विचार/लेख
-डॉ मुजफ्फर हुसैन गजाली
पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था का सपना देखने वाला देश अब पांच किलो अनाज पर आ कर टिक गया है। भारत के दिमाग, उसके बाजार, तेज दौड़ती अर्थव्यवस्था और कॉर्पोरेट की दुनिया में चर्चा होती रही है। ऐसा क्या हुआ है कि देश दो जून की रोटी की ओर बढ़ता हुआ दिखाई दे रहा है।
प्रधानमंत्री को स्वयं देश को संबोधित कर ‘गरीब कल्याण योजना’ जो 30 जून को समाप्त हो रही थी इसकी अवधि बढ़ाकर नवंबर 2020 तक पांच किलो गेहूं या चावल प्रति व्यक्ति और एक किलो चना हर परिवार को मुफ्त देने की घोषणा करनी पड़ी। दो करोड़ रोजगार मुहैया कराने, किसानों की आय को दोगुना करने, विदेशों में जमा काले धन को वापस लाने, एक शहर से दूसरे शहर जाने के लिए बुलेट ट्रेन चलाने, 100 स्मार्ट सिटी बनाने, हवाई चप्पल वाले को हवाई जहाज़ में बैठाने, मेक इन इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, डिजिटल इंडिया, 30-35 रुपये में पेट्रोल, डीजल उपलब्ध कराने, डॉलर के मुकाबले रुपये को मजबूत बनाने और पांच ट्रिलियन अर्थव्यवस्था का लक्ष्य प्राप्त करने की जोर-शोर से बात करने वाली सरकार और सत्ताधारी पार्टी अब पांच किलो अनाज पर आ गयी है।
आज स्थिति यह है कि देश की 60 प्रतिशत से अधिक आबादी भुखमरी के कगार पर है। खुद प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में गरीबों की संख्या 80 करोड़ बताई है। जबकि 29 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन व्यतीत कर रहे हैं। देश में 51 प्रतिशत महिलाएँ और 40 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं। एक तिहाई आबादी को दो वक़्त का भोजन उपलब्ध नहीं हैं। 80 करोड़ गरीबों में से, 44 करोड़ यूपी, बिहार, झारखंड और मध्य प्रदेश में रहते हैं। इन्हें श्रमिक पैदा करने वाला प्रांत भी कहा जाता है। ऐसा तब है जब संसद का हर चौथा सदस्य यूपी, बिहार और मध्य प्रदेश से आता है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत का स्थान 117 देशों में 102 है। जबकि मई 2014 में देश 55 वें स्थान पर था। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत की रैंक लगातार गिर रही है। क्योंकि अर्थव्यवस्था के लिए देश के पास कोई विजन नहीं है। ऊपर से रोजग़ार की कमी और राजनीतिक वर्चस्व बनाए रखने की इच्छा ने स्तिथि को बद से बदतर कर दिया है।
पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था की चर्चा से, देश में सुधार की आशा बढ़ी थी। इसकी घोषणा वित्त मंत्री ने बजट सत्र को संबोधित करते हुए की थी। अगले दिन, 6 जुलाई, 2019 को प्रधानमंत्री ने वाराणसी में भाजपा कार्यकर्ताओं से अपने सम्बोधन में, इसे देश के लिए बड़ा लक्ष्य बताया था। इस पहल से रोजगार, व्यापार, उत्पादन, निवेश, निर्यात और आयात के नए अवसर की सम्भावना पैदा हुयी थी। विशेषज्ञों के अनुसार, 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था के लिए, 8 प्रतिशत की विकास दर प्राप्त करना तथा बरकऱार रखना आवश्यक है। इस लक्ष्य के लिए हर क्षेत्र में निवेश की दरकार है। निवेश बढऩे से नए रोजग़ार पैदा होते हैं, मांग बढ़ती है और क्रय शक्ति में इज़ाफ़ा होता है। बोल चाल के शब्दों में खपत + निजी निवेश+सरकारी खर्च+निर्यात में से आयात को घटा दें तो यह देश की विकास दर या अर्थव्यवस्था कहलती है। आर्थिक सर्वेक्षण के पहले अध्याय के पेज चार पर पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था हासिल करने के लिए ‘यदि’ के साथ कुछ शर्तों का उल्लेख किया गया है। ‘यदि’ निर्यात बढ़े, ‘यदि’ उत्पादकता बढे, ‘यदि’ रुपये में गिरावट आये, ‘यदि’ वास्तविक जीडीपी ग्रोथ 8 प्रतिशत हो और मुद्रास्फीति 4 प्रतिशत के आसपास रहे, तो अर्थव्यवस्था 5 ट्रिलियन तक पहुंचेगी। बेरोजगारी के कारण खपत और निवेश की मांग में कमी आई है। दूसरी ओर जलवायु परिवर्तन ने मानसून की गति को धीमा कर दिया है, जिस का प्रभाव कृषि पर पड़ रहा है। इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था लगातार प्रभावित हो रही है। सेवा क्षेत्र, जिसका अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ा योगदान है,उसकी स्तिथि भी अच्छी नहीं है।
2019 के चुनावों से पहले, मोदी सरकार ने बुनियादी ढांचे में 100 करोड़ रुपये के निवेश की घोषणा की थी। अब सरकार ने रेलवे और बुनियादी ढाँचे में निजी कंपनियों से पीपीपी मोड में निवेश की बात कही है। लेकिन इस श्रेणी की कंपनियां परेशान चल रही हैं। इसलिए माना जा रहा है कि इसका क़ुरा भी अडानी या अंबानी के नाम ही निकलेगा। निर्यात में भारत लगातार पिछड़ रहा है। जी डी पी के औसत के हिसाब से यह 14 साल के निचले स्तर पर है। भारत-चीन संघर्ष और टैरिफ वॉर का भी उस पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। 3 मई को बेरोजगारी की दर 27.1 प्रतिशत तक पहुँच गयी थी। सीएमआई की रिपोर्ट के अनुसार, जून के तीन सप्ताह में यह घटकर 17.5 और 11.6 पर आ गयी। परन्तु इन आंकड़ों पर भरोसा नहीं किया जा सकता क्योंकि सरकार ने आंकड़ों को दुरुस्त करने के लिए मनरेगा का सहारा लिया है। निजी निवेश में गिरावट आई है, घरेलू कंपनियां अपना कारोबार देश के बाहर स्थानांतरित कर रही हैं। देश की परिस्थितियाँ विदेशी निवेश के लिए अनुकूल नहीं हैं। बैंक, एनबीएफसी, एनपीए के बोझ से डूब रहे हैं। वैसे, सरकारी निवेश जीडीपी वृद्धि को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। लेकिन सरकार की दिलचस्पी निवेश के बजाय देश की संम्पदा अपने प्रियजनों के हवाले करने में है।
भाजपा के राज्यसभा सदस्य सुब्रमण्यम स्वामी ने 31 अगस्त, 2019 को अपने ट्वीट में सरकार की आर्थिक नीति पर सवाल उठाते हुए कहा था, ‘यदि कोई नई आर्थिक नीति नहीं लाई जाती है, तो पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था को गुडबाय कहने को तैयार हो जाइये।’ एक दिन पहले ही 2019-20 की पहली तिमाही में जीडीपी वृद्धि दर 5 प्रतिशत बताई गयी थी। यह उस समय छ: साल के सबसे निचले स्तर पर थी।
हालांकि, वित्त मंत्री निर्मला सीता रमन ने अर्थव्यवस्था को रफ़्तार देने के लिए ऑटोमोबाइल, मैन्युफैक्चरिंग और रियल एस्टेट को बढ़ावा देने के लिए महत्वपूर्ण घोषणाएं की थीं। इसी उद्देश्य के लिए, उन्होंने दस राज्य के स्वामित्व वाले बैंकों को चार में विलय कर दिया था। फिर भी, मार्च 2020 में जीडीपी वृद्धि दर 3.1 प्रतिशत दर्ज की गई। इससे पता चलता है कि भाजपा के अन्य वादों की तरह, पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था की घोषणा एक सूंदर स्वप्न के अलावा और कुछ भी नहीं।
सवाल यह है कि अर्थव्यवस्था, रोजगार, व्यवसाय, शिक्षा, स्वास्थ्य, इंफ्रास्ट्रक्चर और बुनियादी जरूरतों को यदि सरकार पूरा नहीं कर पा रही है तो भाजपा को वोट कौन देगा, वह चुनाव कैसे जीतेगी। 80 करोड़ लोगों को पांच किलो अनाज देने की घोषणा शायद इसी सवाल का जवाब तलाश करने की कोशिश है। वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपाई के अनुसार, पाँच महीने तक गरीबों को पाँच किलोग्राम मुफ्त खाद्यान्न देने पर सरकार को 90,000 करोड़ रुपये खर्च करने पड़ेंगे, अगर 80 करोड़ लोगों को एक साल तक हर महीने पांच किलो अनाज दिया जाये, तो इस पर कुल 2.25 लाख करोड़ रुपये खर्च होंगे। यदि 2.25 लाख करोड़ रुपये खर्च करके 80 करोड़ लोगों को अपने साथ खड़ा किया जा सकता है तो यह राजनीती में बहुत सस्ता सौदा है। ज्ञात रहे कि 2014 के संसदीय चुनावों में भाजपा को 17.16 करोड़ और 2019 में 22,90,78,261 वोट मिले थे। वैसे मुफ्त अनाज की थ्योरी गज़़ब की है, यदि 2.25 लाख करोड़ रुपये का अनाज देश के 80 करोड़ नागरिकों का पेट भर सकता है, तो जरा सोचिए देश में कितनी असमानता है। अगर इसे वोट से जोड़ कर देखा जाए तो यह लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है।
वर्तमान योजनाओं के अवलोकन से पता चल सकता है कि मुफ्त अनाज की योजना सफल होगी या पिछले वादों की तरह यह भी एक जुमला बन कर रह जाएगी। सरकार ने उन 8 करोड़ प्रवासी मजदूरों को जिन के पास राशन कार्ड नहीं है, मई जून में राशन देने का वादा किया था। लेकिन वह मई में एक करोड़ और 26 जून तक केवल 79,20,000 श्रमिकों को ही राशन दे पाई। खाद्य मंत्री रामविलास पासवान के अनुसार, उन्हें मई में एफसीआई से 13.5 प्रतिशत और जून में 10 प्रतिशत से भी कम खाद्यान्न मिल पाया। कोरोना संकट के समय भी 42 प्रतिशत राशन कार्ड धारक सरकारी राशन से वंचित रहे। आंकड़े बताते हैं कि आंध्र प्रदेश, केरल, बिहार और उत्तर प्रदेश ऐसे राज्य हैं जिन्होंने राशन की दुकानों से 90 खाद्यान्न वितरित किया। जबकि दिल्ली, मध्य प्रदेश, उड़ीसा और झारखंड राज्य केवल 30 प्रतिशत राशन ही बांट पाए। राष्ट्रीय स्तर पर, केवल 58 प्रतिशत को ही सरकारी राशन मिल पाता है। सस्ते राशन की 60 प्रतिशत दुकानें तो बंद ही रहती हैं। मनरेगा की स्थिति भी कुछ अलग नहीं है। बजट में मनरेगा के लिए 61,000 करोड़ रुपये की मंजूरी दी गई थी। कोरोना राहत के नाम पर 40,000 करोड़ रुपये अतिरिक्त देने का निर्णय किया गया, लेकिन अभी तक इस में से केवल 38,999 करोड़ रुपये ही जारी किए गए हैं। जिस में से नब्बे प्रतिशत खर्च हो चुका है। सरकार मनरेगा में पंजीकृत लोगों को सौ दिन का रोजगार नहीं दे पा रही है और न ही सभी स्कूलों में बच्चों को मिड-डे मेल। देश में न्यूनतम अनिवार्य आय जैसी कोई योजना भी नहीं है। जिस से गरीबों को राहत मिल सके। ऐसी स्थिति में सरकार पांच किलोग्राम मुफ्त खाद्यान्न का वादा पूरा कर पाएगी या नहीं यह आने वाला समय बताएगा। भारत पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था वाला देश भले ही न बन पाया हो, लेकिन कोड -19 के मामलों के कारण वह दुनिया का तीसरा देश जरूर बन गया है।
-रूचिर गर्ग
स्वाभाविक है कि विकास दुबे जैसे दुर्दांत आतंकी के साथ किसी की सहानुभूति नहीं हो सकती। विकास दुबे और उसके गैंग ने 8 पुलिस वालों को जिस बेरहमी से मारा उसके बाद जनमानस में जो गुस्सा था वो सबने देखा ही है।महाकाल परिसर में जो हुआ वो लोगों के गले उतर नहीं रहा था। अब एनकाउंटर पर सवाल उठ रहे हैं।
स्वाभाविक है कि विकास दुबे भारतीय कानून व्यवस्था के तहत सख्त से सख्त सजा का हकदार था। लेकिन जिन परिस्थितियों में यह सब कुछ घटा वो स्वाभाविक प्रतीत नहीं हो रहीं हैं, इसलिए सवाल भी स्वाभाविक हैं।
कोई सवाल अगर पुलिस नाम की संस्था के हौसले कम करते हों तो व्यापक जनहित में ऐसे सवालों को कुछ देर के लिए रोक लीजिए। गहरी सांस लीजिए, थोड़ा सोचिए, फिर तय कीजिये कि कोई सवाल यदि पुलिस के लोकतांत्रिक स्वरूप को बनाए रखने के लिए ज़रूरी हों तो भी क्या उनके लिए जगह न रखी जाए? सोचिए कि लोकतंत्र कानून के राज से मजबूत होगा या अराजकता से?
जिस समय आप किसी ऐसे हत्यारे को सरेआम गोलियों से भून डालने की कामना कर रहे होते हैं तब सोचिए कि क्या आपने कभी उस समय एक सवाल भी किया था, जब आपकी आँखों के सामने कोई एक व्यक्ति अपराध करते करते विकास दुबे बन जाता है?
सोचिए कि सडक़ पर त्वरित न्याय से खुश होने वाले हम या आप क्या कभी उस व्यवस्था पर सवाल उठा भी पाते हैं जो विकास दुबे बनाती है? सोचिए कि जब आप किसी चुनाव में वोट देने के लिए घर से निकलते हैं तो क्या आपने कभी यह सोचा था कि आपको एक अपराध मुक्त, सभ्य और लोकतांत्रिक समाज के निर्माण के लिए वोट देना है? सोचिए कि वोट देते समय आपकी प्रज्ञा का हरण कौन कर जाता है! सोचना छोडि़ए हममें से करीब-करीब आधे से कुछ कम तो वोट भी नहीं देने जाते!
कानपुर एनकाउंटर ऐसी कोई इकलौती घटना नहीं है जिस पर तकनीकी सवाल उठे या अंतहीन बहस होती रहे। किसी दुर्दांत अपराधी की मौत का शोकगीत कोई नहीं गाना चाहेगा लेकिन कानपुर एनकाउंटर फिर एक ऐसा मौका जरूर है कि हमको आपको यह तय करना होगा कि हम कैसा समाज चाहते हैं, कैसा देश चाहते हैं? अगर समाज ऐसा ही हो जो न विकास दुबे बनने की प्रक्रिया पर मुंह खोले और ना जिसमें यह सवाल करने की इच्छा हो कि जब घटना स्थल से 2 किलोमीटर पहले मीडिया को रोक दिया गया था तब क्या एनकाउंटर हो चुका था, तो संतोष कीजिये कि अब आप लगभग ऐसे ही समाज का हिस्सा हैं। लेकिन अगर आपको लगता है कि आपको कानून का राज चाहिए, आपको ऐसा समाज चाहिए जिसमें हम आप जैसे नागरिकों की न्याय व्यवस्था पर आस्था अटूट रहे तो इसके लिए आपको सिर्फ सवाल पूछने हैं। आपको सिर्फ इतना ही तो करना है कि टीवी एंकर्स के नजरिए से सब कुछ देखना छोड़ देना है और अपने विवेक को काम पर लगाना है। जब हम ऐसा कर पाएंगे तब यह भी तो देख पाएंगे कि वो कौन सी ताकते हैं,वो कौन सी प्रवृत्तियां हैं, वो कौन सी साजिशें हैं जो हमें सवाल करने से रोकती हैं, जिन्होंने हमारी चेतना का हरण कर लिया है, जो हमें मजबूर कर रहीं हैं कि हम इस व्यवस्था में बस ताली-थाली पीटने वाले दर्शक बने रहें!
अगर लोकतांत्रिक समाज की हमारी आकांक्षा बची है, अगर कानून के राज की आकांक्षा बची है तो इन आकांक्षाओं का एनकाउंटर कर रही प्रवृत्तियों की शिनाख्त जरूरी है।
आज यह चर्चा अलोकप्रिय लग सकती है लेकिन लोकप्रियता का आंनद बड़ा नशीला होता है। हम ना महंगाई समझते हैं, ना बेरोजगारी समझ पाते हैं, न अपराध मुक्त समाज समझ पाते हैं,ना शिक्षा के सवाल समझ आते हैं, विदेश नीति वगैरह को तो छोडि़ए हम पीने के साफ पानी तक की बात नहीं कर पाते। ये आनंद बड़ा उन्मादी बना देता है।
हमें कभी सिर्फ दर्शक तो कभी विदूषक सा बना देता है। हम देख ही नहीं पाते कि हमारे लिए नायकत्व के प्रतिमान कितनी खामोशी से बदलते जा रहे हैं। झूठ हमारे लिए सब से बड़ा सच बन गया और हम इस हकीकत का एहसास भी नहीं करना चाहते।
फिलहाल इतना ही सोचिए कि अब उन सवालों का जवाब कौन देगा जो विकास दुबे से होने थे? ये तो ऐसा सवाल है जो शहीद पुलिस वालों के परिजन भी कर रहे हैं! हम आप तो उनके साथ हैं न? तो सवाल कीजिये?
अच्छा चलिए, इस सवाल से असुविधा हो रही हो तो इतना तो पूछ ही लीजिए कि सीबीएसई के पाठ्यक्रम को हल्का करने के लिए लोकतांत्रिक अधिकार, धर्मनिरपेक्षता और खाद्य सुरक्षा जैसे पाठ ही हटाने क्यों जरूरी थे?
प्रेमचंद की तरह भीष्म साहनी ने भी समाज को उसी बारीकी से देखा-समझा था लेकिन, यह प्रेमचंद से आगे का समाज था इसलिए उनकी लेखनी ने विरोधाभासों को ज्यादा पकड़ा
- कविता
आजकल महानगरों के कुछ ‘अतिकुलीन’ परिवारों में चलन शुरू हुआ है कि बच्चे अपने अभिभावकों को मम्मी-पापा कहने के बजाय उनका नाम लेते हैं. इस चलन के पीछे तर्क है कि एक उम्र के बाद मां-बाप बच्चों के दोस्त हो जाने चाहिए और वे जब दोस्त होंगे तो संबोधन भी बदल जाएगा. हो सकता है यही तर्क हो या इससे आगे की बात लेकिन, यह जानकारी आम पाठकों को हैरान करती है कि भीष्म साहनी की बेटी कल्पना अपने पिता को हमेशा भीष्म जी कहती थीं और इसपर कभी भीष्म साहनी को ऐतराज नहीं हुआ. दरअसल यही सहजता इस महान लेखक की काबिलियत थी और इसी ने उन्हें अपने और दूसरे इंसानों के अंतर्मन में छिपी कुरूपताओं और विरोधाभासों से नजर मिलाने की समझ दी थी. ऐसा न होता तो ‘तमस’ जैसी कृति कभी न रची जाती.
भीष्म साहनी को 1975 में तमस के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था. इसी वर्ष वे पंजाब सरकार के शिरोमणि लेखक पुरस्कार से सम्मानित किए गए . उन्हें 1980 में एफ्रो-एशिया राइटर्स एसोसिएशन का लोटस अवॉर्ड और 1983 में सोवियत लैंड नेहरु अवॉर्ड दिया गया था. 1986 में भीष्म साहनी को पद्मभूषण अलंकरण से भी विभूषित किया गया. इन बड़े पुरस्कारों और सम्मानों की सूची बस यह बताने के लिए है कि पाठकों की तारीफें मिलने के साथ-साथ बतौर लेखक समाज-सरकार भी उन्हें सराहते रहे हैं फिर भी उनकी सहजता-सरलता कभी कम नहीं हुई. शायद इसी कारण उन्होंने जिस भी विधा को छुआ, कुछ अनमोल उसके लिए छोड़ ही गए. कहानियों में चाहे वह ‘चीफ की दावत’, हो या फिर ‘साग मीट’, उपन्यास में ‘तमस’ और नाटकों में ‘हानूश’ और ‘कबिरा खड़ा बजार में’ जैसी अनमोल कृतियां.
भीष्म साहनी की बेटी कल्पना बताती हैं, ‘वो जो कुछ भी लिखते थे सबसे पहले मेरी मां को सुनाते थे. मेरी मां उनकी सबसे पहली पाठक और सबसे बड़ी आलोचक थीं’
भीष्म साहनी के व्यक्तित्व की सहजता-सरलता वाले आयाम पर उनकी बेटी कल्पना साहनी की वह बात बेहद दिलचस्प है जो उन्होंने अपने पिता के आखिरी उपन्यास ‘नीलू, नीलिमा, नीलोफर’ के विमोचन के मौके पर कही थी. यहां उन्होंने बताया, ‘वो जो कुछ भी लिखते थे सबसे पहले मेरी मां को सुनाते थे. मेरी मां उनकी सबसे पहली पाठक और सबसे बड़ी आलोचक थीं. इस उपन्यास को भी मां को सौंपकर भीष्म जी किसी बच्चे की तरह उत्सुकता और बेचैनी से उनकी राय की प्रतीक्षा कर रहे थे. जब मां ने किताब के ठीक होने की हामी भरी तब जाकर उन्होंने चैन की सांस ली थी.’
‘नीलू, नीलिमा, नीलोफर’ सन 2000 में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था और यह एक अद्भुत संयोग है कि उसी वक़्त इस प्रकाशन से दो और बड़े लेखकों के उपन्यास प्रकाशित हुए, निर्मल वर्मा का ‘अंतिम अरण्य’ और कृष्णा सोबती का ‘समय सरगम’. ध्यान देने वाली बात यह थी कि जहां अन्य दो लेखकों के उपन्यास के केंद्र में उनकी वृद्धावस्था और उसके एकांतिक अनुभव थे, वहीं भीष्म जी की किताब के केंद्र में एक प्रेमकथा थी. तब अंतर्धार्मिक प्रेम और विवाह के लिए ‘ऑनर किलिंग’ पहली बार किसी उपन्यास या कहें कि एक बड़े कद के लेखक की किताब का केंद्रबिंदु बनी थी.
भीष्म जी के आखिरी उपन्यास में तमस वाली वही साम्प्रदायिकता थी और उससे लड़ते हुए कुछ असहाय और गिनेचुने लोग, पर कथा के विमर्श का फलक कुछ नया सा था. यहां न सोबती जी के उपन्यास का केंद्र - मृत्यु से लड़ने का वह महान दर्शन स्थापित हो रहा था, न निर्मल जी के लेखन में पाया जाने वाला आत्मचिंतन. ‘नीलू, नीलिमा, नीलोफर’ के केंद्र में तत्कालीन समाज और उसकी जटिलताएं और उनसे पैदा होने वाली समस्याएं थीं. दरअसल यह भीष्म जी के लेखन की विशेषता थी जहां वे जीवन की सच्चाई से आंख मिलाते थे और उनके माध्यम से पाठक भी ऐसा कर पाते थे.
आलोचक नामवर सिंह भीष्म साहनी के लिए कहते हैं, ‘हैरानी होती है यह देख कर कि रावलपिंडी से आया हुआ आदमी जो पेशे से अंग्रेज़ी का अध्यापक था और जिसकी भाषा पंजाबी थी, वह हिंदी साहित्य में एक प्रतिमान स्थापित कर रहा था’
समाज को इस तरह देखने का काम मुंशी प्रेमचंद ने भी अपनी रचनाओं में किया लेकिन भीष्म साहनी का देखा-समझा समाज प्रेमचंद के आगे के समय का समाज है. साथ ही भीष्म जी ने अपनी भाषा में वैसी ही सादगी और सहजता रखी जो रचनाओं को बौद्धिकों के दायरे निकालकर आम लोगों तक पहुंचा देती है. यदि विष्णु प्रभाकर की अद्भुत रचना ‘आवारा मसीहा’ के बजाय तमस को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला तो इसकी एक वजह इस उपन्यास की वह भाषा भी होगी जिससे विषय की मार्मिकता लोगों को दिलों तक पहुंच जाती है. आलोचक नामवर सिंह भीष्म साहनी के लिए कहते हैं, ‘मुझे उनकी प्रतिभा पर आश्चर्य होता है कि कॉलेज में पढ़ते हुए वे लिखने, प्रगतिशील लेखक संघ से भी जुड़ने का समय निकाल लेते थे.मैं यह नहीं कहता कि उनकी सभी रचनाओं का स्तर ऊंचा है लेकिन अपनी हर रचना में उन्होंने एक स्तर बनाए रखा... हैरानी होती है यह देख कर कि रावलपिंडी से आया हुआ आदमी जो पेशे से अंग्रेज़ी का अध्यापक था और जिसकी भाषा पंजाबी थी, वह हिंदी साहित्य में एक प्रतिमान स्थापित कर रहा था.’
यह भी एक दिलचस्प बात है कि कहानी-उपन्यास में प्रेमचंद के साथ खड़े भीष्म साहनी जब नाटक लिखते हैं तो फिर उनके समकालीन और पहले के लेखकों में ढूंढ़ने पर भी कोई एक नाम उनके साथ खड़ा नजर नहीं आता. बाद में जरूर मोहन राकेश ने नाटक लिखे थे लेकिन इस विधा के इतने प्रभावशाली होने के बावजूद भीष्म जी के किसी समकालीन लेखक ने नाटक लेखन में हाथ नहीं आजमाया. भीष्म साहनी के पहले नाटक ‘हानूश’ से जुड़ा भी एक दिलचस्प वाकया है. यह लिखने के पहले तक वे हिंदी के प्रतिष्ठित कहानीकार-उपन्यासकार बन चुके थे. पर जब उन्होंने पहली बार नाटक लिखा तो इसे लेकर उनके मन में कई तरह के संदेह आ गए. इसी वजह से वे ‘हानूश’ को लेकर अपने बड़े भाई और फिल्म अभिनेता बलराज साहनी के पास जाते थे, और वहां से खारिज होकर हरबार मुंह लटकाए वापस आते थे. बाद में उन्होंने यह नाटक एक थियेटर निर्देशक को दिया लेकिन उसने भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. आखिरकार भीष्म जी ने वह किताब मूल रूप में ही प्रकाशित करवाई. उन्होंने हानूश की भूमिका में इन सब वाकयों का मजे के साथ वर्णन किया है.
वैसे भीष्म साहनी के मन-मस्तिष्क में ‘तमस’ के लेखन बीज पड़वाने में उनके बड़े भाई बलराज साहनी का भी योगदान था. एक बार जब भिवंडी में दंगे हुए तो भीष्म साहनी अपने बड़े भाई के साथ यहां दौरे पर गए थे. यहां जब उन्होंने उजड़े मकानों, तबाही और बर्बादी का मंजर देखा तो उन्हें 1947 के दंगाग्रस्त रावलपिंडी के दृश्य याद आ गए. भीष्म साहनी फिर जब दिल्ली लौटे तो उन्होंने इन्हीं घटनाओं को आधार बनाकर तमस लिखना शुरू किया था. ‘तमस’ सिर्फ दंगे और कत्लेआम की कहानी नहीं कहता. वह उस सांप्रदायिकता का रेशा-रेशा भी पकड़ता है जिसके नतीजे में ये घटनाएं होने लगती हैं. उतनी भयावह न सही लेकिन आज हमारे आसपास जिस तरह की घटनाएं हो रही हैं वे इस उपन्यास और भीष्म साहनी जैसे लेखकों को और प्रासंगिक बना देती हैं. (satyagrah.scroll.in)
सचिन गोगोई
नेपाल में चीन की राजदूत हाओ यांकी पिछले दिनों राजनीतिक मतभेदों से जूझ रही सत्तारूढ़ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी को संभालने में काफी व्यस्त रहीं, लेकिन उनकी अति राजनीतिक सक्रियता नेपाल में बहुत से लोगों को नागवार गुजर रही है।
नेपाल के कुछ अखबारों ने पिछले हफ़्ते अपने संपादकीय लेखों में राजदूत हाओ यांकी और चीन की देश की घरेलू राजनीति में दखल देने के लिए आलोचना की है।
ऐसी रिपोर्टें भी हैं कि छात्रों के एक गुट ने इस मुद्दे पर विरोध प्रदर्शन भी किया।
साल 2018 में देश की दो प्रमुख कम्युनिस्ट पार्टियों के विलय के बाद नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एनसीपी) का गठन हुआ था।
एनसीपी को शुरू से ही एक ऐसे गठबंधन के तौर पर देखा जाता रहा है जो कभी भी बिखर सकता है।
लेकिन इसकी वजह सिर्फ ये नहीं है कि इस विलय ने नेपाल के दो पुराने प्रतिद्वंद्वियों खड्ग प्रसाद शर्मा ओली और पुष्प कमल दहाल प्रचंड को एक मंच पर ला दिया।
नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर जिस तरह से सत्ता के लिए संघर्ष चल रहा है, उसने पार्टी को बिखरने की कगार पर लाकर खड़ा दिया है।
दहाल और उनके समर्थकों ने ओली से प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष का पद छोडऩे की मांग की है।
लेकिन ओली मैदान में बने हुए हैं, उन्होंने भारत पर उन्हें सत्ता से बेदखल करने की साजिश करने का आरोप लगाया है।
दोनों नेताओं के बीच सार्थक बातचीत की तमाम कोशिशें अभी तक नाकाम रही हैं।
हालांकि इस बीच चीन की राजदूत हाओ यांकी ने पार्टी को बिखरने से रोकने के लिए अपनी कोशिशें लगातार जारी रखी हैं।
उन्होंने नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के सीनियर नेताओं से मुलाकात की और यहां तक कि चीन का संदेश लेकर वे राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी से भी मिलने गईं।
हाओ यांकी की इस सक्रियता को नेपाल की घरेलू राजनीति में दखल के रूप में देखा जा रहा है। और एनसीपी ने चीन की तरफ़ से किसी दखलंदाज़ी की बात से इनकार किया है। लेकिन बहुत से लोग एनसीपी की सफाई से संतुष्ट नहीं दिखते। इस पर नेपाली अख़बारों की भी प्रतिक्रियाएं आई हैं।
दखलंदाजी कबूल नहीं है...
नेपाली भाषा के अख़बार ‘नया पत्रिका’ ने बुधवार को अपने संपादकीय लेख में लिखा कि चीन धीरे-धीरे नेपाल की घरेलू राजनीति में अपने ‘माइक्रो मैनेजमेंट का दायरा’ बढ़ा रहा है।
अख़बार ने अपने संपादकीय में लिखा, ‘सत्तारूढ़ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के मतभेदों को सुलझाने के लिए चीनी राजदूत का सक्रिय होना द्विपक्षीय संबंधों और कूटनीति दोनों ही लिहाज से ठीक नहीं है।’
एक और नेपाली अखबार ‘नागरिक’ ने भी ‘नया पत्रिका’ की तर्ज पर अपनी बात रखी है।
अखबार लिखता है, ‘ऐसा लगता है कि नेपाल के अंदरूनी मामलों में दखल न देने की अपनी पुरानी नीति से चीन पीछे हट गया है। नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के अंदरूनी सत्ता संघर्ष में राजदूत हाओ यांकी की सक्रियता को सामान्य बात नहीं माना जा सकता है। इससे पता चलता है कि हम अभी तक स्वतंत्र रूप से फैसले लेने में सक्षम नहीं हो पाए हैं।’
कूटनीतिक आचार संहिता
अजीब बात ये हुई कि नेपाल के विदेश मंत्रालय को राजदूत हाओ यांकी की राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी से हुई मुलाकात के बारे में जानकारी नहीं थी।
कुछ अधिकारियों ने अंग्रेज़ी अख़बार ‘काठमांडू पोस्ट’ से कहा कि राजदूत हाओ यांकी का ऐसा करना कूटनीति के नियमों के ख़िलाफ़ था।
एक अधिकारी ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर ‘काठमांडू पोस्ट’ से कहा, ‘कूटनीतिक आचार संहिता के तहत ऐसा मुलाकातों के समय विदेश मंत्रालय के अधिकारियों को वहां मौजूद होना चाहिए। चूंकि इस मीटिंग का कोई आधिकारिक रिकॉर्ड मौजूद नहीं है, इसलिए हमें नहीं मालूम कि वहां किन मुद्दों पर बात हुई।’
चीन ने राजदूत हाओ यांकी की राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी से हुई मुलाकात को ‘रूटीन मीटिंग’ बताया।
विशेषज्ञ क्या कहते हैं?
ऐसा नहीं है कि नेपाल की राजनीति में चीन की बढ़ती दिलचस्पी को लेकर केवल प्रेस और मीडिया शिकायत कर रहे हैं।
विपक्षी नेताओं, विदेश नीति मामलों के जानकार और यहां तक कि छात्र भी इस पर सवाल उठा रहे हैं।
पूर्व विदेश मंत्री और राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी के चेयरमैन कमल थापा ने ट्वीट किया, ‘क्या रिमोट कंट्रोल से चल रहा कोई लोकतांत्रिक गणराज्य नेपाली लोगों का फायदा कर सकता है?’
कमल थापा की टिप्पणी से ये साफ था कि वे राजदूत हाओ यांकी की नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं से हुई मुलाकात का हवाला दे रहे थे।
पूर्व कूटनयिकों और अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञों का कहना है कि एक राजदूत का घरेलू राजनीतिक विवाद को सुलझाने के लिए सक्रिय भूमिका निभाना असामान्य बात है।
नेपाल के लिए पारंपरिक रूप से ये बात सही भी नहीं लगती है।
नेपाल में कम्युनिस्ट सरकार
भारत में नेपाल के राजदूत रह चुके लोकराज बराल ने ‘नेपाली टाईम्स’ से कहा, ‘कुछ साल पहले नेपाल में भारत जिस तरह से दखल देता था, चीन आज वही कर रहा है। चीन अपनी विदेश नीति के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए नेपाल की राजनीति के माइक्रो मैनेजमेंट की दिशा में कदम बढ़ा रहा है।’
चीन मामलों के विशेषज्ञ रूपक सपकोटा इस मामले को उतनी तवज्जो नहीं देते हैं। हालांकि उन्होंने कहा कि चीन नेपाल में एक कम्युनिस्ट सरकार देखना चाहेगा।
थिंकटैंक ‘इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेन अफेयर्स’ के कार्यकारी निदेशक रूपक सपकोटा कहते हैं, ‘इस वक्त ये मुलाकात हालात का जायजा लेने के लिए की गई होगी। (बाकी पेज 7 पर)
मुझे नहीं लगता कि सरकार का नेतृत्व कौन करेगा, इसे लेकर उनकी कोई पसंद या नापसंद होगी।‘
‘द हिमालयन टाईम्स’ की रिपोर्ट के मुताबिक छात्रों के एक ग्रुप ने इस हफ्ते की शुरुआत में चीनी राजदूत के मुद्दे पर विरोध-प्रदर्शन भी किया था। वे चीनी राजदूत से नेपाल के मामलों से दूर रहने की मांग कर रहे थे।
चीन की विदेश नीति
जानकारों का कहना है कि सत्तारूढ़ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के सत्ता संघर्ष को खत्म करने की हाओ यांकी कोशिश चीन की आक्रामक विदेशी नीति का ही हिस्सा है। पिछले पांच सालों से चीन हिमालय की गोद में बसे इस छोटे से देश में पांव पसारने की आहिस्ता-आहिस्ता कोशिश कर रहा है। नेपाल में चीनी राजदूत हाओ यांकी की बढ़ती सक्रियता ने भारत के लिए असहज स्थिति पैदा कर दी है।
साल 2018 में प्रधानमंत्री बनने के बाद से ओली ने चीन के साथ नजदीकियां बढ़ाई हैं वे भारत को नीचा दिखाने से उन्होंने कभी भी संकोच नहीं किया।
लेकिन नेपाल में बहुत से लोग इस बात को लेकर चिंतित हैं कि प्रधानमंत्री ओली ने एक देश की कीमत पर दूसरे देश का पक्ष लिया है।
उनकी चिंता है कि इससे राजनीतिक रूप से अस्थिर और आर्थिक तौर पर कमजोर नेपाल की मुश्किलें बढ़ सकती हैं।
विदेश नीति का ये असंतुलन
‘माई रिपब्लिका’ अखबार से विपक्ष के एक राजनेता ने कहा, ‘किसी एक देश का पक्ष लेते समय ओली सरकार को विवेक से काम लेना चाहिए। अगर इस बहुध्रुवीय दुनिया में हम किसी एक शक्ति का पक्ष लेते हैं तो विदेश नीति का ये असंतुलन लंबे समय में हमें नुक़सान पहुंचाएगा।’
संयुक्त राष्ट्र में नेपाल के स्थाई प्रतिनिधि रह चुके दिनेश भट्टाराई एक कदम और आगे बढक़र चेतावनी देते हैं कि अगर चीन को नेपाल की राजनीति में गहराई से उतरने का मौका लगा तो इसके उल्टे नतीज़े हो सकते हैं।
भट्टाराई ने अंग्रेज़ी अख़बार ‘द हिमालयन टाइम्स’ से कहा, ‘मुमकिन है कि चीन सत्तारूढ़ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी में एकता देखना चाहता हो लेकिन अगर उसने पार्टी को एक रखने के लिए बार-बार दखल दिया तो नेपाल में मौजूद दूसरे ताक़तवर देशों को इससे परेशानी हो सकती है।’
राजनीतिक विश्लेषक जय निशांत भी दिनेश भट्टाराई की बात से सहमत लगते हैं। उन्होंने ‘द हिमालयन टाईम्स’ से कहा, ‘अगर चीन ने नेपाल में अपनी गतिविधियां बढ़ाई तो इससे नेपाल को मदद मिलने के बजाय केवल उसकी परेशानी बढ़ेगी।’ (बीबीसी)
अभिषेक सिंह राव
जुलाई के पहले हफ्ते में रिलायंस जियो ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के मार्केट में कदम रखते हुए जियो-मीट को लांॅच किया है। वैसे तो वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग एप्लिकेशन्स के क्षेत्र में ज़ूम, गूगल हैंगऑउट, गूगल मीट, गोटू मीटिंग, स्काइप, माइक्रोसॉफ्ट टीम, इत्यादि का बोलबाला पहले से है लेकिन इन तमाम? प्लिकेशन्स में करीब नौ साल पुरानी कंपनी ज़ूम सबसे अव्वल है। 2011 में चाइनीज मूल के एरिक युआन ने 40 इंजीनियर्स के साथ मिलकर ‘सासबी’ नामक एक कंपनी की शुरुआत की थी। फिर दूसरे साल ही इसका नाम बदलकर ‘ज़ूम’ रख दिया गया। साल दर साल ज़ूम ने बाज़ार से फंडिंग उठाते हुए अपने प्रोडक्ट पर काम किया और धीरे-धीरे जब वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग का मार्केट परिपक्व होने लगा तो ज़ूम ने अपना लोहा मनवाना शुरू किया।
अप्रैल 2019 में ज़ूम ने अमेरिका में अपना आईपीओ लांॅच किया। आज जूम 2500 कर्मचारियों से लैस दुनिया की नामचीन सॉफ्टवेयर कंपनियों में से एक है। ग्लासडोर के एक सर्वे के मुताबिक कर्मचारियों के लिए ज़ूम 2019 की दूसरे पायदान की ‘बेस्ट प्लेसेस टू वर्क’ कंपनी थी।
कोरोना-काल और ज़ूम की लोकप्रियता
कोरोना संकट के समय में सोशल डिस्टेन्सिंग के चलते ज़ूम की लोकप्रियता में चार चांद लगने शुरू हो गए। बिजनेस इनसाइडर की रिपोर्ट के मुताबिक अमरीका में 18 मार्च के दिन तमाम बिजनेस ऐप्स के बीच आईफोन के दैनिक डाउनलोड में ज़ूम पहले स्थान पर रहा। दफ्तरों एवं शैक्षणिक संस्थानों के बंद होने के कारण कितनी ही समस्याओं से जूझ रहे भारतीयों को भी यह ऐप एक बेहतर उपाय की तरह दिखने लगा। योरस्टोरी की एक रिपोर्ट कहती है कि भारत में 29 मार्च के दिन व्हाट्सएप, टिकटॉक, इंस्टाग्राम और फेसबुक जैसे दिग्गज? प्लिकेशन्स को पछाड़ते हुए ज़ूम ने नंबर एक का स्थान हासिल किया था।
सब कुछ ठीक चल रहा था लेकिन चूंकि ज़ूम के कार्यबल का एक बड़ा हिस्सा चीन में स्थित है, इस वजह से ज़ूम के बढ़ते उपयोग ने सर्विलांस और सेंसरशिप की चिंताओं को जन्म देना शुरू किया। अप्रैल की शुरुआत में भारत सरकार ने एक एडवाइजरी जारी कर कहा था कि ‘ज़ूम का इस्तेमाल सुरक्षित नहीं है।’ इसमें सरकार ने जोर देते हुए कहा कि ‘सरकारी अधिकारी या अफसर आधिकारिक काम के लिए इस प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल न करें।’ भारत के अलावा अन्य देश भी इसे आशंका से देख रहे हैं। विश्व पटल पर इस विवाद की गहराइयों का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि मई महीने की शुरुआत में ज़ूम के सीईओ एरिक युआन को सफाई देते हुए कहना पड़ा कि ‘ज़ूम चाइनीज़ नहीं, अमेरिकन कंपनी है।’
ज़ूम के मुकाबले जियो-मीट की लॉन्चिंग
विश्वव्यापी और खासकर भारत में मौजूदा चीन विरोधी माहौल के बीच, पिछले दिनों देश में ज़ूम के मुकाबले की एक ‘मेड इन इंडिया’ एप्लीकेशन की मांग ने जन्म लिया। यह कहा जा सकता है कि जियो ने सही समय पर इस मांग को समझते हुए अपना एप लॉन्च किया है। जियो ने महज़ दो-तीन महीने के भीतर ज़ूम के फ़ीचर्स को आधार बनाते हुए खुद की एप्लीकेशन लॉन्च कर दी। एप लॉन्च करने के पहले की परिस्थितियों का अंदाजा लगाएं तो जियो के इंजीनियर्स घर से काम कर रहे होंगे, इसके चलते कम्युनिकेशन-गैप एवं इंटरनेट की भी समस्याएं रही होंगी लेकिन इसके बावजूद जियो, बेहद कम वक्त में यह प्रोडक्ट तैयार करने में सफल हुआ है। राष्ट्रवाद की सवारी एवं ज़ूम से मिलते-जुलते इंटरफेस के कारण सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर जियो-मीट चर्चा में रहा। इसके लिए कुछ लोग जहां इसकी आलोचना करते दिखाई दिए वहीं कइयों ने इसे मिसाल की तरह पेश किया है।
ऐसे तो इंटरफेस शब्द के मायने बहुत हैं लेकिन आईटी की भाषा में ‘यूजर इंटरफेस’ अर्थात एक तरह का डिज़ाइन जिसकी मदद से हम किसी भी एप्लीकेशन के फीचर्स का उपयोग करते हैं। कुछ लोगों का तर्क है कि ज़ूम और जियो-मीट का इंटरफ़ेस एक जैसा है! लेकिन जियो की बिजनेस स्ट्रेटेजी पर गौर करें तो जिस ‘कॉपी-इंटरफेस’ का विरोध हो रहा है शायद यही उसकी स्ट्रेटेजी का मुख्य हिस्सा हो सकता है।
किसी भी एप्लीकेशन को मार्केट की डिमांड पूरा करने के लिए बनाया जाता है। इसी डिमांड को पकड़ते हुए कम्पनियां अपने अल्टीमेट गोल रेवेन्यू जेनरेशन का रास्ता बनाती हैं। जैसे चीन के सॉफ्टवेयर इंजीनियर रोबिन ली ने गूगल जैसे चाइनीज़ सर्च इंजन की डिमांड को पूरा करने के लिए ‘बायदु’ सर्च इंजन बनाया। अमरीका में एमेजॉन के बोल-बाले के बाद भारत में बंसल जोड़ी ने फ्लिपकार्ट खड़ा किया। वहीं, कई बार कंपनियां कुछ नए आइडियाज के ज़रिये नया मार्केट खड़ा करने में भी कामयाब होती हैं। जैसे गूगल ने सर्च इंजन का मार्केट खड़ा किया, यूट्यूब ने वीडियो का, फेसबुक ने सोशल मीडिया का, ऊबर ने टैक्सी सर्विस का, ज़ोमाटो ने फ़ूड डिलीवरी का, अमेजन ने ऑनलाइन शॉपिंग का। एप्लीकेशन डेवलपमेंट का विचार इन दोनों पहलुओं के बीच की ही बात है। या तो आप नए इनोवेटिव आईडिया के ज़रिये नया मार्केट खड़ा कीजिये या फिर जो मार्केट बना हुआ है, उसी की डिमांड्स को समझिए।
जियो ने क्या किया?
जियो की केस-स्टडी की जाए तो समझ में आता है कि इस कंपनी ने फोर-जी सर्विस लॉन्च करते वक्त भी सबसे पहले टेलीकम्यूनिकेशन के मार्केट की डिमांड को समझा और उस समय वे जो सबसे बढिय़ा दे सकते थे उसी को आधार बनाते हुए, आम आदमी तक अपनी पहुंच बनाई। हालांकि उस समय जियो की फोर-जी सर्विस भारत के लिए ही नई थी, विकसित देशों में यह पुरानी बात हो चुकी थी। ऐसे में जियो भारत में एक नया मार्केट खड़ा करने में कामयाब रहा जिसका आगे चलकर दूसरी भारतीय टेलीकम्यूनिकेशन कंपनियों ने भी अनुसरण किया। नतीजा यह है कि आज बेहतर प्लानिंग, अनूठी सर्विस और मार्केटिंग के चलते महज़ चार साल में यह कंपनी टेलीकम्यूनिकेशन मार्केट के शीर्ष पर है।
जियो-मीट के विवाद के बीच आईटी क्षेत्र की कार्यप्रणाली को समझे बगैर हम इसकी तह तक नहीं पहुंच सकते हैं। वर्तमान की आईटी कार्यप्रणालियों में मार्केट की डिमांड समझते हुए एक साफ-सुथरे स्थायी प्रोडक्ट को बाज़ार में उतारना पहला चरण है। कंपनियों को पता होता है कि उनके पहले वजऱ्न में सुधार की गुंजाइशे हैं लेकिन उन्हें यह भी पता है कि सौ फीसदी परफेक्ट प्रोडक्ट एक असंभव सी बात है और इसको पूरा करने के चक्कर में या तो मार्केट की डिमांड बदल जाएगी या फिर कोई और इस मार्केट को हथिया लेगा। इसलिए वे अपने प्रोडक्ट्स को ‘बीटा वजऱ्न’ के तौर पर लॉन्च करती हैं। इसका मतलब होता है कि यह प्रोडक्ट अभी पूरी तरह से रिलीज़ नहीं हुआ है, कंपनी ने इसको मुख्यत: टेस्टिंग के उद्देश्य के मार्केट में उतारा गया है। चूंकि किसी एक प्रोडक्ट में सुधार हमेशा चलते रहने वाली प्रक्रिया है इसलिए ‘बीटा वजऱ्न’ के ज़रिये कंपनियां सही समय पर मार्केट में अपनी जगह बनाने में कामयाब होती हैं। इस दौरान उपयोगकर्ताओं की प्रतिक्रियाओं को ध्यान में रखते हुए ऑफिशियल रिलीज़ में महत्वपूर्ण सुधारों को अंजाम दिया जाता है।
जियो-मीट का इंटरफ़ेस कॉपी-केस या यूएसपी?
आईपी कंपनियों में एक और शब्द प्रचलित है ‘यूएसपी’ इसका मतलब है ‘यूनीक सेलिंग पॉइंट’। यानी कंपनियां अपने प्रोडक्ट्स को लेकर जब बाज़ार में उतरती हैं तो उस प्रोडक्ट की कुछ ऐसी विशेषताएं होती हैं जो एक तो उस प्रोडक्ट के बनने का कारण होती हैं, दूसरा बिक्री के दृष्टिकोण से उन विशेषताओं की ख़ास अहमियत होती है। कंपनियां प्रचार के वक्त इन्ही विशेषताओं को आगे रख कर अपनी ऑडियंस को आकर्षित करती है। जियो मीट के मामले में ज़ूम से मिलता-जुलता इंटरफेस इसकी यूएसपी साबित हो सकता है।
अगर जियो के ज़ूम से मिलते-झूलते इंटरफ़ेस के विषय पर ज़ूम के ही ऑफिशियल स्टेटमेंट पर गौर किया जाए तो उन्होंने जियो-मीट के कम्पटीशन का स्वागत किया है। जियो-मीट के लॉन्च के बाद जिस तरह से इसे ट्रोल किया गया मानो ज़ूम को तुरंत ही जियो पर लीगल कार्यवाही करनी चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि आईटी क्षेत्र में एक जैसे इंटरफ़ेस का होना बहुत आम सी बात है। वहीं, रिलायंस जियो के पिछले रिकॉर्ड को देखें तो पता चलता है कि यह कंपनी मार्केट रिसर्च के वक्त जो सबसे बेस्ट है, उसको आधार बनाते हुए बाज़ार की मांग को पूरा करने के विषय में सोचती है।
जियो-मीट का इंटरफ़ेस एकदम ज़ूम की तरह रखने के पीछे एक कारण यह भी हो सकता है कि भारत के जो उपयोगकर्ता पहले से ज़ूम का उपयोग कर रहे हैं या कर चुके हैं, उन्हें जियो-मीट पर माइग्रेट होते वक्त एक नए इंटरफ़ेस के कारण कोई परेशानी न हो। सीधा गणित है यानी लोग ज़ूम ऐप को उपयोग करना जानते हैं, ऐसे में अगर एक पूरा नया इंटरफेस आता है तो लोगों को उसकी आदत लगने में वक्त लग सकता है ऐसे में इसके कुछ यूजर दूर जा सकते हैं। जियो-मीट की लॉन्चिंग के समय पर ध्यान दें तो कंपनी इस वक्त या ग्राहकों को गंवाने का रिस्क नहीं लेना चाहेगी।
कहा जा सकता है कि जियो ने इंटरफ़ेस के ज़रिये मुख्यत: इस बात का ख्याल रखा है कि लोग आसानी से ज़ूम से जियो-मीट पर माइग्रेट हो जाएं और उन्हें उसका उपयोग करने में कोई तकलीफ़ न हो। फि़लहाल जियो-मीट ‘बीटा वजऱ्न’ के तौर पर लॉन्च हुआ है, मतलब इस वक्त स्वदेशी की छतरी तले ज़ूम के यूज़र्स को अपने यहां माइग्रेट करवा लेने के बाद, हो सकता है कि आने वाले कुछ समय में इसका यूजर इंटरफेस भी बदल दिया जाए।
मौजूदा आईटी कार्यप्रणालियों में एक स्टेबल प्रोडक्ट के साथ सही समय पर मार्केट में आना ज़रूरी है, भले ही उसमे कुछ सुधारों की गुंजाइशें साफ़ दिख रही हो। जियो को जल्द से जल्द मार्केट में कूदने की जल्दबाज़ी थी और उसके इंजीनियर्स को एक सख़्त डेडलाइन मिली होगी। ऐसे में वे अगर नया इंटरफ़ेस बनाने बैठते तो फिर ज़ीरो से सब शुरू करना होता। उस हालत में यह काम 2-3 महीनों में पूरा हो पाना संभव ही नहीं था। (सत्याग्रह)
उमाशंकर मिश्रा
बताते हैं कि सागर मंथन के दौरान कई चीज़ों की प्राप्ति हुई थी। देवताओं के हाथ अमृत लगा और वे असुरों से अधिक शक्तिशाली हो गए। कोरोना का काल दुनिया की अर्थव्यवस्था के लिए सागर मंथन जैसा ही रहा है। कुछ इंडस्ट्रियल सेक्टर मालामाल हो गए और कुछ बेहाल।
कोविड 19 के दिनों में टेलिकॉम सेक्टर में जिस तरह से हलचल मची है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि टेलिकॉम सेक्टर के हाथों अमृत लग गया है और फिर से इसमें बहार आने वाली है।
कोविड से पहले, कोविड के दौरान
रिलायंस जिओ ने लंबे समय से इस क्षेत्र में टिके कई दिग्गजों को उखाड़ फेंका था। वोडाफ़ोन और आईडिया सेलुलर जैसे महारथी हाथ मिलाकर उससे मुकाबला करने की कोशिश कर रहे थे। भारतीय टेलिकॉम सेक्टर की कभी पोस्टर बॉय कंपनी रही एयरटेल भी जिओ के सामने नहीं टिक पा रही थी। बीएसएनएल और एमटीएनएल तो कब से मैदान छोडक़र दर्शक दीर्घा में बैठे थे। लग रहा था कि कुछ कंपनियों की दुकान बंद होने ही वाली है कि तभी कोविड-19 आ धमका।
कोविड-19 के दौरान देश भर में तालाबंदी रही। टेलिकॉम के दुकानदारों और डिस्ट्रीब्यूटरों का धंधा लगभग ठप रहा। नए कनेक्शन्स और रिचार्ज का बिजऩेस नहीं हो पाया। रही सही कसर ऑनलाइन पेमेंट्स ने पूरी कर दी। बहुत तेज़ी से अब रिचार्ज बिजऩेस ऑनलाइन होता जा रहा है।
लेकिन यह सिक्के का सिर्फ एक पहलू है। इसके दूसरे पहलू को समझने के लिए टेलिकॉम सेक्टर के स्टॉक्स पर नजऱ डालनी होगी। यहां दूध का दूध पानी का पानी हो जाता है। यहां तो टेलिकॉम शेयर्स में बहार आयी हुई है! 2018 में स्टॉक मार्किट छह फीसदी बढ़ा था पर टेलिकॉम स्टॉक्स 41 प्रतिशत गिर गए थे। इस साल मई के महीने में स्टॉक मार्किट 17 फीसदी टूटा पर टेलिकॉम स्टॉक्स में 15 फीसदी का उछाल है!
जून के महीने भी में लगभग यही ट्रेंड देखा गया। भारती एयरटेल का शेयर 559 रुपये के आसपास है जो लगभग 52 हफ़्ते, यानी एक साल में सबसे ऊंचे स्तर पर ट्रेंड कर रहा है। वहीँ, वोडाफ़ोन-आईडिया का शेयर जून के महीने में लगभग 20 फीसदी बढक़र 10।50 रूपये पर चल रहा है। जिओ की अभी लिस्टिंग नहीं हुई है। लेकिन उसके हाल तो ठीक होने ही थे। बल्कि उसकी वजह से दूसरी कंपनियों के हाल बिगड़े थे।
फ़ौरी तौर पर आप यह कह सकते हैं कि कोविड के दौरान लोगों ने जमकर नेटफ्लिक्स और एमेज़ॉन प्राइम देखा है। ज़ूम कॉल और अन्य कांफ्रेंसिंग टूल्स के ज़रिये विडियो चैटिंग की है। पढ़ाई भी अब ऑनलाइन ही हो रही है। और आगे यह सब और ज्यादा होने और होते ही रहने की संभावना है। तो इसके चलते सारी टेलिकॉम कंपनियों की बल्ले-बल्ले हो गई है। पर बात इससे कहीं गहरी है।
क्यूं है ये हलचल
हाल ही में रिलायंस जिओ ने अपनी 10 फीसदी हिस्सेदारी फ़ेसबुक को 43,574 करोड़ रूपये में बेची है। फ़ेसबुक जो कि सोशल मडिया जायंट है, मोबाइल सर्विस में क्यूं एंट्री कर रही है? इस कहानी को टेलिकॉम कंसल्टेंट कंपनी मिंट इवेंटस के फाउंडर और सीईओ जीतू राही सिर्फ एक लाइन में ही साफ़ कर देते हैं। वे कहते हैं। ‘दिस इस अ मैरिज ऑफ़ कंटेंट एंड कनेक्टिविटी’।
अब इसको ऐसे समझिये। जिओ देश की सबसे बड़ी टेलिकॉम कंपनी बनने जा रही है। विशाल नेटवर्क और नेटवर्क की उम्र भी कम है, यानी जवान है। इसकी पेरेंट कंपनी रिलायंस इंडस्ट्रीज़ जैसा विशाल हाथी है। और सरकार भी उस पर मेहरबान ही दिखती है।
उधर फ़ेसबुक दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों में से एक है। उसे भारत में डाटा का विशाल मार्किट नजऱ आता है। उसे एक ऐसे नेटवर्क यानी प्लेटफार्म की ज़रूरत है जहां से वह अपना कंटेंट लोगों तक पंहुचा सके। वहीं जिओ की स्ट्रेटेजी भी कंटेंट आधारित ही है और फेसबुक कंटेंट की दुनिया का किंग है। तो दोनों ने एक-दूसरे का हाथ थाम लिया है। लेकिन, ध्यान रहे कि इस तरह की यह अकेली घटना नहीं है।
गूगल भी वोडाफ़ोन-आईडिया के कुछ स्टॉक्स खऱीदना चाह रहा है। ख़बर है कि वह लगभग इसके पांच फीसदी स्टॉक्स खऱीद सकता है। अब गूगल की एंट्री समझिये। कोविड की वजह से चीजों के तेजी से हो रहे ऑनलाइनीकरण के साथ-साथ 5जी के आने पर क्लाउड कंप्यूटिंग बहुत ज़ोर पकड़ लेगी। इन्टरनेट ऑफ़ थिंग्स, आर्टिफि़शियल इंटेलिजेंस का बोलबाला होगा। ऐसे में सॉफ्टवेयर कंपनियों के पास एक टेलिकॉम प्लेटफ़ॉर्म भी होना सोने पर सुहागा जैसा होगा। वेब सर्विसेस यानी क्लाउड कंप्यूटिंग में गूगल माइक्रोसॉफ्ट के अज्योर और एमेजॉन वेब सर्विसेज से पीछे है। और अगर हिंदुस्तान में उसने एंट्री नहीं मारी तो फिर यह मान लीजिये कि उसकी आगे की लड़ाई मुश्किल हो जायेगी।
एमेजॉन भी एयरटेल में पांच प्रतिशत की हिस्सेदारी की प्लानिंग कर रहा है। यानी, दुनिया की तीन सबसे बड़ी कंपनियां भारत की टेलिकॉम कंपनियों की तरफ़ मोहब्बत की नजऱों से देख रही हैं। इसमें पहली बाज़ी फ़ेसबुक ने मार ली है और उसे सबसे जवान और ख़ूबसूरत कंपनी मिली है।
तो अब बात समझ में आ जाती है कि आखिऱ क्यूं मुम्बई स्टॉक एक्सचेंज में टेलिकॉम कंपनियों के शेयर्स में बहार आई हुई है।
इस बहार के तार चीनी कंपनियों से भी जुड़ते हैं लेकिन थोड़ा अलग तरीके से। भारत के मोबाइल हार्डवेयर मार्किट पर अब तक एकतरफ़ा कब्ज़ा रहा है। आंकड़ों के मुताबिक़ चीनी हैंडसेट कंपनियों की भारत में कुल हिस्सेदारी 71 फीसदी है। संभव था कि वे भी भारतीय मोबाइल सेवा प्रदाता कंपनियों में पैसा लगाकर अपनी स्थिति और मज़बूत बनाना चाहतीं। लेकिन इतनी बड़ी तीन अमेरिकी कंपनियों के आने या आने का खबर से भारत की टेलिकॉम सेवा प्रदाता कंपनियों में घुसपैठ करना उनके लिए बहुत मुश्किल हो गया।
ऊपर से लदाख में चीनी दखलंदाज़ी और गलवान घाटी में हुए संघर्ष और उसके बाद के हालात ने रही-सही कसर पूरी कर दी। इस वजह से आत्मनिर्भर या दूसरे शब्दों में बॉयकाट चाइना कैंपेन ने चीन की मोबाइल सर्विस प्रोवाइडर मार्किट में एंट्री का दरवाजा हमेशा के लिए बंद कर दिया है।
आगे क्या होगा
टेलिकॉम अत्यधिक निवेश वाला सेक्टर है। दुनिया भर में 4 जी के बाद 5 जी को लांच करने की तैयारी बहुत ज़ोर-शोर से हो रही है। इसके लिए कंपनियों को मोटे निवेश की ज़रूरत पडऩे वाली है। जीतू राही बताते हैं कि टेलिकॉम कंपनियों को अब नेटवर्क प्रोवाइडर की बजाय प्लेटफ़ॉर्म प्रोवाइडर बनना होगा ताकि आने वाले दिनों में मैन्युफैक्चरिंग, रिटेल और ट्रांसपोर्टेशन सेक्टर्स में इसका इस्तेमाल हो सके।
नाम न छापने की शर्त पर रिलायंस जिओ के एक अधिकारी कहते हैं टेलिकॉम में फिर से बहार आने को है। ये दोबारा सनराइज इंडस्ट्री होने जा रही है और नेटवर्क और कंटेंट का मेल गुल खिलायेगा।’’ ऐसे में फ़ेसबुक, एमेजॉन और गूगल आगे की राह बनायेंगे। दुनिया की तीन सबसे बड़ी कंपनियों द्वारा किया गया भारतीय टेलिकॉम कंपनियों में निवेश सूरज का वह सातवां घोड़ा होगा जो टेलिकॉम के रथ को अब आगे लेकर जायेगा। (सत्याग्रह)
ध्रुव गुप्त
हिन्दी सिनेमा के सौ साल से ज्यादा लंबे इतिहास में जिन कुछ अभिनेताओं ने अभिनय की नई परिभाषाएं गढ़ी, उनमें संजीव कुमार उर्फ हरिभाई जरीवाला एक प्रमुख नाम है। भावप्रवण चेहरे, विलक्षण संवाद-शैली और अभिनय में विविधता के लिए जाने जाने वाले संजीव कुमार अभिनय के एक स्कूल माने जाते हैं। जब भी हिंदी फिल्मों में अभिनय के कुछ मीलस्तंभ गिने जाएंगे, ‘कोशिश’ का गूंगा-बहरा किरदार, ‘आंधी’ की महत्वाकांक्षी पत्नी का परित्यक्त पति, ‘शोले’ का सब कुछ खो चुका अपाहिज ठाकुर और ‘खिलौना’ का पागल प्रेमी कैसे भुला दिए जाएंगे?
फिल्म ‘नया दिन नई रात’ में नौ रसों पर आधारित अपनी नौ अलग भूमिकाओं में उन्होंने साबित किया कि अभिनय को जीवन के इतना भी कऱीब ले जाया जा सकता है। इस फिल्म के निर्देशक ए भीमसिंह इस चुनौतीपूर्ण भूमिका के लिए दिलीप कुमार के पास गए थे। दिलीप कुमार ने उन्हें संजीव कुमार का नाम ही नहीं सुझाया, बल्कि फिल्म के आरंभ में आकर उन्हें दर्शकों से परिचित भी कराया था। कई छोटी और दूसरे-तीसरे दजऱ्े की फिल्मों से सफर शुरू करने वाले संजीव कुमार को संवेदनशील अभिनेता के तौर पर स्थापित किया 1970 की फिल्म ‘खिलौना’ ने। उसके बाद जो हुआ वह इतिहास है। उनकी बड़ी खासियत यह थी कि उन्होंने कभी अपने रोल की लंबाई नहीं देखी। छोटी भूमिकाओं में भी बड़े प्रभाव छोडऩे की कला उन्हें मालूम थी। नायक से ज्यादा चरित्र और सहायक भूमिकाओं में उनकी अदायगी निखर कर आती थी। गुलजार के वे सर्वाधिक प्रिय अभिनेता रहे थे जिनके साथ उन्होंने नौ फिल्में की।
सत्यजीत रे ने जब अपनी पहली हिंदी फिल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी’ की योजना बनाई तो उनके सामने संजीव कुमार का ही चेहरा था। हेमामालिनी और सुलक्षणा पंडित के साथ अपनी अधूरी प्रेम कहानियों का यह असफल, अविवाहित नायक मात्र 47 साल की उम्र में दिल की बीमारी से चल बसा।
संजीव कुमार के जन्मदिन पर विनम्र श्रद्धांजलि!
विष्णु नागर
दुनिया के प्रतिष्ठित मेसाचुएट्स इंस्टीट्यूट आफ टैक्नोलॉजी का कोरोना के बारे में अध्ययन बेहद डरानेवाला है।इसके अनुसार इस बीच कोरोना का टीका या दवा खोजी नहीं जा सकी तो अगले साल की गर्मियों तक दुनियाभर में 24.9 करोड़ मामले सामने आ चुके होंगे और मौतों की संख्या 18 लाख तक पहुंच चुकी होगी।भारत उस समय तक कोरोना के मामले में अमेरिका को भी पछाड़ चुका होगा।
अगले साल की शुरुआत तक भारत में प्रतिदिन कोरोना के मामले 2.87 लाख तक होंगे। यह अध्ययन बताता है कि अगली मई और उससे आगे भी इससे मुक्ति नहीं है,अगर इसका प्रतिरोधक टीका या दवाई ईजाद नहीं हुई तो!
यह अध्ययन जहाँ डरानेवाला है,वहीं दवाई और टीके के जल्दी ईजाद की जरूरत को रेखांकित करने वाला भी है मगर न तो दुनिया को बाबा रामदेव टाइप फर्जी दवा चाहिए और न 15 अगस्त तक फर्जी शोध पर आधारित टीका चाहिए।अगले साल जनवरी तक टीका ढूँढ लिए जाने की संभावना है और 19 टीकों का परीक्षण किसी नतीजे तक पहुँचने की संभावना है मगर सारे हल विज्ञान के पास नहीं हैं,जब तक किसी देश का राजनीतिक तंत्र जिम्मेदार न हो।ऐसा न हो,जो मानव जीवन की कद्र न करता हो।स्थितियाँ दुनिया के बहुत से देशों में ऐसी ही है।अमेरिका के राष्ट्रपति की कुल चिंता नवंबर में चुनाव जीतने की है।ब्राजील का राष्ट्रपति ट्रंप से कम है या ज्यादा है,कहना कठिन है।रूस का राष्ट्रपति भी कम खुदा नहीं है।भारत का प्रधानमंत्री भी महान भाषणबाज है।समझ और दृष्टि के मामले में गयाबीता है।उसे एक बात मालूम है उसे अंबानियों-अडाणियों को गले गले तक धन के सागर में डुबो देना है।
उधर भारत का सरकारी तंत्र भी कभी मानव जीवन की परवाह करनेवाला है नहीं।टीका आ भी गया तो सारे ताकतवर लोग उसे फटाफट लगवा कर सुरक्षित हो जाएँगे और बहुत हद तक साधारण सामान्य जनों को भाग्य भरोसे छोड़ देंगे। शायद जबर्दस्त जनप्रतिरोध ही इस बंदरबांट को रोक सके।इससे पहले ही शासक वर्ग सचेत हो जाएगा, अपने स्वार्थ की परिधि से बाहर निकल आएगा, इसकी आशा तो नहीं है मगर अभी आशा करने में बुराई नहीं है।
एक ही उम्मीद है कि मनुष्य में ऐसा कुछ है,जो प्रलय की भविष्यवाणियों को झुठलाने की क्षमता रखता है।
कृष्ण कांत
एक महिला ने संसद परिसर में नेहरू का कॉलर पकडक़र पूछा, ‘भारत आज़ाद हो गया, तुम देश के प्रधानमंत्री बन गए, मुझ बुढिय़ा को क्या मिला।’
इस पर नेहरू ने जवाब दिया, ‘आपको ये मिला है कि आप देश के प्रधानमंत्री का गिरेबान पकड़ कर खड़ी हैं।’ कहते हैं कि महिला ने बंटवारे में अपना घर गवां दिया था। नेहरू के धुर विरोधी डॉ लोहिया के कहने पर महिला संसद परिसर में आई और नेहरू जैसे ही गाड़ी से उतरे, महिला ने उनका कॉलर पकडक़र सवाल पूछा था।
यह वही देश है। लोकतंत्र का करीब सात दशक बीत चुका है। एक लडक़ी ने मध्य प्रदेश के एक मंत्री से सवाल पूछ लिया। सवाल तो जायज ही थे कि पहले उस पार्टी में थे, अच्छी खासी सरकार चल रही थी तो गिराया क्यों? उस पार्टी में थे तो कह रहे थे किसानों का कर्ज माफ हो गया। अब कह रहे हैं नहीं हुआ। ऐसा कैसे हो सकता है?
लडक़ी के इन सवालों के जवाब में मंत्री जी के मुंह से बक्कुर नहीं फूटा। फिर सोशल मीडिया पर लश्कर उतारे गए। लडक़ी को ट्रोल किया गया। गालियां दी गईं। चरित्रहनन किया गया। लडक़ी शिकायत करने पुलिस अधिकारियों के पास गई। पुलिस अधिकारियों ने कहा कि 'आप कौन होती हैं मंत्री से सवाल पूछने वाली?'
यही सवाल लाख टके का है कि आप कौन हैं सवाल पूछने वाले? यही सवाल हमारी नियति है। यही सवाल हमारे लोकतंत्र की नियति है। राजा से प्रजा सवाल कैसे पूछ सकती है?
प्रधानमंत्री का कॉलर पकडऩे की आजादी से शुरू हुआ सफर यहां तक पहुंच गया है कि आप कौन होते हैं सवाल पूछने वाले?
यही आज के भारत की महान वैचारिक, प्रशासनिक और लोकतांत्रिक संस्कृति है। महान संस्कृतियां सिर्फ बनाई नहीं जातीं, बिगाडक़र विकृत भी जाती हैं। जिन पुलिस अधिकारियों ने लडक़ी से पूछा है कि आप कौन होती हैं मंत्री से सवाल करने वाली, उन अधिकारियों को आज ही भारत रत्न देना चाहिए। किसी भाड़े के मंत्री और नेता से भला सवाल क्या पूछना?
सवाल मत करो। यह जानकर भी नेता उल्लू बना रहा है, उल्लू बनो। सवाल करोगे तो मारे जाओगे। प्रताडि़त किए जाओगे। नेता दिन भर झूठ बोले और जनता उनकी पूजा करे, यही हमारी महानता का चरम बिंदु है, जहां न कोई पहुंच पाया है, न कोई पहुंचेगा।
-श्रवण गर्ग
प्रधानमंत्री ने इस वर्ष चीन के राष्ट्रपति जिन पिंग को उनके जन्म दिवस पर शुभकामना का संदेश नहीं भेजा। भेजना भी नहीं चाहिए था। जिन पिंग ने भी कोई उम्मीद नहीं रखी होगी। देश की जनता ने भी इस सब को लेकर कोई ध्यान नहीं दिया। कूटनीतिक क्षेत्रों ने ध्यान दिया होगा तो भी इस तरह की चीज़ों की सार्वजनिक रूप से चर्चा नहीं की जाती। सोशल मीडिया पर ज़रूर विषय के जानकार लोगों ने कुछ ट्वीट्स अवश्य किए पर वे भी जल्द ही शब्दों की भीड़ में गुम हो गए। ऐसे ट्वीट्स पर न तो ‘लाइक्स’ मिलती हैं और न ही वे री-ट्वीट होते हैं। उल्लेख करना ज़रूरी है कि चीन के राष्ट्रपति का जन्मदिन पंद्रह जून को था। यह दिन प्रत्येक भारतवासी के लिए इसलिए महत्वपूर्ण हो गया है कि इसी रात चीनी सैनिकों के साथ पूर्वी लद्दाख़ की गलवान घाटी में हुई हिंसक झड़प में हमारे बीस बहादुर सैनिकों ने अपनी कुर्बानी दी थी। चीनी सैनिक शायद अपने राष्ट्रपति को उनके जन्मदिन पर इसी तरह का कोई रक्त रंजित उपहार देना चाह रहे होंगे। भारतीय परम्पराओं में तो सूर्यास्त के बाद युद्ध में भी हथियार नहीं उठाए जाते। चूँकि सीमा पर चीनी सैनिकों की हरकतें पाँच मई से ही प्रारम्भ हो गईं थीं, प्रधानमंत्री की आशंका में व्याप्त रहा होगा कि हिंसक झड़प जैसी उनकी कोई हरकत किसी भी दिन हो सकती है पर इसके लिए रात भी पंद्रह जून की चुनी गई।
चीनी राष्ट्रपति को जन्मदिन की शुभकामनाएँ ना भेजे जाने पर तो संतोष व्यक्त किया जा सकता है पर आश्चर्य इस बात पर हो सकता है कि प्रधानमंत्री ने तिब्बतियों के धार्मिक गुरु दलाई लामा को भी उनके जन्म दिवस पर कोई शुभकामना संदेश प्रेषित नहीं किया। पंद्रह जून को लद्दाख़ में हुई झड़प की परिणति छह जुलाई को ही इस घोषणा के साथ हुई कि चीन अपनी वर्तमान स्थिति से पीछे हटने को राज़ी हो गया है। इसे संयोग माना जा सकता है कि इसी दिन दलाई लामा हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला स्थित अपनी निर्वासित सरकार के मुख्यालय में अपना 85वाँ जन्मदिन मना रहे थे। सर्वविदित है कि चीन दलाई लामा की किसी भी तरह की सत्ता या उसे मान्यता दिए जाने का विरोध करता है।
चीन का यह विरोध पचास के दशक में उस समय से चल रहा है जब उसके सैनिकों ने तिब्बत में वहाँ के मूल नागरिकों (तिब्बतियों ) द्वारा की गई अहिंसक बग़ावत को बलपूर्वक कुचल दिया था और 1959 में सीमा पार करके दलाई लामा ने भारत में शरण ले ली थी। दलाई लामा तब 23 वर्ष के थे। जवाहर लाल नेहरू ने न सिर्फ़ दलाई लामा और उनके सहयोगियों को भारत में शरण दी धर्मशाला में उन्हें तिब्बतियों की निर्वासित सरकार बनाने की स्वीकृति भी प्रदान कर दी। देश में इस समय कोई अस्सी हज़ार तिब्बती शरणार्थी बताए जाते हैं। तिब्बत में चीनी आधिपत्य के ख़िलाफ़ अहिंसक विद्रोह का नेतृत्व करने के सम्मान स्वरूप दलाई लामा को 1989 में नोबेल शांति पुरस्कार से नवाज़ा गया था।
सवाल केवल इतना भर नहीं है कि प्रधानमंत्री ने दलाई लामा को उनके जन्मदिन पर शुभकामनाएँ प्रेषित नहीं कि जबकि पिछले वर्ष बौद्ध धार्मिक गुरु को उन्होंने फ़ोन करके ऐसा किया था। तो क्या पंद्रह जून को पूर्वी लद्दाख़ में हुई चीनी हरकत के बावजूद हम इतने दिन बाद छह जुलाई को भी दलाई लामा को बधाई प्रेषित करके चीन को अपनी नाराज़गी दिखाने के किसी अवसर से बचना चाहते थे ?
अगर ऐसा कुछ नहीं है तो इतने भर से भी संतोष प्राप्त किया जा सकता है कि केंद्रीय राज्य मंत्री और अरुणाचल से सांसद किरण रिजिजु द्वारा दलाई लामा को बधाई प्रेषित करके एक औपचारिकता का निर्वाह कर लिया गया। रिजिजु स्वयं भी बौद्ध हैं। पर वर्तमान परिस्थितियों में तो इतना भर निश्चित ही पर्याप्त नहीं कहा जा सकता।
सवाल किया जा सकता है कि चीन के मामले में इतना सामरिक आत्म-नियंत्रण और असीमित कूटनीतिक संकोच पाले जाने की कोई तो चिन्हित-अचिन्हित सीमाएँ होंगी ही। चीन के संदर्भ में हमारी जो कूटनीतिक स्थिति दलाई लामा और उनकी धर्मशाला स्थित निर्वासित सरकार को लेकर है, वही बीजिंग के एक और विरोधी देश ताइवान को लेकर भी है। ऐसी स्थिति पाकिस्तान या किसी अन्य पड़ौसी सीमावर्ती देश को लेकर नहीं है। दो वर्ष पूर्व जब दलाई लामा के भारत में निर्वसन के साठ साल पूरे होने पर उनके अनुयायियों ने नई दिल्ली में दो बड़े आयोजनों की घोषणा की थी तो केंद्र और राज्यों के वरिष्ठ पार्टी नेताओं को उनमें भाग न लेने की सलाह दी गई थी।तिब्बतियों की केंद्रीय इकाई ने बाद में दोनों आयोजन ही रद्द कर दिए थे।उसी साल केंद्र ने दलाई लामा और उनकी निर्वासित सरकार के साथ सभी आधिकारिक सम्बन्धों को भी स्थगित कर दिया था।
किसी जमाने में तिब्बत को हम अखंड भारत का ही एक हिस्सा मानते थे (या आज भी मानते हैं) तो वह आख़िर कौन सा तिब्बत है ? क्या वह दलाई लामा वाला तिब्बत नहीं है ? वर्तमान दलाई लामा अपनी उम्र (85 वर्ष) के ढलान पर हैं। हो सकता है कि चीन आगे चलकर अपना ही कोई बौद्ध धर्मगुरु उनके स्थान पर नियुक्त कर दे या फिर वर्तमान दलाई लामा ही अपना कोई उत्तराधिकारी नियुक्त कर दें । ऐसी परिस्थिति में हमारी नीति क्या रहेगी ? क्या गलवान घाटी की घटना के बाद दलाई लामा के जन्मदिन के रूप में हमें एक ऐसा अवसर प्राप्त नहीं हुआ था, जब हम चीन के प्रति अपनी नाराज़गी का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शन कर सकते थे ?अमेरिका जिसके कि साथ हम इस समय चीन को लेकर सबसे ज़्यादा सम्पर्क में हैं उसने तो दलाई लामा को आधिकारिक तौर पर उनके जन्मदिन की बधाई दी है। हमने ही इस अवसर को चूकने का फ़ैसला क्यों किया ?
-राधा भट्ट
फोरलेन के लिए हर्शिल से गंगोत्री तक के 30 कि.मी. में फैली सघन वृक्षावली में से 6 से 8 हजार देवदार के हरे वृक्षों को काटने की तैयारी उन पर निशाने लगाकर कर ली है।
इन दिनों देश में विकास का प्रकृति, पर्यावरण के साथ जबरदस्त संघर्ष चल रहा है। मानो एक युद्ध ही अनवरत चल रहा हो। आज की इन परिस्थितियों में ’विकास’ हमारी दुनिया का सबसे अधिक भ्रमपूर्ण शब्द बन गया है। आँखों को चौधिया देने वाली विकास की चमक हमें इतना अंधा बना रही है कि हम नहीं देख पाते कि हम स्वयं अपनी जड़ों को ही उखाड़ रहे है। हवा में बन रहे एक महल की रचना के ख्याल में अपने घर की ईटें उतार रहे है।
हिमालय एक अत्यन्त नाजुक पर्वतमाला है, यह एक स्पष्ट सत्य है। वहीं यह भी उतना ही सत्य है कि हिमालय में खड़ा प्रत्येक हरा पेड़ देश का स्थायी प्रहरी है। हिमालय के गर्भ में जबरदस्त हलचल है जिसे प्रसिद्ध भूगर्भ शास्त्री प्रो. के. एस वल्दिया कहते हैं, ’’एशिया महाद्वीप और भारतीय भूखण्ड के बीच विस्तीर्ण हिमालय में विवर्तनिक हाहाकार चल रहे हैं’। ’ये हलचल अनेक भ्रंशों का निर्माण करती हैं, इन भ्रंशों के तनाव को भूकम्पों के रूप में बाहर निकलना होता है, ऐसी इस हिमालय की धरती में जहाँ छोटे भूकम्पों की संभावना तो हमेशा बनी रहती है, कालान्तर में किसी महाभूकम्प का आना भी अनिवार्य रहता है, यहाँ की घाटियों और पर्वतों के ऊपर बसने वाले इन्सान को अपने जीवित रहने के लिए प्रकृति से सहयोग का बर्ताव ही करना पड़ता हैं।
उत्तराखण्ड भूकम्पों से टूटी-फूटी चट्टानों को संभाले हुए हिमालय का ऐसा ही भाग है, इसका अधिकांश भाग इसी कारण भूस्खलन प्रवण-क्षेत्र है, ज्यों ही इसकी भूमि चट्टानों और वनसम्पदा (जो यहाँ की मिट्टी को और भूमिगत जल को तो थामे रहती ही है, बाढ़ों की विशाल जलराशि और हिमखण्डों के धक्कों से जन जीवन को भी सुरक्षा देती है) से छेड़छाड़ होती है। भूस्खलनों की अन्तहीन घटनाएँ मानव-जीवन को अस्त-व्यस्त कर देती है, छेड़छाड़ का अर्थ है, हरे वृक्षों का पालन (कटान), अन्धाधुन्ध सडक़ों के निर्माण के लिए पहाड़ों का कटान, सुरंगों के निर्माण के लिए शक्तिशाली विस्फोटकों का उपयोग और खनिजों के लिए खानों का खुदान।
दुर्भाग्य की बात है कि ऐसी अनियंत्रित कार्यवाहियों को ’विकास’ कहा जाता है, उत्तराखण्ड़ में ऑल वैदर रोड़ के अन्तर्गत हो रहा सडक़ों का चौड़ीकरण और इन सडक़ों के निर्माण का अत्यन्त संवेदनहीन अवैज्ञानिक तरीका विकास और राष्ट्र-सुरक्षा के नाम पर की जा रही भयंकर छेड़छाड़ ही है। केन्द्र सरकार की चार-धाम ऑल वैदर रोड़ पर योजना के तहत उत्तरकाशी-गंगोत्री राजमार्ग कीचौड़ीकरण फोरलेन के लिए हर्शिल से गंगोत्री तक के 30 कि.मी. में फैली सघन वृक्षावली में से 6 से 8 हजार देवदार के हरे वृक्षों को काटने की तैयारी उन पर निशाने लगाकर कर ली है।
ग्लोबल वार्मिंग के चलते गंगोत्री घाटी पूर्वापेक्षा काफी गर्म हो गई है। वहाँ अब पहले से कम बर्फबारी होती है। गंगा का प्राण श्रोत गोमुख ग्लेशियर निरन्तर टूट फिसलकर घटता जा रहा है। वह प्रतिवर्ष कई मीटर पीछे खिसक जाता है। ऐसी स्थिति में उक्त 30 कि. मी. में फैले घाटी के एकमात्र वन के हजारों हरे वृक्षों को काटना ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव को और भी तीव्रता देने की गलती साबित होगा, क्योंकि वृक्षों की हरीतिमा वायुमण्डल को शीतलता देती है। गोमुख और पास के अन्य ग्लेशियरों का पिघलना एक दिन गंगा के उद्गम श्रोत को इतना क्षीण कर देगा कि गंगा के अस्तित्व पर ही प्रश्?न-चिन्ह खड़ा हो जायेगा।
ऐसे परिस्थतिकीय प्रश्?नों के साथ-साथ एक अत्यन्त व्यवहारिक प्रश्?न भी सडक़ निर्माण तथा सडक़ चैड़ीकरण की निर्माण पद्धति ने प्रस्तुत कर दिया है। हमने गंगोत्री घाटी बॉडर रोड आगेनाइजेश न (बी. आर. ओ.) को शक्तिशाली विस्फोटकों से बड़ी-बड़ी चट्टानों की धराशायी करते देखा था। एक बारगी पहाड़ हिल गया था। इससे निकले विशाल बोल्डरों व मिट्टी-मलुआ सबको सडक़ किनारे के ढलान पर लुढक़ा दिया गया था, जो भागीरथी के जल में जाकर अड़ गये थे। भागीरथी का जल मटमैला हो गया था। उसके किनारों पर मलुबा के बड़े-बड़े ढेर खड़े हो गये थे जो हिमालयी मूसलाधार वर्षा या बादल फटने पर नदी में बढऩे वाले पानी के आकार;टवसनउमद्धको दसियों गुना बढ़ाकर गंगा के किनारे बसे नगरों-गाँवों, वहाँ के पशुओं-मानवों, खेतों व करोड़ों रुपयों की लागत से बनी सडक़ों पर ऐसा कहर बरपा करेगा कि कई वर्षों तक आपदा की यह मार जनसमाज को उठने नहीं देगी, क्या इसे विकास कहें?
मलुबे की यह समस्या केवल गंगोत्री घाटी की ही समस्या नहीं है। उत्तराखण्ड में प्रधानमंत्री सडक़ योजना के अन्तर्गत प्रत्येक गाँव को मोटर-सडक़ से जोडऩे का विकास सर्वोपरि महत्व के साथ चलाया जा रहा है। इन सभी सडक़ों के निर्माण का मलबा पास में बहती नदियों पर्वतीय तीव्र ढलानों, गाँवों के जलस्त्रोतों चरागाहों, घासनियों यहाँ तक की उपजाऊ फसलदार खेतों के ऊपर बड़ी-बड़ी चट्टानों सहित फैंक दिया जाता है, मलबा किसानों के जल, जंगल, जमीन घास, लकड़ी खेती को ही नहीं नष्ट कर रहा है वरन् इसने बस्तड़ी गाँव (जिला पिथौरागढ़) की जिन्दा बस्ती को पिछली बरसात में पूरी तरह जमींदोज कर दिया था, यह स्पष्ट है कि उत्तराखण्ड में मलुबे की वैज्ञानिक व जिम्मेदार निस्तारण पद्धति के बिना सडक़ निर्माण करना विकास कम विनाश ही अधिक है।
गंगोत्री घाटी की सडक़ चैड़ीकरण की पद्धति के नमूने पर ही उत्तराखण्ड के तीन अन्य धामों के लिए भी औल वैहर रोड़ की योजना है, जिनके लिए करोड़ों की धनराशि आवांटित हो चुकी हैं। बद्रीनाथ की अलकनन्दा, केदारनाथ की मन्दाकिनी और यमुनोत्री की यमुना में फेंक गया निर्माण का मलुवा अन्त में गंगा में ही मिलने वाला है। उन नदियों के ग्लेशियरों सतोपंथ, खत लिंग और यमुनोत्री की दशा भी गोमुख जैसी ही होने वाली है, क्योंकि वहाँ के वन भी वैसे ही कटने वाले हैं। तब गंगा की महत्वपूर्ण और महत्वाकांक्षी योजना ’’नमामि गंगे’’की ’’अविरल निर्मल गंगा’’का लक्ष्य कैसे सिद्ध होगा?
कुमाऊ मंडल में टनकपुर-पिथौरागढ़ हाईवे 125 के चौड़ीकरण का मोड़ भी ऑल वैदर रोड़ की तरह ही है, इसमें 4600 चैड़ी पत्ती के हो वृक्षों का कटान होना है, चैड़ी पत्ती के ये वृक्ष जल संवर्धन के लिए अहम प्रजाति हैं। हिमालयी जल स्त्रोतों की घटती जल धाराओं को पुनर्जीवित करने के लिए एक ओर करोड़ों का धन व्यय किया जा रहा है, दूसरी ओर पीढिय़ों के वृक्षों को नष्ट कर दिया जा रहा है। क्या यह विरोधाभास किसी को दिखाई नहीं पड़़ रहा है?
सरकार की एक योजना अपनी ही दूसरी योजना को मिटाने का काम कर रही है। चाहे वह ’’नमामि गंगे’’ की ’अविरलता निर्मलता’ पर चोट करते घटते ग्लेशियर व मलुवे से बोझिल प्रदूषित भागीरथी गंगा हो, चाहे तेजी से घट रहे जल स्त्रोतों व नदियों के संकट से मुक्ति पाने के लिए एक और जलगम संरक्षण की परियोजनाओं पर करोड़ों की धन राशि व्यय हो और दूसरी ओर सुन्दर विकसित चैड़ी पत्ती के वृक्षों को हजारों की संख्या में कटवाने वाली मोटर रोड़ का निर्माण हो और चाहे किसान की प्रगति व आत्मनिर्भरता की कई नई-नई स्कीमें हो और उन्हीं कृश कों की जमीन, जंगल, चारागाह और जलस्रोतों को निर्दयता से दबाने वाला सडक़ निर्माण का मलवा हो।
क्या ऐसे विकास पर प्रश्न नहीं उठाने चाहिए या केवल झेलते जाना चाहिए? गांधीजी के शब्दों में यह ’’पागल दौड़’’ है। विकास, विकास चिल्लाते हुए विनाश की और बेतहाशा भाग रही पागल दौड़ को रोकने के लिए यदि हम अपनी आवाज नहीं उठाते, इस मूर्ख दौड़ को रोकने की कोशिश नहीं करते है तो कल उसके भयंकर परिणामों के भागीदार हम भी होंगे। इतिहास क्या हमें माफ करेगा? इसलिए जितना संभव हो उतनी ऊँची आवाज में हर कोने से चिल्ला कर सावधान करने की आवश्यकता है। (सप्रेस)
लॉकडाउन में ऑनलाइन सुनवाई
एक पुरुष सहकर्मी अपनी महिला बॉस के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंस में बिना पैंट-शर्ट पहने आ गया. उसने शराब पी रखी थी.
ऑफिस के एक वीडियो कांन्फ्रेंस के दौरान पुरुष कर्मचारी ने एक महिला सहकर्मी की तस्वीर का बिना पूछे स्क्रीनशॉट ले लिया.
एक सीनियर अधिकारी ने महिला सहकर्मी को देर रात फोन करके कहा, मैं बहुत बोर हो गया हूं कुछ निजी बातें करते हैं.
लॉकडाउन के कारण ऑफिस घर पर शिफ्ट हो गया है लेकिन, इसके साथ ही यौन उत्पीड़न के मामले भी अब ऑफिस से घर तक पहुंच गये हैं.
कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के मामले पहले भी आते रहे हैं लेकिन, वर्क फ्रॉम होम में भी अब ये समस्या आने लगी है.
वीडियो कॉन्फ्रेंस में मीटिंग कर रहे हैं, मैसेज या ऑनलाइन माध्यमों से ज़्यादा से ज़्यादा संपर्क कर रहे हैं. ऐसे में महिलाएं यौन उत्पीड़न के मामलों में एक नई तरह की स्थिति का सामना कर रही हैं.
एचआर ‘कंसल्टेंसी’ ‘केल्पएचआर’ के पास महिलाओं ने इस तरह की शिकायतें की हैं. केल्पएचआर यौन उत्पीड़न के क्षेत्र में काम करती है.
इसकी सह-संस्थापक स्मिता कपूर कहती हैं, “लॉकडाउन के दौरान हमारे पास कई महिलाओं की शिकायतें आई हैं जिन्होंने वर्क फ्रॉम होम में यौन उत्पीड़न के मसले पर सलाह मांगी है. कुछ महिलाओं को ये उलझन है कि वर्क फ्रॉम होम होने के कारण क्या ये कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के तहत आएगा. इसमें आगे क्या करना है. कुछ महिलाएं इस संबंध में अपने ऑफिस में शिकायत भी कर चुकी हैं.”
वर्क फ्रॉम होम पहले से भी चलन में रहा है लेकिन लॉकडाउन के दौरान ये बड़ी ज़रूरत बन गया. सरकारी से लेकर निजी कंपनियां वर्क फ्रॉम होम को ही प्राथमिकता दे रही हैं.
लेकिन, इसे लेकर जागरुकता कम है कि अगर घर पर काम करते हुए यौन उत्पीड़न होता है तो वो किस क़ानून के तहत आएगा. महिलाएं ऐसे में क्या कर सकती हैं.
वर्क फ्रॉम में होने वाले यौन उत्पीड़न में भी वही नियम-क़ानून लागू होंगे जो कार्यस्थल पर होने वाले मामलों में लागू होते हैं.
अगर किसी महिला के साथ ऐसा मामला सामने आता है तो वो कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न क़ानून के तहत अपनी शिकायत दर्ज करा सकती है.
कार्यस्थल की परिभाषा
यौन उत्पीड़न के ख़िलाफ़ सहायता करने वाली संस्था “साशा” की संस्थापक और वक़ील कांति जोशी कहती हैं कि पहले हमें ये समझना होगा कि कार्यस्थल की परिभाषा क्या है. कार्यस्थल का दायरा सिर्फ ऑफिस तक ही सीमित नहीं है. काम के सिलसिले में आप कहीं पर भी हैं या घटना काम से जुड़ी है तो वो कार्यस्थल के दायरे में आती है.
कांति जोशी कहती हैं, “हमारे पास एक मामला आया था कि मैनेजर ने महिला सहकर्मी से कहा कि लॉकडाउन में मिले हुए काफी दिन हो गए. मैं तुम्हारे घर के सामने से जा रहा हूं, चलो मिलते हैं. इस तरह के मामले भी यौन उत्पीड़न का ही हिस्सा हैं. सेक्सुअल प्रकृति का कोई भी व्यवहार जो आपकी इच्छा के विरुद्ध है, आप उसकी शिकायत कर सकती हैं. ऐसे मामलों की जांच के लिए 10 से ज़्यादा कर्मचारियों वाली किसी भी कंपनी में आंतरिक शिकायत समिति बनी होती है.”
महिलाओं को कानूनी सहयोग देने और उनके उत्पीड़न पर रोक लगाने के लिए कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (निवारण, निषेध एवं निदान) अधिनियम, 2013 लाया गया था. इसे विशाखा गाइडलाइन्स के नाम से भी जाना जाता है.
इस कानून के तहत संगठित और गैर संगठित दोनों ही क्षेत्र शामिल हैं. इस कानून के संबंध में अन्य जानकारियां नीचे दी गई हैं.
यौन उत्पीड़न क्या है
महिला की इच्छा के विरुद्ध यौन भावना से संचालित किए गए व्यवहार को यौन उत्पीड़न माना जायेगा. इसमें यौन संबंधी कोई भी शारीरिक, मौखिक या अमौखिक आचरण शामिल है.
यदि किसी महिला के अपने वरिष्ठ या सह कर्मचारी से किसी समय आंतरिक संबंध रहे हों लेकिन वर्तमान में महिला की सहमति न होने पर भी उस पर आंतरिक संबंध बनाने के लिए दबाव डालना.
वर्चुअल या ऑनलाइन यौन उत्पीड़न की बात करें तो उसमें आपत्तिजनक मैसेज, ऑनलाइन स्टॉकिंग, वीडियो कॉल के लिए दबाव, अश्लील जोक्स और वीडियो कॉफ्रेंस में उचित ड्रेस में ना होना शामिल है.
शिकायत दर्ज कराने पर आगे की प्रक्रिया
कोई भी महिला ऐसी घटना होने के तीन महीनों के अंदर अपनी शिकायत समिति को दे सकती है.
नियोक्ता द्वारा एक आंतरिक शिकायत समिति बनाई जाए.
महिलाओं के लिए एक विशेष परामर्शदाता हो.
समिति में कम से कम आधी सदस्य महिलाएं ही होंगी.
एक सदस्य महिलाओं संबंधी मुद्दों पर काम करने वाली गैर-सरकारी संस्थाओं से या यौन प्रताड़ना से जुड़े मामलों का जानकार व्यक्ति होगा.
अगर किसी कंपनी में 10 से कम कर्मचारी होते हैं या नियोक्ता स्वयं आरोपी हो तो स्थानीय शिकायत समिति बनाई जाएगी. डिस्ट्रिक्ट ऑफिसर द्वारा इस कमिटी का गठन किया जाएगा. महिला स्थानीय थाने में भी शिकायत दर्ज करा सकती है.
कमिटी की जांच तीन महीनों के अंदर पूरी होना अनिवार्य है.
जांच के दौरान महिला को तुरंत अंतिरम राहत दी जाती है. उसे पेड लीव मिल सकती है और वो ट्रांस्फर भी ले सकती है.
लॉकडाउन में ऑनलाइन सुनवाई
कांति जोशी बताती हैं कि लॉकडाउन के कारण ऐसे में मामलों में ऑनलाइन सुनवाई भी की जा रही है ताकि समय पर न्याय किया जा सके. उन्होंने ऑनलाइन सुनवाई से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातें बताईं.
समिति दोनों से ऑनलाइन माध्यम से सुनवाई के लिए सहमति लेती है. शिकायत के सात दिनों के अंदर अभियुक्त को आरोपों के बारे में सूचित किया जाता है.
अभियुक्त को 10 दिनों के अंदर अपना जवाब लिखित में देना होता है. इसके बाद समिति दोनों पक्षों को सुनती है और अगर दोनों पक्ष सहमत हों तो ऑनलाइन सुनवाई होती है.
अगर अभियुक्त या पीड़ित ये कहते हैं कि वो ऑनलाइन सुनवाई के लिए तैयार नहीं हैं क्योंकि परिवार के सामने वो वीडियो पर सुनवाई में नहीं आ सकते. ऐसे में जांच रोकी जा सकती है जब तक कि दोनों अभियुक्त या पीड़ित की समस्या ख़त्म ना हो जाए. एक ऐसे ही मामले में अभियुक्त का लिखित जवाब लेकर जांच को लॉकडाउन ख़त्म होने तक रोक दिया था. इसके बाद ऑफिस बुलाकर आगे की कार्रवाई की गई.
इन तीन बातों का रखें ध्यान
स्मिता कहती हैं कि वर्क फ्रॉर्म होम ज़रूर एक नया चलन है लेकिन यौन उत्पीड़न की शिकायतों में महिलाओं को बिल्कुल भी उलझन में पड़ने की ज़रूरत नहीं हैं. मैं उन्हें सलाह दूंगी कि सबसे पहले ख़ुद को दोष ना दें. आपने क्या बोला, आप कैसी बैठी थीं, क्या फोटो डाली थे, इस पर गौर ना करें.
दूसरा, अगर आपको किसी का व्यवहार अश्लील या आपत्तिजनक लगता है तो उसे तुरंत टोकें और सबूत या बातों का रिकार्ड रखें. स्मिता बताती हैं कि वीडियो कॉन्फ्रेंस के दौरान जब एक महिला के सामने उसका पुरुष सहकर्मी बिना पैंट शर्ट पहने आया तो उसने पहले उसे टोका, फिर उसका स्क्रीन शॉट लिया और फिर कॉल डिस्कनेक्ट कर दी.
तीसरा, इसके बाद मामले की तुरंत शिकायत करो. गैर-ज़रूरी जगहों पर चर्चा करने की बजाए कंपनी में समिति के सदस्यों को इस बारे में शिकायत करें.
स्मिता कपूर कहती हैं कि कई बार अभियुक्त कह सकता है कि घर मेरा पर्सनल स्पेस है और यहां मैं नियमों से बंधा नहीं हूं. साथ ही इसमें कार्यस्थल की बात हो तो घटना के समय ऑफिस टाइम था या नहीं ये भी देखा जा सकता है. लेकिन, फिर कंपनियां कहती हैं कि पीड़ित को इतना सोचने की ज़रूरत नहीं है. अगर उसे किसी का व्यवहार आपत्तिजनक लगा है तो उसके बारे में कंपनी को ज़रूर सूचित करें.(bbc)
1971 से बीच के करीब पौने छह साल को छोडक़र मैं दिल्ली में ही रहता आया हूँँ तो यह कहना भी अब बेईमानी सा लगता है कि मैं मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र का हूँ, जहाँ जीवन के शुरू के इक्कीस साल बीते थे। वहाँ अब भी साल मेंं एक या दो बार जाता हूँ। एक तरह से मेरी मातृभाषा मालवी है। मेरी माँ कठिनाई से और जरूरी होने पर थोड़ी-बहुत हिन्दी बोल लेती थी। पास पड़ोस के और बुजुर्ग भी मालवी बोलते थे। गालियाँ भी मालवी में देते थे। यह हो नहीं सकता कि कोई दिनभर मालवी बोले और गालियाँ हिंदी मेंं दे। गेल्या, गेलचोदा, लाकड़ा पड़्या आदि-आदि गालियाँ औरतों के मुँह से झरा करती थीं। पुरुषों की गालियाँ छोडि़ए।मेरी सास के लिए भी मालवी में बोलना ही सहज था। उन्हें गाली देते कभी नहीं देखा। उनकी हिंदी मेरी माँ से काफी बेहतर थी। हिंदी बोलते समय उनकी स्वाभाविकता नष्ट हो जाती थी। पत्नी तो खैर अच्छी हिंदी बोलती हैंं मगर उसमें मालवी शब्द भी टपकते रहते हैं। मैं थोड़ा होशियार बंदा हूँ, हिंदी में मालवी अक्सर मिक्स नहीं करता। हाँ सचेत होकर करूँ तो अलग बात है पर मालवियों की तरह मैं को में, और को ओर निकल ही जाता है। इस पर मेरी एक कविता भी है।
हम लोगों में अपनी भाषा-बोली के प्रति वैसा प्रेम नहीं है, जैसे हमारे पड़ोस के राज्य राजस्थान के मारवाडिय़ों-मेवाडिय़ों में पाया जाता है या अवधी, भोजपुरी, मैथिली आदि बोलने वालों में मिलता है। मालवा के सभी लोग मालवी भी नहीं बोलते। मराठीभाषियों, कायस्थों, मुसलमानों, बोहरों, सिंधियों में ऐसा शायद ही कोई परिवार हो, जो घर में या बाहर मालवी बोलता हो। हाँ ग्रामीण इलाकों की बोलचाल की भाषा अभी भी मालवी है।अब तो लगभग सभी शहरों-कस्बों के मध्यवर्गीय-निम्न मध्यवर्गीय परिवारों में मालवी छोड़ हिंदी ही बोली जाती है। हाँ विशेष अवसरों पर खानपान में आज भी मालवीपन बचा है। दाल-बाटी, दाल-बाफले बनते रहते हैं। शादी के अवसर पर एक बार दाल-बाफले की रसोई जरूर बनती है और गेहूँ से बने लड्डू भी। उनका अपना स्वाद और रस है। हाँ बरसात के इन दिनों में भजिये(पकोड़े) तथा गुलगुले बना करते थे। बरसात के इन्हीं दिनों में पानी के हलके से छींटे से भीगी ज्वार ले जाकर धानी सिंकवा कर गरम खाई जाती थी। गेहूँ की भी धानी सिंकवा कर उसमें गुड़ मिला कर खाने का अपना आनंद था। अब इनमें से बहुत सी चीजें हो सकता है, अप्रासंगिक हो गई हों। लेकिन दैनिक उपयोग में हमारी भी प्रिय सेव का स्थान यथावत सुरक्षित है।
स्कूल, कॉलेज में हिंदी में पढ़ाई होती थी और मित्रों के बीच भी अमूमन हिंदी का ही व्यवहार था। एक मित्र कथाकार ने कुछ साल पहले एक अंग्रेजी पत्रिका को दिए गए साक्षात्कार में कहा था कि उनकी बोली-भाषा तो फलां है और उन्हें हिंदी सीखने के लिए भी उतना ही प्रयत्न करना पड़ा, जितना कि अंग्रेजी सीखने के लिए। सौभाग्यवश मेरे जैसे लोगों के साथ आपकी ही तरह ऐसी समस्या नहीं रही। उनका केस स्पेशल रहा होगा। वैसे सीखने को तो अभी भी हिंदी सीखने का क्रम चलता रहता है। लेखक को अपनी भाषा के साथ भी खासकर लिखित अभिव्यक्ति के लिए मेहनत करनी होती है, सही शब्द,सही वाक्य बनाने के लिए जूझना पड़ता है मगर जो भाषा आप बचपन से इस्तेमाल करते हैं और जो बाद के वर्षों में सीखते हैं और जिसका घर-परिवार से लेकर बाजार में अमूमन इस्तेमाल नहीं होता,दोनों में जमीन-आसमान का फर्क होता है। यह जरूर है कि अपनी मातृभाषा सरीखी होते हुए मालवी से अब मेरा जीवंत संपर्क नहीं रहा क्योंकि मालवा जाकर भी आप और दूसरे भी हिंदी में ही बात करते हैं। टेलीफोन-मोबाइल पर भी इसी भाषा में बात होती है।
है तो मालवी भी मीठी भाषा। दूसरी भाषा- बोलियों के साथ भी ऐसा होगा मगर मुझे लगता है कि मालवियों में एक स्वाभाविक व्यंग्य-बोध होता है। थोड़ा-बहुत उसका असर मुझ पर भी है। इसमें मुझे लगता है, मेरी नहीं, मालवा अंचल की खूबी है। शरद जोशी भी इसी अंचल से थे और भी कई व्यंग्यकार। और हाँ उस समय आकाशवाणी से शाम सात बजे कृषि का एक कार्यक्रम आता था। उसके दो पात्र थे-नंदा जी और भैरा जी। नंदाजी हिंदी में ज्ञान देते थे, किसान भैरा जी मालवी में उनसे बात करते थे।अपना कृषि से तो क्या वास्ता था मगर इन दो पात्रों के संवाद सुनना अच्छा लगता था।
बचपन में एक कहावत सुनी-पढ़ी थी-मालव धरती गहन गंभीर, डग-डग रोटी, पग-पग नीर, हालांकि उज्जैन में क्षिप्रा गर्मियों में सूख जाती है और 12 साल बाद लगने वाले सिंहस्थ में क्षिप्रा नहाने का पुण्य कमानेवाले, नर्मदा के पानी में नहाने का ही पुण्य प्राप्त कर पाते हैं। वैसे नर्मदा ज्यादा बड़ी और ज्यादा प्रसिद्ध और पवित्र मानी जाने वाली नदी है तो वे घाटे की बजाय फायदे में रहते हैं। मेरे कस्बे की चीलर नदी छोटी और स्थानीय-सी है।कभी उसमें भी पानी होता था। महादेव घाट, छोटा पुल, बादशाही पुल और किले के परकोटे से नदी देखने का अपना ही आनंद था (एक बार गहरे पानी में चला गया तो डूबने ही वाला था कि किसी ने ऐन मौके पर बचा लिया।)। अब बाँध बनने के बाद नदी की विकल स्मृति ही बची है।महादेव घाट अब वीरान नजर आता है। उस कस्बे का सौंदर्य इस तरह मर चुका है। हाँ यह सही है कि मालवा की भूमि उर्वरा है। शायद ही वहाँँ के मजदूरों को कहीं बाहर मजदूरी करने जाना पड़ता हो। अभाव और गरीबी है मगर भुखमरी शायद अब भी नहीं है।
शायद अब भी मालवी में कवि सम्मेलनी कविता लिखी जाती होगी। उस समय बालकवि बैरागी, गिरवर सिंह भंवर, सुल्तान मामा, भावसार बा, पुखराज पांडे, हरीश निगम, मदनमोहन व्यास आदि कवि सम्मेलनों के मशहूर कवि थे। एक और पुराने कवि थे, जिन्हें देखा-सुना तो नहीं मगर उनकी एक कविता की दो पंक्तियाँ आज भी मुझे याद हैं :
क्यों सा ब कय्यांड़ी (किधर)?
अय्यांड़ी (इधर) ने वंय्याड़ी (उधर)
म्हारी तो हूदी-हट (सीधी) हट चली री हे गाड़ी।
हाँ शायद स्वभाव से हम अंय्याड़ी-वंय्याड़ी वाले नहीं हैंं। सीधी-सट गाड़ी चलाते हैं, भले ही सामने गड्ढा आ जाए और उसमें गिर जाएँ। कोई परवाह नहीं, कपड़े झाड़ कर फिर उठ खड़े हो जाते हैं। घर आकर घाव पर पहले लाल रंग का टिंचर (हम टिंक्चर का क् खा जाते थे) लगाते थे, अब डेटाल लगा लेते हैं।
-विष्णु नागर
रिचर्ड महापात्रा
खरीफ का मौजूदा रकबा उम्मीद जगाता है क्योंकि कोविड काल में अधिक से अधिक किसान खेती की ओर लौट रहे हैं।
समाज में किस्सागोई का अपना महत्व है। ये किस्से अक्सर दीर्घकालीन बदलावों का सशक्त संकेत देते हैं। कुछ दशकों पहले जब किसान अपने खेतों से कीटों के गायब होने और परागण न होने की चर्चा करते थे, तब कहानियां से ही पता चला था कि इन कीटों की विलुप्ति से खेती पर नकारात्मक असर पड़ रहा है। 1918-19 में स्पेनिश फ्लू के तुरंत बाद बहुत से स्वास्थ्यकर्मियों ने पशुओं से उत्पन्न होने वाली बीमारियों के बारे में बात की थी। ये कहानियां घरों के ड्रॉइंग रूम में खूब सुनाई गईं। किसको पता था कि दशकों बाद वैज्ञानिक महामारी की भविष्यवाणी करेंगे और कोविड-19 उनमें से एक होगी।
वर्तमान में हम किसानों से कुछ कहानियां सुन रहे हैं। भारतीय गांव अप्रत्याशित रूप से जीवंत हो उठे हैं क्योंकि लाखों प्रवासी मजदूर लॉकडाउन के कारण आर्थिक गतिविधियों के थमने से लौट आए हैं। ये लोग गांव में किन मुद्दों पर बात कर रहे हैं? अधिकांश लोग जीवनयापन के भविष्य पर बात कर रहे हैं। चर्चा का एक बड़ा मुद्दा यह है कि वे दिहाड़ी मजदूरी के लिए शहरों में लौटे या नहीं। अगर वे नहीं लौटते तब क्या करेंगे?
देशभर में सर्वाधिक अनौपचारिक मजदूर वाले राज्यों में शामिल उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार के मजदूर राज्य के बाहर काम करते हैं। अब ऐसी कहानियां छनकर आ रही हैं कि इनमें से अधिकांश लोग खेती करने लगेंगे। इसके अलावा ऐसी कहानियां भी हैं किसान परिवार अनिश्चित समय के लिए घर लौटे सदस्यों को देखते हुए कृषि गतिविधियों को बढ़ा रहे हैं, क्योंकि अब काम के लिए अतिरिक्त हाथ उनके पास हैं। ये कहानियां बदहाल कृषि क्षेत्र को देखते हुए सुकून देने वाली लगती हैं। पिछले एक दशक से हम इस तथ्य के साथ जी रहे हैं कि किसान खेती छोड़ रहे हैं। पिछली गनगणना के अनुसार प्रतिदिन 2,000 किसान खेती से मुंह मोड़ रहे हैं।
कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के खरीफ के मौजूदा बुलेटिन की मानें तो कवरेज क्षेत्र यानी रकबा पिछले वर्ष के 23 मिलियन हेक्टेयर के मुकाबले अब 43.3 मिलियन हेक्टेयर यानी लगभग दोगुना हो गया है। धान का कवरेज भी पिछले साल के 4.9 मिलियन हेक्टेयर से बढक़र इस साल 6.8 मिलियन हेक्टेयर हो गया है। बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में जहां बड़ी संख्या में लोग लौटें हैं, वहां यह कवरेज काफी बढ़ा है। (बाकी पेज 8 पर)
आंकड़े यह नहीं बताते कि खेती से लोगों का जुड़ाव स्थायी है लेकिन यह संकेत जरूर देते हैं कि कुछ कारणों ने लोगों ने खेती का रकबा बढ़ा दिया है। हो सकता है कि यह अच्छी बारिश की वजह से हुआ हो। यह भी संभव है कि खेती के लिए मजदूरों की उपलब्धता को देखते हुए रकबा बढ़ा हो।
किसानों की बातचीत में एक अन्य स्टोरी पता चलती है। बहुत से लोग कह सकते हैं कि यह सिर्फ खतरे से बचने की प्रवृति हो सकती है। लेकिन यह तथ्य है कि किसान परिवार के जो लोग अतिरिक्त आय के लिए बाहर गए थे, वे लौट आए हैं। कृषि में वे अतिरिक्त मजदूर लगा रहे हैं। लेकिन क्या इससे फिर से कृषि से जुडऩे की प्रवृत्ति बढ़ेगी? यह काफी हद तक अतिरिक्त संसाधनों को खेती में लगाने के नतीजों पर निर्भर करेगा। इसका अर्थ है कि अगर उन्हें अच्छा मेहनताना मिलेगा तो वे इससे जुड़े रहेंगे।
अत: यह एक अवसर है। खासकर ऐसे समय में जब आर्थिक अवसरों और राष्ट्रीय आय में योगदान के कारण भारत को कृषि प्रधान नहीं माना जाता। इस अवसर के साथ बेशुमार चुनौतियां भी हैं और ये जानी पहचानी हैं। इन्हीं चुनौतियों ने कृषि क्षेत्र को पंगु बना रखा है। इनमें प्रमुख है- कृषि को आर्थिक रूप से लाभकारी कैसे बनाएं? उत्पादन अब किसानों के लिए समस्या नहीं है। अब वे हमें सालों से बंपर उत्पादन दे रहे हैं। समस्या है उनके लिए उपज का उचित मूल्य सुनिश्चित करना। मुक्त बाजार के विचार ने इसमें काफी मदद की है।
यह विचार एकमात्र समाधान यह देता है कि किसानों के लिए व्यापार की बेहतर स्थितियां बनाकर बाजार तक उनकी पहुंच बना दी जाए। इसके लिए सरकार को किसानों के लिए गारंटर का काम करना होगा। इसका अर्थ है कि सरकार को खरीद, उचित मूल्य और बाजार की व्यवस्था करनी होगी। अब तक इस दिशा में हुआ काम मददगार साबित नहीं हुआ है। किसानों को वापस खेती से जोडऩे के लिए 70 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों को बेहतर जिंदगी देनी होगी। सरकार का पहला पैकेज इसी दिशा में होना चाहिए। किसानों को इस वक्त सरकार की सबसे ज्यादा जरूरत है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
तालाबंदी के दौरान जो करोड़ों मजदूर अपने गांवों में लौट गए थे, उन्हें रोजगार देने के लिए सरकार ने महात्मा गांधी रोजगार योजना (मनरेगा) में जान डाल दी थी। सरकार ने लगभग साढ़े चार करोड़ परिवारों की दाल-रोटी का इंतजाम कर दिया था लेकिन इस योजना की तीन बड़ी सीमाएं हैं। एक तो यह कि इसमें दिन भर की मजदूरी लगभग 200 रु. है।
दूसरा, किसी भी परिवार में सिर्फ एक व्यक्ति को ही मजदूरी मिलेगी। तीसरा, पूरे साल में 100 दिन से ज्यादा काम नहीं मिलेगा। याने 365 दिनों में से 265 दिन उस मजदूर या उस परिवार को कोई अन्य काम ढूंढना पड़ेगा। सरकार ने तालाबंदी के बाद मनरेगा की कुल राशि में मोटी वृद्धि तो की ही, उसके साथ-साथ करोड़ों लोगों को मुफ्त अनाज बांटने की घोषणा भी की। इससे भारत के करोड़ों नागरिकों को राहत तो जरुर मिली है लेकिन अब कई समस्याएं एक साथ खड़ी हो गई हैं।
पहली तो यह कि सवा लाख परिवारों के 100 दिन पूरे हो गए हैं। 7 लाख परिवारों के 80 दिन और 23 लाख परिवारों के 60 दिन भी पूरे हो गए। शेष चार करोड़ परिवारों के भी 100 दिन कुछ हफ्तों में पूरे हो जाएंगे। फिर इन्हें काम नहीं मिलेगा। ये बेरोजगार हो जाएंगे। अभी बरसात और बोवनी के मौसम में गैर-सरकारी काम भी गांवों में काफी है लेकिन कुछ समय बाद शहरों से गए ये मजदूर क्या करेंगे ? इनके पेट भरने का जरिया क्या होगा? कोरोना और उसका डर इतना फैला हुआ है कि मजदूर लोग अभी शहरों में लौटना नहीं चाहते। ऐसी स्थिति में सरकार को तुरंत कोई रास्ता निकालना चाहिए। वह चाहे तो एक ही परिवार के दो लोगों को रोजगार देने का प्रावधान कर सकती है।
202 रु. रोज देने की बजाय 250 रु. रोज दे सकती है और 100 दिन की सीमा को 200 दिन तक बढ़ा सकती है ताकि अगले दो-तीन माह, जब तक कोरोना का खतरा है, मजदूर लोग और उनके परिवार के बुजुर्ग और बच्चे भूखे नहीं मरेंगे। जब कोरोना का खतरा खत्म हो जाएगा तो ये करोड़ों मजदूर खुशी-खुशी काम पर लौटना चाहेंगे और सरकार का सिरदर्द अपने आप ठीक हो जाएगा। गलवान घाटी का तनाव घट रहा है तो सरकार से यह उम्मीद की जाती है कि वह अब अपना पूरा ध्यान कोरोना से लडऩे में लगाएगी। (नया इंडिया की अनुमति से)(nayaindia.com)
-विष्णु राजगड़िआ
धनबाद से चिंताजनक खबर सामने आई है। 55 पत्रकारों की टेस्ट रिपोर्ट में 23 कोरोना पॉजिटिव मिले।
कोरोना के 97-98 प्रतिशत मरीज स्वस्थ हो जाते हैं। इसलिए पेनिक न हों, सिर्फ डॉक्टरों की सलाह पर अमल करें, समय का सदुपयोग करते हुए एकांतवास का आनंद लें। अस्पताल की व्यवस्था की चिंता बाद में कर लीजिएगा, अभी सकारात्मक मूड में रहकर इलाज पर ध्यान दें। जल्द ही सब स्वस्थ हो जाएंगे। मेरे कई परिचित लोग आसानी से ठीक हो चुके हैं।
जिन पत्रकारों का टेस्ट हुआ उनमें ज्यादातर असिम्प्टोमिक थे। लिहाजा, इस प्रकरण का मतलब समझना भी जरूरी है।
1. जिनलोगों की टेस्टिंग करेंगे, उनमें कोरोना पॉजिटिव लोग मिलेंगे। अगर टेस्टिंग ही नहीं करेंगे, तो पता ही नहीं चलेगा।
2. मार्च के महीने में दिल्ली में तब्लीगी जमात के कार्यक्रम में एक व्यक्ति कोरोना पॉजिटिव मिला। तब उस कार्यक्रम में शामिल लोगों की देश भर के खोज कर टेस्टिंग की गई। इससे काफी लोग कोरोना पॉजिटिव निकले। ऐसे लोगों को खोजकर उनका इलाज करना सही निर्णय था। लेकिन इसके नाम पर मुस्लिम समुदाय को बदनाम करना या उन्हें कोरोना बम बताना गलत था।
3. तब्लीगी जमात के लोगों को मरीज के तौर पर सहानुभूति देने के बदले कोरोना फैलाने वाले अपराधी के रूप में पेश किया गया। ऐसे में अब अन्य मरीजों के लिए भी अस्पताल में किसी बेहतर व्यवस्था का दबाव नहीं होगा। उस वक्त की मीडिया खबरों का आत्मावलोकन जरूरी है।
4. अन्य मामलों में भी अगर इसी तरह सबकी खोजकर कांटेक्ट ट्रेसिंग जांच होती, तो हिन्दू लोग भी कोरोना पॉजिटिव पाए जाते। उनका भी इलाज होता, स्वस्थ होते। ऐसे तो बिना टेस्ट बिना इलाज कोई मर जाए तो पता ही नहीं चलेगा कि कोरोना हुआ।
5. दिल्ली में केजरीवाल सरकार ने देश भर में सर्वाधिक टेस्ट करके सारे मामले खोज निकाले। इसके कारण वहां ज्यादा केस मिले। जबकि यूपी, बिहार जैसे राज्यों में 'नो टेस्ट, नो कोरोना' की पॉलिसी अपनाई गई। समाज अंदर से बीमार होता रहा, बीजेपी चुनाव प्रचार में लगी रही।
6. दिल्ली में सर्वाधिक टेस्टिंग हो रही है। भक्तों को भ्रम है कि ऐसा अमित शाह के कारण हुआ। जबकि अमित शाह ने जिस दिन दिल्ली में बैठक की, उस दिन तक भी दिल्ली की टेस्टिंग राष्ट्रीय औसत से 3.5 गुना ज्यादा थी। यूपी से 8 गुना और बिहार से 16 गुना ज्यादा।
7. अगर अमित शाह ने दिल्ली में टेस्ट बढ़ाए, तो यूपी बिहार हरियाणा में क्यों नहीं बढ़ाते?
8. दिल्ली में असिम्प्टोमिक मरीजों के लिए होम आइसोलेशन का अच्छा प्रयोग हुआ है। केजरीवाल ने जब इसकी शुरुआत की, तो भक्तों ने काफी गाली दी थी। लेकिन अब तक के अनुभव बताते हैं, कि बिना लक्षण वाले मरीजों के लिए होम आइसोलेशन सबसे अच्छा विकल्प है। क्या झारखंड में इस पर विचार होगा?
9. दिल्ली ने प्लाज्मा थेरेपी का भी अच्छा प्रयोग किया, जिसका मजाक उड़ाया गया। अब उसकी सफलता साफ दिख रही है। क्या झारखंड इस पर विचार करेगा?
10. कोरोना पॉजिटिव पाए गए सभी लोगों की कॉन्टेक्ट ट्रेसिंग हो। सबने पिछले 15 दिन में जिनसे मुलाकात की हो, सबकी कोविड जांच हो। परिवार के सदस्यों की भी।
11. क्या आरोग्य सेतु ऐप्प का कोई उपयोग दिखा है? अगर हां, तो उसके बारे में जानने की दिलचस्पी है।
26 फरवरी 1957, समय- सुबह के लगभग 10 बजे। स्थान-गांव येरामरस। चार महीने पहले अस्तित्व में आए कर्नाटक राज्य के जिला मुख्यालय रायचूर से 7 किलोमीटर दूर एक छोटा सा गांव।
स्कूल के हेडमास्टर अपने दफ्तर में व्यस्त थे जब कुछ लोगों की पदचाप सुनकर उन्होंने नजऱ ऊपर की। सामने पंडित जवाहरलाल नेहरू खड़े थे। कुछ क्षण अविश्वास के बीत जाने के बाद जब पुष्टि हो गई कि ये सचमुच देश के प्रधानमंत्री और करोड़ों लोगों के हीरो नेहरू ही हैं तो हेडमास्टर लगभग अचेत हो गए। नेहरूजी को कुर्सी दी गई। बात फैलते समय नहीं लगा और स्कूल के बच्चे और शिक्षक झुंड के रूप में उन्हें घेरकर खड़े हो गए। नेहरूजी ने बच्चों के साथ वार्तालाप प्रारंभ किया।
ठीक उसी समय पूर्वी मध्यप्रदेश (अब छत्तीसगढ़) में रायपुर में नेहरूजी की अगवानी करने के लिए लोग बेसब्र हो रहे थे। इस समय नेहरूजी को रायपुर में होना चाहिए था।
1957 में देश में दूसरा आम चुनाव हुआ था और इसी सिलसिले में नेहरूजी दक्षिण भारत में चुनाव प्रचार के लिए गए थे। उस दिन के तय कार्यक्रम के अनुसार पंडित नेहरू को सुबह मैंगलोर से अपनी यात्रा शुरू कर जबलपुर पंहुचना था। बीच में विमान को रायपुर में उतरना था ईंधन लेने के लिए। साथ में पंडितजी का भी भोजन रायपुर में ही होना था।
रायपुर के माना ऐरोड्रोम में हल्के पीले रंग का एक दुमंजिला भवन था जिसकी छत पर सिग्नल रिसीव करने के लिए उपकरण लगे थे। भवन अब भी है। रायपुर में उन दिनों व्यवसायिक हवाई सेवा शुरू नहीं हुई थी। यह भवन मुख्य रूप से ऐरोड्रोम का कंट्रोल रूम (या टावर) था जिसका उपयोग फ्लाईंग क्लब की गतिविधियों के संचालन के लिए भी किया जाता था। इसी भवन के निचली फ्लोर के कमरों का मौके-बेमौके पंहुचे किसी वीआईपी के लिए भी उपयोग हो जाता था।
नेहरूजी के लिए 26 फरवरी 1957 के दोपहर के भोजन की व्यवस्था इन्ही कमरों में की गई थी।
मध्यप्रदेश में उन दिनों सब कुछ बहुत व्यवस्थित नहीं था। कर्नाटक की ही तरह नया मध्यप्रदेश भी 1 नवम्बर 1956 को अस्तित्व में आया था। चार महीने भी पूरे नहीं हुए थे। पहले दो महीने मुख्यमंत्री रहे पंडित रविशंकर शुक्ल की मृत्यु 31 दिसम्बर के दिन हो गई थी। जनवरी का माह भगवंत राव मंडलोई ने कार्यकारी मुख्यमंत्री के रूप में बिताया। 31 जनवरी को दिल्ली से आकर डॉ. कैलाश नाथ काटजू ने मुख्यमंत्री पद संभाला किन्तु मध्यप्रदेश उनके लिए बहुत परिचित स्थान नहीं था। पुरानी राजधानी नागपुर की अपेक्षा भोपाल के साथ आवागमन कठिन होने के कारण दूरी का अहसास अधिक था।
जब नेहरूजी के कार्यक्रम की जानकारी भोपाल पंहुची तो डॉ. काटजू ने तत्काल रायपुर में प्रधानमंत्री के आवभगत और भोजन की जिम्मेदारी अपने मंत्रिमंडल के सहयोगी राजा नरेशचन्द्र सिंहजी को सौंप दी। राजा साहब छत्तीसगढ़ के थे और और उनके पिता सारंगढ़ के राजा जवाहिर सिंह नेहरूजी के घनिष्ठ मित्र भी रह चुके थे और यह बात डॉ. काटजू को ज्ञात थी।
जिम्मेदारी मिलने के बाद राजा साहब ने वही किया जो उन्हें जानने वालों को उनसे अपेक्षा थी। बिलासपुर सर्किट हाऊस के खानसामा श्री बेनेट को इस अवसर पर भोजन तैयार करने के लिए रायपुर बुला लिया गया। सारंगढ़ के गिरिविलास महल से एक ट्रक में भरकर कॉकरी, कटलरी और अन्य सामग्रियों के साथ स्टाफ को बुलवा लिया गया।
रायपुर में पंडितजी के भोजन की तैयारी तो पूरी हो गई लेकिन पंडित नेहरू के पंहुचने का नियत समय पार हो चुका था और कुछ अता-पता नहीं मिलने से चिंता भी फैलने लगी थी। फोन पर सम्पर्क आसान नहीं था। फिर भी इतना पता चल चुका था कि सुबह साढ़े आठ बजे प्रधानमंत्री का विमान मैंगलोर से उड़ चुका था।
रायपुर में चिंता में डूबे लोगों को यह जानने का कोई साधन नहीं था कि ठीक उसी समय नेहरूजी मौत के मुंह से निकलकर कर्नाटक के रायचूर के पास येरामरस गांव में बच्चों के साथ बातचीत में समय व्यतीत कर रहे थे।
पंडितजी की यात्रा मेघदूत नामक विमान में शुरू हुई थी। यह दरअसल ‘इल्यूशिन आई एल-14’ विमान था जिसे रूसी प्रधानमंत्री बुल्गानिन ने भारतीय प्रधानमंत्री को दिसम्बर 1953 में भेंट के रूप में दिया था। नेहरूजी ने ही इसका नामकरण मेघदूत किया था।
उस दिन हवा में लगभग आधा घंटा ही बीता था कि एक एंजिन से धुंआ निकलना शुरू हुआ जो देखते देखते आग की लपटों में तब्दील हो गया। खतरा यह था कि आग की लपटें यदि फ्यूल टैंक को गर्म कर देतीं तो पलक झपकते विमान स्वाहा हो जाता।
उन दिनों प्रधानमंत्री के साथ यात्रा करने वालों की संख्या बहुत नहीं होती थी। उनके सुरक्षा अधिकारी, कार्यालयीन सहायक और एक निजी अनुचर- शायद हरि नाम था। उस दिन विदेश मंत्रालय में उपसचिव जगत मेहता (जो आगे चलकर विदेश सचिव बने) और समाचार एजेंसी पी.टी.आई. के संवाददाता बी.आर.वत्स भी साथ थे। इनके अलावा एक फ्लाईट इंजीनियर और नेविगेटर थे। पायलट थे एयर फोर्स के एक एंग्लो-इंडियन स्चड्रन लीडर आर.ए. रफस।
पारसी सुरक्षा अधिकारी श्री के.एफ. रुस्तमजी (पद्मविभूषण) मध्यप्रदेश कैडर के पुलिस अधिकारी थे और 1971 में बांग्लादेश के आजादी के आंदोलन में पूर्वी पाकिस्तान के बंगाली विद्रोहियों को ट्रेनिंग देकर मुक्ति वाहिनी नाम की सशस्त्र प्रतिरोध सेना खड़ी करने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। वे सीमा सुरक्षा दल-बी.एस.एफ.-के प्रथम मुखिया थे। श्री रुस्तमजी ने अपनी डायरी (आय वॉज नेहरूज़ शैडो) में लिखा कि जब विमान में आग लगने और उस कारण एक एंजिन के नष्ट हो जाने की सूचना देने वे पंडित नेहरू के पास पहुंचे तब वे वी.के. कृष्णा मेनन का भाषण पढ़ रहे थे (श्री मेनन संयुक्त राष्ट्र संघ में भारतीय दल के नेता थे और ठीक एक महिना पहले कश्मीर के विषय में भारत का पक्ष रखते हुए उन्होंने आठ घंटे का धुआंधार भाषण दिया था। बीच में वे एक बार बेहोश हुए और लौटकर अपना भाषण जारी रखा था। उनका बनाया आठ घंटे का रिकॉर्ड अब तक टूटा नहीं)।
एंजिन फेल होने की सूचना पा कर नेहरू जी के चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट आयी और उन्होंने कहा- ‘डोन्ट वरी, रफस विल मैनेज’। उन्हें अपने पायलट की काबिलियत पर पूरा यकीं था।
विमान में बीत रहा एक एक क्षण घातक था। नेविगेटर ने रजिस्टर देख कर बताया कि बीस किलोमीटर पर रायचूर के पास 1942 की निर्मित एक हवाई पट्टी है किन्तु दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से उसके उपयोग की कोई जानकारी नहीं है। पायलट ने कहा हम उतरने का प्रयास कर सकते हैं किन्तु पास से देखने पर यदि हवाई पट्टी लैन्ड करने लायक नहीं मिली तो एक एंजिन के दम पर विमान को दोबारा ऊपर ले जाना संभव नहीं होगा। उस समय सुरक्षा अधिकारी एक संभावना को ले कर बेहद परेशान थे। उनका आंकलन था कि एंजिन में लगी आग यदि जानबूझ कर किसी षड्यंत्र, किसी ‘सैबटाज’ का नतीजा थी तो प्रबल संभावना थी कि दूसरा एंजिन भी शीघ्र फेल होगा।
अंतत: निर्णय लिया गया कि जो भी हो रायचूर की इस पट्टी पर उतरना ही है।
विमान के रुकने पर दरवाजा खुला तो देखा सामने एक व्यक्ति हाथ में डण्डा लिए खड़ा था। विस्मित व्यक्ति गांव का चौकीदार था। नेहरूजी ने नीचे उतरकर एंजिन का मुआयना किया, पायलट का धन्यवाद ज्ञापित किया और पथ-प्रदर्शक चौकीदार के साथ स्कूल पंहुचे थे। चौकीदार की साइकिल चलाते हुए रुस्तमजी पास के रेलवे स्टेशन पंहुचे और वहां से रायचूर के कलेक्टर को सूचना दी। दो घंटे के बाद हैदराबाद से एयरफोर्स के दो डकोटा विमान आए जिनमें नेहरूजी और साथी विलम्ब से रायपुर पंहुचे।
भोजन के बाद नेहरूजी ने श्री बेनेट को बुला कर स्वादिष्ट भोजन के लिए धन्यवाद कहा और धीरे से श्री रुस्तमजी से पूछा ‘टिप दी?’। नेहरू जी के अपने स्टाफ को ये स्थायी आदेश थे कि जहाँ भी वे भोजन करें, शेफ को बुलाकर उनसे भेंट कराई जाए और उनके निजी खाते से टिप दी जाए।
रायपुर में इस दौरान किसी को एक्सीडेंट की जानकारी नहीं हो पाई थी। किन्तु रायपुर से उड़ कर जब तक उनका विमान जबलपुर पंहुचा, पी.टी.आई. वाले वत्सजी की खबर पहुंच चुकी थी। एक अखबार ने अपना एक विशेष संस्करण छाप दिया था। कहना न होगा विमान तल में उस दिन अपेक्षा से कहीं अधिक भीड़ इकट्ठा थी।
इस कथा का उत्तर काण्ड
पायलट कैप्टन रफस ने जिस त्वरित निर्णय क्षमता और धैर्य का परिचय देते हुए बिना जमीनी सहायता के, उबड़-खाबड़ पट्टी पर कुशलता से विमान को लैन्ड कराया उसके कारण बाद में उन्हें अशोक चक्र प्रदान किया गया।
यह विमान रूसी प्रधानमंत्री बुल्गानिन ने भेंट किया था। दुर्घटना के कारण उन्होंने बहुत लज्जित महसूस किया और भारत को एक और विमान भेंट करने की पेशकश की। पंडित नेहरू रूसियों को और अधिक असुविधाजनक स्थिति में नहीं डालना चाहते थे। उन्होंने पेशकश स्वीकार कर ली।
दुर्घटनाग्रस्त विमान रायचूर हवाई पट्टी पर एक सप्ताह खड़ा रहा। नए बने कर्नाटक और आंध्रप्रदेश के दूर-दराज इलाकों से हजारों लोग इस बीच इस विमान का दर्शन करने पंहुचे।
-डॉ. परिवेश मिश्रा,
गिरिविलास पैलेस, सारंगढ़
रिलायंस जियो ने हाल ही में जूम के मुकाबले में बिलकुल वैसा ही एक वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग एप - जियो-मीट - लॉन्च किया है
-अभिषेक सिंह राव
जुलाई के पहले हफ्ते में रिलायंस जियो ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के मार्केट में कदम रखते हुए जियो-मीट को लॉन्च किया है. वैसे तो वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग एप्लिकेशन्स के क्षेत्र में ज़ूम, गूगल हैंगऑउट, गूगल मीट, गोटू मीटिंग, स्काइप, माइक्रोसॉफ्ट टीम, इत्यादि का बोलबाला पहले से है लेकिन इन तमाम ऍप्लिकेशन्स में करीब नौ साल पुरानी कंपनी ज़ूम सबसे अव्वल है. 2011 में चाइनीज मूल के एरिक युआन ने 40 इंजीनियर्स के साथ मिलकर ‘सासबी’ नामक एक कंपनी की शुरुआत की थी. फिर दूसरे साल ही इसका नाम बदलकर ‘ज़ूम’ रख दिया गया. साल दर साल ज़ूम ने बाज़ार से फंडिंग उठाते हुए अपने प्रोडक्ट पर काम किया और धीरे-धीरे जब वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग का मार्केट परिपक्व होने लगा तो ज़ूम ने अपना लोहा मनवाना शुरू किया.
अप्रैल 2019 में ज़ूम ने अमेरिका में अपना आईपीओ लॉन्च किया. आज जूम 2500 कर्मचारियों से लैस दुनिया की नामचीन सॉफ्टवेयर कंपनियों में से एक है. ग्लासडोर के एक सर्वे के मुताबिक कर्मचारियों के लिए ज़ूम 2019 की दूसरे पायदान की ‘बेस्ट प्लेसेस टू वर्क’ कंपनी थी.
कोरोना-काल और ज़ूम की लोकप्रियता
कोरोना संकट के समय में सोशल डिस्टेन्सिंग के चलते ज़ूम की लोकप्रियता में चार चांद लगने शुरू हो गए. बिज़नेस इनसाइडर की रिपोर्ट के मुताबिक अमरीका में 18 मार्च के दिन तमाम बिज़नेस ऐप्स के बीच आईफोन के दैनिक डाउनलोड में ज़ूम पहले स्थान पर रहा. दफ्तरों एवं शैक्षणिक संस्थानों के बंद होने के कारण कितनी ही समस्याओं से जूझ रहे भारतीयों को भी यह ऐप एक बेहतर उपाय की तरह दिखने लगा. योरस्टोरी की एक रिपोर्ट कहती है कि भारत में 29 मार्च के दिन व्हाट्सएप, टिकटॉक, इंस्टाग्राम और फेसबुक जैसे दिग्गज ऍप्लिकेशन्स को पछाड़ते हुए ज़ूम ने नंबर एक का स्थान हासिल किया था.
सब कुछ ठीक चल रहा था लेकिन चूंकि ज़ूम के कार्यबल का एक बड़ा हिस्सा चीन में स्थित है, इस वजह से ज़ूम के बढ़ते उपयोग ने सर्विलांस और सेंसरशिप की चिंताओं को जन्म देना शुरू किया. अप्रैल की शुरुआत में भारत सरकार ने एक एडवाइजरी जारी कर कहा था कि ‘ज़ूम का इस्तेमाल सुरक्षित नहीं है.’ इसमें सरकार ने ज़ोर देते हुए कहा कि ‘सरकारी अधिकारी या अफसर आधिकारिक काम के लिए इस प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल न करें.’ भारत के अलावा अन्य देश भी इसे आशंका से देख रहे हैं. विश्व पटल पर इस विवाद की गहराइयों का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि मई महीने की शुरुआत में ज़ूम के सीईओ एरिक युआन को सफाई देते हुए कहना पड़ा कि ‘ज़ूम चाइनीज़ नहीं, अमेरिकन कंपनी है.’
ज़ूम के मुकाबले जियो-मीट की लॉन्चिंग
विश्वव्यापी और ख़ास कर भारत में मौजूदा चीन विरोधी माहौल के बीच, पिछले दिनों देश में ज़ूम के मुकाबले की एक ‘मेड इन इंडिया’ एप्लीकेशन की मांग ने जन्म लिया. यह कहा जा सकता है कि जियो ने सही समय पर इस मांग को समझते हुए अपना एप लॉन्च किया है. जियो ने महज़ दो-तीन महीने के भीतर ज़ूम के फ़ीचर्स को आधार बनाते हुए खुद की एप्लीकेशन लॉन्च कर दी. एप लॉन्च करने के पहले की परिस्थितियों का अंदाजा लगाएं तो जियो के इंजीनियर्स घर से काम कर रहे होंगे, इसके चलते कम्युनिकेशन-गैप एवं इंटरनेट की भी समस्याएं रही होंगी लेकिन इसके बावजूद जियो, बेहद कम वक्त में यह प्रोडक्ट तैयार करने में सफल हुआ है. राष्ट्रवाद की सवारी एवं ज़ूम से मिलते-जुलते इंटरफ़ेस के कारण सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर जियो-मीट चर्चा में रहा. इसके लिए कुछ लोग जहां इसकी आलोचना करते दिखाई दिए वहीं कइयों ने इसे मिसाल की तरह पेश किया है.
ऐसे तो इंटरफ़ेस शब्द के मायने बहुत हैं लेकिन आईटी की भाषा में ‘यूजर इंटरफ़ेस’ अर्थात एक तरह का डिज़ाइन जिसकी मदद से हम किसी भी एप्लीकेशन के फ़ीचर्स का उपयोग करते हैं. कुछ लोगों का तर्क है कि ज़ूम और जियो-मीट का इंटरफ़ेस एक जैसा है! लेकिन जियो की बिज़नेस स्ट्रेटेजी पर गौर करें तो जिस ‘कॉपी-इंटरफ़ेस’ का विरोध हो रहा है शायद यही उसकी स्ट्रेटेजी का मुख्य हिस्सा हो सकता है.
किसी भी एप्लीकेशन को मार्केट की डिमांड पूरा करने के लिए बनाया जाता है. इसी डिमांड को पकड़ते हुए कम्पनियां अपने अल्टीमेट गोल रेवेन्यू जेनरेशन का रास्ता बनाती हैं. जैसे चीन के सॉफ्टवेयर इंजीनियर रोबिन ली ने गूगल जैसे चाइनीज़ सर्च इंजन की डिमांड को पूरा करने के लिए ‘बायदु’ सर्च इंजन बनाया. अमरीका में एमेज़ॉन के बोल-बाले के बाद भारत में बंसल जोड़ी ने फ्लिपकार्ट खड़ा किया. वहीं, कई बार कंपनियां कुछ नए आइडियाज के ज़रिये नया मार्केट खड़ा करने में भी कामयाब होती हैं. जैसे गूगल ने सर्च इंजन का मार्केट खड़ा किया, यूट्यूब ने वीडियो का, फ़ेसबुक ने सोशल मीडिया का, ऊबर ने टैक्सी सर्विस का, ज़ोमाटो ने फ़ूड डिलीवरी का, अमेज़न ने ऑनलाइन शॉपिंग का. एप्लीकेशन डेवलपमेंट का विचार इन दोनों पहलुओं के बीच की ही बात है. या तो आप नए इनोवेटिव आईडिया के ज़रिये नया मार्केट खड़ा कीजिये या फिर जो मार्केट बना हुआ है, उसी की डिमांड्स को समझिए.
जियो ने क्या किया?
जियो की केस-स्टडी की जाए तो समझ में आता है कि इस कंपनी ने फोर-जी सर्विस लॉन्च करते वक्त भी सबसे पहले टेलीकम्यूनिकेशन के मार्केट की डिमांड को समझा और उस समय वे जो सबसे बढ़िया दे सकते थे उसी को आधार बनाते हुए, आम आदमी तक अपनी पहुंच बनाई. हालांकि उस समय जियो की फोर-जी सर्विस भारत के लिए ही नई थी, विकसित देशों में यह पुरानी बात हो चुकी थी. ऐसे में जियो भारत में एक नया मार्केट खड़ा करने में कामयाब रहा जिसका आगे चलकर दूसरी भारतीय टेलीकम्यूनिकेशन कंपनियों ने भी अनुसरण किया. नतीजा यह है कि आज बेहतर प्लानिंग, अनूठी सर्विस और मार्केटिंग के चलते महज़ चार साल में यह कंपनी टेलीकम्यूनिकेशन मार्केट के शीर्ष पर है.
जियो-मीट के विवाद के बीच आईटी क्षेत्र की कार्यप्रणाली को समझे बगैर हम इसकी तह तक नहीं पहुंच सकते हैं. वर्तमान की आईटी कार्यप्रणालियों में मार्केट की डिमांड समझते हुए एक साफ-सुथरे स्थायी प्रोडक्ट को बाज़ार में उतारना पहला चरण है. कंपनियों को पता होता है कि उनके पहले वर्ज़न में सुधार की गुंजाइशे हैं लेकिन उन्हें यह भी पता है कि सौ फीसदी परफेक्ट प्रोडक्ट एक असंभव सी बात है और इसको पूरा करने के चक्कर में या तो मार्केट की डिमांड बदल जाएगी या फिर कोई और इस मार्केट को हथिया लेगा. इसलिए वे अपने प्रोडक्ट्स को ‘बीटा वर्ज़न’ के तौर पर लॉन्च करती हैं. इसका मतलब होता है कि यह प्रोडक्ट अभी पूरी तरह से रिलीज़ नहीं हुआ है, कंपनी ने इसको मुख्यतः टेस्टिंग के उद्देश्य के मार्केट में उतारा गया है. चूंकि किसी एक प्रोडक्ट में सुधार हमेशा चलते रहने वाली प्रक्रिया है इसलिए ‘बीटा वर्ज़न’ के ज़रिये कंपनियां सही समय पर मार्केट में अपनी जगह बनाने में कामयाब होती हैं. इस दौरान उपयोगकर्ताओं की प्रतिक्रियाओं को ध्यान में रखते हुए ऑफिशियल रिलीज़ में महत्वपूर्ण सुधारों को अंजाम दिया जाता है.
जियो-मीट का इंटरफ़ेस कॉपी-केस या यूएसपी?
आईपी कंपनियों में एक और शब्द प्रचलित है ‘यूएसपी’ इसका मतलब है ‘यूनीक सेलिंग पॉइंट’. यानी कंपनियां अपने प्रोडक्ट्स को लेकर जब बाज़ार में उतरती हैं तो उस प्रोडक्ट की कुछ ऐसी विशेषताएं होती हैं जो एक तो उस प्रोडक्ट के बनने का कारण होती हैं, दूसरा बिक्री के दृष्टिकोण से उन विशेषताओं की ख़ास अहमियत होती है. कंपनियां प्रचार के वक्त इन्ही विशेषताओं को आगे रख कर अपनी ऑडियंस को आकर्षित करती है. जियो मीट के मामले में ज़ूम से मिलता-जुलता इंटरफेस इसकी यूएसपी साबित हो सकता है.
अगर जियो के ज़ूम से मिलते-झूलते इंटरफ़ेस के विषय पर ज़ूम के ही ऑफिशियल स्टेटमेंट पर गौर किया जाए तो उन्होंने जियो-मीट के कम्पटीशन का स्वागत किया है. जियो-मीट के लॉन्च के बाद जिस तरह से इसे ट्रोल किया गया मानो ज़ूम को तुरंत ही जियो पर लीगल कार्यवाही करनी चाहिए. लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि आईटी क्षेत्र में एक जैसे इंटरफ़ेस का होना बहुत आम सी बात है. वहीं, रिलायंस जियो के पिछले रिकॉर्ड को देखें तो पता चलता है कि यह कंपनी मार्केट रिसर्च के वक्त जो सबसे बेस्ट है, उसको आधार बनाते हुए बाज़ार की मांग को पूरा करने के विषय में सोचती है.
जियो-मीट का इंटरफ़ेस एकदम ज़ूम की तरह रखने के पीछे एक कारण यह भी हो सकता है कि भारत के जो उपयोगकर्ता पहले से ज़ूम का उपयोग कर रहे हैं या कर चुके हैं, उन्हें जियो-मीट पर माइग्रेट होते वक्त एक नए इंटरफ़ेस के कारण कोई परेशानी न हो. सीधा गणित है यानी लोग ज़ूम ऐप को उपयोग करना जानते हैं, ऐसे में अगर एक पूरा नया इंटरफेस आता है तो लोगों को उसकी आदत लगने में वक्त लग सकता है ऐसे में इसके कुछ यूजर दूर जा सकते हैं. जियो-मीट की लॉन्चिंग के समय पर ध्यान दें तो कंपनी इस वक्त या ग्राहकों को गंवाने का रिस्क नहीं लेना चाहेगी.
कहा जा सकता है कि जियो ने इंटरफ़ेस के ज़रिये मुख्यतः इस बात का ख्याल रखा है कि लोग आसानी से ज़ूम से जियो-मीट पर माइग्रेट हो जाएं और उन्हें उसका उपयोग करने में कोई तकलीफ़ न हो. फ़िलहाल जियो-मीट ‘बीटा वर्ज़न’ के तौर पर लॉन्च हुआ है, मतलब इस वक्त स्वदेशी की छतरी तले ज़ूम के यूज़र्स को अपने यहां माइग्रेट करवा लेने के बाद, हो सकता है कि आने वाले कुछ समय में इसका यूजर इंटरफ़ेस भी बदल दिया जाए.
मौजूदा आईटी कार्यप्रणालियों में एक स्टेबल प्रोडक्ट के साथ सही समय पर मार्केट में आना ज़रूरी है, भले ही उसमे कुछ सुधारों की गुंजाइशें साफ़ दिख रही हो. जियो को जल्द से जल्द मार्केट में कूदने की जल्दबाज़ी थी और उसके इंजीनियर्स को एक सख़्त डेडलाइन मिली होगी. ऐसे में वे अगर नया इंटरफ़ेस बनाने बैठते तो फिर ज़ीरो से सब शुरू करना होता. उस हालत में यह काम 2-3 महीनों में पूरा हो पाना संभव ही नहीं था.(satyagrah)
-सत्याग्रह ब्यूरो
कोरोना वायरस को लेकर 32 देशों के 239 वैज्ञानिकों की एक खुली चिट्ठी चर्चा में है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के नाम लिखी गई इस चिट्ठी का शीर्षक है - इट्स टाइम टु अड्रेस एयरबोर्न ट्रांसमिशन ऑफ कोविड-19. यानी वक्त आ गया है कि हम हवा के जरिये कोविड-19 के संक्रमण का कुछ करें. इन वैज्ञानिकों के मुताबिक ऐसे कई सबूत हैं जो बताते हैं कि कोरोना वायरस हवा के जरिये भी फैल सकता है. उनका कहना है कि यह वायरस हवा में मौजूद थूक की उन बेहद महीन बूंदों में होता है जो तब निकलती हैं जब कोई संक्रमित व्यक्ति सांस छोड़ता या बात करता है. बहुत सूक्ष्म होने की वजह से ये बूंदें इतनी हल्की होती हैं कि कुछ देर तक हवा में रह सकती हैं. इसी दौरान ये सांस के जरिये वायरस को दूसरे व्यक्ति के भीतर ले जा सकती हैं. इसलिए इन वैज्ञानिकों की मांग है कि डब्ल्यूएचओ सहित तमाम एजेंसियां इस वायरस से बचाव के लिए बनाए गए अपने दिशा-निर्देशों में जरूरी बदलाव करें.
कोरोना वायरस को लेकर देशी-विदेशी एजेंसियों ने जो दिशा-निर्देश जारी किए हैं उनमें जोर मुख्य रूप से तीन बातों पर है - बार-बार हाथ साफ करना, मास्क पहनना और पर्याप्त दूरी रखना यानी सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करना. असल में ये एजेंसियां अभी यह नहीं मानतीं कि यह वायरस हवा के जरिये भी फैल सकता है. लेकिन इन 239 वैज्ञानिकों का कहना है कि हाथ धोना और सोशल डिस्टेसिंग की सलाह ठीक तो है लेकिन, संक्रमित लोगों द्वारा हवा में छोड़ी गईं महीन बूंदों में मौजूद कोरोना वायरस के खिलाफ सुरक्षा के लिए यह पर्याप्त नहीं है. अपने चिट्ठी में उन्होंने लिखा है, ‘यह समस्या खास कर बंद जगहों पर ज्यादा है, खास कर उन जगहों पर जहां भीड़ हो और हवा के आने-जाने की व्यवस्था यानी वेंटिलेशन पर्याप्त न हो.’
जानकारों के मुताबिक कोविड-19 जैसे श्वसन तंत्र के संक्रमण थूक या बलगम की अलग-अलग आकार की बूंदों से फैलते हैं. अगर इन बूंदों का व्यास पांच से 10 माइक्रॉन तक होता है तो इन्हें ‘रेसपिरेटरी ड्रॉपलेट्स’ कहा जाता है. अगर यह आंकड़ा पांच माइक्रॉन से कम हो तो इन्हें ‘ड्रॉपलेट न्यूक्लिआई’ कहा जाता है. माइक्रॉन यानी एक मीटर का दस लाखवां हिस्सा. डब्ल्यूएचओ के मुताबिक अभी जो सबूत हैं उनके हिसाब से कोरोना वायरस मुख्य रूप से ‘रेसपिरेटरी ड्रॉपलेट्स’ के जरिये फैलता है. 29 जून को कोरोना वायरस पर अपने सबसे ताजा अपडेट में संस्था का कहना था कि हवा के जरिये वायरस से संक्रमित होने की स्थिति किसी अस्पताल में ऐसी मेडिकल प्रक्रिया के दौरान ही आ सकती है जिससे एयरोसोल्स यानी कुछ देर तक हवा में रहने वाले महीन ठोस या द्रव कण पैदा होते हैं.
लेकिन इन 239 वैज्ञानिकों का कहना है कि यह सामान्य परिस्थितियों में भी संभव है. उनकी चिट्ठी में कहा गया है, ‘अध्ययनों से यह बिल्कुल साफ हो चुका है कि सांस छोड़ने, बात करने और खांसने के दौरान निकलने वाली उन बूंदों में भी वायरस मौजूद होते हैं जो बहुत सूक्ष्म होने के कारण कुछ समय तक हवा में ही रहती हैं. इनके चलते संक्रमित व्यक्ति से एक से दो मीटर की दूरी तक वायरस के फैलने का जोखिम रहता है.’ इन वैज्ञानिकों कहना है कि इस दायरे में मौजूद किसी भी शख्स की सांस के जरिये वायरस उसके शरीर में जा सकता है. बताया जा रहा है कि यह चिट्ठी जल्द ही एक प्रतिष्ठित साइंस जर्नल में भी प्रकाशित होने वाली है.
इन वैज्ञानिकों के मुताबिक अतीत में सार्स या मेर्स जैसे संक्रमणों के बारे में किए गए अध्ययनों में भी यह बात सामने आई थी कि इनके फैलने का मुख्य जरिया हवा हो सकती है. अपनी चिट्ठी में उन्होंने कहा है, ‘ये अध्ययन दिखाते हैं कि इन्हें फैलाने वाले वायरस सांस छोड़ते वक्त पर्याप्त तादाद में बाहर आ सकते हैं... इस पर यकीन करने का हर कारण मौजूद है कि कोविड-19 फैलाने वाला कोरोना वायरस भी इसी तरह बर्ताव करता है, और हवा में मौजूद महीन बूंदें भी संक्रमण का एक अहम जरिया हैं.’
इन वैज्ञानिकों का कहना है कि सावधानी के सिद्धांत पर चलते हुए हमें कोरोना वायरस संक्रमण के हर अहम जरिये का ध्यान रखना चाहिए ताकि इस महामारी की रफ्तार पर लगाम लगाई जा सके. उनके मुताबिक हवा के जरिये संक्रमण न फैले इसके लिए कई उपाय किए जा सकते हैं. मसलन सभी इमारतों खास कर दफ्तरों, स्कूलों, अस्पतालों और बुजुर्गों के लिए बने केंद्रों पर वेंटिलेशन की ऐसी व्यवस्था की जाए जो पर्याप्त और प्रभावी हो. इसमें ध्यान रखा जाए कि हवा का रिसर्क्युलेशन यानी भीतर की हवा को फिर भीतर ही छोड़ देना कम से कम हो और बाहर की साफ हवा अंदर आने दी जाए. दूसरा, वेंटिलेशन सिस्टम में संक्रमण को काबू करने वाले एयर फिल्टर या अल्ट्रावायलेट रोशनी जैसे तरीकों का इस्तेमाल हो. वैज्ञानिकों ने सार्वजनिक परिवहन और दफ्तर जैसी जगहों पर जरूरत से ज्यादा भीड़ न लगाने की भी सलाह दी है. ये वैज्ञानिक जो कह रहे हैं उसका एक मतलब यह भी है कि साधारण सर्जिकल मास्क के जरिये कोरोना वायरस से बचाव संभव नहीं है. बचाव सिर्फ एन 95 मास्क से ही हो सकता है.
कोरोना वायरस का अभी अलग से न कोई इलाज है और न ही इसका कोई टीका है. इन वैज्ञानिकों के मुताबिक इसलिए भी जरूरी है कि अभी इसके संक्रमण के हर जरिये को रोका जाए. उन्होंने चिंता जताई है कि अगर इस सच्चाई को स्वीकार नहीं किया गया कि यह वायरस हवा के जरिये भी फैल सकता है और इसे ध्यान में रखते हुए जरूरी उपाय नहीं किए गए तो इसके व्यापक नतीजे होंगे. इन वैज्ञानिकों के मुताबिक अभी खतरा यह है कि लोग यह मान रहे हैं कि मौजूदा दिशा-निर्देशों का पालन करना ही पर्याप्त है जबकि ऐसा नहीं है. उनका कहना है कि हवा के जरिये संक्रमण को रोकने के तरीकों की अहमियत अब पहले से ज्यादा है क्योंकि अब लॉकडाउन हटने के साथ ही दुनिया के कई देशों में लोगों की आवाजाही बढ़ रही है. इन वैज्ञानिकों ने उम्मीद जताई है कि स्वास्थ्य एजेंसियां और सरकारें उनकी बात पर ध्यान देंगी और कोरोना वायरस से बचाव के लिए जरूरी दिशा-निर्देशों में बदलाव करेंगी.
वैसे यह पहली बार नहीं है जब विशेषज्ञों ने डब्ल्यूएचओ से कोरोना वायरस से बचाव को लेकर अपने दिशा-निर्देशों में बदलाव की अपील की हो. बीते अप्रैल में 36 वायु गुणवत्ता और एयरोसोल्स विशेषज्ञों ने भी कहा था कि हवा के जरिये कोरोना वायरस के संक्रमण से संबंधित साक्ष्य बढ़ते जा रहे हैं. इसके बाद डब्ल्यूएचओ ने इन विशेषज्ञों के साथ एक बैठक भी की थी. लेकिन न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट की मानें तो इस बैठक में डब्ल्यूएचओ के विशेषज्ञ इस पर अड़े रहे कि एयरोसोल्स से सुरक्षा के बजाय हाथ धोना ही बचाव का बेहतर तरीका है.
अभी भी संस्था का यही रुख कायम है. अखबार के मुताबिक संक्रमण संबंधी मामलों में डब्ल्यूएचओ की टेक्निकल लीड डॉ बेंडेटा एलेग्रांजी का कहना है कि कोरोना वायरस के हवा के जरिये फैलने से जुड़े सबूत विश्वास करने लायक नहीं हैं. उनका कहना था, ‘खासकर पिछले कुछ महीनों में हमने कई बार कहा है कि हम हवा के जरिये संक्रमण की संभावना से इनकार नहीं कर रहे, लेकिन इसके समर्थन में मजबूत या स्पष्ट सबूत नहीं हैं.’(satyagrah)
कोरोना के बाद का भारत विषय पर आयोजित 4 दिवसीय वेवनार सम्पन्न
समाजवादी समागम, वर्कर्स यूनिटी, जनता वीकली, पैगाम, बहुजन संवाद द्वारा कोरोना के बाद का भारत विषय पर आयोजित 4 दिवसीय वेवनार के अंतिम दिन योगेंद्र यादव, हरभजन सिंह सिद्धू और नीरज जैन ने अपने विचार साझा किये।
स्वराज इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं जय किसान आंदोलन के नेता योगेंद्र यादव ने कहा कि इतिहास इस बात का गवाह है कि दुनिया में जब कोई आपदा होती है, तब उस समाज की जितनी भी कमियां होती हैं, वह सब बाहर आ जाती हैं। संकट, समाज की व्यवस्था को नए रूप में पेश करता है। जिनके पास ताकत है वह संकट से उबर सकता है और प्रबल होता हैं। गरीब सुविधा के अभाव में कमजोर होता जाता है। हर संकट एक अवसर होता है यूरोप के तमाम देशों में वेल्थ टैक्स, इन्हेरेटन्स टैक्स पर चर्चा शुरू हो गई है पांच बड़ी बातें जिन्हें 19वीं सदी से मान लिया गया था जिसे 21वीं सदी में भी दोहराया जा रहा है। उन्होंने 7 बातें बनाई बताई जिन पर विचार किया जाना चाहिए।
सेल्फ रूल यानी स्वराज आज लोकतंत्र लोगों पर हावी हो गया है, भावनात्मक लगाव- आज समुदाय जाति धर्म राष्ट्र द्वारा इंसान को इंसान से अलग किया जा रहा है, खुशहाली- पूंजीवाद से आर्थिक विकास तो होता है लेकिन इसकी कई कमियां भी है। समाजवादियों ने पहले ही पूंजीवाद का विरोध कर उसकी कमियां गिनाई थी। कुछ लोगों के लिए खुशहाली तो कुछ लोगों के लिए बदहाली लाती है, विज्ञान -जो जितना ज्ञान देता है वह अहंकार वश दूसरे के ज्ञान को दबाता है। अपने आप से जुड़े- मन की शांति के लिए कोविड-19 के बहाने लोकतंत्र का बचा खुचा खाका को नेस्तनाबूद करने काम किया जा रहा है। लोकतंत्र की हत्या धीरे-धीरे की जा रही है 19वीं सदी का नंगा नाच पूंजीवाद लाओ और धन कमाओ को बढ़ावा दिया जा रहा है।
सरकारों ने कोरोना महामारी के सामने घुटने टेक दिए हैं। उन्होंने जनता को अपने हाल पर छोड़ दिया है । अब हमें ही कोरोना संकट से बचने के लिए ठोस कदम उठाना चाहिए इसके लिए हमें लोगों में कोरोना की हकीकत पेश करनी चाहिए।
उन्होंने कहा कि वे राष्ट्र निर्माण हेतु टीम बनाकर अन्याय के खिलाफ लोगों के बीच जाकर कार्य करेंगे। यह अभूतपूर्व संकट है सरकार मुकाबला करने में असफल है स्वयं को लोगों की बात सुनकर सच उनतक पहुंचाना है उन्हें विकल्प बताना है। हमारी सरकार से मांग है कि सभी को फ्री इलाज मिले क्योंकि यह हमारा अधिकार है। सब को 3 माह तक हर माह प्रति व्यक्ति को मुफ्त राशन मिले जिसमे 10 किलो अनाज, आधा किलो तेल, डेढ़ किलो दाल, आधा किलो शक्कर शामिल हो, हर व्यक्ति को लॉकडाउन के दौरान हुए नुकसान से बचने के लिए 10 हजार रुपये एकमुश्त रकम दी जाए, मनरेगा में 200 दिन का रोजगार दिया जाए। जिन वर्कर्स की छटनी कर निकाला जा रहा है उनके नुकसान की भरपाई की जाए। सैलरी पर सब्सिडी दी जाए। लोन पर ब्याज की अदायगी से मुक्ति। इन कामों के लिए सरकार कोई कमी ना होने दें।
92 लाख की सदस्यता वाली जे पी के द्वारा स्थापित हिन्द मज़दूर सभा के राष्ट्रीय महामंत्री हरभजन सिंह सिद्धू ने कहा कि हमारे देश में 54 करोड़ श्रमिक में से 7% श्रमिक संगठित है 93% असंगठित है। सरकार ने कंपनियों को खुली लूट की अनुमति दे दी है। वर्करों को व्हीआरएस और सीआरएस के नाम से बाहर निकाला जा रहा है। पहले श्रमिकों ने लंबा संघर्ष कर पूंजीवादी गठजोड़ को बाहर किया था ।
अब वर्तमान सरकार ने कोरोना काल में 44 श्रम कानून बनाकर 4 कोड लागू किया है। जिसमें आठ घंटे के काम को 12 घंटे कर श्रमिकों का शोषण किया जाएगा तथा श्रमिकों के हित की कोई जिम्मेदारी नियोक्ता यानी रोजगार देने वाले अर्थात कारखाने के मालिक की नहीं होगी।
उन्होंने कहा केंद्र श्रमिक संगठनों ने 10 सूत्रीय मांगपत्र को लेकर 3 जुलाई को राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिरोध किया है। कोयला उद्योग को निजीकरण से बचाने के लिए तीन दिन की हड़ताल की, डिफेंस के श्रमिक भी आंदोलनरत हैं। हम रेलवे के निजीकरण को भी गंभीर चुनौती देंगे ।
आल इण्डिया रेलवे मेंस फेडरेशन की हड़ताल ने इंदिरा गांधी की तानाशाही को चुनौती दी थी, अब हम फिर चुनौती देने के लिए कमर कस चुके हैं।
देश के प्रमुख अर्थशास्त्री एवं लोकायत के प्रमुख नीरज कुमार जैन ने कहा कि भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था वैसे ही खराब है, भारत को बीमारी की राजधानी कहा जाता है। परन्तु सरकार इस ओर ध्यान नहीं दे रही है वह केवल कारपोरेट के मुनाफे को पुनः पटरी पर लाने के लिए काम कर रही है। गरीब भले ही मरे लेकिन कारखाने चलने चाहिए। सरकार ने अब यह भी कहना बंद कर दिया है कि हमारे देश में कोरोना के मरीज कम है। कोरोना के मामले में हम नंबर तीन पर पहुंच गए हैं। प्रधानमंत्री ने भी कोरोना पर बोलना अब बंद कर दिया है। उन्होंने कहा कि सरकार कोरोना पर नियंत्रण कर सकती थी। यूरोप और अमेरिका की यदि बात की जाए तो वहां भी लोग मर रहे हैं और हमारे यहां भी। लेकिन हमारे यहां मृत्यु दर कुछ कम है क्या इतने से संतोष किया जा सकता है?
जिन देशों ने इस बीमारी में सफलतापूर्वक संघर्ष किया है और नियंत्रित किया है उन देशों की चर्चा ही नहीं की जा रही है । जैसे क्यूबा, वेनेजुएला ने बहुत संघर्ष से शानदार सफलता प्राप्त की है आज दुनिया में 5 लाख से ज्यादा लोग मरे हैं। यदि मृत्यु दर दुनिया में क्यूबा, वेनेजुएला की दर पर होती तो आज मुश्किल से 30 से 40 हजार लोग ही मरे होते। पूंजीवादी व्यवस्था कंपनियों के नफे की चिंता करती है लोगों के स्वास्थ्य पर खर्चा कम से कम करना चाहती हैं। इसके चलते भारत बीमारी की रोकथाम के लिए कदम उठाने की बजाय लॉकडाउन में विलंब किया गया। अचानक 24 मार्च को लॉकडाउन घोषित कर दिया। उन देशों ने जिन्होंने सफलता प्राप्त की उन्होंने जैसे ही मौत की खबरें आना शुरू हुई, डब्ल्यूएचओ ने सचेत किया उन देशों ने बाहरी लोगों के आने पर प्रतिबंध लगा दिया और टेस्टिंग शुरू कर दी। हमारे देश में बिना तैयारी के लॉकडाउन लगा दिया। भारत में डायबिटीज टीबी से लाखों लोग इलाज के अभाव में मर जाते हैं। सीएचसी का सरकारी आंकड़ा बताता है कि जितने होना चाहिए उनमें से 20% ही डॉक्टर है भारत में स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च कम है। हम स्वास्थ्य सेवाओं पर जीडीपी का 2% ही खर्च करते हैं यूरोप के देश 5 से 8% खर्च करते हैं विकासशील देशों में अपना जीडीपी का 32% खर्च करते हैं। भारत में प्रति व्यक्ति इलाज खर्च 1100 है यूरोप के देश में प्रति व्यक्ति 3 लाख प्रतिवर्ष खर्च करते हैं। भारत सरकार नहीं के बराबर खर्च करती है। वहीं प्राइवेट अस्पतालों को सब्सिडी देकर बढ़ावा दिया जा रहा है । कुल इलाज पर लोग अपनी जेब से लगभग 65% खर्च करते हैं । विदेशों में सरकारी प्राइवेट अस्पतालों पर कम, सरकारी अस्पतालों पर ज्यादा खर्च करती है। डेढ़ प्रतिशत स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च को बढ़ाकर दोगुना करना हो तो सरकार को लगभग साढे तीन लाख करोड़ रुपए खर्च करना होगा । भारत सरकार अमीरों को जो टैक्स में छूट देती है वह साढ़े छह लाख करोड़ है और जो लोन माफी दी जाती है वह भी सालाना दो से तीन लाख करोड़ है इसके अलावा अमीरों को कई छूट दी जाती है। यदि सरकार इन अमीरों पर 2% टैक्स लगाए तो भारत सरकार लगभग साढ़े नौ लाख करोड़ आमदनी कर सकती है। यदि अमीरों पर वारसान टैक्स लगाए तो सरकार के पास पांच से छह लाख करोड़ जमा हो सकते हैं इस तरह सरकार 20 से 25 लाख करोड रुपए की आमदनी बढ़ा सकती है इससे स्वास्थ्य सुविधाओं पर डबल या तिगुना खर्च किया जा सकता है।
इस संकट से निपटने के लिए हॉस्पिटल को दुरस्त किया जाना चाहिए यानी सुविधाएं देना चाहिए, बड़े पैमाने पर संपर्कों को ट्रेस किया जाए तथा जांच की जाए क्वारंटाइन कर उसे आर्थिक सहायता दी जानी चाहिए तथा प्रभावितों को मुफ्त राशन देना चाहिए। लॉकडाउन से प्रभावित को केस ट्रांसफर और मुफ्त राशन दिया जाना चाहिए। उन्होंने स्वास्थ्य सेवाओं के राष्ट्रीकरण की मांग की।
उल्लेखनीय है कि वेबनार का संयोजन डॉ सुनीलम, आकृति भाटिया, संदीप राउजी ने किया। पहले दिन अर्थशास्त्री प्रो अरुण कुमार, जस्टिस कोलसे पाटिल, प्रफुल्ल सामन्त रा, दूसरे दिन रमाशंकर सिंह, गौहर रजा, मेधा पाटकर, तीसरे दिन वी एम सिंह, अमरजीत जीत कौर, गणेश देवी ने वेबनार को संबोधित किया था। सभी वक्ताओं के भाषण वर्कर्स यूनिटी के यूट्यूब पर उपलब्ध हैं।(sapress)
-कृष्ण कांत
सभी मीडिया हाउस ने आज एक खबर चलाई हैं, जिसका सार-संक्षेप है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने चीन से बात की और चीन पीछे हट गया। अब सवाल है कि अगर डोभालजी इतने जादुई आदमी हैं तो अब तक क्या कर रहे थे? अप्रैल से ही घुसपैठ की खबरें थीं। जून की शुरुआत में वार्ता हुई। फिर 15 जून को सैनिकों में झड़पें हुईं और 20 जवान शहीद हो गए, दस बंधक बनाए गए। आज 6 जुलाई है।
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के सलाहकार के पास राष्ट्रीय सुरक्षा से जरूरी कौन सा काम होता है जो उनके जागने में इतनी देर हो जाती है?
अब एक और दिलचस्प मामला देखिए। खबर आई है कि चीन पीछे हट गया है। सुबह से अलग-अलग रिपोर्ट पढ़ीं। सारी सूत्रों के हवाले से हैं। इन दर्जनों खबरों के मुताबिक, चीन एक किलोमीटर, डेढ़ किलोमीटर और दो किलोमीटर पीछे हटा है. मंत्री और सरकार कुछ बोलते नहीं।
अगर देश की सीमा पर खतरा है तो जनता को क्यों नहीं बताया जाना चाहिए? शहीद होने नेता नहीं जाता, अपनी जमीन बचाने के लिए कुर्बानी तो जनता ही देती है. फिर जनता से झूठ क्यों बोला जाता है?
अगर कोई देश घुसपैठ करके आया और वापस चला गया, यह तो देश की जीत हुई। इस जीत की सही सूचना भी जनता को क्यों नहीं दी जाती? जो जनता अपने बेटों के शहादत का मातम मनाती है, उससे जीत के जश्न का मौका क्यों छीन लिया जाता है?
यह सूत्र कौन है जो अपने हवाले से अडग़म-बडग़म कुछ भी छपवाता रहता है? इस सूत्र को ही देश का रक्षामंत्री क्यों नहीं बना दिया जाना चाहिए?
जब बताने के लिए स्पष्ट सूचना नहीं होती, तब सूत्र एक्टिव किए जाते हैं और फर्जीवाड़ा फैलाते हैं।
प्रधानमंत्री कह चुके हैं कि न कोई घुसा है, न किसी ने कब्जा किया है। जब कोई नहीं घुसा तो पीछे कौन हटा और हटकर कहां गया? जहां से हटा वहां अब क्या होगा? भारत भी हटा कि आगे बढक़र अपनी असली सीमा से सटा? हमारी जो जमीन कब्जे में थी, वह छूटी कि नहीं छूटी?
असल में किसी को कुछ नहीं पता. सूत्रों के हवाले से सुर्रा छोड़ते रहो।
-शिशिर सोनी
भारत चीन सीमा पर तनाव है, और तनाव की कोई सीमा नहीं है। बीस वीर जवानों की शहादत का बदला एप्स अनइस्टॉल कर लिया जा रहा है। हमारा राष्ट्रवाद भी गजब है- एक हीरो रहा सनी देओल तो इसीलिए चुनाव जीत गया क्यों कि उसने एक फिल्म में पाकिस्तान का हैंडपंप उखाड़ डाला था। मोदी जी कल तक जिस जिनपिंग से गले मिल रहे थे आज वहीं गले पड़ रहा है। मोदी जी को नेहरू जी को कोसने से फुर्सत मिले तो वे जिनपिंग के पिंग-पिंग पर ध्यान दें। प्रधानसेवक इतिहास में उलझे रहे, चीनी राष्ट्रपति ने भूगोल में हेरफेर कर दी। मोदी जी चीनी राष्ट्रपति से कोई अठारह बार मिल चुके हैं। इतना तो इंसान पूरी जिंदगी खुद से नहीं मिल पाता।
चीन पैदाइशी धूर्त देश है। जिसने डिस्कवरी ऑफ इंडिया लिखने वाले नेता को धोखा दे दिया, वह डिस्कवरी चैनल के अभिनेता को क्या समझता? गर्व की बात ये है कि हमारे मुकाबले चीन का पलड़ा बेहद कमजोर है। हमारे पास न्यूज एंकर और वीर रस के कवि भी तो हैं। जहां न पहुंचे तुलसीदास गोस्वामी वहां पहुंचे अर्णब गोस्वामी। अकेले अर्णब गोस्वामी की ही जंजीर खोल दी जाए तो चीन भाग छूटेगा। कितना भी बड़ा सूरमा हो बकवास से तो घबराता है।
मेरे हिसाब से चीन के बौखलाहट का बड़ा कारण ट्रंप यात्रा की दौरान अहमदाबाद में बनाई गई वो दीवार है जिसके पीछे गरीबी को ढाकी गई थी। एक ही मास्टर स्ट्रोक में मोदी जी ने चीन की कमर तोड़ कर रख दी। अब तक लाखों पर्यटक चीन की दीवार देखने जाते थे वो सब अहमदाबाद की दीवार देखने आएंगे।
संग्राम शत्रु से हो या जीवन का, बल से नहीं आत्मबल से जीता जाता है। आत्मबल आता है सच्चाई से। दान गुप्त और खर्च ओपन तो सुना था, लेकिन दान ओपन और खर्च गुप्त, ये पीएम-केयर्स फंड से ही पता लगा है। (फेसबुक)
(संपत सरल का कविता पाठ )
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गालवान घाटी से इस वक्त खुश-खबर आ रही है। हमारे टीवी चैनल पहले यह दावा कर रहे हैं कि वास्तविक नियंत्रण रेखा से चीन पीछे हट रहा है। चीन अब घुटने टेक रहा है। अपनी हठधर्मी छोड़ रहा है लेकिन इस तरह के बहुत-से वाक्य बोलने के बाद वे दबी जुबान से यह भी कह रहे हैं कि दोनों देश यानी भारत भी उस रेखा से पीछे हट रहा है। वे यह भी बता रहे हैं कि हमारे सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और चीनी विदेश मंत्री वांग यी के बीच कल दो घंटे वीडियो-बातचीत हुई। इसी बातचीत के बाद दोनों देशों ने अपनी सेनाओं को पीछे हटाने का फैसला किया है लेकिन हमारे टीवी चैनलों के अति उत्साही एंकर साथ-साथ यह भी कह रहे हैं कि धोखेबाज-चीन पर भरोसा नहीं किया जा सकता। एक अर्थ में हमारे ये टीवी एंकर चीन के बड़बोले अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ से टक्कर लेते दिखाई पड़ते हैं। यह अच्छा हुआ कि भारत सरकार हमारे इन एंकरों की बेलगाम और उकसाऊ बातों में बिल्कुल नहीं फंसी और उसने संयम से काम लिया।
यह अलग बात है कि टीवी चैनलों को देखनेवाले करोड़ों भारतीय नागरिक चिंताग्रस्त हो गए और उत्तेजित होकर उन्होंने चीनी माल का बहिष्कार भी शुरु कर दिया और चीनी राष्ट्रपति शी चिन फिंग के पुतले फूंकने भी शुरु कर दिए लेकिन सरकार और भाजपा के किसी नेता ने इस तरह के कोई भी गैर-जिम्मेदाराना निर्देश नहीं दिए।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, रक्षा मंत्री राजनाथसिंह और विदेश मंत्री जयशंकर ने चीन का नाम लेकर एक भी शब्द उत्तेजक नहीं बोला। उन्होंने हमारी फौज के जवानों के बलिदान को पूरा सम्मान दिया, लद्दाख की अपनी यात्रा और भाषण से फौज के मनोबल में चार चांद लगा दिए और गलवान की मुठभेड़ को लेकर चीन पर जितना भी निराकार दबाव बनाना जरुरी था, बनाया। जैसे चीनी ‘एप्स’ पर तात्कालिक प्रतिबंध, चीन की अनेक भारतीय-प्रायोजनाओं पर रोक की धमकी और लद्दाख में विशेष फौजी जमाव आदि!
उधर चीन ने भी अपनी प्रतिक्रिया को संयत और सीमित रखा। इन बातों से दोनों सरकारों ने यही संदेश दिया कि गलवान घाटी में हुई मुठभेड़ तात्कालिक और आकस्मिक थी। वह दोनों सरकारों के सुनियोजित षडय़ंत्र का परिणाम नहीं थी। मैं 16 जून से यही कह रहा था और चाहता था कि दोनों देशों के शीर्ष नेता सीधे बात करें तो सारा मामला हल हो सकता है। अच्छा हुआ कि दोभाल ने पहल की।
परिणाम अच्छे हैं। डोभाल को अभी मंत्री का ओहदा तो मिला ही हुआ है। अब उनकी राजनीतिक हैसियत इस ओहदे से भी ऊपर हो जाएगी। अब उन्हें सीमा-विवाद के स्थायी हल की पहल भी करनी चाहिए। (nayaindia.com)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-रमेश शर्मा
आप इसे विरोधाभास बिलकुल मत मानिए कि - भारत सरकार की तमाम रिपोर्टों में यदि गरीबी कम हो रही है तो गरीबों के नाम पर 'कल्याण योजनाओं' का विस्तार क्यों हो रहा है? क्या गरीबी, मात्र अन्न के अभाव का परिणाम है? क्या मौज़ूदा गरीबी, बहुसंख्यकों की संसाधनहीनता का भी प्रतीक नहीं है? और फिर गरीबी और आत्मनिर्भरता के बीच शब्दों और अर्थों के क्या संबंध हैं? यदि आप सचमुच उत्तर तलाशना चाहते हैं तो शिद्दत के साथ आज से लगभग 110 बरस पूर्व राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के लिखे 'हिन्द स्वराज' को अवश्य पढ़िए। और फिर पूरी निर्भीकता के साथ समाज और सरकार को सवालों के समानांतर खड़े करने का नैतिक सामर्थ्य जुटाइए।
महात्मा गांधी सहित दुनिया के कई क्रांतिकारी मानते रहे हैं कि गरीबी मूलतः कोई पृथक समस्या नहीं, बल्कि विकास के अनेक सुलझे-उलझे समीकरणों और समस्याओं का समग्र परिणाम है। इसके संबंध प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से समाज की जीवनचर्या और उपभोग की सीमाओं तथा राज्य की नीतियों और सरकार के दिशा-दशा के निर्धारण से हमेशा जुड़े रहे हैं। इसीलिये गरीबी की उत्पत्ति और उन्मूलन दोनों ही समाज और सरकार के समन्वित ढांचों से ही संभव है।
समाज का आचरण भी राज्य की नीतियों और दिशाओं का निर्धारण करता है। विकास के विकल्प और प्रकल्प, वास्तव में बहुसंख्यक समाज (भारत के संदर्भ में मध्यम वर्ग) के लिए सुविधाएं जुटाने के तर्कों पर खड़े किये जाते रहे हैं। उत्खनन, औद्योगीकरण, अनियंत्रित शहरीकरण और आधारभूत संरचनाओं का विस्तार आदि के लिए विकास का अर्थ उस समाज को जाने-अनजाने विपन्न बनाना भी है, जिनकी निर्भरता, प्राकृतिक संसाधनों अर्थात जल जंगल और जमीन पर रही है।
यदि ऐसा नहीं होता तो प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न जिले ही सबसे अधिक विपन्न क्यों होते? आज हमें इसके लिए किसी नए शोध की जरूरत नहीं। भारत के पचास (तथाकथित) गरीबतम जिलों का नया इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र स्वयं सब कुछ बयां कर रहा है। यह और बात है कि समाज और सरकार इसके वास्तविकताओं को स्वीकार करे न करे।
उड़ीसा का केंदुझर हो या झारखण्ड का दुमका अथवा मध्यप्रदेश का बैतूल या छत्तीसगढ़ का कोरबा जिला हो। जो जिले, अकूत प्राकृतिक सम्पन्नता के लिए जाने जाते रहे, वही आज विपन्नता के लगभग स्थायी केंद्रबिंदु बने हुए हैं। गौरतलब है कि यही जिले अपने प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध संगठित अधिग्रहण के एवज में सरकार को सबसे अधिक राजस्व देते हैं।
मजेदार सत्य यह है कि संसाधनों से कमाए हुए राजस्व से ही वहां उन्नति और वृद्धि के नाम पर सरकारी मुलाजिम नियुक्त किए जाते हैं, जो विकास नामक मॉडल के लिए फिर सड़कों और रेलवे की योजनाएं बनाते हैं। इन सब योजनाओं और प्रयासों का तार्किक परिणाम है - प्राकृतिक संसाधनों के संगठित अधिग्रहण के लिए पगडंडियों और राजमार्गों की भूलभुलैया का मायाजाल बिछाना। इन विरोधाभासों पर प्रश्नचिन्ह खड़े करने को क़ानूनन पहले ही विकास विरोधी माना जा चुका है।
अब यदि केंदुझर के जानकी मांझी, दुमका के बाबूलाल महतो, बैतूल के बलराम गोंड और कोरबा की सूरजो बाई को ग़रीबी कल्याण योजना के मुआवज़े में कुछ अनाज मिल भी जाये तो क्या उसके बलबूते उनकी जिंदगी में कोई बड़ा बदलाव आ जाएगा? बस्तर के मनीष कुंजाम कहते हैं कि अब तक घोषित और पोषित नीतियाँ तो वास्तव में गरीबी के कृत्रिम उपचार की तरह है।
आप उन्हें संसाधनहीन करके इतना भी निरीह मत बना दीजिए कि वो मुट्ठीभर अनाज के खातिर अपना स्वाभिमान भी भूल जाएं। अब तक तो व्यवस्था केंद्रित हरेक नीतियां और उनकी नियतियाँ भ्रष्टाचार के अमरबेल का ही माध्यम साबित हुई हैं। और फिर यदि गरीबी उन्मूलन की नीतियों और नियतियों के लाभार्थी स्वयं व्यवस्था तंत्र में बैठे हुए लोग ही रहे हैं, तो जाहिर तौर पर तथाकथित विकास की इस व्यवस्था को बनाए रखने की जिद हम आसानी से समझ भी/ही सकते हैं।
उड़ीसा राज्य सरकार के अनुमान (2018) के मुताबिक़ केंदुझर जिला, हर बरस लुटते हुये खनिज संसाधनों के एवज में लगभग 1600 करोड़ रुपए का राजस्व उड़ीसा सरकार को देता है। विगत 20 बरस में यह राशि अनुमानतः 30000 करोड़ रुपए होती है। इस राजस्व को गरीबी रेखा से नीचे गुजर बसर कर रहे परिवारों के मध्य यदि समान रूप से बांटा जाता तो भी क्या मुआवजा अथवा अस्थायी रोजगार, उनके अधिग्रहित हो चुके जमीन और जंगल से ज्यादा सम्मानजनक और टिकाऊ होते?
मुआवजे के इस सुलझे-उलझे समीकरणों का यथार्थ है कि, केंदुझर से अर्जित राजस्व का उपयोग लोगों के विकास के साधन नहीं बल्कि उनके ही अपने जीविकोपार्जन के स्थायी संसाधनों के अधिग्रहण के लिये हुआ। जिसका परिणाम हुआ कि केंदुझर, वर्ष 2001 में देश के ग़रीबतम जिलों में दर्ज़ था और आज दो दशक के बाद भी उसी पायदान पर भौंचक खड़े रहने के लिये अभिशप्त है।
जाहिर है जानकी मांझी और उसके जैसे हजारों विपन्न परिवारों के लिए गरीब कल्याण योजना, इस बरस का मानसून है। संभव है, अगले बरस ऐसी ही किसी योजना का कोई नया नामकरण हो जाए। एक चिरस्थायी गरीबी रेखा की सार्वजनिक सूची, मालूम नहीं उसकी विपन्नता का परिचय पत्र है अथवा समग्र व्यवस्था की नाक़ाबिलियत की जिंदा मिसाल है।
उन लगभग 80 करोड़ परिवारों को जिन्हें गरीब कल्याण योजना का पात्र माना गया अथवा माना जाएगा के लिए मिलने वाली राहत सामग्री निःसंदेह उपयोगी तो है - लेकिन उन समूचे सवालों का जवाब नहीं, जिसकी वजह से उसे गरीब साबित होना पड़ा है।
अच्छा होता अन्नदान के इस राजनैतिक रिवाज की बजाए सरकार और समाज उसे अन्न उत्पादन का बेहतरीन साधन-संसाधन सुनिश्चित करतीं। यह तात्कालिक जरूरत को पूरा करने में भले ही विफल रहती, किन्तु कम से कम उन करोड़ों लोगों को स्वाभिमानपूर्वक अपना भाग्य विधाता बनने का अवसर तो जरूर देती। संभवतः करोड़ों सीमान्त किसानों के लिए उत्पादन व्यवस्था को दुरुस्त करते हुए, सरकार विकास के पथ पर बिना किसी बैसाखी के चलने वाले स्वाभिमानी समाज के सुरक्षित भविष्य का मार्ग ही गढ़ती। लेकिन जिस व्यवस्था में महात्मा गांधी के दूरगामी स्वावलम्बी समाज के उद्द्येश्य के बजाए, गरीबी के राजनैतिक नारे के साथ विकास योजनाओं के अल्पकालिक लाभार्थी तैयार करना हो, वहां ये तर्क विगत 70 बरसों से अब तक तो बेमानी ही साबित होते रहे हैं।
आज ज़रूरत गरीबी उन्मूलन के एक समग्र दृष्टि और उसके राजनैतिक स्वीकृति की है। गरीब कल्याण योजना उस समग्र दृष्टि और राजनैतिक योजना का एक पक्ष तो हो सकता हैं, लेकिन बहुसंख्यक वंचितों के जल जंगल और जमीन के बुनियादी अधिकारों को सुनिश्चित किये बिना कोई भी आधी-पूरी नीतियां और उसकी नियतियां कभी आधारभूत परिवर्तन ला पायेगी इसमें संशय था और रहेगा।
आजादी के स्वर्ण जयंती वर्ष आते-आते यदि समाज और सरकार उन करोड़ों लोगों को उन पर बेताल की तरह लादी गयी वंचना से मुक्ति का मार्ग गढ़ने का कोई अंतिम अवसर देती है तो यह इतिहास बनेगा। वरना महात्मा गाँधी के हिन्द स्वराज और उसमें प्रतिपादित भारत निर्माण के मार्ग को भूल जाने वाले समाज के रूप में कदाचित हम हमेशा के लिये अभिशप्त हो जायेंगे। हम आज ऐसे अनगिनत लंबित निर्णयों के निर्णायक मुक़ाम पर खड़े हैं। (downtoearth)
1939 मे गांधीजी ने मीरा बेन को बालाकोट भेजा था. वहां जाकर उन्होंने अपनी डायरी में लिखा कि ‘ईश्वर करे, कोई नेता इस छोटे से गांव में न पहुंचे!’
-रामचंद्र गुहा
सैन्य इतिहासकारों के लिए बालाकोट वह जगह है जहां मई 1831 में महाराजा रणजीत सिंह और सैयद अहमद बरेलवी की फौजों के बीच एक बड़ा युद्ध हुआ था. उधर, आम आदमी बालाकोट को एक ऐसी जगह के तौर पर जानता है जहां फरवरी 2019 में भारतीय वायु सेना ने जैश-ए-मोहम्मद के एक ट्रेनिंग कैंप पर हमला किया था.
इस लेख का विषय भी बालाकोट ही है, हालांकि उसका संबंध एक तीसरी घटना से है जो बाकी दोनों घटनाओं के दरम्यान घटी थी. मई 1939 में एक महान भारतीय देशभक्त ने बालाकोट और इसके आसपास की जगहों की यात्रा की थी. इस भारतीय ने अपनी डायरी में यहां के भूगोल और लोगों का एक विवरण भी लिखा था. इस अप्रकाशित डायरी की एक प्रति हाल ही में मुझे आर्काइव्स में मिली.
इस भारतीय देशभक्त का नाम कभी मेडलिन स्लेड हुआ करता था. वे एक ब्रिटिश एडमिरल की बेटी थीं जो बाद में महात्मा गांधी की अनुयायी बन गईं और अहमदाबाद और सेवाग्राम स्थित उनके आश्रमों में रहीं. उन्होंने अपना नाम मीरा रख लिया था. भारत से उन्हें इतना प्रेम था कि वे आजादी की लड़ाई में शामिल हुईं और उन्होंने लंबे समय तक जेल भी काटी. मीरा बेन ने शोषितों का पक्ष लेने के लिए देश और नस्ल की दीवार तोड़ दी थी. स्वाधीनता संग्राम से जुड़े साहित्य में उनका उल्लेख आदर के साथ किया जाता है.
मैं मीरा बेन के बारे में काफी कुछ जानता हूं, लेकिन यह मुझे हाल ही में पता चला कि उन्होंने 1939 में बालाकोट की यात्रा की थी. तब भारत और पाकिस्तान दो अलग मुल्क नहीं थे. बालाकोट ब्रिटिश भारत के नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविसेंज (एनडब्लूयएफपी) में पड़ता था. यह सूबा खुदाई खिदमतगार नाम के एक समूह का भी इलाका था. इसकी कमान एक ऐसे शख्स के हाथ में थी जो गांधी के मीरा बेन से भी बड़े अनुयायी थे. उनका नाम था खान अब्दुल गफ्फार खान. उन्होंने अपने नैतिक बल से आक्रामक पठानों में अहिंसा और सहिष्णुता भर दी थी.
1939 के बसंत की बात है. गांधी जी ने मीरा बेन को फ्रंटियर प्रोविंस भेजा. मकसद था इस इलाके में चरखा कताई और बुनाई का प्रचार. इसी यात्रा के दौरान मीरा बेन एबटाबाद (जहां अमेरिकी नेवी सील्स ने ओसामा बिन लादेन को मार गिराया था) से सड़क के जरिये बालाकोट गई थीं. मीरा बेन ने अपनी डायरी में इस यात्रा का वर्णन कुछ ऐसे किया है: ‘गांवों-खेतों के चारों ओर और नालों के किनारे हरे-भरे पेड़ दिखते हैं. पहाड़ी ढलानों पर सीढ़ीदार खेत समुंदर की लहरों की तरह नजर आते हैं जिनमें भूरे और हरे रंग की विविधिता के दर्शन होते हैं. इस छोटी सी दुनिया को नीली पहाड़ियां घेरे हैं जिनके पार विशाल हिमशिखर हैं.’
बालाकोट का रास्ता आधा तय कर चुकने के बाद मीरा बेन और उनके खुदाई खितमतगार साथी एक जगह पर रात बिताने के लिए रुके. अगले दिन सुबह जल्दी उठकर मीराबेन ने थोड़ी सैर की. उन्होंने लिखा है, ‘खेतों में काम शुरू हो चुका था. मक्का की फसल खलिहान में थी और साथ ही साथ बुआई का काम भी चल रहा था. जब मैं अपने ठिकाने पर लौट रही थी तो मुझे कोयल की मीठी कूक सुनाई दी.’
नाश्ते के बाद मीराबेन और उनके साथी बालाकोट की तरफ रवाना हो गए. रास्ते में उन्होंने वन विभाग का एक बंगला दिखा जिसे देखकर मीरा बेन को ख्याल आया कि ‘इस जगह बापूजी थोड़ा विश्राम कर सकते हैं.’ यह बंगला 3900 फीट की आरामदायक ऊंचाई पर था: ‘जंगल में अकेली इमारत जिसके पीछे हिम शिखर थे और नीचे पर्वत और घाटियां. यह निश्चित तौर पर एक आकर्षक ठिकाना है, पर यहां पर पानी की कमी है.’ (गांधी इससे पिछले साल ही फ्रंटियर प्रोविंस आए थे और फिर से यहां की यात्रा के बारे में सोच रहे थे. हालांकि ऐसा हो न सका, लेकिन आज यह सोचना ही अजीब लगता है कि वे बालाकोट के इतने नजदीक स्थित किसी बंगले में स्वास्थ्य लाभ कर सकते थे.
बालाकोट गांव का रास्ता कुनहर नदी की घाटी से होकर जाता था. सड़क ‘संकरी’ और ‘खराब’ थी. ‘खड़ी चढ़ाई और मोड़’ थे. गड्ढों और मोड़ों वाली इस सड़क पर गाड़ी बहुत दिक्कत के साथ चल रही थी. मीरा बेन ने लिखा है कि वे इस जगह की खूबसूरती में खो गई थीं. उनके शब्द हैं, ‘हालांकि सड़क नदी के दाएं किनारे के साथ-साथ ही चल रही है और बर्फीले पहाड़ों से नीचे आ रही इस नदी का रूप बहुत रौद्र है. पहाड़ी ढलानों से तेजी से नीचे उतरती और कई मोड़ों से टकराती इस नदी में वैसी ही विशाल लहरें उठ रही हैं जैसी साबरमती में बाढ़ के समय उठा करती हैं. इसके किनारों पर जहां-तहां उन विशाल पेड़ों के तने पड़े हैं जो इसके रास्ते में आ गए.’
अपनी मंजिल पर पहुंचने के बाद मीरा बेन ने उस जगह का भी सजीव वर्णन किया है. उन्होंने लिखा है, ‘बालाकोट एक छोटी से पहाड़ी के एक तरफ बसा एक बड़ा और घना गांव है जो किसी मधुमक्खी के छत्ते जैसा लगता है. यह कंगन घाटी के ठीक मुहाने पर बसा है. यहां कोई सड़क नहीं है. सिर्फ पत्थरों से बने पैदल रास्ते हैं जो सीढ़ियों जैसे ज्यादा लगते हैं. अक्सर इन रास्तों से पानी की कोई धारा भी गुजर रही होती है. बाजार भी घना बसा है और नीचे के घर की छत ऊपर वाले घर के लिए छज्जे का काम करती है. दुकानदारों में से कई हिंदू और सिख हैं.’
मीरा बेन को बताया गया कि बालाकोट में रहने वाले गुज्जर कताई और बुनाई करते हैं और बहुत अच्छे कंबल बनाते हैं. लेकिन यह जानकर उन्हें निराशा हुई कि ये गुज्जर अभी वहां नहीं थे. वे हर बार की तरह साल के इस वक्त ऊंचे पहाड़ों में स्थित चरागाहों की तरफ जा चुके थे. यह जानकर मीरा बेन निराश हो गईं. इस पर उनके साथ आए खुदाई खिदमतगार के एक नेता अब्बास खान ने कहा कि वे किसी को गुज्जरों के पास भेजेंगे ताकि उनमें से कुछ अगले दिन तक नीचे यानी गांव में आ जाएं. ऐसा ही हुआ. गुज्जरों के गांव में आने के बाद मीरा बेन ने उनसे ऊन के उनके काम के बारे में कई सवाल किए.
बालाकोट से मीरा बेन और उनके साथी और भी ऊंचे पहाड़ों की तरफ गए. वे भोगरमंग नाम के एक गांव में रुके. यहां करीने से बनाए गए धान के खेत थे और गांव वाले बुनाई और मधुमक्खी पालन का काम भी कर रहे थे. मीरा बेन इससे बहुत प्रभावित हुईं. लेकिन इससे भी ज्यादा खुशी उन्हें एक दूसरी चीज से हुई. जैसा कि उन्होंने अपनी डायरी में लिखा है, ‘जिस चीज ने इस गांव में मुझे सबसे ज्यादा खुशी दी वह थी हिंदू-मुस्लिम एकता... एक हिंदू परिवार, जिसका मुखिया, सफेद बालों वाला एक छोटे कद का शख्स था, गांव के नौजवान खान समुदाय के लोगों के साथ बहुत प्रेम से रह रहा था. इन लोगों का कहना था कि यह शख्स उनके पिता और दादा का दोस्त रहा है और दोनों समुदायों के बीच हमेशा आपसी सहयोग और एक-दूसरे की फिक्र का संबंध रहा है.’ यह सुनकर मीरा बेन ने आगे लिखा, ‘स्वाभाविक ही है कि मेरे हृदय में प्रार्थना उठी कि कोई नेता इस छोटे से गांव में न पहुंचे और इसके मधुर और सहज जीवन पर ग्रहण न लगे.’
हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल यह गांव मीरा बेन की यात्रा का आखिरी पड़ाव था. अगली सुबह वे एबटाबाद लौट आईं. कुछ ही हफ्ते बाद वे सेवाग्राम आश्रम में थीं. सितंबर 1939 में यूरोप में दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया जिसने इतिहास को हमेशा के लिए बदल दिया. भारत और इसके लोगों के लिए इस लड़ाई के जो नतीजे रहे उनमें से एक हिंदू और मुसलमानों के बीच मौजूद दरार का चौड़ा होना भी था. मीरा बेन को आशंका थी कि इस आग को नेता और भड़का रहे थे जो दोनों समुदायों में अच्छी-खासी तादाद में थे. युद्ध जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया, फ्रंटियर प्रोविंस में गफ्फार खान की पार्टी का आधार तेजी से सिमटता गया और मुस्लिम लीग का प्रभाव बढ़ता गया. इसके साथ ही यहां सांप्रदायिक सहिष्णुता पूरी तरह ध्वस्त हो गई. हालांकि यहां अगस्त 1947 के बाद वैसे खूनी दंगे नहीं हुए जैसे पंजाब में हुए थे, लेकिन यहां रह रहे हिंदुओं और सिखों को भी पाकिस्तान छोड़कर भारत में शरण लेनी पड़ी.
जिस बालाकोट में मीरा बेन 1939 में गई थीं वह आज पूरी तरह बदल चुका है. अब यहां का ताना-बाना बहुधार्मिक नहीं है. इसके बजाय यहां इस्लामी कट्टरवाद को बढ़ावा देने वाले जिहादियों का ट्रेनिंग कैंप है. बालाकोट के नजारे भी अब काफी बदल चुके होंगे जैसा कि दक्षिण एशिया के दूसरे पर्वतीय इलाकों में हुआ है, जहां जंगल तेजी से घटे हैं और पत्थर और लकड़ी के सुंदर मकानों की जगह कंक्रीट के बदसूरत ढांचों ने ले ली है. बालाकोट की स्थानीय शिल्प कलाएं भी विलुप्ति के कगार पर होंगी.
इस लेख में हमने ऐतिहासिक स्मृति के एक टुकड़े की बात की, लेकिन आखिर में मैं इस बारे में विचार करना चाहूंगा कि उस अतीत से हमारा वर्तमान क्या सीख ले सकता है? नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंसेज को आज खैबर पख्तूनख्वा कहा जाता है और यहां मुट्ठी भर ही हिंदू और सिख बचे हैं. दूसरी तरफ, भारत के ज्यादातर राज्यों में मुस्लिम अल्पसंख्यक काफी संख्या में हैं. क्या हम उम्मीद कर सकते हैं कि इस देश के गांवों में हिंदुओं और मुसलमानों में वही आपसी सहयोग और एक-दूसरे की फिक्र का माहौल बनाया जा सकेगा? या हमारे ‘नेता’ ऐसा नहीं होने देंगे?(satyagrah)