विचार/लेख
(जन प्रतिनिधियों, राजनीतिक दलों के संदर्भ में)
संसदीय प्रणाली,एवं विधान मंडल सुरक्षित एवं सुदृढ़ रहें, इसके लिए यह आवश्यक है कि इसके सदस्य और राजनीतिक दल सार्वजनिक जीवन में श्रेष्ठतम आचरण एवं व्यवहार का आदर्श स्थापित करें। उनके कार्यकलाप व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं अपितु जनहित व जन सेवा के उद्देश्य से होना चाहिए|संसदीय प्रजातंत्र को सुदृढ़ करना है तो राजनीतिक दलों एवं जन प्रतिनिधियों को अपने आचरण एवं व्यवहार में गुणात्मक परिवर्तन करना होगा।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात 26 नवंबर1949 से देश में संविधान लागू हुआ, संविधान सभा ने अंतरिम संसद के रूप में कार्य करना प्रारंभ किया,पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में 15 सदस्यीय मंत्रिमंडल का गठन हुआ, इस प्रथम मंत्रिमंडल में विभिन्न विचारधारा के राजनेताओं को सम्मिलित किया गया।पश्चात मंत्रिमंडल से सदस्यों ने त्यागपत्र देकर विचारधारा के आधार पर राजनीतिक दल गठित किए।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ, डॉक्टर बी आर अंबेडकर ने शेड्यूल कास्ट फेडरेशन, को पुनर्गठित किया जो रिपब्लिकन पार्टी के नाम से स्थापित हुई, आचार्य कृपलानी ने मजदूर प्रजा परिषद, जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया ने सोशलिस्ट पार्टी, और सी राजगोपालाचारी ने स्वतंत्र पार्टी का गठन किया।
विचारधारा के आधार पर गठित राजनीतिक दल शनै:शनै: विघटित होते रहे, अथवा कुछ दलों का प्रभाव केवल कुछ क्षेत्र विशेष, जाति विशेष, अथवा संप्रदाय विशेष तक सीमित रह गया| राजनीतिक दलों की परिवार केंद्रित अथवा व्यक्ति केंद्रित रूप में पहचान स्थापित हुई,व्यक्ति केंद्रित क्षेत्रीय दलों का अभ्युदय हुआ,साथ ही दल की विचारधारा,अथवा दल के प्रति निष्ठा नहीं अपितु व्यक्ति विशेष के प्रति निष्ठा की प्रमुख भूमिका होने लगी।
वर्तमान परिदृश्य मे नैतिकता का पाठ भूलकर राजनीतिक दलों का लक्ष्य केवल और केवल सत्ता प्राप्ति का ही रह गया है, और सत्ता प्राप्ति के लिए उन्हें अपनी विचारधारा से समझौता करने, गठबंधन को तोड़कर नया गठबंधन बनाने, और हॉर्स ट्रेडिंग को बढ़ावा देने में भी कोई परहेज नहीं रह गया।
निर्वाचन संसदीय प्रणाली का महत्वपूर्ण अंग है, निर्वाचन की प्रक्रिया में जनता के हर वर्ग का योगदान होना आवश्यक है,आम निर्वाचन वर्ष1952,वर्ष1957,वर्ष1962 तक नेहरू के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रति जनता निरंतर अपना विश्वास प्रकट करती रही, किंतु 1967 के चुनाव में पंडित जवाहरलाल नेहरू एवं लाल बहादुर शास्त्री के निधन के उपरांत अनेक राज्यों मैं कांग्रेस पार्टी केवल सरकार चलाने योग्य बहुमत पा सकी।
भारत की राजनीति में जन प्रतिनिधियों द्वारा अपने दल के प्रति निष्ठा परिवर्तित करते हुए दूसरे राजनीतिक दल में लाभ के लिए दल बदल करने की शुरुआत वर्ष1968-69 से प्रारंभ हुई,दल बदल करने का प्रमुख कारण प्रलोभन ही रहा है,और अभी भी है, प्रलोभन चाहे पद का हो या 'सामान' का।
दल बदलने वाली घटनाओं के लिए भारत की राजनीति में 'हॉर्स ट्रेडिंग' शब्द प्रचलन में आया और अब तो सामान्य रूप से एवं शब्द कोश में 'हॉर्स ट्रेडिंग' शब्द का प्रचलन दल बदल करने की घटनाओं से ही होता है|
घोड़ों को खरीदने बेचने के लिए वैसे तो हॉर्स डीलिंग शब्द का उपयोग होता रहा,किंतु घोड़ों के मूल्य को आकने और घोड़ों को बेचने में बेईमानी के अवसर अधिक रहने के कारण घोड़ों की खरीद-फरोख्त को 'हॉर्स ट्रेडिंग' कहते हैं,क्योंकि इसमें चालाकी पूर्ण,गुप्त,छल पूर्वक,लाभ उठाने के अवसर रहते हैं।
यद्यपि हॉर्स ट्रेडिंग का शाब्दिक अर्थ घोड़ों की खरीद-फरोख्त है जो बहुत सम्मान जनक तो कदापि नहीं है किंतु दल बदल करने वाले जन प्रतिनिधियों के लिए' हॉर्स ट्रेडिंग' शब्द का प्रयोग उपयुक्त ही प्रतीत होता है।
दल बदल करके व्यक्तिगत लाभ प्राप्त करने,बिना जनादेश के दल बदल कर के बहुमत प्राप्त सरकार को अल्पमत में परिवर्तित कर सत्ता प्राप्त करने की 1967-68 मैं हुई शुरुआत को कुछ राजनीतिज्ञ जन भावना के अनुरूप इस विकृति को दूर करने का प्रयास करते रहे, फलस्वरूप विलंब से ही सही वर्ष 1985 में राजीव गांधी के नेतृत्व में प्रतिपक्षी दलों की सहमति से संविधान में दसवीं अनु सूची जोड़कर दल बदल की विकृति को रोकने का प्रथम बार प्रभावी प्रयास हुआ।
संविधान की दसवीं अनु सूची और इसके अंतर्गत बनाए गए नियमों से“घोड़ों की खरीद-फरोख्त”में कुछ कमी अवश्य आई लेकिन फिर भी कानून मैं ख़ामियों को ढूंढ कर खरीद-फरोख्त का सिलसिला जारी रहा,सरकारें बनती बिगड़ती रही और स्थिति यह हुई कि विधानसभा की सदस्य संख्या के 30 से 40% सदस्य मंत्री पदों की शोभा बढ़ाने लगे छोटी विधान सभाओं में तो सत्ताधारी दल के कुछ अभागे ही विधायक,मंत्री पद प्राप्त नहीं कर पाते थे।
दल बदल कानून की ख़ामियों को दूर करने और इसे और अधिक सख्त बनाने हेतु अटल बिहारी बाजपेई के नेतृत्व में संविधान एवं संविधान की दसवीं अनु सूची को वर्ष 2003 में संशोधित किया गया, संविधान की धारा 75(1)लोकसभा के लिए तथा164(1) एक राज्य विधान सभाओं के लिए को संशोधित कर मंत्रिमंडल का आकार लोकसभा/विधानसभा की सदस्य संख्या का अधिकतम 15% तक सीमित किया गया, वही दसवीं अनु सूची को संशोधित कर विभाजन के लिए1/3सदस्य संख्या के स्थान पर 2/3सदस्य संख्या निर्धारित की गई वर्ष 2003 के इस संशोधन से दल बदल की घटनाओं में कुछ विराम तो लगा, लेकिन,येन केन प्रकारेण सत्ता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए राजनीतिक दलों ने समय-समय पर दल बदल कानून का निर्वचन,कानून की मूल भावना एवं उद्देश्य को विस्मृत करते हुए करना प्रारंभ किया ।
संविधान की दसवीं अनु सूची और उसके अंतर्गत बनाए गए नियमों के प्रावधानों के अंतर्गत दल बदल कानून आकृष्ट होने संबंधी अर्जियाँ अध्यक्ष विधानसभा के समक्ष प्रस्तुत होने पर :-
1. राजनीतिक दल में विभाजन कब अर्थात किस तिथि को हुआ माना जाए ?
2.विभाजन एक बार की घटित घटना है? या कुछ समय तक चलने वाली प्रक्रिया है?जब प्रक्रिया रुकेगी,तब दल बदल के प्राप्त आवेदन पर अध्यक्ष निर्णय देंगे?
3.आवेदन के निपटारे की समय सीमा निर्धारित नहीं है।
फलत: दल बदल होने पर दल बदल कानून के अंतर्गत अध्यक्ष को प्राप्त अर्जियाँ सालों साल तक सत्ताधारी दल को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से अनिर्णय की स्थिति में लंबित रखी जाने लगी।
हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने मणिपुर के एक मामले में दल बदल कानून और अध्यक्षों के अधिकार पर पुनर्विचार करने, दल बदल कानून को संशोधित करने संबंधी टिप्पणी की है, जो आज की राजनीति और राजनीतिज्ञों के लिए विचारणीय है।.
विगत कुछ माह में कुछ राज्यों में तो निर्वाचित जन प्रतिनिधियों ने “जनमत/जनादेश का संहार” करने में भी परहेज नहीं किय| दल बदल कानून की गिरफ़्त में आने से बचते हुए,सत्ता प्राप्ति के लिए, सभा में बहुमत प्राप्त दल को अल्पमत मैं लाने का और अल्पमत को बहुमत में बदलने का एक नायाब तरीका “विधायक पद से इस्तीफ़ा” जिसका प्रयोग सत्ता प्राप्ति के लिए विगत कुछ माह में कर्नाटक,मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में किया गया।
मध्य प्रदेश मैं आम निर्वाचन दिसंबर 2018 में जनमत के फैसले के अनुरूप भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को सबसे बड़े दल (114स्थान)और बसपा, सपा तथा निर्दलीय कुल 7 विधायकों का समर्थन प्राप्त होने के कारण माननीय राज्यपाल ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विधायक दल के नेता को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया और सात अन्य विधायकों का समर्थन प्राप्त होने पर फ्लोर टेस्ट में बहुमत सिद्ध करते हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सरकार गठित हुई।
आश्चर्यजनक घटनाक्रम में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सरकार के पांच मंत्रियों सहित कुल 22 विधायक ने “जनमत/जनादेश का संहार” करते हुए विधायक पद से इस्तीफ़े दिए, फल स्वरूप पूर्व में रिक्त 2 स्थान सहित 230 सदस्यों वाली विधानसभा में 24 स्थान रिक्त हो गए और जब तक रिक्त स्थानों के लिए निर्वाचन नहीं हो जाता, ततसमय की विधानसभा की प्रभावी संख्या(206 सदस्य) के आधार पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अल्पमत में (92सदस्य)और भारतीय जनता पार्टी (107सदस्य) का प्रभावी संख्या के आधार पर बहुमत हो गया,इस छद्म बहुमत से भारतीय जनता पार्टी की सरकार गठित हुई।
निश्चित तौर पर यह दल बदल कानून की परिधि के बाहर का मामला है जिसमें दल बदल कानून के प्रावधान आकृष्ट नहीं होते।
प्रश्न यह है कि यह दल बदल नहीं है तो फिर क्या है?क्या भाजपा का सदन में फ्लोर टेस्ट के पश्चात प्राप्त बहुमत,जनता द्वारा दिए गए “जनमत/जनादेश” की भावना के अनुरूप है? क्या यह 'जनमत/जनादेश' की अवज्ञा नहीं है?
निर्वाचित जन प्रतिनिधि,संसदीय प्रणाली की रीढ़ हैं, निर्वाचन के पश्चात उनका आचरण एवं व्यवहार “जनमत/जनादेश” की भावना के अनुरूप होना चाहिए,तभी यह संसदीय प्रणाली पुष्पित पल्लवित और सुदृढ़ हो सकती है,सत्ता प्राप्त करने के प्रलोभन से दल बदल करने जैसी बुराई को विगत 50 वर्षों में हम पूरी तरह समाप्त भी नहीं कर पाए थे कि 'जनमत/ जनादेश' का संहार करते हुए सत्ता प्राप्ति की इस नई विधा ने दल बदल कानून को निष्प्रभावी कर दिया |
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली को अपनाएं हुए,अभी लगभग 68 वर्ष हुए हैं,ऐसा प्रतीत होता है, कि इस प्रणाली के एक महत्वपूर्ण तत्व,जन प्रतिनिधि एवं राजनीतिक दलो की आस्था एवं विश्वास अभी भी संसदीय प्रणाली पर पूर्णत: स्थापित होना शेष है।
यही कारण है कि जनता द्वारा जिस राजनैतिक दल एवं उसके कार्यक्रम के प्रति विश्वास व्यक्त किया जाता है, जन प्रतिनिधि यदि उसका त्याग करता है, तो वह जनमत/जनादेश के साथ विश्वासघात ही कहलायेगा, चाहे वह वैयक्तिक हो या सामूहिक।
जन प्रतिनिधि को यह समझना होगा कि वह, जनमत/जनादेश का प्रतिनिधित्व करने वाला प्रतिनिधि मात्र है, और उसका यह दायित्व है कि जनता ने जो जनमत/जनादेश दिया है, वह संविधान एवं इसके अंतर्गत निर्मित विधियों के अनुरूप अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें।
जनमत/जनादेश की अवज्ञा सत्ता प्राप्ति अथवा अपने व्यक्तिगत स्वार्थ, के लिए किया जाना संसदीय प्रणाली के लिए घातक है।
यहां इस देश के सबसे लोकप्रिय और संसदीय प्रणाली एवं परंपराओं के प्रति गहरी आस्था रखने वाले पंडित अटल बिहारी बाजपेई के वर्ष 1995 में 13 दिन की सरकार के अंतिम दिन लोकसभा में दिए गए भाषण के कुछ अंश उद्धृत कर रहा हूं :-
“मुझ पर आरोप लगाया गया है और यह आरोप मेरे हृदय में घाव कर गया है,आरोप यह है कि मुझे सत्ता का लोभ हो गया है ……...जनता दल के मित्रों के साथ, मैं सत्ता में भी रहा हूं कभी हम सत्ता के लोभ से गलत काम करने के लिए तैयार नहीं हुए………... लेकिन पार्टी तोड़कर सत्ता के लिए नया गठबंधन करके अगर सत्ता हाथ में आती है तो मैं ऐसी सत्ता को चिमटे से भी छूना पसंद नहीं करूंगा”
विगत कुछ वर्षों से देश में दल बदल कानून में संशोधन/ बदलाव पर भी निरंतर विचार विमर्श चल रहा है, विधायकों द्वारा इस्तीफ़े दिए जाने के परिपेक्ष में अब केवल दल बदल कानून नहीं अपितु निर्वाचन विधि में भी संशोधन की आवश्यकता प्रतीत होती है|
दल बदल कानून/ निर्वाचन विधि मैं संशोधन के कुछ प्रारंभिक सुझाव :-
1 दल बदल कानून में यह स्पष्ट परिभाषित हो कि जो सदस्य किसी दल के चुनाव चिन्ह पर जीत कर यदि सदस्यता से त्यागपत्र देकर किसी दूसरे दल में सम्मिलित होता है,तो वह विधानसभा की उस अवधि में जिसके लिए वह निर्वाचित हुआ है किसी अन्य दल के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ने के अयोग्य होगा।किंतु वह निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ सकेगा।
2 ऐसा सदस्य विधानसभा की उस अवधि में जिसके लिए वह निर्वाचित हुआ है, सरकार में किसी भी प्रकार के पद को ग्रहण करने के लिए अयोग्य होगा।
3 कोई भी राजनीतिक दल, दल छोड़ने वाले सदस्य को विधानसभा की उस कार्यकाल की अवधि में अपने दल की सदस्यता नहीं देंगे ,तथा आगामी एक कार्य कल तक अपने दल का प्रत्याशी नहीं बनाएँगे। इस हेतु दल द्वारा यह घोषणा पत्र भी प्रत्याशी के नामांकन के साथ संलग्न करना होगा।
4 सदस्यता से इस्तीफ़ा देने वाले सदस्य से, उसके निर्वाचन में चुनाव आयोग द्वारा होने वाले व्यय की वसूली की जाएगी, साथ ही साथ ही प्रत्याशी द्वारा जितना व्यय किया गया है उसके समतुल्य राशि भी अर्थ दंड के रूप में वसूली जावेगी ।
प्रजातांत्रिक व्यवस्था में संसदीय प्रणाली की सफलता के लिए राजनीति में नैतिकता तथा राजनीतिक दलों एवं जन प्रतिनिधियों के द्वारा जनमत /जनादेश का सम्मान मूल तत्व है।
(देवेंद्र वर्मा, पूर्व प्रमुख सचिव, छत्तीसगढ़ विधानसभा)
शब्दों की खिलवाड़ दिलचस्प होती है। प्रथम और प्रधान सेवक के भारत घर की देखभाल शाह के सुपुर्द है। शाह के ब्रह़मास्त्र हैं-नौकरशाह। आम फहम बोली में-बाबू। अमित अधिकार प्राप्त भारतीय प्रशासनिक सेवा और पुलिस सेवा वाले अपने इलाके के शाह नहीं, शहंशाह होते हैं। देश भर में इन दिनों वर्ष 1984 के आईएएस अफसरों की बादशाहत चल रही है। केन्द्रीय गृह सचिव अजय कुमार भल्ला और वित्त सचिव अजय भूषण पांडे हैं। महाराष्ट्र संवर्ग के नौकरशाहों की बादशाहत राष्ट्र से महाराष्ट्र तक पसरी है। वित्त सचिव पांडे महाराष्ट्र केडर से हैं। एक जुलाई को महाराष्ट्र के मुख्य सचिव का दायित्व संजय कुमार और मुख्यमंत्री के प्रधान सलाहकार का पद निवर्तमान मुख्य सचिव अजोय मेहता संभालेंगे। कुछ और अजय देश मेंं महत्त्वपूर्ण पदों पर हैं। 1984 बैच में संजय नाम के अफसरों की भरमार थी। मीरा कुमार के सचिव रहे संजय कुमार को अपने गृह राज्य में महत्वपूर्ण दायित्व सौंपे गए। मसूरी में प्रशिक्षण के दौरान संजय की पुकार पर कितना घोटाला होता होगा? अंदाज लगा सकते हैं।
हे ईश्वर,माफ करना
बहुत समय नहीं हुआ, जब ईमानदारी के फरिश्तों की बदौलत कोयले के दलाल अदालतों और जेल की परिक्रमा कर रहे थे। आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ते देश के लिए कोयला उत्खनन निजी क्षेत्र में कराना जरूरी हो गया है। स्वयं प्रधानमंत्री ने दिल्ली से तकनीक के सहारे निजी क्षेत्र को कोयला खानें देने देने का शुभारंभ किया। कोल इंडिया लिमिटेड के अध्यक्ष ने निजीकरण के पक्ष में आंकड़ा बताकर दावा ठोंका कि निजी क्षेत्र की घुसपैठ से कोल इंडिया अप्रभावित रहेगा। कोयला मंत्री प्रहलाद जोशी इतना बड़ा दावा करने की हिम्मत जुटाने के बजाय चुप्पी साधे रहे। कोयला कंपनी के धनबाद कार्यालय के समक्ष मज़दूरों ने निजीकरण के विरोध में प्रदर्शन किया। मजदूर नेता तथा राज्य के पूर्व मंत्री सहित 50 लोगों को पुलिस ने धर लिया। आंखों की लिहाज का जलवा देखिए।रिपार्ट कोयला कंपनी ने दर्ज कराई। पुलिस ने सफाई दी- कोरोना काल में तन दूरी, अजी वही-सुरक्षित दूरी का ध्यान नहीं रखने के कारण हिरासत में लिया गया। ये ही धारएं लगाईं। घोषित रूप से ईश्वर भक्त कोयला मंत्री और कोलकाता में विराजमान कोयले वाले अफसर पाप के भागी बनने से बचते रहे। ईसा मसीह महान थे। संवेदनशील थे। दयालु थे। उनके बयान में थोड़ा सा बदलाव कर मन ही मन कहते होंगे-हे ईश्वर, हमें माफ करना।
मारुति की रफ्तार को मात
कोरोना-काल में मास्क, सेनेटाइजऱ बनाने वालों के साथ ही सेक्युरिटी गार्ड उपलब्ध कराने वाले कमा रहे हैं। इसकी पुष्टि करने के लिए मुंबई के उत्तर भारतीय संघ के नेताओं से पूछने की जरूरत नहीं है। उन्हें बड़े ओहदे मिलना अपने आप में प्रमाण है। हरयाणवी मिज़ाज़ अलग है। गुडग़ांव का नाम बदल कर गुरुग्राम किया। पास ही मानेसर के मारुति कारखाने के करीब डेढ़ दर्जन सुरक्षा गार्ड संक्रमित पाए गए। गुड़ गोबर कर दिया। बाकी लोगों से अलग रखने यानी संगरोध की तैयारी की जा रही थी। नहीं समझे। क्वारेंटाइन में भेजना था। संक्रमण के मारे सुरक्षा रक्षक उडऩछू हो गए। पुलिस में रपट लिखवाई गई। पता लगा कि लापता हैं। अमित भाई के प्रादेशिक अवतार यानी हरियाणा के गृह मंत्री अनिल विज ने दूरदर्शिता दिखाई। गुरुग्राम का नाम बदले बगैर मुंबई बनाने में जुटे हैं। कैसे? मुंबई के कोरोना संबंधित हर कानून-कायदा, हर सख्ती को गुरुग्राम में लागू करेंगे। इन दिनों गुरुग्राम जाना लद्दाख में चीन से सटी नियंत्रण रेखा पार करने से अधिक कठिन है।
केसर क्यारी के लाल
आरोप लगाने वाले, लगता है, हड़बड़ी में रहते हैं। मणिपुर में पूर्व मुख्यमंत्री एवं नेता प्रतिपक्ष इबोबी सिंह ने बहुमत जुटाया। सीबीआई सक्रिय हुई। अमित भाई पर आरोप लगाने वाले यह जानकर चकित होंगे कि दल एवं विचार निरपेक्ष सीबीआई ने जम्मू-कश्मीर के पूर्व मंत्री लाल सिंह के विरुद्ध जांच शुरु कर दी है। कठुआ में आठ बरस की मासूम बच्ची की बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई। अभियुक्तों की हिमायत कर लाल सिंह सुर्खियों में थे। पार्टी के कुछ बलवान और नामवान नेता लाल सिंह के कवच बने थे। लाल सिंह की चौधराहट का जयकारा होता था। उनकी तारीफ में कसीदे पढ़े जाते थे। अब जोश ठंडा पड़ चुका है। कठुआ जिले में लाल सिंह की शिक्षण संस्था वन-भूमि पर कब्जा करने के आरोप में घिरी है। वर्ष 2015 में संस्था के पदाधिकारी ने उच्च न्यायालय में फर्जी दस्तावेज़ जमा किए थे। इस में पता नहीं क्या जटिलता है जो जांच सीबीआई के सुपुर्द की गई? उस वक्त लाल सिंह जम्मू-कश्मीर की मुफ्ती सरकार में भाजपा खाते से मंत्री थे या नहीं? यह तो गोपनीय जानकारी होगी जिसकी जानकारी सीबीआई पता लगाए। लाल सिंह इन दिनों पार्टी छोड़ चुके हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्य मंत्री डा जितेन्द्र सिंह और लाल सिंह के रिश्ते जांच के दायरे में नहीं आते।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
1757 में प्लासी की लड़ाई के 50 साल बाद तक अंग्रेजों ने भारत की सामाजिक व्यवस्था को छुआ नहीं। पर जब यकीन होने लगा कि यहां उनको लंबा टिकना है तब अपने सेवक तैयार करने की जरूरत महसूस हुई।
1813 में कम्पनी के बजट में एक लाख रुपए शिक्षा के लिए रखे गए। कम्पनी सरकार को स्किल डेवलपमेंट करना था ताकि सस्ते पीए, मुंशी, स्टोरकीपर, अर्दली, मुंसिफ और डिप्टी कलेक्टर मिल सकें।
कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में यूनिवर्सिटी खुली। कलकत्ता यूनिवर्सिटी की जो पहली बैच के ग्रेजुएट निकले, उनमे बंकिमचन्द्र चटर्जी थे। वहीं सुजलाम सुफलाम, मलयज शीतलाम वाले .. । अंग्रेजी पढ़े छात्र आनन्दमठ लिखने लगे, तो खेल कम्पनी सरकार के हाथ से फिसलने लगा।
दरअसल इंडियंस ने अंग्रेजी पढ़ी, तो वैश्विक ज्ञान के दरवाजे खुले। नए-नवेले पढ़े-लिखे ने योरोपियन सोसायटी को देखा, उनके विचारकों की किताबें पढ़ीं। लिबर्टी, सिविल राइट, डेमोक्रेसी, होमरूल..जाने क्या-क्या।
कुछ तो लंदन तक गए, बैरिस्टरी छान डाली और अंग्रेजों को कानून सिखाने लगे। कुछ सिविल सर्विस में आ गए, कुछ ने अखबार खोल लिया। दादा भाई नोरोजी ब्रिटिश संसद में पहुंच गए। अधिकार मांगने लगे। सरकारों को जब जनता की समझ और ज्ञान से डर लगे तो लोगों को लड़वाना शुरू करती हैं। समुदायों को फेवर और डिसफेवर इसके औजार होते हैं।
1857 की क्रांति के लिए अंग्रेजों ने मुस्लिम शासकों को दोषी माना, और लगभग इग्नोर किया। हिन्दू राजे और बौद्धिकों पर सरकार के फेवर रहे। जनता के असंतोष के सेफ पैसेज के लिए एक सभा बनवा दी, जिसमें देश भर के सभी ज्ञानी-ध्यानी आते, अपनी मांग रखते, सरकार दो-चार बातें मान लेती।
सभा को इंग्लिश में कांग्रेस कहते हैं। सालाना बैठक को कांग्रेस का अधिवेशन कहा जाता। इस कॉंग्रेस में हिन्दू ज्यादा संख्या में थे। आबादी के हिसाब से स्वाभाविक था, पर जो अब तक राज में थे, उनमें कुंठा बढ़ी।
सैयद अहमद खान ने कौम को समझाया- अंग्रेजी पढ़ो, ब्यूरोक्रेसी में घुसो। वरना जो अपर हैंड पांच-सात सौ सालों से है, खत्म हो जाएगा। आज के लीडरान की तरह बात सिर्फ ज़ुबानी नहीं थी। एक कॉलेज खोला, शानदार जो अपने वक्त से काफी आगे का था। मुस्लिम जनता ने मदद की, मगर ज्यादा मदद नवाबों से आई। उच्चवर्गीय मुस्लिम और नवाब एक साथ आए।
नवाबों को इसका एक नया फायदा मिला। ताकतवर होती कांग्रेस में रियाया के लोग थे, कई मांगे ऐसी रखते थे जिनमें उनकी जेब कटती थी। सैय्यद साहब और उनके सम्भ्रांत साथी, नवाबों के हित-अहित से जुड़ी मांगों पर दबाव बनाते थे। 1906 आते आते उन्ही के बीच से मुस्लिम लीग बनी। ढाका नवाब चेयरमैन हुए, भोपाल नवाब सचिव। बंगाल विभाजन हुआ था। कांग्रेस बंग-भंग के विरोध में थी, लीग ने समर्थन किया। मुस्लिम अब अंग्रेजो के प्यारे हो चले थे।
रह गए हिन्दू राजे-रजवाड़े। कांग्रेस का फेवर पाते नहीं थे, अंग्रेज सुनते नहीं थे। अपना कोई जनसंगठन न था। कुछ करने की उनकी बारी थी। तो देश भर में कई छोटे-छोटे संगठन थे, जो हिन्दू पुनर्जागरण और सामाजिक सुधार कर रहे थे। बहुतेरी हिन्दू सभाएं-संस्थाएं थीं। जोडऩे वाला कोई चाहिए था। मिला-पण्डित मदन मोहन मालवीय।
पंडितजी ने अलीगढ़ से बड़ा, बेहतर, हिन्दू विश्वविद्यालय का बीड़ा उठाया था। जनता के बीच जा रहे थे। राजाओं ने खुलकर दान दिया, सभाएं करवाईं। मालवीय साहब पूरे देश में घूमे, हिन्दू संगठनों को एक छतरी तले लेकर आए। काशी हिन्दू विश्विद्यालय बना, और अखिल भारतीय हिन्दू महासभा भी बन गई। यह 1915 का वर्ष था। अब तीन संगठन अस्तित्व में आ चुके थे।
पहला, कामन पीपुल के लिए बात करने वाली कांग्रेस, जो सिविल लिबर्टी, इक्वलिटी, सेकुलरिज्म की बात करती थी। इसको ताकत जनता से मिलती थी, धन मध्यवर्ग के साथ नए जमाने के उद्योगपति व्यापारी पूंजीपतियों से मिलता था। इसके नेता भारत के भविष्य को ब्रिटेन के बर-अक्स देखते थे।
दूसरी ताकत, मुस्लिम समाज, उसके धार्मिक सांस्कृतिक विशेषाधिकार की पैरोकार मुस्लिम लीग, जिसकी ताकत मुस्लिम कौम थी, और फंडिग नवाबों, निजामों की थी। ये भारत का सपना उस मुगलकाल के बर-अक्स देखते थे, जिसमे सारी ताकत उनके हाथ मे थी।
तीसरी ताकत, हिन्दू समाज, उसके धार्मिक सांस्कृतिक विशेषाधिकार की पैरोकार और हिन्दू रजवाड़ों के हितों को ध्यान रखने करने वाली महासभा थी। जिसके लिए भारत का भविष्य मौर्य काल से लेकर शिवाजी की हिन्दू पादशाही के बीच झूलता था। फंडिंग तमाम किंग्स और संरक्षण सिंधिया जैसे राजाओं की थी। यही कारण है कि स्वतंत्र राजपूताना और स्वत्रंत ट्रावणकोर के पक्ष में लिखी चि_ियां आज भी दिख जाती हैं।
आगे चलकर अंग्रेज चुनावी सुधार करते हैं, सत्ता में भागीदारी खुलनी शुरू हो जाती है। मार्ले मिंटो सुधार और 1935 के इंडिया गवर्नेस एक्ट के आने के साथ, तीनो प्रेशर ग्रुप चुनावी दलों के रूप में तब्दील हो जाते हैं।
समय के साथ नए नेता इन संगठनो की लीडरशीप लेते हैं। ये गांधी, जिन्ना और सावरकर की धाराएं हो जाती हैं। दो धाराएं देश की घड़ी को, अपने अपने तरीके से पीछे ले जाना चाहती थी, एक आगे की ओर...। पीछे ले जाने वाली धाराएं मिलकर विधानसभाओं में मिलकर सरकारें बनाती हैं, और सडक़ों पर अपने समर्थकों से दंगे भी करवाती हैं। सत्ता की गंध से संघर्ष में खून का रंग मिल जाता है।
1947 में इस रंग ने भारत का इतिहास ,भूगोल, नागरिकशास्त्र, सब बदल दिया। एक धारा पाकिस्तान चली गयी, मगर अवशेष बाकी है। दूसरी सत्ता में बैठे बैठे सड़ गई, उसके भी अवशेष ही बाकी हैं। तीसरी पर गांधी के लहू के छींटे थे। बैन लगा, तो चोला बदल लिया, नाम बदल लिया। अब ताकत में हैं, तो इतिहास की किताबें बदल रहे है। अजी हां, स्किल डेवलमेंट पर भी फोकस है। उन्हें भी सोचने वाले दिमाग नहीं, आदेश सफाई से पूरा करने वाले हाथ चाहिए।
उधर कलकत्ता, अलीगढ़ और बनारस की यूनिवर्सिटीज आज भी खड़ी हैं। लेकिन हिंदुस्तान का मुस्तकबिल बनाने वाले छात्र नदारद हैं। वे व्हस्ट्सप यूनिवर्सिटी में दाखिला ले रहे हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आज नरसिंहरावजी का 99 वां जन्मदिन है। मैं यह मानता हूं कि अब तक भारत के जितने भी प्रधानमंत्री हुए हैं, उनमें चार बेजोड़ प्रधानमंत्रियों का नाम भारत के इतिहास में काफी लंबे समय तक याद रखा जाएगा। इन चारों प्रधानमंत्रियों को अपना पूरा कार्यकाल और उससे भी ज्यादा मिला। ये हैं, जवाहरलाल नेहरु, इंदिरा गांधी, नरसिंहराव और अटलबिहारी वाजपेयी। भारत के पहले और वर्तमान प्रधानमंत्री के अलावा सभी प्रधानमंत्रियों से मेरा कमोबेश घनिष्ट परिचय रहा और वैचारिक मतभेदों के बावजूद सबके साथ काम करने का अनुभव भी मिला। अटलजी तो पारिवारिक मित्र थे लेकिन नरसिंहरावजी से मेरा परिचय 1966 में दिल्ली की एक सभा में भाषण देते हुआ था। उस सभा में राष्ट्रभाषा उत्सव मनाया जा रहा था। मैंने और उन्होंने कहा कि हिंदी के साथ-साथ समस्त भारतीय भाषाओं का उचित सम्मान होना चाहिए। यह बात सिर्फ हम दोनों ने कही थी। दोनों का परस्पर परिचय हुआ और जब राव साहब दिल्ली आकर शाहजहां रोड के सांसद-फ्लेट में रहने लगे तो अक्सर हमारी मुलाकातें होने लगीं।
हैदराबाद के कुछ पुराने आर्यसमाजी और कांग्रेसी नेता उनके और मेरे साझे दोस्त निकल आए। जब इंदिराजी ने उनको विदेश मंत्रालय सौंपा तो हमारा संपर्क लगभग रोजमर्रा का हो गया। मैंने जवाहरलाल नेहरु युनिवर्सिटी से अंतरराष्ट्रीय राजनीति में ही पीएच.डी. किया था। पड़ौसी देशों के कई शीर्ष नेताओं से मेरा संपर्क मेरे छात्र-काल में ही हो गया था।
अंतरराष्ट्रीय मसलों पर इंदिराजी, राजा दिनेशसिंह और सरदार स्वर्णसिंह (विदेश मंत्री) से मेरा पहले से नियमित संपर्क बना हुआ था। उनकी पहल पर मैं कई बार पड़ौसी देशों के राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों से मिलने जाया करता था। नरसिंहरावजी के जमाने में यही काम मुझे बड़े पैमाने पर करना पड़ता था। जिस रात राजीव गांधी की हत्या हुई, पीटीआई (भाषा) से वह खबर सबसे पहले हमने जारी की और सोनियाजी और प्रियंका को मैंने खुद 10-जनपथ जाकर यह खबर घुमा-फिराकर बताई। मैं उन दिनों ‘पीटीआई-भाषा’ का संपादक था। उस रात राव साहब नागपुर में थे। उनको भी मैंने खबर दी। दूसरे दिन सुबह हम दोनों दिल्ली में उनके घर पर मिले और मैंने उनसे कहा कि अब चुनाव में कांग्रेस की विजय होगी और आप प्रधानमंत्री बनेंगे। राव साहब को रामटेक से सांसद का टिकिट नहीं मिला था। वे राजनीति छोडक़र अब आंध्र लौटनेवाले थे लेकिन भाग्य ने पलटा खाया और वे प्रधानमंत्री बन गए। हर साल 28 जून की रात (उनका जन्मदिन) को अक्सर हम लोग भोजन साथ-साथ करते थे। 1991 की 28 जून को मैं सुबह-सुबह उनके यहां पहुंच गया, क्योंकि रामानंदजी सागर का बड़ा आग्रह था। राव साहब सीधे हम लोगों के पास आए और बोले ‘‘अरे, आप इस वक्त यहां ? इस वक्त तो ये बेंड-बाजे और हार-फूलवाले प्रधानमंत्री के लिए आए हुए हैं।’’ राव साहब पर प्रधानमंत्री पद कभी सवार नहीं हुआ। उन्होंने भारत की राजनीति विदेश नीति और अर्थनीति को नयी दिशा दी। पता नहीं, उनकी जन्म-शताब्दि कौन मनाएगा और वह कैसे मनेगी?
(नया इंडिया की अनुमति से)
पहले ही स्वीकार करूँ, मैं कृष्णा सोबती के नजदीकियों में कतई नहीं था मगर उनके साथ कुछ खट्टे-मीठे अनुभवों का साझीदार रहा हूँ। खट्टे इतने खट्टे भी नहीं थे कि उनमें आम जैसी मिठास न घुली हो और रिश्तों में हमेशा के लिए कड़ुवाहट पैदा हो जाए।
यूँ तो मेरी पीढ़ी का साहित्य का कौन सा गंभीर पाठक उन्हें बहुत शुरू से न जानता रहा हो, उसने उन्हें पढ़ा न हो। मैंने भी छात्र जीवन से ही उन्हें पढऩा शुरू किया था।दिल्ली आया तो जब नौकरी की तलाश में इधर-उधर भटक रहा था तो कुछ तो उनके प्रति अपना सम्मान प्रकट करने के लिए और कुछ नौकरी में सहायक बन सकने की व्यर्थ आशा इधर- उधर भटकाती रहती थी, उस आशा में भी उनसे मिला था, हालांकि याद आता है, मैंने इसका जिक्र उनसे नहीं किया था। तब वह दिल्ली के पुराने सचिवालय के परिसर में बैठती थीं। फिर यदाकदा उनसे नमस्कार, कैसी हैं, कैसे हैं, होता रहा।फिर संयोग कि वह हमारे पड़ोस में ही रहने आ गईं। पहले हिन्दुस्तान टाइम्स अपार्टमेंट में और बाद में पूर्वाशा अपार्टमेंट में। वह शाम के समय बाजार में कुछ सौदासुलूफ लेती दिख जाती थीं। कभी हम पति-पत्नी होते और कभी पत्नी अकेली जातीं तो उनसे भी बहुत मजे- मजे से बात करतीं। हमें घर भी बुलातींं। हम दोनों दो-तीन बार उनके यहाँ गए भी। उन्होंने खूब बातें कीं। मैं भी अलग से गया हूँ। हर बार खानेपीने की बढिय़ा चीजें पेश की जातीं। अकेले गया तो रसरंजन भी करवाया।उनके यहाँ खानेपीने की उम्दा चीजें ही होती थीं। धीमे सुर में बातें करने का उनका अंदाज़ था। संस्मरणों का उनके पास खजाना था। हाँ कभी इतने धीमे बोलती थीं कि बीच में कुछ ऐसा भी रह जाता था,जो पूरी तरह समझ में नहीं आता था। वह बीच- बीच में खुलकर ठहाका भी लगातीं मगर ऐसा नहीं कि पूरा घर ठहाकों से गूँज जाए। घंटे -दो घंटे मजे से बीतते। ऐसा शायद कभी नहीं हुआ कि उन्होंने खुद अपनी रचनाओं की बात की हो। अंत के कुछ महीनों में उनसे मुलाकातें नहीं हुईं। कभी पता चलता, वह अस्पताल में हैं, कभी उनका स्वास्थ्य साथ नहीं देता था कि मुलाकात हो सके।
उन्होंने आज की स्थिति पर दो लंबे आलेख लिखे थे,जो ओम थानवी के संपादन में, जनसत्ता, में बहुत सम्मान के साथ खबर की तरह महत्व देते हुए पहले पृष्ठ पर छपे थे। ये आलेख उन्होंने पूरे साहस के साथ लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष मूल्योंं की हिफाजत में लिखे थे। अशोक वाजपेयी-थानवी के संयुक्त आयोजन में मावलंकर हाल में जो दो विशाल सभाएँ हुईं, उसमें से एक में उन्हें तिपहिया साइकिल से मंच पर ले जाया जाते देखा था। वहाँ से उन्होंने अपना लिखित वक्तव्य पढ़ा। इसके समाप्त होने के बाद खचाखच भरे हाल में लोगों ने खड़े होकर करतलध्वनि से बड़ी देर तक उनका जो स्वागत और सम्मान किया, वह अप्रतिम था। मैंने कभी किसी भी लेखक का इस तरह का सम्मान नहीं देखा।वे कुछ मिनट हमेशा यादगार रहेंगे।
अब कुछ खट्टे अनुभव, उनकी मिठास के साथ।तब मैं हुआ करता था, कादम्बिनी, का कार्यकारी संपादक मगर मेरी संपादक मृणाल पांडेय ने पहले ही दिन से यह स्पष्ट कर दिया था कि आप समझिए कि आप ही इसके संपादक हैं। खैर मैंने सोबतीजी से एक बार कहा कि आप हमारे लिए कोई संस्मरण लिखिए। वह राजी हो गईं।उसे अगले ही अंक में जाना है, इस आग्रह के साथ उनसे लिखने के लिए कहा था और वह तारीख भी बताई थी, जब तक वह लिख सकें तो आगामी अंक में हम छाप सकेंगे। जहाँ तक याद आता है 17 तारीख तक अगला अंक तैयार होकर संपादकीय विभाग की ओर से प्रेस में चला जाता था और उसी महीने की 25-26 तारीख तक छपकर बाजार में आ जाता था। मैंने अंदाजन कुछ पेज सोबती जी के संस्मरण के लिए छोड़ रखे थे मगर उनका संस्मरण मिला-अंक छूट जाने के बाद।
व्यावसायिक पत्रिकाओं की अपनी मजबूरियाँँ होती हैं, वह संस्मरण उस अंक में न जा सका और मुझसे यह चूक हुई कि मैं सोबती जी को यह बता न सका। बता देता तो शायद मामला सुलझ जाता या संभव है, तब भी न सुलझता।जब अंक उनके पास गया तो उन्होंने देखा, वह संस्मरण नदारद है। शाम को उनका फोन आया कि वह छपा नहीं। मैंने कारण समझाया और कहा कि विलंब से मिला, इसलिए अगले अंक में छपेगा। काफी समझाने पर वह मान गईं, हालांकि अमृता प्रीतम से उपन्यास के नाम में, जिंदगीनामा, शब्द के इस्तेमाल पर लंबी कानूनी लड़ाई में उलझीं सोबतीजी को आशंका यहाँ तक थी कि इसे अमृताजी ने रुकवाया होगा।मेरी अमृता जी से न जीवन में कभी मुलाकात हुई, न उन्हें देखा कभी। इच्छा ही पैदा नहीं हुई। न अमृता जी के पास ऐसा जासूसी तंत्र रहा होगा कि वह जान सकें कि कादम्बिनी में क्या छपने जा रहा है। यह बात सोबती जी को बताई भी। यह लंबा-खर्चीला मुकद्दमा लडऩे से पैदा हुई थकावट और खीज रही होगी कि सोबती जी ने इस तरह भी सोचा।
खैर उस समय तो मान गईं, मैं उस रात चैन की नींद सोया। सुबह फिर उनका फोन आया,नहीं वह नहीं छपेगा। उन्हें फिर से समझाना व्यर्थ साबित हुआ। दुख तो बहुत हुआ मगर मैं बेबस था।वह छपा नहीं।
दूसरा वाकया तब हुआ, जब मैं, शुक्रवार, में था।मेरे पास एक फ्रीलांसर यह सुझाव लेकर आए कि वह लेखकों से बात कर एक सीरीज लिखना चाहेंगे कि इन दिनों वे क्या लिख -पढ़ रहे हैं। मैंने कहा, बढिय़ा है, लिखिए लेकिन हमारे एक पेज से अधिक नहीं, चूँकि यह बुनियादी रूप से राजनीतिक -सामाजिक पत्रिका है। शीर्षक और फोटो के बाद करीब आठ सौ शब्दों की गुंजाइश बचती है। वे लाए भी एक- दो लिखकर दूसरे कुछ लेखकों के बारे में मगर मैंने कहा कि पहले दो- तीन वरिष्ठ लेखकों से बात करके लिखकर लाइए, फिर हम इन्हें भी छाप देंगे।
उन्होंने सोबतीजी से संपर्क किया,वह राजी हो गईं। बहुत से लोग जानते हैं कि सोबती जी मुँहजबानी कुछ कह कर साक्षात्कारकर्ता पर सबकुछ नहीं छोड़ती थीं। फुलस्केप कागज पर बड़े-बड़े अक्षरों में खुद लिख कर देती थीं।उन्होंने लिखा, जो शुक्रवार, के तीन पेज का था। यह मेरी गलती ही थी मगर मैंने कहा इतना लंबा छापना तो मुश्किल है। शायद सोबती जी इसे छोटा कर दें। वैसे भी मुझे वह कुछ उलझा हुआ सा लगा था।वे हाँ करके गए मगर कुछ ऐसा हुआ कि सहयोगी, बिंदिया, पत्रिका की संपादक के पास गए तो उन्होंने वह आलेख पूरा छापना स्वीकार कर लिया और छाप दिया।वह अंक जब सोबती जी के पास पहुँचा तो वह मुझ पर आगबबूला हुईं कि मैंने तुम्हारी पत्रिका के लिए दिया था, तुमने, बिंदिया, पत्रिका को कैसे सौंप दिया? यह तुमसे किसने कहा था फिर सफाई दी कि इसमें मेरी कोई भूमिका नहीं है, मुझे स्वयं छपने पर पता चला है लेकिन वह विश्वास करें, तब तो!
उनके साथ हुई खटास कभी लंबी नहीं चली। पता नहीं कैसे और कब मिठास फिर लौट आई। उनसे मिलना होता रहा।उन्होंने राजकमल प्रकाशन से, जनसत्ता, में प्रकाशित आलेखों की दो पुस्तिकाएँ छपवाने से पहले उनके संपादन का दायित्व एक-एक कर मुझे सौंपा। मैंने यह काम स्वीकार तो कर लिया मगर बेहद डरते- डरते, बहुत जरूरी होने पर ही कलम चलाई, ताकि फिर कोई समस्या पैदा न हो मगर यह सच उन्हें बताया नहीं। बाद में एक बार मिलने पर उन्होंने किसी संदर्भ में कहा कि मैं जिसे संपादन का दायित्व देती हूँ, उसे पूरी स्वतंत्रता देती हूँ। मन ही मन मैं पछताया मगर मैंने उन्हें नहीं बताया कि मैं कितना डरा हुआ था।
एक बार, हंस, में विश्वनाथन त्रिपाठी और मेरी बातचीत छपी। उसके बाद उन्होंने मेरे घर दो टेबललैंप भिजवाए। एक मेरे लिए, एक त्रिपाठी जी के लिए।बिस्तर पर अधलेटा होकर देर रात को उसी की रोशनी में कई बार कुछ लिखता - पढ़ता रहता हूँ।
पश्चिम बंगाल में मई में आए अम्फान तूफान के बाद बाल विवाह के मामले तेजी से बढ़े हैं. बीते एक महीने के दौरान सरकार को ऐसी दो सौ शिकायतें मिली हैं.
-प्रभाकर
बंगाल पहले भी बाल विवाह के लिए सुर्खियों में रहा है. बीच में यह सिलसिला कुछ थम-सा गया था. लेकिन अब लॉकडाउन और खास कर अम्फान के बाद इसमें काफी तेजी आई है. कई मामले ऐसे हैं जिनकी शिकायत ही पुलिस प्रशासन तक नहीं पहुंची है.
कलकत्ता हाईकोर्ट ने पश्चिम बंगाल बाल अधिकार संरक्षण आयोग की एक रिपोर्ट के आधार पर बढ़ते बाल विवाह पर गहरी चिंता जताते हुए राज्य सरकार को इस बारे में हलफनामा दायर करने का निर्देश दिया है. आयोग ने बाल विवाह रोकने के लिए तीन हेल्पलाइन नंबर भी जारी किए हैं. जहां लड़कियां हाल विवाह के खिलाफ शिकायत कर सकती हैं.
बाल विवाहों के लिए बदनाम रहा है बंगाल
पश्चिम बंगाल खासकर लड़कियों के बाल विवाह के लिए पहले भी बदनाम रहा है. सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद इस पर ठोस तरीके से अंकुश नहीं लगाया जा सका है. नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस) की ताजा रिपोर्ट में इस मामले में बंगाल को अव्वल बताया गया था.
यह स्थिति तब है जब ममता बनर्जी सरकार ने बाल विवाह पर अंकुश लगाने के लिए कन्याश्री समेत कई योजनाएं शुरू की हैं. कलकत्ता हाईकोर्ट ने आयोग की ओर से दायर रिपोर्ट पर सुनवाई के दौरान कहा कि बचपन बचाओ आंदोलन ने भी हाल में सुप्रीम कोर्ट में दायर एक रिपोर्ट में अम्फान तूफान के बाद बंगाल में 136 बाल विवाह होने का दावा किया है. हाईकोर्ट की खंडपीठ ने सरकार से ऐसे मामले रोकने के लिए ठोस कदम उठाने का भी निर्देश दिया है.
राज्य सरकार क्या कर रही है
अदालत के निर्देश के बाद राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने हेल्पलाइन नंबर जारी करने के साथ ही राज्य में बढ़ते बाल विवाह पर अंकुश लगाने के लिए संबंधित पक्षों के साथ मिल कर एक ठोस रणनीति बनाने का फैसला किया है. आयोग में बाल विवाह और बाल तस्करी के मामले देखने वाले आयोग की विशेष सलाहकार सुदेष्णा राय बताती हैं, "हमें अब तक 198 शिकायतें मिली हैं. जांच के बाद इनमें से 134 शिकायतें सही पाई गईं. हमने शिकायत के आधार पर कार्रवाई करते हुए उत्तर 24-परगना जिले में 54 और दक्षिण 24-परगना जिले में बाल विवाह के 60 मामलों को रोकने में कामयाबी हासिल की है. हेल्पलाइन नंबर जारी करने के बाद आयोग को रोजोना औसतन चार शिकायतें मिल रही हैं.'
आयोग की अध्यक्ष अनन्या चटर्जी चक्रवर्ती कहती हैं, "हमने दो जून को हेलपलाइन शुरू की थी. उसके बाद अब तक बाल विवाह और बाल तस्करी की सैकड़ों शिकायतें मिल चुकी हैं. कोरोना की वजह से जारी लॉकडाउन औऱ अम्फान तूफान ने ज्यादातर लोगों का रोजगार छीन लिया है. ऐसे में बाल विवाह और तस्करी बढ़ना तय है.'
आयोग का कहना है कि बाल विवाह के ज्यादातर मामलों में लड़कियों को दूसरे शहरों में ले जाकर कोठों पर बेच दिया जाता है. लड़की के गरीब मां-बाप के पास इसकी जानकारी हासिल करने का कोई उपाय नहीं होता और डर के मारे वह लोग पुलिस के पास भी नहीं जाते.
अचानक क्यों आया उछाल
लेकिन आखिर अचानक बाल विवाह के मामले क्यों बढ़ रहे हैं? सुदेष्णा बताती हैं, "हमें अपनी तहकीकात के दौरान इसकी दो प्रमुख वजहों की जानकारी मिली है. लड़की के माता-पिता अपनी गरीबी के चलते बाल विवाह कर जिम्मेदारी-मुक्त होना चाहते है.
इसके अलावा कुछ मामलों में गरीबी से आजिज आकर उज्ज्वल भविष्य की उम्मीद में लड़की ही किसी के साथ भाग जाती है.” बाल अधिकार औऱ बाल तस्करी के मुद्दे पर काम करने वाले संगठनों का कहना है कि राज्य के ग्रामीण इलाकों में तो कम उम्र में विवाह की परंपरा बरसों से जारी है. लेकिन अब लाकडाउन ने लोगों का रोजगार छीन लिया है. ऊपर से रही-सही कसर अम्फान तूफान ने पूरी कर दी है. ऐसे में लोग लड़कियों का कम उम्र में ही विवाह कर रहे हैं.
ज्यादातर मामलों में लड़कियों या उसकी सहेलियां ही पुलिस-प्रशासन को बाल विवाह की सूचना देती रही है. लेकिन सामाजिक संगठन शक्तिवाहिनी के ऋषिकांत कहते हैं, "ज्यादातर मामले प्रशासन तक नहीं पहुंच पाते. यही वजह है कि बाल विवाह के मामले में पुलिस और दूसरे संगठनों के आंकड़ों में जमीन-आसमान का फर्क होता है.' आयोग की एक सदस्य बताती हैं, "बाल विवाह की ज्यादातर शिकायतें राज्य के उत्तर व दक्षिण 24-परगना, पूर्व व पश्चिम मेदिनीपुर, नदिया, मालदा और मुर्शिदाबाद जिलों से आ रही हैं. इस मामले में यह जिले पहले से ही बदनाम रहे हैं. अब कोविड-19 औऱ अम्फान की दोहरी मार से परिस्थिति और गंभीर हो गई है.'
राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग की सचिव संघमित्रा घोष कहती हैं, "यह मुद्दा बेहद संवेदनशील है. हम कोरोना महामारी और अम्फान तूफान जैसे दो विपदाओं के बीच में फंसे हैं. ऐसे में बाल विवाह और मानव तस्करी के मामले बढ़ जाते हैं. हम स्थानीय लोगों में इसके खिलाफ जागरुकता फैलाने का प्रयास कर रहे हैं.'
अम्फान तूफान की सीधी मार
राज्य सरकार को भी इस समस्या की गंभीरता का अहसास है. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अम्फान के बाद राहत कार्यो का जायजा लेने के लिए दक्षिण 24-परगना जिले के काद्वीप में बीती 23 मई को आयोजित बैठक में पुलिस से बाल विवाह औऱ मानव तस्करी के मामलों पर कड़ी निगरानी रखने का निर्देश दिया था. बावजूद इसके ऐसे मामले लगातार बढ़ रहे हैं.
गैर-सरकारी संगठन सेव द चिल्ड्रेन के उपनिदेशक (पूर्व) चित्तप्रिय साधु कहते हैं, "पश्चिम बंगाल में पहले से ही दूसरे राज्यों के मुकाबले ज्यादा बाल विवाह होते रहे हैं. नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस) की चौथी रिपोर्ट में कहा गया था कि 20 से 24 साल की 41 फीसदी महिलाओं का विवाह 18 साल से कम उम्र में ही हो गया था.' दक्षिण 24-परगना जिले में बाल विवाह और मानव तस्करी के मामले देखने वाली पुलिस अधिकारी काकोली घोष कुंडू बताती हैं, "हमें बाल विवाह की कई शिकायतें मिल रही हैं. कई मामलों में तो हमें कामयाबी मिल रही है. लेकिम लॉकडाउन खत्म होने के बाद ऐसी लड़कियों की तस्करी के प्रयास तेज होने का अंदेशा है.'
कोलकाता के प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय में समाज विज्ञान पढ़ाने वाली सुकन्या सर्वाधिकारी कहती हैं, "इतिहास गवाह है कि किसी बड़ी प्राकृतिक विपदा के बाद राज्य में बाल विवाह और बच्चों की तस्करी के मामले अप्रत्याशित रूप से बढ़ जाते हैं. वर्ष 1943 में बंगाल के भयावह अकाल के दौर में भी ऐसा ही हुआ था.'
भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम), कोलकाता में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे अनूप सिन्हा कहते हैं, "अम्फान के बाद ऐसे मामलों का तेजी से बढ़ना कोई आश्चर्यजनक नहीं है. गरीबी ही इस समस्या की मूल वजह है. ऐसे में सरकार की भूमिका बेहद अहम हो जाती है. ऐसे परिवारों की शिनाख्त कर पंचायतों के जरिए उनको आर्थिक सहायता पहुंचा कर समस्या की गंभीरत को काफी हद तक कम किया जा सकता है. कोई विकल्प नहीं होने की वजह से ही गरीब परिवार बाल विवाह का विकल्प चुन रहे हैं.” सिन्हा कहते हैं कि सरकार इस समस्या पर काबू पाने के लिए पंचायतों के साथ इलाके में सक्रिय गैर-सरकारी संगठनों की भी सहायता ले सकती है. हाईकोर्ट ने भी इस मामले में पंचायतों की भागीदारी की बात कही है. (dw.com)
-श्रवण गर्ग
सरकार के बदलते ही ‘आपातकाल’ की पीठ को नंगा करके जिस बहादुरी के साथ उसपर हर साल कोड़े बरसाए जाते हैं ,मुमकिन है आगे चलकर 25 जून को ‘मातम दिवस’ के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर मनाए जाने और उस दिन सार्वजनिक अवकाश रखे जाने की माँग भी उठने लगे।ऐसा करके किसी सम्भावित,अघोषित या छद्म आपातकाल को भी चतुराई के साथ छुपाया जा सकेगा। नागरिकों का ध्यान बीते हुए इतिहास की कुछ और निर्मम तारीख़ों जैसे कि 13 अप्रैल 1919 के जलियाँवाला हत्याकांड या फिर छः दिसम्बर 1992 की ओर आकर्षित नहीं होने दिया जाता है जब बाबरी मस्जिद के ढाँचे को ढहा दिया गया था और उसके बाद से देश में प्रारम्भ हुए साम्प्रदायिक विभाजन का अंतिम बड़ा अध्याय गोधरा कांड के बाद लिखा गया था।आश्चर्य नहीं होगा अगर सत्ता में सरकारों की उपस्थिति के हिसाब से ही सभी तरह के पर्वों और शोक दिवसों का भी विभाजन होने लगे।चारण तो ज़रूरत के मुताबिक़ अपनी धुनें तैयार रखते ही हैं।
आज जब आपातकाल को लेकर एक लम्बी अवधि की बरसी मनाई जा रही है और केवल इक्कीस महीनों के काले दिनों को ही बार-बार सस्वर दोहराया जा रहा है, कुछेक बातें उन इंदिरा गांधी के बारे में भी की जा सकती हैं जो आज की दुनिया के कई छुपे हुए तानाशाहों के मुक़ाबले ज़्यादा प्रजातांत्रिक थीं।हमें यह नहीं बताया जाता है कि अगर उनका मूल संस्कार ही तानाशाही का था तो फिर वे आपातकाल के हटने के केवल तीन साल बाद ही हुए चुनावों में इतने प्रचंड बहुमत के साथ वापस कैसे आ गईं !
क्या नागरिकों ने इस सम्बंध में अपना सोच और शोध सम्पन्न कर लिया है कि आपातकाल आख़िर ख़त्म कैसे हुआ होगा? सारे नेता तो जेलों में बंद थे ! तब क्या जनता अपने सरों पर कफ़न बांधकर सड़कों पर उतर आई थी ? क्या कोई अमेरिकी दबाव रहा होगा जिसके सामने वह इंदिरा गांधी जो बांग्लादेश की लड़ाई के वक्त नहीं झुकी थीं, जनवरी 1977 में झुक गई होंगी ? आपातकाल ख़त्म करने की घोषणा के पहले क्या वे तमाम कारण पूरी तरह से मिट गए थे जिनकी कि आड़ लेकर देश को त्रासदी में धकेला गया था ? अगर यह सब नहीं था तो फिर क्या कारण रहे होंगे ? हमें बताया क्यों नहीं जाता ?
राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने तब संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आंतरिक आपातकाल लगाने की इंदिरा सरकार की सिफ़ारिश पर हस्ताक्षर किए थे। देश में कथित तौर पर व्याप्त आंतरिक व्यवधान को आपातकाल लगाने का कारण बनाया गया था।याद पड़ता है तब इंडियन एक्सप्रेस में प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट अबु अब्राहम का एक कार्टून छपा था जिसमें दर्शाया गया था कि राष्ट्रपति की छवि का एक व्यक्ति नहाने के बड़े टब में खुले बदन बैठा हुआ है और बाथरूम का आधा दरवाज़ा खोलकर उससे किसी काग़ज़ पर हस्ताक्षर करवाए जा रहे हैं ।आपातकाल की घोषणा के बाद देश में जो कुछ भी हुआ वह उस समय के इतिहास में सिलसिलेवार दर्ज़ है ।पर जिन सवालों की ज़्यादा चर्चा नहीं की जाती या फिर होने नहीं दी जाती उनमें एक यह भी है कि अचानक से ऐसा क्या हुआ होगा कि 18 जनवरी 1977 को इंदिरा गांधी ने एक रेडियो प्रसारण के ज़रिए तत्कालीन संसद को भंग कर नए चुनाव कराए जाने की घोषणा कर दी।उसके बाद 21 मार्च 1977 को आपातकाल समाप्त भी हो गया।
आपातकाल की इस तरह से अचानक समाप्ति और चुनावों की घोषणा किसी भूकम्प से कम नहीं थी। जेलों में बंद या भूमिगत हो चुके विभिन्न दलों के नेता, अन्य निर्दलीय कार्यकर्ता और जनता इस राहत भरे समाचार के लिए बिलकुल ही तैयार ही नहीं थी। मानकर यही चला जा रहा था कि आपातकाल लम्बा चलने वाला है। जेलों में बंद कई नेता माफ़ी माँगकर और इंदिरा गांधी के बीस-सूत्रीय कार्यक्रम पर हस्ताक्षर करके बाहर आने लगे थे। कई ने पैरोल की अर्ज़ियाँ लगा रखीं थी। जनता भी ख़ुश थी कि ट्रेनें समय पर चल रही हैं और सीधे हाथ वाला भ्रष्टाचार कम हो गया है।पत्रकारों की टोलियाँ भी इंदिरा गांधी के निवास पर सेन्सरशिप का समर्थन करने पहुँचने लगीं थी। सर्वत्र शांति थी।इंदिरा गांधी चाहतीं तो आपातकाल को बढ़ाती रहतीं। न्यायपालिका सहित सब कुछ पक्ष में था।फिर क्या कारण रहा होगा?
इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल को ख़त्म करने के तब कई कारण गिनाए गए थे और उन पर यदा-कदा बहस भी होती रहती है।किताबें भी लिखी जा चुकी हैं।जिस एक बड़े कारण की यहाँ चर्चा करना उचित होगा वह यह है कि इंदिरा गांधी का मूल व्यक्तित्व प्रजातांत्रिक था।वे आपातकाल के कारण मिल रहे अपयश और अपकीर्ति से उसके लागू होने के कुछ ही महीनों में भयभीत हो गईं थीं। वे जनता से दूर नहीं होना चाहती थीं। उन्हें पक्की आशंका थी कि जिन चुनावों की वे घोषणा कर रही हैं उनमें वे हारने वाली हैं पर वे हार का सुख भी भोगने की इच्छा रखती थीं।उन्हें इस बात का भी कोई अनुमान नहीं था कि चुनावों में उनके हारने के बाद बनने वाली विपक्षी दलों की सरकार अपने ही अंतर्विरोधों के कारण इतने कम समय में गिर जाएगी और जब फिर से चुनाव होंगे (1980) वे ज़बरदस्त बहुमत के साथ फिर से सत्ता में आ जाएँगी। और क्या इस खुलासे पर भी आश्चर्य नहीं व्यक्त किया जाना चाहिए कि आपातकाल को समाप्त करने के फ़ैसले का संजय गांधी को भी पता इंदिरा गांधी के रेडियो प्रसारण से ही चला था।
आपातकाल लागू करना अगर देश में तानाशाही हुकूमत की शुरुआत थी तो क्या उसकी समाप्ति की घोषणा इंदिरा गांधी की उन प्रजातांत्रिक मूल्यों और परम्पराओं में वापसी नहीं थी जिनकी बुनियाद पंडित जवाहरलाल नेहरू ने रखी थी ? अब हमें अपने भविष्य के नेताओं से किस तरह के साहस की उम्मीदें रखनी चाहिए ? क्या वे कभी विपरीत परिस्थितियों में इंदिरा गांधी की तरह ही अपयश और अपकीर्ति से भयभीत होने का प्रजातांत्रिक साहस दिखा पाएँगे ?और अंत में यह भी कि अगर आपातकाल की दोषी दिवंगत प्रधानमंत्री मूलतः प्रजातांत्रिक नहीं होतीं तो क्या प्रियंका गांधी में अपने विरोधियों को इतनी ऊँची आवाज़ में चुनौती देने का नैतिक साहस होता कि :’मैं इंदिरा गांधी की पोती हूँ ?’ शायद बिलकुल नहीं।
ममता के मिजाज में सबको साथ लेकर चलने की चिंताजनक कमी
शीर्ष नेतृत्व का मूल्यांकन और सुधार करने की कोई स्वस्थ प्रथा तो अपने यहां है नहीं। होती तो यह साफ दिखाई देता कि ममता के मिजाज में जंग जीतने के बाद अक्सर सबको साथ लेकर राजकाज चलाने की क्षमता में चिंताजनक कमी दिखती है।
-मृणाल पाण्डे
बंगाल की शेरनी ममता बनर्जी की राजनीति एक गर्म राजनीति है जिसका झुकाव चुनाव सामने आते ही एक अचरज भरे तरीके से अपनी मुख्य प्रतिद्वंद्वी की ही तरह का हो जाता है। वही उग्र सड़क छाप नारेबाजी, वही दो-दो हाथ करने को अकुलाते कार्यकर्ता। बंगाल की जनता को वाम दलों के खिलाफ एक लंबा और खतरों भरा संघर्ष छेड़कर उनको सत्ता से दरबदर कराने वाली ‘दीदी’ से देश और बंगवासियों ने ढीली प्रशासनिक चूड़ियां कसने और आर्थिक निवेश की भागीरथी वापस लाने की बड़ी आस लगाई थी। इसीलिए बरसों तक एक आसान किंतु बांझ, आशावाद बेचते रहे वामदलों को 2011 में नकार दिया।
पर कोविड और हालिया साइक्लोन की मार से आज बंगाल बेहाल है। दीदी हमेशा की तरह आपदा देखकर तुरंत खुद सड़कों पर उतर आई हैं, लेकिन जनता, खासकर तटीय क्षेत्र के सुंदरबन इलाके और 24 परगना जिले के हालात बहुत बुरे हैं। इस सबके मद्देनजर बीजेपी को पक्की उम्मीद बंध रही है कि वह जिस तरह 2011 में वाम दलों के शासन के अंतिम 5 सालों में ‘पोरीबौर्तोन’ की खोज में बंगाल के सनातन विद्रोही मस्तिष्क को ममता ने तृणमूल की तरह मोड़ लिया था, उसी तरह रथी शाह और धनुर्धारी मोदी के जगन्नाथी रथ से रिझा कर बीजेपी बंगाल में भगवा नवोन्मेष, ‘हिंदू रेनेसां’ ले आएगी।
2014 तक बंगाल और असम- ये दो बड़े पूर्वी राज्य बीजेपी की जद से बाहर थे। जोड़तोड़ में माहिर बीजेपी के मुख्य रणनीतिकारों ने असम में कांग्रेस से खिन्न हेमंत बिस्व सरमा और तृणमूल से उखड़े मुकुल रॉय को पूर्वी भारत में अपनी सीटें बढ़ाने के लिए अपना खासउल खास क्षेत्रीय कमांडर बनाया। प्रयोग लह गया और बंगाल में 42 में से 18 लोकसभा सीटें बीजेपी ले उड़ी। तब से दीदी और केंद्र के बीच सौमनस्य घटता चला गया, पर निडर और करिश्माती जन नेता होते हुए भी ममता की शैली गर्जन-तर्जन भरी ही बनी रही और केंद्र से उनकी झड़पें संवाद का स्थायी हिस्सा बनी रही हैं।
ममता का अवतरण 2011 में जब वामपंथियों के सपनों का साम्यवादी राज्य उजड्ड कार्यकर्ताओं के कारनामों से विकृत फासिज्म का रूप लेने लगा तो हुआ। तब उनकी इसी शैली और निडर साफगोई ने भावुक बंगालियों को एक करंट की तरह छुआ और जन नेत्री के रूप में एक गैर कांग्रेसी, गैर भाजपाई क्षेत्रीय दुर्गा का मिथक उनके गिर्द रंग पकड़ने लगा। लेकिन लोकप्रियता की ऐसी अद्वितीय परिस्थितियां ही जाने क्यों जीत के बाद अक्सर हमारे जन नेताओं के मनोविश्व को असामान्य बना देती हैं। अजीब बात है कि जो लोकप्रिय नेता हर विशाल जनसमूह से इतनी आत्मीयता से बतियाते हैं, उनको निजी जीवन में किसी पर इतना भरोसा नहीं होता कि वे जनता से बेझिझक बात या अपने आलोचकों से खुली बहस कर उनके प्रतिवाद सहन करते हुए ठंडे तर्क संगत जवाब दें। ऐसे लोग तमाम दलगत या प्रशासकीय फैसले निजी अंत: प्रवृत्तियों के आधार पर ही लेते और उनको दबंगई से लागू कराते हैं। दुर्लभ बहुमत से दलों को सत्ता में लाने वाले नेतृत्व की पकड़ इधर कोविड की महामारी, पर्यावरण के घातक असामान्य बदलावों के बाद भी बदलती नहीं दिखती। उल्टे सारी ताकत अपने ही हाथों में थामने वाला नेतृत्व नीतिगत विचार-विमर्श ही नहीं, कानून और व्यवस्था से जुड़े नाजुक सरकारी फैसले भी दल तथा प्रशासनिक टीम के साथ बैठकर तय करने की बजाय मौखिक आदेशों से ही निबटा रहा है। जब भारी आपात्काल सामने खड़ा हो, सीमाएं सुलग उठी हों और पड़ोसी देशों की सेनाएं चीलों की तरह मंडरा रही हों, तो उस समय खलीफा हारून-अल-रशीद की तरह टीवी कैमरों के सामने भोंगा लगा जनता को संबोधित कर ऐसे नेता एक खतरनाक सतही तेजी से हर शत्रु को, वह विदेशी हो या दलगत, डपटते दिखते हैं। इससे नाटकीय खबरें भले बनती हों लेकिन न लोकतांत्रिक संस्थाओं का क्षय रुकता है, नहीं स्वास्थ्य कल्याण ढांचे या स्कूली शिक्षा बेहतर होती है।
विडंबना देखिए, जिस शैली ने कभी ममता के विश्वस्त रहे मुकुल रॉय को बीजेपी के खेमे में भेजा, बीजेपी की वही शैली उनको इतना खिन्न बना चुकी है कि (अगर कुछ विदेशी अखबारों की खबरें सही हैं तो) वह पुन: ममता दीदी के खेमे में जाने का मन बना रहे हैं। उनकी खिन्नता की मूल वजह यह है कि लोकसभा चुनावों में बीजेपी की सीटों में उम्मीद से अधिक बढ़ती करवाने के बाद भी सारा श्रेय पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष की झोली में गया। उनको कुछ छींटे भी नहीं मिले, तृणमूल के पुराने साथियों के बीच पार्टी विभीषण होने का अपयश कमाया सो कमाया। चलिए, यह भी समय के साथ समझदार लोग झेल लेते हैं। लेकिन जब राज्य बीजेपी की अध्यक्षता का ताज देने की बारी आई, वह उनके पुराने आलोचक दिलीप घोष को पहनाया गया। खुद रॉय बाबू को राज्यसभा सीट तक न मिली। खबर आई है कि पुराने क्रिकेट कप्तान को बीजेपी ज्वॉइन करने और राज्यसभा में आने का खुला ऑफर मिला है। यही नहीं, मध्य प्रदेश से लेकर बंगाल तक के कई और पुराने दल भक्त भाजपाई भी जानकारों की राय में इस बात से खिन्न हैं कि विपक्ष से तोड़कर लाए गए विगत चुनावों में उनके मुखर शत्रु रहे लोगों को उनसे अधिक भाव दिया जा रहा है। भिड़ंत राज्यस्तर पर किसी भारतीय प्रतिपक्षी से हो, या सीमा पर उमड़ती विदेशी सेना से; अथवा किसी अनदेखी लाइलाज महामारी से- नाजुक मौके पर कुंजड़ों की तरह घर के भीतर आपसी चख-चख, दांव पेच और खून खच्चर जारी रखने में कोई सयानापन नहीं। यह याद रखने की बात है कि पहले पाकिस्तान और फिर नेपाल को अपने पक्ष में करने के बाद अब चीन की नजर बांग्लादेश पर है। वह बांग्लादेश को व्यापार में अभूतपूर्व छूटें ऑफर कर रहा है।
इस समय पश्चिम बंगाल के वातावरण में सांप्रदायिक मुद्दों को धुकाकर अपनी नाव के पाल में गर्म हवा भरने की रणनीति नैतिक रूप से ही नहीं, राजनय के नजरिये से भी गलत होगी। भगवान न करे कि जब बंगाल इतनी दैवी और राजनीतिक चुनौतियों से जूझ रहा हो, केंद्र खाते खोलकर विचार करने लगे कि क्या उसके द्वारा नियुक्त राज्यपाल, बढ़ती अराजकता का इल्जाम लगा कर मौजूदा राज्य सरकार को बरखास्त कर सकता है?
जिस समय जनता और संविधान दोनों पुकार-पुकार कर अखिल भारतीय पार्टियों की मांग कर रहे हैं, उस समय हमारी पार्टियां प्रांतीय बनती जा रही हैं। इस हांव-हांव के बीच भारत के नक्शे में चीन और नेपाल मनमाने तरीके से जोड़-तोड़ करने लगे हैं। क्या यही हमको बताने को काफी नहीं कि देश का तयशुदा नक्शा बुनियादी तौर से तभी सुरक्षित रह सकेगा, जब हमारा प्रजातंत्र और अखिल भारतीय पार्टियां मजबूत और केंद्र सरकार की नजरों को अपनी घरेलू प्रतिस्पर्धी नजर आएंगी, दुश्मन नहीं।
ममता एक कुशल जन नेत्री हैं। यह भी निर्विवाद है कि यह मकाम उन्होंने अपने संघर्ष से पाया है। लेकिन अब जब कि वह शीर्ष पर हैं, और अपने दल की सर्वमान्य नेता भी, उनको भी अपने हर आलोचक के साथ स्थायी दुश्मनी साधने से बचना चाहिए। संप्रग के जमाने में कांग्रेस की सबसे बड़ी सहयोगी पार्टी तृणमूल थी। इसके बावजूद तीस्ता जल बंटवारे पर ऐन मौके में अड़कर दीदी ने बांग्लादेश के सामने केंद्र सरकार की किरकिरी करा दी थी। फिर लोकायुक्त मसले पर राइट अबाउट टर्न कर संसद में उसे शर्मिंदा किया। इंदिरा गांधी भवन का नाम (बांग्लादेशी कवि) काजी नजरुल इस्लाम के नाम पर करते हुए कहा कि कांग्रेस चाहे तो उनसे नाता तोड़ ले। गठजोड़ सरकारों के युग में ऐसी एकला चलो रे की मानसिकता का प्रदर्शन कैसा?
ममता की इसलिए हमेशा तारीफ की जाती है, कि बंगाल में वामदलों के अधिनायकवादी नेतृत्व को चुनौती देने में उन्होंने लंबे समय तक आश्चर्यजनक दृढ़ता दिखाई। लेकिन समय- समय पर नेता द्वारा खुद की या पार्टी द्वारा शीर्ष नेतृत्व का मूल्यांकन और सुधार करने की कोई स्वस्थ प्रथा तो अपने यहां है नहीं। होती तो यह साफ दिखाई देता कि ममता के मिजाज में जंग जीतने के बाद अक्सर सबको साथ लेकर राजकाज चलाने की क्षमता में चिंताजनक कमी दिखती है।
विधानसभा चुनावों की पूर्व संध्या पर जिस विशाल प्रशासनिक मशीनरी से उनको जमीनी तौर पर काम लेना है, उसके कल पुर्जों की दुरुस्ती और उनकी ग्रीज से हाथ या कपड़े मैले करने में उनको वैसी ही रुचि दिखानी चाहिए जैसी बीजेपी के शीर्षरण नीतिकार में है। वह निजी रूप से एक बेदाग छवि रखती हैं। वह निश्चय ही नहीं चाहेंगी कि उनके बंगाल में प्रजातंत्र की लोकप्रिय जात्रा पर हमेशा के लिए पर्दा पड़ जाए ताकि आसपास मंडरा रहे सांप्रदायिक भेड़िये नकली आवाजें निकाल कर राज्य की जनता को गुमराह कर सकें? (www.navjivanindia.com)
यदि कम्युनिस्ट आंदोलन कमजोर हो गया है, तो इसका पहला कारण तो एनजीओ संस्कृति है। इससे दो नुकसान हुए दरअसल।
पहला, कुछ ऐसे लोग जो अच्छे कम्युनिस्ट हो सकते थे, वे या तो एनजीओ चला रहे हैं या एनजीओ में नौकरी कर रहे हैं। हालांकि कुछ लोगों को एनजीओ में नौकरी पाने के लिए नकली कम्युनिस्ट बनना पड़ता है।
दूसरा नुकसान यह हुआ कि इन लोगों ने नागरिक आंदोलनों की संभावना को लगभग खत्म कर दिया है। अब ज्यादातर आंदोलन एनजीओ चलाते हैं।
एनजीओ फंड से चलता है, जो या तो सरकार से मिलता है या उद्योगपति से। आंदोलन भी सरकार के खिलाफ होता है। आप जिस से फंड ले रहे हों, उसके विरोध में एक हद से ज्यादा उतर ही नहीं सकते।
दरअसल एनजीओ संस्कृति पूंजीवाद और पूंजीवादी सरकारों के संरक्षण के लिए ही विकसित की गई है।
इसे इस तरह समझिए कि किसी जमीन को सरकार ने किसी उद्योगपति को किसी काम के लिए आबंटित कर दिया, जिससे लोगों में गुस्सा है।
लोगों का गुस्सा सतह पर आए, इससे पहले ही वहां कोई एनजीओ प्रकट हो जायेगा। वह लोगों के उस गुस्से को आंदोलन की शक्ल दे देगा, फिर धीरे धीरे उस गुस्से को शांत कर देगा, और न सरकार का कुछ बिगड़ेगा, न उद्योगपति का।
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि सरकार ने एक उद्योगपति को जमीन दे दी, तो दूसरे ने किसी एनजीओ को लगाकर आंदोलन करा दिया। बाद में जिसे जमीन मिली थी, उसने भी आंदोलनकारी एनजीओ को फंडिंग कर दी। और आंदोलन खत्म।
जमीन का उदाहरण देकर जो बात कही गई है, उसे आप सभी मामलों में फिट कर लीजिये। किसानों, महिलाओं, पिछड़ों, अल्पसंख्यक, दलितों, बच्चों के नाम पर जो हो रहा है, उसका झोल आपकी समझ में आ जाएगा।
फैक्ट्री मालिक से फंड लेकर आप बाल मजदूर को किस तरह हक दिला पाएंगे, सोचकर देखिए। सच तो यह है कि फैक्ट्री मालिक से फंड लेकर आप बाल मजदूर के हक की बात इसलिए कर रहे हैं, ताकि कोई बच्चों को हक दिलाने सचमुच मैदान में न आ जाए।
यहां बच्चों का उदाहरण दिया गया है। आप बच्चों की जगह महिलाओं को रख लीजिए, जिसे रखना चाहें रख लीजिये।
आप सोच रहे होंगे कि इस पूरे धतकरम का कम्युनिज्म के नुकसान से क्या मतलब। है, सर इसका कम्युनिज्म से मतलब है। हम लोगों का काम कठिन हुआ है। लोग बहुत आसानी से भरोसा नहीं कर पाते।
तो पूंजीवाद का जो लंकेश है, एनजीओ संस्कृति उसी लंकेश का एक सिर है। जिसे पूंजीवादियों ने ही अपनी रक्षा के लिए बहुत करीने से खड़ा किया है।
हाँ, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में काम कर रहे एनजीओ इस नियम का अपवाद हो सकते हैं।
कम्युनिस्ट आंदोलन का दूसरा नुकसान समाजवादियों ने किया। जाति भारतीय समाज व्यवस्था का अनिवार्य तत्व है। जाति और धर्म के आधार पर राजनीति करना भी बहुत आसान है।
जिस देश में गरीब बनाम अमीर की राजनीति होनी चाहिए थी, उसमें इन्होंने जाति बनाम जाति की राजनीति की। इसलिए गरीब बनाम अमीर की राजनीति का आधार कमजोर पड़ा। गरीब बनाम अमीर की राजनीति केवल कम्युनिस्ट करते हैं। (बाकी पेज 8 पर)
इसीलिए कम्युनिस्ट आंदोलन भी कमजोर पड़ा। क्या आपको पता है, कम्युनिस्ट पार्टियां उद्योगपतियों से चंदा नहीं लेतीं।
समाजवादियों ने एक तरफ गरीब अमीर की राजनीति नहीं होने दी, उसकी जमीन को कमजोर किया। दूसरी तरफ ज्यों ही मौका आया, फासीवादियों की पालकी लादकर खड़े हो गए।
जार्ज फर्नांडीज जैसे खांटी समाजवादी ने कंधे दर्द करने के बावजूद भाजपा की पालकी ढोई। यूपी वाले नेताजी ने यही काम चुपके-चुपके किया। सुशासन कुमार भी तो एक हद तक समाजवादी ही हैं, लेकिन देखो, कितनी मजबूती से पालकी ढो रहे हैं।
कम्युनिज्म की कमजोरी का तीसरा कारण खुद कम्युनिस्ट हैं। वह समय बहुत पहले आ चुका है, जब सभी वामपंथी पार्टियों को एकजुट हो जाना चाहिए था, लेकिन नहीं हुईं। अब भी इस दिशा में कुछ खास हो नहीं रहा है।
यह सही है कि कम्युनिस्ट पार्टियों में साफ सुथरे लोग आने चाहिए, लेकिन इतना शुद्धतावाद भी ठीक नहीं कि 10-15 साल तक तो लोगों को कार्यकर्ता ही न बनाया जाए। अन्य पार्टियों में कार्यकर्ता बनने में दो मिनट नहीं लगते, यहां 10-12 साल भी कम पड़ जाते हैं। यह ठीक नहीं।
यह पोस्ट एक मित्र के सवाल के जवाब में लिखी गई है। यह विषय ऐसा है, जिस पर किताब लिखी जा सकती है, इसलिए कम शब्दों में बात कहने की कोशिश के बावजूद पोस्ट लम्बी हो गई है। अगर पूरी पढ़ी है तो धन्यवाद। नहीं पढ़ी तो भी।
एनजीओ वाले और समाजवादी मित्र क्षमा करें, जो सच है, सो है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नेपाल के प्रधानमंत्री खडग़प्रसाद ओली अपने आप को कम्युनिस्ट कहते हैं लेकिन अपनी खाल बचाने के लिए उन्होंने अब उग्र राष्ट्रवादी का चोला ओढ़ लिया है। अब वे नेपाली संसद में हिंदी बोलने और धोती-कुर्ता पहनने पर प्रतिबंध लगाएंगे। उन्हें प्रधानमंत्री पद से हटाने के लिए उन्हीं की नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के नेता पुष्पकमल दहल ‘प्रचंड’ और माधव नेपाल ने शंखनाद कर दिया है।
इन दोनों पूर्व प्रधानमंत्रियों ने ओली पर आरोप लगाया है कि वे अमेरिका और भारत, दोनों के साथ सांठ-गांठ किए हुए हैं और वे भारत-नेपाल सीमा के बारे में भी अपनी दुम दुबाए रखते हैं। वे राष्ट्राभिमानी नेपाली प्रधानमंत्री की तरह दहाड़ते क्यों नहीं हैं ? उन्होंने अमेरिका के 50 करोड़ डालर के महापथ-निर्माण के प्रोजेक्ट को क्यों स्वीकार किया है और भारत के साथ लिपुलेख क्षेत्र के बारे में दब्बूपने का रुख वे क्यों अपनाए हुए हैं। जो ओली सीमा-विवाद को लेकर भारत से बातचीत के पक्षधर थे, अब उन्होंने इतने उग्र तेवर अपना लिये हैं कि उन्होंने भारत पर कुछ व्यंग्य ही नहीं कसे बल्कि अपने संविधान में संशोधन करके कुछ भारतीय क्षेत्रों को नेपाल का हिस्सा भी बता दिया।
इतना ही नहीं, वे अब कानून यह बना रहे हैं कि जो भी नेपाली किसी भारतीय से विवाह करेगा, उस भारतीय वर या वधु को नेपाल की नागरिकता 7 साल बाद मिलेगी। भारत के रक्षा मंत्री राजनाथसिंह ने भारत-नेपाल संबंध को रोटी-बेटी का रिश्ता कहा था, उसे ओली अब खटाई में डाल रहे हैं। ‘प्रचंड’ के लोग मौन रहकर और नेपाली कांग्रेस संसद में प्रस्ताव लाकर यह सिद्ध कर रही है कि ओली सरकार ने कई नेपाली गांव चीन को सौंप दिए हैं।
ऐसे लचर-पचर प्रधानमंत्री को नेपाल क्यों बर्दाश्त कर रहा है। इसके अलावा सत्तारुढ़ कम्युनिस्ट पार्टी के कुछ नेताओं के उकसावे के कारण ओली सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरेाप भी लग रहे हैं। ऐसे में ओली अपने आप को अत्यंत उग्र राष्ट्रवादी सिद्ध करने में लगे हुए हैं। मुझे नेपाल केे कुछ सांसदों और मेरे मित्र मंत्रियों ने यह भी बताया कि अब ओला का ताजातरीन पैंतरा यह है कि नेपाली संसद में हिंदी बोलने और धोती कुर्ता पहनने पर प्रतिबंध लगाया जाएगा। सांसदों को नेपाली भाषा बोलना और नेपाली वेषभूषा (टोपी, दाउरा और सुरवल) पहनना अनिवार्य होगा।
अब से लगभग 28-30 साल पहले मैंने मधेशियों के नेता गजेंद्रनारायण सिंह और संसद के अध्यक्ष दमननाथ ढुंगाना से नेपाल की संसद में हिंदी और धोती-कुर्ता की छूट के लिए पहल करवाई थी। वे दोनों मेरे अच्छे मित्र थे। यदि ओली उसे खत्म करेंगे तो न सिर्फ नेपाल के लाखों मधेसी लोग उनके खिलाफ हो जाएंगे बल्कि ‘जनता समाजवादी पार्टी’, जिसमें पूर्व कम्युनिस्ट प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टराई और हिसिला यमी जैसे नेता भी हैं, उनका डटकर विरोध करेंगे। ओलीजी, यह अच्छी तरह समझ लें कि उनका यह कदम 2015 की नाकाबंदी से भी ज्यादा खतरनाक सिद्ध हो सकता है। चीन उन्हें बचा नहीं पाएगा।(नया इंडिया की अनुमति से)
कट्टर पूंजीवाद के खतरे की मिसाल, सबसे अमीर देश
अमेरिका में 20 लाख लोगों के घर पानी नहीं आता। करीब 3 करोड़ लोगों के घरों में जो पानी आता है, वह सुरक्षित नहीं। लगभग 11 करोड़ आबादी को मिलने वाले पानी में विषैले रसायनों की भरमार है। पानी का बिल नहीं भरने के कारण करीब 1.5 करोड़ आबादी की जल आपूर्ति बंद कर दी गई है।
-महेन्द्र पांडे
हमारे प्रधानमंत्री रसातल में जा चुकी अर्थव्यवस्था के बाद भी 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था की बातें करते हैं और जाहिर करते हैं कि मानो उसके बाद जनता की सारी समस्याएं हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएंगी। ऐसे में एक स्वाभाविक सवाल किसी के भी मस्तिष्क में उठ सकता है कि क्या अर्थव्यवस्था का विस्तार और जनता की सुविधाओं में कोई संंबंध होता है?
आज की पूंजीवादी और बाजार पर टिकी अर्थव्यवस्था के दौर में इसका सीधा सा उत्तर है, नहीं। अर्थव्यवस्था के बढ़ने से देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ती है और साधारण जनता और गरीब सुविधाओं से और वंचित हो जाते हैं। पिछले वर्ष के अंत तक हमारे देश की अर्थव्यवस्था 2.9 ट्रिलियन डॉलर की थी और इस समय देश में 102 अरबपति हैं, पर कोविड-19 के दौर में हम जनता की परेशानियां देख चुके हैं।
इस समय दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अमेरिका है और भारत छठे स्थान पर है। अमेरिका की अर्थव्यवस्था 21.5 ट्रिलियन डॉलर की है और वहां 614 अरबपति हैं और आबादी भारत से कम है। जाहिर है, वहां के नागरिकों को सारी सुविधाएं मिलनी चाहिए, पर ऐसा नहीं है। दुनिया का सबसे शक्तिशाली और अमीर देश, अमेरिका, अपने सभी नागरिकों को तो पानी की आपूर्ति भी नहीं कर पाता है।
अमेरिका में लगभग 20 लाख लोगों के घर पानी नहीं आता और इनके घरों में मौलिक प्लम्बिंग की सुविधा नहीं है। इसके अलावा 3 करोड़ से अधिक आबादी के घरों में जो पानी आता है, वह सुरक्षित नहीं है। लगभग 11 करोड़ आबादी तक पहुंचने वाला पानी प्रदूषित है और इसमें विषैले रसायनों की भरमार है। लगभग 1.5 करोड़ आबादी को पानी का बिल नहीं भरने के कारण जल आपूर्ति की सुविधा से बेदखल कर दिया गया है। इन सबके बाद भी, अमेरिका में अरबों डॉलर की कमाई वाली बोतल-बंद पानी का बाजार साल-दर-साल बढ़ता जा रहा है।
इन सभी चौकाने वाले आंकड़ों का खुलासा द गार्डियन ने अपनी एक रिपोर्ट में किया है, जिसे अनेक अमेरिकी संस्थानों के साथ मिलकर प्रकाशित करने की योजना है। लगभग 10 वर्ष पहले, संयुक्त राष्ट्र ने 28 जुलाई 2010 को, अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के तहत पानी को हरेक व्यक्ति का मौलिक अधिकार करार दिया था। इसके अनुसार पानी का मतलब कैसा भी पानी नहीं, बल्कि साफ, सुरक्षित और पर्याप्त मात्रा में पानी था।
लेकिन, इन दस वर्षों के भीतर ही अमेरिका में पानी की समस्या और विकराल हो गई। अब पानी असमानता, गरीबी, प्रदूषण और व्यापार का पर्यायवाची बन गया है। पानी की कमी से सबसे अधिक प्रभावित ग्रामीण क्षेत्रों की गरीब आबादी, अफ्रीकन-अमेरिकन समुदाय, जनजातियां और प्रवासी आबादी है। यहां लोगों को पानी के अधिकार से वंचित कर खनन, कृषि और उद्योगों को प्राथमिकता दी जा रही है।
प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन और पुराने जल-आपूर्ति तंत्र के बाद भी साल 2010 से 2018 के बीच पानी के वार्षिक बिल में औसतन 80 प्रतिशत की वृद्धि हो गयी है, जिससे गरीब और माध्यम वर्ग की लगभग 40 प्रतिशत आबादी के पास इस बिल को भरने के पैसे नहीं हैं। कहीं-कहीं तो गरीबों की औसतन वार्षिक आय का 12 प्रतिशत से अधिक खर्च केवल पानी के बिल को भरने में चला जाता है।
इसी अवधि के दौरान जल आपूर्ति और सफाई के लिए मिलने वाली सरकारी मदद में लगभग 80 प्रतिशत की कटौती कर दी गई है। फूड एंड वाटर वाच की वाटर जस्टिस एक्सपर्ट मैरी ग्रांट के अनुसार अमेरिका का हरेक क्षेत्र पानी के आपातकाल से जूझ रहा है। यहां पानी के बुनियादी ढांचे में परिवर्तन की आवश्यकता है। पानी को किसी उत्पाद या फिर अमीरों की सुविधा के तौर पर नहीं देखना चाहिए।
अमेरिका में नस्लवाद और रंगभेद विरोधी आंदोलनों का एक बड़ा मुद्दा यह भी है, क्योंकि पानी की कमी से अफ्रीकन-अमेरिकन, एशियाई और अल्पसंख्यक आबादी सबसे अधिक प्रभावित है। डेट्रॉइट की लगभग 80 प्रतिशत आबादी अफ्रीकन-अमेरिकन और एशिया के लोगों की है। जाहिर है यहां पानी की किल्लत होगी और पानी का बिल नहीं भर सकने वाली आबादी भी अधिक होगी। यहां पिछले 2 वर्षों के भीतर लगभग डेढ़ लाख घरों से जल आपूर्ति के कनेक्शन काटे जा चुके हैं। इस मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र में चर्चा भी की जा चुकी है। दूसरी तरफ, पुराने और जर्जर जल आपूर्ती ढांचे के कारण अमेरिका में लगभग 6 अरब डॉलर मूल्य का पानी बर्बाद हो जाता है।
दूसरी तरफ, पिछले वर्ष अमेरिका के जर्नल प्रोसीडिंग्स ऑफ नेशनल अकैडमी ऑफ साइंसेज में जोआन रोज की अगुवाई में प्रस्तुत एक शोध पत्र ने सेप्टिक टैंक पर ही गंभीर सवाल उठाए थे। जिन घरों में प्लम्बिंग की सुविधा नहीं है, वहां शौचालय सोक पिट और सेप्टिक टैंक से ही जुड़े हैं। इस अध्ययन को नदियों से संबंधित सबसे बड़ा अध्ययन कहा जा रहा है। इसके अनुसार सेप्टिक टैंक से फीकल कोलीफार्म को आप भूमि या नदियों में जाने से नहीं रोक पाते हैं।
वैज्ञानिक जगत में यह सबसे बड़ी भ्रान्ति है कि भूमि मानव और मवेशियों के मल के लिए प्राकृतिक उपचारण का काम करती है। प्रचलित धारणा के अनुसार नदी के उन क्षेत्रों में जहां सेप्टिक टैंक की संख्या सबसे अधिक है, वहां नदी में फीकल कोलिफौर्म की संख्या कम होनी चाहिए थी, पर इस दल ने अपने अध्ययन में ठीक इसका उल्टा पाया।
पिछले वर्ष अमेरिका के शहरों में पीने के पानी की जांच की गई थी। राजधानी वाशिंगटन डीसी में जिस पानी की घरों में आपूर्ति की जाती है, उस पानी में 10 से अधिक ऐसे प्रदूषक तत्व मौजूद थे, जिनकी सांद्रता तय मानक से अधिक थी और इनमें ऐसे रसायन मौजूद थे जिनसे कैंसर हो सकता है। सितंबर 2019 में जर्नल हेलियो में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार अमेरिका में पीने के पानी में प्रदूषण और विषैले पदार्थों की उपस्थिति के कारण लगभग एक लाख लोगों को कैंसर होता है। इसका मुख्य कारण पानी में आर्सेनिक की मौजूदगी है, जो प्राकृतिक तौर पर पानी में मौजूद रहता है।
एनवायर्नमेंटल वर्किंग ग्रुप की वरिष्ठ वैज्ञानिक ओल्गा नैदेंको के अनुसार यह प्रदूषण बड़ी संख्या में लोगों में कैंसर उत्पन्न करने में सक्षम है। हाल में ही अमेरिका के बाजार में मिलने वाले बोतल-बंद पानी की जांच की गई और इसमें भी आर्सेनिक मौजूद था। कंज्यूमर रिसर्च के प्रमुख वैज्ञानिक डॉ जेम्स दिकर्सन के अनुसार यह आश्चर्य का विषय है कि मंहगा बोतल-बंद पानी भी प्रदूषण से मुक्त नहीं है। उनके अनुसार आर्सेनिक के प्रभाव से कार्डियोवैस्कुलर रोग, कैंसर, बच्चों में बौद्धिक क्षमता का अपूर्ण विकास और भी अनेक रोग हो सकते हैं।
डोनाल्ड ट्रंप ने राष्ट्रपति बनने के समय ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ का नारा दिया था और अब दुनिया उस महानता को प्यासे, भूखे, बेरोजगार, नस्लभेदी और सत्तालोभी राष्ट्रपति के तौर पर देख रही है। कट्टर पूंजीवाद में पानी और खाने की नहीं बल्कि जीडीपी की बात की जाती है, अरबपतियों की बातें की जाती हैं। जाहिर है, जिस दिन अमेरिका ग्रेट हो जाएगा उस दिन कम से कम डोनाल्ड ट्रंप को राष्ट्रपति के तौर पर नहीं चुनेगा। (www.navjivanindia.com)
दिक्कत सिर्फ बिजली, नेट या स्मार्टफोन न होने की नहीं
-आलोक रंजन
भारत में शिक्षा, खास कर विद्यालयी शिक्षा कभी भी दोषमुक्त नहीं रही इसलिए इसकी ओर उंगली उठा देना कोई बहुत बड़ी बात नहीं लगती. लेकिन कोरोना संकट के इस दौर में इसके कुछ और आयाम दिखाई देने लगे हैं. वर्तमान दौर में विद्यालय आधारित शिक्षा ‘ऑनलाइन’ हो गयी है. आधारभूत ढांचे और शिक्षकों की कमी से जूझ रहे विद्यालयों तक में अब इसकी पहुंच है. ऑनलाइन कक्षा को इस समय की सबसे बड़ी जरूरत के रूप में पेश किया जा रहा है. लेकिन इसके साथ ही विशेषज्ञ इसके विभिन्न दोषों पर भी ध्यान दिलाने लगे हैं. चुपके से अध्यापकों के मद में किए जा रहे खर्च में कटौती की भविष्यवाणी पर किसी का ध्यान है, तो कहीं यह बताया जा रहा है कि इस तरह की शिक्षा में बहुत सक्षम इन्टरनेट और उपकरणों की जरूरत पड़ती है इसलिए यह एक प्रकार की विभाजक रेखा बन रही है. सरकार से लेकर इन्टरनेट प्रदाता कंपनियों तक के तमाम दावों के बीच बिजली, इंटरनेट और कम से कम एक मोबाइल तक हर विद्यार्थी की पहुंच नहीं है (इस संबंध में युनेस्को की रिपोर्ट न भी देखें तो काम चल जाएगा). पठन-पाठन का यह वैकल्पिक रूप विद्यार्थियों के स्वास्थ्य पर भी गंभीर प्रभाव डाल रहा है, उनमें चिड़चिड़ापन बढ़ रहा है.
इसके साथ-साथ ऑनलाइन कक्षाओं के समर्थक उन पुरानी काट के अध्यापकों को भी कठघरे में खड़ा कर रहे हैं जो नया सीखने में हिचकते हैं. इस माध्यम ने एक झटके में उनकी तमाम सेवाओं को किनारे कर दिया है. अब वे भी सीखने वालों में शामिल हैं. लेकिन वर्तमान हालात ऐसे हैं कि इससे बचने का कोई रास्ता नहीं है और हर किसी को ऑनलाइन शिक्षा में ही भविष्य दिख रहा है. कोरोना का प्रसार बड़ी तेज़ी से हो रहा है और कोविड-19 अभी अपनी जड़ें जमाये रहने वाली है. इसके चलते स्कूली शिक्षा से जुड़े सभी बोर्ड अपनी परीक्षाएं स्थगित कर रहे हैं और विद्यार्थियों को उत्तीर्ण करने के अलग-अलग विकल्प सामने लेकर आ रहे हैं. ऐसे में निकट भविष्य में विद्यालय खुलते नज़र नहीं आ रहे हैं. यानी कि अपनी तमाम कमियों के बावजूद पढ़ने-पढ़ाने का ऑनलाइन तरीका ही आने वाले लंबे समय तक मुख्य विकल्प रहने वाला है.
इस पृष्ठभूमि के बाद आइये उस समस्या की ओर रुख करते हैं जिस ओर अध्यापकों का तो ध्यान जा रहा है लेकिन ज्यादातर विशेषज्ञों से वह बात छूट रही है. ऑनलाइन अध्यापन में मुख्य बात है ऐसी कक्षा के लिए जरूरी अध्ययन सामग्री यानी ‘कंटेंट’. निजी पूंजी से चलने वाले कुछ चुनिंदा संस्थानों को छोड़ दिया जाये तो ज़्यादातर सरकारी और गैर-सरकारी विद्यालय इस वक्त ऐसे प्लेटफॉर्म पर ऑनलाइन कक्षाएं ले रहे हैं जहां रिकॉर्डिंग या स्टोरेज की सुविधा नहीं है. कारण बड़ा साफ है, इसके लिए अतिरिक्त क्लाउड स्पेस की जरूरत पड़ेगी जो मुफ़्त नहीं है. विद्यार्थी और अध्यापक दोनों के लिए यह स्थिति चुनौतीपूर्ण हो जाती है. लगभग हर विद्यार्थी की मांग होती है कि कक्षा में जो विषय पढ़ाया गया उसकी लिखित या वीडियो सामग्री मिल जाये ताकि वे बाद में उसका उपयोग कर सकें. यह स्वाभाविक भी है क्योंकि, आम तौर पर वे कोई भी संकल्पना एक बार में ही नहीं सीख जाते. सामान्य कक्षाओं में सहपाठियों के बीच शंका-समाधान का, संबंधित अध्यापक से बातचीत का विकल्प खुला रहता है लेकिन ऑनलाइन कक्षाओं में ये अवसर न्यून रहते हैं.
ऐसे बच्चों का ऑनलाइन पढ़ाई से क्या रिश्ता हो सकता है फाइल फोटो क्रेडिट द इंडियन एक्सप्रेस
यहां छात्रों की मदद के लिए इंटरनेट ही आगे आता है जहां ऑनलाइन कक्षाओं के आम होने से काफी पहले से ही ज्यादातर विषयों में मदद के लिए पाठ्य-सामग्री उपलब्ध है. ऐसे में यह बात थोड़ी विरोधाभासी लग सकती है कि यह लेख कंटेंट की समस्या से जुड़ा है. यह सच है कि इन्टरनेट पर किसी भी कक्षा और विषय से संबंधित सामग्री के कई विकल्प पहले से ही मौजूद हैं. लेकिन प्रश्न यह है कि वे सही मायनों में कितने उपयोगी हैं.
भारत की स्कूली शिक्षा में एनसीईआरटी को अच्छी ख़ासी प्रामाणिकता हासिल है. राज्यों के बोर्ड पर भी उसकी किताबों व विषय चयन की प्रक्रिया की छाप रहती है. उसकी हरेक किताब का आमुख इन वाक्यों से शुरू होता है – “राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा - 2005 (नैशनल करीकुलम फ्रेमवर्क या एनसीएफ - 2005 ) सुझाती है कि बच्चों के स्कूली जीवन को बाहर के जीवन से जोड़ा जाना चाहिए. यह सिद्धान्त किताबी ज्ञान की उस विरासत के विपरीत है जिसके प्रभाववश हमारी व्यवस्था आज तक स्कूल और घर के बीच अंतराल बनाए हुए है.” इन वाक्यों को पढ़ने के बाद यदि इन्टरनेट पर उपलब्ध अध्ययन सामग्रियों की विवेचना करें तो यह समझना कठिन नहीं रह जाता कि वे विद्यालयी शिक्षा के इन जरूरी तरीकों से कितने दूर हैं.
एक हिन्दी के अध्यापक के रूप में मुझे अपने विद्यार्थियों की जरूरत के मुताबिक इन्टरनेट पर उपलब्ध ढेर सारी सामग्रियों को देखने-समझने का अवसर मिला. लेकिन यहां पर मौजूद हिन्दी विषय का कंटेंट यह सोचने पर मजबूर करता है कि यदि विद्यार्थी उसका उपयोग कर रहे हैं तो वे जो सीखेंगे वह शिक्षा के वृहत उद्देश्यों के साथ-साथ भाषा शिक्षण के लक्ष्यों को भी भटकाव के दलदल में धकेल देगा. वहां पर मौजूद लगभग सारी सामग्री ‘सरलार्थ’ और ‘सारांश’ बता देने तक सीमित हैं और ज्यादा हुआ तो महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर देने तक. इन सबके बीच बाकी महत्वपूर्ण चीजों के साथ-साथ शिक्षा के माध्यम से मिलने वाला सामाजीकरण भी पीछे रह जाता है.
इस तरह की ज्यादातर कंटेंट में किसी भी संकल्पना तक विद्यार्थी को पहुंचाने के लिए आवश्यक स्केफ़ोल्डिंग - जिसकी चर्चा प्रसिद्ध शिक्षा मनोवैज्ञानिक जेरोम ब्रूनर करते हैं - पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता. इस कारण नैशनल करीकुलम फ्रेमवर्क - 2005 में वर्णित घर और स्कूल के बीच के अंतराल वाली बात बनी रह जाती है. इन सामग्रियों का गहन अध्ययन करने पर यह पता चलता है कि इन्हें तैयार करने वाले मानो विद्यार्थियों के बारे में यह धारणा बनाकर चलते हैं कि वे पहले से सब जानते ही होंगे. यह उपरोक्त पंक्तियों में आयी हुई ‘किताबी ज्ञान की विरासत’ वाली स्थिति ही है. इसके पीछे के कारण को जानना भी दिलचस्प होगा. वर्तमान विद्यालयी शिक्षा का उद्देश्य किसी भी तरह से परीक्षा में अंक अर्जित करना रह गया है और यह कोई बहुत बड़ा रहस्योद्घाटन भी नहीं है. इसलिए हिन्दी व अन्य विषयों में समझ विकसित करने के बदले परीक्षा में पूछे जाने वाले प्रश्नों के उत्तर देने को ही जरूरी और महत्वपूर्ण माना जाता है. इस प्रवृत्ति के पीछे विद्यार्थी, माता-पिता और अध्यापक की तिकड़ी काम करती है और यही ऑनलाइन उपलब्ध सामग्रियों में भी झलकता है.
हिन्दी (या कोई दूसरी भाषा) विषय से जुड़ी इन सामग्रियों का अध्ययन करें तो एक बड़ा प्रश्न समावेशन का भी खड़ा हो जाता है. सबको साथ लेकर चलने का यह मुद्दा बहुस्तरीय है जिसमें भौगोलिक, धार्मिक और लैंगिक विविधताओं को ध्यान में रखने की जरूरत दिखाई देती है.
एक ओर तो बार-बार यह कहा जाता है कि हिन्दी देश की राजभाषा [संविधान के अनुच्छेद 343(1) से] है वहीं यह स्वीकार करते हुए हिचक दिखती है कि इसे पढ़ने वाले देश के अलग अलग भौगोलिक क्षेत्रों में रह रहे हैं. हिन्दी में उपलब्ध सामग्रियों का रंग-रूप हिन्दी पट्टी तक ही सीमित हैं. उनमें कठिन शब्दों और जटिल वाक्य रचनाओं का उपयोग जिस खुलेपन के साथ होता है वह भाषा के प्रति आकर्षण के बजाय विकर्षण ही पैदा करता है. 1961 ई में मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में त्रिभाषा सूत्र विकसित हुआ और कोठारी कमीशन ने आवश्यक जांच–परख व तैयारी के बाद इसे शिक्षा में प्रयोग होने लायक मानकर अपनी रिपोर्ट में इसकी संस्तुति भी कर दी. इस सूत्र के अनुसार देश के स्कूलों में तीन भाषाओं को पढ़ाया जाना था. यह बाद में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968 का प्रमुख हिस्सा बना. तमिलनाडु और पुडुचेरी को छोडकर देश भर में यह लागू भी हो गया. इसके तहत अनचाहे रूप से ही सही लेकिन बड़ी संख्या में विद्यार्थी हिन्दी एक विषय के रूप में पढ़ रहे हैं. उन विद्यार्थियों की ओर से देखें तो ऑनलाइन उपलब्ध सामग्रियां शून्य हैं क्योंकि वे उनके स्तर पर आकर संकल्पनाओं को नहीं सिखाती हैं. यही बात और ऐसी ही कमियां दूसरी भाषाओं और विषयों पर भी लागू हो सकती हैं.
हिंदी की पाठ्य पुस्तकों तक में धार्मिक और लैंगिक विविधता को उचित तरीके से बरतने का अभाव दिखता है. भारत एक बहु-सांस्कृतिक देश है जहां कई धर्मावलम्बी एक साथ रह रहे हैं. लेकिन हिन्दी विषय की बात आते ही यह एक खास धर्म तक सीमित होकर रह जाता है. इसकी पाठ्यपुस्तकों में ही काव्य के नाम पर धार्मिक भजनों की भरमार है, और उनके सरलार्थ करते हुए ऑनलाइन कंटेंट निर्माताओं की धार्मिक चेतना भी जब तक प्रकट हो ही जाती है. यहां तक कि कबीर के पदों और साखियों का विवेचन भी एकपक्षीय होने से बच नहीं पाता.
त्रिभाषा सूत्र के इतर भी देखें तो केंद्र सरकार द्वारा संचालित नवोदय और केंद्रीय विद्यालयों के विद्यार्थी हिन्दी को एक विषय के रूप में पढ़ते हैं. यह एक सर्वविदित तथ्य है कि इन विद्यालयों की पहुंच देश के उन इलाकों में भी है जहां अलग-अलग धर्मों के विद्यार्थी हिन्दी भाषा साहित्य का अध्ययन करते हैं. जैसे दक्षिण और पूर्वोत्तर के राज्य. यहां प्रश्न यह नहीं है कि उनके धार्मिक विश्वासों को पाठ्यपुस्तक में क्यों अवकाश नहीं दिया गया? पाठ्य सामग्री के जो ऑनलाइन विश्लेषण प्रस्तुत किए जाते हैं उनमें यह कहीं नहीं दिखता कि उसे वे विद्यार्थी भी एक सपोर्ट मेटीरियल की तरह देख रहा है जिनका धर्म हिन्दी की धार्मिक कविताओं से अलग है. इन धार्मिक रचनाओं को समझने के लिए जिन किस्सों और तौर-तरीके की जरूरत है उनकी सामान्य जानकारी भी अन्य धर्मावलम्बी विद्यार्थियों को नहीं है. इस मामले में ये सामग्रियां निराश ही करती हैं.
ऑनलाइन कंटेंट में एक और बड़ी कमी लैंगिक भिन्नता को सही तरीके से न बरतने की है. एक तो पाठ्य-पुस्तकों में ही इस तरह की सामग्री की भारी कमी है. ऊपर से इनकी जो व्याख्याएं ऑनलाइन उपलब्ध हैं उनमें वही पितृसत्तावादी पूर्वाग्रह दिखाई देते हैं जो इस मामले में कोई नयी दृष्टि देने के बजाय पुरानी मान्यतों को ही पुनरुत्पादित करते हैं. ग्यारहवीं–बारहवीं के मीरा, तुलसीदास व एन फ्रेंक के अध्यायों से जुड़ी सामग्रियों में यह स्थिति आसानी देखी जा सकती है.
आगे की राह
जैसा कि हम चर्चा कर चुके हैं कोरोना जैसी महामारी के बीच अध्ययन–अध्यापन का ऑनलाइन रूप अभी रहने वाला है. इसलिए इसकी सहायक सामग्री की अनिवार्यता भी रहेगी ही. ऐसे में इस बात से निरपेक्ष होना कोई विकल्प नहीं है कि विद्यार्थियों को इंटरनेट पर किस तरह की सामग्री परोसी जा रही है. शिक्षाविदों और विचारकों न अभी तक इस ओर अपना उतना ध्यान नहीं दिया है लेकिन जरूरत तेजी से ऑनलाइन सामग्रियों की छंटनी करने की है और इसके पीछे का सूत्र साफ है – लोकतांत्रिक मूल्य और सबका समावेशन.
जो अध्यापक और विद्यालय ऐसा करने में सक्षम हैं वे अपने विद्यार्थियों के लिए ऑनलाइन कक्षा के बाद की सहायक सामग्री का निर्माण स्वयं करते हैं. इसका सबसे बड़ा फायदा तो यह है कि वे अपने विद्यार्थियों के अनुरूप सामग्री तैयार करते हैं. भारत जैसे बहुस्तरीय पहचान वाले देश की विद्यालयी शिक्षा में यह एक आवश्यक तत्व है. लेकिन बाकियों के संदर्भ में वीडियो और लिखित सामग्री प्रदाताओं को यह समझना-समझाना पड़ेगा कि कोई भी विषय या भाषा सिर्फ एक इलाके, धर्म या लिंग के छात्रों द्वारा ही नहीं पढ़े जाते हैं. और यह भी कि वे अब सिर्फ दूर के कभी-कभार वाले सहयोगी की भूमिका में नहीं है बल्कि कई छात्रों के लिए शिक्षा की मुख्यधारा से जुड़ रहे हैं. इसलिए उन्हें किसी विषय के सवाल-जवाबों वाली कुंजी से आगे जाकर सोचना और बताना होगा. (satyagrah.scroll.in)
टी एन शेषन मुख्य चुनाव आयुक्त थे तब एक बार वे उत्तर प्रदेश की यात्रा पर गए। उनके साथ उनकी पत्नी भी थीं। रास्ते में एक बाग के पास वे लोग रूके। बाग के पेड़ पर बया पक्षियों के घोसले थे। उनकी पत्नी ने कहा दो घोसले मंगवा दीजिए मैं इन्हें घर की सज्जा के लिए ले चलूंगी। उन्होंने साथ चल रहे पुलिस वालों से घोसला लाने के लिए कहा।
पुलिस वाले वहीं पास में गाय चरा रहे एक बालक से पेड़ पर चढक़र घोसला लाने के बदले दस रूपये देने की बात कहे, लेकिन वह लडक़ा घोसला तोडक़र लाने के लिए तैयार नहीं हुआ। टी एन शेषन उसे दस की जगह पचास रुपए देने की बात कही फिर भी वह लडक़ा तैयार नहीं हुआ। उसने शेषन से कहा साहब जी! घोसले में चिडिय़ा के बच्चे हैं शाम को जब वह भोजन लेकर आएगी तब अपने बच्चों को न देखकर बहुत दुखी होगी, इसलिए आप चाहे जितना पैसा दें मैं घोसला नहीं तोड़ सकता।
इस घटना के बाद टी.एन. शेषन को आजीवन यह ग्लानि रही कि जो एक चरवाहा बालक सोच सका और उसके अंदर जैसी संवेदनशीलता थी, इतने पढ़े-लिखे और आईएएस होने के बाद भी वे वह बात क्यों नहीं सोच सके, उनके अंदर वह संवेदना क्यों नहीं उत्पन्न हुई? शिक्षित कौन हुआ? मैं या वो बालक?
उन्होंने कहा उस छोटे बालक के सामने मेरा पद और मेरा आईएएस होना गायब हो गया। मैं उसके सामने एक सरसों के बीज के समान हो गया। शिक्षा, पद और सामाजिक स्थिति मानवता के मापदण्ड नहीं हैं। प्रकृति को जानना ही ज्ञान है। बहुत सी सूचनाओं के संग्रह को ज्ञान नहीं कहा जा सकता है। जीवन तभी आनंददायक होता है जब आपकी शिक्षा से ज्ञान, संवेदना और बुद्धिमत्ता प्रकट हो।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आपातकाल के 45 साल के बाद यह सवाल फिर उठ खड़ा हुआ है कि क्या देश में आज भी आपातकाल लगा हुआ है या आपातकाल-जैसी ही स्थिति बनी हुई है ? भाजपा के नेता कांग्रेस के नेताओं पर राजवंश होने का आरोप लगा रहे हैं तो कांग्रेस के नेता भाजपा को भाई-भाई पार्टी कह रहे हैं। भाई-भाई याने नरेंद्र भाई और अमित भाई। कांग्रेस को मां-बेटा पार्टी और भाजपा को भाई-भाई पार्टी- ये नाम मेरे दिए हुए हैं। ये नाम तो मैंने दिए है। लेकिन इसका श्रेय इंदिरा गांधी को है। इसलिए है कि इंदिरा गांधी के जमाने से ही भारत की पार्टियां प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां बनना शुरू हो गईं।
इंदिरा गांधी के पहले भारत की अखिल भारतीय पार्टियों में बड़े-बड़े दिग्गज नेता होते थे लेकिन उन पार्टियों में खुली बहस होती थी। इन पार्टियों में आतंरिक लोकतंत्र का वातावरण था। हर पार्टी में नेताओं के बीच मतभेद होते थे, जिन्हें वे पार्टी-मंचों के अलावा सार्वजनिक तौर पर भी व्यक्त कर देते थे। नेहरू और पटेल, डांगे और नंबूतिरिपाद, बलराज मधोक और अटलबिहारी वाजपेयी, लोहिया, जयप्रकाश, आचार्य कृपालानी और अशोक मेहता तथा इंदिरा गांधी और निजलिंगप्पा के बीच चलीं बहसें क्या हम भूल सकते हैं ? लेकिन इंदिराजी ने 1969 में ज्यों ही कांग्रेस तोड़ी, कांग्रेस का स्वरुप प्राइवेट लिमिटेड पार्टी में बदल गया।
देवकांत बरुआ का मशहूर वाक्य, ‘‘इंदिरा इज इंडिया’’ आपको याद है या नहीं ? भारत के प्रधानमंत्रियों में इंदिरा गांधी मेरी राय में भारत की सबसे प्रभावशाली और महिमामयी प्रधानमंत्री थीं लेकिन उनके शासन-शैली ने भारतीय पार्टी-व्यवस्था को सर्वथा आलोकतांत्रिक बना दिया। यह ठीक है कि उनके बाद उनके बेटे राजीव को प्रधानमंत्री उन्होंने नहीं, राष्ट्रपति ज्ञानी जेलसिंह ने बनाया था लेकिन उन्होंने अपने कार्यकाल में किसी भी नेता को उभरने नहीं दिया। पार्टी में नेता पद के लिए कभी मुक्त आतंरिक चुनाव नहीं हुए। यही हाल सभी पार्टियों का हो गया। हमारे देश की प्रांतीय पार्टियां तो राजवंशीय ढांचों पर ही चल रही है।
ये सब पार्टियां बाप-बेटा पार्टी, पति-पत्नी पार्टी, ससुरदामाद पार्टी, चाचा-भतीजा पार्टी और भाई-बहन पार्टी ढांचों पर खड़ी हैं। उनमें सिद्धांत, विचारधारा, नीति और कार्यक्रम का आधार शुद्ध सत्ता-प्रेम है और अवसरवादिता है। इन पार्टियों में न आतंरिक अंकुश है और न ही बाह्य ! इसीलिए भारतीय राजनीति अहंकार और भ्रष्टाचार में डूबी हुई है। वह काजल की कोठरी बन गई है। पार्टियों के नेता निरंकुश हो जाते हैं। कांग्रेस-जैसी महान पार्टी आज जिस दुर्दशा में है, क्या उस पर कोई पार्टी-कार्यकर्ता मुंह खोल सकता है ? यह स्थिति आज सभी पार्टियों की हो गई है। कोई भी अपवाद नहीं है लेकिन इसे क्या हम आपातकाल कह सकते हैं ? नहीं, बिल्कुल नहीं।
आजकल विपक्ष रोज़ एक से एक फूहड़ आरोप प्रधानमंत्री और सरकार पर लगाता है लेकिन उसका बाल भी कोई बांका नहीं कर रहा है। जो टीवी चैनल और अखबार अपने आप पसर गए हैं, उनकी बात और है लेकिन अगर मोदी के राज में आपात्काल होता तो मेरे-जैसे स्वायत्त लेखक अभी तक या तो परलोक पहुंच जाते या जेल की हवा खाते। (https://newstrack.com)
(नया इंडिया की अनुमति से)
मेरे राजनीतिक रुझान को देखते हुए मैं नवभारत टाईम्स में रहा या हिंदुस्तान में, मुझे अनिवार्य रूप से वामपंथी दल कवर करने को दिए गए। 1986 से जनवरी, 2003 तक- जब तक मैं समाचार ब्यूरो में रहा-मन से यह काम करता रहा। मुझे वामपंथी दल देने से किसी को ऐतराज भी नहीं था क्योंकि कौन ऐसी बीट करना चाहता था? सब कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, राजद आदि करने को उत्सुक थे, जहाँ सत्ता के साथ होने अहसास भी है और अखबार में कवरेज भी अच्छी मिलती है। मुझे किसी की एवजी में कांग्रेस या भाजपा दो चार दिन के लिए कवरेज करने को भले ही दी गई, स्थायी रूप से कभी नहीं दी गई, जबकि मेरा मानना रहा है कि संवाददाता की अपनी विचारधारा जो भी हो, मगर जब वह किसी पार्टी को कवर करे तो ईमानदारी से रिपोर्ट में उसका पक्ष रखे और जहाँ जितनी खबर हो, उतना महत्व दे। इसलिए जब एक वाम दल की ओर से उसके एक कामरेड की ओर से प्रस्ताव आया कि मैं पार्टी की सदस्यता ले लूँ तो मैंने कहा कि मैं संवाददाता और टिप्पणीकार हूँ, मैं वाम दलों की भी आलोचना का अधिकार अपने पास सुरक्षित रखना चाहता हूँ, यह मौका नहीं देना चाहता कि कल आप कहें कि सदस्य होते हुए भी मैं पार्टी की आलोचना किया करता हूँँ। उसके बाद कभी ऐसा प्रस्ताव नहीं आया और आज तक मेरी यह स्वतंत्रता सुरक्षित है और अंत तक रहेगी। हाँ मेरे लेख, टिप्पणी या कविता का उपयोग करने के लिए औरों के साथ ये भी स्वतंत्र हैं। कभी अपने हिसाब से लिखा भी है उनके लिए।
यह तो एक बात हुई। इस कारण वामपंथी पार्टियों के कुछ नेताओं के संपर्क में आया, हालांकि नजदीकी किसी से खास नहीं रही। हाँ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के बरसों सचिव रहे मुकीम फारुकी साहब के बारे मेंं यह दावा जरूर कर सकता हूँ। वह छोटे कद के मोटी खादी का कुर्ता-पायजामा पहननेवाले सीधेसादे बुजुर्ग थे। व्यवहार में पूरे गाँधीवादी। कभी उनके मुँह से ऊँची आवाज में, आक्रोश में कोई बात नहीं सुनी। दिलचस्प और दोस्ताना अंदाज होता था, उनका, जिसे सादगी की प्रतिमूर्ति कहते हैं,वे थे।जब भी जाओ, बात कर लेते थे और हमेशा खबर मिलना जरूरी भी नहीं। उनसे मिलकर अच्छा लगता था।गर्मजोशी से स्वागत करते थे।
सी.राजेश्वर राव से निकटता नहीं रही, उनका एक या दो बार साक्षात्कार अखबार के लिए जरूर लिया। मजबूत शरीर के करीब छह फुट लंबे राव साहब में भी यह सादगी थी और यही ए बी वद्ध्र्रन में भी। बेहद मामूली पैंट शर्ट में वद्र्धन अजय भवन के एक छोटे से कमरे में रहते थे। व्यक्तिगत व्यवहार में बहुत विनम्र और खरे मगर राजनीतिक लाइन में आक्रामक। इन नेताओं से मिल कर लगता ही नहीं था कि आजादी के और कम्युनिस्ट पार्टी के इतिहास के करीबी गवाहों से मिल रहे हैं, जिनका अपना भी संघर्षों का इतिहास है।
यही सादगी माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के बीटी रणदिवे, बसवपुनैया और ईएमएस नंबूदरीपाद में भी देखी। वही सहजता भी। सहज तो हरकिशन सिंह सुरजीत भी थे मगर पंजाब में आतंकवाद के दौर में चूँकि वे आतंकवादियों के निशाने पर थे तो उन्हें एक बंगला मिला हुआ था। वह शिखर की संसदीय राजनीति के अपने समय में बड़े खिलाड़ी थे। उनकी पार्टी छोटी थी मगर विश्वनाथ प्रताप सिंह, इंदर कुमार गुजराल, एच डी देवेगौड़ा को प्रधानमंत्री बनवाने में उनकी एकमात्र तो नहीं मगर केंद्रीय भूमिका थी। बातचीत को किसी नतीजे तक पहुँचाने की कला उन्हें आती थी।उनका बस चलता तो ज्योति बसु, विश्वनाथ प्रताप सिंह के बाद देश के प्रधानमंत्री हुए होते, जिनके नाम पर राष्ट्रीय मोर्चा गठबंधन के सारे दल एकमत थे। बसु भी राजी थे मगर जो वामपंथी दलों में लोकतंत्र न होने की बात करते हैं, उन्हें याद होना चाहिए कि माकपा की केंद्रीय समिति को सैद्धांतिक कारणों से यह स्वीकार नहीं हुआ, इसलिए पार्टी महासचिव और एक बड़े वामपंथी नेता और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री की भी नहीं चल सकी।ज्योति बसु हों या उनके समर्थक न कोई पार्टी से गया, न इस कारण पार्टी नेतृत्व बदला।
मैंने जितने साल वामपंथी दलों की कवरेज की, प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद कोरे चाय-बिस्कुट मिलते थे। सीपीएम की प्रेस कांफ्रेंस में एक बार बुद्धदेब भट्टाचार्य की भारी जीत पर जरूर एक-एक लड्डू मिला था,जबकि कांग्रेसी-भाजपाई चाय या ठंडा के साथ मीठा नमकीन भी प्रेसवार्ता में बँटवाते थे, कभी कभी लंच पर भी प्रेस कांफ्रेंस होती थी।इधर वामपंथी दल, तीन साला राष्ट्रीय सम्मेलन में भी कभी किसी संवाददाता को न अपने खर्च से ले जाते थे,न ठहरने का प्रबंध करते थे, जबकि कांग्रेस -भाजपा जैसी बड़ी पार्टियाँ सभी व्यवस्थाएँ करती थीं। वाम दल कवर करना है तो अखबार सारा खर्च उठाए और अधिकांंश समय अखबार इसके लिए राजी नहीं होते थे। अखबार में भी ऊपर से नीचे तक लोग कवरेज ठीक से देने के लिए राजी नहीं होते थे, चाहे खबर महत्वपूर्ण हो।हाँ बड़ी राजनीतिक उथलपुथल हो और उसमें इन पार्टियों की भूमिका हो तो अलग बात है।आज भी शायद यह है कि जो चाय,जिस कप में बाकी कार्यकर्ता पीएँगे, उसमें बड़े नेता भी पिएंगे। खाना भी वही सादा मिलेगा, जो नीचे से नीचे के कार्यकर्ता को मिलेगा। जब मैंं कवर करता था, तब तक प्रकाश कारत (सीताराम येचुरी भी) केंद्रीय समिति और बाद मेंं पार्टी के पोलिट ब्यूरो के सदस्य थे।कारत तब पार्टी के केंद्रीय कार्यालय के अन्य सदस्यों के साथ एक ही वाहन में आते-जाते थे। येचुरी के पास कोई पुरानी सी कार थी। सीपीआई में शायद किसी के पास अपना वाहन रहा हो।
ये मेरे कुछ अनुभव हैं, इन पार्टियों की सफलता-विफलता या माक्र्सवादी विचारधारा का मूल्यांकन नहीं। उस पर लिखना होगा तो कभी और लिखूंगा।
-विष्णु नागर
-श्रवण गर्ग
कुछ पर्यटक स्थलों पर 'ईको पाइंट्स' होते हैं जैसी कि मध्य प्रदेश में प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान माण्डू और सतपुड़ा की रानी के नाम से प्रसिद्ध पचमढ़ी के बारे में लोगों को जानकारी है। पर्यटक इन स्थानों पर जाते हैं और ईको पाइंट पर गाइड द्वारा उन्हें कुछ ज़ोर से बोलने को कहा जाता है। कई बार लोग झिझक जाते हैं कि वे क्या बोलें! कई बार जोर से बोल नहीं पाते या फिर जो कुछ भी बोलना चाहते हैं, नहीं बोलते। आसपास खड़े लोग क्या सोचेंगे, ऐसा विचार मन में आता है। जो हिम्मत कर लेते हैं उन्हें बोले जाने वाला शब्द दूर कहीं चट्टान से टकराकर वापस सुनाई देता है। पर जो सुनाई देता है वह बोले जाने वाले शब्द का अंतिम सिरा ही होता है। शब्द अपने आने-जाने की यात्रा में खंडित हो जाता है। ईको पाइंट पर बोले जाने वाले शब्द के साथ भी वैसा ही होता है जैसा कि जनता द्वारा सरकारों को दिए जाने वाले टैक्स या समर्थन को लेकर होता है। जनता टैक्स तो पूरा देती है पर उसका दिया हुआ रुपया जब ऊपर टकराकर मदद के रूप में उसी के पास वापस लौटता है तो बारह पैसे रह जाता है। ऐसा तब राजीव गांधी ने कहा था।
बहरहाल, ईको पाइंट पर पहुँचकर कुछ लोग अपने मन में दबा हुआ कोई शब्द बोल ही देते हैं और बाकी सब उसके टकराकर लौटने पर कान लगाए रहते हैं। जैसा कि आमतौर पर सड़कों-बाजारों में भी होता है। बोलनेवाला यही समझता है कि बोला हुआ शब्द केवल सामने कहीं बहुत दूर स्थित चट्टान या बिंदु को ही सुनाई पडऩे वाला है और वहीं से टकराकर वापस भी लौट रहा है। यह पूरा सत्य नहीं है।ईको पाइंट के सामने खड़े होकर साहस के साथ बोला गया शब्द उस कथित चट्टान या बिंदु तक सीधे ही नहीं पहुँच जाता। वह अपनी यात्रा के दौरान एक बड़ी अंधेरी खाई, छोटी-बड़ी चट्टानों, अनेक ज्ञात-अज्ञात जल स्रोतों, झाडिय़ों और वृक्षों, पशु-पक्षियों यानी कि ब्रह्मांड के हर तरह से परिपूर्ण एक छोटे से अंश को गुंजायमान करता है। ऐसा ही वापस लौटने वाले शब्द के साथ भी होता है।
आज तमाम नागरिक अपने-अपने शासकों, प्रशासकों और सत्ताओं के ईको पाइंट्स के सामने खड़े हुए हैं। गाइड्स उन्हें बता रहे हैं कि जोर से आवाज लगाइए, आपकी बात मानवीय चट्टानों तक पहुँचेगी भी और लौटकर आएगी भी, यह बताने के लिए कि बोला हुआ ठीक जगह पहुँच गया है। पर बहुत कम लोग इस तरह के ईको पाइंट्स के सामने खड़े होकर अपने 'मन की बात' बोलने की हिम्मत दिखा पाते हैं। अधिकांश तो तमाशबीनों की तरह चुपचाप खड़े रहकर सबकुछ देखते और सुनते ही रहते हैं।वे न तो बोले जाने वाले या फिर टकराकर लौटने वाले शब्द के प्रति अपनी कोई प्रतिक्रिया ही व्यक्त करते हैं। वे मानकर ही चलते हैं कि बोला हुआ शब्द गूँगी और निर्मम चट्टानों तक कभी पहुँचेगा ही नहीं। पहुँच भी गया तो क्षत-विक्षत हालत में ही वापस लौटेगा। यह अर्ध सत्य है।
सच तो यह है कि साहस करके कुछ भी बोलते रहना अब बहुत ही जरूरी हो गया है। अगर ऐसा नहीं किया गया तो हम भी चट्टानों की तरह ही कू्रर, निर्मम और बहरे हो जाएँगे। तब हमें भी किसी दूसरे या अपने का ही बोला हुआ कभी सुनाई नहीं पड़ेगा। बोला जाना इसलिए जरूरी है कि ईको पाइंट्स और हमारी प्रार्थनाओं के शब्दों को अपनी प्रतिक्रिया के साथ वापस लौटाने वाली चट्टानों के बीच एक बहुत बड़ा सजीव संसार भी उपस्थित है।
यह संसार हर दम प्रतीक्षा में रहता है कि कोई कुछ तो बोले। इस संसार में एक बहुत बड़ी आबादी बसती है जिसमें कई वे असहाय लोग भी होते हैं जिन्हें कि पता ही नहीं है कि कभी कुछ बोला भी जा सकता है, चट्टानों को भी सुनाया जा सकता है, बोले गए शब्दों की प्रतिध्वनि से संगीत का रोमांच भी उत्पन्न हो सकता है।वापस लौटने वाला शब्द चाहे जितना भी खंडित हो जाए, यह भी कम नहीं कि वह कहीं जाकर टकरा तो रहा है, वहाँ कोई कम्पन तो पैदा कर रहा है। अगर हम स्वयं ही एक चट्टान बन गए हैं तो फिर शुरुआत कभी-कभी खुद के सामने ही बोलकर भी कर सकते हैं। हमें इस बात की तैयारी भी रखनी होगी कि जब हम बोलने की कोशिश करेंगे, हमें बीच में रोका भी जाएगा।याद किया जा सकता है कि गुजरे दौर के मशहूर अभिनेता अमोल पालेकर जब पिछले साल फरवरी में मुंबई में एक कार्यक्रम में अभिव्यक्ति की आजादी को दबाने की कोशिशों की आलोचना कर रहे थे तो किस तरह से उन्हें बीच में ही रोक दिया गया था और उन्हें अपना बोलना बंद करना पड़ा था।आपातकाल की शुरुआत ऐसे ही होती है। उसे रोकने के लिए बोलते रहना जरूरी है।
अंत में नाराज तथा गुमसुम जनता ने अपना बदला ले ही लिया
(नई दुनिया और नवभारत टाइम्स के संपादक रहे राजेंद्र माथुर ने यह आलेख 23 मार्च, 1977 को जनता पार्टी की जीत की घोषणा के बाद लिखा था.)
रविवार रात दो-ढाई बजे खबर आई कि रायबरेली में दोबारा मतदान और मतगणना की अर्जियां मतदान अधिकारी ने नामंजूर कर दी हैं. रात साढ़े तीन बजे के करीब कार्यवाहक राष्ट्रपति वासप्पा दानप्पा जत्ती ने आपातकाल हटा लेने की घोषणा कर दी.
आपातकाल की समाप्ति का एक नतीजा यह हुआ है कि संविधान की धारा 19 में वर्णित जो बुनियादी आजादियां खत्म कर दी गई थीं, वे दोबारा कायम हो गई हैं. मीसा की वे धाराएं भी अपने-आप गायब हो गई हैं, जो सरकार को बिना कारण गिरफ्तारी के अपार अधिकार देती थीं. अत: मीसा बंदियों को गिरफ्तार रखना अब संभव नहीं होगा.
आपातकाल 26 जून, 1975 को लगाया गया था. उसका कारण यह बताया गया कि प्रतिपक्ष ने अंदरूनी उपद्रव द्वारा सरकार का कामकाज असंभव बना दिया है. लेकिन 12 जून, 1975 को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला देकर रायबरेली से श्रीमती गांधी का चुनाव रद्द कर दिया था. उम्मीद थी कि इस फैसले के तुरंत बाद श्रीमती गांधी इस्तीफा दे देंगी. लेकिन कांग्रेस कार्यकारिणी, संसदीय दल, वरिष्ठ नेता, और चौराहे की आयोजित भीड़ें- सब एक स्वर से यह कहते पाए गए कि श्रीमती गांधी में उन्हें विश्वास है.
श्रीमती गांधी ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील की. न्यायालय ने उन्हें अंतिम फैसला होने तक वोट के अधिकार से वंचित व्यक्ति की तरह लोकसभा की कार्रवाई में भाग लेने की इजाजत दी. उधर प्रतिपक्ष ने उनके इस्तीफे के लिए बुलंद आवाज उठाई, और 25 जून को जयप्रकाश नारायण ने रामलीला मैदान में एक लड़ाकू भाषण दिया.
25-26 जून की दरम्यानी रात को जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई तथा हजारों प्रतिपक्षी नेता तथा कार्यकर्ता गिरफ्तार कर लिए गए. सुबह रेडियो पर एक भाषण देते हुए श्रीमती गांधी ने आपातकाल का ऐलान कर दिया, और कहा कि वह बहुत कम अरसे के लिए होगा.
आपातकाल के एक हफ्ते के अंदर एक जुलाई को प्रधानमंत्री ने एक 20 सूत्री आर्थिक कार्यक्रम का ऐलान किया. विनोबा ने तब आपातस्थिति को अनुशासन-पर्व बताया. लेकिन जब श्रीमती गांधी ने फरवरी, 1976 में चुनाव कराने से इनकार कर दिया तो विनोबा भी श्रीमती गांधी से खिन्न हो गए.
आपातकाल के कदमों को भारतीय राजनीति का स्थायी अंग बनाने के लिए श्रीमती गांधी की सरकार ने नवंबर, 1976 में संविधान का 42वां संशोधन मंजूर किया, जिसने इस किताब की शक्ल बदल दी. एक प्रेस कानून भी पास हुआ जो अखबारों को दंडित करने का स्थायी अधिकार सरकार को देता है. लेकिन इस दौरान इंडियन एक्सप्रेस और स्टेट्समैन जैसे पत्रों ने जोखिम उठाकर सरकार की ज्यादती के खिलाफ लगातार संघर्ष किया.
आपातकाल के दौरान स्वाधीन भारत के इतिहास में पहली बार सेंसरशिप लागू हुई. संसद की कार्रवाई को रिपोर्ट करने पर भी पाबंदी लगाई. कई मुख्यमंत्रियों के बयान भी नहीं छपने दिए गए; मसलन महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री का यह वक्तव्य कि खेती को संविधान की समवर्ती सूची में रखने का वे विरोध करते हैं.
आपातकाल संजय गांधी की सलाह से लगाया गया था. संकट के समय संजय की सलाह से प्रभावित होकर श्रीमती गांधी अपने पुत्र के प्रति ममता और कृतज्ञता से भर गईं. दबाव डालकर उनके नाम अखबारों के पहले पन्ने पर छपवाए जाने लगे, और मुख्यमंत्री उनकी राजकुमार की तरह अगवानी करने लगे. सारे देश को लगा कि श्रीमती गांधी अपने पुत्र को भावी प्रधानमंत्रित्व के लिए तैयार कर रही हैं.
संजय गांधी को युवक कांग्रेस का काम सौंपा गया. उन्होंने अपने वफादारों की एक नई सेना संगठित की; जिसका बड़ा जलसा गुवाहाटी में अभी नवंबर में हुआ. उसी समय कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन भी वहीं हो रहा था. प्रधानमंत्री ने तब हर्ष के साथ कहा कि कांग्रेस की काफी गरज युवक कांग्रेस ने छीन ली है. गुवाहाटी के बाद इरादा यह था कि पुरानी कांग्रेस का कायाकल्प करके उसे संजय गांधी का राजतिलक करने वाली कांग्रेस बना दिया जाए.
संजय गांधी की नाराजगी के कारण श्रीमती गांधी के कई पुराने साथी अलग छिटक गए और उनका महत्व कम हो गया. नंदिनी सत्पथी और हेमवती नंदन बहुगुणा को जाना पड़ा. सिद्धार्थ शंकर राय को हटाने की कोशिश शुरू हुई. रजनी पटेल अलग कर दिए गए. गुवाहाटी में कांग्रेस अध्यक्ष बरुआ को एक युवक नेता ने खुलेआम भला-बुरा कहा.
सूचना और रेडियो मंत्री मंत्री विद्याचरण शुक्ल ने आजादी के दीये बुझाने में उल्लेखनीय रोल अदा किया. फिल्मी गीतकारों और अभिनेताओं के उन्होंने सरकार की प्रशंसा में गीत गाने के लिए मजबूर किया और किशोर कुमार जैसे कलाकार ने जब इनकार कर दिया तो रेडियो से उनके गाने न बजाने के आदेश दे दिए गए. कई ख्यातिप्राप्त अखबार बंद हो गए, जैसे रमेश थापर का सेमिनार, साने गुरूजी का साधना, राजमोहन गांधी का हिम्मत, अंग्रेजी त्रैमासिक क्वेस्ट, एडी गोरवाला का ओपीनियन.
सरकार के खिलाफ फैसला देने वाले जजों के तबादले आपातकाल में शुरू हुए. दिल्ली में कुलदीप नैयर ने, गुजरात में भूमिपुत्र ने और मीनू मसानी के फ्रीडम फर्स्ट ने न्यायालयों में ऐतिहासिक लड़ाइयां लड़ीं. लेकिन सरकार ने अदालतों के फैसलों को छापने पर भी पाबंदी लगा दी. जनसंघ का अखबार मदरलैंड बंद हो गया और कम्यूनिस्टों के दैनिक पैट्रियट ने जब संजय गांधी की तसवीरें छापने से इनकार कर दिया तो सरकार ने उसके विज्ञापन बंद कर दिए. विद्याचरण शुक्ल ने बार-बार कहा कि पुरानी आजादी फिर कभी लौटने नहीं दी जाएगी.
आपातकाल के दौरान रेलें समय से चलीं, बोनस की मांगें या हड़तालें नहीं हुईं, पहली बार हुकूमत ने सख्ती से राज करने का आभास दिया. आर्थिक उत्पादन बढ़ा, अन्न का भंडार एक करोड़ 80 लाख टन हो गया और विदेशी मुद्रा से खजाना भरपूर हो गया. लेकिन सरकार यह कभी समझा नहीं सकी कि इन उपलब्धियों के लिए डेढ़ लाख लोगों को जेल में रखना क्यों जरूरी है, और इन लोगों ने क्या गद्दारी की है.
संजय गांधी के पांच सूत्री कार्यक्रम के अंतर्गत नसबंदी का कोटा हर पटवारी, डॉक्टर, शिक्षक आदि को दिया गया, जिसका नतीजा यह हुआ कि खेतों, खलिहानों और शिविरों में जबरन पकड़-पकड़कर लोगों की नसबंदी की गई. कांग्रेस की हार का यह एक प्रमुख कारण रहा है.
आपातकाल के 19 महीनों तक देश में अजीब-सी खामोशी रही, जिससे श्रीमती गांधी को लगा कि प्रतिपक्ष एक फिजूल का गुब्बारा था, जिसे अखबारों और आंदोलनकारियों ने हवा भर-भरकर फुला दिया है. वे लगातार कहती रहीं कि हमने प्रजातंत्र के रास्ते को छोड़ा नहीं है, और चुनाव होंगे.
इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद श्रीमती गांधी ने चुनाव कानूनों में परिवर्तन कर लिया, और राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री आम उम्मीदवार से अलग श्रेणी में रख दिए गए. इस नए कानून के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद के फैसले को रद्द कर दिया. सिर्फ मोहम्मद हमीदुल्ला बेग ने यह अनावश्यक टिप्पणी की कि नए कानून के बजाय हम पुराने कानूनों के आधार पर ही विचार करें तो भी श्रीमती गांधी मुकदमा जीतती हैं. श्री बेग आज भारत के मुख्य न्यायाधीश हैं और श्री खन्ना की वरीयता की उपेक्षा कर उन्हें यह पद दिया गया है.
हेबियस कॉर्पस (गिरफ्तारी के बाद अदालत में सुनवाई) का अधिकार आपातकाल के दौरान सारी आजादियां स्थगित होने के बाद भी नागरिक को है या नहीं, इस विषय में एक ऐतिहासिक फैसला सर्वोच्च न्यायालय ने दिया. उसने कहा कि जो अधिकार संविधान में ही नहीं है, वह मौजूद ही नहीं हो सकता. इसके विपरीत न्यायमूर्ति एचआर खन्ना ने कहा कि हेबियस कॉर्पस का अधिकार कानून के राज की बुनियाद है, और वह संविधान के बाहर स्थित एक अलिखित अधिकार है, जिस पर अदालतें अमल करवा सकती हैं.
18 जनवरी, 1977 को प्रधानमंत्री ने चुनाव की घोषणा की. इससे पहले कई लोग कह चुके थे कि चुनाव नहीं होंगे. नवंबर, 1976 में लोकसभा कार्यकाल एक साल और बढ़वा लिया गया था. संजय गांधी चाहते थे कि जब तक उनका संगठन भारत-भर में न फैल जाए तब तक चुनाव रुके रहें.
लेकिन जनवरी 1977 के बाद घटनाचक्र तेजी से घूमा. (23 जनवरी, 1977 को) चार दलों के विलय के बाद एक जनता पार्टी बनी. रामलीला मैदान में जयप्रकाश नारायण को सुनने के लिए अभूतपूर्व सभा हुई. दो फरवरी को जगजीवन राम ने इस्तीफा दे दिया. जनता पार्टी का असर एक आंधी की तरह प्रबल होता गया. और अंत में नाराज तथा गुमसुम जनता ने अपना बदला ले ही लिया. (satyagrah.scroll.in)
आपातकाल में जो और जैसे हुआ उसको बड़ी सरलता से समझ सकते हैं
लक्ष्य की रक्षा
एक था कछुआ, एक था खरगोश जैसा कि सब जानते हैं. खरगोश ने कछुए को संसद, राजनीतिक मंच और प्रेस के बयानों में चुनौती दी- अगर आगे बढ़ने का इतना ही दम है, तो हमसे पहले मंजिल पर पहुंचकर दिखाओ. रेस आरंभ हुई. खरगोश दौड़ा, कछुआ चला धीरे-धीरे अपनी चाल.
जैसा कि सब जानते हैं आगे जाकर खरगोश एक वृक्ष के नीचे आराम करने लगा. उसने संवाददाताओं को बताया कि वह राष्ट्र की समस्याओं पर गम्भीर चिंतन कर रहा है, क्योंकि उसे जल्दी ही लक्ष्य तक पहुंचना है. यह कहकर वह सो गया. कछुआ लक्ष्य तक धीरे-धीरे पहुंचने लगा.
जब खरगोश सो कर उठा, उसने देखा कि कछुआ आगे बढ़ गया है, उसके हारने और बदनामी के स्पष्ट आसार हैं. खरगोश ने तुरंत आपातकाल घोषित कर दिया
शरद जोशी
जब खरगोश सो कर उठा, उसने देखा कि कछुआ आगे बढ़ गया है, मेरे हारने और बदनामी के स्पष्ट आसार हैं. खरगोश ने तुरंत आपातकाल घोषित कर दिया. उसने अपने बयान में कहा कि प्रतिगामी पिछड़ी और कंजरवेटिव (रूढ़िवादी) ताकतें आगे बढ़ रही हैं, जिनसे देश को बचाना बहुत ज़रूरी है. और लक्ष्य छूने के पूर्व कछुआ गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया.
शेर की गुफा में न्याय
जंगल में शेर के उत्पात बहुत बढ़ गए थे. जीवन असुरक्षित था और बेहिसाब मौतें हो रही थीं. शेर कहीं भी, किसी पर हमला कर देता था. इससे परेशान हो जंगल के सारे पशु इकट्ठा हो वनराज शेर से मिलने गए. शेर अपनी गुफा से बाहर निकला – कहिए क्या बात है?
उन सबने अपनी परेशानी बताई और शेर के अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाई. शेर ने अपने भाषण में कहा –
‘प्रशासन की नजर में जो कदम उठाने हमें जरूरी हैं, वे हम उठाएंगे. आप इन लोगों के बहकावे में न आवें जो हमारे खिलाफ हैं. अफवाहों से सावधान रहें, क्योंकि जानवरों की मौत के सही आंकड़े हमारी गुफा में हैं जिन्हें कोई भी जानवर अंदर आकर देख सकता है. फिर भी अगर कोई ऐसा मामला हो तो आप मुझे बता सकते हैं या अदालत में जा सकते हैं.’
चूंकि सारे मामले शेर के खिलाफ थे और शेर से ही उसकी शिकायत करना बेमानी था इसलिए पशुओं ने निश्चय किया कि वे अदालत का दरवाजा खटखटाएंगे.
जानवरों के इस निर्णय की खबर गीदड़ों द्वारा शेर तक पहुंच गई थी. उस रात शेर ने अदालत का शिकार किया. न्याय के आसन को पंजों से घसीट अपनी गुफा में ले आया.
शेर ने अपनी नई घोषणाओं में बताया – जंगल के पशुओं की सुविधा के लिए, गीदड़ मंडली के सुझावों को ध्यान में रखकर हमने अदालत को सचिवालय से जोड़ दिया है
जंगल में इमर्जेंसी घोषित कर दी गई. शेर ने अपनी नई घोषणाओं में बताया – जंगल के पशुओं की सुविधा के लिए, गीदड़ मंडली के सुझावों को ध्यान में रखकर हमने अदालत को सचिवालय से जोड़ दिया है, ताकि न्याय की गति बढ़े और व्यर्थ की ढिलाई समाप्त हो. आज से सारे मुकदमों की सुनवाई और फैसले हमारे गुफा में होंगे.
इमर्जेंसी के दौर में जो पशु न्याय की तलाश में शेर की गुफा में घुसा उसका अंतिम फैसला कितनी शीघ्रता से हुआ इसे सब जानते हैं.
क्रमश: प्रगति
खरगोश का एक जोड़ा था, जिनके पांच बच्चे थे.
एक दिन भेड़िया जीप में बैठकर आया और बोला - असामाजिक तत्वों तुम्हें पता नहीं सरकार ने तीन बच्चों का लक्ष्य रखा है. और दो बच्चे कम करके चला गया.
कुछ दिनों बाद भेड़िया फिर आया और बोला कि सरकार ने लक्ष्य बदल दिया और एक बच्चे को और कम कर चला गया. खरगोश के जोड़े ने सोचा, जो हुआ सो हुआ, अब हम शांति से रहेंगे. मगर तभी जंगल में इमर्जेंसी लग गई.
कुछ दिन बाद भेड़िये ने खरगोश के जोड़े को थाने पर बुलाया और कहा कि सुना है, तुम लोग असंतुष्ट हो सरकारी निर्णयों से और गुप्त रूप से कोई षड्यंत्र कर रहे हो? खरगोश से साफ इनकार करते हुए सफाई देनी चाही, पर तभी भेड़िये ने बताया कि इमर्जेंसी के नियमों के तहत सफाई सुनी नहीं जाएगी.
उस रोज थाने में जोड़ा कम हो गया.
दो बच्चे बचे. मूर्ख थे. मां-बाप को तलाशने खुद थाने पहुंच गए. भेड़िया उनका इंतजार कर रहा था. यदि थाने नहीं जाते तो वे इमर्जेंसी के बावजूद कुछ दिन और जीवित रह सकते थे.
कला और प्रतिबद्धता
कोयल का कंठ अच्छा था, स्वरों का ज्ञान था और राग-रागनियों की थोड़ी बहुत समझ थी. उसने निश्चय किया कि वह संगीत में अपना कैरियर बनाएगी. जाहिर है उसने शुरुआत आकाशवाणी से करनी चाही.
कोयल ने एप्लाय (आवेदन) किया. दूसरे ही दिन उसे ऑडीशन के लिए बुलावा आ गया. वे इमर्जेंसी के दिन थे और सरकारी कामकाज की गति तेज हो गई थी.
कोयल आकाशवाणी पहुंची. स्वर परीक्षा के लिए वहां तीन गिद्ध बैठे हुए थे. ‘क्या गाऊं?’ कोयल ने पूछा.
गिद्ध हंसे और बोले, ‘यह भी कोई पूछने की बात है. बीस सूत्री कार्यक्रम पर लोकगीत सुनाओ. हमें सिर्फ यही सुनने-सुनाने का आदेश है.’
गिद्ध हंसे और बोले, ‘यह भी कोई पूछने की बात है. बीस सूत्री कार्यक्रम पर लोकगीत सुनाओ. हमें सिर्फ यही सुनने-सुनाने का आदेश है.’
‘बीस सूत्री कार्यक्रम पर लोकगीत? वह तो मुझे नहीं आता. आप कोई भजन या गजल सुन सकते हैं.’ कोयल ने कहा.
गिद्ध फिर हंसे. ‘गजल या भजन? बीस सूत्री कार्यक्रम पर हो तो अवश्य सुनाइए?’
‘बीस सूत्री कार्यक्रम पर तो नहीं है.’ कोयल ने कहा. ‘तब क्षमा कीजिए, कोकिला जी. हमारे पास आपके लिए कोई स्थान नहीं है.’ गिद्धों ने कहा.
कोयल चली आई. आते हुए उसने देखा कि म्यूजिक रूम (संगीत कक्ष) में कौओं का दल बीस सूत्री कार्यक्रम पर कोरस रिकॉर्ड करवा रहा है.
कोयल ने उसके बाद संगीत में अपनी करियर बनाने का आइडिया त्याग दिया और शादी करके ससुराल चली गई.
बुद्धिजीवियों का दायित्व
लोमड़ी पेड़ के नीचे पहुंची. उसने देखा ऊपर की डाल पर एक कौवा बैठा है, जिसने मुंह में रोटी दाब रखी है. लोमड़ी ने सोचा कि अगर कौवा गलती से मुंह खोल दे तो रोटी नीचे गिर जाएगी. नीचे गिर जाए तो मैं खा लूं.
‘लोमड़ी बाई, शासन ने हम बुद्धिजीवियों को यह रोटी इसी शर्त पर दी है कि इसे मुंह में ले हम अपनी चोंच को बंद रखें. मैं जरा प्रतिबद्ध हो गया हूं आजकल’
लोमड़ी ने कौवे से कहा, ‘ भैया कौवे! तुम तो मुक्त प्राणी हो, तुम्हारी बुद्धि, वाणी और तर्क का लोहा सभी मानते हैं. मार्क्सवाद पर तुम्हारी पकड़ भी गहरी है. वर्तमान परिस्थितियों में एक बुद्धिजीवी के दायित्व पर तुम्हारे विचार जानकर मुझे बहुत प्रसन्नता होगी. यों भी तुम ऊंचाई पर बैठे हो, भाषण देकर हमें मार्गदर्शन देना तुम्हें शोभा देगा. बोलो मुंह खोले कौवे!’
इमर्जेंसी का काल था. कौवे बहुत होशियार हो गए थे. चोंच से रोटी निकाल अपने हाथ में ले धीरे से कौवे ने कहा - ‘लोमड़ी बाई, शासन ने हम बुद्धिजीवियों को यह रोटी इसी शर्त पर दी है कि इसे मुंह में ले हम अपनी चोंच को बंद रखें. मैं जरा प्रतिबद्ध हो गया हूं आजकल, क्षमा करें. यों मैं स्वतंत्र हूं, यह सही है और आश्चर्य नहीं समय आने पर मैं बोलूं भी.’
इतना कहकर कौवे ने फिर रोटी चोंच में दबा ली. (satyagrah.scroll.in)
चीन के साथ तनातनी के बीच केंद्र सरकार ने बीएसएनएल और एमटीएनएल में किसी भी चीनी उपकरण के प्रयोग पर तत्काल रोक लगा दी लेकिन यही मोदी सरकार हवाई कंपनी को कुछ महीने पहले ही भारत में 5 प्रतिशत ट्रायल शुरू करने की अनुमति दे चुकी है, है न आश्चर्य की बात?
चीन के सामान के बहिष्कार की खबरें आती रही और कल ही चीन की ग्रेट वॉल मोटर (जीडब्ल्यूएम) ने महाराष्ट्र सरकार के साथ एक समझौता ज्ञापन (एमओयू) साइन कर भारत के ऑटोमोबाइल में एक बड़ी डील की घोषणा की है और महाराष्ट्र को क्या रोना? चीन की एसएआईसी मोटर कॉर्प गुजरात के पंचमहल जिले के हलोल में प्लांट लगा रही है एफआईसीसीआई की एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले 6 सालों में देश के ऑटोमोबाइल सेक्टर में 40 प्रतिशत, हिस्सा चीन के कब्जे में जा चुका है ओर जल्द ही पूरा चला जाएगा!, फिर कहा जाएगा आपका तथाकथित आत्मनिर्भर?
देश के बड़े-बड़े टेंडर जैसे मेट्रो रेल, सुरँग निर्माण जैसे ठेके भी चाइना की कम्पनियों को बेहिसाब ढंग से बाँटे गए हैं जो हम रोज अखबारों में देख रहे हैं हा अखबारों से याद आया। आपको याद होगा कि कुछ दिन पहले ही मोदीजी के प्रिय मित्र अडानी को दुनिया का सबसे बड़ा सोलर संयंत्र देश में स्थापित करने का ठेका दिया गया है।
साल 2011-12 तक भारत जर्मनी, फ्रांस, इटली को सोलर पैनल एक्सपोर्ट करता था। यानी भारत माल भेजता था लेकिन 2014 के बाद से चीन की सोलर पैनल की डंपिंग के चलते भारत से सोलर पैनल का एक्सपोर्ट रुक गया है सिर्फ चाइनीज सोलर पैनल की डंपिंग की वजह से देश में दो लाख नौकरियां खत्म हुई हैं। और यह सब किया गया इज ऑफ डूइंग बिजनेस के नाम पर आज हमने अपने सोलर पैनल उत्पादन को लगभग खत्म कर दिया है और सारा माल चीन से मंगाना शुरू कर दिया है चीन से इंपोर्ट होने वाले सोलर पैनल में एंटीमनी जैसे खतरनाक रसायन होते हैं, जिनके आयात की अनुमति नहीं होनी चाहिए। लेकिन उसके बावजूद यह अनुमति दी गई। नतीजा यह हुआ कि हमने अपनी सोलर पैनल इंडस्ट्री को पिछले 6 सालों में तबाह कर लिया।
और यह मैं नहीं कह रहा हूँ यह कह रही है अकाली दल के नरेश गुजराल की अध्यक्षता वाली संसद की वाणिज्य संबंधी स्थाई समिति। यह समिति अपनी रिपोर्ट में कहती है कि यह समिति चीन से सस्ते सामान के आयात की भत्र्सना करती है। बहुत ही दुखद बात है कि ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ के नाम पर हम चीनी सामान को अपने बाजार में जगह देने के लिए बहुत उत्सुक हैं जबकि चीन सरकार अपने उद्योग को भारतीय प्रतिस्पर्धियों से बहुत चालाकी से बचा रही है। समिति ने पाया कि ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्ड्स (बीआईएस) जैसी संस्थाएं घटिया चीनी सामान को भी आसानी से सर्टिफिकेट दे रही हैं जबकि हमारे निर्यात को चीन सरकार बहुत देरी से और काफी ज्यादा फीस वसूलने के बाद ही चीनी बाजार में प्रवेश करने देती है।
चाइना के टीवी फोडऩे से, चीनी एप्प अन इंस्टाल करने से, या आ चुके चीनी सामान का बहिष्कार करने से कुछ भी नहीं होगा! हमें चीन की लकीर को छोटा करना है तो हमे बड़ी लकीर खींचनी होगी जिस तरह से भारत निजीकरण की तरफ बढ़ रहा है जिस तरह से बड़े-बड़े ठेके चीनियों को दिए जा रहे है ऐसे तो आप कितना भी हंगामा मचा लो चीन का हम कुछ भी नही बिगाड़ पाएँगे।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अब 45 साल बाद वह दिन फिर याद आया है। उन दिनों मैं नवभारत टाइम्स का सह-संपादक था। गर्मियों की छुट्टियों में अपने शहर इंदौर में था। 26 जून की सुबह-सुबह मैं अपने मित्र कुप्प सी. सुदर्शन से मिलने गया, सियागंज के पास एक अस्पताल में। वे बाद में आरएसएस के सरसंघचालक बने। सुदर्शनजी का पांव टूट गया था। मेरे जाते ही सुदर्शनजी ने अपना ट्रांजिस्टर चलाया। पहली खबर सुनते ही रोंगटे खड़े हो गए। 25 जून की रात को ही आपात्काल की घोषणा हो गई थी और सूर्योदय के पहले जयप्रकाशजी समेत कई नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था।
सुदर्शनजी से मिलने के बाद मैं सीधे ‘नई दुनिया’ के कार्यालय पहुंचा। उसके मालिक लाभचंदजी छजलानी, तिवारीजी, प्रधान संपादक राहुलजी बारपुते, अभयजी छजलानी आदि हम सब लोग एक साथ बैठे और यह तय हुआ कि इस मप्र के सबसे लोकप्रिय अखबार के संपादकीय की जगह खाली छोड़ दी जाए। अखबारों पर पाबंदियों के निर्देश तब तक सबके पास पहुंच गए थे। दोपहर की रेल पकडक़र मैं दिल्ली आ गया। नवभारत टाइम्स के सारे पत्रकारों की बैठक 27 जून को हुई, जिसमें सभी पाबंदियों को पढ़ा गया। हमारे संपादक श्री अक्षयकुमार जैन के कमरे में जाकर मैंने कहा कि मैं अपना इस्तीफा अभी ही देना चाहता हूं।
उन्होंने कहा कि मैं आपसे राष्ट्रीय राजनीति पर संपादकीय लिखने के लिए कहूंगा ही नहीं। आप अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ हैं। आप बस, उसी पर लिखते रहिए। आपात्काल के सभी उल्टे-सीधे कामों पर मुझसे वरिष्ठ जो दो सह-संपादक थे, वे ही बराबर तालियां बजाते रहे। तीसरे दिन कुलदीप नय्यरजी ने दिल्ली के प्रेस क्लब में पत्रकारों की एक सभा बुलाई। कुलदीपजी और मैंने आपात्काल की भर्त्सना की। उसके बाद मैंने कहा कि यहां रखे रजिस्टर पर सभी पत्रकार दस्तखत करें। देखते ही देखते हॉल खाली हो गया। मेरे सहपाठी और जनसत्ता के संपादक प्रभाष जोशी का शायद उस रजिस्टर में पहला दस्तखत था। अगले दो-चार दिनों में भारतीय पत्रकारिता की दुनिया ही बदल गई। शास्त्री भवन में बैठे एक मलयाली अफसर को दिखाए बिना किसी अखबार का संपादकीय छप ही नहीं सकता था। बड़े-बड़े तीसरमारखां संपादक नवनीत-लेपन विशारद सिद्ध हो रहे थे।
जेल में फंसे और छिपे हुए कई नेताओं से मेरा संपर्क बना हुआ था। अटलजी,चंद्रशेखरजी राजनारायणजी, मधु लिमये, जार्ज फर्नांडिस, बलराज मधोक आदि के संदेश मुझे नियमित मिला करते थे। उस समय के कई वरिष्ठ केंद्रीय मंत्रियों जगजीवन राम, कमलापति त्रिपाठी, प्रकाशचंद मेठी, विद्याचरण शुक्ल आदि से मेरा निजी संपर्क था। सबकी बोलती बंद थी। उन दिनों विद्या भय्या (सूचना मंत्री) और मेरा भाषण जबलपुर विश्वविद्यालय में हुआ था। मैंने आपात्काल की खुलकर आलोचना की। विद्या भय्या मुझसे बात किए बिना चल पड़े। रात को शहर में कई पत्रकार मुझसे गुपचुप मिलने आ गए। ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के संपादक जॉर्ज वर्गीज का एक दिन फोन आया कि उन्हें और मुझे कल सुबह गिरफ्तार कर लिया जाएगा। इंदौर में मेरे पिताजी पहले से ही जेल में थे और अपने छात्र-काल में मैं कई बार जेल काट चुका था। मैंने पूरी तैयारी कर ली थी लेकिन कोई पकडऩे आया नहीं। कई और संस्मरण फिर कभी। (nayaindia.com)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-हिना फ़ातिमा
24 जून को यूजीसी ने घोषणा की है कि देश भर के उच्च शिक्षण संस्थानों और विश्वविद्यालयों में अंतिम वर्ष के छात्रों के लिए कोई परीक्षा नहीं होगी। यूजीसी ने फैसला किया है कि जुलाई में होने वाली वार्षिक परीक्षा के बजाय अब छात्रों को उनके इंटरनल और पूर्व सेमेस्टर प्रदर्शन के आधार पर परिणाम जारी किए जाएंगे। दरअसल पिछले कई महीनों से देशभर में लोग सरकार के ऑनलाइन क्लासिस और एग्जाम कराने के आदेश का विरोध कर रहे हैं। वो सरकार पर शिक्षा का निजीकरण, भेदभाव और सामाजिक बेदखल करने का आरोप लगा रहे हैं।
देशभर में कोरोना के बढ़ते संक्रमण को देखते हुए केंद्र सरकार ने प्राइमरी और उच्च शिक्षा के संस्थानों को ऑनलाइन कक्षाएं लगाने का आदेश दिया था। केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री आरपी निशंक ने यह भी कहा था कि 'जो छात्र ग्रामीण इलाकों में रहते हैं और जिनके लिए ऑनलाइन कक्षाएं लेना मुश्किल है उन्हें टीवी के ज़रिए 32 चैनलों के माध्यम से पाठ मुहैया कराए जाऐंगे। लेकिन सरकार की यह मुहिम फेल होते नजर आ रही है।
इसी साल 22 जून को असम के चिरांग जिले के रहने वाले 16 साल के एक छात्र ने इसलिए खुदकुशी करली क्योंकि उसके पास ऑनलाइन क्लास और एग्जाम में हिस्सा लेने के लिए स्मार्ट फोन नहीं था। इससे पहले 18 जून को केरल के मलप्पुरम जिले में 10वीं क्लास की छात्रा ने इसलिए आत्महत्या करली क्योंकि ऑनलाइन क्लासेस की वजह से उसे काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता था। उसे जो पढ़ाया जाता था वो उसे समझ नहीं आता था। लड़की के परिजनों का कहना है कि वो टीवी के माध्यम से ऑनलाइन क्लासिस किया करती थी और उस दौरान बिजली कट जाने से वो परेशान रहती थी। वो अपने पिता से स्मार्टफोन दिलाने की मांग भी कर रही थी लेकिन लॉकडाउन में काम छिन जाने की वजह से उसके पिता उसे फोन नहीं दिला सके। वहीं, 2 जून को भी केरल में ही ऑनलाइन क्लासिस में भाग ना ले पाने की वजह से एक और 10वी कक्षा की छात्रा ने खुदकुशी करली थी। इन घटनाओं के बाद देश में ऑनलाइन एजूकेशन के स्वरूप और बुनियादी ढांचे को लेकर कई सवाल खड़े हो जाते हैं। सवाल यह भी है कि क्या सरकार के लिए देश में ई शिक्षा को लागू करना आसान है?
बिजली और संसाधन की अव्यवस्था में ई शिक्षा की कोरी कल्पना
घरों में बिजली प्रदान करने वाली सरकारी योजना सौभाग्य से पता चलता है कि भारत के लगभग 99.9 फ़ीसद घरों में बिजली कनेक्शन है लेकिन हम बिजली की गुणवत्ता और हर घंटे बिजली उपलब्ध होने वाले घंटों को देखें तो हालात बहुत ही खराब नजर आते हैं। ग्रामीण विकास मंत्रालय की तरफ से साल 2017-2018 में मिशन अंत्योदय के तहत देशभर के गांवों में की गई रिसर्च से पता चलता है कि भारत के 16 फीसद घरों में रोजाना एक से आठ घंटे बिजली मिलती है, 33 फीसद को 9-12 घंटे बिजली मिलती है और सिर्फ 47 फीसद को ही दिन में 12 घंटे से अधिक बिजली मिलती है। उधर, इसी साल मई में भारत ने केंद्र शासित प्रदेशों में सभी बिजली वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) का निजीकरण करने का ऐलान किया था, जिसकी जानकारी उद्योग के मुख्य कार्यकारी अधिकारियों के साथ डिजिटल बातचीत में बिजली मंत्री राज कुमार सिंह ने दी थी।
17 अप्रैल को बिजली वितरण प्रणाली को निजी हाथों में सौंपने के लिए बिजली संशोधन बिल- 2020 का ड्राफ्ट जारी कर दिया। इस निजीकरण के खिलाफ इलेक्ट्रिक वर्कर यूनियन ने 1 जून को देशव्यापी प्रदर्शन किया। उनका कहना था कि इससे सब्सिडी और क्रॉस सब्सिडी खत्म हो जाएगी। बिजली के दाम और बढ़ेंगे और गरीब उपभोक्ता और किसानों की पहुंच से बिजली बाहर हो जाएगी। वहीं, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने मुश्किल हालातों से गुजर रहीं राज्यों की पावर जनरेटिंग कंपनियों को बढ़ावा देने के लिए 90,000 करोड़ रुपए देने का ऐलान किया।
बिजली कंपनियां पहले से बहुत ज्यादा गहरे संकट में हैं। बिजली कंपनियों का डिस्कॉम पर 94,000 करोड़ रुपए का बकाया है। यानी इस पैकेज के बावजूद डिस्कॉम करीब चार हजार करोड़ रुपए के घाटे में रहेंगी। लेकिन कुछ अर्थशास्त्रियों मानना है कि सरकार ने जिस 90 हजार करोड़ रूपए के पैकेज की घोषणा की है वो थोड़ा ज्यादा है। उनका कहना है कि निजी और सरकारी कंपनियां विभिन्न कारणों से नुकसान कर रही हैं। लेकिन इनमें से ज्यादातर सरकारी कंपनियां हैं और निजी कंपनियां भी बड़ी हैं इसलिए वो थोड़े समय के लिए ये बोझ सह सकती हैं।
भारत में कहा जा रहा है कि यहां के एजूकेशन का मौजूदा ढांचा बदल कर उसकी जगह ऑनलाइन सिस्टम को लाया जा रहा है।
झारखंड के पलामू जिले की दिव्या बताती हैं कि यहां शहरी इलाको के मुकाबले ग्रामीण इलाको में बिजली की दिक्कत आसानी से देखने को मिल जाती है। शहरों में 18 से 20 घंटे बिजली आती है वहीं ग्रामीण इलाकों में 10 से 15 घंटे बिजली आती है। वो कहती हैं कि 'लोग ग्रामीण इलाकों में अभी भी सोलर एनर्जी का इस्तेमाल करते हैं यहां तक कि अपना फोन चार्ज करने के लिए वो इस पर ही निर्भर हैं।Ó दिल्ली यूनिवर्सिटी में एसिसटेंट प्रोफेसर जितेंद्र मीणा कहते हैं कि ग्रामीण इलाको में ऑनलाइन शिक्षा मुमकिन ही नहीं है क्योंकि वहां बिजली आने का समय निर्धारित नहीं है। वहां कभी सुबह, शाम या रात में बिजली आती है ऐसे में जिस हफ्ते बिजली रात में आएगी तब वहां बच्चों के लिए डिजिटल शिक्षा हासिल करने कैसे आसान होगा? भले ही सरकार इस बात के दावे करे की हर घर में बिजली पहुंच गई है लेकिन यह हकीकत नहीं है।
नेशनल सेंपल सर्वे की साल 2017-18 में शिक्षा पर की गई रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ 24 फीसद घरों में इंटरनेट की सहूलियत है। जबकि भारत की 66 फीसद आबादी गांव में रहती है, केवल 15 फीसद से ज़्यादा ग्रामीण घरों में इंटरनेट सेवा पहुंच रही है। उधर शहरी परिवारों में यह आंकड़ा 42 फीसद है। राज्यों के स्तर पर देखें तो मालूम होता है कि जिन घरों में सिर्फ एक कंप्यूटर है उनका आंकड़ा बिहार में 4.6 फीसद, केरल में 23.5 फीसद और दिल्ली में 35 फीसद है। इंटरनेट के उपयोग के मामले में फर्क साफ देखने को मिलता है। दिल्ली, केरल, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और उत्तराखंड जैसे राज्यों में 40 फीसद से अधिक घरों में इंटरनेट का इस्तेमाल होता है। ओडिशा, आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल में यह आंकड़ा 20 फीसद से भी कम है।
इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया 2019 की एक रिपोर्ट बताती है कि 67 फीसद पुरुष और महज 33 फीसद महिलाएं ही इंटरनेट का इस्तेमाल कर पाते हैं। यह असमानता ग्रामीण इलाकों में ज़्यादा देखने को मिलती है, जहां यह आंकड़ा पुरुषों में 72 फीसद और महिलाओं में 28 फीसद है। जेंडर इंडेक्स रिपोर्ट 2020 के मुताबिक भारत में लिंग समानता दुनिया में सबसे खराब है। महिलाओं की आर्थिक भागीदारी, शिक्षा, स्वास्थ्य और राजनीतिक सशक्तीकरण के उपायों के साथ भारत 153 देशों में से 112 वें स्थान पर है। उधर, लॉकडाउन के दौरान महिलाओं के खिलाफ होने वाले साइबर अपराधों में इजाफा देखने को मिला। राष्ट्रीय महिला आयोग के आंकड़ों के मुताबिक़ अप्रैल में महिलाओं के खिलाफ हुए साइबर क्राइम की 54 शिकायतें मिली थी। वहीं, मार्च में यह आंकड़ा 37 और फरवरी में 21 का था। इस तरह की रिपोर्ट के बाद छात्राओं का कहना है कि ऑनलाइन शिक्षा आने के बाद साइबर अपराधों में बढ़ोतरी होगी।
वहीं, दिव्या कहती हैं कि ऐसे समाज में जहां लड़कियों को फोन नहीं दिया जाता वहां ऑनलाइन शिक्षा लागू कर देना महिला विरोधी है। ऑनलाइन एजुकेश्न को बढ़ावा देकर उसमें महिलाओं को शिक्षा से बाहर किया जा रहा है। वो बताती हैं कि अगर परिवार में लड़के या लड़की में से किसी एक को फोन या साधन देने की बात आएगी तो वो सबसे पहले लड़के को दिया जाएगा। मीणा कहते हैं कि हमारी मौजूदा शिक्षा प्रणाली मौका देती है कि हम दूसरे तबकों से संबंध बना सकें और उनकी संस्कृति को जानने का मौका देती है। इसका काफी फायदा लड़कियां को मिल रहा था। वो मौजूदा शिक्षा प्रणाली के जरिए घरों से बाहर निकल रही थी और आसपास की चीजों के बारे में मालूमात हासिल कर रही थी लेकिन ऑनलाइन एजूकेशन आने के बाद यह सब बदल जाएगा। इसके बाद लड़कियां फिर से अपने घरों में कैद हो जाएंगी और मिलने जुलने और जानने की जिज्ञासा खत्म हो जाएगी। इसके माध्यम से महिलाओं की आजादी पर भी हमला किया जा रहा है।
साथ ही, पढ़ाई करने के लिए एक अनुकूल वातावरण की जरूरत होती है। लेकिन सभी छात्रों के पास घर पर पढऩे-लिखने के लिए एक शांत स्थान नहीं है। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 37 फीसद घरों में एक ही कमरा है। इससे साबित होता है कि यह कई लोगों के लिए इस अव्यवस्था में ऑनलाइन एजुकेश्न लेना लक्जरी होगा। इस वक्त जहां लाखों मजदूर अपनों बच्चों के साथ सड़कों पर निकल कर अपने घर पहुँचे हैं या पहुँचने वाले हैं उनके लिए कामकाज छिन जाने के बाद ऑनलाइन शिक्षा को अपनाना बहुत मुश्किल होगा।
मीणा बताते हैं कि दिक्कत यह है कि सरकार परीक्षा के नाम पर ऑनलाइन एजूकेशन सिस्टम ला रही है। परीक्षा कराने के लिए हमारे पास विकल्प है। जैसे महाराष्ट्र और हैदराबाद की यूनिवर्सिटीज परीक्षा को लेकर जो कदम उठा रही है वो सरकार भी कर सकती है। इन यूनिवर्सिटीज ने छात्रों को उनके इंटर्नल नम्बर के आधार पर प्रमोट करने की बात की है। दूसरा विकल्प है कि पिछले जो सेमेस्टर हुए हैं उनके मार्कस के आधार पर एवरेज निकाला जाए और छात्रों को प्रमोट किया जाए । तीसरा विकल्प है कि इंटर्नल और सेमेस्टर को मिलाकार छात्रों के एवरेज मार्कस के आधार पर उन्हें अगली क्लास के लिए भेजा जाए। लेकिन यह एक समय-सीमा के तहत करना होगा, जो कि मुमकिन है। भारत में कहा जा रहा है कि यहां के एजूकेशन का मौजूदा ढांचा बदल कर उसकी जगह ऑनलाइन सिस्टम को लाया जा रहा है। इसके तहत यहां सिर्फ बच्चों को भर्ती करना ही टारगेट रह जाएगा। लेकिन उसका नतीजा क्या होगा सरकार को इस बारे में सुध ही नहीं है।
यह लेख दिल्ली की युवा महिला पत्रकार हिना फ़ातिमा ने लिखा है।
(यह लेख पहले फेमिनिज्मइनइंडियाडॉटकॉम पर प्रकाशित हुआ है।)
हज यात्रा पर पहली बार नहीं पड़ा असर, पहले भी हुई है कई बार रद्द
आरिफ़ शमीम
बीबीसी उर्दू, लंदन
सऊदी अरब की सरकार ने इस साल कोरोना वायरस को मद्देनज़र रखते हुए हज करने वालों की संख्या सीमित रखने का फ़ैसला किया है और सिर्फ़ सऊदी अरब में रहने वाले लोगों को हज करने की अनुमति दी है.
सऊदी न्यूज़ एजेंसी एसपीए के अनुसार 22 जून की रात सऊदी 'हज और उमरा मंत्रालय' की तरफ़ से जारी किये गए बयान में कहा गया है कि 'दुनिया के 180 से अधिक देशों में कोरोना वायरस जैसी महामारी फैली हुई है इस बात को ध्यान में रखते हुए सीमित संख्या में सिर्फ़ सऊदी में रहने वाले विभिन्न देशों के नागरिकों को हज करने का मौक़ा दिया जायेगा.'
जबकि सऊदी अरब के विदेश मंत्रालय की तरफ से ट्विटर पर भी सऊदी हज व उमरा मंत्रालय के इस फ़ैसले की जानकारी दी गई.
सऊदी हज व उमरा मंत्रालय ने अपने बयान में आगे कहा है कि 'कोरोना वायरस की महामारी से दुनियाभर में लगभग पांच लाख मौतें हो चुकी हैं और 70 लाख से अधिक लोग इस वायरस से संक्रमित हैं. कोरोना महामारी और रोज़ाना वैश्विक स्तर पर इस वायरस के संक्रमितों के बढ़ने की वजह से ये फ़ैसला किया गया है 'कि इस साल 1441 हिजरी (2020 ईस्वी) में हज के लिए सिर्फ़ सऊदी में रहने वाले विभिन्न देशों के नागरिकों को सीमित संख्या में अनुमति दी जाएगी.'
सऊदी हज व उमरा मंत्रालय के बयान में ये भी कहा गया है कि 'ये फ़ैसला इस बुनियाद पर लिया गया है कि हज सुरक्षित और स्वस्थ वातावरण में हो. कोरोना की रोकथाम का पूरा प्रबंध किया जा सके, हज यात्रियों की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए सोशल डिस्टेंसिंग पर अमल किया जा सके और मानव जीवन की सुरक्षा के बारे में इस्लामी शरीयत (क़ानून) के मक़सद को पूरा किया जा सके.'
याद रहे कि कोविड-19 को फैलने से रोकने के लिए सऊदी सरकार ने इससे पहले अपने पवित्र स्थानों पर उमरा करने पर भी पाबन्दी लगा दी थी.
ध्यान रहे कि सऊदी अरब में कोरोना की वजह से 1300 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है जबकि संक्रमितों की संख्या एक लाख 61 हज़ार से अधिक है. सऊदी सरकार ने कोरोना की वजह से लॉकडाउन भी 22 जून से हटा दिया है जिसके बाद नियमित जनजीवन शुरू हो गया है.
अब जबकि सऊदी अरब ने कोरोना वायरस को मद्देनज़र रखते हुए इस साल हज को सीमित करते हुए सिर्फ़ सऊदी अरब में रहने वाले विदेशी नागरिकों को हज करने की इजाज़त दी है वहीं क्या आप जानते हैं कि इससे पहले हज कब-कब और कितनी बार रद्द किया गया है.
हज कब-कब रद्द हुआ?
इतिहास में पहली बार हज 629 ई. (छह हिजरी, इस्लामिक कैलेंडर) को मोहम्मद साहब के नेतृत्व में अदा किया गया था. इसके बाद हर साल हज अदा होता रहा.
हालांकि, मुसलमान सोच भी नहीं सकते कि किसी साल हज नहीं हो सकेगा. लेकिन इसके बावजूद इतिहास में लगभग 40 बार ऐसा हुआ है जब हज अदा ना हो सका और कई बार 'ख़ाना ए काबा' हाजियों के लिए बंद रहा.
इसके कई कारण थे जिनमें बैतुल्लाह (पवित्र स्थल) पर हमले से लेकर राजनैतिक झगड़े, महामारी, बाढ़, चोर और डाकुओं द्वारा हाजियों के क़ाफ़िले लूटना और ख़राब मौसम भी शामिल है.
सन 865: अल-सफ़ाक का हमला
सन 865 में स्माइल बिन यूसुफ़ ने, जिन्हें अल-सफ़ाक के नाम से जाना जाता है, उन्होंने बग़दाद में स्थापित अब्बासी सल्तनत के ख़िलाफ़ जंग का एलान किया और मक्का(पवित्र स्थल) में अरफ़ात के पहाड़ पर हमला किया.
उनकी फ़ौज के इस हमले में वहां मौजूद हज के लिए आने वाले हज़ारों श्रद्धालुओं की मौत हो गई.
इस हमले की वजह से उस साल हज न हो सका.
सन 930: क़रामिता का हमला
इस हमले को सऊदी शहर मक्का पर सबसे घातक हमलों में से एक माना जाता है.
सन 930 में क़रामिता समुदाय के मुखिया अबु-ताहिर-अलजनाबी ने मक्का पर एक हमला किया इस दौरान इतने क़त्ल और लूटमार हुई कि कई साल तक हज ना हो सका.
सऊदी अरब में स्थापित शाह अब्दुल अज़ीज़ फ़ाउंडेशन फ़ॉर रिसर्च एंड आर्काइव्स में छपने वाली एक रिपोर्ट में इस्लामी इतिहासकार और हदीसों के विशेषज्ञ अज़्ज़हबी की किताब 'इस्लाम की तारीख़' के सन्दर्भ से बताया गया है कि '316 हिजरी(इस्लामिक कैलेंडर) की घटनाओं की वजह से किसी ने करामिता के डर की वजह से उस साल हज अदा नहीं किया.'
क़रामिता उस समय की इस्लामी रियासत को नहीं मानते थे और इसी तरह वो रियासत के तहत माने जाने वाले इस्लाम से भी इंकार करते थे. वो समझते थे कि हज में किए जाने वाले कार्य इस्लाम से पहले के हैं, इस प्रकार वे मूर्ति पूजा की श्रेणी में आते हैं.
शाह अब्दुल अज़ीज़ फ़ाउंडेशन की रिपोर्ट में कहा गया है कि अबु ताहिर ख़ाना-ए-काबा के दरवाज़े पर ज़िल्हिज्जा (इस्लामिक कैलेंडर का अंतिम महीना) की 8 तारीख़ को तलवार लेकर खड़े हो गए और अपने सामने अपने सिपाहियों के हाथों श्रद्धालुओं का क़त्लेआम करवाते और देखते रहे.
रिपोर्ट के अनुसार वो कहते रहे कि इबादत करने वालों को ख़त्म कर दो, काबा का गिलाफ़ (काबे के चारों ओर लगा कपड़ा) फाड़ दो और 'हजरे असवद'(पवित्र पत्थर) को उखाड़ दो.
इस दौरान काबे में 30 हज़ार हाजियों का क़त्ल हुआ और उन्हें बिना किसी जनाज़े, स्नान और कफ़न के दफ़ना दिया गया.
इतिहासकारों के अनुसार हमलावरों ने लोगों को क़त्ल करने के बाद कइयों की लाश ज़म-ज़म (पवित्र पानी) के कुएं में भी फेंकीं ताकि इसके पानी को गन्दा किया जा सके.
इसके बाद हजरे असवद को उखाड़कर अपने साथ उस समय के सऊदी अरब के पूर्वी प्रांत अलबहरीन ले गए जहां ये अबु ताहिर के पास उसके शहर अलअहसा में कई साल रहा. अंत में फ़िरौती की एक भारी रक़म के बाद इसे वापिस ख़ाना-ए-काबा में लाया गया.
सन 983: अब्बासी और फ़ातिमी ख़िलाफ़तों में झगड़े
हज सिर्फ़ लड़ाइयों और जंगों की वजह से रद्द नहीं हुआ बल्कि यह कई साल राजनीति की भेंट भी चढ़ा.
सन 983 ई. में इराक़ की अब्बासी और मिस्र की फ़ातिमी ख़िलाफ़तों के मुखियाओं के बीच राजनीतिक कशमकश रही और मुसलमानों को इस दौरान हज के लिए यात्रा नहीं करने दी गई. इसके बाद हज 991 में अदा किया गया.
बीमारियों और महामारियों की वजह से हज रद्द
शाह अब्दुल अज़ीज़ फ़ाउंडेशन की रिपोर्ट के अनुसार, 357 हिजरी में एक बड़ी घटना की वजह से लोग हज ना कर सके और यह घटना असल में एक बीमारी थी.
रिपोर्ट में इब्ने ख़तीर की किताब 'आग़ाज़ और इख़्तिताम' का हवाला देकर लिखा गया है कि अलमाशरी नामक बीमारी की वजह से मक्का में बड़ी संख्या में मौतें हुई.
बहुत से श्रद्धालु रास्ते में ही मर गए और जो लोग मक्का पहुंचे भी तो वो हज की तारीख़ के बाद ही वहां पहुंच सके.
सन 1831 में भारत से शुरू होने वाली एक महामारी की वजह से मक्का में लगभग तीन-चौथाई श्रद्धालुओं की मौत हुई. यह लोग कई महीने की कठिन यात्रा करके हज के लिए मक्का आए थे.
इसी तरह 1837 से लेकर 1858 में 2 दशकों में 3 बार हज को रद्द किया गया जिसकी वजह से श्रद्धालु मक्का की यात्रा नहीं कर सके.
1846 में मक्का में हैज़े की बीमारी से लगभग 15 हज़ार लोगों की मौत हुई. यह महामारी मक्का में सन 1850 तक फैलती रही लेकिन इसके बाद भी कभी-कभार इससे मौतें होती रहीं.
अधिकतर शोधकर्ताओं के अनुसार यह महामारी भारत से श्रद्धालुओं के ज़रिये आई थी जिसने ना सिर्फ़ उनको बल्कि मक्का में दूसरे देशों से आने वाले बहुत से दूसरे श्रद्धालुओं को भी संक्रमित किया था.
मिस्री श्रद्धालू जल्दी से जल्दी लाल सागर के तट की तरफ़ भागे जहां उन्हें क्वारंटीन में रखा गया. यह महामारी बाद में न्यूयॉर्क तक फैली. यहां एक अहम बात ये भी है कि उस्मानिया सल्तनत के दौर में हैज़े की महामारी के ख़ात्मे के लिए क्वारंटीन पर ज़ोर दिया गया था.
रास्ते में डाकुओं का डर और हज के बढ़ते हुए ख़र्चे
सन 390 हिजरी (1000 ई. के आसपास)में बढ़ती हुई महंगाई और हज की यात्रा के ख़र्चों में बहुत ज़्यादा वृद्धि की वजह से लोग हज पर न जा सके और इसी तरह 430 हिजरी में इराक़ और खुरासान से लेकर शाम और मिस्र के लोग हज पर नहीं जा सके.
शाह अब्दुल अज़ीज़ फ़ाउंडेशन की रिपोर्ट के अनुसार 492 हिजरी में मुस्लिम दुनिया में आपस में जंगों की वजह से मुसलमानों को बहुत नुक़सान हुआ जिससे हज की पवित्र यात्रा भी प्रभावित हुई.
654 हिजरी से लेकर 658 हिजरी तक हेजाज़ के अलावा किसी और देश से हाजी मक्का नहीं पहुंचे. 1213 हिजरी में फ़्रांसिसी क्रांति के दौरान हज के क़ाफ़िलों को सुरक्षा और सलामती की वजह से रोक दिया गया.
जब कड़ाके की सर्दी ने हज रोक दिया
सन 417 हिजरी को इराक़ में बहुत अधिक सर्दी और बाढ़ की वजह से श्रद्धालु मक्का की यात्रा न कर सके.
इस तरह बहुत ठन्डे मौसम की वजह से हज को रद्द करना पड़ा था.
किस्वा पर हमला
सन 1344 हिजरी में ख़ाना-ए क-बा के गिलाफ़, किसवा को मिस्र से सऊदी अरब लेकर जाने वाले क़ाफ़िले पर हमला हुआ जिसकी वजह से मिस्र का कोई हाजी भी ख़ाना-ए-काबा न जा सका.
ये ईसवी के हिसाब से 1925 का साल बनता है.
लेकिन ये बात भी महत्वपूर्ण है कि जब से सऊदी अरब अस्तित्व में आया है, यानी 1932 से लेकर अब तक, ख़ाना-ए-काबा में हज कभी नहीं रुका. (www.bbc.com)
जाने-माने समाजवादी चिंतक सुरेंद्र मोहन का
यह लेख 1985 में ‘रविवार’ में प्रकाशित हुआ था
इमरजेंसी यानी आपातकाल की घोषणा के बाद 1975 में बहुत चालाकी और भोंडेपन के साथ चुनाव संबंधी नियम-कानूनों को संशोधित किया गया. इंदिरा गांधी की अपील को सुप्रीम कोर्ट में स्वीकार करवाया गया ताकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा उनके रायबरेली संसदीय क्षेत्र से चुनाव रद्द किए जाने के फैसले को उलट दिया जाए. साफ है कि आपातकाल की घोषणा केवल निजी फायदों और सत्ता बचाने के लिए की गई थी. इसीलिए श्रीमती गांधी ने जब राष्ट्रपति से आपातकाल की घोषणा करने का अनुरोध किया तो उन्होंने अपने मंत्रिमंडल तक की सलाह नहीं ली. आपातकाल लगाने के जिन कारणों को इंदिरा गांधी सरकार ने अपने ‘श्वेतपत्र’ में बताया, वे नितांत अप्रासंगिक हैं.
सबसे ज्यादा शिकार राजनेता हुए
आपातकाल की घोषणा के पहले ही सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी के आदेश दे दिए गए थे. बंदियोंं में लगभग सभी प्रमुख सांसद थे. उनकी गिरफ्तारी का उद्देश्य संसद को ऐसा बना देना था कि इंदिरा गांधी जो चाहें करा लें. उन दिनों कांग्रेस को अपनी पार्टी में भी विरोध का डर पैदा हो गया था. इसीलिए जब जयप्रकाश नारायण सहित दूसरे विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार किया गया तो कांग्रेस कार्यकारिणी के सदस्य चंद्रशेखर और संसदीय दल के सचिव रामधन को भी गिरफ्तार कर लिया गया.
साधारण कार्यकर्ताओं की बात जाने दीजिए बड़े नेताओं की गिरफ्तारी की सूचना भी उनके रिश्तेदारों, मित्रों और सहयोगियों को नहीं दी गई. उन्हें कहां रखा गया है इसकी भी कोई खबर नहीं दी गई. दो महीने तक मिलने-जुलने की कोई सूरत न थी. बंदियों को तंग करने, उनको अकेले में रखने, इलाज न कराने और शाम छह बजे से ही उन्हें कोठरी में बंद कर देने के सैकड़ों उदाहरण हैं. आपातकाल के पहले हफ्ते में ही करीब 15 हजार लोगों को बंदी बनाया गया. उनकी डाक सेंसर होती थी और जब मुलाकात की अनुमति भी मिली तो उस दौरान खुफिया अधिकारी वहां तैनात रहते थे. कहना न होगा कि ऐसे हालात में जेल के अफसरों का व्यवहार कैसा रहा होगा. वास्तव में ये अफसर स्वयं डरे हुए थे.
हवालातों में पुलिस दमन के शिकार अक्सर वे कार्यकर्ता हुए जो सत्याग्रह का संचालन करते हुए प्रचार सामग्री तैयार करते और बांटते थे. पुलिस अत्याचारों की बहुत-सी मिसालें हैं. सत्याग्रहियों और भूमिगत कार्यकर्ताओं को उनके सहयोगियों के नाम जानने, उनके ठिकानों का पता लगाने, उनके कामकाज की जानकारी हासिल करने के उद्देश्य से बहुत तंग किया गया. रात को भी सोने न देना, खाना न देना, प्यासा रखना या बहुत भूखा रखने के बाद बहुत खाना खिलाकर किसी प्रकार आराम न करने देना, घंटों खड़ा रखना, डराना-धमकाना, हफ्तों-हफ्तों तक सवालों की बौछार करते रहना जैसी चीजें बहुत आम थीं.
केरल के राजन को तो मशीन के पाटों के बीच दबाया तक गया. उसकी हड्डियों तक को तोड़ डाला गया. दिल्ली के जसवीर सिंह को उल्टा लटकाकर उसके बाल नोंचे गए. ऐसे लोगों को क्रूरता से ऐसी गुप्त चोटें दी गईं, जिसका कोई प्रमाण ही न रहे. बेंगलुरू में लारेंस फर्नांडिस (जॉर्ज फर्नांडिस के भाई) की इतनी पिटाई की गई कि वह सालों तक सीधे खड़े नहीं हो पाए. एक नवंबर, 1975 को राष्ट्रमंडल सम्मेलन में जिन छात्रों ने परचे बांटे, उन्हें भी बुरी तरह से पीटा गया. इस दौरान दो क्रातिकारियों किश्तैया गौड़ और भूमैया को फांसी दे दी गई.
महिला बंदियों के साथ भी अशोभनीय व्यवहार किया गया. जयपुर (गायत्री देवी) और ग्वालियर (विजयाराजे सिंधिया) की राजमाताओं को असामाजिक और बीमार बंदियों के साथ रखा गया. श्रीलता स्वामीनाथन (राजस्थान की कम्युनिस्ट नेता) को खूब अपमानित किया गया. मृणाल गोरे (महाराष्ट्र की समाजवादी नेता) और दुर्गा भागवत (समाजवादी विचारक) को पागलों के बीच रखा गया. महिला बंदियों के साथ गंदे मजाक की शिकायतें भी मिलीं.
संविधान और कानून को खूब तोड़ा-मरोड़ा गया
इंदिरा गांधी को सबसे पहले राजनारायण के मुकदमे पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले और सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम फैसले का निबटारा करना था. इसलिए इन फैसलों को पलटने वाला कानून लाया गया. साथ ही इसका अमल पूर्व काल से लागू कर दिया. संविधान को संशोधित करके कोशिश की गई कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति और लोकसभा अध्यक्ष पर जीवन भर किसी अपराध को लेकर कोई मुकदमा नहीं चलाया जा सकता. इस संशोधन को राज्यसभा ने पारित भी कर दिया लेकिन इसे लोकसभा में पेश नहीं किया गया. सबसे कठोर संविधान का 42वां संशोधन था. इसके जरिए संविधान के मूल ढांचे को कमजोर करने, उसकी संघीय विशेषताओं को नुकसान पहुंचाने और सरकार के तीनों अंगों के संतुलन को बिगाड़ने का प्रयास किया गया.
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इमरजेंसी के दौरान श्रीमती गांधी ने संविधान को तोड़ने-मरोड़ने का बहुत प्रयास किया और इसमें उन्हें तात्कालिक सफलता भी मिली. आपातकाल के पहले हफ्ते में ही संविधान के अनुच्छेद 14, 21 और 22 को निलंबित कर दिया गया. ऐसा करके सरकार ने कानून की नजर में सबकी बराबरी, जीवन और संपत्ति की सुरक्षा की गारंटी और गिरफ्तारी के 24 घंटे के अंदर अदालत के सामने पेश करने के अधिकारों को रोक दिया गया. जनवरी 1976 में अनुच्छेद 19 को भी निलंबित कर दिया गया. इससे अभिव्यक्ति, प्रकाशन करने, संघ बनाने और सभा करने की आजादी को छीन लिया गया. राष्ट्रीय सुरक्षा काननू (रासुका) तो पहले से ही लागू था. इसमें भी कई बार बदलाव किए गए.
रासुका में 29 जून, 1975 के संशोधन से नजरबंदी के बाद बंदियों को इसका कारण जानने का अधिकार भी खत्म कर दिया गया. साथ ही नजरबंदी को एक साल से अधिक तक बढ़ाने का प्रावधान कर दिया गया. तीन हफ्ते बाद 16 जुलाई, 1975 को इसमें बदलाव करके नजरबंदियों को कोर्ट में अपील करने के अधिकार से भी वंचित कर दिया गया. 10 अक्टूबर, 1975 के संशोधन द्वारा नजरबंदी के कारणों की जानकारी कोर्ट या किसी को भी देने को अपराध बना दिया गया.
मीडिया का उत्पीड़न
आपातकाल लगते ही अखबारों पर सेंसर बैठा दिया गया था. सेंसरशिप के अलावा अखबारों और समाचार एजेंसियों को नियंत्रित करने के लिए सरकार ने नया कानून बनाया. इसके जरिए आपत्तिजनक सामग्री के प्रकाशन पर रोक लगाने की व्यवस्था की गई. इस कानून का समर्थन करते हुए तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल ने कहा कि इसके जरिए संपादकों की स्वतंत्रता की ‘समस्या’ का हल हो जाएगा. सरकार ने चारों समाचार एजेंसियों पीटीआई, यूएनआई, हिंदुस्तान समाचार और समाचार भारती को खत्म करके उन्हें ‘समाचार’ नामक एजेंसी में विलीन कर दिया. इसके अलावा सूचना और प्रसारण मंत्री ने महज छह संपादकों की सहमति से प्रेस के लिए ‘आचारसंहिता’ की घोषणा कर दी.
अंग्रेजी दैनिक ‘इंडियन एक्सप्रेस’ का प्रकाशन रोकने के लिए बिजली के तार तक काट दिए गए. इस बात का पूरा प्रयास किया गया कि नेताओं की गिरफ्तारी की सूचना आम जनता तक न पहुंचे. जहां कहीं पत्रकारों ने इस पहल का विरोध किया उन्हें भी बंदी बनाया गया. पुणे के साप्ताहिक ‘साधना’ और अहमदाबाद के ‘भूमिपुत्र’ पर प्रबंधन से संबंधित मुकदमे चलाए गए. बड़ोदरा के ‘भूमिपुत्र’ के संपादक को तो गिरफ्तार ही कर लिया गया. लेकिन सबसे ज्यादा तंग ‘इंडियन एक्सप्रेस’ को किया गया. अखबार की संपत्ति पर दिल्ली नगर निगम द्वारा कब्जा कराके उसे बेचने का भी प्रयास किया गया. सरकार की कार्रवाइयों से परेशान होकर इसके मालिकों ने सरकार द्वारा नियुक्त अध्यक्ष और पांच निदेशकोंं को अंतत: स्वीकार कर लिया. इसके बाद अखबार के तत्कालीन संपादक एस मुलगांवकर को सेवा से मुक्त कर दिया गया.
‘स्टेट्समैन’ को तो जुलाई 1975 में ही बाध्य किया गया कि वह सरकार द्वारा मनोनीत निदेशकों की नियुक्ति करे. लेकिन कलकत्ता हाईकोर्ट ने इस पर रोक लगा दी. उसके बाद प्रबंध निदेशक ईरानी पर मुकदमा चलाने के लिए उस मामले को उठाया गया जो दो साल पहले ही सुलझ गया था. सरकार के इसमें असफल रहने पर ईरानी के पासपोर्ट को जब्त करने का आदेश दिया गया.
आपातकाल के दौरान अमृत नाहटा की फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ को जबरदस्ती बर्बाद करने की कोशिश हुई. किशोर कुमार जैसे गायक को काली सूची में रखा गया. ‘आंधी’ फिल्म पर पाबंदी लगा दी गई.
महज आर्थिक आपातकाल कहकर भ्रम फैलाया गया
पक्ष और विपक्ष को दबाने के बाद सरकार ने दो और काम किए. पहला, आर्थिक नीति में मनचाहा परिवर्तन और दूसरा, श्रमिकों के बुनियादी अधिकारों को कम करना. इसलिए आपातकाल का सबसे ज्यादा समर्थन पूंजीपतियों की संस्था ‘फिक्की’ (भारतीय वाणिज्य और उद्योग परिसंघ) ने किया. संशोधन के बाद न्यूनतम बोनस को 8.33 प्रतिशत से घटाकर केवल चार प्रतिशत कर दिया गया. एलआईसी और उसके कर्मचारियों के बीच औद्योगिक विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद से बदल दिया गया. निजी क्षेत्रों की तरक्की के लिए सामान के आयात की छूट दी गई और कंपनियों पर कर भार को घटा दिया गया. बहुराष्ट्रीय कंपनियों से अनुरोध किया गया कि वे भारत में निवेश करें क्योंकि यहां सस्ती मजदूरी और अनुशासित मजदूर हैं. इस दौरान जहां कहीं मजदूर हड़ताल हुई, वहां दमनचक्र चला. जनवरी 1976 में सिर्फ पश्चिम बंगाल में ही बोनस कानून में संशोधन का विरोध करने पर 16 हजार मजदूर गिरफ्तार किए गए.
सरकार का दमनचक्र केवल मजदूरों को अनुशासित करने के लिए ही नहीं बल्कि जनता की आवाज दबाने के लिए भी चला. सरकार ने सभी तौर-तरीके अपना कर नागरिक अधिकारों का हनन किया. आरंभ मेंं उसे आर्थिक आपातस्थिति तक ही सीमित रखने की बात कही गई. लेकिन यह केवल भ्रम पैदा करने के लिए किया गया था.
वकीलों और जजों को भी नहीं बख्शा गया
इंदिरा गांधी के शासन ने नागरिकों के साथ जो दुर्व्यवहार, अन्याय और अत्याचार किया उसमें नागिरक अधिकारों की रक्षा करने वाले वकीलों को भी नहीं बख्शा गया. वकीलों को खासकर बार काउंसिल के अध्यक्ष राम जेठमलानी को सबक सिखाने के लिए संसद के कानून द्वारा अटॉर्नी जनरल को इसका अध्यक्ष बना दिया गया. जिन 42 जजों ने नजरबंदियों के मुकदमों में न्यायसंगत फैसले दिए या देने की कोशिश् की, उन सबका तबादला कर दिया गया. इससे जहां यह बात सामने आती है कि आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी की नीति कितनी अधिक सख्त थी. वहीं यह भी साबित होता है कि उच्च पदों पर बैठे लोगों ने भी अपनी आत्मा की आवाज को अनसुना कर दिया. हालांकि सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने बिना दंड के जेल में न रखे जाने के अधिकार को छीनने की सरकार की कोशिश को असफल कर दिया.
अल्पसंख्यकों की जबरन नसबंदी
परिवार नियोजन के लिए अध्यापकों और छोटे कर्मचारियों पर सख्ती की गई. लोगों का जबरदस्ती परिवार नियोजन भी किया गया. परिवार नियोजन और दिल्ली के सुंदरीकरण के नाम पर अल्पसंख्यकों का काफी उत्पीड़न किया गया. दिल्ली में सैकड़ों घरों को बुलडोजरों की मदद से जबरन तोड़कर वहां रह रहे लोगों को शहर से 15-20 किलोमीटर दूर पटक दिया. उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर, सुल्तानपुर और सहारनपुर, हरियाणा में पीपली के अलावा दूसरे स्थानों पर इसके लिए लाठियां और गोलियां भी चलाई गई. जिस किसी ने भी विरोध किया उसे गिरफ्तार कर लिया गया.
भ्रष्टाचार कम होने की बात गलत
आपातकाल में अफसरशाही और पुलिस को जो अनियंत्रित अधिकार प्राप्त हुए उनका बड़े पैमाने पर दुरुपयोग किया गया. हालांकि प्रचार था कि इमरजेंसी के दौरान भ्रष्टाचार कम हुआ, लेकिन दो-तीन महीने के बाद हालात पहले से भी ज्यादा खराब हो गए. सत्ता के शीर्ष पर बैठे संजय गांधी के साथी भ्रष्टाचार में लिप्त थे. जिस किसी ने संजय गांधी की बात नहीं मानी उसे शिकंजे में फंसा लिया गया. इसी असाधारण स्थिति में इंदिरा गांधी ने हेमवतीनंदन बहुगुणा, नंदिनी सत्पथी और सिदार्थ शंकर रे को उनके पद से हटा दिया. संजय ने मारुति के नाम पर काफी रुपया जमा किया और काफी अनियमितताएं बरतीं. पूंजीपतियों और कारोबारियों को मजबूर करके पैसे बटोरे गए. उन पर गलत आरोप लगाकर मुकदमे चलाए गए और पुलिस कार्रवाई भी की गई.
आखिरकार जनता ने सबक सिखाया
इस तरह इमरजेंसी के दौरान सरकार ने जीवन के हर क्षेत्र में आतंक का माहौल पैदा कर दिया था. इन सभी काले कारनामों के कारण जनता ने 1977 में एकजुट होकर न केवल कांग्रेस बल्कि इंदिरा गांधी को भी धूल चटा दी. इस तरह जनता ने लोकतंत्र में अपनी आस्था का सबूत दे दिया. आज इमरजेंसी को भुलाने की कोशिश की जाती है लेकिन हमें उन काले दिनों के अनुभवों को नहीं भूलना नहीं चाहिए. उन अनुभवों से ही हम वे सबक सीखते हैं जिनसे हमारा लोकतंत्र और मजबूत बनेगा.
-सुरेंद्र मोहन
का हो मोदीजी महाराज, आपको सिक्किम, लद्दाख सब याद रहता है, हमारे बिहारे को भुला जाते हैं ?
क्या हुआ, सुशासन बाबू ? माथा इतना गर्म क्यों है ? आप तो हमारे एन.डी.ए के सबसे मजबूत सहयोगी हैं।
तो ओली जी का कुछ करते क्यों नहीं ? पहले उन्होंने बिहारियों पर गोली चलवाई। हमने बर्दाश्त कर लिया। अब वो बिहार को डुबा मारने पर तुल गए हैं। आपको पता हईए है कि हर बरसात में नेपाल से आने वाले पानी से हमारा आधा बिहार डूबता है। इस साल तो ओली जी नदी के आसपास की ज़मीन अपनी बताकर बांध की मरम्मत भी नहीं करने दे रहे। हमारे इंजीनियर और ठीकेदार सब को कूट-कूट के खदेड़ दे रहे हैं। बताईये, अब प्रलये नू आएगा बिहार में ?
तो इसमें समस्या क्या है ? वो नेपाल का पानी बिहार में घुसाते हैं। आप बिहार का पानी नेपाल में घुसा दीजिए। हिसाब बराबर।
ऐ महाराज, ई तक्षशिला वाला भूगोल मत पढाईए न हमको। बिहार में कोई पानी-वानी नहीं पैदा होता। इधर का पानी नेपाल के पहाड़ से उतरता है। दुनिया भर में आपकी डिप्लोमेसी का डंका बज रहा है। दो बित्ते के नेपाल के सामने आप हरदी-गुरदी काहे बोल गए हैं ?
अब क्या कहें नीतीश जी, नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी पूरी तरह जिनपिंग के प्रभाव में है। हमारी कुछ सुन ही नहीं रहे हैं ओली जी।
तो सीधे जिनपिंगवा को ही काहे नहीं धरते हैं ? ससुरा को अहमदाबाद में झूला कवनो मंगनी में झुलाए थे का ? उसको फोन करके ओली जी के दिमाग का स्क्रू कसवाईए। और ऊ नार्थ कोरिया वाला किमवा जिंदा है कि मर गया ? उससे भी एक धमकी दिलवा सकते हैं। साफ कहे देते हैं कि अबकी बिहार को डुबाए तो बिहार में एन.डी.ए को भी डूबल ही समझिए!
जिनपिंग और किम ट्रंप की नहीं सुनते तो हमारी क्या सुनेंगे ? ऐसा कीजिए कि इस बार बिहार को डुब जाने दीजिए। अगले साल पूरे बिहार-नेपाल बॉर्डर पर हम पत्थरों की दस फीट ऊंची दीवार खड़ी कर देंगे। हमेशा के लिए बाढ़ का झंझट ही ख़त्म।
धन्य हैं प्रभु, लेकिन इतना सारा पत्थर कहां से उठावा कर लाईयेगा ? गलवान से कि नाथूला से?
अरे नीतीश जी, बाढ़ और बर्बादी के बाद अक्टूबर के बिहार चुनाव में प्रदेश भर के लोग जो ढेला-पत्थर फेकेंगे आपकी चुनाव सभाओं में, वो किस दिन काम आएगा ? कम से कम आपदा में अवसर खोजना तो सीख लीजिए हमसे!
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यह हमारे लोकतंत्र की मेहरबानी है कि इस संकट की घड़ी में चीन का मुकाबला करने की बजाय हमारे राजनीतिक दल एक-दूसरे के साथ दंगल में उलझे हुए हैं। टीवी चैनलों पर जैसी अखाड़ेबाजी हमारे राजनीतिक दलों के प्रवक्ता करते रहते हैं, वह उन टीवी चैनलों का स्तर तो गिराती ही है, हमारी जनता को भी गुमराह करती रहती है। जरा हम चीन की तरफ देखें। क्या गलवान घाटी की खूनी मुठभेड़ पर वहां नेताओं, टीवी चैनलों या अखबारों के बीच वैसा ही दंगल चलता है, जैसा हमारे यहां चल रहा है ?
इसका मतलब यह नहीं कि सरकार के हर कदम का आंख मींचकर समर्थन किया जाए या उसकी भयंकर भूलों की अनदेखी कर दी जाए लेकिन आजकल कांग्रेस के नेता भाजपा के नेताओं, खासकर प्रधानमंत्री के लिए जिस तरह के शब्दों का प्रयोग करते हैं, वैसा करके वे अपना ही अपमान करवाते हैं। (nayaindia.com)
पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह ने मोदी को पत्र लिखकर उसमें सावधानी रखने का जो सुझाव दिया, वह ठीक ही था लेकिन सोनिया गांधी और राहुल गांधी जिस तरह से चीन को जमीन सौंपने के आरोप मोदी पर लगा रहे हैं, वे सर्वथा अनुचित हैं।
कोई कमजोर से कमजोर भारतीय प्रधानमंत्री जो हिमाकत नहीं कर सकता, उसे मोदी पर थोप कर कांग्रेसी नेता किसे खुश करना चाहते हैं ? गलवान की स्थानीय और तात्कालिक फौजी मुठभेड़ को भस्मासुरी रंग में रगना और जनता को उकसाना आखिर हमें कहां ले जाएगा ? क्या कांग्रेसी नेता यह चाहते हैं कि भारत और चीन के बीच युद्ध हो जाए ? क्या ऐसा होना भारत के हित में होगा ? यदि ऐसा न भी हो तो क्या जनता को भडक़ाना ठीक होगा ? देश कोरोना से लड़ेगा या चीन से ? भारत और चीन का मामला अभी बातचीत से सुलझ रहा है तो उसे क्यों नहीं सुलझने दिया जाए ? यदि कांग्रेस भाजपा पर प्रहार करेगी तो भाजपाई भी गड़े मुर्दे उखाडऩे में संकोच क्यों करेंगे ? वे नेहरु सरकार को डॉ. लोहिया की भाषा में राष्ट्रीय शर्म की सरकार कहेंगे और इंदिरा गांधी की सारी उपलब्धियों को ताक पर रखकर उन्हें आपात्काल की ‘काली’ कहेंगे और गरीबी हटाओ वाली ‘झांसे की रानी’ कहेंगे।
तात्कालिक मुद्दों पर घटिया बहस छेडक़र हम भारत की नई पीढिय़ों को गलत मार्ग पर ठेलने की कोशिश कर रहे हैं। कांग्रेस और भाजपा, दोनों के नेता आपस में मिलकर सार्थक संवाद क्यों नहीं करते? दोनों यदि इसी तरह सार्वजनिक दंगल करते रहे तो माना जाएगा कि वे कुल मिलाकर चीन के हाथ मजबूत कर रहे हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)