विचार/लेख
साल का पेड़ और उसके पत्ते कई राज्यों के आदिवासियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। इसे सराई का पेड़ भी कहते हैं, जिसकी छत्तीसगढ़ में बहुत उपयोगिता है। लोग इस पेड़ को पूजनीय मानते हैं। यह पेड़ बहुत बड़ा होता है और इसकी लकड़ी बहुत भारी होती है। इसलिए इसका उपयोग घर की कई चीज़ों को बनाने के लिए किया जाता है। चाहे घर में लगाने के लिए लकड़ी हो (कड़ेरी) या दरवाज़े और खिड़कियां बनानी हों, इस लकड़ी से हर तरह का सामान बनाया जाता है। घर में लकड़ी जलाने के लिए भी इसका उपयोग किया जाता है। इन सब उपयोगिताओं में से और एक उपयोगिता यह है कि साल के पत्तों से दोना और पत्तल बनाए जाते हैं।
छत्तीसगढ़ में पत्तल में खाना खाया जाता है और इसे यहां पत्री बोलते हैं। इसमें सब्ज़ी भी रखी जाती है, जिसे दोना कहते हैं। दोना और पत्तल बनाने के लिए साल के वृक्ष से पहले पत्ते तोड़कर लाते हैं। बांस की लड़की भी लाई जाती है, जिसे पतले-पतले हिस्सों में काट लेते हैं। यह बांस के टुकड़े धागे का काम करते हैं और इसी से साल के पत्तों को सिलाया जाता है। दोना को बड़ा बनाते है ताकि भोजन ना गिरे। दोना की सिलाई ऐसे ही होती है।
ऐसे पत्तों से बने दोना पत्तल का फायदा यह है कि ये पत्ते गाँव के जंगलों में आसानी से मिल जाते हैं जिन्हें घर पर बना सकते हैं। यह बनाने के लिए हुनर और मेहनत की ज़रूरत होती है। आदिवासी बखूबी अपने आसपास के मिलने वाले सामग्रियों का उपयोग करना जानते ही हैं। यह पर्यावरण के लिए भी फायदेमंद है, क्योंकि इससे पर्यावरण प्रदूषित नहीं होता है। खाना खाने के बाद सभी दोना पत्तल को एक जगह इकट्ठा करते हैं और यह बरसात के दिनों में सड़कर खाद बन जाता है। इस खाद का उपयोग लोग अपने खेतों में करते हैं।
सरकार को भी दोना-पत्तल को आगे बढ़ाने के बारे में सोचना चाहिए, क्योंकि शहरों और प्रकृति के संतुलन के लिए ये अच्छा विकल्प है।
इसका उपयोग बड़े पैमाने पर त्यौहारों और शादियों में भी किया जाता है, जहां मेहमानों की अधिक संख्या के साथ-साथ कचरा भी ज़्यादा होने की सम्भावना होती है। बाज़ार से थालियां खरीदने के बदले में लोग साल के ये दोने और पत्तल बनाना पसंद करते हैं। बाज़ार से ये चीज़ें खरीदना महंगा काम है और दोना-पत्तल से पैसे भी बच जाते हैं। आज की प्लास्टिक की दुनिया में लोग कई इलाकों में प्लास्टिक के छोटे-छोटे बर्तन खरीदते हैं। इससे पर्यावरण, पशुओं, नदियों के साथ-साथ हमारी भी हानि होती है। ऐसे लोगों को जो प्लास्टिक इस्तेमाल करते हैं, गाँव वालों से सीखना चाहिए कि हम अपने जीवन पर्यावरण की सुरक्षा के हिसाब से कैसे जिएं।
कई आदिवासी गाँवों में यह परंपरा होती है कि अगर गाँव में कोई काम होता है, चाहे वह किसी के घर में शादी हो या त्यौहार या कुछ बनाना हो, पूरा गाँव मदद करने के लिए हाज़िर होता है। चाहे लकड़ी लाना हो, चाहे पत्तल तोड़ना हो या कुछ और। गाँव के सभी लोग इसमें निपुण होते हैं। पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोग एक-दूसरे की मदद करते आ रहे हैं।
सरकार को भी दोना-पत्तल को आगे बढ़ाने के बारे में सोचना चाहिए, क्योंकि शहरों और प्रकृति के संतुलन के लिए ये अच्छा विकल्प है। लोग प्लास्टिक से बने बर्तनों का उपयोग करते हैं। अगर हम गाँवों में दोना-पत्तल का उत्पादन करते हैं, तो इसे गाँव के लोगों को भी रोज़गार मिल सकता है। सरकार को गाँव के लोगों को ट्रेनिंग देने की ज़रूरत है ताकि गाँव जागरूक होकर अपने पैरों पर खड़ा हो सके। इसके अलावा प्लास्टिक के बर्तनों पर कड़ाई से प्रतिबंध लगाना चाहिए और उसे लागू करना चाहिए जिससे हमारा पर्यावरण भी बचा रहे और हम भी बचे रहें।
यह लेख राकेश नागदेव ने लिखा है, जो छत्तीसगढ़ से हैं और इस लेख को इससे पहले आदिवासी लाइव मैटर में प्रकाशित किया जा चुका है।
-डॉ. ललित कुमार
हम इस समय कोरोना लॉकडाउन के 100 दिन की दहलीज को पार कर चुके हैं। इस दहलीज सेजब हम लॉकडाउन के अतीत पर नज़र डालते हैं तो पाते हैं कि पूरे विश्व में कोरोना का कहर अभी भी लगातार जारी है। जहां दुनिया के 215 देश कोरोना संक्रमितहो चुके हैं, वहीं सभी देशों के लिए यह दौर एक बेहद चुनौतीपूर्ण है। हर देश अपने-अपने तरीके से इससे बचने के लिए वैक्सीन की खोज करने में लगे हैं, लेकिन अभी तक इसके कोई भी ठोस प्रमाण निकलकर सामने नहीं आए, ताकि गर्व से कहा जा सके कि हमने इसका इलाज खोज निकाला है। कोरोना महामारी जहां पूरे विश्व में अपना कहर बरपा रही है, वहीं प्रकृति के साथ हो रहे खिलवाड़ से यह मानवता को सचेत करने का भी मौका दे रही है। इस महामारी में प्राकृतिक आपदाओं का लगातार एक साथ आना चिंता का विषय तो है ही, लेकिन हमारे लिए एक सीख भी है, जो हमें संकेत कर रही है कि अगर हम अभी न संभले तो कभी नहीं संभल सकते। इस विषय पर लिखने से पहले मेरे मन में बहुत से विचार आये। जिनके सवालों के जवाब ढूंढ पाना मुश्किल हो गया था कि आखिर कैसे अचानक दुनिया की अर्थव्यवस्था जहां अपनी गति से आगे बढ़ रही थी, वहीं उस पर लॉकडाउन की ऐसी चोट पड़ी कि वह एकदम से धराशाही हो गई। जब चीन के वुहान शहर से शुरू हुए कोरोना वायरस की ख़बरों को देखते- सुनते और पढ़ते थे तो लगता था कि यह कोई छोटी-मोटी बीमारी होगी, जो जल्दी ही नियंत्रण में कर ली जाएगी। लेकिन जैसे-जैसे इस वायरस ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में लेना शुरू किया तो लगा कि ये बीमारी नियंत्रण के बाहर है। लेकिन अब यह बीमारी पूरे भारत में अपने पैर पसार चुकी है। 30 जून 2020 के अपराह्न 7.30 बजे तक भारत में 5 लाख 85 हज़ारसे अधिक लोग संक्रमित हुए और मौतों की संख्या का आंकड़ा 17 हज़ार के पार जा पहुंचा।
Worldometer वेबसाइट के आंकड़ें बताते हैं कि कोरोना संक्रमित देशों की सूची में टॉप पर क्रमशः अमेरिका, ब्राज़ील, रूस और भारत हैं। अमेरिका और ब्राज़ील देशों की हालात बाकी दोनों देशों की तुलना में बहुत खराब है। भारत में 24 मार्च 2020 से लगने वाले लॉकडाउनके चार चरणों के साथ ही अनलॉक 1.0 के 100 दिन 4 जुलाई को पूरे हुए। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर हमने लॉकडाउन और अनलॉक के दौरान अब तक क्या खोया और पाया! भारत में संपूर्ण लॉकडाउन का असर पूरे देश में देखने को मिला, जिसे आंकड़ों के ज़रिए समझने की ज़रूरत है कि भारत में लॉकडाउन के दौरान जो मृत्यु दर 15 अप्रैल 2020 को 3.41 फीसदी थी, वहीं 01 जून 2020 तक घटकर वह 2.82 फीसदी तक आ गई। लेकिन इसे अगर पूरी दुनिया के हिसाब से समझा जाये, तो यह प्रति एक लाख संक्रमण पर मृत्यु दर 5.97 फीसदी रही, वहीं फ्रांस में 18.9 फीसदी, इटली में 14.3 फीसदी, यूके में 14.12 फीसदी, स्पेन में 9.78 फीसदी और जबकि बेल्जियम में 16.21 फीसदी लॉकडाउन के दौरान हुई। प्रथम चरण के लॉकडाउन में भारत में मरीजों के ठीक होने की दर 7.1 फीसदी थी, जबकि वहीं चौथे चरण में यह दर 41.61 फीसदी हो गई यानी ये आंकडे कहीं न कहीं देश के प्रति एक आत्मविश्वास पैदा करने वाले रहे हैं।
जब देश में लॉकडाउन को चार चरणों में बांटा गया तो इसके पहले और चौथे चरण के दौरान भारत की सबसे बदहाल तस्वीर ऐसे समय में उभरकर सामने आई, जब करोड़ों श्रमिक अपनी बदहाली को कन्धों पर ढोकर घरों की ओर निकल पड़े थे। जिसमें पहला लॉकडाउन 25 मार्च से 14 अप्रैल 2020 तक रहा, जिसमें आवश्यक वस्तुओं की सेवाओं को छोड़कर पूरा देश पूरी तरह से बंद रहा। दूसरा लॉकडाउन 15 अप्रैल से 3 मई 2020 तक रहा, जिसमें संक्रमित मामलों के आधार पर देश को तीन जोन यानी रेड, ऑरेंज और ग्रीन जोन में बांटा गया। तीसरा लॉकडाउन 4 मई से 17 मई तक रहा, जिसमें जोन के हिसाब से दुकानें खुली और कुछ रियायतें भी दी गई। जिसमें जान के साथ जहान को भी प्राथमिक दी गई। चौथा और अंतिम लॉकडाउन 18 मई से 31 मई तक रहा, जिसमें स्कूल, शोपिंग मॉल, धार्मिक स्थल, सांस्कृतिक कार्यक्रम और खेल को छोड़कर हर किसी क्षेत्र में छूट दी गई। विश्व में सबसे ज्यादा लॉकडाउन लगाने वाले देशों की सूची में इटली पहले नंबर पर आता हैं। जहां 10 मार्च से 03 मई तक लॉकडाउन लगा रहा, लेकिन इटली में 31 मई तक 33 हज़ार 354 मौतों हुई, जिसमें 2 लाख 32 हज़ार 979 लोग संक्रमित हुए। वहीं भारत में 31 मई तक 5408 मौतें हुई और 01 लाख 90 हज़ार 609 लोग संक्रमित हुए। सबसे लंबा लॉकडाउन लगाने वाले शहरों में फिलीपिंस की राजधानी मनीला का नाम आता है। जहां कुल मौतों में 73 फीसदी अकेले मनीला शहर में हुई। मनीला में लॉकडाउन जबकि 76 दिनों तक चला।
भारत का आलम ये है कि पिछले 01 जून से 01 जुलाई 2020 तक के बीच कोरोना मरीजों की संख्या 5 गुना से ज्यादा बढ़ी है। देश में अगर ऐसे ही हालात रहे तो कोरोना संक्रमितों का आंकड़ाकहां तक पहुचेगा,कुछ कहा नहीं जा सकता। लॉकडाउन के चार चरण खत्म होने के बाद भारत में अनलॉक का पहला चरण 01 जून 2020 से लागू किया गया। अनलॉक का निर्णय ऐसे समय में लिया गया,जब देश में बढ़ती बेरोजगारी के साथ देश की अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने और बाज़ारों में दुकानों को अल्टरनेटिव तरीके से खोलने का प्रयास किया गया यानी अनलॉक का मुख्य आधार देश की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से गति देना रहा। जब लॉकडाउन था तो यह व्यवस्था पूरी तरह से धराशाही थी लेकिन अब फिर से इसको गति देने का काम अनलॉक करेगा। वहीं देश के सामने सबसे बड़ी चिंता कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या में होने वाली बढ़ोतरी को लेकर भी है। जहां संपूर्ण लॉकडाउन के बाद से संक्रमित मरीजों की संख्या का ग्राफ तेजी से बढ़ा है, जो कि एक चिंता का विषय है। अनलॉक1.0 की पूरी प्रक्रिया संपूर्ण लॉकडाउन से एकदम भिन्न थी। वह रात 9 बजे से सुबह 5 बजे तक था। जिसमें दिन के समय बाज़ार, मॉल और परिवहन सुविधाओं के साथ सामाजिक दूरी को ध्यान में रखकर आने जाने की छूट दी गई।
देश में कोरोना वायरस के मामलों की बढ़ती रफ्तार के बीच अब 01 जुलाई 2020 से अनलॉक 2.0 की शुरुआत हो चुकी है। केंद्र सरकार के दिशा निर्देश के अनुसार ये फेज़ 01 जुलाई से लेकर 31 जुलाई तक चलेगा। करीब चार महीने तक देश में लॉकडाउन रहा और उसके बाद फेज़ के हिसाब से देश को अनलॉक किया जा रहा है। अनलॉक 1.0 में काफी गतिविधियों में छूट मिली थी, जिसके बाद अब अनलॉक 2.0 में इसे बढ़ाया गया है। अब रात को 10 बजे से सुबह 5 बजे तक नाइट कर्फ्यू रहेगा। पहले ये रात 9 बजे से सुबह 5 बजे तक था। अनलॉक 2.0 में फ्लाइट और ट्रेनों की संख्या बढ़ाई जाएगी, दुकानों में 5 लोग से ज्यादा भी जुट सकते हैं लेकिन इसके लिए सोशल डिस्टेंसिंग का पूरा ख्याल रखना होगा, 15 जुलाई से केंद्र और राज्य सरकारों के ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट में कामकाज शुरू हो जायेगा। स्कूल-कॉलेज 31 जुलाई तक बंद रहेंगे। साथ ही मेट्रो रेल, सिनेमा हॉल्स, जिम, स्वीमिंग पूल, एंटरटेनमेंट पार्क, थिएटर, ऑडिटोरियम और असेंबली हॉल ये सब बंद रहेंगे।
भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर फिच, क्रिसिल और आरबीआई संस्थाओं का ताज़ा अनुमान है कि वित्त वर्ष 2020-21 में यह माइनस में जा सकती है। भारत के जीडीपी की ग्रोथ रेट जिन राज्यों में 60 फीसदी है, वे राज्य रेड और ऑरेंज जोन में रहे। वहां पर लॉकडाउन के सख्ती की वजह से कारोबार पूरी तरह से ठप रहा, इसलिए ऐसे में उन राज्यों की ग्रोथ रेट को पटरी पर वापस लाना पहले की अपेक्षा थोड़ा मुश्किल होगा। अब आइये नज़र डालते हैं, विश्व में लॉकडाउन नहीं लगाने वाले देशों पर, जहां अर्थव्यवस्था सबसे बुरे दौर से गुजरी है-
अमेरिका- अमेरिका में 30 जून 2020 तक 27 लाख से ज्यादा लोग संक्रमित और 01 लाख 29 हज़ार से ज्यादा लोगों की मौतें हो चुकी हैं, जोकि कोरोना संक्रमित देशों की सूची में पहले नंबर पर आता है। यहाँ लॉकडाउन को आंशिक रूप से लगाया गया। लोगों की यहां जान भले ही न बचाई जा सकी हो लेकिन तमाम रेटिंग एजेंसी अमेरिका की जीडीपी -5.9 फीसदी रहने का अनुमान लगा रही है।
ब्राज़ील-ब्राज़ील में 30 जून 2020 तक 13 लाख से ज्यादा लोग संक्रमित हुए और 58 हज़ार से अधिक मौतें अब तक हो चुकी हैं। ब्राज़ील की सरकार हमेशा से लॉकडाउन के खिलाफ रही है, जो कोरोना संक्रमित देशों की सूची में दूसरे नंबर पर आता है। ब्राज़ील की अर्थव्यवस्था इस वक़्त सबसे ख़राब दौर में है, जहां 4.7 फीसदी की गिरावट आने का अनुमान है, जो कि 100 सालों की सबसे बुरी अर्थव्यवस्था साबित होगी।
स्वीडन- स्वीडन ने अपनी अर्थव्यवस्था को बचाने के चक्कर में लॉकडाउन नहीं लगाया। देश में कोई पाबन्दी भी नहीं लगायी। साथ ही मैन्युफैक्चरिंग और इंडस्ट्री सेक्टर भी बंद नहीं किए। इसलिए वहां के हालात काबू में नहीं आ सके। स्वीडन के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक यहां का निर्यात 10 फीसदी गिरा। जिसके कारण वर्ष 2020 के आउटपुट में गिरावट आएगी। स्वीडन की आबादी के हिसाब से यहां संक्रमित लोगों की संख्या और मौतों का आंकड़ा बेहद डराने वाला रहा है।
जापान- जापान में लोगों के आने जाने के लिए कोई पाबन्दी नहीं लगायी गई। यहाँ की अर्थव्यवस्था सुचारू रूप से चलती रही। होटल, मॉल और रेस्तरां खुले रहे। लोगों की आवाजाही पर नजर नहीं रखी गई। यहाँ हालात जब बेकाबू हुए तो देश के प्रधानमंत्री को आनन-फानन में इमरजेंसी लगानी पड़ी। लेकिन अर्थव्यवस्था में तेजी से गिरावट देखी गई। जापान में निवेश कमजोर हुआ तो यहां का आयात भी गिरा। जिसके कारण पीएम ने एक ख़राब डॉलर का आर्थिक पैकेज दिया, यानी फिर भी जापान की अर्थव्यवस्था सबसे बुरे दौर में है।
चीन- चीन का लॉकडाउन वुहान शहर पर केंद्रित रहा ताकि चीन की अर्थव्यवस्था कमजोर न हो, वर्ष 1952 से चीन को दुनिया का ग्रोथ इंजन कहा गया, लेकिन कोरोना के बावजूद पहली बार चीन की तिमाही ग्रोथ रेट माइनस में गई यानी जीडीपी में 6.8 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई।
भारत फिर भी इन देशों की अपेक्षा जान बचाने में कामयाब तो रहा। लेकिन अर्थव्यवस्था कोई भी देश नहीं बचा पाया। भारत पर लॉकडाउन की मार सबसे बुरे दौर से गुजरी है। जिस वजह से चारों ओर मायूसी छाई रही। सड़कें सूनी, बाज़ारों की रोनक एक तरीके से अँधेरे में तब्दील हो गई साथ ही देश की अर्थव्यवस्था से लेकर कृषि, शिक्षण संस्थान, रोजगार, पर्यटन, चिकित्सा, पर्यावरण और जातीय व्यवस्था तक पर इसका असर देखा गया। अब इसके कुछ विविध आयामों को बिन्दुवार समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर कहां लॉकडाउन से नुकसान हुआ और कहां फ़ायदा हुआ-
अर्थव्यवस्था- कोरोना के चलते जो हालात अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में देखे गये, उसने देश के सामने कई गंभीर चुनौती खड़ी की। कोरोना काल में पूरे देश का सिस्टम धराशाही हुआ तो लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया। यानी इस दौर में देश की जनता के सामने एक साथ कई संकट आये। जिसके कारण देश का गरीब मजदूर और किसान बहुत दुखी हुआ। साथ ही देश के कामगार तबकों पर लॉकडाउन की ऐसी मार पड़ी कि काम धंधे सब बंद होने से उन्हें अपने घरों की ओर हजारों किलोमीटर की पैदल यात्रा करके पलायन करना पड़ा। जिस वजह से देशके गरीब श्रमिकों की मौत रास्ते में ही हो हुई। कोरोना वायरस से 30 जून 2020 के अपराह्न 7.30 बजे तक विश्व में 01 करोड़ 57 लाख से अधिक लोग संक्रमित हुए। जिसमें 50 लाख 72 हज़ार से ज्यादा लोगअपनी जान गवां चुके हैं। भारत में भी अब तक 5 लाख 85 हज़ार से अधिक मरीजों की पुष्टि हो चुकी है। जिसमें 17 हज़ार 410 लोग अपनी जान गवां चुके हैं। हमने देशव्यापी चार लॉकडाउन का सामना किया और अब हम अनलॉक1.0 और 2.0 के दौर में हैं, लेकिन अनलॉक के कारण देश की अर्थव्यवस्था में थोड़े बहुत सुधार होने के संकेत जरूर मिल सकते हैं।
कृषि- देश में कोरोना का संकट ऐसे समय में आया, जब देश में रबी की फसल कड़ी थी यानी भारत का किसान पहले ही आर्थिक संकट से जूझ रहा था और फिर लॉकडाउन के कारण खेतों में खड़ी फसल सही समय पर मंडी में नहीं पहुंच पायी। इसलिए कोरोना महामारी किसानों के लिए एक नई मुसीबत बनाकर उभरी है। लॉकडाउन की वजह से देश का खुदरा बाज़ार, शोपिंग मॉल और कुटीर उद्योग से लेकर बड़े औद्योगिक क्षेत्र पर कोरोना का असर देखा गया। किसानों की परेशानी को समझते हुए केंद्र सरकार ने लॉकडाउन के तीसरे चरण में कुछ छूट दी गई ताकि किसानों की फसल सही समय पर मंडी में पहुंच सके। सरकार द्वारा मंडी, खरीद एजेंसियों, खेतों से जुड़े कामकाज और भाड़े पर कृषि संबंधित सामान को अंतरराज्यीय परिवहन द्वारा लॉकडाउन से मुक्त करा दिया गया। केंद्र सरकार ने किसानों की परेशानी को देखते हुए मोबाइल गवर्नेंस की दिशा में ‘किसान रथ मोबाइल ऐप’ के ज़रिए एक पहल शुरू की। जिसमें किसानों को मंडी भाव सहित किराये पर परिवहन सुविधा के लाभ इस ऐप के ज़रिए मिला। 31 मई के बाद से देश में अनलॉक 1.0 और अब अनलॉक 2.0 के तहत कृषि बाज़ार व्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने की कोशिश की जा रही है। केंद्र सरकार ने वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य रखा है। लेकिन पिछले कुछ सालों में कृषि विकास दर तीन फीसदी से कम रही है। कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के लिए अब 15 फीसदी कृषि विकास दर की जरूरत होगी जो असंभव है। हकीकत यह है कि डीजल और उर्वरकों के महंगे होने से कृषि लागत बढ़ी है। आय के अभाव में ग्रामीण मांग लगातार कमजोर बनी हुई है। इसका अर्थव्यवस्था पर चैतरफा असर पड़ रहा है, विशेषकर मैन्यूफैक्चरिंग के क्षेत्र पर जो मौजूदा आर्थिक सुस्ती का एक बड़ा कारण है।
चिकित्सा- इस समय कोरोना वायरस ने पूरे विश्व में कोहराम मचा रखा है। लेकिन भारत में भी कोरोना महामारी ने बड़ी तेजी से अपने पैर पसार लिए है। वैश्वीकरण के दौर में आजकल के वायरस इतने ताकतवर हैं कि जिनके इलाज को खोजने के लिए वर्षों लग जाते हैं। कोरोना इसी का एक उदाहरण है। मेरे ध्यान में नहीं आता कि भारत ने कभी किसी महामारी की दवा को दुनिया भर में उपलब्ध कराया हो या उपलब्ध कराने के गंभीर प्रयास किए गए हों। लेकिन वर्तमान परिस्थिति को देखते हुए हमें किसी देश की तरफ अब हाथ फैलकर बैठने की ज़रूरत नहीं है कि वे हमारे लिए कोई मदद करेंगे या हमारी समस्याओं को हल करेंगे। इसीलिए स्वदेशी चिकित्सा पद्धति में न केवल अनुसंधान की जरूरत है, बल्कि पुरातन भारतीय चिकित्सा पद्धतियों में भी शोध की दरकार है। कोरोना जैसी महामारी से निपटने के लिए हमें अपनी प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं को और अधिक मजबूत बनाने की ज़रूरत है। इसके लिए सबसे महत्वपूर्ण है कि जिला स्तर के सार्वजनिक अस्पतालों को एक सुपर स्पेशलिटी अस्पताल के रूप में विकसित किया जाये ताकि ग्रामीण लोगों को सभी प्रकार की स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हो सकें। जिससे मरीजों को सही समय पर इलाज मिलना संभव होगा और साथ ही बड़े अस्पतालों में मरीजों के दबाव भी कम होंगे।
शिक्षा- कोरोना महामारी के खतरे को भांपते हुए केंद्र सरकार ने संपूर्ण भारत में 24 मार्च से 31 मई 2020 तक लॉकडाउन लगाया यानी 67 दिनों की अवधि में लॉकडाउन और अब 01 जून से 31 जुलाई 2020 तक अनलॉक के कारण सारे स्कूल, कॉलेज व उच्च शिक्षण संस्थान बंद पड़े हैं। ऐसे में इसका सीधा असर अध्यापकों और विद्यार्थियों के जीवन पर पड़ा है। संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) की एक रिपोर्ट के अनुसार, कोरोना महामारी से भारत में लगभग 32 करोड़ छात्रों की शिक्षा प्रभावित हुई है। जिसमें 15.81 करोड़ लड़कियां और 16.25 करोड़ लड़के शामिल हैं। वैश्विक स्तर की बात करें तो यूनेस्को की रिपोर्ट के अनुसार 14 अप्रैल 2020 तक अनुमानित रूप से दुनिया के 193 देशों के 157 करोड़ छात्रों की शिक्षा प्रभावित हुई है। हालांकि कुछ स्कूल, कॉलेज या विश्वविद्यालयों ने जूम, हैंगआउट गूगल मीट, माइक्रोसॉफ्ट टीम और स्काइप जैसे प्लेटफॉर्मों के साथ-साथ यू-ट्यूब और व्हाट्सएप आदि के माध्यम से ऑनलाइन शिक्षण के विकल्प को अपनाया है, जो ऐसे में इस संकट-काल का एकमात्र रास्ता है। लेकिन ऑनलाइन शिक्षा का कुछ क्षेत्रों में इस प्रकार से महिमामंडन किया जा रहा है कि मानो हमारी शिक्षा व्यवस्था की हर समस्या का समाधान इसमें छिपा है। क्या सचमुच ऑनलाइन शिक्षा देश की सारी शैक्षिक जरूरतों का हल है? क्या ऑनलाइन शिक्षा कक्षीय शिक्षा का समुचित विकल्प है और क्या ये भारतीय परिवेश के अनुकूल है? इन प्रश्नों का उत्तर जानने के साथ यह समझना भी जरूरी होगा कि शिक्षा के उद्देश्य क्या हैं? फिर भी ऑनलाइन शिक्षा को अगर एक रामबाण के रूप में पेश किया जा रहा है तो उसकी वजह या तो लोगों की आधी-अधूरी समझ है या शिक्षा को मुनाफा कमाने का धंधा मानने वाली मानसिकता है। यानी ऑनलाइन शिक्षा के सबसे बड़े प्रवक्ता निजी क्षेत्र के संस्थान ही हैं। लेकिन अकादमिक जगत में इसे लेकर ज्यादा उत्साह नहीं है।
परिवहन- ट्रैफिक, कोरोना वायरस के फैलने का सबसे बड़ा कारण बन सकता है। लॉकडाउन के चलते सभी सड़कें खाली रही और विमान, ट्रेनों का यातायात भी ठप्प रहा। लॉकडाउन जैसे ही खुला सड़कों पर ट्रैफिक पहले की अपेक्षा कम दिखा है, लेकिन इस वायरस के चलते लोगों में चेतना ज़रूर आई है। इसलिए अब बेवजह लोग अपने घरों से बहार नहीं निकलते हैं। शायद बेवजह सड़कों पर निकलने वाली भीड़ वायरस के फैलने का मुख्य कारण बन सकती है। इसलिए दुनिया भर के ट्रैफिक साइंटिस्ट बताते हैं कि कैसे सोशल डिस्टैंसिंग का पालन करते हुए यातायात को जारी रखा जा सकेगा। अब लोग ज्यादा अपने वाहन को प्राथमिकता देंगे क्योंकि यह संक्रमण से बचने का एक बेहतर तरीका होगा साथ ही सार्वजनिक परिवहन को ज्यादा साफ बनाना होगा। बस स्टॉप, बस डिपो और मेट्रो स्टेशन हर जगह को सैनेटाइज किया जाए, साथ ही वाहनों को भी सैनेटाइज किया जाए। अब रेलवे स्टेशन पर स्क्रीनिंग की व्यवस्था होनी चाहिए, जिससे मरीजों की पहचान हो सके। परिवहन व्यवस्था में सोशल डिस्टैंसिंग के चलते ओला-ऊबर जैसी सेवाओं में ड्राइवर और यात्री के बीच के संपर्क को खत्म कर दिया जाए। हाल में कोरोना वारियर्स के लिए शुरू की गई टैक्सी सेवा में यह प्रयोग शुरू हुआ है। इसमें प्लास्टिक के जरिए चालक और यात्री के बीच डिस्टैंसिंग की कोशिश की गई है। सोशल डिस्टैंसिंग का पालन करते हुए पैदल चलना यातायात का सबसे सुरक्षित तरीका है। इसलिए इस पर भी जोर देना होगा। फुटपाथ को इतना चौड़ा किया जाए कि लोग एक मीटर की दूरी के नियम का पालन करते हुए सड़कों पर चल सकें। लॉकडाउन के बाद का वक्त पेडेस्ट्रियन और साइकिलिंग को बढ़ावा देने का है। कई शहरों में इसके लिए अर्बन प्लानिंग में बदलाव शुरू भी हो गये हैं। साइकिल में सोशल डिस्टैंसिंस का सबसे ज्यादा पालन होता है। इसलिए भारत में भी इस बदलाव की शुरुआत पोस्ट कोरोना लॉकडाउन काल के लिए ट्रैफिक को लेकर हो चुकी है।
पर्यटन- पर्यटन उद्योग ने कोरोना की मार से हजारों करोड़ के नुकसान की आशंका जाहिर की है। कन्फेडरेशन ऑफ़ इंडियन इंडस्ट्री (सीआईआई) की पर्यटन समिति ने कोरोना महामारी के पर्यटन उद्योग पर पड़ने वाले असर का आंकलन करके बताया है कि मार्च से अब तक कई भारतीय पर्यटन स्थलों पर बुकिंग का कैंसिलेशन लगभग 90 फीसदी तक बढ़ चुका है। यानी कुल मिलाकर घरेलू और विदेशी पर्यटकों के कारण इस बाजार पर असर पड़ा है। पर्यटन उद्योग से जुड़े होटल, ट्रैवेल एजेंट, पर्यटन सेवा कंपनियों, रेस्तरां, विरासत स्थल, क्रूज, कॉरपोरेट पर्यटन और साहसिक पर्यटन इत्यादि उद्योग भी इससे प्रभावित हुए हैं। अक्टूबर से मार्च के बीच भारत आने वाले विदेशी पर्यटकों की वार्षिक संख्या 60-65 फीसदी होती है। भारत को विदेशी पर्यटकों से लगभग 28 अरब डॉलर से अधिक की आय होती है। कोरोना महामारी की खबरें नवंबर से आना शुरू हुईं और इसके बाद से यात्रा टिकटों और होटल बुकिंग इत्यादि का कैंसिलेशन शुरू हुआ। सीआईआई का कहना है कि भारत सरकार द्वारा वीजा रद्द करने से यह स्थिति और भी 'बदतर' हुई है। भारत में लॉकडाउन के चार चरण खत्म होने के बाद 25 मार्च से बंद पड़े स्मारकों को अनलॉक में सरकार ने 15 जून से पर्यटक स्थलों को खोलने की बात कही। तभी से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण इसे लेकर दिशा-निर्देश तैयार कर रहा है, ताकि पर्यटकों को स्मारकों का भ्रमण कराने के साथ ही कोरोना वायरस से उनका बचाव हो सके।
पर्यावरण- कोरोना वायरस के कहर की वजह से दुनिया भर की औद्योगिक गतिविधियां पूरी तरह से ठप्प रही और भारत सहित कई देशों में लॉकडाउन लगाया गया। इससे पर्यावरण को भी फायदा पहुंचा है। पिछले कई दशकों से पृथ्वी की रक्षा कर रही ओजोन परत को जो उद्योगों से नुकसान पहुंचा है, उसमें कमी आने से इसकी हालत में काफी सुधार हुआ है। ओजोन परत को सबसे ज्यादा नुकसान अंटार्कटिका के ऊपर हो रहा था। ‘नेचर’ में प्रकाशित ताजा शोध के अनुसार, जो केमिकल ओजोन परत के नुकसान के लिए जिम्मेदार थे, उनके उत्सर्जन में कमी होने के कारण यह सुधार देखा गया है। मोट्रियल प्रोटोकॉल (1987) समझौते के मुताबिक इस तरह के केमिकल्स के उत्पादन पर बैन लगाया था लेकिन इन हानिकारक कैमिकल्स को ओजोन डिप्लीटिंग पदार्थ (ODS) कहा जाता है। इन पदार्थों की कमी की वजह से दुनिया भर में सकारात्मक वायु संचार बना हुआ है, जिसका असर एंटार्टिका के ऊपर वाले वायुमंडल के हिस्से में भी हुआ है।हाल ही में भारत सहित विश्व के अन्य हिस्सों में लॉकडाउन के दौरान प्रकृति और पर्यावरण के बीच बहुत से बदलाव देखे गये। जिसमें ‘अम्फान’ और ‘निसर्ग’ जैसे चक्रवाती तूफ़ान के साथ साथ बेमौसम बारिश और भूकम्प के झटकों की वजह से पूरे देश में भय का माहौल बना रहा। वैज्ञानिक इस मामले में अभी कोई जल्दबाजी में नहीं दिखाना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि जब औद्योगिक गतिविधियां शुरू होंगी,तब फिर से बड़े पैमाने पर कार्बन डाइ ऑक्साइड और अन्य ओडीएस का उत्सर्जन शुरू होगा और फिर शायद यह पहले की स्थिति न लौट आए। पर्यावरण को इसका कितना फायदा पहुंचा है, इसका आंकलन अभी नहीं हो पा पाया है। फिलहाल सभी का ध्यान दुनिया भर में फैले कोरोना वायरस के खतरे से बचाव पर है। दुनिया भर के शोधकर्ता इस संकट से निपटने के लिए दिन रात लगे हैं, लेकिन दुनिया भर में हो रही प्राकृतिक गतिविधियों पर वैज्ञानिकों की नजरें जरूर हैं।
मीडिया- आज अगर इतने न्यूज़ चैनल न होते तो हम कोरोना जैसी महामारी से कैसे लड़ते? लॉकडाउन को नीचे तक कैसे ले जा पाते? इतिहास गवाह है कि 1894 में जब प्लेग की महामारी चीन के युन्नान से शुरू होकर भारत में फैली, तब जनता उससे कितनी अनजान थी और इसीलिए भारत उस बीमारी का आसानी से शिकार भी बना। कोरोना काल में मीडिया से हमारा मतलब सिर्फ खबर चैनलों से नहीं है। बल्कि सोशल मीडिया या डिजिटल मीडिया से भी है।अपने यहां चौबीसों घंटे समाचार देने वाले भारतीय भाषाओं के सैकड़ों चैनल न होते तो कोरोना से लड़ने में ‘लॉकडाउन’ को सफलतापूर्वक लागू करने में क्या-क्या दिक्कतें आतीं, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। कब, क्या करें और क्या न करें? घर में बंद रहें या बाहर निकलें। ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ करें और मुंह पर ‘मास्क’ पहनें या ‘गमछा’ या रूमाल लपेटें। हाथ धोते रहें। डरने की जरूरत नहीं। आस्था रखें,ऐसे संदेश घर-घर तक पहुंचाये गये। इसलिए‘लॉकडाउन’ को डब्लूएचओ तक ने सराहा है। लेकिन ‘कोरोना’ के खतरे ने देश को एक सूत्र में पिरो दिया है। हां! प्रिंट मीडिया पर ज़रूर संकट मंडराया है। इसका कारण है प्रिंट मीडिया का ज्यादा‘फिजीकल’होना। बिजनेस बंद होने से उनके विज्ञापन के साथ-साथ उसके पेज भी कम हुए हैं। पाठक ‘डिजिटल पेपर’ या ‘ई-पेपर’ की ओरज़रूर हैं। ऐसे में प्रिंट मीडिया का जो हिस्सा किसी तरह अपने को बचाए हुए है, वह प्रशंसा का पात्र है। यकीनन जब हालात सामान्य होंगे तो एक फिर बार प्रिंट मीडिया में वैसे ही उभार दिखेंगे, जैसा कि आपातकाल के बाद देखने को मिला था।
जातीय व्यवस्था-कोरोना महामारी की वजह से लॉकडाउन के कारण पूरे देश के सामने जो आर्थिक व सामाजिक व्यवस्था की नकारात्मक तस्वीरें सामने आईं, जिसमें कहीं न कहीं जाति, धर्म व क्षेत्र के आधार पर शोषण का शिकार होना पड़ा। लॉकडाउन की मार सबसे अधिक गरीब दलित-आदिवासी मजदूर पर पड़ी, जो रोजी-रोटी के लिए एक शहर से दूसरे शहरों में जाकर काम की तलाश करता है। भारत में जैसे ही लॉकडाउन की घोषणा हुई, तभी से उनके सामने रोजगार का संकट खड़ा हो गया था। जब वे लॉकडाउन के दौरान पैदल ही अपने घरों की ओर निकल पड़े, तो क्वारंटाइन में जातीय मतभेद देखने का मिला यानी संकट की इस घडी में हमें कई बार इंसानियत के नाते एक दूसरे के मदद की बहुत ज़रूरत होती है। जिसमें पुराने मतभेदों को भुलाकर विपरीत परिस्थितियों से लड़ना पड़ता है लेकिन हमारे देश में जातीय व्यवस्था का इतिहास एक रेखीय नहीं है। कई बार बुरे वक़्त में व्यक्ति, समाज और देश का जब सबसे बुरा पक्ष उभरकर सामने आता है तो ऐसे में मानवता के बीच की खाई और भी चौड़ी हो जाती है, जो पहले से समाज में मौजूद होती है। कोरोना के समय में जहां सब फील गुड जैसा फील हो रहा है, वहां सब सकारात्मक ख़बरें टीवी न्यूज़ चैनल, रेडियो और प्रिंट मीडिया के माध्यम से लिखी जा रही हैं और पूरे राष्ट्र ने ऐसे लोगों का स्वागत भी किया। लेकिन ऐसे समय में देश का दलित-आदिवासी और शोषित वर्ग कोरोना महामारी के चलते दम तोड़ता रहा, जिनके सामने रोजी-रोटी का सवाल सबसे पहले था और इस दौर में इंसानियत, समाज और देश के कुछ नकारात्मक पहलू भी हमारे सामने उभरकर आये हैं।
डॉ. ललित कुमार
अतिथि अध्यापक, जनसंचार विभाग, क्षेत्रीय केंद्र, कोलकाता
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र)
ई-मेल आईडी : medialalit@gmail.com
-आकार पटेल
संयुक्त राष्ट्र ने शासन के जिन सिद्धांतों को परिभाषित किया है उसके मुताबिक सभी व्यक्ति, संस्थान और संस्थाएं (निजी और सार्वजनिक) और सरकार भी उन कानून के तहत प्रतिबद्ध है जो सार्वजनिक तौर पर बनाए गए हैं, समान रूप से लागू हैं और स्वतंत्र रूप से उनका न्याय कर सकते हैं और इनमें अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकारों और मानकों का पालन होता है।
भारत कानून पर आधारित एक देश है हमारे संविधान का अनुच्छेद 21 कहता है, "कोई भी व्यक्ति कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार अपने जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं होगा।" सरकार इसके पालन के लिए कानूनन बाध्य है। इस नियम को तोड़ना, कानून को तोड़ना और अपराध करना है।
लेकिन आज भारत में जो हो रहा है वह कानून का राज नहीं है। हम एक कानून विहीन देश हो गए हैं, और मैं ऐसा सिर्फ गुस्से या हताशा में नहीं कह रहा हूं। मैं ऐसा अपने आसपास होने वाली घटनाओँ के आधार पर ऐसा कह रहा हूं। एक ऐसा व्यक्ति जो अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर संगीन से संगीन अपराध से भी दोषमुक्त होता रहा वह आत्मसमर्पण करता है और इससे पहले कि वह कुछ राज खोलता पुलिस हिरासत में ही उसे गोली मार दी जाती है। उस पर संविधान के मुताबिक मुकदम नहीं चलाया जाता और किसी भी प्रक्रिया को अपनाए बिना ही उसे मृत्युदंड दे दिया जाता है।
लेकिन सिर्फ यही एक आधार नहीं जिसके कारण में देश को काननू विहीन कह रहा हूं। उत्तर प्रदेश में हुआ यह कोई पहला एनकाउंटर नहीं है। योगी आदित्यनाथ ने जब से उत्तर प्रदेश की कमान संभाली है तब से राज्य में 119 ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं और हजाओं घटनाएं अन्य जगहों पर हुई हैं। और आने वाले समय में भी होती ही रहेंगी। एक पिता और उसके बेटे को सिर्फ इसलिए मार दिया गया क्योंकि उन्होंने अपनी दुकान खोल रखी थी। ऐसा सिर्फ भारत में हो रहा है। दूसरे कानून विहीन देशों में भी ऐसा होता है, यह भी सत्य है। जिन लोगों के हाथ में सत्ता है वे कानून विहीन देशों में ऐसा करते रहेंगे।
लेकिन भारत जैसे देश में सरकार तक को कानून के बारे में जानकारी नहीं है। नरेंद्र मोदी सरकार ने एक कानून बनाकर गाय-भैंसों की मांस के लिए बिक्री पर रोक लगा दी। मोदी जी गाय से प्रेम करते हैं लेकिन उन्हें नहीं पता है कि उनके पास ऐसा करने का अधिकार नहीं है। कारण, यह मामला संविधान के मुताबिक राज्यों का अधिकार है न कि केंद्र सरकार का। लेकिन कानून बनाते समय केंद्र सरकार को यह पता नहीं था। और, जब सुप्रीम कोर्ट ने इस ओर इशारा किया तो इस कानून को वापस ले लिया गया।
कानून विहीन देशों में ऐसा ही होता है। सरकारों को कानून की ही जानकारी नहीं है तो वे खुद कानून का पालन कैसे करेंगी? कई बार राज्य सरकारों को भी नहीं पता होता है, और कुछ मामलों में तो सुप्रीम कोर्ट को कानून की जानकारी नहीं होती। ओडिशा ने एक कानून बनाकर 1967 में धर्मपरिवर्तन पर रोक लगा दी। लेकिन यह संविधान के अनुच्छेद 25 का उल्लंघन था। संविधान सभा में हुई बहसों के साफ जाहिर है कि अनुच्छेद 25 के तहत धर्म परिवर्तन की गारंटी दी गई है। ओडिशा हाईकोर्ट ने इस कानून को खारिज कर दिया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने तर्कहीन आधार पर हाईकोर्ट के फैसले को पलट दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि कम से कम दस राज्यों में ऐसा कानून बन गया और यूपी ऐसा करने वाला 11वां राज्य है।
योगी आदित्यनाथ इस बात को जानकर चौंक उठेंगे कि उन्होंने राज्य की पुलिस को जो करने का निर्देश दिया वह संविधान के मुताबिक एक अपराध है और उन्हें इसकी सजा मिलनी चाहिए। लेकिन मोदी की ही तरह वह भी ऐसा सोचते हैं कि गाय वाला कानून बनाकर वह सही कर रहे हैं क्योंकि भारतीय संस्कृति तो यही है।
कानून विहीन देशों और राज्यों में ऐसा होता रहता है। अदालतें बेकार हो चुकी हैं, जजों को कानून की पूरी जानकारी नहीं है, निचली अदालतें राष्ट्र द्रोह जैसे मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को नहीं मान रही हैं, विधायक मिलते नहीं हैं, निर्वाचित प्रतिनिधि कानून का पालन नहीं करते और पुलिस किसी की भी हिरासत में हत्या कर देती है।
ऐसा होता है, और यही नया भारत है।(navjivan)
पुलिस न्यायपालक की बजाय उत्पीड़क
-मृणाल पाण्डे
संवैधानिक लोकतंत्र का मतलब क्या है? एक ऐसा लोकतंत्र जहां जनता की चुनी विधायिका संविधान में उल्लिखित अधिकारों और कर्तव्यों की पृष्ठभूमि में कानून का पालन सबके लिए एक जैसा जरूरी बनाए। भय बिनु होय न प्रीति के अनुसार, कानून किताबों तक ही सिमटा न रहे बल्कि जमीन पर लागू होता और दिखता भी रहे, इसी के लिए दंड विधान के हथियार से लैस सरकारी पुलिस बल की संकल्पना भी गई। औपनिवेशिक भारत में पुलिस थाने जनता की जरूरतों से नहीं उपजे थे बल्कि विदेशी हुक्मरानों की ताकत के प्रतीक की बतौर कायम किए गए थे। इसलिए यातना देकर सच (या झूठ) उगलवाना पुलिसिया प्रणाली का एक भाग बन गया जो अब तक त्यागा नहीं गया है। इस तरह अंग्रेज हमको जाते-जाते एक सुसंगत न्याय प्रणाली और पुख्ता अदालतें भले दे गए हों, पर जनता के प्रति खुद को जवाबदेह मानने वाली ईमानदार पुलिस हमको उनसे विरासत में नहीं मिली। पर आजादी के 70 बरसों में हर रंग की सरकारें आईं और गईं, हम फिर भी पुलिस को अधिक न्याय प्रिय, अधिक ईमानदार और जनता के प्रति जवाबदेह क्यों नहीं बना पाए?
हाल में उत्तर प्रदेश के एक दुर्दांत अपराधी विकास दुबे और उसके लोगों द्वारा आठ पुलिस वालों की सरेआम हत्या करके फरार हो जाना दिखाता है कि हमारे यहां अपराधियों के दिल में पुलिस का भय लगभग मिट चला है। जो ब्योरे प्रकाश में आए हैं, वे दिखा रहे हैं कि एक जमाने में जहां पुलिस अपने मुखबिरों के नेटवर्क की मदद से अपराधियों की पकड़-धकड़ करती थी, अब पुलिस के कई थानों के अधिकारी खुद बड़े अपराधियों के मुखबिर बनकर उनको अपने इलाके की पुलिस द्वारा दबिश की पूर्व सूचना पहुंचा कर फरार होने में मदद कर रहे हैं। पूछने पर पुराने बड़े अफसर भी इसकी तसदीक करते हैं कि पिछले कुछ दशकों से देश के लगभग हर राज्य में जनता के लिए पुलिस बार-बार न्यायपालक की बजाय उत्पीड़क की भूमिका में सामने आने लगी है।
यह सही है कि राजनीतिक सरपरस्ती के दबाव से कई बार जानकारी होते हुए भी पुलिस को ज्ञात अपराधियों की तरफ तोता-चश्मी अख्तियार करनी पड़ती है। पर इसकी वसूली वह कस कर आम जनसे क्यों करती है? जनता, खास कर औरतों, दलितों और अल्पसंख्यकों को आज अपनी पुलिस खौफ का पर्याय नजर आती है। उधर जीवन में (और फिल्मों में भी) राजनीतिक संरक्षण प्राप्त अपराधी पुलिस या विधायक जी से कई बार करीबी दोस्तों की तरह बरताव करते दिखते हैं। इस विभाजित मानसिकता की ही वजह से अधिकतर थाने हैवानियत के गढ़ बन गए हैं। यकीन न हो तो आम लोगों से पूछिए जिनको हमारी जेल के तीन महीनों की बजाय थानों में पूछताछ के तीन दिन और अदालती चक्कर इतने भयावह लगते हैं कि अधिकतर कमजोर वर्गों के लोग रपटें दर्ज कराने के लिए थाना-कचहरी जाने से झिझकते हैं। नेशनल कैंपेन अगेन्स्ट टॉर्चर संस्था के अनुसार, 2019 में पुलिस हिरासत में 1,723 मौतें हुईं। इनमें से 125 मामलों के अध्ययन से उनका निष्कर्ष है कि अधिकतर (94 फीसदी) मौतें उत्पीड़न से हुई लगती हैं।
कभी सबकी खबर देने और सबकी खबर लेने का दावा करता रहा मुख्यधारा मीडिया इन दिनों या तो गोदी मीडिया बनकर सुरक्षित बन गया है या फिर छंटनियों से बेतरह असुरक्षित है। दोनों स्थितियों में विशुद्ध खोजी रपटें देने से वह बचता रहता है जब तक कि वे विपक्ष के खिलाफ न हों। विधायक के सरेआम कत्ल (ताजा मामला बागपत का है) जैसी स्टोरी भी जब मीडिया में उभरती है, तो कुछ घंटों के लिए पुलिस सुधारों पर हमारे खबरिया चैनलों और संपादकीय पन्नों में कई (1977-81 तक बैठी पुलिस कमीशन या 99 की रिबेरो कमिटी या 2000 की पद्मना भैया कमिटी या 2006 की प्रकाश सिंह कमिटी के) प्रस्तावित पुलिस सुधारों के लंबित रहने और पुलिस के राजनीतिकरण पर चर्चे गरम होते हैं। फिर बातचीत किसी और मुद्दे पर मोड़ दी जाती है। सोशल मीडिया और गैर सरकारी जनसेवी संस्थाओं में लाख खोट हों, उनका बड़े से बड़ा आलोचक भी यह मानता है कि वे आज जनता को (और अखबारों को भी) मुख्यधारा के बहुसंख्य गोदी मीडिया की तुलना में जान पर खेल कर भी प्रशासकीय अन्याय, भ्रष्टाचार और अत्याचार के सचित्र जमीनी ब्योरे लगातार देती रहती हैं। नतीजतन हाल के महीनों में, खासकर जब से महामारी निरोधक-2005 का कानून और सख्त बनाया गया है, मीडिया कर्मियों पर पुलिस का कोप बार-बार कई राज्यों में कहर बनकर टूट रहा है। जानने के हक और उस पर मंडराते खतरों पर शोध कर रही दिल्ली की संस्था (राइट्स एंड रिस्क एनालिसिस) का आकलन अभी एक प्रतिष्ठित डिजिटल खबरिया पोर्टल पर छपा है। उसके अनुसार, तालाबंदी यानी 25 मार्च से 31 मई के बीच पत्रकारों के खिलाफ 22 प्राथमिकियां दर्ज कराई गईं। 55 पत्रकारों को या तो अपनी खबरों को लेकर कानूनी नोटिस मिला है या उनसे पुलिस ने पूछताछ की है और 10 को हिरासत में लिया गया। विडंबना यह कि लगभग सारी रपटें व्यवस्था की खामियों को उजागर कर रही थीं जिनका खुद सरकार और स्थानीय प्रशासन को संज्ञान लेकर समुचित कार्रवाई करनी चाहिए थी। अगर वे गलत साबित हों तो बहुत अच्छा लेकिन अगर सच हैं तो उनसे कई सामान्य लोगों पर खतरा बनता है। एक रपट तालाबंदी के दौरान अभयारण्य में वन तस्करी बढ़ने पर थी। दो मामलों में पत्रकारों के फेसबुक के वीडियो पर प्राथमिकी दर्ज हुई जो तालाबंदी के दौरान जिलों में राशन व्यवस्था की गड़बड़ियों पर थे। एक पत्रकार ने सरकारी हस्पतालों में कोविड के सुरक्षा उपकरणों पर सवाल उठाए तो उससे स्पेशल टास्क फोर्स ने पूछताछ की। स्थानीय मुसहरों द्वारा तालाबंदी के दौरान भुखमरी की रपट पर मालिक और पत्रकार- दोनों को सराहना की बजाय जिले के डीएम की तरफ से कारण बताओ नोटिस आ गया।
इन बातों के उजास में विकास दुबे जैसे 50 से अधिक मामलों के आरोपी द्वारा की गई आठ पुलिस कर्मियों की नृशंस हत्या का मामला जैसे-जैसे बढ़ रहा है, बरसों से चली आई उसकी नाना राजनीतिक दलों, स्थानीय पुलिस और प्रशासन से नजदीकियां और जनता की उपेक्षा भी सामने ला रहा है। कोई व्यक्ति पुलिस की वर्दी पहनकर बाहर आता है, तो उससे उम्मीद बनती है कि अब वह जाति, धर्म या इलाकाई कबीलावादी आग्रहों से परे रहेगा। होता इसके उलट है क्योंकि हमारी राजनीति में कबीलावादी आग्रह लगातार बढ़ रहे हैं। चूंकि भर्ती से लेकर प्रोन्नति तक सब कुछ जाति, धर्म और सत्तारूढ़ दल के इलाकाई सरोकारों से तय होता है, इसलिए जो लोग सत्तारूढ़ दल के आग्रहों से बाहर हैं, उनको कमतर नागरिक मानकर उनसे दुर्व्यवहार करने की एक अलिखित खुली छूट वर्दीधारियों को मिल जाती है।
यहां पर पुलिस की भीतरी दारुण दशा पर भी लिखना ही होगा। आखिर, कोविड के दौरान इसी बल ने मानवीयता और करुणा की मिसालें भी दी हैं और फ्रंटफुट पर काम करते हुए उनमें से कई शहीद भी हुए हैं। इसलिए उनको दोष देकर यह फाइल बंद नहीं की जा सकती। दो मान्य जनसेवी संस्थाओं- कॉमन कॉज और लोकनीति द्वारा जारी रपट के अनुसार, 2012- 16 के बीच देश के कुल पुलिस बलों के 6.4 हिस्से को सेवा अवधि के दौरान दोबारा ट्रेनिंग मिल पाई थी। कोविड के बीच भी शुरू में जब उनको मुहल्लों की पहरेदारी दी गई तो अधिकतर को न तो जरूरी रक्षा उपकरण दिए गए और न ही रोग की बाबत जानकारी कि संक्रमण से खुद वे किस तरह बचें।
रखवालों की रखवाली के कुछ मान्य नियम-कायदे हर लोकतंत्र के विधान में बनाए गए हैं। हर बदलाव के साथ उनमें और उसी के साथ-साथ उनको लागू कराने वालों में समय-समय पर तरमीम करते रहना भी प्रशासन का एक बुनियादी उसूल है। कोविड की शुरुआती दौर की चूक में इसी वजह से कई पुलिसवाले काल कवलित हुए। इससे पहले रेप और समलैंगिकता के कानूनों में वक्त के मुताबिक बदलाव लाते हुए भी सभी सरकारी सशस्त्रबलों को कानून की सही जानकारी और कामकाज की व्यावहारिक शैली की बाबत लगातार समयानुसार प्रशिक्षण मिले और उनके कामकाज करने के तरीकों ही नहीं, उनकी मानसिक दशा की भी प्रोफेशनल पड़ताल भी हो। यह सनातन सवाल है। रोमन कवि जुवेनाल ने सदियों पहले पूछा था- कानून के रखवालों की रखवाली कौन कानून करता है?(navjivan)
क्या ऑनलाइन शिक्षा की आड़ में किया जा रहा है धंधा !
-रजीउद्दीन अकील
कोरोना महामारी के डर के कारण पूरे देश में छोटे बच्चों के स्कूलों से लेकर विश्वविद्यालयों तक में ऑनलाइन पढ़ाई होने लगी है। बाजार की शक्तियों द्वारा तय एजेंडे को सरकार से लेकर शिक्षा के सभी स्तरों के प्रशासन तक पूरा करने में लगे हैं। यह सब तब है जबकि डिजिटल विभाजन हर जगह है और कई जगह तो परिवारों के पास संतुलित, हाई स्पीड इंटरनेट या अपेक्षित डिवाइस भी नहीं हैं। चूंकि पढ़ाई और परीक्षाओं की निश्चित डेडलाइन हैं, इसलिए उन्हें पूरा करने के खयाल से ईमेल अटैचमेंट के तौर पर हजारों असाइनमेंट शिक्षकों और विद्यार्थियों के बीच जा-आ रहे हैं। भारत के लोग होशियार हैं और किसी भी स्थिति का सामना जुगाड़ से कर लेते हैं। असाइनमेंट पूरा कर शिक्षकों को जो मेल किए जा रहे हैं, वे आम तौर पर ‘हाथ से लिखे स्कैन्ड उत्तर’ होते हैं और वे भी दूसरों के ईमेल एड्रेस से। इन सबको लेकर किसी तरफ से कोई शिकायत होती भी नहीं दिख रही है।
चूंकि कोई नियमित परीक्षा नहीं हो सकती इसलिए विश्वविद्यालय किताब खोलकर परीक्षा देने-जैसी ऑनलाइन/ऑफलाइन तौर-तरीके आजमा रहे हैं। इसमें किसी विषय की परीक्षा तीन घंटे में तो होती है- इसी अवधि में प्रश्न डाउनलोड करने होते हैं और उनके उत्तर अपलोड किए जाते हैं। अगर ईमेल काम नहीं कर रहे हैं, तो यह विकल्प भी आजमाया जा रहा है कि सेमेस्टर के अंत में होने वाली परीक्षाओं को असाइनमेंट के तौर पर दे दिया जाए और उनके उत्तर कुरियर से मंगवाए जाएं। उन लोगोंकी प्रशंसा करनी चाहिए जो जरूरत होने पर कमजोर नेटवर्क के बाद भी कनेक्ट हो जा रहे हैं, भले ही इसके लिए उन्हें अपने कच्चे मकान की छत या किसी पेड़ पर चढ़ जाना पड़े!
कैसे-कैसे जुगाड़ किए जा रहे, उसके कुछ उदाहरण जानने-देखने चाहिएः
शिक्षक किसी पेड़ की डाल या मचान पर चढ़कर नेटवर्क से कनेक्ट हो रहे हैं और क्लास ले रहे हैं।
विद्यार्थी और शिक्षक पड़ोसियों से डाटा उधार ले रहे हैं। बंगाल में अम्फान चक्रवात के बाद ऐसा खास तौर से देखा गया।
नेटवर्क कनेक्शन वाले एक ही लैपटॉप या मोबाइल फोन का इस्तेमाल बच्चे, उनके अभिभावक और यहां तक कि उनके रिश्तेदार भी ऑनलाइन क्लास के लिए कर रहे हैं।
इस तरह, महामारी के बावजूद, यथाशीघ्र विभिन्न कोर्सों को पूरा करने और परीक्षाएं संचालित करने के आदेश दिए गए हैं ताकि अगले सेमेस्टर के लिए एडमिशन बिना विलंब पूरे किए जा सकें। इन सबको युद्धस्तर पर पूरा करने की जल्दबाजी है और फिर भी लगता नहीं कि महामारी की वजह से पैदा हुए संकट से उबरने के लिए ये सब अस्थायी उपाय हैं। कोरोना का खौफ रहे या नहीं, लगता है, हम नए चलन के तौर पर पूरी तरह अराजनीतिक डिस्टेंस लर्निंग की लंबी अवधि में जा रहे हैं।
कोरोना का भय और सोशल डिस्टेन्सिंग ऑनलाइन पढ़ाई के मापदंड का बहाना बन गया है। इसका मतलब है, विद्यार्थियों को कैंपस में आने की अनुमति नहीं होगी- आखिर, विद्यार्थी अधिकारवादी शासन के खिलाफ हर जगह दृढ़ता से खड़े भी हो रहे थे। यह भी उतना ही आश्चर्यजनक, असंगत और परस्पर विरोधी है कि वैसे शिक्षक जो वैसे तो ऑनलाइन टीचिंग और परीक्षाओं का विरोध कर रहे थे, वे भी वेबिनार और इन्स्टाग्राम शो में अचानक काफी सक्रिय हो गए हैं। लाइव कैमरे के सामने कुछ मिनट की प्रसिद्धि क्या सचमुच इतनी आकर्षक है कि दीर्घावधि वाले असर पर विचार भी नहीं किया जा रहा है? यह खास तौर पर भारत में हो रहा है। अमेरिका समेत कई देशों से संकेत मिल रहे हैं कि शिक्षक और छात्र क्लासरूम शिक्षा की ओर वापस आने को आतुर हैं, जूम पर कुछ हफ्तों ने ही ऑनलाइन शिक्षा के लालच से लोगों को मुक्त कर दिया है। लग रहा है कि अगला सेमेस्टर देर से शुरू होगा और जब इसकी शुरुआत होगी, तो यह (लंबे क्लास के लिए) ऑनलाइन और (छोटे सेमिनारों के लिए) सामान्य का मिश्रण होगा। ऐसा आने वाले महीनों में होना चाहिए और वह भी कोविड-19 की स्थिति देखकर, न कि अंधाधुंध डिजिटल बमवर्षा-जैसा जो आजकल हम देख रहे हैं। इन सब में शिक्षा का भारी-भरकम व्यापार शामिल है जो संकट की वजह से अपने लाभ में कटौती बर्दाश्त नहीं कर सकता। डिजिटल प्लेटफॉर्म के लिए यह वस्तुतः फायदा उठाने वाला अवसर है।
पुराने, समझदार समय में इस तरह की भयानक महामारी का दौर होता, तो गर्मी की छुट्टियों के दिन बढ़ा दिए जाते और महामारी का प्रकोप कम होने और सामान्य स्थिति बहाल होने की प्रतीक्षा की जाती। ऐसा ही कुछ मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों ने किया भी है। उन्होंने गर्मी की छुट्टी पहले घोषित कर दी और इसकी अवधि बढ़ा दी। जब वे खोलने की हालत में होंगे और सामान्य ढंग से काम करने लगेंगे, तब परीक्षाएं लेने की उनकी योजना है- जब ये कराने की हालत नहीं है, तो इसमें शर्म कैसी! अगर महामारी से लोगों की मौत जारी रही और लंबे समय तक या पूरे टर्म के लिए सोशल डिस्टेन्सिंग की जरूरत पड़ ही जाए, तब उपयोग में समझी जा सकने वाली प्राइवेसी चिंताओं के बावजूद कुछ दिनों के लिए वेब-आधारित प्लेटफॉर्म वाले ऑनलाइन क्लास को उचित कदम कहा जा सकता है। आखिर, एक सरकारी सर्कुलर में भी गोपनीय डाटा की सुरक्षा के संबंध में चिंताओं के मद्देनजर सरकारी कामों के लिए जूम के उपयोग को लेकर चेतावनी दी ही गई है।
यह समझने की जरूरत है किशै क्षिक संस्थान सीखने, पढ़ने, प्रयोग करने, विचारों के आदान-प्रदान, बहस करने, सवाल उठाने और विरोधी रुख रखने की जगह है- ये सब शिक्षा व्यवस्था के महत्वपूर्ण हिस्से हैं। डिजिटल स्रोत शिक्षा के काफी महत्वपूर्ण सहायक हैं या उनका कुशल तरीके से उपयोग किया जा सकता है लेकिन वे आमने-सामने की बातचीत, पढ़ाने और सीखने-सिखाने के विकल्प नहीं हो सकते। ऑनलाइन परीक्षाएं- ओपन बुक परीक्षा (ओबीई) या घर से लिखकर दी जाने वाली (टेक होम) परीक्षा- पूरी तरह बेकार ही होगी। अधिकारी और समाज जितनी जल्दी इसे समझेंगे, उतना ही अच्छा है।(navjivan)
-अजीत साही
जैसे ही किसी देश का लीडर राष्ट्रवाद या धर्म का नाम लेकर सरकारी कदम उठाए आपको फ़ौरन पता करना चाहिए - इसकी नेतागिरी ख़तरे में है क्या?
दरअसल तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोगन के साथ यही हो रहा है.
तुर्की की अर्थव्यवस्था बदहाल है. इस साल तुर्की की करेंसी, जिसे लीरा कहते हैं, तेरह फ़ीसदी गिर चुकी है. पिछले साल ये बीस फ़ीसदी गिरी थी. उसके पिछले साल भी बीस फ़ीसदी गिरी थी. किसी देश की करेंसी की वैल्यू जब गिरती है तो पूरे देश पर उसका बहुत बुरा असर होता है. एक ओर विदेशी क़र्ज़ की अदायगी और महँगी हो जाती है. और दूसरी ओर विदेश से इंपोर्ट होने वाला सामान और भी महँगा हो जाता है. इससे महंगाई भी बढ़ती है और लोगों की आर्थिक संपन्नता भी कम होती है. यानी ग़रीबी बढ़ती है.
सरकारी आँकड़ों के हिसाब से तुर्की में महंगाई की दर बारह फ़ीसदी है. ये आँकड़ा भी फ़र्ज़ी है. असली दर इससे कहीं अधिक है. पिछले साल तुर्की की सरकार ने महंगाई की दर बीस फ़ीसदी बताई थी. लेकर अमेरिकी अर्थशास्त्री स्टीव हैंक (twitter: steve_hanke) का अनुमान है कि पिछले साल तुर्की में महंगाई की असली दर 43% के आसपास थी. ज़ाहिर सी बात है कि लोगों की आय उस अनुपात में नहीं बढ़ती है जितनी महंगाई बढ़ती है. पिछले साल जो दस हज़ार मिल रहे थे वो आज पाँच हज़ार के बराबर हो चुके हैं.
तुर्की में बेरोज़गारी भी चरम पर है. कल ही तुर्की के Statitical Institute ने बताया कि देश का हर चौथा नौजवान बेरोज़गार है. सरकार के मुताबिक बेरोज़गारी की दर तेरह फ़ीसदी है. ये भी फ़्रॉड आँकड़ा है. दरअसल कोरोनावायरस के दौर में अर्दोगन ने प्राइवेट कंपनियों में छंटनी पर रोक लगा दी है. लेकिन साथ ही सैलरी न देने की इजाज़त दे दी है. तो आज की तारीख में लाखों तुर्क बगैर पगार के घर बैठे हैं लेकिन आँकड़ों में नौकरीशुदा हैं. ज़ाहिर है महीनों बाद ये नौकरी पर नहीं लौट नहीं पाएंगे और आज नहीं तो कल, बेरोज़गार गिने जाएँगे. इसी महीने के आँकड़े बता रहे हैं कि रोज़गार दर 5% घट कर 41% पर आ गई है. यानी पाँच में दो तुर्क ही नौकरीशुदा है.
पिछले तीन-चार सालो से तुर्की में उद्योग और व्यापार में भी काफ़ी मंदी आई है. मुनाफ़ों में भारी गिरावट आई है. विदेश निवेश पीछे हट रहा है. देशी कंपनियाँ भी व्यापार के विस्तार से चूक रही हैं. भवन निर्माण यानी construction industry तुर्की के जीडीपी का दस फ़ीसदी है. ये सेक्टर भी भयानक दौर से गुज़र रहा है. देश में लॉकडाउन करने के बावजूद अर्दोगन की हिम्मत नहीं हुई कि construction पर रोक लगाई जाए. लिहाज़ा कई मज़दूर कोरोना की चपेट में आ गए. इससे मज़दूरों में नाराज़गी है. अर्दोगन के विरोध में प्रदर्शन भी हुए हैं.
2003 में पहली बार चुनाव जीत कर सत्ता हासिल करने के बाद अर्दोगन ने अर्थव्यवस्था बढ़ाने के लिए उधार लेकर जम कर पैसा ख़र्च किया. पहले पाँच साल तो अर्थव्यवस्था बढ़ी भी. लेकिन फिर रफ़्तार धीमे होने लगी. आज सरकार और निजी कंपनियों का क़र्ज़ पाँच लाख करोड़ डॉलर हो चुका है. ये रकम देश की जीडीपी का दो-तिहाई है. इसकी अदायगी कर पाना न सरकार और न ही निजी कंपनियों के बस की बात है. तुर्की पर दबाव बन रहा है कि वो International Monetary Fund से उधार लेकर अपनी माली हालत सुधारने की कोशिश करे. लेकिन IMF से लोन लेने का मतलब होगा कि सरकार पर और सरकारी कंपनियों पर होने वाले ख़र्चों में कटौती हो. वो भी अर्दोगन के बस की बात नहीं है. तुर्की में सरकारी भ्रष्टाचार भी चरम पर है. Transparency International के मुताबिक भ्रष्टाचार से लड़ाई में पिछले साल दुनिया के 180 देशों में तुर्की 78 नबंर पर था. इस साल वो गिर कर 91 नंबर पर पहुँच गया. यानी सिर्फ़ एक साल में भ्रष्टाचार ख़ासा बढ़ गया है. 2010 में ये 56 नंबर पर था. यानी दस साल में भ्रष्टाचार लगभग दोगुना हो चुका है.
इन सब कारणों से अर्दोगन का विरोध बढ़ रहा है. पिछले साल तुर्की के सबसे बड़े और सबसे अधिक आबादी वाले शहर इस्तांबुल में मेयर के चुनाव में अर्दोगन की पार्टी AKP की हार हो गई. अर्दोगन ने उस फ़ैसले को मानने से मना कर दिया और चुनाव अधिकारियों पर दबाव बना कर तीन महीने बाद दोबारा चुनाव करवाया. दूसरे चुनाव में तो पार्टी और अर्दोगन को और भी मुंह खानी पड़ी. कई और शहरों में अर्दोगन की पार्टी को बुरी हार मिली है.
पिछले कुछ सालो में अर्दोगन ने देश भर में अपने विरोधियों को जेल भेजना शुरू कर दिया. हज़ारों पत्रकार, यूनिवर्सिटी प्रोफ़ेसर, एक्टिविस्ट, वकील, और जजों को भी या तो नौकरी से निकलवा दिया है या जेल में डाल दिया है. तुर्की की न्यायपालिका आज अपनी स्वतंत्रता खो चुकी है. पिछले हफ़्ते Amnesty International के तीन मुलाज़िमों को अदालत ने आतंकवादी घोषित करके जेल की सज़ा सुना दी है.
अब तो आप जान गए कि अर्दोगन ने अचानक क्यों एक संग्रहालय को मस्जिद में तब्दील करने का फ़ैसला ले लिया.
मनीष सिंह
पीटर द ग्रेट, जवाहरलाल नेहरू और कमाल अतातुर्क। तीन दौर और तीन तौर- ये तीन लीडर्स है जिन्होंने एक नए राष्ट्र को जन्म दिया।
यूरोप से बाहर जन्मे, लेकिन यूरोपीयन आइडियल्स और जीवन शैली से बेहद प्रभावित। अपने अपने देश को सांस्कृतिक, औद्योगिक और परम्परागत जडक़न से बाहर निकाला। अपने अपने तरीके से मॉडर्नाइज किया।
सत्रहवीं सदी में रूस की कमान संभालने वाले बादशाह पीटर ने रशिया का आकार बढ़ाया। नए शहर बसाए। एक लैंड लॉक्ड देश के लिए समुद्र तटों वाले इलाके जीते। पोर्ट, अंतराष्ट्रीय व्यापार, उद्योग, विज्ञान की शिक्षा, सामाजिक खुलापन और और विकसित समाज लाने के लिए डिक्टेटोरियल ताकत का इस्तेमाल किया।
पीटर धर्म और परम्परा के नाम पर दकियानूसी तत्वों से यूं निपटा कि दाढ़ी रखने पर टैक्स लगा दिया। चोगा पहनने वालों के कपड़े फड़वाकर सरेआम नंगा कर दिया। सोसाइटी को जबरन धकियाते हुए वह रूस को ताकत के उस थ्रेशोल्ड ले गया, कि आज 200 साल बाद भी, उसका देश वैश्विक ताकत है।
कमाल अतातुर्क, एक मध्यवर्गीय परिवार में जन्मे फौजी लीडर ने डूबते ओटोमन एम्पायर की लड़ाइयां लड़ी। खुद अपनी बैटल्स जीती, मगर देश हार गया। सरकार की मर्जी के खिलाफ जाकर उसने आक्रान्ताओं से लडऩा जारी रखा, अपनी सरकार बना ली। अंतत: पूरे तुर्की का लीडर बना। एक नए देश का भूगोल तय किया। और फिर बदल दिया तुर्की को। एक पिछड़ी कृषिगत सोसायटी को औद्योगिक, पाश्चात्य शिक्षित, मॉडर्न देश में सिर्फ 20 साल में ऐसा बदला कि यूरोप भी रश्क करे। कट्टर मुस्लिम धारणाओं को तोडऩे के लिए उसने सीधे प्रहार किए।
इस्लाम के मठाधीश बने खिलाफत को खत्म किया। शरिया कोर्ट और इस्लामी लॉ की जगह कन्स्टिट्यूशनल कोर्ट्स शुरू की। पवित्र अरबी की जगह कुरान का तुर्की अनुवाद कराया। लोग खुद पढऩे समझने लगे तो कुरान की असल शिक्षाओं को जानने के लिए मुल्लों का सहारा न लेना पड़ा।
उल्टी बाल्टी जैसी फुदने दार पारम्परिक टोपी की जगह हैट एक्ट लाया, बुर्का बंद किया और देश को धर्मनिरपेक्ष घोषित किया। चोगा छोड़, यूरोपियन पोशाक, अरबी छोड़ लैटिन, अंग्रेजी और विज्ञान की शिक्षा को बढ़ाया। खुद को तुर्की का ‘टीचर इन चीफ’ कहता।
और एक बड़ी चोट की। सदियों तक चर्च रहे, और फिर मस्जिद में कन्वर्ट कर दिए गए हेगिया सैफिया को म्यूजियम बना दिया।
नेहरू! एक नया देश, पिछड़ा, धार्मिक-सांस्कृतिक कुंजड़ औऱ कुंठाओं से घिरे समाज को विज्ञान, धर्मनिरपेक्षता, कन्स्टिट्यूशन, सहिष्णुता, इंस्टीट्यूशन डेवलमेंट, का पाठ पढ़ाया। वह जमीन तैयार की जिससे छोटे-छोटे धार्मिक सांस्कृतिक देशों का यह बिखरा-बिखरा ढेर, एक देश होकर एक सूत्र में बंध गया।
इस उबड़-खाबड़ भूमि को समतल होने में चालीस साल लगे। उस पर जब विकास की रेल बिछी तो 90 की स्पीड से दौड़ी। नेहरू ने ताकत नहीं, मुस्कान का इस्तेमाल किया। अतातुर्क जो चाहते थे, कहते थे, वो नेहरू कर गए। वे क्या चाहते थे-मैं ताकतवर हूँ, यह ठीक है। मगर मैं दिलों को जीतकर रूल करना चाहता हूँ, दिलों को तोडक़र नहीं।
तीनो में एक रोयालिटी था, एक फौजी तानाशाह, एक डेमोक्रेटिक। तरीके तीन, सपना एक देश का पूर्ण सांस्कृतिक-शैक्षणिक-आर्थिक रद्दोबदल। तीनों का विरोध भी हुआ, मगर तीनों को सत्ता जाने का भय न था। सो धर्म को धर्म से, क्लास को क्लास से या जाति से लड़ाने की कम्पलशन न थी। सोच सत्ता बचाने की नहीं, देश बनाने की थी।
तीनों की लिगेसी जारी है। पीटर के शहर का मेयर, आज रूस का जार है। उसने पीटर को आत्मसात कर लिया है। पीटर का नया रूप हो गया है। उसे सत्ता खोने का भय नही। तो सोच देश बनाने और बढ़ाने की है।
मगर तुर्की और भारत मे भयभीत सत्ताएं है। यूं चुनौती कोई नहीं, मगर लीडर के भीतर खालीपन है। भय है। वह चुनाव दर चुनाव सीटें गिनता है। राज्य दर राज्य, सरकारें गिनता है। वह 2024 की तैयारियों में है। वह 2029 की तैयारियों में है। वह 2034 की तैयारियों में भी है।
वह अतातुर्क और नेहरू को आत्मसात करना चाहता है, वैसा बनना चाहता है, मगर सत्ता में आया ही उन्हें गालियां देकर। सो उनके खड़े किए प्रतीकों पर चोट करना मजबूरी करे। वह एंटीअतातुर्क और एंटी नेहरू बनकर उनसे आगे निकलना चाहता है। दिलों को जीतकर नहीं, दिलों को तोडक़र बड़ा बनना चाहते हैं।
तो क्या आश्चर्य कि अतातुर्क की तस्वीर लगाना एर्डोगन का विरोध हो जाता है, नेहरू की तस्वीर मोदी की मुखालफत। दोनों देश, धर्म और इतिहास के सूख चुके घावों को कुरेद रहे है। डरे हुए मुँहबली, संस्कृति के पोषण के नाम पर एंटी-साइंस, एंटी-सेकुलरिज्म, एंटी-फेमिनिज्म, एंटी-इकवलिटी की नीतियों के साथ दकियानूसी परम्पराओं, और विभाजन को हवा दे रहे हैं।
भाग्यशाली हूँ कि इनमें से दो की धरती देखी है, तीसरे में रहता हूँ। दुर्भाग्यशाली हूँ कि उनकी लिगेसी की अनमेकिंग, अपनी रहती जिंदगी देख रहा हूँ। हमारा कोर्ट.. ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ के उद्घोष में शामिल चुका है।
उनकी सरकार हेगिया सैफिया म्यूजियम को फिर मस्जिद बना चुकी है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के प्रति अमेरिकी नीति भी अजीब है। एक तरफ वह हमको चीन के खिलाफ उकसा रहा है और हर तरह की मदद की चूसनियां लटका रहा है और दूसरी तरफ वह अमेरिका में पढऩेवाले भारतीय छात्रों और प्रवासियों को तबाह करने पर तुला हुआ है। अमेरिकी सरकार ने अभी एक नया हुक्म जारी किया है, जिसके मुताबिक उन सब भारतीय छात्रों के वीजा रद्द किए जाएंगे, जो आजकल ‘आनलाइन’ शिक्षा ले रहे हैं। अमेरिका में कोरोना ने इतना भयंकर रुप ले लिया है कि लगभग सभी विश्वविद्यालयों ने अपने छात्रों को घर बैठे इंटरनेट से शिक्षा देना शुरु कर दिया है। इस समय अमेरिका में भारत के दो लाख छात्र हैं। यदि उनके वीज़ा रद्द हो गए तो उन सबको तुरंत भारत आना पड़ेगा। ट्रंप-प्रशासन से पूछिए कि इन लाखों लोगों को भारत कौन लाएगा ? उन्होंने जो शुल्क भरा है, उसे कौन लौटाएगा ? उन्होंने अपने घरों का जो अग्रिम किराया दिया हुआ है, उसका क्या होगा ? जो छात्र तालाबंदी के पहले छुट्टियों में भारत आ गए थे, क्या वे अमेरिका जाकर अपना डोरा-डंडा समेटकर फिर भारत आएंगे ? इन भारतीय छात्रों के सिर पर तो ट्रंप ने तलवार लटका ही दी है, उसके पहले उन्होंने एच-1 बी वीज़ा भी रद्द कर दिए थे। यह सब उन्होंने क्यों किया ? एक तरफ तो हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ वे यारी गांठते हैं और दूसरी तरफ वे प्रवासी भारतीयों पर तेजाब छिडक़ने से बाज नहीं आते।
इसका मूल कारण है, उनका चुनाव, जो कि नवंबर में होनेवाला है। उसमें उन्हें उनकी लुटिया डूबती नजर आ रही है। वे अमेरिका मतदाताओं को यह संदेश देना चाहते हैं कि भारतीय को भगाकर वे अमेरिकी लोगों के रोजगार सुरक्षित कर रहे हैं। यह ठीक है कि अमेरिका में बसे हुए विदेशियों में भारतीय लोग सबसे अधिक सुशिक्षित और संपन्न समुदाय हैं लेकिन यह भी सत्य है कि अमेरिका की संपन्नता में उनका योगदान सारे प्रवासियों में सबसे ज्यादा है। यदि सारे भारतवंशी आज अमेरिका से निकल आने का फैसला कर लें तो अमेरिका अपने घुटनों के बल रेंगने लगेगा। इसीलिए अमेरिका के 136 कांग्रेसमेन और 30 सीनेटरों ने ट्रंप प्रशासन को सम्हलने की चेतावनी दी है और पूछा है कि इस कोरोना-काल में क्या ट्रंप विश्वविद्यालयों में क्लासें लगाने के लिए उनको मजबूर करेंगे।
कई विश्वविद्यालयों ने इस सरकारी मनमानी के विरुद्ध अदालतों की शरण ली है। यदि उन्हें राहत नहीं मिली तो विदेशी छात्रों से प्राप्त 45 बिलियन डॉलर का नुकसान उन्हें भुगतना पड़ेगा। ट्रंप क्या करे ? वह इन विश्वविद्यालयों की आमदनी की चिंता करे या वह अपनी कुर्सी बचाए ? उसकी कुर्सी को तो कोविड-19 ने ही हिला रखा है। भारत सरकार ट्रंप के इस बेढंगे कदम का विरोध शायद इसीलिए नहीं करेगी कि हमारे प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री और रक्षा मंत्री को अमेरिकी नेता हर दूसरे दिन चीन-विरोधी मीठी गोलियां टिकाते रहते हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
गुजरात के नगीनदास संघवी
एनडीटीवी के रवीश कुमार ने लिखा- बहुत दिनों बाद किसी के चरण छूकर आशीर्वाद लेने का मन किया है।
हमारे बीच कोई पत्रकार सौ साल पूरे कर रहा है, इसकी तो मुनादी होनी चाहिए। उत्सव मनाया जाना चाहिए। उनकी रचनाओं पर गोष्ठियां होनी चाहिए। उम्मीद है गुजरात की हवाओं में इस बात की खुश्बू होगी कि नगीनदास संघवी 10 मार्च को सौ साल पूरे करने जा रहा है।
संघवी साहब 19 साल की उम्र से ही पत्रकारीय लेखन कर रहे हैं तब उनका पहला लेख गुजरात की एक बेहद लोकप्रसिद्ध पत्रिका चित्रलेखा में छपा था। ताज़ा लेख नागरिकता कानून को लेकर है। जिसमें नगीनादास जी ने लिखा है कि भारत में 100 साल से रह रहे हैं लेकिन उनके पास साबित करने के लिए कोई दस्तावेज़ नहीं है। 3 मार्च को उन्होंने 11 लाख की सम्मान राशि ठुकरा दी और कहा कि यह पैसा दूसरे लेखकों को मिले। मोरारी बापू उन्हें सम्मानित करना चाहते थे।
100 साल की उम्र में भी नगीनदास जी स्वस्थ्य हैं। कोई गंभीर रोग नहीं है। 1919 के साल में पैदाइश हुई। गुजरात के भावनगर के भुंभली गांव में। मुंबई में बीमा कंपनी में काम किया। फिर राजनीतिक शास्त्र पढ़ाया। 32 साल बाद मीठी बाई कालेज से सेवानिवृत्त हो गए।
50 साल में संघवी साहब की कलम एक दिन नहीं रुकी। कभी संपादक से यह नहीं कहा कि आज लेखनहीं हो पाएगा। हर सप्ताह 5000 शब्द लिखने वाले संघवी साहब खुद टाइप करते हैं। उनके चार कॉलम छपते हैं। चित्रलेखा के अलावा दिव्य भास्कर की कलश पूर्ति में हर बुधवार को उनका कॉलम आता है। रविवार को तड़ ने फड़ नाम से कॉलम आता है। तड़ ने फड़ कालम में छपे लेख से कई किताबें भी बनी हैं।
चार किताबें अंग्रेज़ी में भी हैं।1. Gujarat: a political analysis 2. Gandhi: the agony of arrival 3. Gujarat at cross roads 4. A brief history of yoga.अमरीकन इतिहास और राजनीति पर उन्होंने नौ किताबो का गुजराती अनुवाद किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजकीय सफर पर भी उन्होंने किताब लिखी है। देश और दुनिया की राजनीति पर 30 परिचय पुस्तिकाएं लिखी हैं।
संघवी साहब ने हमेशा ही अपने कॉलम में वचिंत तरफ़ी की है। सेकुलर मूल्यों को बढ़ावा दिया है। निडर हैं। 26 जून 2019 के लेख में लिखते है कि.. ' राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्रभक्ति के बारे में प्रधानमंत्री की विचारधारा आरएसएस की है और वो बिल्कुल ग़लत है '। यह भी तथ्य है कि उन्हें पद्म श्री भी मोदी सरकार के दौर में ही मिला। लेकिन संघवी साहब की कलम कहां किसी का कहा मानती है। गुजरात में एक परंपरा देखने को मिली है। कांति भाई भट्ट के लेखन और लोकप्रियता से यह समझा है कि लेखक और पत्रकार घोर आलोचक होते हैं समाज और सत्ता के। यह बात मैं जनरल नहीं कह रहा है। सभी के लिए नहीं कह रहा लेकिन जिन नेताओं की आलोचना भी करते हैं वे भी इस बात का ख्याल करते हैं कि उनका वोटर पाठक भी होता है और वो पाठक कभी अपने लेखक का अपमान सहन नहीं कर सकता है।
मुझ तक जिस आर्जव के ज़रिए जानकारी पहुंची है, उनका बहुत शुक्रिया। उन्होंने इसके लिए आनलाइन मैगज़ीन में छपे लेख का अनुवाद किया ताकि हिन्दी का संसार भी नगीनदास जी के किस्सों से धन्य हो सके। संघवी साहब के लेखों के बारे में लिखा है कि " भावों से भरपूर और अंगत स्पर्श वाले लेख कभी देखने को नहीं मिलते, वे हमेशा तर्कबद्ध, सजावट मुक्त लेख लिखते है।" उनके बौद्धिक धैर्य और मौलिक चिंतन का उदाहरण ' रामायण नी रामायण ' लेखमाला में मिलते है। वह कहते है कि 13 जनवरी से 24 फरवरी 1985 के दौरान मुंबई के ' समकालीन ' में लिखी गई सीरीज का उद्देश्य वाल्मीकि रामायण की मूल कथा का सत्य बड़े आधारभूत तरीके से सबके सामने रखना था। धर्म की आड़ में अपने पेट भरनेवाले बाबा लोग जो ' भ्रम ' पैदा करते थे उसको दूर करना था। इस लेख का काफी विरोध हुआ था। जब अखबार के संपादक ने जवाब देने की जगह नहीं दी तो सांघवी साहब ने किताब छपवा दी। ' रामायण नी अंतर यात्रा ' नाम से । डॉ. अम्बेडकर के पुस्तक ' रिडल आफ राम ' की याद दिलाता हुए इस पुस्तक के हरेक पन्नों पर स्वतंत्र चिंतन दिखता है।
2019 में पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित नगीनदास संघवी को गुजरात के लोग ' नगीन बापा ' और ' बापा ' कह के बुलाते है।
कांति भाई भट्ट के बाद नगीन बापा गुजरात की पत्रकारिता के अदभुत उदाहरण हैं। नगीन बापा की शतकीय पारी शानदार रही है।
मैं आप सभी के लिए नगीन बापा के जीवन के बारे में टाइप करते हुए गौरवान्वित महसूस कर रहा हूं। हमारी पत्रकारिता को उनका आशीर्वाद मिले। सभी पत्रकारों को गौरव होना चाहिए कि उनके बीच एक ऐसा पत्रकार भी है जिसके सौ साल हो रहे हैं।
आप सभी नगीन बापा को बधाई दें। उनके स्वस्थ्य और सुंदर जीवन की कामना करें। उनके लिखे लेखों का पाठक बनें।
एक ऐसे दिन जब मुझे गोलियों से मार देने की धमकी दी जा रही है उस दिन नगीन बापा के सौ साल पूरे करने पर लिखते हुए महसूस हो रहा है कि मुझे भी उनके सौ साल मिले हैं।
इसलिए मुझे गुजरात से प्यार है।
बहुत दिनों बाद किसी के चरण छू कर आशीर्वाद लेने का मन किया है।
-रवीश कुमार
-श्रवण गर्ग
आँखों के सामने इस समय बस दो ही दृश्य हैं: पहला तो उज्जैन स्थित महाकाल के प्रांगण का है।उस प्रांगण का जो पवित्र क्षिप्रा के तट पर बस हुआ है और उस शहर में समाए हुए हैं जो सम्राट विक्रमादित्य की राजधानी रहा है। जहाँ भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक विराजित है।जो काल भैरव और कालिदास की नगरी के नाम से भी जाना जाता है।जहाँ भगवान कृष्ण और बलराम गुरु सांदिपनी के आश्रम में शिक्षा ग्रहण करने आए थे।इसी महाकाल के प्रांगण में एक आदमी निश्चिंत होकर बहुत ही इत्मिनान से फ़ोटो खिंचवा रहा है।इधर से उधर आ-जा भी रहा है।और फिर भगवान के दर्शन करने के बाद बाहर आकर घोषणा भी करता है कि वह कानपुर वाला विकास दुबे है।इसका वीडियो भी बन जाता है और वायरल भी हो जाता है। सब ऐसे चलता है जैसे किसी शूटिंग के दृश्य की शूटिंग चल रही हो।
दूसरा दृश्य उक्त प्रांगण से कानपुर शहर के नज़दीक भौंती नाम की जगह का है। उस जगह का जो बिकरू नामक गाँव से कोई पचास किलो मीटर दूर है जहाँ तीन जुलाई को आठ पुलिसकर्मियों की हत्या के बाद से विकास दुबे फ़रार हो गया था और चारों ओर कड़ी चौकसी का मज़ाक़ उड़ाते हुए फ़रीदाबाद के रास्ते तेरह सौ किलो मीटर यात्रा कर महाकाल के प्रांगण तक पहुँच गया था।महाभारत काल अथवा उसके भी काफ़ी पहले के उज्जयिनी नगर से भौंती तक के लगभग सात सौ किलो मीटर के बीच का जो मार्ग है, वही आज़ादी के बाद हुए भारत के कुल विकास की यात्रा है। यह भी कह सकते हैं कि विकास औद्योगिक नगर कानपुर पहुँचने के पहले यहाँ रोक दिया गया था।
कोई चलता-फिरता अपराधी अपने गिरोह की मदद से समूची व्यवस्था के कपड़ों पर गंदगी लगाकर पहले तो उसका ध्यान भंग करता है और फिर उसके हाथ से लोकतंत्र के बटुए को छीनकर फ़रार भी हो जाता है। वह यही काम बार-बार तब तक करता रहता है, जब तक कि व्यवस्था कराहने नहीं लगती।उसके बाद जो कुछ होता है उसी पर इस समय बहस चल रही है।बहस यह कि न्याय की प्रतिष्ठा की दृष्टि से एक ऐसे अपराधी का एंकाउंटर में मारा जाना कहाँ तक उचित है जिसने कथित तौर पर महाकाल प्रांगण में स्वयं ही उपस्थित होकर अपने उस व्यक्ति होने की खुले आम मुनादी की थी जिसे बटुए से लुटी हुई व्यवस्था चारों तरफ़ ढूँढ रही थी ।
वफ़ादारी के टुकड़ों-टुकड़ों में बँटी व्यवस्था से जुड़े हुए लोग भी कई-कई हिस्सों में बंट गए हैं।इनमें एक वे हैं जो मानते हैं कि वर्तमान न्यायिक व्यवस्था में अपराधियों को या तो सजा मिल ही नहीं पाती या फिर उसमें काफ़ी विलम्ब हो जाता है। ये लोग भीड़ की हिंसा, मॉब लिंचिंग या हैदराबाद जैसे एंकाउंटर को भी जायज़ मानते हैं। एक दूसरा वर्ग कह रहा है कि आम नागरिक का न्याय व्यवस्था के प्रति कुंठित हो जाना तो समझा जा सकता है, पर यहाँ तो व्यवस्था का ही व्यवस्था की ज़रूरत पर से यक़ीन ख़त्म होता दिख रहा है जो कि और भी ज़्यादा ख़तरनाक है। व्यवस्था के इस कृत्य में न सिर्फ़ नागरिक की भागीदारी ही नहीं है उसे प्रत्यक्षदर्शी बनने से भी किसी नाके के पहले ही रोका जा रहा है।
विकास दुबे तो एक ऐसा बड़ा अपराधी था जिसे अपने अपराधों के लिए संवैधानिक न्याय प्रक्रिया के तहत मौत जैसी सजा मिलनी ही चाहिए थी।पर सवाल यह है कि पिछले तीन दशकों के बाद भी क्या पुलिस व्यवस्था में भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ है ? वर्ष 1987 के मई माह की उस घटना का क्या स्पष्टीकरण हो सकता है जिसमें प्रोविंशियल आर्म्ड कोंस्टेबुलरी (पी ए सी) के जवान मेरठ की एक बस्ती से एक समुदाय विशेष के पचास लोगों को उठाकर ले गए और फिर उन्हें गोलियों से उड़ाकर शवों को पानी में बहा दिया गया। केवल आठ लोग किसी तरह बच पाए । तीन दशकों तक चले मुक़दमे में सोलह को दो साल पहले ही सजा सुनाई गई ।केंद्र और उत्तर प्रदेश दोनों ही जगह तब कांग्रेसी हुकूमतें थीं।दोषियों को सजा से बचाने के लिए तब हर स्तर पर प्रयास किए गए थे।क्या हमें ऐसा नहीं मानना चाहिए कि विकास दुबे के एंकाउंटर में शामिल लोगों को भी बचाने के वैसे ही प्रयास किए जाएँगे ?
चर्चा है कि विकास दुबे की एंकाउंटर में मौत के बाद बिकरू गाँव के लोगों ने मिठाइयाँ बाँटी और जश्न मनाया।यह भी आरोप है कि इसी गाँव के कई युवक उस समय विकास की मदद कर रहे थे जब पुलिसकर्मियों पर गोलियाँ बरसाई जा रही थी और अब पुलिस द्वारा सभी हथियारों के समर्पण की माँग की जा रही है। बिकरू गाँव में मिठाई बाँटने वाले क्या सचमुच सही मान रहे हैं कि एंकाउंटर में विकास दुबे की मौत के साथ ही आतंक के युग की समाप्ति हो गई है ? ऐसा है तो फिर हमें अदालतों और भारतीय दंड संहिता और इस तरह भारतीय लोकतंत्र के प्रति किस तरह की निष्ठा और आदर का भाव रखना चाहिए ?
एक सवाल यह भी है कि अगर तीन जुलाई को मारे जाने वाले लोगों में आठ पुलिसकर्मियों के स्थान पर सामान्य नागरिक होते तब भी क्या विकास दुबे को इसी तरह से महाकाल के प्रांगण तक की यात्रा और अपने वहाँ होने की मुनादी करना पड़ती ?कहा जाता है कि राज्य मंत्री का दर्जा प्राप्त एक प्रभावशाली व्यक्ति की हत्या के बाद भी अपराधी गवाहों के अभाव में पर्याप्त सजा पाने से छूट गया था।इस तरह के दुर्दांत अपराधी क्या बिना किसी संरक्षण के ही ऐसी हत्याएँ करने का साहस जुटा सकते हैं ? दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि जिस घटनाक्रम को संदेह की दृष्टि से देखते हुए उसके लोकतंत्र के भविष्य पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर चिंतित होना चाहिए, उसके प्रति संतोष व्यक्त किया जा रहा है।प्रश्न यह भी है कि जो कुछ भी चल रहा है उसके अगर प्रति थोड़ी सी भी अप्रसन्नता व्यक्त करना हो तो फिर इससे भी गम्भीर और क्या घटित होना चाहिए! और अंत में यह कि इस बात का ज़्यादा मातम नहीं मनाना चाहिए कि विकास अपनी मौत के साथ तमाम सारे राज़ और रहस्य भी लेकर चला गया है।वे राज अगर खुल जाते तो पता नहीं किस तरह के और एंकाउंटरों ,खून-ख़राबे और राजनीतिक-प्रशासनिक उथल-पुथल के दिन देखना पड़ जाते !
-विष्णु नागर
एक मित्र ने याद दिलाया कि संसद परिसर में एक बुजुर्ग महिला ने देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का कालर पकड़ कर उनसे पूछा था:' भारत आजाद हो गया, तुम देश के प्रधानमंत्री बन गए, मुझ बुढ़िया को क्या मिला?' नेहरू जी का जवाब था:' आपको ये मिला कि आप प्रधानमंत्री का गिरेबान पकड़ कर खड़ी हैं।'
ऐसी बातें याद मत दिलाया करो मित्रो, रोना आ जाता है। इस युग में बता रहे हो कि आजाद भारत ने इसके नागरिकों को प्रधानमंत्री का गिरेबान पकड़ने तक की आजादी दी है। अब बता रहे हो,जब आज के राजनीतिक शिखर -पुरुष को अपना पुरुषार्थ नेहरू जी के बारे में अल्लमगल्लम झूठ फैलाने में नजर आ रहा है, जब पाठ्यक्रम से भी धर्मनिरपेक्षता गायब की जा रही है। पता नहीं है क्या कि अब यह देशद्रोह की श्रेणी में आता है ! जेल जाना चाहते हो क्या? इस युग में तो अगर कोई सपने में भी प्रधानमंत्री का गिरेबान पकड़ ले तो उसके सपने की स्कैनिंग हो जाएगी और बीच चौराहे पर उसका काम तमाम कर दिया जाएगा और सब उसके वीडियो फुटेज को ' एनज्वाय ' करेंगे।प्रत्यक्षदर्शी उस आदमी की यह हालत होते देख कर हँसेगे, ताली-थाली बजाएँँगे। खुशी से पागल हो जाएँँगे,मिठाई बाँटेंगे ,पटाखे फोड़ेंगे। एक दूसरे के मुँह और सिर पर गुलाल मलेंगे।दिये जलाएँँगे। मोदी जी के जयकारे लगाएँगे, 'जय मोदी हरे' आरती गाएँँगे। और यह सब टीवी चैनलों पर गौरवपूर्वक प्राइम टाइम में दिखाया जाएगा। सिर्फ़ यह नहीं दिखाया जाएगा कि उसकी बीवी दहाड़े मार कर रो रही है, कि उसके बच्चों को समझ में नहीं आ रहा है कि यह आखिर हुआ क्या है,पापा को जमीन पर क्यों लेटाया गया है!इनकी तबीयत खराब है तो इन्हें अस्पताल क्यों नहीं ले जाते? और मृतक की माँँ गश खाकर गिर पड़ी है।
लोग किसी भी तरह के सपना देखने से डरने लगेंगे- चाहे वह 'कौन बनेगा करोड़पति' में सात करोड़ रुपये जीतने का सपना हो!आज अच्छा सपना आया तो कल गिरेबान पकड़नेवाला सपना भी आ सकता है,जैसे उसे आया था! और कोई जरूरी है कि सपना उतना ही भयंकर आए,उससे भयंकर नहीं आएगा!लोग सपने से इतने डरेंगे कि कोई भी सपना आए, लोग रात को उठ बैठेंगे,पसीने -पसीने हो जाएँगे।ईश्वर या अल्लाह से दुआ माँगेंगे कि आइंदा कोई भी सपना न आए। लोग डाक्टर के पास जाएँगे कि डाकसाब ऐसी दवा दो कि नींद आए मगर अच्छे या बुरे सपने न आएँ! सुन कर डाक्टर खुल कर हँसेगा।कहेगा, यही तो मेरी भी समस्या है,मेरी भी बीमारी है,तुमको इसका क्या इलाज बताऊँ!ईश्वर में आस्था रखो,सोने से पहले रात को उसका स्मरण कर लिया करो,मैं भी यही करता हूँ।इसीसे ऊपरवाला बेड़ा पार करेगा तो करेगा वरना मझधार हिम्मत रखो।
मत दिलाया करो इस तरह कि याद बंधु,अब तो आडवाणी भी उनके कंधे पर हाथ रख कर खड़े नहीं हो सकते।वे भी सुरक्षा के लिए खतरा मान लिए जाएँगे और पता नहीं, उनका बाकी जीवन कहाँ और कैसे बीते!
मत रुलाया करो बंधु,मत रुलाया करो।रोने को बहुत कुछ है और अब भी पता नहीं क्यों कोई गाँधी, कोई नेहरू, कोई अंबेडकर, कोई भगत सिंह,कोई लालबहादुर शास्त्री , कोई सीमांत गाँधी,कोई मौलाना आजाद की बातें याद दिला देता है।देखो आजकल 'न्यू इंडिया' बनाया जा रहा है,यह उन सब बातों को भूलने का समय है। बंधु, अतीत में ले जाना बंद करो।ले ही जाना हो तो सभी मुगलों,सभी मुसलमानों के मुँँह पर कालिख पोतने के लिए ले जाओ।ले जाना हो तो इतने पीछे ले जाओ कि सोमनाथ मंदिर तोड़ने का दर्द हरा हो जाए और 2002 का दर्द भूल जाएँ।याद दिलाना हो तो ऐसे तमाम किस्से याद दिलाओ कि हम किस प्रकार उस समय जगद्गुरु थे,जब हमें पता भी नहीं था कि जगत् होता क्या है,हाँ गुरु का पता था!
इस तरह तुम याद दिलाते रहे तो फिर तुम पूरे स्वतंत्रता संघर्ष की याद भी दिलाने लगोगे! मत करो ऐसे उल्टे काम।आज तो वे तुम्हें और हमें शायद माफ कर दें, कल ऐसी याद को वे कानूनन गुनाह घोषित कर देंगे।'झूठ' फैलाने और 'सांप्रदायिक सौहार्द' खत्म करने के आरोप में तुम्हें -हमें अंदर कर देंगे और कोई यानी कोई भी बाहर नहीं ला पाएगा।लोकतंत्र अब हमारे यहाँ बहुत ही अधिक ' विकसित' हो चुका है, बहुत ही ज्यादा।इतना ज्यादा कि दुनिया दाँतों तले ऊँगली दबा रही है और मोदीजी चेतावनी दे रही है कि अरे -अरे, तुम यह क्या कर रहे हो,इतना ' लोकतंत्र ' भी ठीक नहीं है और जरा उस अमित शाह से भी कहो कि गृहमंत्री होकर भी वह क्यों लोकतंत्र का इतना 'विकास' और ' विस्तार ' कर रहा है,क्यों वह आपके और अपने पैरों पर कुल्हाड़ी चला रहा है? रोको उसे और खुद भी रुक जाओ। कदम पीछे की ओर ले जाओ।लोगों को सिखाओ कि पीछे की ओर देखे बिना कदमताल कैसे किया जाता है और इसे देशप्रेम कैसे समझा जाता है!
ये गिरेबान पकड़ने वाली बातें साझा मत किया करो बंधु, और गिरेबान पकड़ने की याद दिलाते हो तो यह बता दिया करो कि ये हकीकत नहीं, किस्से-कहानियाँँ हैं,लोककथाएँ हैं, गप हैं,ये वे सपने हैं,जो तब लोग देख लिया करते थे।ये सच नहीं था।तब भी यही निजाम था,अब भी यही है।आगे भी यही रहेगा।सच अगर कुछ है तो यही है।
-राजेंद्र सिंह
लोकतंत्र में जब ’तंत्र’ ही ’लोक’ के विरोध में खड़ा हो जाता है, तो लोक भी संगठित होकर अपने को मजबूत बना लेता है। लेकिन सरकार ने यह काम एक महामारी के दौरान किया है; जिसमें सामाजिक दूरियों को बनाये रखने की पालना करना अत्यंत आवश्यक है। ऐसे में भी कोल इंडिया के मजबूत संगठनों व प्र्रबंधकों ने कोल के काम में भ्रष्ट्राचार और अवैज्ञानिक खनन, मजदूरों के साथ अत्यंत खराब व्यवहार तथा जंगलों को लूटने वाली व्यवस्था के विरुद्ध वातावरण निर्माण किया है।
भारत को जलवायु परिवर्तन की सुरक्षा, अन्न उत्पादन के लिए जल सुरक्षा और स्वास्थ्य की सुरक्षा प्रदान कराने हेतु भारत सरकार ने बहुत मूलभूत व्यवस्था बनाई थी। उस व्यवस्था के तहत भारत के जंगलों में हमारे साझा भविष्य और वर्तमान को बेहतर बनाने के लिए, भारत के जंगलों की बर्बादी रोकने का वन संरक्षण कानून और दूसरा प्रदूषण नियंत्रण कानून बहुत मजबूती से बनाये गए है।
संविधान का 73वाँ संशोधन, ग्राभ सभाओं की इच्छा के विपरीत गाँव की जैवविविधताओं को नष्ट नहीं करे। इसके लिए जैवविविधता अधिनियम बनाकर संरक्षण की व्यवस्था बनाई थी। संविधान ने वन क्षेत्रों में वनवासियों, वन्य जीवों व वनों का संरक्षण करने के लिए खनन जैसे प्रकृति विरुद्ध कार्यों को रोकने की व्यवस्था दी थी, लेकिन सरकारों ने इसकी पालना नहीं कराई है। परिणाम यह हुआ कि अब घने समृद्ध वन्य क्षेत्रों को भी निजी कम्पनियों को दिया जाने लगा है।
भारत के संविधान के 73वें संशोधन की अवहेलना करके 41 कोल क्षेत्रों को निजी कम्पनियों को देने का फैसला कोविड-19 की महामारी के दौरान हुआ है। यह फैसला वनवासियों के जीवन, जीविका और ज़मीर की सुरक्षा नष्ट करके, जंगलों को लूटने वालों को मालिक बनाता है। पिछले दिनों में ओड़िशा, छत्तीसगढ़, झारखंड़, मध्यप्रदेश, उत्तराखंड़ आदि राज्यों के बहुत सारे आंदोलनों ने जंगल व जंगलवासियों की सुरक्षा सुनिश्चित कराई थी।
ओडिशा में डोंगरिया जनजाति के भगवान ‘नाइमगिरि पर्वत‘ को बचाने के लिए, उस काल के उच्चतम् न्यायालय के निर्णय से न्यायाधीशों द्वारा भेजे गये, एक न्यायधीश ने मौके पर ‘‘ग्राम सभाओं की सीधे बैठक में शामिल होकर वेदांता कम्पनी के झूठे ग्रांम सभा प्रस्तावों को प्रत्यक्ष जाँचा था।’ निजी कम्पनियों के इन झूठे ग्रामसभा प्रस्तावों की स्थिति स्वयं जाँचकर वेदांता परियोजना को रद्द कर दिया गया था। इसी प्रकार मिर्जापुर और सोनभद्र जिले की निजी कोल माइन्स में वहाँ की जनजातियों का पाँच बार विस्थापन और जीवन की दुर्दशा देखकर, वहाँ के वनों व वनवासियों की सुरक्षा प्रदान की थी।
राँची के कोल क्षेत्र में मरकरी लैड़ जैसे विरोधी तत्वों से होने वाली बीमारियों से बचने के लिए भारत सरकार एवं न्यायपालिका का सदैव ही मानवीय सुरक्षा का दृष्टिकोण रहा है। इन्होंने यहांँ के पेयजल में भयानक मरकरी व आर्सनिक नाइट्रेट अलग करके स्वच्छ जल प्रदान करने की व्यवस्था करवाई थी।
समाज की जीवन, जीविका और ज़मीर के संकट को हल करने की कोशिश शुरू की थी। यह कोशिश सरकारी क्षेत्रों में तो सफल हुई और अभी भी चल रही है। लेकिन केपटिव एवं ठेकेदारी व निजी व्यवस्था में सफलतापूर्वक नहीं चली और इसे रोक दिया गया।
तरुण भारत संघ ने भारत सरकार के मामलों में सरिस्का वन क्षेत्रों में स्थित 472 निजी खदानें 1992 में बंद कराई गई थी। इसी प्रकार बाद में फोरेस्ट एक्ट एवं गोंड़ावर्मन केस में कहा गया कि सरकार अपने काम के लिए एक एकड़ भूमि उपयोग करती है तो, उसकी दो एकड़ भूमि में वन तैयार करने की जिम्मेदारी है। सरकार की नीति के अनुरूप भारत में 33 प्रतिशत वन भूमि, मैदानी क्षेत्रों में एवं 66 प्रतिशत वन भूमि पर्वतीय क्षेत्रों में होनी चाहिए। इसलिए सरकार को वनों को लगाने, बचाने और सघन बनाने के लिए तेजी से काम करने की जरूरत हैं।
सरकार को अपनी ही वन नीति की पालना करने की बाध्यतापूर्ण व्यवस्था बनाई थी। इसलिए भारत की जनता को विश्वास दिलाना होगा कि, भारत के जंगलों को कोई नष्ट नहीं करेगा। जल, जंगल, जंगलवासियों, जंगली जानवरों व वन्य भूमि को जंगलों के लिए सुरक्षित एवं संरक्षित करेंगे। इसी दिशा में भारत के उच्चतम न्यायालय ने समय-समय पर प्रकाश डाला है और स्पष्ट आदेश दिये हैं। सरकार को अपनी न्यायपालिका के आदेशों का पालन करना जरूरी है।
सरकार ने बहुत तेजी से अब जंगलों की अनदेखी करना शुरू कर दिया है। यह सरकार आर्थिक लाभ प्रतियोगिता के जंजाल में फँसकर शुभ् और लोकसुरक्षा को भूल गई है। इसलिए आर्थिक लाभ कमाने वाले जब भी कुछ बोलते है करते हंै, तो सरकार उन्हें बहुत गंभीरता से सुनती है। लेकिन लोककल्याण की आवाज, जो भारत के लिए शुभ व सुरक्षा प्रदान करती है, उन्हें सरकार अपना विरोधी मानकर नजर अंदाज करती है। इसी कारण आज की यह सरकारी व्यवस्था लोक विरोधी दिखती है।
लोकतंत्र में जब ’तंत्र’ ही ’लोक’ के विरोध में खड़ा हो जाता है, तो लोक भी संगठित होकर अपने को मजबूत बना लेता है। लेकिन सरकार ने यह काम एक महामारी के दौरान किया है; जिसमें सामाजिक दूरियों को बनाये रखने की पालना करना अत्यंत आवश्यक है। ऐसे में भी कोल इंडिया के मजबूत संगठनों व प्र्रबंधकों ने कोल के काम में भ्रष्ट्राचार और अवैज्ञानिक खनन, मजदूरों के साथ अत्यंत खराब व्यवहार तथा जंगलों को लूटने वाली व्यवस्था के विरुद्ध वातावरण निर्माण किया है।
कोल इंडिया की यह सरकारी आवाज सरकार कितना सुनेगी और कैसे देखेगी? इसके बारे में अभी कहना अत्यंत कठिन है। लेकिन निजी कोल खनन के विरोध से एक लोक जुम्बिश शुरू हुई है। यह लोक जुम्बिश ही सरकार के कोल क्षेत्रों की नीलामी को राष्ट्र विरोधी सिद्ध करवाकर रूकवा सकती है।(sapress)
तनाव की आग में घी डालने की तरह ?
रजनीश कुमार
बीबीसी संवाददाता
नेपाल में चीन की राजदूत होउ यांकी संकटग्रस्त केपी शर्मा ओली सरकार में कई मुलाक़ातों को लेकर निशाने पर हैं.
नेपाल में विपक्ष से लेकर मीडिया तक में सवाल उठा कि घरेलू राजनीति में किसी राजदूत की ऐसी सक्रियता ठीक नहीं है. मुलाक़ातों का यह दौर पिछले ढाई महीने से चल रहा है.
भारत में नेपाल के राजदूत रहे लोकराज बराल ने इन्हीं मुलाक़ातों को लेकर पाँच मई को नेपाल टाइम्स से कहा था कि चीन नेपाल की राजनीति में माइक्रो मैनेजमेंट की ओर बढ़ रहा है. उन्होंने यह भी कहा था कि कुछ साल पहले तक यही काम भारत नेपाल में करता था.
सात जुलाई को होउ यांकी की सत्ताधारी पार्टी के नेताओं से जारी मुलाक़ातों के ख़िलाफ़ काठमांडू में नेपाली छात्रों ने चीनी दूतावास के बाहर पोस्टर लेकर प्रदर्शन भी किया.
पोस्टरों पर लिखा था कि दूतावास सत्ताधारी नेताओं के घर से संचालित न हो. इसे लेकर कुछ विपक्षी नेताओं ने भी सवाल उठाए.
प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली से पार्टी के लोग ही इस्तीफ़ा मांग रहे हैं. इस्तीफ़ा मांगने वाले पूर्व प्रधानमंत्री प्रचंड के खेमे के लोग हैं. भारत के मुख्याधारा के मीडिया में कहा जा रहा है कि चीन ओली सराकर को बचाने में लगा है क्योंकि ओली भारत विरोधी हैं.
यहां तक कि कई हिन्दी चैनलों ने प्रधानमंत्री केपी ओली और चीनी राजदूत होउ यांकी को लेकर सनसनीख़ेज़ दावे किए. कुछ चैनलों ने यह स्टोरी चलाई कि ओली को हनी ट्रैप में फंसा दिया गया है.
नेपाल ने इन रिपोर्ट पर कड़ी आपत्ति दर्ज कराई और केबल ऑपरेटरों से कहा कि ऐसे भारतीय न्यूज़ चैनलों को अपनी ज़िम्मेदारी समझते हुए प्रसारण से रोके.
जब भारत-नेपाल के बीच शुरू हुआ तनाव
काठमांडू पोस्ट के मुताबिक़, नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप ज्ञावली ने कहा कि उन्होंने भारत में नेपाल के राजदूत नीलांबर आचार्य को भारतीय विदेश मंत्रालय के सामने कड़ी आपत्ति दर्ज कराने के लिए कहा है.
नीलांबर ने कहा कि भारतीय मीडिया नेपाल और भारत के द्विपक्षीय संबंधों को और ख़राब कर रहा है.
नेपाली मीडिया में कार्टून
नेपाल और भारत में पिछले कुछ महीनों से सीमा विवाद के कारण तनाव है. दोनों देशों के रिश्ते ऐतिहासिक रूप से निचले स्तर पर पहुंच गए हैं. 22 मई को नेपाल ने नया राजनीतिक नक्शा जारी किया था, जिसमें कालापानी, लिम्पियाधुरा और लिपुलेख को अपना हिस्सा बताया था.
इसके बाद से दोनों देशों में तनाव बढ़ता गया. हालांकि इससे पहले भारत ने पिछले साल नवंबर में जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेश बनाए जाने के बाद अपना नक्शा अपडेट किया था. इस नक्शे में ये तीनों इलाक़े थे.
भारत का कहना है कि उसने किसी नए इलाक़े को नक्शे में शामिल नहीं किया है बल्कि ये तीनों इलाक़े पहले से ही हैं.
इन तमाम विवादों को भारतीय मीडिया में ख़ूब जगह मिली.
भारतीय मीडिया ने सही भूमिका निभाई?
क्या भारतीय मीडिया ने पूरे विवाद को जिस तरह से कवर किया वो दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंधों में आए तनाव की आग में घी डालने की तरह है?
इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मास कॉम्युनिकेशन में प्रोफ़ेसर आनंद प्रधान कहते हैं, ''इसमें कोई शक नहीं है. भारतीय मीडिया की रिपोर्टिंग में पत्रकारिता की जो बुनियादी चीज़ होती है उसका भी पालन नहीं किया गया है. आपकी रिपोर्टिंग तथ्यों के आधार पर होनी चाहिए. आप गल्प नहीं गढ़ सकते. आप अपने शो की लोकप्रियता बढ़ाने के लिए किसी राजनयिक को प्रधानमंत्री के साथ हनी ट्रैप की बात कैसे चला सकते हैं? ये तो बहुत ही आपत्तिजनक है.''
आनंद प्रधान कहते हैं, ''दरअसल, दिक़्क़त यह है कि भारतीय मीडिया को लगता है कि नेपाल भारत का एक्स्टेंशन है. ये आज तक स्वीकार नहीं कर पाए हैं कि वो एक संप्रभु राष्ट्र है और ख़ुद फ़ैसले ले सकता है. नेपाल अपनी विदेश नीति स्वतंत्र रूप से चला सकता है. भारतीय मीडिया को उपनिवेशवादी मानसिकता से बाज़ आने की ज़रूरत है. अगर इनकी रिपोर्टिंग ऐसी ही जारी रही तो दोनों देशों के संबंधों में लोगों के बीच जो गर्मजोशी है उसे भी नुक़सान होगा.''
नेपाल में नया पत्रिका के वरिष्ठ पत्रकार नरेश ज्ञावली कहते हैं कि अगर भारतीय मीडिया बताता है कि नेपाल चीन की गोद में बैठ गया है तो उसे इसके पक्ष में तथ्य भी देना चाहिए.
वो कहते हैं, ''भारत नेपाल की राजनीति में 2015 तक माइक्रो मैनेजमेंट करता रहा. नेपाल की राजनीति को नेपाल के लोग तय करेंगे न कि भारत. हमारा संविधान कैसा होगा ये भारत नहीं तय करेगा. ये नेपाल के लोग तय करेंगे. अगर नेपाल में मधेसी संविधान को लेकर सहमत नहीं थे तो ये नेपाली जनता का नेपाल की सरकार के ख़िलाफ़ विरोध था. भारत का मीडिया मधेसियों को भारतीय मूल का बताता है. ऐसा क्यों करता है? क्या मधेसी भारतीय मूल के हैं? मधेसी नेपाली हैं और उन्हें अपने अधिकारों को पाने के लिए भारत की ज़रूरत नहीं है. लेकिन भारत ने इसी को लेकर अघोषित नाकाबंदी लगा दी.''
भारत से दूरी के कारण चीन आया नेपाल के क़रीब?
ज्ञावली कहते हैं, ''नाकाबंदी के बाद नेपाल में ज़रूरत के सामानों की किल्लत हो गई. हम लैंड लॉक्ड देश हैं. भारत को ये बात पता है और फिर भी नाकाबंदी की. तो क्या हम भूखे रहते? चीन के अलावा विकल्प क्या था? हमें तो किसी से मदद लेनी थी. चीन के क़रीब भेजा किसने? जिस ओली को भारतीय मीडिया ने विलेन बना दिया है उसी ओली को भारत का क़रीबी कहा जाता था."
"महाकाली संधि को कराने में ओली की अहम भूमिका थी. भारत अपने क़रीबियों को भी क़रीब क्यों नहीं रख पा रहा है? ये कितनी गंदी हरकत है कि किसी महिला डिप्लोमैट का नाम बिना कोई तथ्य के प्रधानमंत्री के साथ हनी ट्रैप में घसीट दिया जाए. ये ओली और उस महिला डिप्लोमैट का नहीं बल्कि नेपाल का अपमान है. आप चाहते हैं कि अपमान भी सहें और आपके पीछे-पीछे भी चलें?''
काठमांडू पोस्ट के एक वरिष्ठ रिपोर्टर ने नाम नहीं ज़ाहिर करने की शर्त पर कहा, ''जो भारतीय मीडिया ये दिखा रहा है कि ओली चीन समर्थक हैं उसे तथ्यों का इल्म नहीं है. अमरीका ने नेपाल के साथ 50 करोड़ डॉलर का मिलेनियम चैलेंज कॉर्पोरेशन यानी एमसीसी करार किया है. यह करार इंडो पैसिफिक स्ट्रैटिजी का हिस्सा है. ज़ाहिर है इसमें भारत भी शामिल है. चीन क़तई नहीं चाहता है कि यह क़रार ज़मीन पर उतरे."
"एमसीसी नेपाल में चीन के प्रभाव को कम करने के लिए हैं. इस समझौते को प्रधानमंत्री ओली ने ही अंजाम तक पहुंचाया है. अगर ओली की कुर्सी ख़तरे में है तो इसकी एक बड़ी वजह ये भी है. नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर ही एमसीसी पर सहमति नहीं है. प्रचंड नहीं चाहते हैं कि यह करार आगे बढ़े लेकिन ओली इससे डिगना नहीं चाहते हैं. अब भारत और भारतीय मीडिया ख़ुद तय कर ले कि क्या ओली वाक़ई चीन समर्थक हैं?''
नेपाली मीडिया में कार्टून
नेपाल में एमसीसी को लेकर कहा जाता है कि यह चीन को रोकने के लिए है. अमरीका ने एक जून, 2019 को इंडो-पैसिफिक स्ट्रैटिजी रिपोर्ट जारी की थी. इस रिपोर्ट में चीन को ख़तरा बताया गया है.
दरअसल, नेपाल एमसीसी के साथ चीन की महत्वाकांक्षी परियोजना वन बेल्ट वन रोड का भी हिस्सा है. 2015 में भारत की तरफ़ से अघोषित नाकाबंदी हुई थी तो नेपालियों को लगा कि चीन से और क़रीब आने की ज़रूरत है. ऐसे में वन बेल्ट वन रोड को भी सकारात्मक रूप में लिया गया. चीन के बढ़ते प्रभाव को लेकर अमरीका ने भी नेपाल को काफ़ी तवज्जो दी है.
इसी साल जनवरी में नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी की स्टैंडिंग कमिटी की बैठक हुई थी तो एमसीसी का मुद्दा उठा था. पार्टी के भीतर कई नेताओं ने कहा कि यह इंडो-पैसिफिक स्ट्रैटिजी का हिस्सा है और इससे चीन के साथ संबंध ख़राब होंगे.
'नेपाल के पीएम की भी मर्यादा है'
नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर भी इसे भारत और अमरीका की चीन के ख़िलाफ़ रणनीति बताई जा रही है. हालांकि विदेश मंत्री प्रदीप ज्ञावली सफ़ाई दे चुके हैं कि एमसीसी इंडो-पैसिफिक स्ट्रैटिजी का हिस्सा नहीं है.
नेपाल के वरिष्ठ पत्रकार युवराज घिमरे कहते हैं कि भारत को ब्रिग ब्रदर की तरह पेश नहीं आना चाहिए.
वो कहते हैं, ''अगर नेपाल सीमा विवाद को लेकर भारत से बातचीत के लिए अनुरोध कर रहा है तो उसे स्वीकार करना चाहिए. आप चीन से बात कर सकते हैं, पाकिस्तान से कर सकते हैं तो नेपाल से करने में क्या दिक़्क़त है.''
कई भारतीय पत्रकारों को भी लगता है कि भारतीय न्यूज़ चैनलों पर नेपाल-भारत तनाव की रिपोर्टिंग किसी गॉसिप की तरह की गई है.
इंडिया टुडे के एक जाने-माने एंकर ने नाम नहीं बताने की शर्त पर कहा, ''नेपाल-भारत में विवाद पर कुछ चैनलों की रिपोर्टिंग बॉलीवुड गॉसिप की तरह है. अगर आपके प्रधानमंत्री की मर्यादा है तो नेपाल के पीएम की भी उतनी ही मर्यादा है. आप पत्रकार हैं इसका मतलब ये नहीं कि किसी का मान मर्दन करें और किसी की तारीफ़ में बिछे रहें.'' (www.bbc.com)
- बाबा मायाराम
श्रम आधारित गांव की, खेती की संस्कृति की वापसी हो रही है। गांव की पारंपरिक खान-पान संस्कृति बच रही है। इस तरह की मुहिम को आंगनबाड़ी जैसी योजनाओँ से भी जोड़ा जा सकता है। बाड़ियों में सब्जियों की खेती गांवों में पारंपरिक तरीके से होती रही है। लोग अपने घर के पीछे बगीचे में व खेत में सब्जी उगाते रहे हैं। विशेषकर महिला किसानों की इसमें प्रमुख भूमिका होती है। उनमें इसे करने का स्वाभाविक कौशल भी है। बल्कि वे जहां भी रिश्तेदारी में जाती हैं, वहां से बीज लाकर लगाती हैं। बीजों का आदान-प्रदान होता रहता है।
कूकरापानी गांव की भगवंतिन बाई की बाड़ी में कई तरह की हरी सब्जियां लहलहा रही हैं। लौकी, कुम्हड़ा, तोरई, सेमी, करेला और कद्दू की बेल बागुड़ पर फैली हुई हैं। पपीता,सीताफल, मुनगा, अमरूद और आम के हरे भरे फलदार पेड़ भी हैं। भगवंतिन की आंखें चमक रही हैं, पिछले साल उसने बारह सौ रूपए की बरबटी बेच ली थी।
यह गांव कबीरधाम जिले के बोड़ला प्रखंड में है। मैकल पहाड़ की दलदली घाटी की तलहटी में बसा है। भगवंतिन बाई, अकेली महिला नहीं है, जिसने हरी सब्जियों की खेती की है। इस प्रखंड में 24 गांव के 305 परिवार उनकी बाड़ी (किचिन गार्डन) में सब्जी की खेती कर रहे हैं। इसी तरह, गरियाबंद जिले के कमार और गोंड आदिवासी भी बाड़ियों में सब्जियों की खेती कर रहे हैं। गरियाबंद के करीब 300 परिवारों ने इसे अपनाया है।
मैंने कुछ समय पहले इस इलाके का दौरा किया था। 29 अगस्त (वर्ष 2019) की शाम मैं यहां पहुंचा था, और तरेगांव में सामाजिक कार्यकर्ता अमरदास मानकर के घर ठहरा था। यह गांव दलदली घाटी के नीचे बसा है, यहां फोन संपर्क भी मुश्किल है। उस दिन रिमझिम तो कभी जोर से बारिश हो रही थी। हमने इस बीच में ही करीब आधा दर्जन गांवों का दौरा किया। पहाड़ के ऊपर बसे भुरसीपकरी, बम्हनतरा और तलहटी में बसे कूकरापानी, तरेगांव, मगरवाड़ा, कोमो गांव गए थे। कूकरापानी और कोमो गांव में आदिवासियों ने बाड़ियों में अच्छी सब्जियों की खेती की है।
ग्रामोदय केन्द्र संस्था आदिवासी गांवों में आजीविका संवर्धन का काम कर रही है। राजिम की प्रेरक संस्था इसमें सहयोग कर रही है। इस इलाके में आदिवासियों की पोषण, स्वास्थ्य और आर्थिक स्थिति बेहतर करने का काम किया जा रहा है।
यह इलाका आदिवासी बहुल है। बैगा और गोंड यहां के बाशिन्दे हैं। जंगल ही आदिवासियों का जीवन का आधार है। उनकी जिंदगी जंगल पर ही निर्भर थी। वर्षा आधारित खेती होती है। लेकिन मौसम बदलाव के कारण वह भी ठीक से नहीं हो रही है। इससे आदिवासियों की आजीविका प्रभावित हो रही है। बैगा तो बेंवर खेती (शिफ्टिंग कल्टीवेशन) करते थे। जिसमें कोदो, कुटकी, मड़िया, कांग, सल्हार, सांवा, कतकी जैसे पौष्टिक अनाज उगाते थे। लेकिन अब उस पर रोक है।
ग्रामोदय संस्था के उदयेश्वर धारने बताते हैं कि आदिवासियों को साल भर पोषणयुक्त भोजन मिले, यह हमारी कोशिश है। उनकी संस्था इसके लिए बाड़ी ( किचिन गार्डन) को बढ़ावा देती है। जिसमें लौकी, कुम्हड़ा,मखना ( कद्दू), बरबटी, सेमी, भिंडी, ग्वारफली, करेला, टमाटर,डोडका ( चिकनी तोरई), खट्टा भाजी, चेंच भाजी, झुरगा आदि लगाते हैं। फलदार पेड़ों में सीताफल, जाम, जामुन, मुनगा, नींबू, पपीता, करौंदा आदि का रोपण करवाते हैं।
वे आगे बताते हैं कि हमारा उद्देश्य है कि लोगों को 6 से 8 महीने बाड़ी से हरी ताजी तरकारी मिले और उसमें से कुछ बेचकर आमदनी भी हो सके। इसके अलावा, संस्था जैविक मिश्रित खेती, मछली पालन, बकरीपालन और जलसंरक्षण जैसी काम भी करती है।
यहां आदिवासियों ने 6 गांवों में बीज बैंक भी बनाए हैं। जिसमें कोमो, पड़ियाधरान,गुडली, आमानारा, कुरलूपानी, कूकरापानी शामिल हैं। यहां से लोग बीज लेते हैं और जब फसल आने पर वापस करते हैं।
प्रेरक संस्था राजिम के सामाजिक कार्यकर्ता रामगुलाम सिन्हा बताते हैं कि हमारा उद्देश्य आदिवासियों के जीवन को बेहतर करना है। इस तरह के प्रयास छत्तीसगढ़ के आदिवासी अंचलों में किए जा रहे हैं। उनकी संस्था धमतरी, महासमुंद, बस्तर, कवर्धा, राजनांदगांव, जांजगीर चांपा, बिलासपुर, कोरबा और रायगढ़ जिले में यह काम कर रही है। इनमें से एक गरियाबंद जिला भी है। यहां कमार आदिवासी हैं, जिन्होंने बैगा आदिवासियों की तरह ही कभी स्थाई खेती नहीं की है, लेकिन बदलते समय में आजीविका के लिए यह जरूरी हो गया है। इसके लिए मिश्रित खेती और बाड़ी को प्रोत्साहित किया जा रहा है। क्योंकि जंगलों से मिलने वाले खाद्य कंद-मूल, मशरूम और हरी पत्तीदार सब्जियों में कमी आ रही है।
वे आगे बताते हैं कि गरियाबंद में कमार आदिवासी हैं। यहां वर्ष 2014 से सब्जियों की खेती की जा रही है। कमार और गोंड के 3 सौ से ज्यादा परिवार यह काम कर रहे हैं। यह सब देसी बीजों से और पूरी तरह जैविक पद्धति से हो रहा है। इसमें हरी पत्तीदार सब्जियां, फल्लीदार सब्जियां, कंद, मसाले और औषधियुक्त पौधे शामिल हैं।
सब्जी बाड़ी में अगर कीट प्रकोप होता है तो स्थानीय स्तर पर जैव कीटनाशक तैयार किए जाते हैं। गरियाबंद में प्रेरक संस्था से जुड़े रोहिदास यादव बताते हैं कि तम्बाकू काढ़ा, नीमतेल घोल, नीला थोथा सुहागा और पंचपर्णी (ऐसे पौधों के पत्ते जिन्हें जानवर नहीं खाते- जैसे नीम,करंज, धतूरा, सीताफल आदि) जैव कीटनाशक बनाए जाते हैं। ये सभी कीटनाशक ग्रामीण खुद तैयार करते हैं। उनका छिड़काव करते हैं। ये बाजार के कीटनाशकों की तुलना में काफी सस्ते हैं और आसानी से बनाए जा सकते हैं। जैव खाद तैयार कर मिट्टी को उपजाऊ बनाया जाता है जिससे अच्छी उपज आ सके।
इसके अलावा, जैविक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है। धान की देसी किस्मों का संरक्षण किया जा रहा है। भिलाई गांव में संस्था के खेत में 350 प्रकार की देसी धान की किस्में उगाई जाती हैं। छत्तीसगढ़ की पहचान धान के कटोरे से है। यहां ही विश्व प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक डा. आर.एच. रिछारिया ने 17 हजार से ज्यादा देसी धान की किस्मों का संग्रह किया था। मिश्रित खेती में कोदो, मड़िया, अमाड़ी, अरहर , झुरगा, मक्का, ज्वार औऱ बाजरा की खेती की जा रही है।
बाड़ियों में सब्जियों की खेती गांवों में पारंपरिक तरीके से होती रही है। लोग अपने घर के पीछे बगीचे में व खेत में सब्जी उगाते रहे हैं। विशेषकर महिला किसानों की इसमें प्रमुख भूमिका होती है। उनमें इसे करने का स्वाभाविक कौशल भी है। बल्कि वे जहां भी रिश्तेदारी में जाती हैं, वहां से बीज लाकर लगाती हैं। बीजों का आदान-प्रदान होता रहता है। लेकिन समय के साथ इसमें कई कारणों से कमी आ रही है।
कुल मिलाकर, इस पूरी पहल का कई तरह से असर देखा जा रहा है। देसी बीजों का संरक्षण हो रहा है। हरी ताजी, पोषणयुक्त सब्जियों, कंद और फल भोजन में शामिल हो रहे हैं। पोषण और स्वास्थ्य अच्छा हुआ है। क्योंकि इस इलाके में पहले लोग सब्जियों का इस्तेमाल कम करते थे। दाल तो बहुत कम ही होती थी। अब उन्हें सब्जियां मिल रही हैं। स्वादिष्ट व मसालेदार भोजन मिलता है। परिवार की आय बढ़ी है।
भूमिहीन परिवार और कम जमीन वाले आदिवासी परिवार भी इससे लाभांवित हो रहे हैं। वनाधिकार कानून ( अनुसूचित जनजाति औऱ अन्य परंपरागत वन निवासी ( वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 के तहत यहां वन भूमि लेने के लिए प्रयास भी किए जा रहे हैं। इसके लिए निजी व सामुदायिक दावे किए जा रहे हैं। महिला सशक्तीकरण भी हुआ है। घर के इस्तेमाल किए हुए पानी का उपयोग हो रहा है। श्रम आधारित गांव की, खेती की संस्कृति की वापसी हो रही है। गांव की पारंपरिक खान-पान संस्कृति बच रही है। इस तरह की मुहिम को आंगनबाड़ी जैसी योजनाओँ से भी जोड़ा जा सकता है। यह बहुत ही उपयोगी, सराहनीय और अनुकरणीय पहल है।(sapress)
-महेन्द्र पांडे
हाल में ही भारत सरकार ने चीन के एप्प्स और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को देश की अखंडता, संप्रभुता और राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देकर देश में प्रतिबंधित कर दिया है। ऐसा कोई उदाहरण अब तक नहीं सामने आया है, जिससे पता चलता हो कि ये एप्प्स और सोशल मीडिया प्लेटफोर्म्स किसी भी तरह से देश की अखंडता, संप्रभुता और राष्ट्रीय सुरक्षा पर धावा बोल रहे थे। दूसरी तरफ, जनता के बीच दिनभर फेक न्यूज और जहर उगलते फेसबुक और इन्स्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर कोई कार्यवाही नहीं की जाती।
हाल में ही रंगभेद के विरोध में चल रहे आन्दोलनों के बीच फेसबुक और इन्स्टाग्राम के बहिष्कार और इसे विज्ञापन न देने की आवाज अमेरिका से उठी है और अब भारत छोड़कर पूरी दुनिया पर इसका असर देखा जा रहा है। इस मुहीम को अमेरिका के अनेक मानवाधिकार संगठनों ने सम्मिलित तौर पर शुरू किया है और इसे “स्टॉप हेट फॉर प्रॉफिट” का नाम दिया गया है। इसके अंतर्गत फेसबुक पर अपने विज्ञापन चलाने वाली कंपनियों से आग्रह किया गया है कि इस सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जुलाई के महीने में विज्ञापन ना दें और इसके बहिष्कार की भी मांग की गई है।
स्टॉप हेट फॉर प्रॉफिट के तहत जुलाई शुरू होने के बाद से अब तक लगभग 800 अमेरिकी कंपनियों ने फेसबुक को विज्ञापन देना बंद कर दिया है। इनमें फोर्ड, होंडा, लेविस स्ट्रास, टारगेट, युनिलिवर और एडीडास जैसी कंपनियां भी शामिल हैं। पेट्रोलियम कंपनी बीपी अभी इस संबंध में विचार कर रही है। यूरोप में वोक्सवैगन, हौंडा यूरोप, रोबिनसन, फोर्ड यूरोप, मार्स और ईडीएफ जैसी कंपनियों ने भी विज्ञापन देना बंद कर दिया है।
सेंटर कोउंटरिंग डिजिटल हेट के चीफ एग्जीक्यूटिव इनोरन अहमद ने यूरोपीय कंपनियों से इस मुहीम में शामिल होने का आह्वान किया है। उनके अनुसार फेसबुक को अमेरिका में राजनैतिक संरक्षण प्राप्त है, पर यूरोप के अधिकतर देश तो इसे गंभीर समस्या मानते हैं, इसलिए यूरोपीय कंपनियों की इस मुहीम में व्यापक भागीदारी होनी चाहिए।
यूनाइटेड किंगडम के 37 मानवाधिकार संगठनों ने ब्रिटिश कंपनियों से भी इस मुहीम में शामिल होने का आग्रह किया है। एक आकलन के अनुसार दुनिया भर के बड़े विज्ञापनदाताओं में से एक-तिहाई से अधिक स्टॉप हेट फॉर प्रॉफिट में शामिल हो सकते हैं। यूरोप में अनेक जनमत संग्रह में जनता ने फेसबुक को सभी गलत सूचनाएं, भ्रामक प्रचार, हिंसा भड़काने और फेक न्यूज के लिए जिम्मेदार करार देने का समर्थन किया है।
न्यूजीलैंड के सबसे बड़े मीडिया हाउस- स्टफ ने भी घोषणा की है कि उन्होंने अस्थाई तौर पर फेसबुक से नाता तोड़ लिया है। हालांकि इसके फेसबुक पर दस लाख से अधिक फॉलोवर्स हैं, फिर भी स्टफ ने फैसला लिया है कि इस प्लेटफॉर्म पर अगली सूचना तक कोई भी समाचार नहीं डाला जाएगा। कंपनी के अनुसार, “हम ऐसे किसी भी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को आर्थिक लाभ नहीं पहुंचाना चाहते, जो आर्थिक लाभ का उपयोग हेट स्पीच और हिंसा भड़काने में करता हो।”
न्यूजीलैंड की मेसी यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता की प्रोफेसर कैथरीन स्ट्रोंग ने इस कदम की सराहना की है। उनके अनुसार “फेसबुक और इन्स्टाग्राम अपने आर्थिक लाभ के चलते फेक न्यूज, समाज में पनपने वाली घृणा और हिंसा पर आखें बंद कर बैठे हैं। यह सब खतरनाक है। इस वैश्विक महामारी के दौर में भी ये सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म कोविड 19 से संबंधित भ्रामक और खतरनाक समाचार फैलाने में व्यस्त हैं।”
न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जेसिंडा अर्देर्न ने भी स्टफ द्वारा उठाए गए कदम का स्वागत किया है, पर साथ ही यह भी कहा कि वे फिलहाल फेसबुक को नहीं छोड़ सकतीं, क्योंकि इसी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से वो जनता से जुड़ी हैं। जेसिंडा अर्देर्न ने कहा कि वे फेसबुक से फेक न्यूज पर नियंत्रण रखने का अनुरोध करेंगी। पिछले वर्ष क्राइस्टचर्च में मस्जिदों पर एक ऑस्ट्रेलियन कट्टरपंथी ने स्वचालित हथियारों से गोलीबारी कर जब 50 से अधिक नमाज अदा कर रहे लोगों को मार डाला था, तब फेसबुक पर लाखों की तादात में भड़काऊ और हिंसक प्रवृत्ति के पोस्ट और वीडियो डाले गए थे, जिसकी न्यूजीलैंड ने सख्त शब्दों में भर्त्सना की थी।
फेसबुक अनेक वर्षों से अपने यूजर्स की व्यक्तिगत जानकारी भी लीक करता रहा है। साल 2018 के दौरान तो कैम्ब्रिज ऐनालीटिका मामले की खूब चर्चा की गई थी, जब करोड़ों लोगों की जानकारियां बाजार में पहुंच गई थीं। इसके बाद भी, फेसबुक के कार्य प्रणाली में कोई अंतर नहीं आया। साल 2019 में एक बार इन्स्टाग्राम ने 5 करोड़, और फेसबुक ने 42 करोड़ यूजर्स के डेटा लीक किए थे, यह मामला जब तक उजागर हुआ तब तक फेसबुक ने लगभग 27 करोड़ अन्य यूजर्स का डेटा बाजार में बेच दिया।
कैरोल कैडवलाद्र ने 5 जुलाई को द गार्डियन में फेसबुक के बारे में लिखा है, “दुनिया की कोई ताकत फेसबुक को किसी भी चीज के लिए जिम्मेदार बनाने में असमर्थ है। अमेरिकी कांग्रेस कुछ नहीं कर सकी और न ही यूरोपियन यूनियन इस पर लगाम लगा पाई। हालत यहां तक पहुंच गई है कि कैंब्रिज ऐनालीटिका मामले में जब अमेरिका के फेडरल ट्रेड कमीशन ने फेसबुक पर 5 अरब डॉलर का जुर्माना लगाया तब फेसबुक के शेयरों के दाम आसमान छूने लगे।
फेसबुक के माध्यम से अमेरिका के 2016 के चुनावों में सारी विदेशी शक्तियां संलिप्त हो गयीं और इस कारण चुनाव के परिणाम प्रभावित हुए। फेसबुक ने तो अनेक बार नरसंहार के मामलों का भी सीधा प्रसारण किया है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार फेसबुक के माध्यम से म्यांमार में रोहिंग्या के लिए घृणा इस पैमाने पर फैलाई गई कि इसने हिंसा का स्वरुप ले लिया, सामूहिक नरसंहार किये गए और आज भी किये जा रहे हैं। इसके चलते हजारों रोहिंग्या मारे गए और लाखों को अपना घर-बार छोड़ना पड़ा।
हाल में फिलीपींस में जिस पत्रकार, मारिया रेसा को 7 वर्ष के कैद की सजा सुनाई गई है, उन्होंने भी समय-समय पर फेसबुक के संदिग्ध भूमिका के बारे में आगाह किया था। मानवाधिकार कार्यकर्ता मारिया रेस की सजा को फेसबुक के प्रतिकार के तौर पर ही देखते हैं। ब्रिटेन के पूर्व उप-प्रधानमंत्री फेसबुक को समाज का आइना बताते हैं, पर अनेक बुद्धिजीवी फेसबुक को आइना नहीं बल्कि हथियार बताते हैं, वह भी बिना लाइसेंस वाला हथियार, जिससे आप किसी की हत्या कर दें तब भी पकडे नहीं जाएंगे।
इस समय कुल 2.6 अरब लोग फेसबुक से जुड़े हैं, इस मामले में यह संख्या चीन की आबादी से भी अधिक है। मानवाधिकार कार्यकर्ता कहते हैं कि इसकी तुलना चीन से नहीं की जा सकती, बल्कि इसे उत्तर कोरिया कहना ज्यादा उपयुक्त है, पर मार्क जुकरबर्ग तानाशाह किम जोंग से भी अधिक शक्तिशाली हैं। कुछ लोगों के अनुसार फेसबुक की यदि किसी हथियार से तुलना करनी हो तो वह हथियार बंदूक, राइफल, तोप या टैंक नहीं होगा, बल्कि सीधा परमाणु बम ही होगा। यह केवल एक तानाशाह, मार्क जुकरबर्ग के अधिकार वाला वैश्विक साम्राज्य है।
जुकरबर्ग का एक ही सिद्धांत है, भले ही पूरी दुनिया में हिंसा फैल जाए, नफरत फैल जाए, कितने भी आरोप लगें, पर किसी आरोप का खंडन नहीं करना, किसी पर ध्यान नहीं देना- बस अपने साम्राज्य का विस्तार करते जाना, और अधिक से अधिक धन कमाना। यही कारण है कि फेसबुक का रवैया कभी नहीं बदलता। हाल में ही जुकरबर्ग ने एक साक्षात्कार में कहा है कि चिंता की कोई बात नहीं है, जितने लोगों ने विज्ञापन बंद किया है, वे जल्दी ही फिर वापस आ जाएंगे। फेसबुक तो प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर मुख्य मीडिया को भी संचालित करता है।
फेसबुक के फेक न्यूज या हिंसा को भड़काने वाले पोस्ट केवल एक रंग, नस्ल या देश को ही प्रभावित नहीं करते, बल्कि इसका असर सार्वभौमिक है और दुनिया भर के लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा है। इसे केवल एक संयोग कहकर नहीं टाला जा सकता कि कोविड 19 से सबसे अधिक प्रभावित देशों में अमेरिका, ब्राजील, भारत और इंग्लैंड सम्मिलित हैं। जनवरी से अगर गौर करें तो फेसबुक और इंस्टाग्राम के पोस्ट इन देशों में इस महामारी के खिलाफ झूठे और भ्रामक प्रचार में संलग्न थे। इन चारों ही देशों की सरकारें ऐसी हैं, जो ऐसे सोशल मीडिया प्लेटफोर्म पर प्रचार के बलबूते ही सत्ता पर काबिज हैं। फेसबुक का हाल तो ऐसा है, जो केवल चीन से ही बड़ा नहीं है बल्कि पूरे पूंजीवाद से बड़ा है। आज के पूंजीवाद को टिके रहने के लिए फेसबुक सबसे बड़ा सहारा है।(navjiwan)
-एम सोमशेखर
भारत और दुनिया भर के लिए कोविड-19 पर नियंत्रण करने वाला वैक्सीन बनाने की बड़ी चुनौती है। इस दिशा में काफी काम हो रहा है। हजारों लोग कोविड-19 के शिकार हो रहे हैं और इस वायरस से सुरक्षा वाले वैक्सीन को लेकर सकारात्मक सूचना सुनने की प्रतीक्षा लाखों लोग कर रहे हैं। लेकिेन इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) ने जिस तरह घरेलू भागीदारी से ‘मेड इन इंडिया’ वैक्सीन बनाने के लिए 15 अगस्त की डेडलाइन तय की है, उससे हंगामा खड़ा हो गया है।
इसे बनाने और इस पर मानव ट्रायल करने में लगे संबद्ध भागीदार और 12 अस्पतालों को सरकारी, आंतरिक पत्र के जरिये आईसीएमआर प्रमुख डॉ. बलराम भार्गव के ‘निर्देश’ का संदेश वैज्ञानिक समुदाय के बीच अच्छा नहीं गया है। विपक्षी दलों का आरोप है कि यह सत्ता की उच्चस्थ शक्तियों के इशारे पर किया गया है।
विपक्ष के आरोपों को इस बात से भी बल मिला है कि मई के पहले सप्ताह में तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने कहा था कि कोविड19 के खिलाफ वैक्सीन जुलाई-अगस्त में हैदराबाद से आएगा। लॉकडाउन से संबंधित मामलों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बातचीत के दौरान राव ने कथित तौर पर यह बात कही थी और यह बात चर्चा में भी रही थी। इस घरेलू वैक्सीन को हैदराबाद के भारत बायोटेक ने पुणे स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी (एनआईवी) और आईसीएमआर के साथ मिलकर तैयार किया है।
लेकिेन आईसीएमआर की चिट्ठी की स्याही सूखती, इससे पहले ही कई वैज्ञानिकों और इंडियन नेशनल साइंस अकादमी (आईएनएसए), इंडियन एकेडमी ऑफ साइसेंज (आईएएससी)- जैसे वैज्ञानिक संगठन इसके खिलाफ खुलकर आगे आए और यह बात रेखांकित किया कि डेडलाइन किस तरह अव्यावहारिक है और अगर इस पर जोर दिया गया, तो यह कैसे भारतीय विज्ञान की छवि को नुकसान पहुंचाएगा।
अकादमी ने एक बयान जारी किया और कहा कि ऐसा वह सार्वजनिक हित में कर रही है। इसमें वैक्सीन तैयार करने के लिए 42 दिनों का लक्ष्य तय करने पर उसने आईसीएमआर की आलोचना की और कहा कि कठोर वैज्ञानिक प्रक्रियाओं और स्तरों के साथ समझौता कर जल्दबाजी में किए गए समाधान का भारत के नागरिकों पर अनदेखे स्तर के दीर्घजीवी विपरीत प्रभाव पड़ने की आशंका है।
इस तरह की प्रतिक्रियाओं के बाद केंद्र सरकार ने अपने रुख में थोड़ा बदलाव किया। पहले तो आईसीएमआर ने खुद ही कहा कि 15 अगस्त की डेडलाइन कोविड-19 की अप्रत्याशित प्रकृति के मद्देनजर और वैश्विक रुख के तहत ट्रायल की गति बढ़ाने के लिए तय की गई थी। इसका उद्देश्य वैधानिक अनिवार्यताओं की अनदेखी किए बिना अनावश्यक लालफीताशाही को खत्म करना था। इसका लक्ष्य ह्यूमन ट्रायल के दो चरणों को यथाशीघ्र पूरा करना और आबादी को लेकर अध्ययनों को बिना देर किए करना था।
लेकिेन प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. गगनदीप कांग ने गत 6 जुलाई को जिस तरह फरीदाबाद स्थित ट्रांसलेशनल हेल्थ साइंसेस एंड टेक्नोलॉजी इंस्टीट्यूट के कार्यकारी निदेशक-पद से इस्तीफा दिया, उससे यह विवाद गहरा ही गया लगता है। डॉ. कांग ने हालांकि इसका कारण व्यक्तिगत बताया है, पर यह बात ध्यान में रखनी है कि अभी उनका एक साल का कार्यकाल बचा हुआ था। वह न सिर्फ कोविड-19 की टेस्टिंग से संबद्ध काम में लगी हुई थीं, बल्कि वह ऐसी राष्ट्रीय समिति की प्रमुख भी थीं जो देसी दवाओं और वैक्सीन के विकास को दिशा दे रही थी। इस समिति का काम दो माह पहले बंद कर दिया गया।
इस बीच 7 जुलाई से जिन एक दर्जन अस्पतालों को ह्यूमन ट्रायल करना है, उनमें हैदराबाद स्थित निजाम्स इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेस (निम्स) भी है। यह रिपोर्ट फाइल किए जाते समय इसने इस ट्रायल के फेज 1 के लिए लोगों के नाम शामिल करना शुरू कर दिया है। निदेशक डॉ. के. मनोहर ने पत्रकारों को बताया है कि 375 विषयों से संबंधित ट्रायल 28 दिनों में पूरे कर लिए जाएंगे।
लगेंगे कम-से-कम एक साल
कई प्रमुख वैज्ञानिकों ने खुलकर यह बात कही है कि ‘विश्वसनीय और पूरी तरह परीक्षित’ वैक्सीन बनाने में छह माह से लेकर एक साल तक लगेंगे। ऐसा मानने वालों में डब्ल्यूएचओ की मुख्य वैज्ञानिक डॉ. सौम्या स्वामिनाथन, सीएसआईआर-सेंटर फॉर सेललुर एंड मोलेक्यूलर बायोलॉजी (सीसीएमबी) के निदेशक डॉ. राकेश मिश्र, आईसीएमआर के पूर्व महानिदेशक डॉ. एन.के. गांगुली आदि हैं।
एक प्रमुख समाचार एजेंसी ने डॉ. मिश्र को यह कहते हुए उद्धृत किया कि अगर सबकुछ पूरी तरह किताबी योजना के तहत हुआ, तो हमें 6-8 महीने इस तरह की सोच को कहने की हालत में लगेंगे कि अब अपने पास कोई वैक्सीन है। उन्होंने कहा कि आईसीएमआर का पत्र आंतरिक स्तर का हो सकता है और इसका उद्देश्य मानव ट्रायल के लिए तैयार करने के खयाल से अस्पतालों पर दबाव बनाने का हो सकता है।
यह पूरा विवाद तब शुरू हुआ जब वैक्सीन बनाने की कोशिश कर रही भारत बायोटेक ने 29 जून को घोषणा की कि उसके, एनआईवी और आईसीएमआर द्वारा विकसित किए जा रहे संभावित वैक्सीन- कोवैक्सीन, को ड्रग कंट्रोलर ऑफ इंडिया से ह्यूनम ट्रायल के लिए आगे बढ़ने की अनुमति मिल गई है और वह इसकी शुरुआत जुलाई में करेगी। भारत बायोटेक ने पिछले पाचं वर्षों में बाजार में किफायती रोटावायरस और एक संयुक्त टायफायड वैक्सीन को स्वदेशी तरीके से विकसित किया है और इसके पास वैश्वि स्तर की उत्पादन सुविधाएं हैं। इसी वजह से इस पर सबकी उम्मीदें टिक गईं।
वैसे, विवाद शुरू होने के बाद से इसने अपने को लो प्रोफाइल रखा हुआ है। वैसे, ध्यान रहे कि इसके चेयरमन डॉ. कृष्णा एल्ला ने उस वक्त यही कहा था कि वे लोग काम की गति बढ़ा रहे हैं और इसे 12-18 महीने में पूरा करने की उम्मीद करते हैं।
बता दें कि इस समय वैक्सीन बनाने की कोशिशें दुनिया भर में हो रही हैं। कम-से-कम छह भारतीय कंपनियां इसमें लगी हुई हैं। इनमें से दो- कोवैक्सीन और जिकोव-डी, में काम की स्थिति काफी आगे बढ़ चुकी है। लेकिेन जैसा कि विशषेज्ञ कह रहे हैं, इनके 2021 में ही बाजार में उपलब्ध होने की संभावना है। हालांकि कुछ कॉरपोरेट जरूर आशा जता रहे हैं कि यह 2020 के अंत तक आ जाएगा।(navjiwan)
कृष्ण कांत
जब भी किसी गैर-न्यायिक हत्या पर सवाल उठते हैं तो लोग पूछते हैं कि भारत में न्यायपालिका है ही कहां?
एक थे जस्टिस वीआर कृष्ण अय्यर। इंदिरा गांधी जब इलाहाबाद हाईकोर्ट से अपनी संसद सदस्यता गवां बैठीं तो उनके कानून मंत्री एचआर गोखले पहुंचे जस्टिस अय्यर के पास। जस्टिस अय्यर उस समय सुप्रीम कोर्ट में थे और गोखले से उनकी दोस्ती थी। गोखले सोच रहे थे कि जस्टिस अय्यर, इंदिरा गांधी को राहत दे देंगे। लेकिन जस्टिस अय्यर ने उनसे मिलने से इनकार कर दिया और संदेश भिजवाया कि हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दें।
सुप्रीम कोर्ट में उस वक्त छुट्टी चल रही थी। जस्टिस अय्यर अकेले जज थे। उनके सामने मामला पेश हुआ। इंदिरा की पैरवी के लिए नानी पालकीवाला और राज नारायण की तरफ़ से प्रशांत भूषण के पिता शांति भूषण पेश हुए। वकीलों ने बहस के लिए दो घंटे का समय मांगा। दोनों दिग्गज वकीलों ने 10.30 बहस शुरू की और शाम पांच बजे तक बहस चली। जस्टिस अय्यर ने अगले दिन फैसला देने का वक्त मुकर्रर किया। रात में उनका आवास किले में तब्दील हो गया। रात भर फैसला लिखा गया।
अगले दिन इंदिरा गांधी की संसद सदस्यता चली गई थी। उन्होंने इंदिरा गांधी की लोकसभा की सदस्यता ख़त्म कर दी पर उन्हें प्रधानमंत्री बने रहने दिया। इस फैसले से इंदिरा गांधी, कांग्रेस और पूरा देश स्तब्ध था। अगले दिन इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल थोप दिया।
ये वही जस्टिस अय्यर हैं जिन्होंने जस्टिस पीएन भगवती के साथ मिलकर जनहित याचिकाओं की शुरुआत की कि पीडि़त व्यक्ति या समाज के लिए अखबार की कतरन, किसी की चि_ी पर भी अदालत स्वत:संज्ञान ले सकती है।
एक बार अधिवक्ता शांति भूषण ने कहा था, ‘जस्टिस अय्यर आज तक सुप्रीम कोर्ट में जितने भी न्यायाधीश हुए, उनमें सबसे महान जज थे।’
इंदिरा गांधी के केस की तरह भारतीय न्यायपालिका की दिलेरी की असंख्य कहानियां हैं। चाहे केंद्र की शक्ति सीमित करने का मामला हो, चाहे न्यायिक सक्रियता का मामला हो, चाहे व्यक्ति के मानव अधिकार बहाल करना हो। सब लिखने की जगह यहां नहीं है।
1951 में ही संविधान संशोधन की वैधता जांचना, गोलकनाथ केस, मिनरवा मिल्स मामला, केशवानंद भारती केस, रोमेश थापर केस जैसे तमाम माइलस्टोन हैं, जिनके बारे में जाना जा सकता है। जस्टिस अय्यर के अलावा जस्टिस पीएन भगवती, जस्टिस चंद्रचूड़ और जेएस वर्मा के फैसलों का अध्ययन किया जा सकता है, जिन्होंने न्यायिक सक्रियता को मजबूत किया। निजी अधिकार, समलैंगिकता जैसे मामले हाल के हैं।
भारतीय न्यायपालिका विश्व की कुछ चुनिंदा मजबूत न्यायपालिका में से एक है। जस्टिस लोया जैसे कांड ने इसे बड़ी क्षति पहुंचाई है। आज कोई नेता न्यायपालिका को अपनी जेब में रखना चाहता है, बुरे उदाहरण देकर मॉब लिंचिंग को स्थापित करना चाहता है, तो इसलिए क्योंकि आप उसके हर कृत्य पर ताली बजाते हैं। चार जजों ने आकर कहा था कि सरकार न्यायपालिका पर अनधिकृत दबाव डाल रही है, तब यही जनता उसे वामपंथियों की साजिश बता रही थी।
इसके पहले भ्रष्टाचार के आरोप में आकंठ डूबी यूपीए सरकार की दुर्गति अदालत में ही हुई थी।
समस्या ये है कि पूरा देश वॉट्सएप विषविद्यालय में पढ़ाई कर रहा है, जहां सिर्फ बुराइयां बताकर हमसे कहा जाता है कि इस सिस्टम से घृणा करो ताकि इसे खत्म किया जा सके। दुखद ये है कि अपने देश और अपने तंत्र से अनजान आप ऐसा करते भी हैं।
आप यह मत पूछिए कि अदालत कहां है? आप यह पूछिए जिस लोकतंत्र में अदालत होती है, वह लोकतंत्र कहां है? ‘ठोंक देने’ वाला लोकतंत्र दुनिया में कहां मौजूद है?
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नेपाल ने भारत के टीवी चैनलों पर प्रतिबंध लगा दिया है। सिर्फ दूरदर्शन चलता रहेगा। यह प्रतिबंध इसलिए लगाया है कि नेपाल के प्रधानमंत्री खड्गप्रसाद ओली और चीन की महिला राजदूत हाउ यांकी के बारे में हमारे किसी टीवी चैनल ने कुछ आपत्तिजनक टिप्पणी कर दी थी और किसी अखबार ने ओली पर एक मजाकिया कार्टून भी छाप दिया था।
ओली सरकार की यह आक्रामक प्रतिक्रिया स्वाभाविक है, क्योंकि उसके प्राण इस समय संकट में फंसे हुए हैं लेकिन नेपाल की इस कार्रवाई का संदेश हमारे चैनलों के लिए स्पष्ट है। पहली बात तो यह कि नेपाल ने दूरदर्शन पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया ? उसे चालू क्यों रखा ? क्योंकि उस पर गैर-जिम्मेदाराना खबरें और बहसें प्राय: नहीं होतीं। अगर वैसा कभी हो जाए, जैसा कि चीनी राष्ट्रपति के नाम के गलत उच्चारण में हो गया था तो उस पर तुरंत कार्रवाई की जाती है लेकिन यह भी तथ्य है कि दूरदर्शन के मुकाबले गैर-सरकारी चैनलों की दर्शक-संख्या ज्यादा होती है। क्यों होती है ? क्योंकि वे अपने करोड़ों दर्शकों को लुभाने के लिए चटपटे, उत्तेजक और फूहड़ दृश्य और कथन भी जमकर दिखाते हैं। उन पर चलनेवाली बहसों में राजनीतिक दलों के प्रवक्ता एक-दूसरे पर हमले करते हैं।
वे अक्सर शिष्टता और शालीनता की मर्यादा भंग करते हैं। चैनलों के एंकर उन वार्ताकारों से भी ज्यादा चीखते-चिल्लाते हैं। जिस विषय पर बहस होती है, उसके विशेषज्ञ और विद्वान तो कभी-कभी ही दिखाई पड़ते हैं। टीवी के बक्से को अमेरिका में पचास साल पहले ‘इडियट बाक्स’ याने ‘मूरख-बक्सा’ कहा जाता था, वह आजकल प्रत्यक्ष देखने को मिलता है। उन दिनों कोलंबिया युनिवर्सिटी के मेरे प्रोफेसर इसे ‘मूरख-बक्सा’ क्यों कहते थे, यह बात आजकल मुझे अच्छी तरह समझ में आती है। इसमें शक नहीं कि हमारे कुछ चैनलों और कुछ एंकरों का आचरण सभी पत्रकारों के लिए अनुकरणीय है लेकिन ज्यादातर चैनलों का आचरण, हमारे पड़ौसी देशों के चैनलों का भी, मर्यादित होना चाहिए। यह काम सरकारें करें उससे बेहतर होगा कि मालिक लोग करें। नेपाल सरकार इस वक्त अधर में लटकी हुई है। वह कुछ नेपाली चैनलों पर भी रोक लगानेवाली है।
इसीलिए उसने भारतीय चैनलों के विरुद्ध इतना सख्त कदम उठा लिया है लेकिन ओली-विरोधी नेपाली नेता भी भारतीय चैनलों पर रोक का समर्थन कर रहे हैं। यह असंभव नहीं कि कुछ चैनलों पर नेपाल मान-हानि का मुकदमा भी चला दे। बेहतर तो यही है कि इस वक्त ओली अपनी सरकार बचाने पर ध्यान दें। चैनलों पर बोले जानेवाले वाक्यों और चलनेवाली नौटंकियों पर दर्शक भी कितना ध्यान देते हैं। इधर बोला और उधर हवा में उड़ा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ मुजफ्फर हुसैन गजाली
पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था का सपना देखने वाला देश अब पांच किलो अनाज पर आ कर टिक गया है। भारत के दिमाग, उसके बाजार, तेज दौड़ती अर्थव्यवस्था और कॉर्पोरेट की दुनिया में चर्चा होती रही है। ऐसा क्या हुआ है कि देश दो जून की रोटी की ओर बढ़ता हुआ दिखाई दे रहा है।
प्रधानमंत्री को स्वयं देश को संबोधित कर ‘गरीब कल्याण योजना’ जो 30 जून को समाप्त हो रही थी इसकी अवधि बढ़ाकर नवंबर 2020 तक पांच किलो गेहूं या चावल प्रति व्यक्ति और एक किलो चना हर परिवार को मुफ्त देने की घोषणा करनी पड़ी। दो करोड़ रोजगार मुहैया कराने, किसानों की आय को दोगुना करने, विदेशों में जमा काले धन को वापस लाने, एक शहर से दूसरे शहर जाने के लिए बुलेट ट्रेन चलाने, 100 स्मार्ट सिटी बनाने, हवाई चप्पल वाले को हवाई जहाज़ में बैठाने, मेक इन इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, डिजिटल इंडिया, 30-35 रुपये में पेट्रोल, डीजल उपलब्ध कराने, डॉलर के मुकाबले रुपये को मजबूत बनाने और पांच ट्रिलियन अर्थव्यवस्था का लक्ष्य प्राप्त करने की जोर-शोर से बात करने वाली सरकार और सत्ताधारी पार्टी अब पांच किलो अनाज पर आ गयी है।
आज स्थिति यह है कि देश की 60 प्रतिशत से अधिक आबादी भुखमरी के कगार पर है। खुद प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में गरीबों की संख्या 80 करोड़ बताई है। जबकि 29 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन व्यतीत कर रहे हैं। देश में 51 प्रतिशत महिलाएँ और 40 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं। एक तिहाई आबादी को दो वक़्त का भोजन उपलब्ध नहीं हैं। 80 करोड़ गरीबों में से, 44 करोड़ यूपी, बिहार, झारखंड और मध्य प्रदेश में रहते हैं। इन्हें श्रमिक पैदा करने वाला प्रांत भी कहा जाता है। ऐसा तब है जब संसद का हर चौथा सदस्य यूपी, बिहार और मध्य प्रदेश से आता है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत का स्थान 117 देशों में 102 है। जबकि मई 2014 में देश 55 वें स्थान पर था। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत की रैंक लगातार गिर रही है। क्योंकि अर्थव्यवस्था के लिए देश के पास कोई विजन नहीं है। ऊपर से रोजग़ार की कमी और राजनीतिक वर्चस्व बनाए रखने की इच्छा ने स्तिथि को बद से बदतर कर दिया है।
पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था की चर्चा से, देश में सुधार की आशा बढ़ी थी। इसकी घोषणा वित्त मंत्री ने बजट सत्र को संबोधित करते हुए की थी। अगले दिन, 6 जुलाई, 2019 को प्रधानमंत्री ने वाराणसी में भाजपा कार्यकर्ताओं से अपने सम्बोधन में, इसे देश के लिए बड़ा लक्ष्य बताया था। इस पहल से रोजगार, व्यापार, उत्पादन, निवेश, निर्यात और आयात के नए अवसर की सम्भावना पैदा हुयी थी। विशेषज्ञों के अनुसार, 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था के लिए, 8 प्रतिशत की विकास दर प्राप्त करना तथा बरकऱार रखना आवश्यक है। इस लक्ष्य के लिए हर क्षेत्र में निवेश की दरकार है। निवेश बढऩे से नए रोजग़ार पैदा होते हैं, मांग बढ़ती है और क्रय शक्ति में इज़ाफ़ा होता है। बोल चाल के शब्दों में खपत + निजी निवेश+सरकारी खर्च+निर्यात में से आयात को घटा दें तो यह देश की विकास दर या अर्थव्यवस्था कहलती है। आर्थिक सर्वेक्षण के पहले अध्याय के पेज चार पर पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था हासिल करने के लिए ‘यदि’ के साथ कुछ शर्तों का उल्लेख किया गया है। ‘यदि’ निर्यात बढ़े, ‘यदि’ उत्पादकता बढे, ‘यदि’ रुपये में गिरावट आये, ‘यदि’ वास्तविक जीडीपी ग्रोथ 8 प्रतिशत हो और मुद्रास्फीति 4 प्रतिशत के आसपास रहे, तो अर्थव्यवस्था 5 ट्रिलियन तक पहुंचेगी। बेरोजगारी के कारण खपत और निवेश की मांग में कमी आई है। दूसरी ओर जलवायु परिवर्तन ने मानसून की गति को धीमा कर दिया है, जिस का प्रभाव कृषि पर पड़ रहा है। इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था लगातार प्रभावित हो रही है। सेवा क्षेत्र, जिसका अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ा योगदान है,उसकी स्तिथि भी अच्छी नहीं है।
2019 के चुनावों से पहले, मोदी सरकार ने बुनियादी ढांचे में 100 करोड़ रुपये के निवेश की घोषणा की थी। अब सरकार ने रेलवे और बुनियादी ढाँचे में निजी कंपनियों से पीपीपी मोड में निवेश की बात कही है। लेकिन इस श्रेणी की कंपनियां परेशान चल रही हैं। इसलिए माना जा रहा है कि इसका क़ुरा भी अडानी या अंबानी के नाम ही निकलेगा। निर्यात में भारत लगातार पिछड़ रहा है। जी डी पी के औसत के हिसाब से यह 14 साल के निचले स्तर पर है। भारत-चीन संघर्ष और टैरिफ वॉर का भी उस पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। 3 मई को बेरोजगारी की दर 27.1 प्रतिशत तक पहुँच गयी थी। सीएमआई की रिपोर्ट के अनुसार, जून के तीन सप्ताह में यह घटकर 17.5 और 11.6 पर आ गयी। परन्तु इन आंकड़ों पर भरोसा नहीं किया जा सकता क्योंकि सरकार ने आंकड़ों को दुरुस्त करने के लिए मनरेगा का सहारा लिया है। निजी निवेश में गिरावट आई है, घरेलू कंपनियां अपना कारोबार देश के बाहर स्थानांतरित कर रही हैं। देश की परिस्थितियाँ विदेशी निवेश के लिए अनुकूल नहीं हैं। बैंक, एनबीएफसी, एनपीए के बोझ से डूब रहे हैं। वैसे, सरकारी निवेश जीडीपी वृद्धि को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। लेकिन सरकार की दिलचस्पी निवेश के बजाय देश की संम्पदा अपने प्रियजनों के हवाले करने में है।
भाजपा के राज्यसभा सदस्य सुब्रमण्यम स्वामी ने 31 अगस्त, 2019 को अपने ट्वीट में सरकार की आर्थिक नीति पर सवाल उठाते हुए कहा था, ‘यदि कोई नई आर्थिक नीति नहीं लाई जाती है, तो पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था को गुडबाय कहने को तैयार हो जाइये।’ एक दिन पहले ही 2019-20 की पहली तिमाही में जीडीपी वृद्धि दर 5 प्रतिशत बताई गयी थी। यह उस समय छ: साल के सबसे निचले स्तर पर थी।
हालांकि, वित्त मंत्री निर्मला सीता रमन ने अर्थव्यवस्था को रफ़्तार देने के लिए ऑटोमोबाइल, मैन्युफैक्चरिंग और रियल एस्टेट को बढ़ावा देने के लिए महत्वपूर्ण घोषणाएं की थीं। इसी उद्देश्य के लिए, उन्होंने दस राज्य के स्वामित्व वाले बैंकों को चार में विलय कर दिया था। फिर भी, मार्च 2020 में जीडीपी वृद्धि दर 3.1 प्रतिशत दर्ज की गई। इससे पता चलता है कि भाजपा के अन्य वादों की तरह, पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था की घोषणा एक सूंदर स्वप्न के अलावा और कुछ भी नहीं।
सवाल यह है कि अर्थव्यवस्था, रोजगार, व्यवसाय, शिक्षा, स्वास्थ्य, इंफ्रास्ट्रक्चर और बुनियादी जरूरतों को यदि सरकार पूरा नहीं कर पा रही है तो भाजपा को वोट कौन देगा, वह चुनाव कैसे जीतेगी। 80 करोड़ लोगों को पांच किलो अनाज देने की घोषणा शायद इसी सवाल का जवाब तलाश करने की कोशिश है। वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपाई के अनुसार, पाँच महीने तक गरीबों को पाँच किलोग्राम मुफ्त खाद्यान्न देने पर सरकार को 90,000 करोड़ रुपये खर्च करने पड़ेंगे, अगर 80 करोड़ लोगों को एक साल तक हर महीने पांच किलो अनाज दिया जाये, तो इस पर कुल 2.25 लाख करोड़ रुपये खर्च होंगे। यदि 2.25 लाख करोड़ रुपये खर्च करके 80 करोड़ लोगों को अपने साथ खड़ा किया जा सकता है तो यह राजनीती में बहुत सस्ता सौदा है। ज्ञात रहे कि 2014 के संसदीय चुनावों में भाजपा को 17.16 करोड़ और 2019 में 22,90,78,261 वोट मिले थे। वैसे मुफ्त अनाज की थ्योरी गज़़ब की है, यदि 2.25 लाख करोड़ रुपये का अनाज देश के 80 करोड़ नागरिकों का पेट भर सकता है, तो जरा सोचिए देश में कितनी असमानता है। अगर इसे वोट से जोड़ कर देखा जाए तो यह लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है।
वर्तमान योजनाओं के अवलोकन से पता चल सकता है कि मुफ्त अनाज की योजना सफल होगी या पिछले वादों की तरह यह भी एक जुमला बन कर रह जाएगी। सरकार ने उन 8 करोड़ प्रवासी मजदूरों को जिन के पास राशन कार्ड नहीं है, मई जून में राशन देने का वादा किया था। लेकिन वह मई में एक करोड़ और 26 जून तक केवल 79,20,000 श्रमिकों को ही राशन दे पाई। खाद्य मंत्री रामविलास पासवान के अनुसार, उन्हें मई में एफसीआई से 13.5 प्रतिशत और जून में 10 प्रतिशत से भी कम खाद्यान्न मिल पाया। कोरोना संकट के समय भी 42 प्रतिशत राशन कार्ड धारक सरकारी राशन से वंचित रहे। आंकड़े बताते हैं कि आंध्र प्रदेश, केरल, बिहार और उत्तर प्रदेश ऐसे राज्य हैं जिन्होंने राशन की दुकानों से 90 खाद्यान्न वितरित किया। जबकि दिल्ली, मध्य प्रदेश, उड़ीसा और झारखंड राज्य केवल 30 प्रतिशत राशन ही बांट पाए। राष्ट्रीय स्तर पर, केवल 58 प्रतिशत को ही सरकारी राशन मिल पाता है। सस्ते राशन की 60 प्रतिशत दुकानें तो बंद ही रहती हैं। मनरेगा की स्थिति भी कुछ अलग नहीं है। बजट में मनरेगा के लिए 61,000 करोड़ रुपये की मंजूरी दी गई थी। कोरोना राहत के नाम पर 40,000 करोड़ रुपये अतिरिक्त देने का निर्णय किया गया, लेकिन अभी तक इस में से केवल 38,999 करोड़ रुपये ही जारी किए गए हैं। जिस में से नब्बे प्रतिशत खर्च हो चुका है। सरकार मनरेगा में पंजीकृत लोगों को सौ दिन का रोजगार नहीं दे पा रही है और न ही सभी स्कूलों में बच्चों को मिड-डे मेल। देश में न्यूनतम अनिवार्य आय जैसी कोई योजना भी नहीं है। जिस से गरीबों को राहत मिल सके। ऐसी स्थिति में सरकार पांच किलोग्राम मुफ्त खाद्यान्न का वादा पूरा कर पाएगी या नहीं यह आने वाला समय बताएगा। भारत पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था वाला देश भले ही न बन पाया हो, लेकिन कोड -19 के मामलों के कारण वह दुनिया का तीसरा देश जरूर बन गया है।
-रूचिर गर्ग
स्वाभाविक है कि विकास दुबे जैसे दुर्दांत आतंकी के साथ किसी की सहानुभूति नहीं हो सकती। विकास दुबे और उसके गैंग ने 8 पुलिस वालों को जिस बेरहमी से मारा उसके बाद जनमानस में जो गुस्सा था वो सबने देखा ही है।महाकाल परिसर में जो हुआ वो लोगों के गले उतर नहीं रहा था। अब एनकाउंटर पर सवाल उठ रहे हैं।
स्वाभाविक है कि विकास दुबे भारतीय कानून व्यवस्था के तहत सख्त से सख्त सजा का हकदार था। लेकिन जिन परिस्थितियों में यह सब कुछ घटा वो स्वाभाविक प्रतीत नहीं हो रहीं हैं, इसलिए सवाल भी स्वाभाविक हैं।
कोई सवाल अगर पुलिस नाम की संस्था के हौसले कम करते हों तो व्यापक जनहित में ऐसे सवालों को कुछ देर के लिए रोक लीजिए। गहरी सांस लीजिए, थोड़ा सोचिए, फिर तय कीजिये कि कोई सवाल यदि पुलिस के लोकतांत्रिक स्वरूप को बनाए रखने के लिए ज़रूरी हों तो भी क्या उनके लिए जगह न रखी जाए? सोचिए कि लोकतंत्र कानून के राज से मजबूत होगा या अराजकता से?
जिस समय आप किसी ऐसे हत्यारे को सरेआम गोलियों से भून डालने की कामना कर रहे होते हैं तब सोचिए कि क्या आपने कभी उस समय एक सवाल भी किया था, जब आपकी आँखों के सामने कोई एक व्यक्ति अपराध करते करते विकास दुबे बन जाता है?
सोचिए कि सडक़ पर त्वरित न्याय से खुश होने वाले हम या आप क्या कभी उस व्यवस्था पर सवाल उठा भी पाते हैं जो विकास दुबे बनाती है? सोचिए कि जब आप किसी चुनाव में वोट देने के लिए घर से निकलते हैं तो क्या आपने कभी यह सोचा था कि आपको एक अपराध मुक्त, सभ्य और लोकतांत्रिक समाज के निर्माण के लिए वोट देना है? सोचिए कि वोट देते समय आपकी प्रज्ञा का हरण कौन कर जाता है! सोचना छोडि़ए हममें से करीब-करीब आधे से कुछ कम तो वोट भी नहीं देने जाते!
कानपुर एनकाउंटर ऐसी कोई इकलौती घटना नहीं है जिस पर तकनीकी सवाल उठे या अंतहीन बहस होती रहे। किसी दुर्दांत अपराधी की मौत का शोकगीत कोई नहीं गाना चाहेगा लेकिन कानपुर एनकाउंटर फिर एक ऐसा मौका जरूर है कि हमको आपको यह तय करना होगा कि हम कैसा समाज चाहते हैं, कैसा देश चाहते हैं? अगर समाज ऐसा ही हो जो न विकास दुबे बनने की प्रक्रिया पर मुंह खोले और ना जिसमें यह सवाल करने की इच्छा हो कि जब घटना स्थल से 2 किलोमीटर पहले मीडिया को रोक दिया गया था तब क्या एनकाउंटर हो चुका था, तो संतोष कीजिये कि अब आप लगभग ऐसे ही समाज का हिस्सा हैं। लेकिन अगर आपको लगता है कि आपको कानून का राज चाहिए, आपको ऐसा समाज चाहिए जिसमें हम आप जैसे नागरिकों की न्याय व्यवस्था पर आस्था अटूट रहे तो इसके लिए आपको सिर्फ सवाल पूछने हैं। आपको सिर्फ इतना ही तो करना है कि टीवी एंकर्स के नजरिए से सब कुछ देखना छोड़ देना है और अपने विवेक को काम पर लगाना है। जब हम ऐसा कर पाएंगे तब यह भी तो देख पाएंगे कि वो कौन सी ताकते हैं,वो कौन सी प्रवृत्तियां हैं, वो कौन सी साजिशें हैं जो हमें सवाल करने से रोकती हैं, जिन्होंने हमारी चेतना का हरण कर लिया है, जो हमें मजबूर कर रहीं हैं कि हम इस व्यवस्था में बस ताली-थाली पीटने वाले दर्शक बने रहें!
अगर लोकतांत्रिक समाज की हमारी आकांक्षा बची है, अगर कानून के राज की आकांक्षा बची है तो इन आकांक्षाओं का एनकाउंटर कर रही प्रवृत्तियों की शिनाख्त जरूरी है।
आज यह चर्चा अलोकप्रिय लग सकती है लेकिन लोकप्रियता का आंनद बड़ा नशीला होता है। हम ना महंगाई समझते हैं, ना बेरोजगारी समझ पाते हैं, न अपराध मुक्त समाज समझ पाते हैं,ना शिक्षा के सवाल समझ आते हैं, विदेश नीति वगैरह को तो छोडि़ए हम पीने के साफ पानी तक की बात नहीं कर पाते। ये आनंद बड़ा उन्मादी बना देता है।
हमें कभी सिर्फ दर्शक तो कभी विदूषक सा बना देता है। हम देख ही नहीं पाते कि हमारे लिए नायकत्व के प्रतिमान कितनी खामोशी से बदलते जा रहे हैं। झूठ हमारे लिए सब से बड़ा सच बन गया और हम इस हकीकत का एहसास भी नहीं करना चाहते।
फिलहाल इतना ही सोचिए कि अब उन सवालों का जवाब कौन देगा जो विकास दुबे से होने थे? ये तो ऐसा सवाल है जो शहीद पुलिस वालों के परिजन भी कर रहे हैं! हम आप तो उनके साथ हैं न? तो सवाल कीजिये?
अच्छा चलिए, इस सवाल से असुविधा हो रही हो तो इतना तो पूछ ही लीजिए कि सीबीएसई के पाठ्यक्रम को हल्का करने के लिए लोकतांत्रिक अधिकार, धर्मनिरपेक्षता और खाद्य सुरक्षा जैसे पाठ ही हटाने क्यों जरूरी थे?
प्रेमचंद की तरह भीष्म साहनी ने भी समाज को उसी बारीकी से देखा-समझा था लेकिन, यह प्रेमचंद से आगे का समाज था इसलिए उनकी लेखनी ने विरोधाभासों को ज्यादा पकड़ा
- कविता
आजकल महानगरों के कुछ ‘अतिकुलीन’ परिवारों में चलन शुरू हुआ है कि बच्चे अपने अभिभावकों को मम्मी-पापा कहने के बजाय उनका नाम लेते हैं. इस चलन के पीछे तर्क है कि एक उम्र के बाद मां-बाप बच्चों के दोस्त हो जाने चाहिए और वे जब दोस्त होंगे तो संबोधन भी बदल जाएगा. हो सकता है यही तर्क हो या इससे आगे की बात लेकिन, यह जानकारी आम पाठकों को हैरान करती है कि भीष्म साहनी की बेटी कल्पना अपने पिता को हमेशा भीष्म जी कहती थीं और इसपर कभी भीष्म साहनी को ऐतराज नहीं हुआ. दरअसल यही सहजता इस महान लेखक की काबिलियत थी और इसी ने उन्हें अपने और दूसरे इंसानों के अंतर्मन में छिपी कुरूपताओं और विरोधाभासों से नजर मिलाने की समझ दी थी. ऐसा न होता तो ‘तमस’ जैसी कृति कभी न रची जाती.
भीष्म साहनी को 1975 में तमस के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था. इसी वर्ष वे पंजाब सरकार के शिरोमणि लेखक पुरस्कार से सम्मानित किए गए . उन्हें 1980 में एफ्रो-एशिया राइटर्स एसोसिएशन का लोटस अवॉर्ड और 1983 में सोवियत लैंड नेहरु अवॉर्ड दिया गया था. 1986 में भीष्म साहनी को पद्मभूषण अलंकरण से भी विभूषित किया गया. इन बड़े पुरस्कारों और सम्मानों की सूची बस यह बताने के लिए है कि पाठकों की तारीफें मिलने के साथ-साथ बतौर लेखक समाज-सरकार भी उन्हें सराहते रहे हैं फिर भी उनकी सहजता-सरलता कभी कम नहीं हुई. शायद इसी कारण उन्होंने जिस भी विधा को छुआ, कुछ अनमोल उसके लिए छोड़ ही गए. कहानियों में चाहे वह ‘चीफ की दावत’, हो या फिर ‘साग मीट’, उपन्यास में ‘तमस’ और नाटकों में ‘हानूश’ और ‘कबिरा खड़ा बजार में’ जैसी अनमोल कृतियां.
भीष्म साहनी की बेटी कल्पना बताती हैं, ‘वो जो कुछ भी लिखते थे सबसे पहले मेरी मां को सुनाते थे. मेरी मां उनकी सबसे पहली पाठक और सबसे बड़ी आलोचक थीं’
भीष्म साहनी के व्यक्तित्व की सहजता-सरलता वाले आयाम पर उनकी बेटी कल्पना साहनी की वह बात बेहद दिलचस्प है जो उन्होंने अपने पिता के आखिरी उपन्यास ‘नीलू, नीलिमा, नीलोफर’ के विमोचन के मौके पर कही थी. यहां उन्होंने बताया, ‘वो जो कुछ भी लिखते थे सबसे पहले मेरी मां को सुनाते थे. मेरी मां उनकी सबसे पहली पाठक और सबसे बड़ी आलोचक थीं. इस उपन्यास को भी मां को सौंपकर भीष्म जी किसी बच्चे की तरह उत्सुकता और बेचैनी से उनकी राय की प्रतीक्षा कर रहे थे. जब मां ने किताब के ठीक होने की हामी भरी तब जाकर उन्होंने चैन की सांस ली थी.’
‘नीलू, नीलिमा, नीलोफर’ सन 2000 में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था और यह एक अद्भुत संयोग है कि उसी वक़्त इस प्रकाशन से दो और बड़े लेखकों के उपन्यास प्रकाशित हुए, निर्मल वर्मा का ‘अंतिम अरण्य’ और कृष्णा सोबती का ‘समय सरगम’. ध्यान देने वाली बात यह थी कि जहां अन्य दो लेखकों के उपन्यास के केंद्र में उनकी वृद्धावस्था और उसके एकांतिक अनुभव थे, वहीं भीष्म जी की किताब के केंद्र में एक प्रेमकथा थी. तब अंतर्धार्मिक प्रेम और विवाह के लिए ‘ऑनर किलिंग’ पहली बार किसी उपन्यास या कहें कि एक बड़े कद के लेखक की किताब का केंद्रबिंदु बनी थी.
भीष्म जी के आखिरी उपन्यास में तमस वाली वही साम्प्रदायिकता थी और उससे लड़ते हुए कुछ असहाय और गिनेचुने लोग, पर कथा के विमर्श का फलक कुछ नया सा था. यहां न सोबती जी के उपन्यास का केंद्र - मृत्यु से लड़ने का वह महान दर्शन स्थापित हो रहा था, न निर्मल जी के लेखन में पाया जाने वाला आत्मचिंतन. ‘नीलू, नीलिमा, नीलोफर’ के केंद्र में तत्कालीन समाज और उसकी जटिलताएं और उनसे पैदा होने वाली समस्याएं थीं. दरअसल यह भीष्म जी के लेखन की विशेषता थी जहां वे जीवन की सच्चाई से आंख मिलाते थे और उनके माध्यम से पाठक भी ऐसा कर पाते थे.
आलोचक नामवर सिंह भीष्म साहनी के लिए कहते हैं, ‘हैरानी होती है यह देख कर कि रावलपिंडी से आया हुआ आदमी जो पेशे से अंग्रेज़ी का अध्यापक था और जिसकी भाषा पंजाबी थी, वह हिंदी साहित्य में एक प्रतिमान स्थापित कर रहा था’
समाज को इस तरह देखने का काम मुंशी प्रेमचंद ने भी अपनी रचनाओं में किया लेकिन भीष्म साहनी का देखा-समझा समाज प्रेमचंद के आगे के समय का समाज है. साथ ही भीष्म जी ने अपनी भाषा में वैसी ही सादगी और सहजता रखी जो रचनाओं को बौद्धिकों के दायरे निकालकर आम लोगों तक पहुंचा देती है. यदि विष्णु प्रभाकर की अद्भुत रचना ‘आवारा मसीहा’ के बजाय तमस को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला तो इसकी एक वजह इस उपन्यास की वह भाषा भी होगी जिससे विषय की मार्मिकता लोगों को दिलों तक पहुंच जाती है. आलोचक नामवर सिंह भीष्म साहनी के लिए कहते हैं, ‘मुझे उनकी प्रतिभा पर आश्चर्य होता है कि कॉलेज में पढ़ते हुए वे लिखने, प्रगतिशील लेखक संघ से भी जुड़ने का समय निकाल लेते थे.मैं यह नहीं कहता कि उनकी सभी रचनाओं का स्तर ऊंचा है लेकिन अपनी हर रचना में उन्होंने एक स्तर बनाए रखा... हैरानी होती है यह देख कर कि रावलपिंडी से आया हुआ आदमी जो पेशे से अंग्रेज़ी का अध्यापक था और जिसकी भाषा पंजाबी थी, वह हिंदी साहित्य में एक प्रतिमान स्थापित कर रहा था.’
यह भी एक दिलचस्प बात है कि कहानी-उपन्यास में प्रेमचंद के साथ खड़े भीष्म साहनी जब नाटक लिखते हैं तो फिर उनके समकालीन और पहले के लेखकों में ढूंढ़ने पर भी कोई एक नाम उनके साथ खड़ा नजर नहीं आता. बाद में जरूर मोहन राकेश ने नाटक लिखे थे लेकिन इस विधा के इतने प्रभावशाली होने के बावजूद भीष्म जी के किसी समकालीन लेखक ने नाटक लेखन में हाथ नहीं आजमाया. भीष्म साहनी के पहले नाटक ‘हानूश’ से जुड़ा भी एक दिलचस्प वाकया है. यह लिखने के पहले तक वे हिंदी के प्रतिष्ठित कहानीकार-उपन्यासकार बन चुके थे. पर जब उन्होंने पहली बार नाटक लिखा तो इसे लेकर उनके मन में कई तरह के संदेह आ गए. इसी वजह से वे ‘हानूश’ को लेकर अपने बड़े भाई और फिल्म अभिनेता बलराज साहनी के पास जाते थे, और वहां से खारिज होकर हरबार मुंह लटकाए वापस आते थे. बाद में उन्होंने यह नाटक एक थियेटर निर्देशक को दिया लेकिन उसने भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. आखिरकार भीष्म जी ने वह किताब मूल रूप में ही प्रकाशित करवाई. उन्होंने हानूश की भूमिका में इन सब वाकयों का मजे के साथ वर्णन किया है.
वैसे भीष्म साहनी के मन-मस्तिष्क में ‘तमस’ के लेखन बीज पड़वाने में उनके बड़े भाई बलराज साहनी का भी योगदान था. एक बार जब भिवंडी में दंगे हुए तो भीष्म साहनी अपने बड़े भाई के साथ यहां दौरे पर गए थे. यहां जब उन्होंने उजड़े मकानों, तबाही और बर्बादी का मंजर देखा तो उन्हें 1947 के दंगाग्रस्त रावलपिंडी के दृश्य याद आ गए. भीष्म साहनी फिर जब दिल्ली लौटे तो उन्होंने इन्हीं घटनाओं को आधार बनाकर तमस लिखना शुरू किया था. ‘तमस’ सिर्फ दंगे और कत्लेआम की कहानी नहीं कहता. वह उस सांप्रदायिकता का रेशा-रेशा भी पकड़ता है जिसके नतीजे में ये घटनाएं होने लगती हैं. उतनी भयावह न सही लेकिन आज हमारे आसपास जिस तरह की घटनाएं हो रही हैं वे इस उपन्यास और भीष्म साहनी जैसे लेखकों को और प्रासंगिक बना देती हैं. (satyagrah.scroll.in)
सचिन गोगोई
नेपाल में चीन की राजदूत हाओ यांकी पिछले दिनों राजनीतिक मतभेदों से जूझ रही सत्तारूढ़ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी को संभालने में काफी व्यस्त रहीं, लेकिन उनकी अति राजनीतिक सक्रियता नेपाल में बहुत से लोगों को नागवार गुजर रही है।
नेपाल के कुछ अखबारों ने पिछले हफ़्ते अपने संपादकीय लेखों में राजदूत हाओ यांकी और चीन की देश की घरेलू राजनीति में दखल देने के लिए आलोचना की है।
ऐसी रिपोर्टें भी हैं कि छात्रों के एक गुट ने इस मुद्दे पर विरोध प्रदर्शन भी किया।
साल 2018 में देश की दो प्रमुख कम्युनिस्ट पार्टियों के विलय के बाद नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एनसीपी) का गठन हुआ था।
एनसीपी को शुरू से ही एक ऐसे गठबंधन के तौर पर देखा जाता रहा है जो कभी भी बिखर सकता है।
लेकिन इसकी वजह सिर्फ ये नहीं है कि इस विलय ने नेपाल के दो पुराने प्रतिद्वंद्वियों खड्ग प्रसाद शर्मा ओली और पुष्प कमल दहाल प्रचंड को एक मंच पर ला दिया।
नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर जिस तरह से सत्ता के लिए संघर्ष चल रहा है, उसने पार्टी को बिखरने की कगार पर लाकर खड़ा दिया है।
दहाल और उनके समर्थकों ने ओली से प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष का पद छोडऩे की मांग की है।
लेकिन ओली मैदान में बने हुए हैं, उन्होंने भारत पर उन्हें सत्ता से बेदखल करने की साजिश करने का आरोप लगाया है।
दोनों नेताओं के बीच सार्थक बातचीत की तमाम कोशिशें अभी तक नाकाम रही हैं।
हालांकि इस बीच चीन की राजदूत हाओ यांकी ने पार्टी को बिखरने से रोकने के लिए अपनी कोशिशें लगातार जारी रखी हैं।
उन्होंने नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के सीनियर नेताओं से मुलाकात की और यहां तक कि चीन का संदेश लेकर वे राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी से भी मिलने गईं।
हाओ यांकी की इस सक्रियता को नेपाल की घरेलू राजनीति में दखल के रूप में देखा जा रहा है। और एनसीपी ने चीन की तरफ़ से किसी दखलंदाज़ी की बात से इनकार किया है। लेकिन बहुत से लोग एनसीपी की सफाई से संतुष्ट नहीं दिखते। इस पर नेपाली अख़बारों की भी प्रतिक्रियाएं आई हैं।
दखलंदाजी कबूल नहीं है...
नेपाली भाषा के अख़बार ‘नया पत्रिका’ ने बुधवार को अपने संपादकीय लेख में लिखा कि चीन धीरे-धीरे नेपाल की घरेलू राजनीति में अपने ‘माइक्रो मैनेजमेंट का दायरा’ बढ़ा रहा है।
अख़बार ने अपने संपादकीय में लिखा, ‘सत्तारूढ़ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के मतभेदों को सुलझाने के लिए चीनी राजदूत का सक्रिय होना द्विपक्षीय संबंधों और कूटनीति दोनों ही लिहाज से ठीक नहीं है।’
एक और नेपाली अखबार ‘नागरिक’ ने भी ‘नया पत्रिका’ की तर्ज पर अपनी बात रखी है।
अखबार लिखता है, ‘ऐसा लगता है कि नेपाल के अंदरूनी मामलों में दखल न देने की अपनी पुरानी नीति से चीन पीछे हट गया है। नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के अंदरूनी सत्ता संघर्ष में राजदूत हाओ यांकी की सक्रियता को सामान्य बात नहीं माना जा सकता है। इससे पता चलता है कि हम अभी तक स्वतंत्र रूप से फैसले लेने में सक्षम नहीं हो पाए हैं।’
कूटनीतिक आचार संहिता
अजीब बात ये हुई कि नेपाल के विदेश मंत्रालय को राजदूत हाओ यांकी की राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी से हुई मुलाकात के बारे में जानकारी नहीं थी।
कुछ अधिकारियों ने अंग्रेज़ी अख़बार ‘काठमांडू पोस्ट’ से कहा कि राजदूत हाओ यांकी का ऐसा करना कूटनीति के नियमों के ख़िलाफ़ था।
एक अधिकारी ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर ‘काठमांडू पोस्ट’ से कहा, ‘कूटनीतिक आचार संहिता के तहत ऐसा मुलाकातों के समय विदेश मंत्रालय के अधिकारियों को वहां मौजूद होना चाहिए। चूंकि इस मीटिंग का कोई आधिकारिक रिकॉर्ड मौजूद नहीं है, इसलिए हमें नहीं मालूम कि वहां किन मुद्दों पर बात हुई।’
चीन ने राजदूत हाओ यांकी की राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी से हुई मुलाकात को ‘रूटीन मीटिंग’ बताया।
विशेषज्ञ क्या कहते हैं?
ऐसा नहीं है कि नेपाल की राजनीति में चीन की बढ़ती दिलचस्पी को लेकर केवल प्रेस और मीडिया शिकायत कर रहे हैं।
विपक्षी नेताओं, विदेश नीति मामलों के जानकार और यहां तक कि छात्र भी इस पर सवाल उठा रहे हैं।
पूर्व विदेश मंत्री और राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी के चेयरमैन कमल थापा ने ट्वीट किया, ‘क्या रिमोट कंट्रोल से चल रहा कोई लोकतांत्रिक गणराज्य नेपाली लोगों का फायदा कर सकता है?’
कमल थापा की टिप्पणी से ये साफ था कि वे राजदूत हाओ यांकी की नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं से हुई मुलाकात का हवाला दे रहे थे।
पूर्व कूटनयिकों और अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञों का कहना है कि एक राजदूत का घरेलू राजनीतिक विवाद को सुलझाने के लिए सक्रिय भूमिका निभाना असामान्य बात है।
नेपाल के लिए पारंपरिक रूप से ये बात सही भी नहीं लगती है।
नेपाल में कम्युनिस्ट सरकार
भारत में नेपाल के राजदूत रह चुके लोकराज बराल ने ‘नेपाली टाईम्स’ से कहा, ‘कुछ साल पहले नेपाल में भारत जिस तरह से दखल देता था, चीन आज वही कर रहा है। चीन अपनी विदेश नीति के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए नेपाल की राजनीति के माइक्रो मैनेजमेंट की दिशा में कदम बढ़ा रहा है।’
चीन मामलों के विशेषज्ञ रूपक सपकोटा इस मामले को उतनी तवज्जो नहीं देते हैं। हालांकि उन्होंने कहा कि चीन नेपाल में एक कम्युनिस्ट सरकार देखना चाहेगा।
थिंकटैंक ‘इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेन अफेयर्स’ के कार्यकारी निदेशक रूपक सपकोटा कहते हैं, ‘इस वक्त ये मुलाकात हालात का जायजा लेने के लिए की गई होगी। (बाकी पेज 7 पर)
मुझे नहीं लगता कि सरकार का नेतृत्व कौन करेगा, इसे लेकर उनकी कोई पसंद या नापसंद होगी।‘
‘द हिमालयन टाईम्स’ की रिपोर्ट के मुताबिक छात्रों के एक ग्रुप ने इस हफ्ते की शुरुआत में चीनी राजदूत के मुद्दे पर विरोध-प्रदर्शन भी किया था। वे चीनी राजदूत से नेपाल के मामलों से दूर रहने की मांग कर रहे थे।
चीन की विदेश नीति
जानकारों का कहना है कि सत्तारूढ़ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के सत्ता संघर्ष को खत्म करने की हाओ यांकी कोशिश चीन की आक्रामक विदेशी नीति का ही हिस्सा है। पिछले पांच सालों से चीन हिमालय की गोद में बसे इस छोटे से देश में पांव पसारने की आहिस्ता-आहिस्ता कोशिश कर रहा है। नेपाल में चीनी राजदूत हाओ यांकी की बढ़ती सक्रियता ने भारत के लिए असहज स्थिति पैदा कर दी है।
साल 2018 में प्रधानमंत्री बनने के बाद से ओली ने चीन के साथ नजदीकियां बढ़ाई हैं वे भारत को नीचा दिखाने से उन्होंने कभी भी संकोच नहीं किया।
लेकिन नेपाल में बहुत से लोग इस बात को लेकर चिंतित हैं कि प्रधानमंत्री ओली ने एक देश की कीमत पर दूसरे देश का पक्ष लिया है।
उनकी चिंता है कि इससे राजनीतिक रूप से अस्थिर और आर्थिक तौर पर कमजोर नेपाल की मुश्किलें बढ़ सकती हैं।
विदेश नीति का ये असंतुलन
‘माई रिपब्लिका’ अखबार से विपक्ष के एक राजनेता ने कहा, ‘किसी एक देश का पक्ष लेते समय ओली सरकार को विवेक से काम लेना चाहिए। अगर इस बहुध्रुवीय दुनिया में हम किसी एक शक्ति का पक्ष लेते हैं तो विदेश नीति का ये असंतुलन लंबे समय में हमें नुक़सान पहुंचाएगा।’
संयुक्त राष्ट्र में नेपाल के स्थाई प्रतिनिधि रह चुके दिनेश भट्टाराई एक कदम और आगे बढक़र चेतावनी देते हैं कि अगर चीन को नेपाल की राजनीति में गहराई से उतरने का मौका लगा तो इसके उल्टे नतीज़े हो सकते हैं।
भट्टाराई ने अंग्रेज़ी अख़बार ‘द हिमालयन टाइम्स’ से कहा, ‘मुमकिन है कि चीन सत्तारूढ़ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी में एकता देखना चाहता हो लेकिन अगर उसने पार्टी को एक रखने के लिए बार-बार दखल दिया तो नेपाल में मौजूद दूसरे ताक़तवर देशों को इससे परेशानी हो सकती है।’
राजनीतिक विश्लेषक जय निशांत भी दिनेश भट्टाराई की बात से सहमत लगते हैं। उन्होंने ‘द हिमालयन टाईम्स’ से कहा, ‘अगर चीन ने नेपाल में अपनी गतिविधियां बढ़ाई तो इससे नेपाल को मदद मिलने के बजाय केवल उसकी परेशानी बढ़ेगी।’ (बीबीसी)
अभिषेक सिंह राव
जुलाई के पहले हफ्ते में रिलायंस जियो ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के मार्केट में कदम रखते हुए जियो-मीट को लांॅच किया है। वैसे तो वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग एप्लिकेशन्स के क्षेत्र में ज़ूम, गूगल हैंगऑउट, गूगल मीट, गोटू मीटिंग, स्काइप, माइक्रोसॉफ्ट टीम, इत्यादि का बोलबाला पहले से है लेकिन इन तमाम? प्लिकेशन्स में करीब नौ साल पुरानी कंपनी ज़ूम सबसे अव्वल है। 2011 में चाइनीज मूल के एरिक युआन ने 40 इंजीनियर्स के साथ मिलकर ‘सासबी’ नामक एक कंपनी की शुरुआत की थी। फिर दूसरे साल ही इसका नाम बदलकर ‘ज़ूम’ रख दिया गया। साल दर साल ज़ूम ने बाज़ार से फंडिंग उठाते हुए अपने प्रोडक्ट पर काम किया और धीरे-धीरे जब वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग का मार्केट परिपक्व होने लगा तो ज़ूम ने अपना लोहा मनवाना शुरू किया।
अप्रैल 2019 में ज़ूम ने अमेरिका में अपना आईपीओ लांॅच किया। आज जूम 2500 कर्मचारियों से लैस दुनिया की नामचीन सॉफ्टवेयर कंपनियों में से एक है। ग्लासडोर के एक सर्वे के मुताबिक कर्मचारियों के लिए ज़ूम 2019 की दूसरे पायदान की ‘बेस्ट प्लेसेस टू वर्क’ कंपनी थी।
कोरोना-काल और ज़ूम की लोकप्रियता
कोरोना संकट के समय में सोशल डिस्टेन्सिंग के चलते ज़ूम की लोकप्रियता में चार चांद लगने शुरू हो गए। बिजनेस इनसाइडर की रिपोर्ट के मुताबिक अमरीका में 18 मार्च के दिन तमाम बिजनेस ऐप्स के बीच आईफोन के दैनिक डाउनलोड में ज़ूम पहले स्थान पर रहा। दफ्तरों एवं शैक्षणिक संस्थानों के बंद होने के कारण कितनी ही समस्याओं से जूझ रहे भारतीयों को भी यह ऐप एक बेहतर उपाय की तरह दिखने लगा। योरस्टोरी की एक रिपोर्ट कहती है कि भारत में 29 मार्च के दिन व्हाट्सएप, टिकटॉक, इंस्टाग्राम और फेसबुक जैसे दिग्गज? प्लिकेशन्स को पछाड़ते हुए ज़ूम ने नंबर एक का स्थान हासिल किया था।
सब कुछ ठीक चल रहा था लेकिन चूंकि ज़ूम के कार्यबल का एक बड़ा हिस्सा चीन में स्थित है, इस वजह से ज़ूम के बढ़ते उपयोग ने सर्विलांस और सेंसरशिप की चिंताओं को जन्म देना शुरू किया। अप्रैल की शुरुआत में भारत सरकार ने एक एडवाइजरी जारी कर कहा था कि ‘ज़ूम का इस्तेमाल सुरक्षित नहीं है।’ इसमें सरकार ने जोर देते हुए कहा कि ‘सरकारी अधिकारी या अफसर आधिकारिक काम के लिए इस प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल न करें।’ भारत के अलावा अन्य देश भी इसे आशंका से देख रहे हैं। विश्व पटल पर इस विवाद की गहराइयों का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि मई महीने की शुरुआत में ज़ूम के सीईओ एरिक युआन को सफाई देते हुए कहना पड़ा कि ‘ज़ूम चाइनीज़ नहीं, अमेरिकन कंपनी है।’
ज़ूम के मुकाबले जियो-मीट की लॉन्चिंग
विश्वव्यापी और खासकर भारत में मौजूदा चीन विरोधी माहौल के बीच, पिछले दिनों देश में ज़ूम के मुकाबले की एक ‘मेड इन इंडिया’ एप्लीकेशन की मांग ने जन्म लिया। यह कहा जा सकता है कि जियो ने सही समय पर इस मांग को समझते हुए अपना एप लॉन्च किया है। जियो ने महज़ दो-तीन महीने के भीतर ज़ूम के फ़ीचर्स को आधार बनाते हुए खुद की एप्लीकेशन लॉन्च कर दी। एप लॉन्च करने के पहले की परिस्थितियों का अंदाजा लगाएं तो जियो के इंजीनियर्स घर से काम कर रहे होंगे, इसके चलते कम्युनिकेशन-गैप एवं इंटरनेट की भी समस्याएं रही होंगी लेकिन इसके बावजूद जियो, बेहद कम वक्त में यह प्रोडक्ट तैयार करने में सफल हुआ है। राष्ट्रवाद की सवारी एवं ज़ूम से मिलते-जुलते इंटरफेस के कारण सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर जियो-मीट चर्चा में रहा। इसके लिए कुछ लोग जहां इसकी आलोचना करते दिखाई दिए वहीं कइयों ने इसे मिसाल की तरह पेश किया है।
ऐसे तो इंटरफेस शब्द के मायने बहुत हैं लेकिन आईटी की भाषा में ‘यूजर इंटरफेस’ अर्थात एक तरह का डिज़ाइन जिसकी मदद से हम किसी भी एप्लीकेशन के फीचर्स का उपयोग करते हैं। कुछ लोगों का तर्क है कि ज़ूम और जियो-मीट का इंटरफ़ेस एक जैसा है! लेकिन जियो की बिजनेस स्ट्रेटेजी पर गौर करें तो जिस ‘कॉपी-इंटरफेस’ का विरोध हो रहा है शायद यही उसकी स्ट्रेटेजी का मुख्य हिस्सा हो सकता है।
किसी भी एप्लीकेशन को मार्केट की डिमांड पूरा करने के लिए बनाया जाता है। इसी डिमांड को पकड़ते हुए कम्पनियां अपने अल्टीमेट गोल रेवेन्यू जेनरेशन का रास्ता बनाती हैं। जैसे चीन के सॉफ्टवेयर इंजीनियर रोबिन ली ने गूगल जैसे चाइनीज़ सर्च इंजन की डिमांड को पूरा करने के लिए ‘बायदु’ सर्च इंजन बनाया। अमरीका में एमेजॉन के बोल-बाले के बाद भारत में बंसल जोड़ी ने फ्लिपकार्ट खड़ा किया। वहीं, कई बार कंपनियां कुछ नए आइडियाज के ज़रिये नया मार्केट खड़ा करने में भी कामयाब होती हैं। जैसे गूगल ने सर्च इंजन का मार्केट खड़ा किया, यूट्यूब ने वीडियो का, फेसबुक ने सोशल मीडिया का, ऊबर ने टैक्सी सर्विस का, ज़ोमाटो ने फ़ूड डिलीवरी का, अमेजन ने ऑनलाइन शॉपिंग का। एप्लीकेशन डेवलपमेंट का विचार इन दोनों पहलुओं के बीच की ही बात है। या तो आप नए इनोवेटिव आईडिया के ज़रिये नया मार्केट खड़ा कीजिये या फिर जो मार्केट बना हुआ है, उसी की डिमांड्स को समझिए।
जियो ने क्या किया?
जियो की केस-स्टडी की जाए तो समझ में आता है कि इस कंपनी ने फोर-जी सर्विस लॉन्च करते वक्त भी सबसे पहले टेलीकम्यूनिकेशन के मार्केट की डिमांड को समझा और उस समय वे जो सबसे बढिय़ा दे सकते थे उसी को आधार बनाते हुए, आम आदमी तक अपनी पहुंच बनाई। हालांकि उस समय जियो की फोर-जी सर्विस भारत के लिए ही नई थी, विकसित देशों में यह पुरानी बात हो चुकी थी। ऐसे में जियो भारत में एक नया मार्केट खड़ा करने में कामयाब रहा जिसका आगे चलकर दूसरी भारतीय टेलीकम्यूनिकेशन कंपनियों ने भी अनुसरण किया। नतीजा यह है कि आज बेहतर प्लानिंग, अनूठी सर्विस और मार्केटिंग के चलते महज़ चार साल में यह कंपनी टेलीकम्यूनिकेशन मार्केट के शीर्ष पर है।
जियो-मीट के विवाद के बीच आईटी क्षेत्र की कार्यप्रणाली को समझे बगैर हम इसकी तह तक नहीं पहुंच सकते हैं। वर्तमान की आईटी कार्यप्रणालियों में मार्केट की डिमांड समझते हुए एक साफ-सुथरे स्थायी प्रोडक्ट को बाज़ार में उतारना पहला चरण है। कंपनियों को पता होता है कि उनके पहले वजऱ्न में सुधार की गुंजाइशे हैं लेकिन उन्हें यह भी पता है कि सौ फीसदी परफेक्ट प्रोडक्ट एक असंभव सी बात है और इसको पूरा करने के चक्कर में या तो मार्केट की डिमांड बदल जाएगी या फिर कोई और इस मार्केट को हथिया लेगा। इसलिए वे अपने प्रोडक्ट्स को ‘बीटा वजऱ्न’ के तौर पर लॉन्च करती हैं। इसका मतलब होता है कि यह प्रोडक्ट अभी पूरी तरह से रिलीज़ नहीं हुआ है, कंपनी ने इसको मुख्यत: टेस्टिंग के उद्देश्य के मार्केट में उतारा गया है। चूंकि किसी एक प्रोडक्ट में सुधार हमेशा चलते रहने वाली प्रक्रिया है इसलिए ‘बीटा वजऱ्न’ के ज़रिये कंपनियां सही समय पर मार्केट में अपनी जगह बनाने में कामयाब होती हैं। इस दौरान उपयोगकर्ताओं की प्रतिक्रियाओं को ध्यान में रखते हुए ऑफिशियल रिलीज़ में महत्वपूर्ण सुधारों को अंजाम दिया जाता है।
जियो-मीट का इंटरफ़ेस कॉपी-केस या यूएसपी?
आईपी कंपनियों में एक और शब्द प्रचलित है ‘यूएसपी’ इसका मतलब है ‘यूनीक सेलिंग पॉइंट’। यानी कंपनियां अपने प्रोडक्ट्स को लेकर जब बाज़ार में उतरती हैं तो उस प्रोडक्ट की कुछ ऐसी विशेषताएं होती हैं जो एक तो उस प्रोडक्ट के बनने का कारण होती हैं, दूसरा बिक्री के दृष्टिकोण से उन विशेषताओं की ख़ास अहमियत होती है। कंपनियां प्रचार के वक्त इन्ही विशेषताओं को आगे रख कर अपनी ऑडियंस को आकर्षित करती है। जियो मीट के मामले में ज़ूम से मिलता-जुलता इंटरफेस इसकी यूएसपी साबित हो सकता है।
अगर जियो के ज़ूम से मिलते-झूलते इंटरफ़ेस के विषय पर ज़ूम के ही ऑफिशियल स्टेटमेंट पर गौर किया जाए तो उन्होंने जियो-मीट के कम्पटीशन का स्वागत किया है। जियो-मीट के लॉन्च के बाद जिस तरह से इसे ट्रोल किया गया मानो ज़ूम को तुरंत ही जियो पर लीगल कार्यवाही करनी चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि आईटी क्षेत्र में एक जैसे इंटरफ़ेस का होना बहुत आम सी बात है। वहीं, रिलायंस जियो के पिछले रिकॉर्ड को देखें तो पता चलता है कि यह कंपनी मार्केट रिसर्च के वक्त जो सबसे बेस्ट है, उसको आधार बनाते हुए बाज़ार की मांग को पूरा करने के विषय में सोचती है।
जियो-मीट का इंटरफ़ेस एकदम ज़ूम की तरह रखने के पीछे एक कारण यह भी हो सकता है कि भारत के जो उपयोगकर्ता पहले से ज़ूम का उपयोग कर रहे हैं या कर चुके हैं, उन्हें जियो-मीट पर माइग्रेट होते वक्त एक नए इंटरफ़ेस के कारण कोई परेशानी न हो। सीधा गणित है यानी लोग ज़ूम ऐप को उपयोग करना जानते हैं, ऐसे में अगर एक पूरा नया इंटरफेस आता है तो लोगों को उसकी आदत लगने में वक्त लग सकता है ऐसे में इसके कुछ यूजर दूर जा सकते हैं। जियो-मीट की लॉन्चिंग के समय पर ध्यान दें तो कंपनी इस वक्त या ग्राहकों को गंवाने का रिस्क नहीं लेना चाहेगी।
कहा जा सकता है कि जियो ने इंटरफ़ेस के ज़रिये मुख्यत: इस बात का ख्याल रखा है कि लोग आसानी से ज़ूम से जियो-मीट पर माइग्रेट हो जाएं और उन्हें उसका उपयोग करने में कोई तकलीफ़ न हो। फि़लहाल जियो-मीट ‘बीटा वजऱ्न’ के तौर पर लॉन्च हुआ है, मतलब इस वक्त स्वदेशी की छतरी तले ज़ूम के यूज़र्स को अपने यहां माइग्रेट करवा लेने के बाद, हो सकता है कि आने वाले कुछ समय में इसका यूजर इंटरफेस भी बदल दिया जाए।
मौजूदा आईटी कार्यप्रणालियों में एक स्टेबल प्रोडक्ट के साथ सही समय पर मार्केट में आना ज़रूरी है, भले ही उसमे कुछ सुधारों की गुंजाइशें साफ़ दिख रही हो। जियो को जल्द से जल्द मार्केट में कूदने की जल्दबाज़ी थी और उसके इंजीनियर्स को एक सख़्त डेडलाइन मिली होगी। ऐसे में वे अगर नया इंटरफ़ेस बनाने बैठते तो फिर ज़ीरो से सब शुरू करना होता। उस हालत में यह काम 2-3 महीनों में पूरा हो पाना संभव ही नहीं था। (सत्याग्रह)
उमाशंकर मिश्रा
बताते हैं कि सागर मंथन के दौरान कई चीज़ों की प्राप्ति हुई थी। देवताओं के हाथ अमृत लगा और वे असुरों से अधिक शक्तिशाली हो गए। कोरोना का काल दुनिया की अर्थव्यवस्था के लिए सागर मंथन जैसा ही रहा है। कुछ इंडस्ट्रियल सेक्टर मालामाल हो गए और कुछ बेहाल।
कोविड 19 के दिनों में टेलिकॉम सेक्टर में जिस तरह से हलचल मची है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि टेलिकॉम सेक्टर के हाथों अमृत लग गया है और फिर से इसमें बहार आने वाली है।
कोविड से पहले, कोविड के दौरान
रिलायंस जिओ ने लंबे समय से इस क्षेत्र में टिके कई दिग्गजों को उखाड़ फेंका था। वोडाफ़ोन और आईडिया सेलुलर जैसे महारथी हाथ मिलाकर उससे मुकाबला करने की कोशिश कर रहे थे। भारतीय टेलिकॉम सेक्टर की कभी पोस्टर बॉय कंपनी रही एयरटेल भी जिओ के सामने नहीं टिक पा रही थी। बीएसएनएल और एमटीएनएल तो कब से मैदान छोडक़र दर्शक दीर्घा में बैठे थे। लग रहा था कि कुछ कंपनियों की दुकान बंद होने ही वाली है कि तभी कोविड-19 आ धमका।
कोविड-19 के दौरान देश भर में तालाबंदी रही। टेलिकॉम के दुकानदारों और डिस्ट्रीब्यूटरों का धंधा लगभग ठप रहा। नए कनेक्शन्स और रिचार्ज का बिजऩेस नहीं हो पाया। रही सही कसर ऑनलाइन पेमेंट्स ने पूरी कर दी। बहुत तेज़ी से अब रिचार्ज बिजऩेस ऑनलाइन होता जा रहा है।
लेकिन यह सिक्के का सिर्फ एक पहलू है। इसके दूसरे पहलू को समझने के लिए टेलिकॉम सेक्टर के स्टॉक्स पर नजऱ डालनी होगी। यहां दूध का दूध पानी का पानी हो जाता है। यहां तो टेलिकॉम शेयर्स में बहार आयी हुई है! 2018 में स्टॉक मार्किट छह फीसदी बढ़ा था पर टेलिकॉम स्टॉक्स 41 प्रतिशत गिर गए थे। इस साल मई के महीने में स्टॉक मार्किट 17 फीसदी टूटा पर टेलिकॉम स्टॉक्स में 15 फीसदी का उछाल है!
जून के महीने भी में लगभग यही ट्रेंड देखा गया। भारती एयरटेल का शेयर 559 रुपये के आसपास है जो लगभग 52 हफ़्ते, यानी एक साल में सबसे ऊंचे स्तर पर ट्रेंड कर रहा है। वहीँ, वोडाफ़ोन-आईडिया का शेयर जून के महीने में लगभग 20 फीसदी बढक़र 10।50 रूपये पर चल रहा है। जिओ की अभी लिस्टिंग नहीं हुई है। लेकिन उसके हाल तो ठीक होने ही थे। बल्कि उसकी वजह से दूसरी कंपनियों के हाल बिगड़े थे।
फ़ौरी तौर पर आप यह कह सकते हैं कि कोविड के दौरान लोगों ने जमकर नेटफ्लिक्स और एमेज़ॉन प्राइम देखा है। ज़ूम कॉल और अन्य कांफ्रेंसिंग टूल्स के ज़रिये विडियो चैटिंग की है। पढ़ाई भी अब ऑनलाइन ही हो रही है। और आगे यह सब और ज्यादा होने और होते ही रहने की संभावना है। तो इसके चलते सारी टेलिकॉम कंपनियों की बल्ले-बल्ले हो गई है। पर बात इससे कहीं गहरी है।
क्यूं है ये हलचल
हाल ही में रिलायंस जिओ ने अपनी 10 फीसदी हिस्सेदारी फ़ेसबुक को 43,574 करोड़ रूपये में बेची है। फ़ेसबुक जो कि सोशल मडिया जायंट है, मोबाइल सर्विस में क्यूं एंट्री कर रही है? इस कहानी को टेलिकॉम कंसल्टेंट कंपनी मिंट इवेंटस के फाउंडर और सीईओ जीतू राही सिर्फ एक लाइन में ही साफ़ कर देते हैं। वे कहते हैं। ‘दिस इस अ मैरिज ऑफ़ कंटेंट एंड कनेक्टिविटी’।
अब इसको ऐसे समझिये। जिओ देश की सबसे बड़ी टेलिकॉम कंपनी बनने जा रही है। विशाल नेटवर्क और नेटवर्क की उम्र भी कम है, यानी जवान है। इसकी पेरेंट कंपनी रिलायंस इंडस्ट्रीज़ जैसा विशाल हाथी है। और सरकार भी उस पर मेहरबान ही दिखती है।
उधर फ़ेसबुक दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों में से एक है। उसे भारत में डाटा का विशाल मार्किट नजऱ आता है। उसे एक ऐसे नेटवर्क यानी प्लेटफार्म की ज़रूरत है जहां से वह अपना कंटेंट लोगों तक पंहुचा सके। वहीं जिओ की स्ट्रेटेजी भी कंटेंट आधारित ही है और फेसबुक कंटेंट की दुनिया का किंग है। तो दोनों ने एक-दूसरे का हाथ थाम लिया है। लेकिन, ध्यान रहे कि इस तरह की यह अकेली घटना नहीं है।
गूगल भी वोडाफ़ोन-आईडिया के कुछ स्टॉक्स खऱीदना चाह रहा है। ख़बर है कि वह लगभग इसके पांच फीसदी स्टॉक्स खऱीद सकता है। अब गूगल की एंट्री समझिये। कोविड की वजह से चीजों के तेजी से हो रहे ऑनलाइनीकरण के साथ-साथ 5जी के आने पर क्लाउड कंप्यूटिंग बहुत ज़ोर पकड़ लेगी। इन्टरनेट ऑफ़ थिंग्स, आर्टिफि़शियल इंटेलिजेंस का बोलबाला होगा। ऐसे में सॉफ्टवेयर कंपनियों के पास एक टेलिकॉम प्लेटफ़ॉर्म भी होना सोने पर सुहागा जैसा होगा। वेब सर्विसेस यानी क्लाउड कंप्यूटिंग में गूगल माइक्रोसॉफ्ट के अज्योर और एमेजॉन वेब सर्विसेज से पीछे है। और अगर हिंदुस्तान में उसने एंट्री नहीं मारी तो फिर यह मान लीजिये कि उसकी आगे की लड़ाई मुश्किल हो जायेगी।
एमेजॉन भी एयरटेल में पांच प्रतिशत की हिस्सेदारी की प्लानिंग कर रहा है। यानी, दुनिया की तीन सबसे बड़ी कंपनियां भारत की टेलिकॉम कंपनियों की तरफ़ मोहब्बत की नजऱों से देख रही हैं। इसमें पहली बाज़ी फ़ेसबुक ने मार ली है और उसे सबसे जवान और ख़ूबसूरत कंपनी मिली है।
तो अब बात समझ में आ जाती है कि आखिऱ क्यूं मुम्बई स्टॉक एक्सचेंज में टेलिकॉम कंपनियों के शेयर्स में बहार आई हुई है।
इस बहार के तार चीनी कंपनियों से भी जुड़ते हैं लेकिन थोड़ा अलग तरीके से। भारत के मोबाइल हार्डवेयर मार्किट पर अब तक एकतरफ़ा कब्ज़ा रहा है। आंकड़ों के मुताबिक़ चीनी हैंडसेट कंपनियों की भारत में कुल हिस्सेदारी 71 फीसदी है। संभव था कि वे भी भारतीय मोबाइल सेवा प्रदाता कंपनियों में पैसा लगाकर अपनी स्थिति और मज़बूत बनाना चाहतीं। लेकिन इतनी बड़ी तीन अमेरिकी कंपनियों के आने या आने का खबर से भारत की टेलिकॉम सेवा प्रदाता कंपनियों में घुसपैठ करना उनके लिए बहुत मुश्किल हो गया।
ऊपर से लदाख में चीनी दखलंदाज़ी और गलवान घाटी में हुए संघर्ष और उसके बाद के हालात ने रही-सही कसर पूरी कर दी। इस वजह से आत्मनिर्भर या दूसरे शब्दों में बॉयकाट चाइना कैंपेन ने चीन की मोबाइल सर्विस प्रोवाइडर मार्किट में एंट्री का दरवाजा हमेशा के लिए बंद कर दिया है।
आगे क्या होगा
टेलिकॉम अत्यधिक निवेश वाला सेक्टर है। दुनिया भर में 4 जी के बाद 5 जी को लांच करने की तैयारी बहुत ज़ोर-शोर से हो रही है। इसके लिए कंपनियों को मोटे निवेश की ज़रूरत पडऩे वाली है। जीतू राही बताते हैं कि टेलिकॉम कंपनियों को अब नेटवर्क प्रोवाइडर की बजाय प्लेटफ़ॉर्म प्रोवाइडर बनना होगा ताकि आने वाले दिनों में मैन्युफैक्चरिंग, रिटेल और ट्रांसपोर्टेशन सेक्टर्स में इसका इस्तेमाल हो सके।
नाम न छापने की शर्त पर रिलायंस जिओ के एक अधिकारी कहते हैं टेलिकॉम में फिर से बहार आने को है। ये दोबारा सनराइज इंडस्ट्री होने जा रही है और नेटवर्क और कंटेंट का मेल गुल खिलायेगा।’’ ऐसे में फ़ेसबुक, एमेजॉन और गूगल आगे की राह बनायेंगे। दुनिया की तीन सबसे बड़ी कंपनियों द्वारा किया गया भारतीय टेलिकॉम कंपनियों में निवेश सूरज का वह सातवां घोड़ा होगा जो टेलिकॉम के रथ को अब आगे लेकर जायेगा। (सत्याग्रह)
ध्रुव गुप्त
हिन्दी सिनेमा के सौ साल से ज्यादा लंबे इतिहास में जिन कुछ अभिनेताओं ने अभिनय की नई परिभाषाएं गढ़ी, उनमें संजीव कुमार उर्फ हरिभाई जरीवाला एक प्रमुख नाम है। भावप्रवण चेहरे, विलक्षण संवाद-शैली और अभिनय में विविधता के लिए जाने जाने वाले संजीव कुमार अभिनय के एक स्कूल माने जाते हैं। जब भी हिंदी फिल्मों में अभिनय के कुछ मीलस्तंभ गिने जाएंगे, ‘कोशिश’ का गूंगा-बहरा किरदार, ‘आंधी’ की महत्वाकांक्षी पत्नी का परित्यक्त पति, ‘शोले’ का सब कुछ खो चुका अपाहिज ठाकुर और ‘खिलौना’ का पागल प्रेमी कैसे भुला दिए जाएंगे?
फिल्म ‘नया दिन नई रात’ में नौ रसों पर आधारित अपनी नौ अलग भूमिकाओं में उन्होंने साबित किया कि अभिनय को जीवन के इतना भी कऱीब ले जाया जा सकता है। इस फिल्म के निर्देशक ए भीमसिंह इस चुनौतीपूर्ण भूमिका के लिए दिलीप कुमार के पास गए थे। दिलीप कुमार ने उन्हें संजीव कुमार का नाम ही नहीं सुझाया, बल्कि फिल्म के आरंभ में आकर उन्हें दर्शकों से परिचित भी कराया था। कई छोटी और दूसरे-तीसरे दजऱ्े की फिल्मों से सफर शुरू करने वाले संजीव कुमार को संवेदनशील अभिनेता के तौर पर स्थापित किया 1970 की फिल्म ‘खिलौना’ ने। उसके बाद जो हुआ वह इतिहास है। उनकी बड़ी खासियत यह थी कि उन्होंने कभी अपने रोल की लंबाई नहीं देखी। छोटी भूमिकाओं में भी बड़े प्रभाव छोडऩे की कला उन्हें मालूम थी। नायक से ज्यादा चरित्र और सहायक भूमिकाओं में उनकी अदायगी निखर कर आती थी। गुलजार के वे सर्वाधिक प्रिय अभिनेता रहे थे जिनके साथ उन्होंने नौ फिल्में की।
सत्यजीत रे ने जब अपनी पहली हिंदी फिल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी’ की योजना बनाई तो उनके सामने संजीव कुमार का ही चेहरा था। हेमामालिनी और सुलक्षणा पंडित के साथ अपनी अधूरी प्रेम कहानियों का यह असफल, अविवाहित नायक मात्र 47 साल की उम्र में दिल की बीमारी से चल बसा।
संजीव कुमार के जन्मदिन पर विनम्र श्रद्धांजलि!