्नी और बेटी को क्या खिलाऊंगा. इसलिए हडबड़ी में मैं दिल्ली से निकला." उन्होंने दरभंगा जिले से टेलीफोन पर थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन के साथ बातचीत में यह बात कही.
टीबी के मरीजों की संख्या के मामले में भारत दुनिया भर में सबसे ऊपर आता है. इसलिए यह मुश्किल ब्रजेश जैसे बहुत से लोगों के सामने थी. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) का कहना है कि 2018 में दुनिया भर में एक करोड़ लोगों को टीबी हुई जबकि 15 लाख लोग इससे मारे गए. इनमें से 27 प्रतिशत नए मामले भारत में दर्ज किए गए जबकि इससे मरने वालों की संख्या 45 हजार के आसपास रही.
महामारी की मार
भारत में मार्च के आखिर में 70 दिनों का सख्त लॉकडाउन लगाया गया, जिससे भारत के लाखों टीबी मरीजों के लिए दवा पाना, डॉक्टर को दिखाना और इलाज पाना मुश्किल हो गया. स्वास्थ्य अधिकारियों का कहना है कि कोरोना महामारी ने पहले ही बोझ तले भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए हालात और मुश्किल बना दिए. ज्यादातर स्वास्थ्यकर्मी और चिकित्सा सेवाएं कोरोना संक्रमण को रोकने में जुट गए. ऐसे में, टीबी के मरीजों की देखभाल करने वाला कोई नहीं था.
हालांकि जून में लॉकडाउन में ढील देनी शुरू की गई, लेकिन लोग अभी भी अस्पतालों में जाने से डर रहे हैं या फिर उन्हें वहां आने नहीं दिया जा रहा है. कई जगह स्टाफ की कमी है तो कई जगहों पर कोविड-19 और टीबी की बीमारी में फर्क करना मुश्किल हो रहा है. दोनों ही बीमारियों में खांसी, कभी बलगम वाली खांसी, छाती में दर्द, कमजोरी और बुखार की शिकायत होती है. सर्वाइवर्स अगेंस्ट टीबी नाम की संस्था से जुड़े चपल मेहरा कहते हैं, "पहले एक-दो महीने तो कोविड-19 और टीबी में बहुत भ्रम की स्थिति रही. इस महामारी ने एक फिर बता दिया है कि हमारी स्वास्थ्य देखभाल व्यवस्था ऐसे संकटों का सामना करने के लिए तैयार नहीं है."
टीबी से बचाने के लिए नई वैक्सीन
कोरोना के सबसे ज्यादा मामले वाले देशों में भारत अमेरिका और ब्राजील के बाद तीसरे नंबर पर है. टीबी के मरीजों की देखभाल पर इस महामारी का सबसे ज्यादा असर पड़ा. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय का कहना है कि जनवरी से जून के बीच टीबी के नए मामलों के रजिस्ट्रेशन में 25 फीसदी की कमी देखी गई है. इस कमी की वजह उचित देखभाल और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी को माना जा रहा है. स्वास्थ्य विशेषज्ञों को चिंता है कि इससे 2025 तक टीबी को पूरी तरह खत्म करने का भारत का लक्ष्य पटरी से उतर सकता है. वैश्विक स्तर पर 2030 तक टीबी उन्मूलन का लक्ष्य है.
इलाज बना चुनौती
वहीं भारत की केंद्रीय टीबी डिविजन के प्रमुख कुलदीप सिंह सचदेव कहते हैं कि महामारी की वजह से टीबी देखभाल पर बहुत असर पड़ा है, लेकिन इससे टीबी को खत्म करने की समयसीमा प्रभावित नहीं होगी. उनका कहना है कि कोरोना महामारी की वजह से मास्क पहनने और सोशल डिस्टेंसिंग पर अमल से टीबी को फैलने से रोकने में भी मदद मिलेगी, जो खांसी और छींक के जरिए फैलती है.
उनका कहना है कि सरकार का अनुमान था कि टीबी के मामले कम दर्ज होंगे. लेकिन वह कहते हैं कि आने वाले महीनों में उनका पता लगा लिया जाएगा.
सचदेव के मुताबिक उनका विभाग कोशिश कर रहा है कि कोविड-19 के साथ साथ टीबी का भी टेस्ट किया जाए. अब तक ऐसे 50 हजार टेस्ट हो चुके हैं. सचदेव का कहना है कि टीबी को लेकर कई तरह के जागरूकता अभियान चलाए गए हैं. उनका दावा है कि जिन लोगों का इलाज लॉकडाउन से पहले शुरू हुआ, उनके घर जाकर उन्हें दवा डिलीवर की गई है.
उधर, टीबी से ग्रस्त जेनेंद्र कहते हैं कि उन्हें घर पर दवाएं तो मुहैया नहीं कराई गई हैं, लेकिन लॉकडाउन की वजह से उनका इलाज प्रभावित नहीं हुआ है. वहीं 32 साल की मंजु कहती हैं कि उन्हें अपनी दवाएं दोबारा शुरू करनी हैं क्योंकि लॉकडाउन की वजह से वे दो हफ्तों तक दवाएं नहीं ले पाई थीं. वह उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में रहती हैं. उनके पति राम छैला ने बताया, "आने जाने का कोई साधन नहीं था, और बाहर निकलने पर पुलिस भी पीट रही थी."
एके/सीके (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)(dw)
अनिल चमडिय़ा
दिलचस्प है कि सामान्य दिनों में दलितों, आदिवासियों और मुसलमानों की भले अन्य भारतीय नागरिकों के मुकाबले औसत आयु कम हो, लेकिन महामारी के समय यह स्थिति उलट जाती है। ऊंची जातियों के मुकाबले स्वास्थ्य सुविधाएं कम मिलने के बावजूद उनके बीच मौत की दर कम होती है।
सत्ता द्वारा जो वंचित जातियां स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में भी वंचित रह जाती हैं, वे महामारी के दौरान कैसे अपने को सुरक्षित रख पाती हैं, यह अध्ययन दिलचस्प हो सकता है।
पहली बात तो भारतीय समाज के बारे में कई ऐसे अध्ययन हैं, जिसमें यह तथ्य सामने आए हैं कि समाज के दलितों, मुस्लिमों, महिलाओं और अन्य जाति समूहों की औसत आयु सामान्य औसत आयु से कितनी कम होती है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार दलित जाति समूह की महिलाएं, गैर दलित जातियों की महिलाओं के मुकाबले कम उम्र तक जिंदा रह पाती हैं।
अध्ययन के मुताबिक दलित महिलाएं, अन्य महिलाओं के मुकाबले 14.6 वर्ष कम जीती हैं। दलित महिलाओं की औसत उम्र महज 39.5 वर्ष है, तो सवर्ण जाति की महिलाओं की औसत आयु 54.1 वर्ष है। अर्थशास्त्री वाणी कांत बरुआ ने अपने एक शोध अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला है कि आदिवासियों की औसत उम्र 43 वर्ष पहुंच गई है, जबकि 2004 में औसत उम्र 45 वर्ष थी। आदिवासियों के बाद दलितों और मुसलमानों की औसत आयु अन्य भारतीय नागरिकों के मुकाबले कम है।
इसीलिए यह माना जाता है कि भारत में ‘जाति’ शब्द के मुकाबले दुनिया भर में शायद कोई और दूसरा शब्द नहीं है, जहां कि एक शब्द से अनेक अर्थ निकलता हो। भारत में जाति का नाम भर बता देने से सुनने वाले के कानों में कई अर्थ पहुंच जाते हैं। भारत की समाज व्यवस्था में जाति का नाम भर ले लेने से उस जाति के सदस्यों की जिंदगी की हर तरह की परिस्थियों की कहानी सामने आ जाती है। लेकिन यह बेहद दिलचस्प है कि सामान्य दिनों में दलितों, आदिवासियों और मुसलमानों की अन्य भारतीय नागरिकों के मुकाबले औसत आयु कम हो, लेकिन महामारी के समय यह स्थिति उलटी पड़ जाती है। बावजूद इसके कि महामारी के दौरान दलित, आदिवासी और मुस्लिम समुदाय के सदस्यों को स्वास्थ्य की सुविधाएं अपेक्षाकृत कम मिल पाती हैं, लेकिन इसके बावजूद उनके बीच मौत की दर कम होती है।
दरअसल भारत की समाज व्यवस्था की तरह ही स्वास्थ्य सुविधाओं और रोग प्रतिरोधक क्षमताओं का ढांचा बना हुआ है। स्वास्थ्य सुविधाओं का ढांचा जहां राजनीतिक, सामजिक और आर्थिक व्यवस्थाएं विकसित करती हैं, वहीं प्रतिरोधक क्षमता का ढांचा दलितों, आदिवासियों और मुसलमानों में उनकी जीवन शैली की वजह से विकसित हो गया है। भारत में समाज व्यवस्था के अनुसार दलितों पर श्रम करने के कठोर नियम लागू रहे हैं। आदिवासियों के हिस्से शहरों से दूर जंगली इलाकों में रहने की जगह होती है और गरीबी के कारण मुसलमानों के बीच मांस खाने की मजबूरी होती है।
दिलचस्प तथ्य है कि किसी महामारी के दौरान स्वास्थ्य सुविधाओं का ढांचा नाकाफी साबित होता है, लेकिन प्रतिरोधक क्षमता आबादी के बड़े हिस्से को सुरक्षित रखने में कामयाब होती है। 120 वर्ष पहले भारतीय समाज में प्लेग के दौरान जातियों की जो स्थिति थी, उसका एक अध्ययन सामने आया है।
भारत सरकार के गृह विभाग के आईसीएस अधिकारी आर. नाथन द्वारा संकलित एक दस्तावेज (वॉल्टर चार्ल्स रैंड, प्लेग कमिश्नर पुणे- द प्लेग इन इंडिया 1896, भाग- एक, 1898; शिमला, अध्याय-7 पेज-207) के अनुसार महाराष्ट्र के पुणे में हिन्दू प्लेग अस्पताल ब्राह्मणों की एक समिति द्वारा संचालित था और सभी हिन्दुओं के लिए खुला था- सिवाय निचली जाति के हिन्दुओं के।
चाल्र्स रैंड ने अपनी रिपोर्ट में साफ तौर पर ये लिखा कि हिन्दू प्लेग अस्पताल ब्राह्मणों और उच्च जाति के लोगों के लिए था, निम्न जाति के लिए नहीं। उन्होंने यह भी लिखा कि अस्पताल में दाखिल 157 मरीजों में से 98 ब्राह्मण थे और 59 अन्य ऊंची जातियों के थे। अस्पताल खुलने के पहले साल में ब्राह्मण मरीज 62.2 फीसदी थे।
इस अध्ययन में एक और दिलचस्प तथ्य सामने आया कि जिनके लिए स्वास्थ्य सुविधाएं विकसित की जाती हैं, उनके लिए उनकी जीवन शैली और सांस्कृतिक-सामाजिक पृष्ठभूमि स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंचने के लिए एक बाधक के रुप में सक्रिय हो जाती है। भारत में कोरोना के दौरान भी यह देखा गया कि इस वायरस से प्रभावित लोग घरों में ही छुपे रहना पसंद करते हैं। प्लेग की महामारी के दौरान स्थिति यह थी कि पुणे में घर-घर जाकर मरीजों तक पहुंचने की बड़ी कवायद हुई।
हालांकि, आमतौर पर पुणे की जनता ने प्लेग समिति के कार्यकलाप का समर्थन किया। चार्ल्स रैंड लिखते हैं कि ‘अधिकतर लोगों का व्यवहार मैत्रीपूर्ण था, किन्तु लोग बीमारी छुपाने की कोशिश करते थे। केवल ब्राह्मण समुदाय ने प्लेग समिति का विरोध किया। उनका सैनिकों के प्रति व्यव्हार द्वेषपूर्ण था। ब्राह्मण बस्तियों में प्लेग समिति को खासे विरोध का सामना करना पड़ा। उनका प्रतिरोध काफी प्रबल था।’
प्लेग कमिश्नर के अनुसार मुसलमानों के अस्पताल काफी अच्छी तरह काम कर पा रहे थे। इसका सबसे बड़ा कारण था सभी मुसलमानों का सामान रूप से अस्पतालों पर विश्वास। ‘इन अस्पतालों में दाखिल मरीज ज्यादातर गरीब मुसलमान थे। और तो और, ज्यादातर मरीज उनके परिवार द्वारा खुद अस्पताल लाए गए थे। जहां एक ओर इन अस्पतालों में मरीज अच्छा इलाज और विश्वास पा रहे थे, वहीं हिन्दू मरीजों को मानो जबरदस्ती ही अस्पताल लाना पड़ रहा था।’
लेकिन 22 जून 1897 के दिन चार्ल्स रैंड पर जानलेवा हमला हो गया, जिसमें रैंड के साथी लेफ्टिनेंट आयर्स्ट ने मौके पर दम तोड़ दिया और चार्ल्स रैंड ने दस दिनों बाद 3 जुलाई को दम तोड़ दिया। चाल्र्स रैंड के बारे में यह कहा जाता है कि उन्होंने 2 माह (19 फरवरी से अप्रैल तक ) से भी कम समय में पुणे को प्लेग मुक्त कर दिया था। 19 फरवरी 1897 को पुणे के युवा उप जिलाधिकारी वॉल्टर चार्ल्स रैंड को प्लेग नियंत्रण का अतिरिक्त कार्यभार दिया गया था।
कार्यभार मिलने के बाद रैंड ने पाया कि पुणे प्लेग का गढ़ बन चुका था, जो कि राष्ट्रवादी नेता बाल गंगाधर की राजनीतिक गतिविधियों का स्थानीय केंद्र था। तिलक ने 25 अप्रैल, 1897 के दिन मराठा में संपादकीय लिखा, जिसका शीर्षक था-लार्ड सैंड्हर्स्ट से एक निवेदन। उन्होंने लिखा- ‘चाल्र्स रैंड की प्लेग कमिश्नर के तौर पर नियुक्ति दुर्भाग्यपूर्ण है।’
प्रो. परिमला वी. राव ने चार्ल्स रैंड के प्रति बाल गंगाधर तिलक के इस नफरत की पृष्ठभूमि पर गहन शोध किया है। 1894 में चाल्र्स रैंड सतारा में खोटी समझौता अधिकारी के पद पर तैनात थे। बाल गंगाधर तिलक के बारे में यह कहा जाता है कि कैसे उन्होंने गणेश चतुर्थी के उत्सव को राजनीतिक रंग दिया था। सतारा में अपनी तैनाती के दौरान रैंड ने गणेश उत्सव में राष्ट्रवादियों के राजनीतिक संगीत बजाने पर रोक लगा दी थी। यही नहीं उन्होंने 11 ब्राह्मणों को आदेश का उल्लंघन करने पर सजा भी दिलवाई थी।
भारत में राजनीति का आधार जाति रहा है और महामारी में जातीय पृष्ठभूमि भी सक्रिय रहती है। लिहाजा महामारी तो राजनीतिक मुद्दा नहीं बन पाता, लेकिन महामारी के दौरान जातीय भावना मुद्दा बन जाती है। (बाकी पेज 7 पर)
दिसंबर 1897 में पुणे के करीब महाराष्ट्र के ही शहर अमरावती में इंडियन नेशनल कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ, लेकिन प्लेग को लेकर उसमें कोई प्रस्ताव नहीं लाया गया।
यही नहीं चार्ल्स रैंड की हत्या के आरोप में जिन हिन्दूत्ववादी विचारधारा के दामोदर चापेकर, उसके दो भाई बालकृष्ण व वासुदेव और महादेव विनायक रानाडे के खिलाफ फांसी की सजा सुनाई गई थी, उनमें से चापेकर की 120वीं पुण्य तिथि पर 8 जुलाई 2018 को भारतीय डाक विभाग द्वारा एक डाक टिकट जारी कर दिया गया। यह भी तथ्य है कि हिन्दूत्ववाद के सबसे बड़े संगठन राष्ट्रीय स्वंय सेवक का जन्म एक सौ पच्चीस वर्ष पहले महाराष्ट्र में ही हुआ था और 2014 के बाद नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में देश में उसकी विचारधारा के प्रभुत्व वाली सरकार है।
लेकिन जाति और उसकी जीवन शैली का रिश्ता स्वस्थ रहने के शारीरिक और मानसिक ढांचे से भारत के हर हिस्से में जुड़ा रहा है। पुणे के अलावे दूसरे हिस्से में भी प्लेग की महामारी के दौरान पुणे जैसी परिस्थितियां देखी गईं। शोधकर्ता डा. ए के विस्वास ने प्लेग पर अपने अध्ययन में पंजाब प्रान्त की अधिकारिक रिपोर्ट के हवाले से बताया है कि प्लेग किसी कि जाति, वर्ग, सामाजिक स्थिति, श्रेणी या वंश नहीं देखता।
लेकिन पंजाब के सबसे पुराने रेलवे जंक्शन अंबाला के उप कमिश्नर, मेनार्ड ने लाहौर (1947 के बाद पाकिस्तान का हिस्सा) में सरकार को सौंपी प्लेग के मृत्यु दर से संबंधित अपनी रिपोर्ट में लिखा- यदि ब्राह्मणों में प्लेग फैल जाए तो वह मक्खियों की तरह मरते हैं। ब्राह्मण और बनिये अक्सर बच नहीं पाते, क्योंकि वे सबसे अधिक समय कम कपड़ों और बिना जूतों के गुजारते हैं। उनका शरीर अधिकांशत: निर्वस्त्र रहता है, जिससे संक्रमण की संभावना बढ़ जाती है।
दूसरी ओर पंजाब सरकार के मुख्य चिकित्सा अधिकारी के अनुसार- मुसलमानों, चमारों और भंगियों (दोनों दलित जातियां) में प्लेग से होने वाली मृत्यु की दर सामान पाई गई, क्योंकि यह सभी समुदाय मांस का अधिक सेवन करते हैं। मृत्यु दर के हिसाब से देखें तो सबसे ज्यादा मौतें ऊंची जातियों के हिन्दुओं की हुई, जैसे कि ब्राह्मण, राजपूत, खत्री आदि। यह दर 72.27 त्न थी। इससे यह साफ हो गया कि चमारों की प्रतिरोधक क्षमता सबसे बेहतर थी। प्लेग से ठीक होने वालों में सबसे अधिक दर चमारों की 36 प्रतिशत और मुसलमानों की 34त्न थी। वहीं ब्राह्मणों, राजपूतों और खत्रियों में यह दर मात्र 28 प्रतिशत थी।
भारत में कोरोना महामारी के दौरान जाति और धर्म की भूमिका पर भी इन दिनों काफी लिखा जा रहा है, लेकिन उसे प्लेग की तरह एक शोध का दस्तावेज बनने में अभी थोड़ा वक्त लग सकता है। (navjivanindia.com)
रिचर्ड महापात्रा
सिएरा लियोन ने जब नई शताब्दी में प्रवेश किया था, तब शांति और समृद्धि की उम्मीद नहीं थी। उस समय इस देश में गृहयुद्ध चल रहा था जिसमें 50 हजार लोग मारे गए और 2002 तक 20 लाख लोग विस्थापित हुए। इसके 12 वर्ष बाद भी देश मेडिकल युद्ध लड़ रहा था यानी इबोला महामारी से जूझ रहा है। 2016 तक इसका लक्ष्य बीमारी को सीमित रखना था। इस दौरान विकास का काम ठप हो गया था।
लेकिन सिएरा लियोन के अंदर ऐसा कुछ चल रहा था जिसे दुनिया ने नहीं देखा। हालांकि यह दुनिया के सबसे गरीबी देशों में तब भी शुमार था और अब भी है। लेकिन इसने दुनिया को उस वक्त चौंका दिया जब वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआई) में कहा गया कि इस छोटे से देश ने सबसे तेजी से गरीबी कम की है।
द ऑक्सफोर्ड पॉवर्टी एंड ह्यूमन डेवलपमेंट इनिशिएटिव और यूनाइटेड नेशंस डेवलपमेंट प्रोग्राम (यूएनडीपी) ने हाल ही में यह सर्वेक्षण जारी किया है। इसमें एक जैसे आंकड़ों वाले 80 देशों की बहुआयामी गरीबी की तुलना की गई है। आय गरीबी के इतर सूचकांक में तीन पैमानों- स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवनस्तर को परखा जाता है। इनमें शामिल 10 संकेतकों के विश्लेषण के आधार पर देशों को रैंकिंग दी जाती है। कोई व्यक्ति बहुआयामी गरीब तब होता है, जब वह एक तिहाई संकेतकों या इससे अधिक से वंचित रहता है। यह आकलन का दसवां साल है। इसका अध्ययन करने पर पता चलता है कि विभिन्न देश गरीबी से संबंधित इन संकेतकों पर कितनी प्रगति कर रहे हैं।
एमपीआई 2020 के अनुसार, 107 देशों में 5.9 बिलियन लोगों का विश्लेषण करने पर पाया गया कि 1.3 बिलियन लोग बहुआयामी गरीब हैं। 65 देशों ने बहुआयामी गरीबी कम की है। सिएरा लियोन में इसकी दर सबसे तेज है। इसने बहुआयामी गरीबी में सालाना 4 प्रतिशत की कमी की है। यह कमी ऐसे समय में हुई है जब देश इबोला के प्रकोप से जूझ रहा है। इबोला के प्रकोप के एक साल पहले 2013 में सिएरा लियोन में 74 प्रतिशत लोग बहुआयामी गरीब थे। इबोला का प्रकोप खत्म होने के एक साल बाद यानी 2017 में यह घटकर 58 प्रतिशत रह गया। इस प्रगति को देखकर एमपीआई 2020 के लेखक इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इसकी तुलना दूसरे विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटेन की बेहतर हुई जीवन प्रत्याशा से कर दी। युद्ध के दौरान ब्रिटेन में यह बेहतर नीतियों और खाद्य वितरण प्रणाली के माध्यम से संभव हुआ था।
सिएरा लियोन में 2002 में गृहयुद्ध समाप्त होने के तुरंत बाद गरीबी कम करने का काम शुरू हुआ। सरकार ने बेहद प्रभावी कार्यक्रम के माध्यम से नि:शुल्क शिक्षा सुनिश्चित की। इसके साथ ही स्थानीय प्राधिकरणों को ताकत देकर बड़े पैमाने पर शासन का विकेंद्रीकरण किया। इससे मानव विकास के लिए जरूरी सेवाओं की बेहतर डिलीवरी हो पाई। सरकार इस मूलमंत्र पर चल रहा थी कि अगर परिवार का मुखिया शिक्षित होगा तो गरीबी से बाहर निकलने की प्रबल संभावना होगी। साथ ही वह आपदा से भी बेहतर तरीके से निपट सकेगा।
इसके अलावा सिएरा लियोन ने गरीबी का मापदंड भी बदल दिया। पहले वह आय से गरीबी मापता था, जिसे ऐसे तंत्र में परिवर्तित कर दिया गया जिससे गरीबी के कारण पता चलते हैं। 2017 में इस देश ने गरीबी के कारणों को जानने के लिए सर्वेक्षण किया। इससे नीति निर्माताओं को आय बढ़ाने वाली योजनाएं बनाने में मदद मिली। साथ ही साथ गरीबी को दूर करने के दीर्घकालीन उपाय भी पता चले। उम्मीद के मुताबिक सरकार ने स्वच्छ ईंधन, शिशु मृत्युदर और स्कूल में बच्चों की उपस्थिति से संबंधित योजनाओं को लागू किया। इसी का नतीजा था कि सिएरा लियोन ने पहले दो संकेतकों पर उल्लेखनीय सुधार किया।
एमपीआई 2020 की तरह स्कूलों में बढ़ते दाखिलों से गरीबी को कई स्तरों पर मापा जा सकता है। गरीबी को केवल आय और व्यय के आधार पर परखने पर खुशहाली की तस्वीर तो दिख जाती है लेकिन यह नहीं पता चलता कि गरीबी को बढ़ाने वाले कारक कौन से हैं। गरीबी रेखा से नीचे बने रहने के कारण भी इससे पता नहीं चलते। ऐसे समय में जब दुनिया समग्र मानव विकास को उसकी खुशहाली से जोड़ रही है, तब हमें गरीबी के बहुआयामी मूल्यांकन की जरूरत है। सिएरा लियोन से भी यही सबक मिलता है।
मध्यप्रदेश में सत्ता की चाहत में जनता को खतरे में डाला
-पंकज मुकाती
(राजनीतिक विश्लेषक )
लापरवाह..गैरजिम्मेदार..जनता की जान के दुश्मन... कोरोना प्रतिनिधि...शिवराज सरकार के मंत्रियों पर ये सारे शब्द इस वक्त एक दम सटीक है। मध्यप्रदेश में सरकार ने ही कोरोना प्रसार का जिम्मा ले रखा है। ऐसा लगता है मानो शिवराज कैबिनेट में कोरोना फैलाने की होड़ लगी है। एक के बाद एक मंत्री संक्रमित हो रहे हैं। पर कोई भी सुधारने को तैयार नहीं। नेता, मंत्री और उनके समर्थकों की भीड़ प्रतिदिन जुट रही है। शुरुवात में कांग्रेस सरकार पर कोरोना में लापरवाही का आरोप लगाने वाले शिवराज और ज्योतिरादित्य सिंधिया अब खुद अपने-अपने समर्थकों के साथ सत्ता के शक्ति प्रदर्शन में कोरोना फैलाने पर आमादा हैं। ये सभी जनता की जान के दुश्मन बनते नजर आ रहे हैं। देश में सर्वाधिक मंत्री और संघ से जुड़े लोग मध्यप्रदेश में ही संक्रमित हुए हैं।
मंगलवार को उज्जैन के विधायक और प्रदेश के उच्च शिक्षा मंत्री मोहन यादव संक्रमित हो गए। यादव सोमवार को पूरा दिन राज्यसभा सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ महाकाल की सवारी के आयोजन में शामिल रहे। वे पूरा दिन सिंधिया के साथ रहे। इस आयोजन में भाजपा की वरिष्ठ नेता उमा भारती, मंत्री कमल पटेल, तुलसी सिलावट और सैकड़ों कार्यकर्त्ता बिना सोशल डिस्टेंसिंग के एक दम सटकर पूजा में बैठे रहे। तस्वीरों में सब एक दूसरे से इस कदर बैठे हैं मानों सिंधिया से एक इंच की दूरी भी उनकी आस्था को कम कर देगी। राजनीतिक सत्ता की भूख और बड़े नेताओं के करीब दिखने का ये तमाशा प्रदेश की करोड़ों जनता की सेहत पर भारी पड़ सकता हैं।
करीबी की रिपोर्ट पॉजिटिव आने के बाद भी यादव आयोजन में बने रहे
माना जा रहा है कि मोहन यादव के निवास पर सोमवार को रखे गए सिंधिया के सम्मान कार्यक्रम में शामिल दीनदयाल मंडल के एक पदाधिकारी के संपर्क में आने से संक्रमित हुए हैं। इस पदाधिकारी की रिपोर्ट सोमवार को ही पॉजिटिव आई थी। इसके बाद से ही भाजपा सांसद अनिल फिरोजिया, नगर अध्यक्ष विवेक जोशी, उपाध्यक्ष अमित श्रीवास्तव सहित 200 से ज्यादा कार्यकर्ताओं ने खुद को होम आइसोलेट कर लिया था, पर मोहन यादव पूरे वक्त सिंधिया के साथ बने रहे।
तुलसी सिलावट के सारे गुनाह माफ़
ज्योतिरादित्य सिंधिया के सबसे करीबी तुलसी सिलावट तो कोरोना गुनाहों के देवता बनते नजर आ रहे हैं। सबसे पहले तो मुख्यमंत्री की रिपोर्ट पॉजिटिव आने के बाद भी तुलसी सिलावट आइसोलेट नहीं हुए। वे दूसरे ही दिन भाजपा कार्यालय इंदौर में एक बैठक में पहुँच गए। पत्रकारों के सवालों के जवाब में बचकाना सा जवाब दिया -भाजपा कार्यालय मेरा घर है और मैं होम आइसोलेट ही हूं। मुख्यमंत्री के निर्देश पर उन्होंने जांच करवाई और रिपोर्ट पॉजिटिव निकली। इसके बाद भी वे नहीं माने सोमवार को इंदौर में सिंधिया को लेने एयरपोर्ट पहुंचे। बाद में वे पूरा दिन सिंधिया के साथ रहे। इंदौर सांसद सुमित्रा महाजन के अलावा वे कैलाश विजयवर्गीय के घर डिनर में भी सिंधिया के साथ रहे।
मुख्यमंत्री इस दौड़ में सबसे आगे
ऐसा ही नहीं कि सिर्फ मंत्री ऐसी लापरवाही कर रहे हैं। खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का व्यवहार भी ऐसा ही है। वे पॉजिटिव होने के बाद भी अस्पताल में सक्रिय रहे। उनसे मिलने लोग आते रहे। अस्पताल में उन्होंने एक संक्रमित से राखी भी बंधवाई। आखिर कोरोना के इस दौर में अस्पताल में ऐसा करने की छूट उन्हें किसने दी।
उमा भारती, कमल पटेल भी मुश्किल में
उज्जैन में पूरे वक्त मोहन यादव के साथ रही उमा भारती और कृषि मंत्री कमल पटेल के भी संक्रमित होने का खतरा बना हुआ है। इसके अलावा इंदौर में हजारों कार्यकर्त्ता इसकी चपेट में आ सकते हैं।
संक्रमितों की इस सूची को देखिये आप समझ जायेंगे संक्रमण कौन फैला रहा
शिवराज सिंह चौहान (मुख्यमंत्री
ज्योतिरादित्य सिंधिया (सांसद )
अरविंद भदौरिया (मंत्री)
तुलसी सिलावट (मंत्री )
मोहन यादव (मंत्री )
विश्वास सारंग (मंत्री )
ओमप्रकाश सकलेचा (मंत्री )
रामखेलावन पटेल (मंत्री )
महेंद्र सिसोदिया (मंत्री )
हीरासिंह राजपूत (गोविंद राजपूत मंत्री के भाई)
वीडी शर्मा (भाजपा प्रदेश अध्यक्ष )
सुहास भगत - संगठन मंत्री
आशुतोष तिवारी -सहसंगठन मंत्री
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
क्या हम आज फेसबुक और व्हाट्सऐप के बिना रह सकते हैं ? सुबह उठते ही करोड़ों भारतीय भगवान का नाम लेते हैं या नहीं, लेकिन अपने फेसबुक और व्हाट्सऐप को जरूर देखते हैं। यह हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन गए हैं। भारत तो फेसबुक का दुनिया में सबसे बड़ा उपभोक्ता बन गया है लेकिन फेसबुक पर गंभीर लापरवाही के आरोप लग रहे हैं।
मेरी राय में फेसबुक, अब ठेसबुक बनती जा रही है। उस पर लोग झूठी खबरें, निराधार निंदा, अश्लील चर्चा, राष्ट्रविरोधी अफवाहें याने जो चाहें सो चला देते हैं। ऐसी बातों से लोगों का, संस्थाओं का और देश का अथाह नुकसान होता है। ऐसे ही कुछ मामले अभी-अभी सामने आए हैं। अमेरिका के अखबार ‘वाल स्ट्रीट जर्नल’ में छपी एक खबर से पता चला है कि भारत में भाजपा के चार नेताओं ने फेसबुक का इस्तेमाल हिंसा भडक़ाने के लिए किया, जो कि फेसबुक के नियमों का स्पष्ट उल्लंघन है लेकिन भारत में फेसबुक की कर्ता-धर्ता महिला ने कह दिया कि उन ‘खतरनाक दोषियों’ के खिलाफ हम कार्रवाई करते तो हमें व्यापारिक नुकसान हो जाता। कुछ ऐसे ही तर्कों के विरुद्ध अमेरिकी संसद ने सख्त कार्रवाई की थी और इस तरह की संचार-संस्थाओं को दंडित भी किया था।
भारत में भी सूचना तकनीक की स्थायी संसदीय समिति के अध्यक्ष शशि थरुर ने इस मामले में फेसबुक की जांच की मांग की है। थरुर की मांग पर भाजपा को नाराज होने की जरुरत नहीं है, क्योंकि भाजपा ने तो अपने उन सांसदों और नेताओं को खुद ही काफी डांट-फटकार लगाई थी। बेंगलुरु और दिल्ली में हुए सांप्रदायिक दंगों को कुछ गैर-जिम्मेदार लोगों ने उत्तेजना जरुर दी लेकिन किसी पार्टी ने उसे योजनाबद्ध ढंग से भडक़ाया हो, ऐसा मानना कठिन है।
फिर भी फेसबुक और व्हाट्साप को मर्यादित करना बहुत जरुरी है। इसे पार्टीबाजी का मामला नहीं बनाया जाना चाहिए। यदि इसे लेकर कांग्रेसी भाजपा पर हमला करेंगे तो भाजपा भी ‘केम्ब्रिज एनालिटिका’ का मामला उठाकर कांग्रेस की खाट खड़ी कर देगी।
यह कहना तो ज्यादती ही है कि फेसबुक की प्रमुख अखी दास ने जान-बूझकर भाजपा के साथ पक्षपात किया है, क्योंकि उनके कोई रिश्तेदार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े हुए हैं। ऐसा कहना विषयांतर करना होगा। यह मामला इतना गंभीर है कि इसे पार्टी के चश्मे से देखने की बजाय राष्ट्रीय दृष्टि से देखा जाना चाहिए।
भारत की संसदीय समिति में सभी दलों के लोग हैं। वे सर्वसम्मति से फेसबुक और व्हाट्साप के दुरुपयोग को रोकें, यह बहुत जरूरी है। यदि यह नहीं हुआ तो चीन की तरह भारत में भी फेसबुक को लोग ठेसबुक कहने लगेंगे और वह अंर्तध्यान हो जाएगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
नवीन अग्रवाल
कोरोना के कारण अर्थव्यवस्था परास्त और हताश है, आखिर इसका जिम्मेदार कौन है, सरकार या अफसर। सरकार को लगता है कि कोरोना सडक़ पर घूमने वाली बीमारी है, जिसे बेरिकेड्स लगाकर रोका जा सकता है। हालांकि कुछ लोग इससे भी सहमत मिलेंगे, दरअसल उनके पेट भरे हुए है। दो महीने तक लगे देशव्यापी लॉक डाउन ने लोगो ने देशभर मे तमाशा देख लिया, कुछ हासिल हुआ क्या। याद करिये उस समय का कोई दृश्य जब एक लाठीधारी पुलिस वाला किसी निरीह को बुरी तरह मार रहा था, क्या हुआ। नहीं मारता तो कोरोना और बढ़ जाता क्या, या उसने मारपीट करके दस पांच लाख लोगों को कोरोना होने से बचा लिया। याद करो वो दृश्य जब कुछ लोग पटरी पर थक कर सो गए थे और उनके ऊपर से ट्रेन गुजर गई, उनको सडक़ किनारे सोने दे दिया जाता तो कोरोना के कितने पेशेंट बढ़ जाते ? ऐसे अनगिनत दृश्य है जिन्हें याद किया जाये तो समझ आएगा कि ये सब कोरोना के नाम पर क्रूरता थी।
पुलिस सडक़ पर उठक-बैठक करा रही थी, हेलमेट नहीं पहनने पर चालान काट रही थी, इस सबसे कोरोना रुक गया क्या गलती केवल पुलिस की नहीं थी, सरकार और अधिकारी सब ये देख रहे थे। कोई जनता के साथ नही था । जिस समय सरकार को फ्रंट फुट में होना था वो कोरोना के डर से घर मे दुबकी पड़ी थी। श्रमिक स्पेशल ट्रेन के पैसे के लिए रेलवे विभाग अड़ा हुआ था, कितना पैसा कमा लिया रेलवे ने, नहीं कमाती तो क्या जीडीपी 2-4 परसेंट गिर जाती ? कितने ही लोग भूखे-प्यासे मर गए इन ट्रेनों में, क्या कोरोना उससे कंट्रोल में आ गया। दरअसल सरकार की आत्मा मर चुकी है।
इतना बुरा बर्ताव तो आजादी के बाद देश भर में एक साथ कभी नहीं हुआ, पर सरकार टस से मस नही हुई। सरकार के पास मुख्य रुप से कमी थी मास्क की, पीपीई किट की, सेनेटाईजर की, ये कमी किसने दूर किया ,ये कमी भी व्यापारियों ने ही पूरी की, जिसे डंडा मार कर पुलिस घर मे बैठने कह रही थी। क्या आपको याद पड़ता है कि किसी विधानसभा क्षेत्र में कोई विधायक मौजूद हो और जागरूकता या मदद की बात कर रहा हो, वैसे विधायक आपका क्या भला करेंगे जो इस कठिन समय मे निकलकर नहीं आए। ये तो सरकार के लिए कठिन परीक्षा का दौर था हर विधायक अपने अपने इलाके के प्रशासन के साथ खड़ा दिखना था। लेकिन पूरे देश ने पुलिस और प्रशासन का तांडव देखा, और चुने हुए जन प्रतिनिधि तमाशा देखते रहे क्योंकि उन्हें सिर्फ अपनी सेहत की चिंता थी।
देश भर में गिनेचुने जनप्रतिनिधि भी केवल फोटो खिंचाऊ मुद्रा में नजऱ आए। हकीकत यह थी कि पूरे कोरोना प्रबंधन में जनप्रतिनिधियों की कोई भूमिका ही नहीं थी। हकीकत यह है कि कोरोना तंत्र इस तरह डिज़ाइन किया गया कि जनप्रतिनिधि बाहर हो जाएं और निरंकुश नौकरशाही सब कुछ अपने हाथों में ले ले।दरअसल यह चुनौती लोकतंत्र के लिए है। आज का दौर तो निकल जायेगा,लेकिन भविष्य में जब मजबूत नौकरशाही होगी और कमज़ोर जनप्रतिनिधि होंगे तब क्या होगा?जब लॉक डाउन के एंट्री पास के लिए आज जिन अफसरों के सामने जनप्रतिनिधि लगभग गिड़गिड़ाने की मुद्रा में थे,भविष्य में भी वो नौकरशाह अपने आपको जनप्रतिनिधियों से ऊपर ही समझेंगे। यकीन मानिए नया वर्ल्ड आर्डर अब यही है। कोरोना प्रबंधन ने जनप्रतिधियों को, राजनीतिज्ञों को और अछूत बना दिया! जनता को लगता है कि माई-बाप कलेक्टर है या एसपी या वो अच्छा वाला पुलिस अंकल जो गाना गा कर लॉक डाउन में मन बहला रहा था।
लॉक डाउन में जब लाखों मजदूर सडक़ों पर थे तब जिस चीज़ की कमी थी वो थे जनप्रतिनिधि।शायद इसीलिए भी तब श्रमिकों को प्रबंधन का मानवीय चेहरा नहीं दिखा।जनप्रतिनिधि हमेशा जनहित में काम करता है ऐसा नहीं है, पर वो जानता है कि उसे लौट कर इस जनता के सामने जाना है। किसी अफसर को कभी भी जनता का सामना नहीं करना होगा। इस कोरोना प्रबंधन ने जनता और जन प्रतिनिधि के बीच की खाई भी और चौड़ी कर दी। यह है नया वल्र्ड आर्डर। तैयार रहिए- एक निरंकुश व्यवस्था आपका इंतजार कर रही है।
रेड ग्रीन और ऑरेंज जोन इसी में उलझ कर रह गया देश, समझ में नहीं आता था कब हमारा जिला हरा से लाल हो गया, मतलब कोरोना के नाम पर ऐसा तमाशा मचाया गया है कि दस बीस साल बाद जब इस पर किताब लिखी जाएगी तो कोरोना की चर्चा कम होगी, सरकार की चर्चा ज्यादा होगी। याद रखना वोट देने जाओ जब... आप दूध फल सब्जी के लिए कैसे भटके थे, किराया पटाने के लिए मकान मालिक से कितनी मिन्नत किए थे। कैसे पुलिस ने आपसे बात की थी, कोरोना तो चले जाएगा एक न एक दिन पर क्रूरता के इस दौर को हमेशा याद रखना ।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
बहुचर्चित वकील प्रशांत भूषण को सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी मानहानि करने का दोषी करार दिया है और शीघ्र ही उन्हें सजा भी दी जाएगी। उनका दोष यह बताया गया है कि उन्होंने कुछ जजों को भ्रष्ट कहा है और वर्तमान सर्वोच्च न्यायाधीश पर भी आपत्तिजनक टिप्पणी कर दी थी। यह बात तो बिल्कुल ठीक है कि किसी भी नेता या न्यायाधीश पर भ्रष्टाचार का आरोप यों ही नहीं लगा दिया जाना चाहिए और उनके बारे में बेलगाम भाषा का भी इस्तेमाल नहीं होना चाहिए लेकिन यह भी सत्य है कि कोई दूध का धुला है या नहीं, इस तथ्य पर संदेह की उंगली हमेशा उठी रहनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं होगा तो भारत की सरकार, प्रशासन और अदालतों का स्वच्छ रहना असंभव होगा। नेता, अफसर और जज भी आम आदमियों की तरह इंसान ही तो हैं। ये कोई आसमान से उतरे हुए फरिश्ते तो नहीं हैं। यह भी सच है कि फिसलता तो वही है, जो सीढ़ी पर चढ़ा होता है।
सत्ता के सिंहासन पर बैठे हुए इन लोगों पर प्रशांत भूषण जैसे लोग ही अंकुश लगाते रहते हैं। डॉ. लोहिया और मधु लिमये जैसे सांसद और डॉ. अरुण शौरी जैसी पत्रकार ही इनकी बखिया उधेड़ते रहे हैं। राजनीति के बारे में तो सभी लोग मानने लगे हैं कि वह भ्रष्टाचार के बिना चल ही नहीं सकती लेकिन हमारे न्यायाधीशों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। ज्यादातर न्यायाधीश निष्पक्ष, निडर और निस्वार्थ होते हैं लेकिन कुछ ऐसे भी होते हैं, जिन पर संसद को महाभियोग चलाना पड़ता है और उच्च न्यायालय के दो जज ऐसे भी थे, जिन्हें संसद ने दोषी पाया और उन्हें इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया। कुछ समय पहले सर्वोच्च न्यायालय के चार जजों ने पत्रकार परिषद करके अपना असंतोष जाहिर किया था। 1964 में एक संसदीय कमेटी ने माना था कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार होता है। दो सर्वोच्च न्यायाधीशों ने भी ऐसा ही कहा था। भ्रष्टाचार का अर्थ सिर्फ रिश्वतखोरी ही नहीं है। सेवा-निवृत्त होते ही जजों का राज्यपाल या राज्यसभा सदस्य या राजदूत बन जाना किस प्रवृत्ति का सूचक है ? वरिष्ठों की उपेक्षा और कनिष्ठों की पदोन्नति किस बात की ओर संकेत करती है ? ठकुरसुहाती करने में कई न्यायाधीश क्या-क्या फैसले नहीं दे देते हैं ? हमने आपात्काल में यह सब होते हुए देखा था या नहीं ? इसीलिए प्रशांतभूषण के आरोपों से नाराज होने की बजाय जजों को न्यायपालिका के काम-काज को सुधारने पर ध्यान देना चाहिए। उन्होंने प्रशांत भूषण को दोष तो दे ही दिया है, क्या उन्हें दंड देना भी जरुरी है ? प्रशांत भूषण ने स्पष्ट कहा है कि वह अदालत की अवमानना कतई नहीं करना चाहते।
(नया इंडिया की अनुमति से)
मनरेगा के तहत अजमेर सहित पांच जिलों में ग्रामीण अंचलों के स्कूलों में किक्रेट मैदान, बास्केटबॉल कोर्ट और ट्रैक एंड फील्ड बनाए गए
-अनिल अश्वनी शर्मा
राजस्थान के गांवों की नवपौध यानी बच्चे जब स्कूल जाते हैं तो उन्हें स्कूल तो जैसे-तैसे नसीब हो जाता है, लेकिन खेल के मैदान के नाम पर स्कूल के आसपास की खाली पड़ी जमीनों पर लगी जंगली झाड़ियों से भरा मैदान ही नसीब हो पाता है। वहीं राज्य सरकार की प्राथमिकताएं भी ग्रामीण अंचलों में खेल मैदान तो दूर केवल स्कूल खोलने तक ही सीमित रहती हैं, लेकिन महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के तहत इस कमी को दूर करने का प्रयास किया जा रहा है।
अकेले अजमेर जिले में मनरेगा के माध्यम से अब तक नौ स्कूलों में खेल के मैदान, ट्रैक एंड फील्ड और बाक्केटबॉल कोर्ट तैयार किए गए हैं। इस सबंध में अजमेर जिला परिषद में मनरेगा अधिकारी गजेंद्र सिंह राठौर ने डाउन टू अर्थ को बताया कि हमने यह महसूस किया है कि मरनेगा के तहत कहने के लिए तमाम विकास कार्यों को स्वीकृति दी जा रही है। और जिस प्रकार से हमने जिले में तमाम जल स्त्रोतों को पुनर्जीवित करने के साथ अन्य विकास कार्यों को शुरू करने के लिए पहले पहल ग्रामीणों के साथ बैठक कर अंतिम निर्णय पहुंचे थे। ठीक उसी प्रकार से मई में हमने कम से कम आधा दर्जन से अधिक स्कूलों से बातचीत की और इस दौरान यह बात निकल कर आई कि स्कूल तो हैं लेकिन खेल के मैदान नदारद।
वे बताते हैं कि ऐसे में हमने अब तक चार स्कूलों में खेल के मैदान, 200 मीटर दौड़ के लिए ट्रैक एंड फील्ड और बास्केटबॉल के मैदान तैयार किए हैं। स्कूलों में बने खेल के मैदान के संबंध में जिले के एक अन्य मनरेगा अधिकारी अमित माथुर बताते हैं कि अकेले राजस्थान में ही नहीं देशभर के ग्रामीण अंचलों में सरकारों ने स्कूल तो खोल दिए हैं लेकिन अधिकांश स्कूलों में खेल के मैदान नहीं होते हैं। और इसे एक कमी के रूप में कोई भी नहीं उठाता।
वह बताते हैं कि अक्सर इसके लिए वित्तीय संसाधन की कमी को एक बड़े कारण के रूप में बताया जाता है। चूंकि हमारे पास मनरेगा फंड था तो हमने इस प्रकार से मनरेगा में खर्च करने की तैयारी की, ताकि गांव में हर प्रकार की मूलभूत सुविधाओं का निर्माण हो सके। केवल तालाब या नाली या सड़क तक ही मनरेगा के कामों को सीमित नहीं रखा गया।
उन्होंने बताया कि हमने देखा कि कई गांवों में स्कूल तो हैं लेकिन खेल के मैदान नहीं, ऐसे में हमने ग्राम पंचायत प्रमुख से बातचीत करके उनसे जमीन लेकर मनरेगा के तहत खेल मैदान तैयार करवाए। वह बताते हैं कि किक्रेट अब अकेले शहरी खेल नहीं रहा, अब बड़ी संख्या में ग्रामीण बच्चे भी इसमें अपना कौशल दिखाने में पीछे नहीं रहते। इसी बात को ध्यान में रखकर हमने दो स्थानों पर तो बकायदा किक्रेट खेलने के लिए सीमेंट की पिच तक तैयार करवा दी है। ताकि कोई भी खेल प्रतिभा केवल इस बिना पर पीछे न रह जाए कि उसके पास खेल के मैदान नहीं था, इस प्रकार दो स्कूलों में बास्केटबॉल कोर्ट भी तैयार किए हैं। (downtoearth)
दुनिया भर में बढ़ते एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स के लिए एंटीबायोटिक दवाओं के बढ़ते उपयोग के साथ-साथ प्रदूषण में हो रही वृद्धि भी जिम्मेवार है
-ललित मौर्य
दुनिया भर में एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स, स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर समस्या बनती जा रही है। इसके विषय में हाल ही में किए एक नए शोध से पता चला है कि यह केवल बढ़ते एंटीबायोटिक दवाओं के अनावश्यक उपयोग के कारण ही नहीं हो रहा है, इसके लिए बढ़ता प्रदूषण भी जिम्मेवार है। यह शोध यूनिवर्सिटी ऑफ जॉर्जिया के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया है, जोकि जर्नल माइक्रोबियल बायोटेक्नोलॉजी में प्रकाशित हुआ है।
वैज्ञानिकों ने प्रदूषण और एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स के सम्बन्ध को समझने के लिए जीनोमिक एनालेसिस की मदद ली है। जिससे पता चला है कि भारी धातु के प्रदूषण और एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स के बीच एक मजबूत सम्बन्ध है। वैज्ञानिकों के अनुसार जिस मिटटी में भारी धातुओं की अधिकता थी उसमें बड़ी मात्रा में वो बैक्टीरिया मौजूद थे जिनके जीन में एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स के गुण मौजूद थे।
शोधकर्ताओं के अनुसार इस मिटटी में एसिडोबैक्टीरियोसाय, ब्रैडिरिज़ोबियम और स्ट्रेप्टोमी जैसे बैक्टीरिया मौजूद थे। इन बैक्टीरिया में एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी जीन होते हैं जिन्हें एआरजी के रूप में जाना जाता है। जिसकी वजह से इनपर वैनकोमाइसिन, बेसिट्रेसिन और पोलीमैक्सिन जैसे एंटीबायोटिक का असर नहीं होता है। इन तीनों दवाओं का उपयोग मनुष्यों में संक्रमण के इलाज के लिए किया जाता है।
इस शोध से जुड़े शोधकर्ता जेसी सी थॉमस के अनुसार इन बैक्टीरिया में जो एआरजी जीन होते हैं, वो इन्हें मल्टीड्रग रेसिस्टेन्स बनाने के साथ-साथ इन भारी धातुओं से भी बचाते हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार जब ये एआरजी मिट्टी में मौजूद थे, तब उन सूक्ष्मजीवों में आर्सेनिक, तांबा, कैडमियम और जस्ता सहित कई धातुओं के लिए, धातु प्रतिरोधी जीन (एमआरजी) भी मौजूद थे।
थॉमस के अनुसार वातावरण में जैसे-जैसे एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग बढ़ रहा है यह सूक्ष्मजीव उतना ज्यादा इन दवावों के प्रति अपनी प्रतिरोधी क्षमता को विकसित कर रहे हैं। लेकिन इन बैक्टीरिया में मौजूद जीन केवल एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति ही रेसिस्टेंट नहीं होते इसके साथ ही यह कई अन्य यौगिकों के प्रति भी प्रतिरोध विकसित करते हैं जो सेल्स को नुकसान पहुंचा सकते हैं। जिसमें यह हैवी मेटल्स भी शामिल हैं।
पब्लिक हेल्थ कॉलेज में प्रोफेसर ट्रेविस ग्लेन के अनुसार चूंकि एंटीबायोटिक दवाओं के विपरीत, भारी धातुएं पर्यावरण में आसानी से ख़त्म नहीं होती इसलिए वो लम्बे समय तक नुकसान पहुंचा सकती हैं। थॉमस के अनुसार एंटीबायोटिक दवाओं का अत्यधिक उपयोग ही केवल एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स का कारण नहीं है। कृषि और जीवाश्म ईंधन, खनन जैसी गतिविधियों के कारण भी यह बढ़ रहा है।
क्या होता है एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स
एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स तब उत्पन्न होता है, जब रोग फैलाने वाले सूक्ष्मजीवों (जैसे बैक्टीरिया, कवक, वायरस, और परजीवी) में रोगाणुरोधी दवाओं के संपर्क में आने के बाद से बदलाव आ जाता हैं और वो इन दवाओं के प्रति प्रतिरोध विकसित कर लेते हैं। नतीजतन, यह दवाएं इन पर अप्रभावी हो जाती हैं। इसके कारण संक्रमण शरीर में बना रहता है। इन्हें कभी-कभी "सुपरबग्स" भी कहा जाता है।
दुनिया में कितना बड़ा है एंटीबायोटिक रेसिस्टेंट का खतरा
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि दुनिया में एंटीबायोटिक रेसिस्टेंट एक बड़ा खतरा है। अनुमान है कि यदि इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो 2050 तक इसके कारण हर साल करीब 1 करोड़ लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ सकती है। वहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 2030 तक इसके कारण 2.4 करोड़ लोग अत्यधिक गरीबी का सामना करने को मजबूर हो जाएंगे। साथ ही इससे वैश्विक अर्थव्यवस्था को भी भारी नुकसान उठाना पड़ेगा।
शोधकर्ताओं के अनुसार इन बैक्टीरिया के बारे में जानना जरुरी है कि समय के साथ यह कैसे विकसित हो रहे हैं। यह हमारे भोजन, पानी के जरिए हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकते हैं। इसलिए सही समय पर इनसे निपटना जरुरी है। (downtoearth)
-जुबैर अहमद(बीबीसी संवाददाता)
फे़सबुक भारत में राजनीतिक विवाद में फंस गया है. अमरीका के अख़बार 'वॉल स्ट्रीट जर्नल' के मुताबिक फ़ेसबुक ने आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) और वैचारिक रूप से संघ के क़रीब मानी जाने वाली सत्तारूढ़ बीजेपी की मदद की है. अब विपक्ष इस मुद्दे को लेकर हमलावर है.
शुक्रवार को 'वॉल स्ट्रीट जर्नल' में छपी एक रिपोर्ट में फे़सबुक के कुछ मौजूदा और पूर्व कर्मचारियों के हवाले से दावा किया गया है कि इस सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ने बीजेपी नेताओं और कार्यकर्ताओं की हेट स्पीच और सांप्रदायिक कंटेंट को नज़रअंदाज किया है. फे़सबुक के पास ही वॉट्सऐप और इंस्टाग्राम का भी मालिकाना हक है.
निष्पक्षता को लेकर फे़सबुक के दावों पर सवालिया निशान?
विश्लेषकों का कहना है कि 'वॉल स्ट्रीट जर्नल' की ओर से फे़सबुक पर लगाए गए आरोपों ने इसकी निष्पक्षता के दावों पर सवालिया निशान खड़े कर दिए हैं. इस आरोप की वजह से फे़सबुक पर चले 2014 और 2019 के चुनावी अभियानों को भी शक़ की निगाहों से देखा जाने लगा है. इन दोनों चुनावों में बीजेपी को भारी बहुमत मिला था.
वरिष्ठ पत्रकार और लेखक परंजॉय गुहा ठाकुरता ने पिछले साल आई अपनी किताब में बीजेपी और फे़सबुक के रिश्तों की पड़ताल की थी. ठाकुरता कहते हैं कि उन्हें विश्वास है कि फे़सबुक और वॉट्सऐप ने पिछले दो लोकसभा चुनावों के नतीजों को काफी अधिक प्रभावित किया है. उन्होंने बीबीसी से कहा कि वॉल स्ट्रीट जर्नल की स्टोरी ने भारत में फेसबुक की भूमिका की उनकी जांच पर मुहर ही लगाई है.
वह कहते हैं, "भारत में 40 करोड़ फे़सबुक यूज़र्स हैं और 90 करोड़ वोटर. देश में चुनाव से पहले, बाद में और इसके दौरान इस प्लेटफ़ॉर्म का दुरुपयोग होने दिया गया. लोगों ने किसे वोट डाला और कैसे वोट डाला इस पर निश्चित तौर पर इनका बड़ा असर रहा है. संक्षेप में कहें तो आज की तारीख में फे़सबुक और वॉट्सऐप जिस तरीके से काम कर रहे हैं, इससे न सिर्फ़ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में लोकतंत्र को ख़तरा पैदा हुआ है".

फे़सबुक का दोहरा रवैया?
आलोचकों का कहना है कि फे़सबुक अलग-अलग देशों के लिए अलग-अलग नियम और गाइडलाइंस बनाता है. फे़सबुक दूसरे देशों में सत्ताधारी दलों के आगे हथियार डाल देता है लेकिन अमेरिका में जहां इसका मुख्यालय हैं, वहां राजनीति से दूरी बनाता दिखता है. यह इसका दोहरा रवैया है.
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने मोदी सरकार पर आरोप लगाया है कि वह फे़सबुक और वॉट्सऐप को नियंत्रित कर रही है. उन्होंने संसद की संयुक्त कमेटी से इसकी जांच कराने की मांग की है.
लेकिन बीजेपी के वरिष्ठ नेता और केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने सरकार का बचाव किया है. उन्होंने कहा कि फे़सबुक, वॉट्सऐप को नियंत्रित करने में उनकी सरकार की कोई भूमिका नहीं है. प्रसाद ने ट्वीट कर कहा, "जो लूज़र ख़ुद अपनी पार्टी में भी लोगों को प्रभावित नहीं कर सकते वो इस बात का हवाला देते रहते हैं कि पूरी दुनिया को बीजेपी और आरएसएस नियंत्रित करते हैं."
अमरीका में अपने मुख्यालय से बयान जारी करते हुए फे़सबुक ने इन आरोपों का खंडन किया है. उसके बयान में कहा गया है, " हम हिंसा भड़काने वाले हेट स्पीच और कंटेंट को रोकते हैं. पूरी दुनिया में हमारी यही पॉलिसी है. हम किसी राजनीतिक पार्टी का पक्ष नहीं लेते हैं और न हमारा किसी से जुड़ाव है".
हालांकि फे़सबुक ने माना है कि इस तरह के मामलों से बचने के लिए और भी काफ़ी कुछ करना होगा. अपने बयान में उसने कहा, "हमें पता है कि इस दिशा में अभी कुछ और क़दम उठाने होंगे. लेकिन हम अपनी प्रक्रिया के लगातार ऑडिट और उन्हें लागू करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं ताकि हमारी निष्पक्षता और सटीकता पर आंच न आए."
फे़सबुक और बीजेपी की नज़दीकियों की पड़ताल
फे़सबुक और बीजेपी सरकार के बीच संबंधों की खबरों से ठाकुरता को अचरज नहीं हुआ. वह कहते हैं, "पिछले साल जब मैंने फे़सबुक पर किताब लिखी और इसके और वॉट्सऐप से मोदी सरकार के नजदीकी रिश्तों का ब्योरा दिया तो मीडिया ने इसे नजरअंदाज किया. अब जब एक विदेशी अख़बार ने यह मुद्दा उठाया है तो मीडिया में गज़ब की फुर्ती और दिलचस्पी दिख रही है".
ठाकुरता ने बीबीसी से कहा कि फे़सबुक और मोदी की पार्टी बीजेपी की दोस्ती काफी पुरानी है. मोदी को सत्ता में पहुंचाने वाले 2014 के लोकसभा चुनावों से पहले दोनों के बीच काफी अच्छे रिश्ते बन चुके थे.

फे़सबुक से लोकतंत्र को खतरा ?
अमरीका और यूरोप के राजनीतिक नेताओं ने लोकतंत्र के सिद्धांतों को कथित तौर पर चोट पहुंचाने के लिए फे़सबुक और दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को कटघरे में खड़ा किया है.
ब्रिटेन में हयूमन राइट्स कमेटी के अध्यक्ष हैरियट हरमन का कहना है "आमतौर पर सांसद काफी शिद्दत से यह मान रहे हैं सोशल मीडिया जो कुछ कर रहा है उससे लोकतंत्र के लिए ख़तरा पैदा हो रहा है".
इस तरह के कई मामलों के बाद फे़सबुक और वॉट्सऐप पर चारों ओर से अपने कामकाज में सुधार लाने के दबाव बढ़ने लगे हैं. ट्विटर जैसे दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर यूज़र फे़सबुक के सीईओ मार्क जुकरबर्ग को सलाह दे रहे हैं वह भारत में अपनी कंपनी की गड़बड़ियों को ठीक करे. हालांकि ट्विटर पर भी गड़बड़ी के आरोप लगते रहे हैं.
ज़करबर्ग की पिछले दिनों अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के पोस्ट के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई न करने पर आलोचना हुई थी. फे़सबुक के शुरुआती दौर में इसमें काम कर चुके 30 कर्मचारियों ने सार्वजनिक तौर पर एक चिट्ठी लिख कर कहा था कि ट्रंप को पोस्ट को मॉडरेट करने से फे़सबुक का इनकार करना ठीक नहीं है. इसने अमरीकी जनता को उन ख़तरों की ओर धकेल दिया, जिन्हें वह पहले ही देख चुका है. इस पत्र में फे़सबुक पर दोहरा रवैया अपनाने का आरोप लगाया गया था.
हेट स्पीच और हिंसा के ख़िलाफ़ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के इन-हाउस गाइडलाइंस होते हैं और वे इन्हें बढ़ावा देने के ख़िलाफ़ कार्रवाई भी करते हैं. लेकिन इस मामले में वो ज्यादातर यूज़र पर ही निर्भर रहते हैं कि वे नियमों के उल्लंघन के प्रति उन्हें सतर्क करें.
ज़करबर्ग ने हाल ही में इसराइली इतिहासकार युआल नोह हरारी से कहा था कि फे़सबुक के लिए यूज़र की प्राइवेसी और उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सर्वोपरि है. लेकिन हरारी इससे सहमत नहीं थे. उनका कहना था कि ऐसे मामलों में फे़सबुक ने सब कुछ यूज़र पर छोड़ दिया है. उसे इन मामलों में एक कदम आगे बढ़ कर काम करना चाहिए क्योंकि आम आदमी को अक्सर यह पता नहीं होता कि उसका फायदा उठाया जा रहा है. उनका कहना था आम यूज़र के पास फेक न्यूज़ का पता करने का ज़रिया नहीं होता.
'सोशल मीडिया का मकसद सिर्फ पैसा कमाना'
ठाकुरता का कहना है कि सोशल मीडिया का राजनीतिक या कोई और दूसरा मकसद नहीं होता. उसका एक मात्र मकसद "मुनाफा और पैसा कमाना होता है."
फे़सबुक ने हाल में रिलायंस के जियो प्लेटफॉर्म्स में 43,574 करोड़ रुपये का निवेश किया है ताकि भारत में इसका धंधा और बढ़े.
यूज़र की तादाद के हिसाब से भारत फे़सबुक का सबसे बड़ा बाजार है. देश की 25 फीसदी आबादी तक इसकी पहुंच है. 2023 तक यह 31 फीसदी लोगों तक पहुंच सकता है, वॉट्सऐप की पहुंच तो और ज्यादा है.
उन्होंने कहा, " 2013 में मोदी के गुजरात के मुख्यमंत्री रहते ही फे़सबुक और बीजेपी के बीच काफी अच्छे संबंध बन गए थे. मैंने लिखा है कि कैसे फे़सबुक के कुछ आला अफसरों ने बीजेपी के आईटी सेल, इसके सोशल मीडिया विंग और फिर बाद में पीएमओ में मोदी के करीबियों के साथ मिल कर काम किया."
वॉल स्ट्रीट जर्नल ने फे़सबुक के एक शीर्ष अधिकारी के हवाले से कहा है कि अगर यह प्लेटफॉर्म हेट स्पीच या दूसरे नियमों के उल्लंघन पर बीजेपी कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ कदम उठाता तो देश में कंपनी की कारोबारी संभवानाओं चोट पहुंचती. इस स्टोरी में कहा गया है कि फे़सबुक के पास बीजेपी का पक्ष लेने का एक 'विस्तृत पैटर्न' है. हालांकि बीजेपी अब इस आरोप से इनकार कर रही है कि फे़सबुक ने उसकी कोई मदद की है.(BBCNEWS)


