विचार/लेख
संजय श्रमण
मैं ऐसे सैकड़ों लोगों को जानता हूँ जो आर्थिक रूप से सक्षम हैं, जिनका समाज में बड़ा नेटवर्क यही और जो इस देश की व्यवस्था बदलने के लिए निर्णायक काम करना चाहते हैं।
लेकिन इन लोगों से बात करने पर पता चलता है कि ये लोग जानते ही नहीं कि असल बदलाव होता कैसे है। इनमें से अधिकांश लोग सच में ईमानदार हैं और उनके दिलों मे देश और अपने बच्चों के भविष्य की गहरी चिंताएं हैं।
ऐसे सभी लोगों से एक निवेदन मैं बार-बार करता रहा हूँ। आप इस देश के लोगों को नए तार्किक और वैज्ञानिक धर्म की तरफ ले जाइए। स्वयं बुद्ध का अनुशासन अपना लीजिए और ज्यादा से ज्यादा बहुजनों को बुद्ध के मार्ग पर ले आइए। इससे बड़ी और कोई क्रांति नहीं है।
भारत ही नहीं दुनिया में सभी बड़े बदलाव मूल रूप से धार्मिक बदलाव होते हैं। राजनीतिक या आर्थिक बदलाव सिर्फ कुकुरमुत्तों की तरह बारिश में उगकर खत्म हो जाते हैं। इसका उदाहरण आप भारत में देख सकते हैं।
औपचारिक रूप से कागज या सर्टिफिकेट की कोई जरूरत नहीं है, बल्कि उस तरह का धर्म परिवर्तन खतरनाक और नुकसान पहुंचाने वाला होता है।
आप दिल से और आचरण से बौद्ध बन जाइए। फिर देखिए कितनी तेजी से इस देश में बदलाव होता है। आप बहुत थोड़ी सी मेहनत से अपने मुहल्ले से शुरुआत करते हुए अपने गाँव या शहर में हजारों लोगों को एक साल के अंदर बुद्ध के मार्ग पर ला सकते हैं। आज के समाज में जिस तरह की असुरक्षा और घृणा का वातावरण बन रहा है उसको देखकर भारत के सभी बहुजन अपने जीवन में बड़ा बदलाव करने के लिए तड़प रहे हैं। इस तड़प को पहिचानिए और इसे एक निर्णय में बदल दीजिए।
अगर आप सच में कुछ बदलना चाहते हैं तो भारत के मनोविज्ञान को समझिए। राजनीति असल में एक लाठी है और धर्म एक तोप है। आप जब राजनीतिक आंदोलन की बात करते हैं तब आप असल में तोप को छोडक़र लाठी से लडऩे की बात कर रहे हैं।
बहुजनों को अब धर्म की तोप का इस्तेमाल करना सीखना चाहिए, अगर आप अपने प्राचीन शत्रुओं को धर्म की तोप का खुला इस्तेमाल करते हुए देखते हैं और खुद राजनीति की लाठी का इस्तेमाल करते हैं तो यकीन मानिए आप हारने की तैयारी कर रहे हैं।
अब सही समय आ चुका है। लाठी को कूढ़े में फेंकिए और तोप चलाना सीखिए।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जब मैं अपने पीएच.डी. शोधकार्य के लिए कोलंबिया युनिवर्सिटी गया तो पहली बार न्यूयार्क में मैंने टीवी देखा। मैंने मेरे पास बैठी अमेरिकी महिला से पूछा कि यह क्या है ? तो वे बोलीं, यह ‘इडियट बॉक्स’ है याने ‘मूरख बक्सा’! अर्थात यह मूर्खों का, मूर्खों के लिए, मूर्खों के द्वारा चलाए जानेवाला बक्सा है। उनकी यह टिप्पणी सुनकर मैं हतप्रभ रह गया लेकिन मैं कुछ बोला नहीं। आज भी मैं उनकी बात से पूरी तरह सहमत नहीं हूं। लेकिन भारतीय टीवी चैनलों का आजकल जो हाल है, उसे देखकर मुझे मदाम क्लेयर की वह सख्त टिप्पणी याद आ रही है। फिल्म कलाकार सुशांत राजपूत की हत्या हुई या आत्महत्या हुई, इस मुद्दे को लेकर हमारे टीवी चैनल लगभग पगला गए हैं। उन्होंने इस दुर्घटना को ऐसा रुप दे दिया है कि जैसे महात्मा गांधी की हत्या से भी यह अधिक गंभीर घटना है। पहले तो सिने-जगत के नामी-गिरामी कलाकारों और फिल्म-निर्माताओं को बदनाम करने की कोशिश की गई और अब सुशांत की महिला-मित्रों को तंग किया जा रहा है। सारी दुनिया को, चाहे वह गलत ही हो, यह पता चल रहा है कि सिने-जगत में कितनी नशाखोरी, कितना व्यभिचार, कितना दुराचार और कितनी लूट-पाट होती है। ऐसे लोगों पर दिन-रात ढोल पीट-पीटकर ये चैनल अपने आप को मूरख-बक्सा नहीं, महामूरख-बक्सा सिद्ध कर रहे हैं। वे अपनी इज्जत गिरा रहे हैं। वे मजाक का विषय बन गए हैं। एक-दूसरे के विरुद्ध उन्होंने महाभारत का युद्ध छेड़ रखा है। उनकी इस सुशांत-लीला के कारण देश के राजनीतिक दल भी अशांत हो रहे हैं। वे अपने स्वार्थ के लिए सिने-जगत की प्रतिष्ठा को धूमिल कर रहे हैं। उनका स्वार्थ क्या है ? उन्हें सुशांत राजपूत से कुछ लेना-देना नहीं है। उनका स्वार्थ है— अपनी दर्शक-संख्या (टीआरपी) बढ़ाना लेकिन अब दर्शक भी ऊबने लगे हैं। इन चैनलों को कोरोना से त्रस्त करोड़ों भूखे और बेरोजगार लोगों, पाताल को सिधारती अर्थ-व्यवस्था, कश्मीर और नगालैंड की समस्या और भारत-चीन तनाव की कोई परवाह दिखाई नहीं पड़ती। यों भी पिछले कुछ वर्षों से लगभग सभी चैनल या तो अखाड़े बन गए हैं या नौटंकी के मंच ! पार्टी-प्रवक्ताओं और सेवा-निवृत्त फौजियों को अपने इन दंगलों में झोंक दिया जाता है। किसी भी मुद्दे पर हमारे चैनलों पर कोई गंभीर बहस या प्रामाणिक बौद्धिक विचार-विमर्श शायद ही कभी दिखाई पड़ता है। इन चैनलों के मालिकों को सावधान होने की जरुरत है, क्योंकि वे लोकतंत्र के सबसे मजबूत चौथे खम्भे हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ राजू पाण्डेय
कांग्रेस का संकट आखिर है क्या? क्या पिछले दो लोकसभा चुनावों और लगभग इसी कालखंड में हुए अनेक विधान सभा चुनावों में कांग्रेस की हार के लिए पार्टी के एक बड़े वर्ग द्वारा उत्तरदायी समझे जाने वाले सेकुलरिज्म और उदारवाद जैसे सिद्धांतों से छुटकारा पाने की तरकीब तलाशना ही कांग्रेस का संकट है? क्या खुले ख्यालों वाले लापरवाह और बेपरवाह आधुनिक नौजवान राहुल गाँधी का मेक ओवर किस तरह एक जनेऊ धारी ब्राह्मण के रूप में किया जाए, यह कांग्रेस का संकट है?
गाँधी परिवार को ट्रोल आर्मी और सत्ताधारी दल के नेताओं के अंतहीन आक्रमण, अमर्यादित टिप्पणियों तथा आलोचना व अपमान को झेलने के लिए सामने कर देना एवं स्वयं बहुत शांति से सत्ता में रहते हुए या सत्ता के बाहर रह कर भी इतर दलीय सत्ताधारी नेताओं से निजी मित्रता का लाभ उठाते हुए चांदी काटना, कांग्रेस के छिपे हुए असली कर्णधारों का वह फार्मूला रहा है जो अब तक कामयाब रहा है। क्या कांग्रेस का संकट इस फॉर्मूले को सुपरहिट बनाए रखने का संकट है? या फिर गांधी परिवार का संकट ही कांग्रेस का संकट है- सोनिया गाँधी वृद्ध एवं अस्वस्थ हैं, राहुल गांधी यदि अयोग्य नहीं हैं तो बड़ी जिम्मेदारी लेने के लिए अनिच्छुक तो हैं ही, प्रियंका को बैटिंग के लिए देरी से उतारा गया है और बिना निगाहें जमाए बड़े शॉट खेलने की उनकी कोशिश नाकामयाब ही रही है। ऐसे में नेतृत्व के लिए टकटकी बांध कर गाँधी परिवार की ओर देख रहे कांग्रेसी नेताओं को देने के लिए गाँधी परिवार के पास ज्यादा कुछ है नहीं। क्या कांग्रेस में काम करने वाली किचन कैबिनेट या सलाहकार मंडली या मित्र समूह और गाँधी परिवार के बीच स्वार्थों की लड़ाई ही कांग्रेस का असली संकट है?
गाँधी परिवार की लोकप्रियता का फायदा उठाकर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकना गाँधी परिवार से नजदीकी रखने वाले इन नेताओं की आदत रही है। शायद सोनिया ने इन नेताओं की स्वार्थपरता को समझा और सत्ता इन्हीं नेताओं के हाथों में सौंप कर सत्ता की चाबी अप्रत्यक्ष रूप से अपने हाथों में रखने की कोशिश की। अब जब गाँधी परिवार का करिश्मा सत्ता दिलाने में नाकामयाब हो रहा है बल्कि बहुत सारे लोग इसे सत्ता गंवाने और दुबारा हासिल न कर पाने का मुख्य कारण मान रहे हैं तब सत्ता सुख के अभ्यस्त कांग्रेसी नेताओं को यह परिवार खटक रहा है। वहीं पार्टी पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण रखने के अभ्यस्त गाँधी परिवार के लिए अब अपना वर्चस्व बनाए रखने हेतु मोदी और भाजपा के साथ सीधी लड़ाई लडऩा आवश्यक बन गया है। गाँधी परिवार अपनी वर्तमान स्थिति में इस तरह के प्रत्यक्ष और जमीनी संघर्ष के लिए तैयार नहीं दिखता। सोनिया का स्वास्थ्य, राहुल की अनिच्छा और प्रियंका की अनुभवहीनता गाँधी परिवार को बैकफुट पर धकेल रहे हैं।
कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन की मांग उठाने वाले नेताओं के विषय में यह तय करना कठिन है कि वे पार्टी को एक परिवार के वर्चस्व से मुक्ति दिलाना चाहते हैं या धर्म निरपेक्षता और समावेशन पर आधारित कांग्रेसवाद ही इन नेताओं के निशाने पर है। क्या गाँधी परिवार धर्मनिरपेक्षता और उदारता जैसे कांग्रेसवाद के बुनियादी आधारों को बरकरार रखने की अपनी पक्षधरता के कारण विरोध झेल रहा है क्योंकि उसकी यह प्रतिबद्धता सॉफ्ट हिंदुत्व की ओर कांग्रेस के संक्रमण में बाधक बन रही है? यदि कांग्रेस के चरित्र में परिवर्तन लाने की कोई ऐसी कोशिश कामयाब होती है तो क्या यह भारतीय लोकतंत्र के हित में होगी? क्या देश के भाग्य में दो ऐसी प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियां लिखी हैं जिसमें से एक ऐलानिया तौर पर उग्र हिंदुत्व, बहुसंख्यक वर्ग के वर्चस्व और असमावेशी राष्ट्रवाद की हिमायत करती है और दूसरी धर्मनिरपेक्षता के पर्दे की ओट में यही सब करती है। यदि भाजपा इस देश की जनता को यह समझाने में कामयाब रही है कि धर्मनिरपेक्षता का अर्थ वोटों की राजनीति है, दोगलापन है, पाखंड है तो इसके पीछे हालिया सालों में कांग्रेस का आचरण सबसे बड़ा कारण रहा है। खाते पीते मध्यम वर्ग से आने वाला मतदाता(जो आज भाजपा के मूल चरित्र का प्रतिनिधि माना जाता है) तो कांग्रेस से बाद में विमुख हुआ। इससे वर्षों पहले ही कांग्रेस का गढ़ रही हिंदी पट्टी के दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों ने कांग्रेस को त्याग कर क्षेत्रीय दलों का दामन थाम लिया था। और इनमें से कुछ राज्यों में तो भाजपा ने क्षेत्रीय दलों को परास्त कर सत्ता हासिल की है।
आखिर यह स्थिति कैसे बनी? कहीं कांग्रेस का संकट श्रीमती इंदिरा गाँधी के जमाने से चली आ रही उस रणनीति में तो नहीं छिपा है जिसमें स्वतंत्र सोच और जनाधार वाले कद्दावर क्षेत्रीय नेताओं के पर कतरे जाते थे और उनके स्थान पर डमी, व्यक्तित्वहीन और श्रीमती इंदिरा गाँधी के प्रति समर्पित नेताओं को बढ़ावा दिया जाता था? क्या कांग्रेस में अब भी यह नहीं माना जाता कि योग्यता, क्षमता और जनाधार को गाँधी परिवार के चरणों में अर्पित कर ही कोई नेता मनोवांछित फल प्राप्त कर सकता है? जब तक गाँधी परिवार के पास वह ऊर्जा शेष थी जो एक औसत नेता को भी अलौकिक प्रकाश से आलोकित कर सकती थी तब तक सम्पूर्ण शरणागति किसी को खटकती नहीं थी किंतु आज तो क्षत्रपों के पराक्रम पर कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व आश्रित दिखता है तब क्या पहले जैसे समर्पण की आशा उचित है?
क्या कांग्रेस का संकट नई सोच वाले युवाओं और पुरातनपंथी नेताओं की टकराहट में छिपा है? क्या ये युवा इतने प्रतिभाशाली और जुझारू हैं कि पुरानी पीढ़ी को अपदस्थ कर कांग्रेस को नई ऊंचाइयों पर ले जा सकते हैं? क्या यौवन को ऊर्जा और बदलाव का पर्याय मान कर अमूर्त चिंतन करने के स्थान पर उन युवाओं का वस्तुनिष्ठ आकलन करना उचित नहीं होगा जो हाल के वर्षों में कांग्रेस का भविष्य समझे जाते रहे हैं? क्या अनिच्छा और अनिश्चय के बीच वर्षों से झूलते राहुल गाँधी कांग्रेस का उद्धार कर सकते हैं? क्या आदि से अंत तक फिल्म के हर फ्रेम में छाए रहने की प्रतिभा और योग्यता राहुल में नहीं है इसीलिए उनका कैमियो प्रेजेन्स ही कराया जाता है ताकि उनकी कमजोरियां उजागर न हों? क्या राहुल उस पार्ट टाइमर गेंदबाज की भांति नहीं लगते जो जमी हुई साझेदारी तो तोड़ सकता है लेकिन लंबे स्पेल कर मैच पलटना जिसके बस की बात नहीं है? या फिर ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट ब्रांड युवा नेता कांग्रेस के भविष्य हैं जो अपनी निजी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए विचारधारा से समझौता करने की सफल-असफल चेष्टा करते नजर आते हैं? या वह प्रियंका गाँधी कांग्रेस को नई दिशा दे सकती हैं जिनके बारे में यह ही तय नहीं है कि कांग्रेस की भावी राजनीति की फि़ल्म में वे लीड एक्ट्रेस हैं या सपोर्टिंग रोल में हैं? यह अनिश्चितता इस लिए और घातक बन जाती है क्योंकि प्रियंका की एंट्री ही फि़ल्म में लेट हुई है।
क्या राहुल की मित्र मंडली में स्थान पाने वाले वे जनाधार विहीन युवा नेता कांग्रेस का भविष्य तय कर सकते हैं जो स्वयं किसी कांग्रेसी क्षत्रप की संतानें हैं और जिनके क्रांतिकारी तेवरों को केवल उनके विवादित अधकचरे ट्वीट्स में ही देखा जा सकता है? यदि सांगठनिक तौर पर देखा जाए तो क्या एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस जैसे संगठन कांग्रेस को नई दिशा दे सकते हैं जो बेरोजगारी की इस भयावह स्थिति में भी कोई जन आंदोलन खड़ा करने में नाकामयाब रहे हैं? क्या उन युवा नेताओं से कोई अपेक्षा की जा सकती है जो कोविड संक्रमण के चिंताजनक आंकड़ों के बीच परीक्षाओं के आयोजन के लिए आमादा सरकार को संगठित प्रतिरोध की एक झलक तक नहीं दिखा सके? यदि कांग्रेस की युवा पीढ़ी कांग्रेस की वर्तमान दुर्दशा के लिए उत्तरदायी पुरानी पीढ़ी को अपदस्थ नहीं कर पा रही है तो इसमें उसकी अपनी कमजोरियों का योगदान ही अधिक है।
क्या कांग्रेस का संकट यह भी है कि आर्थिक मोर्चे पर सरकार का विरोध करने के लिए वह खुद को नैतिक रूप से सक्षम नहीं पाती है? मौजूदा सरकार की अर्थनीति किसी न किसी रूप में नरसिम्हा राव-मनमोहन सिंह के उदारीकरण का आक्रामक विस्तार है। यदि मनमोहन सिंह ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में उदारीकरण के मानवीय और जनहितैषी चेहरे को आगे रखने की कोशिश की थी तो वर्तमान सरकार चुनावी सफलता दिलाने वाली अपनी तमाम डायरेक्ट बेनिफिट स्कीम्स के बावजूद बड़ी तेजी और निर्ममता से निजीकरण को बढ़ावा दे रही है।
वर्तमान सरकार जब असंगठित क्षेत्र को फॉर्मल इकॉनॉमी का हिस्सा बनाने की बात करती है तब उसकी कोशिशें आम आदमी को मार्केट इकॉनॉमी की असुरक्षा और आपाधापी में धकेलने की अधिक होती है। यह सरकार आम आदमी को नियम-कानूनों के जाल में उलझा कर उनके आर्थिक जीवन को नियंत्रित करती दिखती है जबकि बड़े कॉरपोरेट्स के लिए वह अतिशय उदार रुख अपनाती नजर आती है। इस सरकार ने कोविड-19 की आपदा का उपयोग निजीकरण के अवसर के रूप में किया है। अर्थव्यवस्था में राष्ट्रवाद का तडक़ा मारने की रणनीति सरकार के अजीबोगरीब फैसलों की ढाल बन रही है। लोग बेरोजगार हो रहे हैं, आत्महत्या कर रहे हैं, देश के आर्थिक जीवन में ऐसी अफरातफरी है जैसी पहले कभी नहीं देखी गई। इसके बाद भी कांग्रेस का प्रतिरोध राहुल के थिएट्रिकल इफ़ेक्ट वाले वीडिओज़ और सोशल मीडिया पर सक्रिय कुछ नेताओं के ट्वीट्स तक सीमित है। तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया एवं सोशल मीडिया ने तो मोदी को महानायक के रूप में प्रस्तुत करने का बीड़ा उठाया हुआ है और यहाँ पर कांग्रेस के लिए कुछ खास करने को है नहीं। राहुल का काम आकर्षक वीडियो शूट के जरिए मोदी को टक्कर देने से नहीं चलने वाला। उन्हें अब महात्मा गाँधी की राह पर चलना होगा। सविनय अवज्ञा और असहयोग जैसे अस्त्रों का प्रयोग करना होगा। लाठी भी खानी पड़ेगी और जेल यात्रा भी करनी होगी।
कांग्रेस यदि यह मान रही है कि देश के आर्थिक जीवन को गौण बना दिया गया है और अब जनता मंदिर-मस्जिद जैसे धार्मिक, साम्प्रदायिक और भावनात्मक मुद्दों के आधार पर वोट करने लगी है तो यह उसकी गलतफहमी है। सन 2014 में पहली बार मोदी ने रोजगार, महंगाई और विकास जैसे मुद्दों के आधार पर ही जनता का विश्वास जीता था और बहुत सारे विश्लेषक यह मान रहे थे कि वाजपेयी की परंपरा से बाहर निकलना मोदी को अस्वीकार्य बना देगा। बहुत सारे लोग बहुत समय तक यह भी विश्वास करते रहे थे कि भाजपा फासीवाद से प्रभावित अपने पैतृक संगठन की छाया से बाहर निकल आई है और लोकतंत्र के सांचे में ढलकर वैचारिक रूप से एक राइट टू सेंटर पार्टी बन गई है जो किसी हद तक समावेशी भी है।
अपने पहले कार्यकाल की आर्थिक असफलताओं को छिपाने के लिए 2019 के चुनावों में सांप्रदायिकता और हिंदुत्व के एजेंडे पर लौटना मोदी की मजबूरी थी और कांग्रेस ने इस एजेंडे को जाने अनजाने जरूरत से ज्यादा महत्व देकर मोदी की विजय में अपना योगदान दिया। 2014 का चुनाव मोदी ने कांग्रेस को परास्त कर जीता था जबकि 2019 के चुनाव में कांग्रेस ने उन्हें लगभग वॉकओवर दे दिया था। 2014 के चुनावों में मोदी ने खुद को बेहतर विकल्प सिद्ध कर जीत दर्ज की थी लेकिन 2019 के चुनावों में विपक्ष में बेहतर विकल्प के अभाव के कारण उन्हें पूर्ण बहुमत मिला। 2019 में सत्ता में पुन: आने के बाद मोदी अपने पैतृक संगठन की विचारधारा के असली पैरोकार के रूप में उभरे हैं और असमावेशी राष्ट्रवाद को बढ़ावा देकर बहुसंख्यक वर्ग के वर्चस्व की स्थापना के लिए निर्णायक कदम उठा रहे हैं। किंतु मोदी के इस एजेंडे को जनता का एजेंडा मान लेना कांग्रेस की बड़ी भूल होगी। मोदी और मोदी समर्थक मीडिया अपने माया महल का विस्तार करने में अभूतपूर्व कला कौशल दिखा रहे हैं। नए नए आभासी, अनावश्यक और निरर्थक मुद्दों की बम वर्षा हो रही है। लेकिन आम आदमी बदहाल है और इस नाटक से ऊबने लगा है।
मोदी समर्थक मध्यम वर्ग भी अब बदहाल अर्थव्यवस्था का शिकार होने लगा है। यदि राहुल मीडिया के सहारे अपना कोई ऐसा माया महल बनाना चाहेंगे जो मोदी से भी भव्य हो तो उन्हें असफलता और पराजय ही मिलेगी। मोदी के माया महल की हवा निकालने के लिए सच्चाई की छोटी सुई ही काफी है। जब खिलाड़ी का अच्छा समय नहीं चल रहा होता है तब नए नए एक्सपेरिमेंट करने के स्थान पर कोच उसे बेसिक्स की ओर लौटने की सलाह देते हैं। कांग्रेस के पास तो महात्मा गाँधी जैसा कोच है जिनके सिखाए बेसिक्स तो मनुष्यता के बेसिक्स हैं- सत्य, अहिंसा, प्रेम, दया, करुणा, सर्वधर्म समभाव। कहा जाता है कि जब सच्चे मन से प्रायश्चित किया जाता है तो हमारा संकल्प इतना शुद्ध होता है कि हर कष्ट और हर बाधा गौण बन जाती है। कांग्रेस के पास तो प्रायश्चित करने के लिए बहुत कुछ है- अपनी लापरवाही और गलत आचरण से इस देश के अस्तित्व के लिए आवश्यक सेकुलरिज्म जैसे बुनियादी मूल्य की रक्षा में वह नाकामयाब रही है, अब इस देश की गंगा-जमनी तहजीब की रक्षा ही कांग्रेस का सच्चा प्रायश्चित होगी।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
- विकास बहुगुणा
प्रणब मुखर्जी को प्रधानमंत्री होना चाहिए था, ऐसा मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी मानते हैं और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी. कांग्रेस में वे जिस मुकाम पर पहुंच गए थे उसे देखते हुए खुद उनको भी यह उम्मीद कई बार रही. लेकिन राजनीति विज्ञान पढ़ और पढ़ा चुके प्रणब मुखर्जी यह भी समझते ही रहे होंगे कि सत्ता के खेल में शीर्ष तक पहुंचने के सूत्र सिर्फ प्रतिभा से नहीं जुड़ते, इसमें परिस्थितियों की भी भूमिका होती है. इसलिए बहुत से लोग उन्हें एक ऐसा प्रधानमंत्री कह सकते हैं जो भारत को कभी नहीं मिला.
उनके इस पद पर पहुंचने की पहली संभावना 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद बनी थी. प्रणब मुखर्जी तब वित्त मंत्री थे और इंदिरा गांधी के बाद पार्टी में नंबर दो थे. प्रधानमंत्री की गैरमौजूदगी में कैबिनेट की बैठकें वही लेते थे. तब प्रणब मुखर्जी की क्या ख्याति थी इसका एक अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि चर्चित पत्रिका यूरो मनी ने उस समय उन्हें दुनिया में सर्वश्रेष्ठ वित्त मंत्री बताया था.
ऐसे में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद स्वाभाविक तौर पर उन्हें कमान मिलने की उम्मीद रही होगी. कहते हैं कि उन्होंने इस उम्मीद को जाहिर भी किया (हालांकि अपनी आत्मकथा में उन्होंने इससे इनकार किया है). लेकिन इंदिरा गांधी ने कांग्रेस को एक परिवार की पार्टी बनाने की जो प्रक्रिया शुरू की थी तब तक वह स्थापित हो चुकी थी. सो प्रणब दा को किनारे कर दिया गया और राजनीतिक और प्रशासनिक दक्षता में उनके सामने कहीं न ठहरने वाले राजीव गांधी देश के छठे प्रधानमंत्री बन गए.
बस इसी मोड़ पर प्रणब मुखर्जी के उस शानदार सफर में थोड़ी ढलान दिखती है जो 1969 में उनके इंदिरा गांधी की नजर में आने और उसी साल पहली बार राज्य सभा में पहुंचने के साथ शुरू हुआ था. माना जाता है कि अपनी महत्वाकांक्षा जाहिर करने की उन्हें कीमत चुकानी पड़ी. राजीव गांधी ने प्रणब मुखर्जी को न सिर्फ अपने मंत्रिमंडल से बाहर रखा बल्कि उन्हें राजनीति की मुख्यधारा से भी बाहर कर दिया. उन्हें पश्चिम बंगाल प्रदेश कांग्रेस कमेटी की जिम्मेदारी संभालने के लिए कोलकाता भेज दिया गया. इससे खफा होकर उन्होंने पार्टी छोड़ दी और 1986 में राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस बनाई. लेकिन 1987 के राज्य विधानसभा चुनाव में पार्टी की बुरी गत के बाद प्रणब मुखर्जी को अहसास हो गया कि यह राह उनके लिए नहीं है. सो उन्होंने राजीव गांधी से संवाद के टूटे पुल जोड़े और 1989 में अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया. इसके बाद प्रणब दा हमेशा पार्टी के अनुशासित सिपाही रहे.
प्रणब मुखर्जी के दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने की संभावना 1991 में तो नहीं बनी क्योंकि उस वक्त तक उन्हें दोबारा कांग्रेस में शामिल हुए ज्यादा वक्त नहीं हुआ था. इस दौरान वे नरसिम्हा राव की सरकार में योजना आयोग के उपाध्यक्ष हुआ करते थे. उनके फिर से प्रधानमंत्री बन सकने का मौका तब आया जब 2004 में यूपीए की पहली सरकार बनने जा रही थी. सोनिया गांधी ने तब विपक्ष के दबाव में आकर यह पद लेने से इनकार कर दिया तो एक बड़े वर्ग का मानना था कि अब वह होना तय है जो 1984 या 1991 में नहीं हो सका था. संयोग था कि उस साल प्रणब मुखर्जी पहली बार कोई लोकसभा चुनाव जीतकर संसद पहुंचे थे. यानी परिस्थितियां उस दौरान हर लिहाज से उनके अनुकूल लग रही थीं. अपनी आत्मकथा के तीसरे खंड द कोएलिशन इयर्स (1996-2012) में उन्होंने इस बारे में लिखा है, ‘उम्मीद जताई जा रही थी कि सोनिया गांधी के इनकार के बाद प्रधानमंत्री पद के लिए अगला विकल्प मेरा होगा. शायद इस उम्मीद का आधार यह था कि मुझे सरकार में रहने का व्यापक अनुभव था जबकि सिंह के अनुभव का बड़ा हिस्सा नौकरशाही में था.’
लेकिन सबको चौंकाते हुए कांग्रेस अध्यक्ष ने मनमोहन सिंह का नाम आगे बढ़ा दिया. माना जाता है कि प्रणब मुखर्जी जिस बात को अपनी मजबूती मान रहे थे वही उनके लिए कमजोर कड़ी साबित हुई. अपने एक लेख में वरिष्ठ पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं, ‘मनमोहन सिंह की तुलना में प्रणब ज्यादा राजनीतिक शख्स थे. और यही बात उनके खिलाफ गई. निश्चित तौर पर सोनिया गांधी राजनीतिक तौर पर तेज-तर्रार एक ऐसे नेता को प्रधानमंत्री के पद पर नहीं बैठाना चाहती थीं, जिसकी राजनीतिक महत्वकांक्षाएं किसी से छिपी नहीं थीं. साफ तौर पर 7 रेस कोर्स रोड में उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता था.’ यह भी माना जाता है कि प्रणब मुखर्जी के प्रधानमंत्री बनने पर सोनिया गांधी पार्टी और सरकार पर उस तरह से नियंत्रण नहीं रख पातीं जैसा मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते संभव हो सका.
बताया जाता है कि प्रधानमंत्री के लिए मनमोहन सिंह का नाम तय होने के बाद प्रणब मुखर्जी ने सरकार में शामिल न होने का फैसला कर लिया था. जानकारों के मुताबिक यह स्वाभाविक ही था क्योंकि कभी मनमोहन सिंह उनसे काफी जूनियर हुआ करते थे. लेकिन सोनिया गांधी ने कहा कि उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल होना ही होगा क्योंकि उनके रहने से सरकार को मजबूती मिलेगी. माना जाता है कि कांग्रेस अध्यक्ष प्रणब मुखर्जी को इसलिए भी सरकार में रखना चाहती थीं कि वह गठबंधन की सरकार थी और प्रणब दा के मित्र सभी दलों में थे. इस तरह प्रणब मुखर्जी मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल में आ गए और आने वाले वर्षों में उन्होंने रक्षा, वित्त और विदेश जैसे अहम मंत्रालय संभाले.
तीसरी बार प्रणब मुखर्जी के प्रधानमंत्री बनने की चर्चा 2009 में हुई. यह तब की बात है जब आम चुनाव कुछ ही महीने दूर थे. मनमोहन सिंह की बाइपास सर्जरी हुई थी और उन्हें काफी समय तक आराम करना पड़ा था. इस दौरान औपचारिक तौर पर तो यह ऐलान नहीं किया गया कि प्रधानमंत्री का काम कौन देख रहा है, लेकिन विकीलीक्स द्वारा लीक एक केबल के हवाले से दावा किया गया कि वह प्रणब मुखर्जी ही थे. इसी दौरान खबरें आईं कि अगर मनमोहन सिंह का स्वास्थ्य जल्द सामान्य नहीं हुआ तो सिर पर खड़े चुनाव को देखते हुए प्रणब मुखर्जी को प्रधानमंत्री बनाया जा सकता है. हालांकि ऐसा नहीं हुआ. जानकारों के मुताबिक तब भी वही कारण उनके खिलाफ गया जो 2004 में गया था.
प्रणब मुखर्जी के चौथी बार प्रधानमंत्री बनने की चर्चा और इसकी खुद उन्हें भी उम्मीद 2012 में हुई. तब यूपीए राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार चुनने की कवायद कर रहा था. अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है कि सोनिया गांधी ने उनसे कहा था, ‘आप इस पद के लिए सबसे बेहतर दावेदार हैं, लेकिन आप सरकार में एक ज़िम्मेदार भूमिका निभा रहे हैं तो क्या आप ऐसे में कोई दूसरा नाम सुझा सकते हैं.’ प्रणब मुखर्जी के मुताबिक इससे उन्हें लगा कि मनमोहन सिंह को राष्ट्रपति बनाया जा सकता है और उन्हें प्रधानमंत्री. हालांकि ऐसा नहीं हुआ और वे देश के 13वें राष्ट्रपति बन गए.
राष्ट्रपति के रूप में प्रणब मुखर्जी के कार्यकाल को बहुत से लोग बढ़िया मिसाल मानते हैं तो कइयों की राय इससे उलट भी है. पहले वर्ग का मानना है कि प्रणब मुखर्जी ने पहले मनमोहन सिंह और फिर नरेंद्र मोदी के साथ बढ़िया समन्वय के साथ काम किया. उन्होंने संसद में चर्चा के बगैर कई अध्यादेश पारित करने को लेकर केंद्र सरकार को नसीहत दी तो संसद न चलने देने पर अड़े विपक्ष को भी समझाया. ऐसा कभी नहीं हुआ कि उनके कार्यकाल के दौरान प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति का कोई मतभेद सुर्खियां बना हो. इन सारी बातों को लोकतंत्र के लिहाज से अच्छा माना गया. राष्ट्रपति के रूप में अपनी पारी पूरी होने के मौके पर उन्होंने कहा था कि उनके और प्रधानमंत्री के बीच असहमति के कई मौके आए, लेकिन, इससे दोनों के बीच के रिश्ते पर असर नहीं पड़ा.
उधर, एक दूसरा वर्ग भी है जिसे लगता है कि प्रणब मुखर्जी का राष्ट्रपति के रूप में आचरण वैसा नहीं रहा जैसा उनके कद के किसी राजनेता का रहना चाहिए था. इस वर्ग का मानना है कि वे इस पद पर रहते हुए कोई नजीर कायम कर सकते थे. जैसा कि बीबीसी से बातचीत में वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई कहते हैं, ‘प्रणब मुखर्जी ने सिर्फ़ अपने काम से काम रखा और सरकार के काम में कोई दखलअंदाज़ी नहीं की.’ उनकी तरह और भी कई लोग मानते हैं कि ज्यादातर राष्ट्रपतियों की तरह प्रणब मुखर्जी भी रबर स्टैंप जैसे ही रहे और उन्होंने स्वविवेक का न्यूनतम प्रयोग किया. ये लोग उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन के मामले को इसके उदाहरण के तौर पर गिनाते हैं जिसे अदालत ने हटा दिया था.
समग्रता में देखें तो बंगाली भद्रलोक से आए प्रणब मुखर्जी का व्यक्तित्व सही मायने में उस सर्वस्वीकार्यता की जीवंत मिसाल था जो अब राजनीति में दुर्लभ होती जा रही है. हर पार्टी में उनके मुरीद थे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ समय पहले कहा था कि प्रणब मुखर्जी ने उन्हें पिता तुल्य स्नेह दिया. उधर, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी उनकी आत्मकथा के विमोचन के मौके पर कहा था कि प्रणब मुखर्जी उनसे कहीं काबिल थे और प्रधानमंत्री उन्हें ही बनना चाहिए था.
बहुत से लोग मानते हैं कि अगर ऐसा हो जाता - फिर भले ही यह 2012 में भी होता - तो कांग्रेस का इस कदर पतन नहीं होता. जैसा कि नीलांजन मुखोपाध्याय लिखते हैं, ‘उनकी राजनीतिक कुशलता मोदी की आसान जीत के रास्ते में अवरोध बन कर खड़ी होती. उद्योग जगत के भीतर उनका रिश्ता मोदी को इतनी आसानी से कॉरपोरेट जगत के समर्थन को अपने पक्ष में नहीं मोड़ने देता. अगर मुखर्जी का नेतृत्व होता, तो नीतिगत लकवे (पॉलिसी पैरालिसिस) का आरोप भी उतना असरदार नहीं रहता.’ वे आगे लिखते हैं, ‘प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति के तौर पर नियुक्त करना, एक प्रतिभा को व्यर्थ करने का उदाहरण था. सोनिया गांधी ने बदलाव करने की जगह चीजों को अपने हाथों से फिसल जाने का मौका दिया. ऐसा लगता है कि उन्होंने पूर्वाग्रह को तर्क के ऊपर तरजीह दी.’(satagrah)
- DTE Staff
राष्ट्रीय मौसम पूर्वानुमान केंद्र के अनुसार अगले चार दिन कई इलाकों में अत्याधिक भारी बारिश हो सकती है। केंद्र ने कई इलाकों में तेज हवा, आंधी और बिजली गिरने की भी आशंका जताई है।
01 सितंबर:
पश्चिम राजस्थान में अलग-थलग स्थानों पर भारी से भारी से अत्यधिक भारी बारिश होने की आशंका है और पंजाब, पूर्वी राजस्थान, बिहार, पश्चिम बंगाल और सिक्किम, ओडिशा, असम तथा मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम और त्रिपुरा, रायलसीमा, तटीय और दक्षिण आंतरिक कर्नाटक, तमिलनाडु, पुदुचेरी और कराईकल तथा पंजाब, केरल और माहे में अलग-अलग स्थानों पर भारी बारिश हो सकती है।
पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़ और दिल्ली, पश्चिम उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, गांगेय पश्चिम बंगाल, ओडिशा, असम और मेघालय, नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम तथा त्रिपुरा, तटीय आंध्र प्रदेश एवं यनम, तेलंगाना, रायलसीमा, तटीय और दक्षिण आंतरिक कर्नाटक, तमिलनाडु, पुदुचेरी और कराईकल और केरल और माहे में अलग-अलग स्थानों पर आंधी तूफान चलने के साथ बिजली गिरने की आशंका है।
दक्षिण-पश्चिम अरब सागर में तेज हवा (गति 45-55 किमी प्रति घंटे तक) चल सकती है। दक्षिण अंडमान सागर और उससे सटे भूमध्यरेखीय हिंद महासागर में तेज रफ्तार (गति 40-50 किमी प्रति घंटे तक) से हवा चलने के आसार है।
02 सितंबर :
ओडिशा, दक्षिण आंतरिक कर्नाटक, तमिलनाडु, पुदुचेरी और कराईकल और केरल तथा माहे में अलग-अलग स्थानों पर भारी से अत्यधिक भारी बारिश होने की संभावना है। जम्मू और कश्मीर, लद्दाख, गिलगित-बाल्टिस्तान, मुजफ्फराबाद, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़ और दिल्ली, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, असम और असम, मेघालय, ओडिशा, तटीय आंध्र प्रदेश और यानम, रायलसीमा, तटीय कर्नाटक तथा लक्षद्वीप में अलग-अलग स्थानों पर भारी बारिश होने की आशंका है।
पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़ और दिल्ली, राजस्थान, पश्चिम उत्तर प्रदेश, पूर्वी मध्य प्रदेश, विदर्भ, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, तटीय आंध्र प्रदेश और यनम, तेलंगाना, रायलसीमा, तटीय और दक्षिण आंतरिक कर्नाटक, तमिलनाडु, पुदुचेरी और कराईकल तथा केरल एवं माहे में अलग- अलग स्थानों पर आंधी तूफान और बिजली कड़कने के आसार हैं।
दक्षिण-पश्चिम अरब सागर के ऊपर तेज हवा (गति 45-55 किमी प्रति घंटे तक) चल सकती है। दक्षिण पूर्व अरब सागर और केरल तथा लक्षद्वीप के तटों पर हवा (गति 40-50 किमी प्रति घंटे) चल सकती है।
03 सितंबर :
दक्षिण आंतरिक कर्नाटक और केरल और माहे में अलग-अलग स्थानों पर भारी से अत्यधिक भारी बारिश होने की संभावना है। जम्मू- कश्मीर, लद्दाख, गिलगित-बाल्टिस्तान, मुजफ्फराबाद, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा, चंडीगढ़ और दिल्ली, पूर्वी राजस्थान, उत्तर प्रदेश, अंडमान तथा निकोबार द्वीप समूह, ओडिशा, मध्य महाराष्ट्र, तटीय कर्नाटक एवं तमिलनाडु, पुदुचेरी और कराईकल में अलग-अलग स्थानों पर भारी वर्षा होने की संभावना है।
राजस्थान, पूर्वी मध्य प्रदेश, विदर्भ, झारखंड, तटीय आंध्र प्रदेश और यनम, रायलसीमा, तटीय एवं दक्षिण आंतरिक कर्नाटक तथा तमिलनाडु, पुदुचेरी और कराईकल में अलग-अलग स्थानों पर आंधी तूफान चलने और बिजली गिरने की संभावना है।
दक्षिण पश्चिम अरब सागर के ऊपर तेज हवा (45-55 किमी प्रति घंटे की रफ्तार) चलने की संभावना है। दक्षिण पूर्व अरब सागर के ऊपर और केरल तथा लक्षद्वीप के तटों पर हवा (गति 40-50 किमी प्रति घंटे) चलने की संभावना है। मछुआरों को इन क्षेत्रों नहीं जाने की सलाह दी जाती है।
04 सितंबर:
हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, असम और मेघालय, मध्य महाराष्ट्र, कोंकण और गोवा, दक्षिण आंतरिक कर्नाटक, तमिलनाडु, पुदुचेरी और कराईकल और केरल और माहे में अलग- अलग स्थानों पर भारी वर्षा होने की संभावना है।
झारखंड, तटीय आंध्र प्रदेश और यानम, रायलसीमा, दक्षिण आंतरिक कर्नाटक तथा तमिलनाडु, पुदुचेरी एवं कराईकल में अलग-अलग स्थानों पर बिजली गिरने की आशंका है।
दक्षिण-पश्चिम अरब सागर के ऊपर तेज हवा (गति 45-55 किमी प्रति घंटे तक) चलने की संभावना है। मछुआरों को इन क्षेत्रों में नहीं जाने की सलाह दी जाती है।(downtoearth)
नयी दिल्ली स्थित 10 राजाजी मार्ग पर फैली खामोशी tv बता रही है कि भारतीय राजनीति का सूरज महाकाल के अनंत विस्तार में समा गया| राजनीति के पुरोधा और माँ दुर्गा के अनन्य उपासक भारत रत्न प्रणब मुख़र्जी चिरनिद्रा में लीन हो गए| प्रणब दा के विशाल अनुभव एवं याददाश्त का सम्मान उनके राजनीतिक विरोधी भी करते थे| उन्हें राजनीति में संकटमोचक के तौर पर देखा जाता था और समस्याओं का समाधान निकालने में माहिर माने जाते थे| राष्ट्रहित के प्रति समर्पित भाव रखते हुए सार्वजनिक जीवन में शायद ही ऐसी कोई महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी हो जिसे उन्होंने न सम्हाला हो|
विश्व के प्रसिद्ध 5 वित्त मंत्रीयो में से एक होने का गौरव प्राप्त करने वाले स्वर्गीय प्रणब दा का जन्म 11 दिसम्बर 1935 को पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के मिरती नामक स्थान पर हुआ| अपनी वकालत की पढ़ाई पूर्ण करने के पश्चात उन्होंने सक्रिय राजीति में कदम रखा| देश सेवा का जज्बा उनके संस्कारों में था| यह प्रणब दा के असाधारण व्यक्तित्व का ही जादू ही था कि 34 वर्ष की अल्पायु में ही उन्हें भारतीय लोकतंत्र के उच्च सदन का सदस्य बनाया गया। इसके पश्चात मुख़र्जी दा ने भारतीय राजनीति में विकास की नयी इबारत लिखी जो आज एक कीर्तिमान है| वर्ष 1975, 1981, 1993 और 1999 के लगातार वर्षों में उन्होंने भारतीय संसद के उच्च सदन में कांग्रेस का प्रतिनिधित्व किया| इस दौरान जब भारत की अर्थव्यवस्था पटरी से लडख़ड़ा रही थी, तो वर्ष 1982-84 में भारत के वित्त मंत्री के रूप में उनकी कुशलता एवं अनुभव को सम्पूर्ण देश ने सराहा | इसी कार्यकाल के दौरान डॉ. मनमोहन सिंह को भारतीय रिज़र्व बैंक का गवर्नर बनाया गया और देश विकसित होने की राह पर चल पड़ा। वर्ष 1991 में उन्हें योजना आयोग का उपाध्यक्ष बनाया गया| प्रणब दा को नरसिंह राव मंत्रिमंडल में 1995 से 1996 तक विदेश मन्त्री के रूप में कार्य करने का मौका मिला किया।
वर्ष 1993 -2003 के दौरान तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में मेरे ससुर स्वर्गीय अजय मुश्रान ने मध्य प्रदेश के वित्त मंत्री के रूप में कार्य किया| मुश्रान साहेब के प्रणब दा से आत्मीय सम्बन्ध रहे| इस दौरान एक युवा अधिवक्ता एवं वर्ष 2000 -2003 के दौरान जब मध्य प्रदेश अपने छत्तीसगढ़ विभाजन के कठिन दौर से गुजर रहा था, उस समय मध्य प्रदेश का महाधिवक्ता होने से प्रथम बार मेरा प्रणब दा से मिलना हुआ| उनके शांत स्वभाव और गंभीर छवि ने मुझे हमेशा ही आकर्षित किया| उनका व्यक्तित्व विद्वता और शालीनता के लिए याद किया जाएगा.|
प्रणब मुखर्जी जी ने ही श्रीमती सोनिया गांधी जी को सक्रिय राजनीति में आने के लिए मनाया था | 2004 से 2012 वर्षों के दौरान उन्होंने कांग्रेस के नेतृत्व वाली यू.पी.ए. गठबंधन सरकार के कुशल सञ्चालन में महत्वपूर्ण रोल अदा किया| देश के वित्तमंत्री के रूप में उन्हें वर्ष 2009, 2010 और सन 2011 में देश का वार्षिक बजट प्रस्तुत करने का गौरव हासिल हुआ| लड़कियों की साक्षरता और स्वास्थ्य जैसे सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं के लिए और जवाहरलाल नेहरु राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन सहित सहित कई अन्य सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं के लिए धन की पर्याप्त उपलब्धता सुनिश्चित करना उनकी प्राथमिकताओं में शामिल रहा| भारत रत्न स्वर्गीय राजीव गाँधी की स्वप्न योजना राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा) जिसे बाद में मनरेगा नाम दिया गया, को डॉ. मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में लागू करने में प्रणब दा की ही दूरदृष्टि थी जो आज कोरोना संक्रमण के कठिन दौर में देश के मजदूरों एवं अन्य श्रमिक वर्ग के जीवन यापन का सहारा बन रही है|
सरकारी कामकाज की प्रक्रियाओं और संविधान की बारीकियों की बेहतरीन समझ रखने वाले प्रणब दा ने जुलाई 2012 में भारत के तेरहवें राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली| अपने कार्यकाल के दौरान संविधान के अनुच्छेद 72 के अंतर्गत उनके समक्ष लायी गयी दया याचिकाओं के मामले में वे एक कठोर प्रशासक साबित हुए| सात दया याचिकाओं को क्रूरतम अपराध की संज्ञा देते हुए रद्द करते हुए प्रणब मुखर्जी देश के दूसरे ऐसे राष्ट्रपति बन गए जिन्होंने अपने कार्यकाल में सबसे ज्यादा दया याचिकाएं खारिज कीं| उनके निर्णय ने अपराधियों के मन में भय एवं देश के आम जनों में न्याय व्यवस्था में विश्वास को सुदृण किया|
उन्होंने असीम अनुभव को अपनी लेखनी से कागज़ के पन्नो पर उतारा और राजनीति पर गहरी समझ एवं नीतिगत मुद्दों पर अनुभव को देश की नाव के लगभग सभी खेवनहारों से साझा किया| प्रणब दा का मानना था कि पुस्तकें हमारे जीवन की सबसे अच्छी दोस्त होती है और ये ही भविष्य में होने वाले युद्ध में हमारा हथियार होंगी| उन्होंने कई कितावें भी लिखी जिनमे ऑफ द ट्रैक- सागा ऑफ स्ट्रगल एंड सैक्रिफाइस, इमर्जिंग डाइमेंशन्स ऑफ इंडियन इकोनॉमी, तथा चैलेंज बिफोर द नेशन प्रमुख हैं| संसद भवन के गलियारे कठोर अनुभवों के पथ पर चले उनके पदचिन्हों के गवाह रहेंगे|
प्रणब दा जैसे व्यक्तित्त्व को कलम की परिधि में बांधना संभव नहीं| वे अजातशत्रु, अनूठे व्यक्तित्त्व थे जिनके कृतित्व का प्रकाश सदैव हमारा मार्गदर्शन करता रहेगा।
सादर नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि
(विवेक के. तन्खा) [लेखक सर्वोच्च न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्ता
एवं मध्य प्रदेश से राज्य सभा सांसद हैं]
- ज़ुबैर अहमद
आधुनिक भारत में ऐसे कम ही नेता होंगे जो पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के क़द को छू सकेंगे.
एक युवा नेता की महत्वाकांक्षा निश्चित रूप से प्रणब मुखर्जी की कामयाबियों तक पहुंचने की होगी जिन्होने एक शानदार राजनीतिक यात्रा के बाद 31 अगस्त को दिल्ली के एक सैनिक अस्पताल में आँखें मूँदीं.
वो 10 अगस्त को इस अस्पताल में मस्तिष्क की सर्जरी के लिए भर्ती हुए थे जहाँ उनका कोरोना वायरस का टेस्ट भी हुआ और वो पॉज़िटिव पाए गए. सर्जरी से पहले उन्होंने ख़ुद ही ट्वीट कर अपने कोरोना संक्रमित होने की जानकारी दी थी.
पाँच दशकों से अधिक के अपने लंबे सियासी करियर में, प्रणव मुखर्जी ने लगभग सब कुछ हासिल कर लिया.
साल 2012 से 2017 तक राष्ट्रपति रहे प्रणब मुखर्जी को किसी एक ख़ास श्रेणी में डालना मुश्किल होगा. अगर वो एक राजनयिक थे तो वो एक अर्थशास्त्री के रूप में भी देखे जाते थे.
शुरू में वो शिक्षक भी रहे और पत्रकार भी. वो रक्षा मंत्री भी रहे और विदेश और वित्त मंत्री भी. प्रणब मुखर्जी भारतीय बैंकों की समितियों से लेकर वर्ल्ड बैंक के बोर्ड के सदस्य भी रहे. उनके नाम लोकसभा की अध्यक्षता भी रही और कई सरकारी समितियों की भी.
प्रधानमंत्री न बनने का दुख
प्रणब मुखर्जी के बायोडेटा में केवल एक कमी रह गयी: प्रधानमंत्री के पद की, जिसके वो 1984 और 2004 में दावेदार माने गए थे. इंदिरा गाँधी की निगरानी में परवान चढ़ने वाले नेता शायद ख़ुद को इस पद का हक़दार भी मानते थे. लेकिन ये पद उन्हें कभी हासिल नहीं हुआ ठीक उसी तरह से जिस तरह से बीजेपी के लाल कृष्ण आडवाणी को ये पद कभी नसीब नहीं हुआ.
कांग्रेस में उनकी बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी से 2015 में हुई एक बात-चीत के दौरान ये बात साफ़ निकल कर आयी कि उनके पिता को प्रधानमंत्री न बनने का अफ़सोस था लेकिन वो पार्टी के एक वरिष्ठ नेता होने के कारण इसका इज़हार खुल कर नहीं कर सके.
2012 में जब उन्हें राष्ट्रपति बनाया गया तो ज़ाहिर है उसके बाद वो इस मुद्दे पर बात करने को सही नहीं समझते थे.
कांग्रेस पार्टी के अलग-अलग ख़ेमों में प्रधानमंत्री के लिए उनके नाम पर किसी को आपत्ति नहीं थी लेकिन सियासी विश्लेषकों के अनुसार गांधी परिवार के विश्वासपात्र न होने की वजह से वो किनारे कर दिए गए.
कहा जाता है कि पिछले साल बीजेपी ने प्रणब मुखर्जी को भारत रत्न देकर ये जताना चाहा था कि गाँधी परिवार के क़रीबी न होने के कारण उन्हें वो कुछ नहीं मिला जिसके वो हक़दार थे.
इसके एक साल पहले भी उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या आरएसएस के एक आयोजन में मुख्य अतिथि बनाया गया था. इस सम्मान का मतलब भी ये लगाया गया था कि जो इज़्ज़त उन्हें उनकी अपनी कांग्रेस पार्टी ने नहीं दी वो बीजेपी और आरएसएस ने दी. उस समय उनकी बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी तक ने अपने पिता के फ़ैसले पर सवाल उठाया था.

आरएसएस के मंच से प्रभावशाली भाषण
लेकिन वरिष्ठ नेता को पता था वो आरएसएस के मंच से क्या पैग़ाम देना चाहते थे.
प्रणब मुखर्जी ने 7 जून 2018 को नागपुर में आरएसएस मुख्यालय में जो भाषण दिया वो कभी भुलाया नहीं जा सकता.
उन्होंने राष्ट्र, राष्ट्रवाद और देश भक्ति को लेकर जो कुछ कहा, उससे ये स्पष्ट हो गया कि मंच भले ही अलग हो, उनकी सोच में कोई भी फ़र्क़ नहीं आया है.
उन्होंने ने अपने भाषण में भारत की असली राष्ट्रीयता पर बल दिया, ''भारत की राष्ट्रीयता एक भाषा और एक धर्म में नहीं है. हम वसुधैव कुटुंबकम् में भरोसा करने वाले लोग हैं. भारत के लोग 122 से ज़्यादा भाषा और 1600 से ज़्यादा बोलियां बोलते हैं. यहां सात बड़े धर्म के अनुयायी हैं और सभी एक व्यवस्था, एक झंडा और एक भारतीय पहचान के तले रहते हैं.''
प्रणब मुखर्जी ने कहा, ''हम सहमत हो सकते हैं, असहमत हो सकते हैं, लेकिन हम वैचारिक विविधता को दबा नहीं सकते. 50 सालों से ज़्यादा के सार्वजनिक जीवन बिताने के बाद मैं कह रहा हूं कि बहुलतावाद, सहिष्णुता, मिलीजुली संस्कृति, बहुभाषिकता ही हमारे देश की आत्मा है.''
पूर्व राष्ट्रपति ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि विविधता में एकता ही भारत की असली पहचान है, ''नफ़रत और असहिष्णुता से हमारी राष्ट्रीय पहचान ख़तरे में पड़ेगी. जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि भारतीय राष्ट्रवाद में हर तरह की विविधता के लिए जगह है. भारत के राष्ट्रवाद में सारे लोग समाहित हैं. इसमें जाति, मज़हब, नस्ल और भाषा के आधार पर कोई भेद नहीं है.''
सियासी करियर की शुरुआत
एक विनम्र पृष्ठभूमि से आने वाले 84 वर्ष के मुखर्जी का जन्म 11 दिसंबर 1935 को पश्चिम बंगाल के एक छोटे से गाँव मिराटी में हुआ था.
उनके पिता कांग्रेस पार्टी के एक स्थानीय नेता भी थे और स्वतंत्रता सेनानी भी. उन्होंने इतिहास और राजनीति विज्ञान में मास्टर डिग्री और साथ ही साथ कोलकाता विश्वविद्यालय से क़ानून की डिग्री प्राप्त की. फिर उन्होंने अपने पेशेवर जीवन की शुरुआत कॉलेज के शिक्षक और पत्रकार के रूप में की.
1969 में प्रणब मुखर्जी का राजनीतिक कैरियर 34 साल की उम्र में राज्य सभा के सदस्य बनने से शुरू हुआ. इंदिरा गाँधी की निगरानी में उनका सियासी सफ़र तेज़ी से आगे बढ़ने लगा जिसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा.
लेकिन उनका सितारा उस समय गर्दिश में आया जब 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद राजीव गांधी प्रधान मंत्री बने जिन्होंने मुखर्जी को अपने मंत्रिमंडल में जगह नहीं दी.
वो उस वाक़या को अपनी पुस्तक "The Turbulent Years 1980-1996" ("द टर्बुलेंट इयर्स 1980-1996) में याद करते हुए कहते हैं, "मैं कॉल का इंतज़ार करता रहा. राजीव के मंत्रिमंडल से बाहर किया जाना मेरे दिमाग़ में भी नहीं था. मैंने कोई अफ़वाह भी नहीं सुनी थी... जब मैंने मंत्रिमंडल से अपने निष्कासन के बारे में जाना, तो मैं स्तब्ध रह गया और आगबबूला हो गया. मुझे यक़ीन नहीं हुआ."

बुरे दिन
प्रणब मुखर्जी का इससे भी बुरा वक़्त उस समय आया जब उन्हें पार्टी से छह साल के लिए निकाल दिया गया. ये क़दम उनके ख़िलाफ़ उस समय उठाया गया जब उन्होंने उस वक़्त के इलस्ट्रेटेड वीकली पत्रिका के संपादक प्रीतीश नंदी को एक इंटरव्यू दिया था.
पूर्व राष्ट्रपति अपनी किताब में पार्टी से निकाले जाने के बारे में लिखते हैं, "उन्होंने (राजीव गाँधी) ने ग़लतियाँ कीं और मैंने भी कीं. उन्होंने दूसरों को अपने ऊपर प्रभाव डालने दिया दूसरों ने मेरे ख़िलाफ़ कान भरे. मैं भी अपनी निराशा पर क़ाबू नहीं रख पाया."
कांग्रेस पार्टी में उनकी वापसी यूँ तो 1988 में हुई लेकिन 1991 में पार्टी की आम चुनाव में जीत और नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्री बनने के बाद उनकी क़िस्मत बदली और जब 2004 के आम चुनाव में कांग्रेस की सरकार बनी और ये साफ़ हो गया कि सोनिया गाँधी प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहतीं तो प्रधानमंत्री पद के लिए उनका नाम लिया जाने लगा.
वो अपनी पुस्तक "The Coaltion Years 1995-2012 (द कोएलिशन इयर्स 1995-2012) में इस बात को स्वीकार करते हैं और कहते हैं, "प्रचलित अपेक्षा ये थी कि सोनिया गांधी के मना करने के बाद मैं प्रधानमंत्री के लिए अगली पसंद बनूंगा."
प्रणब मुखर्जी प्रधानमंत्री न बन सके लेकिन रक्षा और वित्त मंत्री की हैसियत से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के क़रीबी सहयोगी बने रहे.
पार्टी की भी सेवा करते रहे जिससे उनकी "मिस्टर डिपेंडेबल" की छवि और मज़बूत बनी. इसका ज़िक्र उन्होंने ख़ुद अपनी पुस्तक में किया है.
राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने इस पद को गंभीरता से लिया और 2014 में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार से संबंध अच्छे रखे.
आख़िरी दिन तक प्रणब मुखर्जी एक सच्चे लोकतंत्रवादी बने रहे. आज के दौर में जहाँ नेता विचारधारा की परवाह किये बग़ैर दल बदलने में एक पल के लिए नहीं सोचते वहीं पूर्व राष्ट्रपति अपनी एक अलग पहचान बना कर, अपनी विरासत छोड़ कर गए हैं.(bbc)
- Richard Mahapatra
31 अगस्त 2020 को जारी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आंकड़ों के तहत कवर किए गए आठ उद्योगों में से केवल कृषि ऐसा क्षेत्र है, जिसमें वित्त वर्ष 2020-21 की अप्रैल-जून की तिमाही में वृद्धि हुई है।
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) द्वारा पहली तिमाही (अप्रैल-जून, 2020) के लिए जारी अनुमानों के अनुसार, सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 23.9 प्रतिशत की कमी आई है। पिछले साल इसी तिमाही में जीडीपी में 5.2 फीसदी की बढ़ोतरी हुई थी।
कोविड-19 महामारी और आर्थिक गतिविधियों के कारण यह अपेक्षित था, लेकिन इस दौरान जो बात देखने लायक है, वह यह है कि कृषि क्षेत्र ने असाधारण प्रदर्शन किया है।
मौद्रिक शब्दों में देखे हैं तो पहली तिमाही में जीडीपी 26.90 लाख करोड़ रुपए रही है, जबकि पिछले साल इसी तिमाही में जीडीपी 35.35 लाख करोड़ रुपए थी। यानी कि 8.45 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है।
कृषि क्षेत्र को देखें तो पिछले वर्ष की तुलना में इस तिमाही में कृषि सकल मूल्य वर्धित (जीवीए) में 3.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। मौद्रिक शब्दों में देखे हैं तो कृषि क्षेत्र में पहले तीन महीनों में 14,815 करोड़ रुपए का अतिरिक्त वृद्धि हुई है। जबकि ओवरऑल जीवीए में पिछले वर्ष की तुलना में तिमाही में 22.8 प्रतिशत की कमी आई है।
कोरोनावायरस संक्रमण को रोकने के लिए देश भर में लगाए गए लॉकडाउन की वजह से रबी सीजन की फसल की कटाई और सप्लाई चेन में रुकावट आई। बावजूद इसके जीडीपी के नए आंकड़े उत्साहजनक हैं। रबी मौसम के लिए कृषि उत्पादन (डेयरी उत्पाद, मत्स्य और मुर्गी उत्पादन सहित) शामिल हैं।
खरीफ सीजन अभी भी जारी है, लेकिन वर्तमान के ये आंकड़े पिछले रिकॉर्ड से आगे निकल गए हैं। इसके अलावा, जुलाई-अगस्त में कृषि क्षेत्र ने भारी निजी निवेश को आकर्षित किया है, जो कि हाल के वर्षों में खेती छोड़ने वाले किसानों की बड़ी संख्या को देखते हुए असामान्य सा लगता है। लेकिन गांवों में रिवर्स पलायन और भविष्य की आजीविका की अनिश्चितता ने कई लोगों को कृषि पर वापस निवेश करने के लिए मजबूर किया है।
इसका आर्थिक प्रभाव तब पता चलेगा जब अगली तिमाही के लिए जीडीपी के आंकड़े सितंबर अंत में जारी किए जाएंगे। लेकिन पिछले साल भी आर्थिक मंदी के बावजूद कृषि क्षेत्र में हल्की वृद्धि देखने को मिली थी, जिसके लगता है कि कृषि धीरे-धीरे राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए प्रासंगिक हो रही है।
महज एक हफ्ते पहले जब भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट 2019-20 जारी की, तो यह पहलू उस समय अन्य सुर्खियों की वजह से दब गया था। आरबीआई के अनुमान से पता चलता है कि 2019-20 में कृषि ने वास्तविक जीवीए वृद्धि 4.0 प्रतिशत दर्ज की। यह रिकॉर्ड अनाज उत्पादन के कारण हुआ। ओवरऑल आर्थिक विकास के लिए यह 15.2 प्रतिशत था। कृषि क्षेत्र के लिए यह एक नया रिकॉर्ड है। आर्थिक विकास में औद्योगिक क्षेत्र के मुकाबले कृषि क्षेत्र ने अधिक वृद्धि हुई। ऐसा 2013-14 के बाद पहली बार हुआ। वर्ष 2019-20 में औद्योगिक क्षेत्र ने सिर्फ 4.7 प्रतिशत की वृद्धि की थी। आरबीआई ने अनुमान लगाया कि इस वृद्धि ने देश के कुल घरों के 48.3 प्रतिशत की अर्थव्यवस्था को सकारात्मक रूप से प्रभावित किया है।
आरबीआई ने कहा, "2019-20 में रिकॉर्ड खाद्यान्न और बागवानी उत्पादन और कृषि अर्थव्यवस्था के लिए व्यापार की अनुकूल शर्तों के चलते कृषि और संबद्ध गतिविधियों में चमक दिखाई दी है। हालांकि आर्थिक विकास की दृष्टि से आरबीआई ने पिछले वित्त वर्ष को सबसे खराब साल बताया है।
हालांकि आरबीआई ने चेतावनी भी दी है कि किसानों को कई चुनौतियों को सामना करना पड़ रहा है और उन्हें अपनी फसलों का उचित दाम नहीं मिल रहा है। वह भी तब, जब देश में खाद्य मुद्रास्फीति अधिक हो, या उपभोक्ता कृषि उपज के लिए अधिक से अधिक भुगतान करते रहे हैं।
इस साल जुलाई में, खरीफ की बुआई में वृद्धि और कृषि के प्रति आकर्षण बढ़ने के संकेत को देखते हुए ट्रैक्टर की बिक्री में 38.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसका मतलब यह भी है कि किसान इस खरीफ सीजन में न केवल इनपुट पर, बल्कि ट्रैक्टर जैसी बड़ी सुविधा मशीनों पर भी निवेश कर रहे हैं। लेकिन यह सवाल अभी भी खड़ा है कि क्या किसानों को अपनी फसल का उचित दाम मिला है या आगे भी मिलेगा?
आरबीआई ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में सुझाव दिया है कि कृषि के लिए व्यापार की उचित तरीके अपनाए जाएं, ताकि अन्न उत्पादन बढ़ने पर किसानों की आमदनी भी बढ़े और यही किसानों की भी चिंता है कि क्या वे अच्छी फसल के साथ-साथ आर्थिक फसल भी काटेंगे।(downtoearth)
- पवन वर्मा
मिजोरम पूर्वोत्तर के सबसे दक्षिणी छोर पर बसा देश की सबसे कम आबादी वाला दूसरा प्रदेश है. देश में मिजोरम से कम आबादी सिर्फ सिक्किम की ही है. दो दूसरे देशों - बांग्लादेश और म्यांमार और देश के तीन प्रदेशों - त्रिपुरा, असम और मणिपुर - से सटा मिजोरम 1986 में ही एक स्वतंत्र राज्य बना. इससे पहले यह एक यूनियन टेरिटरी था और उससे पहले अपने पड़ोसी राज्य असम का ही एक हिस्सा.
मिजोरम की राजधानी आईजोल पूर्वोत्तर के सबसे खूबसूरत शहरों में से एक है. लेकिन इसके बावजूद जब आप यहां से दक्षिण, पूर्व और उत्तर की तरफ जाने वाली घुमावदार सड़कों पर निकलते हैं तो पहाड़ों की सुंदरता के बीच आपको उसे भूलने में बस कुछ ही मिनट लगते हैं. अपनी इन यात्राओं के दौरान आपको कई जगह सड़क किनारे कुछ ऐसी दुकानें भी दिख जाएंगी जिनमें मौसमी सब्जियां और फल तो होंगे लेकिन उनमें आपको कोई दरवाजा या दुकानदार नहीं दिखेगा. भरोसे की डोर पर टिकी ये दुकानें आज के दौर में एक अनूठी मिसाल हैं. इन्हें नघालॉह डॉर कहा जाता है. मिजो भाषा में इसका मतलब है बिना दुकानदार की दुकान.
इन दुकानों पर सभी वस्तुओं की कीमत की सूची पहले से ही टंगी होती है. कीमतें वाजिब होती हैं क्योंकि वहां आपके साथ मोल-भाव करने के लिए कोई दुकानदार नहीं होता. इसकी जगह दुकान में एक प्लास्टिक का एक डिब्बा रखा होता है. आपको बस यह करना है कि अपनी मनपसंद सब्जी या दूसरी सामग्री उठाइए और उसकी जो भी कीमत है उतने रुपये साथ वाले डिब्बे में डाल दीजिए. आपके पास खुल्ले पैसे नहीं है तो वह हिसाब-किताब भी आप डिब्बे के पैसों से कर सकते हैं. कुछ दुकानों पर चीजें साफ-सफाई के साथ पारदर्शी बैगों में भी रखी जाती हैं. कहीं उन्हें करीने से केले के पत्तों में बांधकर रख दिया जाता है. कुछ दुकानों में आपको फलों के जूस भी प्लास्टिक की बॉटल में रखे मिल जाएंगे. हर बॉटल पर उसकी कीमत लिखी होती है.
इन दुकानों की खासबात है कि यहां नाप-तोल की व्यवस्था नहीं होती. सारे फल-सब्जियां गट्ठर या ढेरी में होते हैं. कीमत भी एक ढेरी या गट्ठर के हिसाब से होती है
मिजोरम में लगभग 87 फीसदी आबादी ईसाई धर्म को मानने वाली है. यह पूर्ण आदिवासी राज्य है और आम धारणा है कि आदिवासी व्यवहार में निश्छल होते हैं. इस आधार पर कहा जा सकता है मिजोरम में यह ‘ईमानदारी की दुकानदारी’ सालों से चल रही होगी. इस राज्य के बारे में आपको धोखा बस इसी बात से मिलेगा.
मिजोरम के लिए भी इन दुकानों का अस्तित्व कोई दशकों पुराना नहीं है. आज से करीब 15 साल पहले की बात है. आइजोल से लगभग 100 किमी दूर एक गांव के किसान वनलाल्डिगा के खेत में सब्जियों की बंपर पैदावार हुई थी. इस गांव तक पहुंचना काफी मुश्किल है और वनलाल्डिगा के लिए यही मुश्किल थी कि इस पैदावार को बाजार तक कैसे ले जाएं. लेकिन सब्जियां तो बेचनी थीं. आखिरकार उन्होंने अपने गांव से 30 किमी दूर आईजोल-चंफाई रोड पर सब्जियों की एक दुकान खोल ली.
पहला दिन निराशा का रहा. सुबह से लेकर शाम हो गई लेकिन दुकान पर कोई ग्राहक नहीं आया. उदास मन से वनलाल्डिगा रात को अपने घर लौट गए. उनके लिए दुकान में रखी सब्जियों का कोई मतलब नहीं था तो उन्होंने उन्हें दुकान में ही छोड़ दिया. लेकिन अगले दिन सुबह जब वे लौटे तो दुकान से सारी सब्जियां गायब हो चुकी थीं और वहीं एक कोने में कुछ रुपये पड़े हुए थे.
मिजोरम के ग्रामीण समाज में चोरियां न के बराबर होती हैं. इस वजह से आम लोग एक दूसरे पर पूरा भरोसा करते हैं और ‘बिना दुकानदारों की दुकानों’ की बुनियाद भी इसी भरोसे पर टिकी है
वनलाल्डिगा आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखते हैं. उनके लिए यह नई बात तो थी लेकिन, अपने समाज के मूल्यों को समझने वाला यह ग्रामीण इस घटना से हैरान नहीं था. यह घटना उनके लिए एक सबक बन गई. अगले दिन उन्होंने और ज्यादा सब्जियां अपनी दुकान में रखीं और उनके साथ कीमत की सूची भी टांग दी. अगले दिन भी वही हुआ और इसके साथ ही इस अंचल में एक नई तरह की दुकान अस्तित्व में आ गईं. मिजोरम की यह पहली दुकान थी जिसे स्थानीय लोगों ने नघालॉह डॉर नाम दिया.
इस अंचल में वनलाल्डिगा अकेले किसान नहीं थे जिन्हें अपनी फसल बेचने में दिक्कत आई हो. लेकिन उनकी इस दुकान ने क्षेत्र में एक तरह की क्रांति कर दी. उनके पड़ोसी दूसरे किसानों को भी उनका यह आइडिया इतना भाया कि देखते ही देखते आईजोल-चंफाई रोड पर दसियों नघालॉह डॉर खुल गईं. आज सिर्फ इस रोड पर ही नहीं बल्कि मिजोरम के बाहरी इलाकों में आपको ऐसी कई दुकानें मिल जाएंगी.
इन दुकानों की खास बात यह है कि यहां नाप-तोल की व्यवस्था नहीं होती. सारे फल-सब्जियां गट्ठर या ढेरी में होते हैं. कीमत भी एक ढेरी या गट्ठर के हिसाब से होती है. वनलाल्डिगा एक अखबार को बताते हैं, ‘नाप-तोल में बहुत झंझट होता है इसलिए हम सभी सामान ढेरी या जोड़ी में बेचते हैं.’
नघालॉह डॉर की बुनियाद में भरोसा है और सबसे अच्छी बात है कि इन ग्रामीणों की ईमानदारी इतनी संक्रामक है कि यहां आने वाले पर्यटक भी इस भरोसे को नहीं तोड़ते.
आईजोल-चंफाई रोड मिजोरम की सबसे व्यस्त सड़कों में से है. म्यांमार सीमा पर यह प्रमुख व्यापारिक मार्ग है और इस पर बड़ी संख्या में पर्यटकों की आवा-जाही लगी रहती है. इन दुकानों के ज्यादातर ग्राहक पर्यटक ही हैं. नघालॉह डॉर ने ग्रामीण मार्केटिंग की एक ऐसी तकनीक ईजाद की है जहां लोगों को अपना सामान बेचने के लिए बिचौलिए की जरूरत नहीं है. दुकान पर सेल्समैन रखने या कहें कि खुद बैठने की भी जरूरत नहीं है और फायदा पूरा है. यहां जो समय बचता है उसका इस्तेमाल दुकान के मालिक अपने खेतों में करते हैं.
ऐसा नहीं है कि मिजोरम में चोरियां नहीं होतीं लेकिन, ग्रामीण अंचलों में चोरी करने वालों और उनके परिवार को इतनी हिकारत से देखा जाता है कि इनका अपने आप ही सामाजिक बहिष्कार हो जाता है. कुछ स्वभाविक निश्छलता और थोड़े-बहुत सामाजिक भय के मेल की वजह से मिजोरम के ग्रामीण अंचलों में चोरी की घटनाएं न के बराबर होती हैं. मिजोरम के समाज में यह व्यवस्था दशकों से रही है जिसके चलते आम लोग एक दूसरे पर पूरा भरोसा करते हैं. नघालॉह डॉर की बुनियाद में भी यही भरोसा है और सबसे अच्छी बात है कि इन ग्रामीणों की ईमानदारी इतनी संक्रामक है कि यहां आने वाले पर्यटक भी उनके इस भरोसे को नहीं तोड़ते हैं.(satyagrah)
-ज़फ़र आग़ा
“ओह माय फ्रेंड, कहां थे तुम...” जब मैं उनसे भव्य साउथ ब्लॉक के उनके दफ्तर में मिलने गया था, तो उन्होंने गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया था। वह मनमोहन सिंह सरकार में नए-नए रक्षा मंत्री बने थे। वह बहुत अच्छे मूड में थे और उन्हें अपने काम में मजा भी आ रहा था। और इस सबकी चमक उनके चेहरे पर साफ नजर आ रही थी।
मैं प्रणब दा (आमतौर पर लोग उन्हें इसी नाम से पुकारा करते थे) से तब भी मिला था जब 1989 में करीब 5 साल के लगभग राजनीतिक संन्यास के बाद उनकी कांग्रेस में वापसी बुई थी। 1985 में वे राजीव गांधी की नजरों से उतर गए थे और इसीलिए उन्हें अपने मंत्रिंडल का हिस्सा भी नहीं बनाया था। अगर राजनीतिक सरगोशियों की बात करें तो कहा जाता था कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उन्होंने कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनने की खव्हिश जताते हुए पद पर दावा किया था और उनके इस दावे से कई कांग्रेसी नेता नाराज हो गए थे।
प्रणब बाबू 1982 में देश के वित्त मंत्री और राज्यसभा में सदन के नेता थे। इंदिरा गांधी की हत्या के समय वे इन पदों पर थे। ऐसे में जब राजीव गांधी ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया तो वे इस अनदेखी को बरदाश्त नहीं कर पाए और कांग्रेस छोड़कर अपन अलग पार्टी बना ली, लेकिन यह पार्टी कभी खड़ी ही नहीं हो पाई। अंतत: 1989 में उनकी कांग्रेस में वापसी हुई और उसके बाद उन्होंने कभी पीछे पलटकर नहीं देखा।
उनकी राजनीतिक समझ को सबसे पहले 70 के दशक में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे ने पहचाना। रे ने प्रणब मुखर्जी को राज्यसभा भेजा। राज्यसभा का सदस्य बनने के बाद प्रणब मुखर्जी की नजदीकियां इंदिरा गांधी से बढ़ती गईं और 1976 में इंदिरा गांधी ने उन्हें अपनी सरकार में राज्यमंत्री बनाया।
1980 में जब इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी हुई तो वे फिर से सरकार का हिस्सा बने और इस बार उन्हें वित्त मंत्रालय की बड़ी जिम्मेदारी दी गई। यही वह समय था जब प्रणब दा ने सत्ता प्रबंधन, कार्पोरेट और राजनीतिक रिश्तों को बनाने-समझने का हुनर न सिर्फ सीखा बल्कि इसमें पारंगत भी हो गए। धीरूभाई अंबानी समेत बंबई (आज की मुंबई) के बड़े कार्पोरेट नाम उनके मित्रों की सूची में शामिल हुए और अंत तक रहे। चर्चा तो यह आम रही कि प्रणब दा को दिल्ली में कार्पोरेट की नुमाइंदा ही माना जाने लगा था।
कांग्रेस पार्टी में प्रणब दा को संकटमोचक के रूप में भी पहचान मिली। 90 के दशक की शुरुआत में नरसिम्हा राव को जब राजनीतिक साथियों अर्जुन सिंह और शरद पवार से चुनौती मिली तो प्रणब दा ने संकट का समाधान निकाला। प्रधानमंत्री बनने की अपनी ख्वाहिश का प्रदर्शन कर हाथ जला चुके प्रणब दा ने सत्ताक्रम में खुद को नंबर दो पर मजबूती से स्थापित कर लिया। और इस काम को उन्होंने इतनी कामयाबी से निभाया कि कांग्रेस का हर प्रधानमंत्री उनका कायल रहा। 2004 में जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने हर मुश्किल घड़ी और राजनीतिक फैसलों के लिए हमेशा प्रणब दा कि तरफ देखा। मनमोहन सिंह सरकार के दोनों कार्यकाल में खासतौर से 2004 से 2012 तक प्रणब मुखर्जी हमेशा संकट मोचक के रूप में सामने आते रहे। और रोचक बात यह रही कि कांग्रेस अध्यक्ष और यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी भी पार्टी और राजनीतिक मसलों पर उनके साथ सलाह-मश्विरा करती रहीं।
कई बार कुछ शरारती रिपोर्टर प्रणब दा को छेड़ते थे कि आपके वित्त मंत्री रहते तो मनमोहन सिंह आरबीआई गवर्नर थे। लेकिन प्रणब दा हमेशा इन पत्रकारीय गुगलियों को अच्छे से खेलते और कहते...मेरी हिंदी अच्छी नहीं हैं न. इसीलिए मैं प्रधानमंत्री नहीं बन सका। लेकिन क्या वह जो कहते थे उसका वही अर्थ होता था, कहना मुश्किल है।
प्रणब मुखर्जी को करीब आने वाले बहुत से लोग जानते हैं कि जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तो वे खुद प्रधानमंत्री बनना चाहते थे। मैंने खुद एक बार सीधे उनसे पूछा था, “दादा, मुझे उम्मीद थी कि 2004 में आप प्रधानमंत्री बनेंगे, आखिर कहां गड़बड़ हो गई।” उन्होंने मुस्कुराते हुए देखा, कंधो को झटका और सिर्फ एक शब्द बोला, “किस्मत...”
लेकिन किस्मत उन पर खूब मुस्कुराई। वे देश के सबसे बड़े पद राष्ट्रपति के पद पर 2012 में आसीन हुए। उन्होंने इस पद को गरिमापूर्ण तरीके से निभाया। क्या कोई कल्पना कर सकता था कि जो शख्स 5 दशक तक कांग्रेसी रहा, उसे नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार ने 2019 में भारत रत्न से नवाजा।
नरेंद्र मोदी अकसर प्रणब दा से प्रभावित होने का दावा करते हैं और सार्वजनिक तौर पर मानते रहे हैं कि उन्हें प्रणब मुखर्जी की सलाह से हमेशा फायदा हुआ। सभी चतुर राजनीतिज्ञों की तरह प्रणब मुखर्जी भी रिझाने वाले नेता रहे। प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रपति पद से रिटायर होने के बाद जब आरएसएस के दफ्तर जाना मंजूर किया तो कई लोगों ने भवें तरेरी, लेकिन नरेंद्र मोदी ने उनकी खुलकर तारीफ की। उन्होंने आरएसएस के मुख्यालय में भाषण दिया, जिससे कई कांग्रेसी और उनके उदारवादी मित्रों के झटका भी लगा था।
प्रणब दा ने करीब पांच दशक तक देश की सेवा की, और सरकार के लगभग हर महत्वपूर्ण महकमे में उनका कभी मंत्री के तौर पर तो कभी राष्ट्रपति के तौर पर दखल रहा। राष्ट्रपति के तौर पर उन्होंने केंद्रीय विश्वविद्यालयों को लेकर काफी सक्रियता दिखाई। उन्होंने यूनिवर्सिटीज के कुलपतियों के साथ बात करने में मजा आता था। वे कई बार लंबी वर्कशॉप के लिए देश भर के कुलपतियों को राष्ट्रपति भवन बुलाते रहे। उन्होंने राष्ट्पति भवन के एक म्यूजियम में बदला और उसे आम लोगों के लिए खोला।
हालांकि वे एक सिद्धांतों पर चलने वाले राष्ट्रपति बनने की कोशिश करते रहे, लेकिन वे मोदी सरकार को विवादित फैसले लेने से नहीं रोक पाए। इनमें रफाल विमानों का सौदा भी शामिल है।
आखिर ऐसा क्यों था, इसका जवाब शायद उनकी बायोग्राफी की तीसरी किस्त में पढ़ने को मिलेगा जिसकी उन्होंने वसीयत की थी कि उनके जाने के बाद ही प्रकाशित की जाए। हो सकता है कि इस तीसरी किस्त में यूपी सरकार और उनके राष्ट्रपति भवन प्रवास के अनुभवों के बारे में जानने को मिले। बायोग्राफी की पहली दो किस्तें तो बहुत ही राजनीतिक तोलमोल कर लिखी गई हैं। देखना होगा कि तीसरी किस्त में प्रणब दा ने अपनी यादों में क्या लिखा है।
अलविदा प्रणब दा....ऊं शांति...हम सब आपको मिस करेंगे (navjivan)
91 वर्षीय नोम चोम्स्की जाने-माने अमेरिकी भाषाविद और राजनीतिक विश्लेषक हैं। पिछले दिनों उन्होंने डीआईईएम25 टीवी के लिए स्रेको होर्वाट से बात कीं। प्रस्तुत हैं अंश :
यह चौंकाने वाला है कि कोरोनावायरस के इस महत्वपूर्ण क्षण में डोनाल्ड ट्रम्प नेतृत्व कर रहे हैं। कोरोनोवायरस काफी गंभीर है। लेकिन यह याद रखना जरूरी है कि दो और बहुत बड़े खतरे हैं, जो मानव इतिहास में घटित होने वाली किसी भी घटनाओं से कहीं ज्यादा बदतर हैं। एक परमाणु युद्ध का बढ़ता खतरा और दूसरा ग्लोबल वार्मिंग जैसा वैश्विक खतरा। ये दोनों खतरे बढ़ते जा रहे हैं। कोरोनावायरस भयानक है और इसके भयंकर परिणाम हो सकते हैं, लेकिन हम इससे उबर जाएंगे। जबकि अन्य दो खतरों से उबर पाना नामुमकिन होगा। इनसे सब कुछ तहस-नहस हो जाएगा।
अमेरिका के पास असीम ताकत है। यह एकमात्र ऐसा देश है, जो ईरान और क्यूबा जैसे अन्य देशों पर प्रतिबंध लगाता है, तब बाकी के देश उसका अनुसरण करते हैं। यूरोप भी अमेरिका का अनुसरण करता है। ये देश अमेरिकी प्रतिबंधों से पीडि़त हैं, लेकिन आज के वायरस संकट की सबसे बड़ी विडंबना देखिए कि क्यूबा, यूरोप की मदद कर रहा है। जर्मनी ग्रीस की मदद नहीं कर सकता, लेकिन क्यूबा यूरोपीय देशों की मदद कर सकता है। भूमध्यसागर क्षेत्र में हजारों प्रवासियों और शरणार्थियों की मौतों के मद्देनजर इस समय पश्चिम की सभ्यता का संकट विनाशकारी है।
युद्ध के वक्त की जाने वाली बयानबाजी का आज कुछ महत्व है। अगर हम इस संकट से निपटना चाहते हैं, तो हमें युद्ध के समय की जाने वाली लामबंदी की तरफ देखना होगा, उदाहरण के लिए द्वितीय विश्व युद्ध के लिए अमेरिका की वित्तीय लामबंदी (वित्त जुटाने की विभिन्न योजनाएं)। द्वितीय विश्व युद्ध ने देश को कर्ज में डाल दिया था और अमेरिकी विनिर्माण को चौपट कर दिया था। लेकिन, वित्तीय लामबन्दी ने आगे विकास को आगे बढ़ाया। इस अल्पकालिक संकट को दूर करने के लिए हमें उसी मानसिकता की आवश्यकता है और अमीर देश ऐसा कर सकते हैं। एक सभ्य दुनिया में, अमीर देश, दूसरे देशों का गला घोंटने के बजाय सहायता देते हैं। कोरोनावायरस संकट लोगों को यह सोचने के लिए मजबूर कर सकता है कि हम किस तरह की दुनिया चाहते हैं।
इस संकट की उत्पत्ति बाजार की विफलता और नव-आर्थिक नीतियों का भी नतीजा है, जिसने गहरी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को जन्म दिया है और तीव्र किया है। यह लंबे समय से पता था कि सार्स महामारी कुछ बदलाव के साथ कोरोनावायरस के रूप में आ सकती है। अमीर देश संभावित कोरोनावायरस के लिए टीका बनाने का काम कर सकते थे और कुछ संशोधनों के साथ आज ये हमारे पास उपलब्ध होता। बड़ी दवा कंपनियों की निरंकुशता जगजाहिर है। उन पर लगाम लगा पाना पाना सरकार के लिए कठिन है। ऐसे में लोगों को विनाश से बचाने के लिए एक वैक्सीन (टीका) खोजने की तुलना में नई बॉडी क्रीम बनाना अधिक लाभदायक है।
पोलियो का खतरा सरकारी संस्थान द्वारा बनाए गए साल्क टीके से खत्म हो गया। इसका कोई पेटेंट नहीं था। यह काम इस समय किया जा सकता था, लेकिन नवउदारवादी आफत ने इस काम को होने नहीं दिया।
हमने ध्यान नहीं दिया
अक्टूबर 2019 में ही अमेरिका को कोरोना जैसी संभावित महामारी की आशंका थी। हमने इस पर ध्यान नहीं दिया। 31 दिसंबर को चीन ने विश्व स्वास्थ्य संगठन को निमोनिया के बारे में सूचित किया और एक हफ्ते बाद चीनी वैज्ञानिकों ने इसे कोरोनावायरस के रूप में पहचाना। फिर इसकी जानकारी दुनिया को दी गई। इस इलाके के देशों जैसे, चीन, दक्षिण कोरिया, ताइवान ने कुछ-कुछ काम करना शुरू कर दिया और ऐसा लगता है कि संकट को बहुत अधिक बढऩे से रोक लिया। यूरोप में भी कुछ हद तक यही हुआ। जर्मनी के पास एक विश्वसनीय अस्पताल प्रणाली है और वह दूसरों की मदद किए बिना अपने हित में काम करने में सक्षम था। अन्य देशों ने इसे अनदेखा कर दिया। सबसे खराब रवैया रहा ब्रिटेन और अमेरिका का।
दुनिया के आगे दो बड़े खतरे हैं। एक है परमाणु युद्ध का बढ़ता खतरा और दूसरा ग्लोबल वार्मिंग जैसा वैश्विक खतरा। ये दोनों खतरे बढ़ते जा रहे हैं। जब हम किसी तरह इस संकट से उबर जाएंगे, तब हमारे पास जो विकल्प मौजूद होगा वह अधिक अधिनायकवादी व क्रूर राज्यों की स्थापना के रूप में देखा जा सकता है या फिर पहले के मुकाबले अधिक मानवीय समाज का पुनर्निर्माण भी संभव है। एक ऐसा समाज जो निजी लाभ के बजाय मानवीय आवश्यकताओं को वरीयता दे। इस बात की संभावना है कि लोग संगठित होंगे, एक बहुत बेहतर दुनिया बनाने के लिए काम करेंगे। लेकिन वे भारी-भरकम समस्याओं का सामना तब भी करेंगे, जैसे हम आज परमाणु युद्ध की आशंका का सामना कर रहे हैं। पर्यावरणीय तबाही की समस्याएं भी होंगी, जिसकी अंतिम सीमा छूने के बाद शायद ही हम कभी उबर पाएं। इसलिए, जरूरी है कि इन समस्याओं को लेकर हम निर्णायक रूप से कार्य करें। इसलिए यह मानव इतिहास का एक महत्वपूर्ण क्षण है। न केवल कोरोनावायरस की वजह से, जो दुनिया की खामियों के बारे में जागरुकता ला रहा है, बल्कि पूरे सामाजिक-आर्थिक प्रणाली की गहरी त्रुटियों के बारे में भी हमें इस वक्त पता चल रहा है। अगर हमें जीवन जीने लायक भविष्य चाहिए तो मौजूदा हालात को बदलना ही होगा। कोरोना संकट चेतावनी संकेत हो सकता है और आज इससे निपटने या इसके विस्फोट को रोकने के लिए एक सबक हो सकता है। लेकिन हमें इसकी जड़ों के बारे में भी सोचना है, जो हमें आगे और अधिक बदतर हाल में ले जा सकते हैं।
आज 2 बिलियन से अधिक लोग क्वारंटाइन (संगरोध) में है। सामाजिक अलगाव का एक रूप वर्षों से मौजूद है और बहुत ही हानिकारक है। आज हम वास्तविक सामाजिक अलगाव की स्थिति में हैं। किसी भी तरह, फिर से सामाजिक बंधनों के निर्माण के जरिए इससे बाहर निकलना होगा, जो जरूरतमंदों की मदद कर सके। इसके लिए उनसे संपर्क करना, संगठन का विकास, विस्तारित विश्लेषण जैसे कार्य करने होंगे। उन लोगों को कार्यशील और सक्रिय बनाने से पहले, भविष्य के लिए योजनाएं बनाना, लोगों को इंटरनेट युग में एक साथ लाना, उनके साथ शामिल होना, परामर्श करना, उन समस्याओं के जवाब जानने के लिए विचार-विमर्श करना, जिसका वे सामना करते हैं, और उन पर काम करना आवश्यक है। यह आमने-सामने का संचार नहीं है, जो मनुष्य के लिए आवश्यक है। लेकिन इसे कुछ समय के लिए आप रोक सकते हैं। अंत में कहा जा सकता है कि अन्य तरीकों की तलाश करें और उसके साथ आगे बढ़ें। उन गतिविधियों का विस्तार और उन्हें गहरा करें। ये संभव है। यह आसान नहीं है। इंसानों ने अतीत में भी कई समस्याओं का सामना किया है। (सौजन्य-प्रेसेंजा)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अब फिर देश को बासी कढ़ी परोस दी। मां ने बेटे को भी मात कर दिया। छत्तीसगढ़ विधानसभा के नए भवन के भूमिपूजन समारोह में बोलते हुए वे कह गईं कि देश में ‘गरीब-विरोधी’ और ‘देश-विरोधी’ शक्तियों का बोलबाला बढ़ गया है। ये शक्तियां देश में तानाशाही और नफरत फैला रही हैं। देश में अभिव्यक्ति की आजादी खतरे में है।
ये सब बातें वे और उनका सुपुत्र कई बार दोहरा चुके हैं लेकिन इन पर कोई भी ध्यान नहीं देता। यहां तक कि कांग्रेसी लोग भी इनकी मज़ाक उड़ाते हैं। वे छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के उत्तम कामों तक अपना भाषण सीमित रखतीं तो बेहतर होता। जहां तक तानाशाही की बात है, वह तो आपात्काल के दौरान इंदिरा गांधी भी स्थापित नहीं कर पाई थीं। उन्हें और उनके बेटे संजय गांधी को भारतीय जनता ने 1977 के चुनाव में फूंक मारकर सूखे पत्ते की तरह उड़ा दिया था। उन्हें आज नाम लेने में डर लगता है लेकिन वह कहना यह चाहती हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तानाशाह है और भाजपा अब भारतीय तानाशाही पार्टी (भातपा) बन गई है।
उनका यह आशय क्या तथ्यात्मक है ? इस पर हम जरा विचार करें। आज भी देश में अखबार और टीवी चैनल पूरी तरह से स्वतंत्र हैं। जो जान-बूझकर खुशामद और चापलूसी करना चाहें, सरकार उनका स्वागत जरुर करेगी (सभी सरकारें करती हैं) लेकिन देश में मेरे-जैसे दर्जनों बुद्धिजीवी और पत्रकार हैं, जो जरुरत होने पर मोदी और सरकार की दो-टूक आलोचना करने से नहीं चूकते लेकिन किसी की हिम्मत नहीं है कि उन्हें कोई जरा टोक भी सके।
जहां तक तानाशाही का सवाल है, वह देश में नहीं है, पार्टियों में है। एकाध पार्टी को छोडक़र सभी पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र का अंत हो चुका है लेकिन सोनियाजी जऱा पीछे मुडक़र देखें तो उन्हें पता चलेगा कि उसकी शुरुआत उनकी सासू मां इंदिराजी ही ने की थी। कांग्रेस का यह ‘वाइरस’ भारत की सभी पार्टियों को निगल चुका है।
कांग्रेस की देखादेखी हर प्रांत में पार्टियों के नाम पर कई ‘प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां’ खड़ी हो गई हैं। यदि सोनिया गांधी कुछ हिम्मत करें और कांग्रेस-पार्टी में लोकतंत्र ले आएं तो भारत के लोकतंत्र के हाथ बहुत मजबूत हो जाएंगे और उनका नाम भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। सोनियाजी की हिंदी मुझे खुश करती है। यह अच्छा हुआ कि उनके भाषण-लेखक ने सरकार के लिए ‘गरीबद्रोही’ और ‘देशद्रोही’ शब्द का प्रयोग नहीं किया।
(नया इंडिया की अनुमति से)
हवाई उड़ानें तो मई से ही शुरु हो चुकी हैं, और अब उन्हें तीन महीने होने को आ रहे हैं। फ्लाइट्स को पूरी भरकर उड़ने की इजाजत है, जिसमें बीच की सीट पर भी यात्री बैठ सकते हैं। लेकिन रेलवे को लॉकडाउन की शुरुआत से ही बंद करके रखा गया है। आखिर क्यों?
मंगलवार यानी पहली सितंबर से देश में अनलॉक 4.0 लागू हो जाएगा। मैंने अब इसका हिसाब ही लगाना छोड़ दिया है कि इसका क्या अर्थ है, और मुझे लगता है कि कोई भी इसका सही मायनों में अर्थ समझ भी नहीं पा रहा है। भारत सरकार दरअसल कई चीजों को बंद रखकर कोरोना का संक्रमण काबू में रखने की कोशिश कर रही है। अगर सरकार लोगों को एक दूसरे से दूर रखे और सेवाओं से वंचित रखे तो कोरोना के संक्रमण की रफ्तार धीमी जाएगी।
इससे कुछ ऐसे नियम बन गए हैं, जो मुझे समझ नहीं आते। मसलन, हवाई उड़ानें तो मई से ही शुरु हो चुकी हैं, और अब उन्हें तीन महीने होने को आ रहे हैं। फ्लाइट्स को पूरी भरकर उड़ने की इजाजत है, जिसमें बीच की सीट पर भी यात्री बैठ सकते हैं। लेकिन रेलवे को लॉकडाउन की शुरुआत से ही बंद करके रखा गया है। रेलवे अपनी नियमित करीब 17,000 प्रतिदिन ट्रेन की जगह सिर्फ 230 स्पेशल ट्रेन ही चला रहा है। ऐसे में क्या तर्क है कि जहाज तो पूरा भरकर उड़ सकता है लेकिन ट्रेन नहीं चल सकती? हवाई यात्री तो दो गज की दूरी बनाए ही नहीं रख सकते, तो ट्रेनें न चलाना तो तर्कहीन लगता है।
कोरोना संक्रमण फैलने से रोकने के फायदे अभी नहीं पता हैं, लेकिन अर्थव्यवस्था को इससे भयंकर नुकसान हुआ है जो साफ नजर आ रहा है। सूरत से ही पिछले महीने आई एक रिपोर्ट को देखें तो पता चलता है कि सामान्य दिनों की अपेक्षा उत्पादन में 25 फीसदी गिरावट आई है और इसका सबसे बड़ा कारण मजदूरों-कामगारों का न होना है।
सूरत और आसपास के औद्योगिक इलाकों से अप्रैल-मई में करीब 30 लाख लोग चले गए। यह बात 31 जुलाई को प्रकाशित हिंदू फ्रंटलाइन पत्रिका की एक रिपोर्ट में कही गई है। इन लोगों को काम पर वापस लाने का कोई रास्ता नही नहीं दिख रहा। ये लोग काम पर वापस आना भी चाहें तो भी कोई रास्ता नहीं है। ऐसी रिपोर्ट्स आई हैं कि मिल मालिकों और दूसरे कारोबारियों ने मजदूरों-कामगारों को हवाई जहाज से वापस बुलाना शुरु कर दिया है। लेकिन, सवाल है कि रेलवे क्यों नहीं ट्रेनें चला रहा? इस बारे में कोई कुछ बताने वाला है नहीं।
सूचना दी गई है कि दिल्ली मेट्रो इस सप्ताह शुरु हो जाएगी और अपनी क्षमता से 50 फीसदी पर काम करेगी। (सवाल वही है कि विमान सेवाओं में यह नियम क्यों नहीं), जबकि मुंबई की जीवनरेखा मानी जाने वाली मुंबई लोकल बंद पड़ी। मेरी नजर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को लिखे गैर मान्यता प्राप्त पत्रकारों की उस मार्मिक चिट्ठी पर पड़ी जिन्हें लोकल के बजाए टैक्सी से चलना बहुत महंगा पड़ता है।
स्कूल-कॉलेज बंद हैं, लेकिन परीक्षाएं लेने का सिलसिला जारी है। इसका आखिर तर्क क्या है। अगर हम स्कूल-कॉलेज को ऑनलाइन कक्षाएं लेने को कह रहे हैं तो फिर हम छात्रों को परीक्षा देने के लिए भीड़ के रूप में परीक्षा केंद्र क्यों बुला रहे हैं?
सिनेमाहॉल भी बंद रखे गए हैं क्योंकि शारीरिक दूरी बनाए रखने के लिए इन्हें सिर्फ 25 फीसदी क्षमता पर चलाना नुकसान का सौदा है। लेकिन किसी फिल्म की अवधि भी तो लगभग उतनी ही होती है जितनी किसी घरेलू हवाई यात्रा की, और सिनेमाघर और विमानों की सीटें भी लगभग एक जैसी दूरी पर ही होती हैं। तो फिर सिनेमाघरों को क्यों बंद रखा गया है जिससे बहुत बड़ी तादाद में मनोरंजन उद्योग के लोग जुड़े हुए हैं।
मुझे इसमें कुछ हद तक एक विचित्रता नजर आती है, और मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी को हम जिस तरह देखते हैं उसमें कुछ नैतिकतावाद भी शामिल है। मिसाल के तौर पर, रेस्त्रां खोलने की इजाजत है, लेकिन बार बंद रखे गए हैं।. आखिर क्यों? रेस्त्रा में बैठने कोई मानक तय नहीं होता है। तो फिर बार में भी तो ऐसा ही है। लगता सरकार मदिरा सेवन करने वालों को पसंद नहीं करती है।
इसके अलावा केंद्र और राज्यों को बीच कुछ गलतफहमियां भी सामने आई हैं। मसलन केंद्र ने तो जिम खोलने की इजाजत देदी है लेकिन राज्य ऐसी इजाजत नहीं दे रहे हैं। आखिर क्यों?
दूसरे देशों क बात करें तो वहां ज्यादातर जगह लॉकडाउन स्वैच्छिक था। भारत में इसे कर्फ्यू जैसा बना दिया गया। आज भी मुंबई पुलिस आपकी गाड़ी को जब्त कर लेगी अगर आप वाजिब वजह बाहर आने की नहीं बता पाए। सवाल है कि वाजिब वजह क्या हो, जवाब है जो पुलिस को पसंद आ जाए।
हम एक देश एक टैक्स वाले राष्ट्र हैं, लेकिन लोग स्वतंत्र रूप से इधर-उधर जाने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं। एक राज्य से दूसरे राज्य जाने पर एक आवेदन देना पड़ रहा है और अनुमति मांगनी पड़ रही है। अब अनुमति मिलेगा या नहीं यह राज्य पर निर्भर है।
जैसा कि मैंने शुरु मे कहा कि भारत ने कोरोना के संक्रमण को रोकने की कोशिश में नागरिकों को जरूरी सेवाओं से वंचित किया। क्या इसका फायदा हुआ? मुझे नहीं लगता। अर्जेंटीन के साथ भारत अकेला ऐसा देश है जहां कोरोना संक्रमितों की संख्या मार्च के बाद से लगातार बढ़ रही है। कोरोना संक्रमण रोकने का एकमात्र तरीका बड़े पैमाने पर जन व्यवहार पर निर्भर है। लेकिन भरी बैठकों में केंद्रीय मंत्री तक अपने मास्क ठोड़ी पर खिसकाए बैठे दिख रहे हैं। ऐसे में आम नागरिकों से अच्छे व्यवहार की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? और ये लोग नागरिकों से अच्छे व्यवहार के लिए कैसे कह सकते हैं। नहीं कह सकते। यही कारण है कि हम लगातार नियमों में बदलाव कर रहे हैं, लेकिन हर नियम नाकाम ही साबित हो रहा है और कोरोना संक्रमितों की बढ़ती संख्या इसका प्रमाण है। (navjivan)
हिंदूवाद, भाषागत गाली-गलौज, संप्रदायवाद और सवर्णवादी वर्चस्व की जाहिल फूटों का सिलसिला खत्म करवा के कांग्रेस अगर अपनी पार्टी के मूल वैचारिक आधारों को युवा सपनों के लायक तराशे और सभी क्षेत्रीय दलों से युवा नेताओं को एक प्लेटफॉर्म पर लाकर लामबंद होने का सफल आग्रह कर सके, तो यह कोई बुरी बात नहीं होगी।
- मृणाल पाण्डे
कुछ भविष्यवाणियां कांग्रेस की बाबत बरसों से की जाती रही हैं जो बीसवीं सदी तक हर बार असफल साबित हुईं। नेहरू के समय से राजीव गांधी के जीवनकाल तक यह कहने वाले कम नहीं थे कि अब पार्टी दक्षिण और वाम के दो साफ वैचारिक ध्रुवों में बंट कर दो फाड़ हो जाएगी। जब यह होगा तो कांग्रेस का फैलाया भरम मिट जाएगा कि समय के साथ रसोइये भले आते-जाते रहें, कांग्रेस की विशाल पतीली में हर तरह की सब्जी और दाल-चावल मिलाकर एक सुस्वादु, स्वास्थ्यवर्धक खिचड़ी हमेशा बनाई जा सकती है। इंदिरा जी के बाद फिर कांग्रेस की आसन्न मौत की भविष्यवाणियां हुईं: कि उनके पुत्र राजनीति में नए हैं। जल्द ही क्षेत्रीय नेता उन पर हावी होंगे और तब केंद्र का दर्जा बहुत करके एक होल्डिंग कंपनी का बन जाएगा। हर सूबा अब संविधान की दी हुई स्वायत्तता के बूते शिक्षा, स्वास्थ्य, निर्माण और जल बंटवारे तक के सवालों पर अपने हित स्वार्थ खुद तय करके केंद्र या पड़ोसी राज्य से भाव-ताव करेगा। यानी देश का दूसरा विभाजन भले न हो लेकिन सूबाई क्षत्रप ताकतवर होंगे और दिल्ली शासन की अखंड केंद्रीयता काफी हद तक मिट कर एक जबर्दस्त संघीय लोकतंत्र का युग शुरू हो जाएगा जिसमें हर राज्य बराबर की ताकत और सुनवाई का हक रखेगा।
अर्थ समझें तो पहली भविष्यवाणी का मतलब यह था कि आगे जाकर देश अलग-अलग: वाम, दक्षिण, समाजवादी सरीखी विचारधाराओं के आधार पर खांचों में बंटेगा। दूसरी का आशय था कि बंटवारा तो होगा, पर दल की विचारधारा की खड़ी लकीरों के आधार पर नहीं। नेहरू काल से भाषावार बने प्रांत अपनी भौगोलिक और भाषायी अस्मिता मजबूत कर चुके हैं। लिहाजा अब वे अपने हित-स्वार्थों के तहत देश को कई-कई सतहों, परतों में भीतर से बांट देंगे। इससे दिल्ली चालित रह कर भी देश भीतर से परतों में बंटा देश बन जाएगा जिसकी सतहें हर राज्य की अलग-अलग क्षेत्रीय भाषा और सांस्कृतिक आधारों पर बनेंगी। ये दोनों ही भविष्यवाणियां सदी की शुरुआत तक सही निकलती नहीं दिखीं। पर इनके भीतर का छुपा आंशिक सच 2014 के बाद दक्षिणपंथी वैचारिकता की फतह के बाद धीरे- धीरे उजागर हुआ है।
प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में जब बीजेपी गठजोड़ की निर्द्वंद्व नेता साबित हो गई, तो दक्षिणपंथी विचार के नेतृत्व को मौका मिला कि देश को हिंदुत्ववादी विचारधारा और उसके सही-गलत जैसे हों, अपने ऐतिहासिक निष्कर्षों के आधार पर एक दिशा विशेष में मोड़ा जाए। अगर संविधान आड़े आता दिखे तो उसमें भी अपनी मन्याताओं के हिसाब से तरमीम की जाए। यूं कांग्रेस के तले देश का जो लोकतंत्र बना था, उसमें भी सवर्ण हिंदू और पुरुष अधिक हावी थे। फिर भी वह अनेकता में एकता, विरोधों के बीच सर्वानुमति, सर्वदलीय संयुक्त मोर्चे के आधार पर काम करने वाला था जिसे लोकतांत्रिकता से हटने पर संसद या अदालत में सफल चुनौती का रास्ता खुला था।
2014 में पूरे बहुमत से सत्ता में आई एनडीए सरकार ने देश के उस सांचे को लगातार संघ द्वारा परिभाषित बहुसंख्यक हिंदूनीत, एक चालकानुवर्ती और केंद्र संचालित बनाया है। संसद या अदालत में इससे असहमत लोगों का प्रतिवाद असफल रहना दिखाता है कि देश में खड़ी वैचारिक लकीरों वाला स्पष्ट विभाजन संभव नहीं रह गया। दलगत के मैनीफेस्टो चाहे जो कहें लेकिन दलों के भीतरी लोकतंत्र, चुनावी चंदा एकत्रित करने, उसके वितरण या चुनावी रैलियों के नजरिये से कोई भी पार्टी आज दूसरी से भिन्न नहीं दिखती है। यानी जैसा राजेंद्र माथुर कहते थे- राजकाज के अर्थ में कांग्रेस कोई पार्टी नहीं, राज करने की निखालिस भारतीय शैली है। जो भी दल लंबे समय तक राज करने का इच्छुक है, उसको झक मार कर यही तरीका पकड़ना होगा। पर इसका मतलब यह नहीं कि केंद्र-राज्य टकराव नहीं होंगे।
किसी भी देश का मूल चरित्र उसमें ऐतिहासिक तौर से बार-बार होते रहे मुद्दों से जाना जा सकता है। भारत में ये मुद्दे राजनीतिक विचारधारा के उतने नहीं, जितने जाति, धर्म और भाषाई अस्मिता के हैं। उदाहरण के लिए दक्षिण के खिलाफ बीजेपी की प्रिय हिंदी के जब्बर उपनिवेशवादी मंसूबों को लेकर अभी द्रमुक की कनिमोझी ने जो पुराने भाषाई जिन्नात बोतल से निकाल दिए, जातिगत आरक्षण पर पुनर्विचार की बात उठते ही जैसे तलवारें मियान से निकल आईं, कश्मीर के सर्वदलीय नेताओं के मोर्चे ने अनुच्छेद 370 के हटने से हुए कश्मीरियत के विघटन पर जैसी भड़ास निकाली, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री की अपने सूबे के धरतीपुत्रों के लिए नौकरियां आरक्षित करने पर शेष राज्यों की जो प्रतिक्रिया हुई, वे उनके पूर्ववर्ती क्षेत्रीय क्षत्रपों की तल्ख झड़पों से भिन्न नहीं हैं। ये टकराहटें जिनको सूबे की जनता का भारी समर्थन है, दिखाती हैं कि यह देश भले ही संविधान की रक्षा अथवा महिलाओं के साथ शारीरिक बदसलूकी या पुलिसिया भ्रष्टाचार-जैसे मुद्दों पर लामबंद न हो लेकिन क्षेत्रीय सांस्कृतिक पहचान और जातिगत आधारों पर जम कर गदर काटा जा सकता है।
बीजेपी को मालूम है कि उसकी कोई बड़ी चुनौती है तो वह गांधी परिवारनीत कांग्रेस ही है। इसीलिए उसने उसके नेतृत्व को अभिमन्यु की तरह घेर कर, मीडिया चर्चाएं खास तरह से मोड़कर राहुल गांधी को बचकाना और सोनिया से कमतर बताने का कोई मौका नहीं छोड़ा। लेकिन किसी की आप खिल्ली बड़ीआसानी से उड़ा सकते हैं। लेकिन राजा नंगा है कहने का साहस तो किसी को दिखाना था ही। यह भी गलत नहीं कि आज बाढ़, सुखाड़, बेरोजगारी, पर्यावरण क्षरण के बीच खदानों को लीज पर देना, सीमा असुरक्षा पर लीपापोती और महामारी से सफलतापूर्वक निबटने की अक्षमता- जैसे मुद्दों पर जब दलों को ईंट से ईंट बजा देनी थी, तब यह बात हमारे राष्ट्रीय पाखंड का ज्वलंत नमूना है कि संसद से सड़क तक हर विपक्षी दल के अधिकतर बुजुर्ग नेता मुंह चुराए पड़े रहे। अल्पसंख्यक समुदाय, खासकर महिलाओं तथा छात्रों ने संशोधित नागरिकता कानून पर जम कर मोर्चा लिया। फिर कोविड उमड पड़ा तो सड़क पर उतरना भी मुहाल हो गया। लेकिन अधबीच सरकारें गिराने, विधायकों की खरीद-फरोख्त जारी रही।
अब ऐसी दशा में जब जरूरत अगले विधानसभा चुनावों के लिए बड़ा दिल लेकर अहंकार त्याग कर एकजुट होने की हो, तो उस समय पहले निष्क्रिय रहे कुछ लोग अपनी उपेक्षा की दुहाई देते हुए कहें कि कुछ कीजै, तब कोई क्या करे? कांग्रेस ने यह बात उठने पर अपने तरीके से कार्यकारी समिति की बैठक की और (गोदी मीडिया की हर कोशिश के बावजूद) घर की इज्जत का घड़ा एक बार फिर चौराहे पर फोड़े जाने से बचा लिया। यह गंभीरता से विचार करने की बात है कि आज जरूरत मुंह फुलाने या पैर पटकने की नहीं। आपको देश और लोकतंत्र की परवाह हो तो इस देश में अब सच्चा वैचारिक संघर्ष एकजुट होकर छेड़ा जाएगा। ऐसा संघर्ष ही आज के लस्त पंख खोये बरसाती कीड़ों की तरह निस्तेज नजर आते विपक्ष को सबल और सम्मानित बनाएगा। अमेरिका, इंग्लैंड, चीन- ये सब देश आपातकाल आने पर पक्ष-विपक्ष के बीच खुल कर छेड़ेगए गृह युद्धों के बावजूद सही लोकतांत्रिक पटरियों से नहीं उतरे। उस समय की गर्मागर्म जिरहों और चुनौतियों ने उनको भविष्य के लिए गहरी एकजुटता दी। भारत भी अपवाद नहीं होगा।
ईमान से सोचें, क्या अब तक हमारे हालिया टकराव टुच्ची बातों पर नहीं होते रहे? (अमुक स्टेशन का नाम हिंदी में क्यों लिखा गया? या तमुक मुगलकालीन सड़क का नाम बदलकर दल विशेष के दिवंगत नेता के नाम पर काहे रखा गया? भूमि पूजन कोविड के बावजूद क्यों न हो? कोविड के बढ़ते संक्रमण के खतरे के बावजूद अमुक बड़ा पर्यटन स्थल या नामी मंदिर लाखों पर्यटकों-दर्शनार्थियों के लिए क्यों न खोल दिया जाए?) क्षुद्र शिकायतों और ओछे हथकंडों ने तो हमको जनता और दुनिया की नजरों में बद से बदतर ही बनाया। दुनिया की हर रेटिंग एजेंसी के आर्थिक, सामाजिक, मीडिया से जुड़े पैमानों पर हम लगातार नीचे धकेले जा रहे हैं। सौ बात की एक बात यह कि अन्याय किसी के साथ हो लेकिन झगड़े से दोनों ही पक्ष दुनिया के मंच पर बदनाम होते हैं। खासकर वह पक्ष जो अधिक सबल और आक्रामक दिखता हो।
यह एक तरह से स्वस्थ बात है कि देश की दूसरी सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी के अपने आंतरिक प्लेटफॉर्म पर मशविरे और समन्वय के हर पुराने फॉर्मूले और ढांचे को ईमानदार चुनौती दी गई है। हिंदूवाद, भाषागत गाली-गलौज, संप्रदायवाद और सवर्णवादी वर्चस्व की जाहिल फूटों का सिलसिला खत्म करवा के कांग्रेस अगर समय की कसौटी पर परखे गए अपनी पार्टी के मूल समन्वयवादी वैचारिक आधारों को युवा सपनों के लायक तराशे और सभी क्षेत्रीय दलों से उभर रहे युवा नेताओं को क्षुद्र बातों पर अटकी विभाजनकारी ताकतों के खिलाफ एक प्लेटफॉर्म पर लाकर लामबंद होने का सफल आग्रह कर सके, तो यह कोई बुरी बात नहीं होगी। कोविड की महामारी ने साफ कर दिया है कि हमारी प्राथमिकताएं क्या होनी चाहिए। यह भी कि सीमाओं से लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनावों तक आज की दुनिया के केंद्रीय झगड़े का उत्स अमेरिका और चीन के बीच है। उस कोलाहलमय नक्कारखाने में भारत कभी बांग्लादेश तो कभी नेपाल और कभी ईरान-तूरान राजदूत भेजकर एशियाई एकता की तूती बजाए तो सुनने वाला कौन है? दुनिया में हमारी इज्जत कितनी होगी, यह इस पर निर्भर करेगा कि खुद हमारी नजरों में हमारे लोकतंत्र की इज्जत कितनी रह गई है।(navjivan)
- तारेंद्र किशोर
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने हाल ही में बयान दिया है कि अर्थव्यवस्था कोविड-19 के रूप में एक दैवीय घटना (एक्ट ऑफ गॉड) की वजह से प्रभावित हुई है. इससे चालू वित्त वर्ष में इसमें संकुचन आएगा.
जीएसटी काउंसिल की बैठक के बाद मीडिया से मुख़ातिब होते हुए वित्त मंत्री ने ये बात कही थी.
सोमवार को सरकार अप्रैल से जून 2020 तिमाही के लिए जीडीपी ग्रोथ के आंकड़े जारी करने वाली है.
इसके ठीक पहले वित्त मंत्री का यह बयान संकेत देता है कि इस तिमाही में जीडीपी ग्रोथ शायद कम रहने वाली है.
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के इस बयान पर अब पूर्व वित्त मंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम ने निशाना साधते हुए ट्वीट किया है.
उन्होंने ट्वीट में लिखा है, "अगर ये महामारी ईश्वर की क़रतूत है तो हम महामारी के पहले 2017-18, 2018-19 और 2019-2020 के दौरान हुए अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन का वर्णन कैसे करेंगे? क्या ईश्वर के दूत के रूप में वित्त मंत्री जवाब देंगी."
नहीं संभल पा रही है अर्थव्यवस्था
कोरोना की वजह से लगे लॉकडाउन से आर्थिक गतिविधियाँ पूरी तरह से ठप पड़ गई थीं जिसकी वजह से भारत समेत दुनिया के कई देशों की अर्थव्यवस्था बुरी तरह से प्रभावित हुई है.
समाचार एजेंसी रॉयटर्स के एक पोल के मुताबिक़, भारत की अब तक दर्ज सबसे गहरी आर्थिक मंदी इस पूरे साल बरक़रार रहने वाली है.
इस पोल के मुताबिक़ कोरोना वायरस के बढ़ते मामलों की वजह से अब भी खपत में बढ़ोतरी नहीं दिख रही है और आर्थिक गतिविधियों पर लगाम लगी हुई है.
इस पोल के मुताबिक़ चालू तिमाही में अर्थव्यवस्था के 8.1 प्रतिशत और अगली तिमाही में 1.0 प्रतिशत सिकुड़ने का अनुमान है. यह स्थिति 29 जुलाई को किए गए पिछले पोल से भी ख़राब है.
उसमें चालू तिमाही में अर्थव्यवस्था में 6.0 फ़ीसदी और अगली तिमाही में 0.3 प्रतिशत की कमी आने का अनुमान था.
भारत सरकार ने लॉकडाउन से प्रभावित अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए मई में 20 लाख करोड़ के आर्थिक राहत पैकेज की घोषणा की थी. इस पैकेज के तहत 5.94 लाख करोड़ रुपये की रकम मुख्य तौर पर छोटे व्यवसायों को क़र्ज़ देने और ग़ैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों और बिजली वितरण कंपनियों की मदद के नाम पर आवंटित करने की घोषणा की गई थी.
इसके अलावा 3.10 लाख करोड़ रुपये प्रवासी मज़दूरों को दो महीने तक मुफ़्त में अनाज देने और किसानों को क़र्ज़ देने में इस्तेमाल करने के लिए देने की घोषणा की गई. 1.5 लाख करोड़ रुपये खेती के बुनियादी ढाँचे को ठीक करने और कृषि से जुड़े संबंधित क्षेत्रों पर ख़र्च करने के लिए आवंटित करने की घोषणा की गई.
इस पैकेज के ऐलान को भी अब तीन महीने बीत चुके हैं. बाज़ार भी अधिकांश जगहों पर खुल चुके हैं. भारतीय रिज़र्व बैंक भी मार्च से ब्याज़ दरों में 115 बेसिस पॉइंट्स की कमी कर चुका है. लॉकडाउन के दौरान लोगों को बैंक से लिए कर्ज़ पर राहत देने की भी बात कही गई.
सरकार की कोशिशें नाकामयाब क्यों?
लेकिन इन तमाम प्रयासों के बावजूद अर्थव्यवस्था संभलती नहीं दिख रही है तो क्यों. केंद्र सरकार ने चालू वित्त वर्ष में जीएसटी राजस्व प्राप्ति में 2.35 लाख करोड़ रुपये की कमी का अनुमान लगाया है.
जानकार मानते हैं कि बाज़ार खुलने के बाद भी चूंकि डिमांड में कमी है इसलिए अभी बाज़ार के हालत सुधरते नहीं दिख रहे हैं. सरकार की ओर से उठाए गए क़दमों का बाज़ार पर कोई असर क्यों नहीं दिख रहा है?
योजना आयोग के पूर्व सदस्य अर्थशास्त्री संतोष मेहरोत्रा का मानना है कि सबसे बड़ी ग़लती सरकार ने ये की है कि उसने लॉकडाउन के क़रीब पौने दो महीने बाद आर्थिक राहत पैकेज की घोषणा की.
इसके अलावा वो आर्थिक पैकेज के नाकाफ़ी होने और उसकी कमियों की भी बात करते हैं. वो कहते हैं, "आर्थिक पैकेज में कहा गया है कि सूक्ष्म, लुघ और मध्यम उद्योगों का जो बकाया पैसा है वो वापस करेंगे. ये तो उन्हीं का पैसा है तो यह तो करना ही था. इसे आर्थिक पैकेज में शामिल करने का क्या मतलब है. इसके अलावा इनकम टैक्स के अंतर्गत जो अतिरिक्त पैसा चला जाता है, उसे भी आर्थिक पैकेज में शामिल करने की बात कही गई. ये तो जनता का पैसा ही जनता को लौटाना हुआ. ये किस तरह का अर्थिक पैकेज था."
बाज़ार में मांग की कमी क्यों?
बाज़ार में डिमांड की कमी पर संतोष मेहरोत्रा कहते हैं कि डिमांड तब होगी जब लोगों के पास पैसा होगा और ये पैसा आज की तारीख़ में कॉरपोरेट्स को छोड़कर किसी के पास नहीं है. सरकार ने कॉरपोरेट टैक्स घटाकर 30 प्रतिशत से 25 प्रतिशत कर दिया. इससे सीधे एक लाख करोड़ का नुक़सान तो सबसे पहले सरकार के राजस्व का हुआ और दूसरा इसके एवज़ में ना कॉरपोरेट ने अपना खर्च बढ़ाया और ना ही अपना निवेश. तो सरकार ने इस कदम से अपनी बदतर होती राजस्व की स्थिति को और नुक़सान में डाल दिया.
जब जीडीपी के आंकड़े कमज़ोर होते हैं तो हर कोई अपने पैसे बचाने में लग जाता है. लोग कम पैसा खर्च करते हैं और कम निवेश करते हैं इससे आर्थिक ग्रोथ और सुस्त हो जाती है.
ऐसे में सरकार से ज़्यादा पैसे खर्च करने की उम्मीद की जाती है. सरकार कारोबार और लोगों को अलग-अलग स्कीमों के ज़रिए ज़्यादा पैसे देती है ताकि वे इसके बदले में पैसे खर्च करें और इस तरह से आर्थिक ग्रोथ को बढ़ावा मिल सके. सरकार की ओर से इस तरह की मदद अक्सर आर्थिक पैकेज के तौर पर की जाती है.
संतोष मेहरोत्रा बताते हैं कि आर्थिक प्रोत्साहन का मतलब होता है टैक्स काटना और खर्च बढ़ाना. सरकार ने पर्सनल इनकम टैक्स और कॉरपोरेट टैक्स दोनों ही घटा दिया. पर्सनल इनकम टैक्स 2019 के चुनाव से पहले ही सरकार ने ढाई लाख से पांच लाख कर दिया था. इससे हुआ यह कि इनकम टैक्स देने वालों की संख्या छह करोड़ से घटकर डेढ़ करोड़ रह गई.
बाज़ार मांग की चुनौती से कैसे उबर पाएगा?
अर्थव्यवस्था अभी जिस दुश्चक्र में फंस गई है उससे कैस उबर पाएगी?
अर्थशास्त्री मानते हैं कि लोग बाज़ार में खरीदारी करने को प्रोत्साहित हो और बाज़ार में डिमांड में बढ़े, इन्हीं तरीक़ों से बाज़ार को फिर से पटरी पर लाया जा सकता है.
इसके लिए संतोष मेहरोत्रा सरकार को और कर्ज़ लेने और उसे सीधे लोगों के हाथ में पुहँचाने की सलाह देते हैं. वो कहते हैं, "सरकार को अर्बन मनरेगा इन हालात से निपटने के लिए शुरू करना पड़ेगा. इससे कुछ कामगार शहर वापस लौटे आएंगे. दूसरी ओर इससे मनरेगा पर पड़ने वाला भार कुछ कम होगा. इसके अलावा सरकार पीएम किसान योजना जैसी कोई न्यूनतम आय गारंटी योजना ला सकती है. इसमें मेरे सुझाव में 70 प्रतिशत ग्रामीण और 40 प्रतिशत शहरी इलाक़ों के परिवार को शामिल किया जा सकता है. इन्हें एक न्यूनतम राशि सीधे कैश ट्रांसफर के तौर पर दिया जाए ताकि लोगों को खर्च करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके. उनकी जेब में पैसे आएंगे तो वो खर्च करेंगे और फिर बाज़ार में डिमांड बढ़ेगी."
इसके अलावा वो स्वास्थ्य सेवाओं को और सुदृढ़ बनाए जाने पर ज़ोर देने की बात करते हैं क्योंकि आने वाले वक़्त में लगता है कि कोरोना की चुनौती बढ़ने वाली है. इसलिए उस मोर्च पर भी मजबूत रहना ज़रूरी है, नहीं तो अर्थव्यवस्था को होने वाले नुकसान को रोका नहीं जा सकेगा.
संतोष मेहरोत्रा कहते हैं कि इन उपायों पर उतना ज़्यादा खर्च भी नहीं आने वाला है और दूसरी बात यह कि सरकार को कर्ज़ तो लेना ही होगा. इसमें हिचकने की ज़रूरत नहीं है.
वो कहते हैं कि मैक्रो इकॉनॉमिक्स का एक चक्र होता है. अगर अर्थव्यवस्था चल पड़ी तो आपका कर राजस्व फिर से पटरी पर आ जाएगा.(bbc)
प्रकाश दुबे
सरिताओं का सभ्यता तथा सियासत से पुराना रिश्ता है। विडम्बना है कि साधु-संत भी नदियों को साफ-सुथरा नहीं करा पा रहे हैं। राजनीति में सक्रिय साध्वी उमा भारती गंगा शुद्धिकरण अभियान और संसद की धारा से दूर हैं। मंत्री रहते हुए उमा भारती ने दक्षिण गंगा कहलाने वाली गोदावरी तथा सप्तनदी में शामिल कावेरी पर ध्यान दिया। आंध्रप्रदेश और तेलंगाना के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाई। दोनों नदियों के जल बंटवारे का विवाद हल करना चाहा। आम राय नहीं बनी। ठीक चार वर्ष बाद जल संसाधन मंत्रालय की नींद खुली। 25 अगस्त को बैठक बुलाई। राजस्थान के विधायकों को समझाते-बुझाते केन्द्रीय मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत कोरोना संक्रमित हुए। शेखावत गर्व से कह सकते हैं कि हमने बैठक रद्द नहीं की। चंद्रशेखर राव ने बैठक आगे टालने का आग्रह किया था। श्रम शक्ति भवन में तेलंगाना के मुख्यमंत्री की चिट्ठी मौजूद है।
संसद में हाथापाई, हंगामा? गया जमाना
संसद में सभापति के आसन तक पहुँचना, विरोध करने वाले सदस्य के पास जा पहुँचना अच्छी आदत नहीं है। जो ऐसा करते हैं, वे भी इस बात को जानते हैं। अब ऐसा करना मुश्किल है। अजी, बाहुबल दिखाने वाले सदस्यों ने हंगामा न करने की शपथ नहीं ली। कसम लेते, तब भी टूटते देर नहीं लगती। कोरोना कोविड-19 ने करिश्मा कर दिखाया। वरिष्ठों के सदन राज्यसभा के करीब पचास सदस्य दर्शक दीर्घाओं में बिठाए जाएंगे। सिर्फ पत्रकार दीर्घा में बैठने की इजाज़त नहीं होगी। वहां पत्रकार विराजमान रहेंगे। राज्यसभा सचिवालय ने लोकसभा सचिवालय से बात की है। सौ से अधिक राज्यसभा सदस्य बिना चुनाव लड़े लोकसभा में बैठने का अधिकार पाएंगे। नाटक के पूर्वाभ्यास की तरह राज्यसभा के सभपति और उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने मुआयना किया। लोकसभा और राज्यसभा की बैठकें अलग-अलग समय पर होंगी ताकि दोनों सदनों के सदस्य सुरक्षित दूरी पर बैठ सकें। शक्ल और अक्ल प्रदर्शित करने के लिए तकनीकी सुविधा पहले से मौजूद है।
गलवान का पहलवान
जमीन हड़प करने वाले चीन ने जून में सैनिकों की हत्या की। सयानों की सीख है कि बिना हड्डी की जीभ हड्डियां तुड़वाने की ताकत रखती है। जीभ को बकबक से रोकने के लिए अजय देवगन मुंह में सिगरेट दबाते हैं। चहेते फिल्म पत्रकार का इस्तेमाल कर खबर चिपकवा दी कि गलवान घाटी पर फिल्म बनाएंगे। भरोसा था भारतीय सैनिकों की निर्मम हत्या पर चीन माफी मांगेगा। भारत की जमीन खाली कर देगा। ढिशुम ढिशुम सिंगम अवतार अजय फिल्म से लक्ष्मी कमाने का सपना देख रहे थे। गलवान घाटी का पेंच नहीं सुलझा। देवगन ने चुप्पी साधी। उत्साही लाल चुप नहीं बैठते। मौका हाथ लगते ही अमीर खान को अजदहे चीन का प्यारा कहा। इसी जोश में डंका पीट रहे हैं कि हमारा देवगन गलवान घाटी की शहादत के खिलाफ फिल्मी पांचजन्य फूंक रहा है। पत्नी काजोल को प्रसार भारती का सदस्य बनाने की कीमत फिल्म बनवा कर वसूलेंगे? यह बात और है कि काजोल बैठकों में गैरहाजिर रहती थीं। अजय गुनगुनाते होंगे- हर फिक्र धुएं में उड़ाता चला गया।
ये घर बहुत हसीन है
इधर कोरोना ने दस्तक दी। केन्द्र सरकार ने उसी वक्त मार्च के पहले सप्ताह में परिसीमन आयोग गठित किया। उच्चतम न्यायालय से सेवानिवृत्त न्यायाधीश रंजना देसाई अध्यक्ष हैं। आयोग ने संबंधित राज्यों से आंकड़े जुटा लिए। हम चकित हैं। कोरोना निर्भया रंजना ने चार बैठकें कब, कैसे, कहां की होंगी?आयोग को दफ्तर अब जाकर नसीब हुआ है। देश के चुनाव क्षेत्रों का परिसीमन करने वाले आयोग का पता-ठिकाना भाड़े का है। होटल अशोक, जिसे अगरेजीदां अशोका कहकर पुकारते हैं, उसकी तीसरी मंजिल पर। बेघर आयोग का ऐसे में काम कोई कुशल गृहिणी ही चला सकती है। रंजना देसाई ने कर दिखाया। कोरोना कहर के कारण होटल का घाटा बढ़ रहा है। पर्यटन निगम के कई होटल बिके, कुछ चतुर कारोबारियों को चलाने मिले। संस्कृति और पर्यटन मंत्री प्रहलाद पटेल फिर भी खुश होंगे। किराया मिलेगा। पर्यटन-निगम की कुछ तो कमाई होगी।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
राज ढाल
आरएसएस का मुखपत्र पाञ्चजन्य कहता है कि मुस्लिम उम्मा का खलीफा बनने को बेताब तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैयब एरदुगान की पत्नी के साथ आमिर खान की फोटो प्रचारित हो रही है. चीन में आमिर खान की फिल्में क्यों शानदार कारोबार करती हैं जबकि अन्य सितारे और निर्माता असफल हो जाते हैं।
ये माइंड सेट क्या है..?
हीनभावना..
गहरी हीन भावना
जो मुस्लिम विरोध से पनपी है..
उस इतिहास से पनपी है जहां इन्हें अपना अपमान लगता रहा है कि हम कैसे हज़ार साल गुलाम बने रहे..
जरूर कोई साजि़श रही होगी..
ज़रूर कोई गद्दारी रही होगी..
वरना हम किसी से कम ना थे..
कोई जाति व्यवस्था में खराबी नही थी
हमारे इतिहास को विकृत करके हमे बदनाम किया गया वगैरह वगरैह..
ये हीनभावना इनके अंदर डर जन्माती है और फिर ये डर अपने समर्थकों को ट्रांसफर कर देते है। जैसे एटीएम कार्ड डालते ही पैसा बाहर आता है वैसे डर डालते ही सत्ता हाथ में आ जाती है।
चीन के फिल्मी इतिहास में विदेशी फिल्मों की कैटिगिरी में सबसे ज्यादा सफल फिल्म आमिर खान की दंगल हुई। जिसने एवेंजर सीरीज को भी मात दे दी।
ऐसा क्या था दंगल में जो चीनियों को इतनी भायी कि अमेरिका के हॉलीवुड की इस सफल फिल्म को भी पीछे छोड़ दिया..?
चीन दुनिया का सबसे बड़ी आबादी वाला मुल्क है उसके बाद भारत। लेकिन दोनों में जमीन आसमान का फर्क है। जहां चीन ओलंपिक में सबसे ज्यादा मैडल लेकर आता है वहीं भारत के हाथ इक्का-दुक्का हो मैडल हाथ लगते है वो भी कभी कभार।
अक्सर चीनी हंसते है हम पर कि आप क्या मुकाबला करोगे हमारा.. देखो हम खेलों में कहां है.. और आप कहाँ..?
वो हमारे मुल्क के खेलों के भ्रष्ट सिस्टम पर हंसते है.. मखोल उड़ाते है। लेकिन दंगल देखने के बाद उनकी हमारे प्रति राय बदली।
उन्होंने देखा इस फिल्म में कि कैसे जन्म देने से पहले ही कन्याओं को मार देने वाले इस देश में एक ऐसा बाप भी हुआ जिसने अपनी लड़कियों को खेलों की दुनिया में भारत को मैडल दिलाने का ख्वाब देखा।
चीन ने इस फिल्म को बार-बार देखा। उसके इमोशंस को दिल से महसूस किया कि कैसे एक बाप ने मुसीबतें उठाई।
आमतौर पर चीनी एक्शन या कुंगफू जैसी फिल्मे ही बनाते है जो सफल भी होती है।
लेकिन दंगल ने उनके अंतर्मन को छुआ
आपको ये जानकर हैरानगी होगी कि चीन के सिनेमा व्यापार को तरक्की दी इसी फिल्म दंगल ने। चीन में ये फिल्म इतनी पापुलर हुई कि चीन ने कई शहरों में ज्यादा मल्टीप्लेक्स सिनेमाघर खोले ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग इसे देख सके
एक अनुमान के मुताबिक चीन में आमिर खान की दंगल और सुपरस्टार फिल्म के डेढ़ साल के भीतर 12त्नअधिक सिनेमाघर नए खुले। जो दर्शाता है कि भारत ने किसी और मामले में चीन को प्रभावित किया हो या ना हो पर आमिर खान ने भारत के रियल ब्रांड के रूप में अपनी धाक जरूर जमाई है। और संघ का पाञ्चजन्य पूछ रहा है कि आमिर की फिल्में वहां सफल क्यों हो जाती है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कमला हैरिस की वजह से अमेरिका में तो भारत का डंका बज ही रहा है, साथ-साथ यह भी खुश खबर है कि चीन में डॉ. द्वारकानाथ कोटनिस और लंदन में नुरुन्निसा इनायत खान को भी उनके बलिदान के लिए बड़े प्रेम के साथ याद किया जा रहा है। डॉ. कोटनिस की याद में एक कांस्य की प्रतिमा चीन में खड़ी की जा रही है और नुरुन्निसा (नूर) के सम्मान में लंदन में एक नीली तख्ती लगाई जा रही है। इन भारतीय पुरुष और महिला के योगदान से भारत की नई पीढिय़ों को अवगत होना चाहिए। जिन भारतीयों को विदेशी लोग इतनी श्रद्धा से याद करते हैं, उनका यथायोग्य सम्मान भारत में भी होना चाहिए।
डॉ. कोटनिस तथा अन्य चार भारतीय डॉक्टर 1938 में चीन गए थे। उन दिनों चीन पर जापान ने हमला कर दिया था। नेहरुजी और सुभाष बाबू ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के अनुरोध पर इन डॉक्टरों को चीन भेजा था। डॉ. कोटनिस 28 साल के थे। वे सबसे पहले वुहान शहर पहुंचे थे, जो आजकल कोरोना के लिए बहुचर्चित है। वहां उन्होंने सैकड़ों चीनी मरीजों की जी-जान से सेवा की और एक चीनी नर्स गुओ क्विगलान के साथ शादी भी कर ली। उनके एक बेटा हुआ, जिसका नाम उन्होंने रखा-यिन हुआ-अर्थात भारत-चीन। दिसंबर 1942 में उनका वहीं निधन हो गया। उनके आकस्मिक निधन पर माओत्से तुंग और मदाम सन यात सेन ने उन्हें अत्यंत भावपूर्ण श्रद्धांजलि दी।
उनकी पत्नी का निधन 2012 में 96 साल की आयु में हुआ। वे एक बार भारत भी आई थीं। चीन का जो भी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री भारत आता है, वह पुणें-निवासी डॉ. कोटनिस के परिजनों से जरुर मिलता है। हो सकता है कि चीन इन दिनों उनके नाम की माला इसलिए भी जप रहा है कि गलवान के हत्याकांड का असर वह घटाना चाहता है।
जहां तक सुश्री नूर का सवाल है, उनके माता-पिता भारत के प्रतिष्ठित मुस्लिम थे। उनकी मां तो टीपू सुल्तान की रिश्तेदार थी। उनकी दादी ओरा बेकर अमेरिकी थीं। ओरा के भाई अमेरिकी योगी थे। नूर का जन्म मास्को में 1, जनवरी 1914 को हुआ। सितंबर 1919 से उनका परिवार लंदन में रहने लगा। ये लोग सूफी थे। 1920 में ये लोग फ्रांस में जा बसे।
1939 में नूर ने बुद्ध की जातक कथाओं पर एक पुस्तक लिखी। जब द्वितीय विश्वयुद्ध शुरु हुआ तो नूर का परिवार वापस लंदन चला गया। लंदन जाकर नूर ने ब्रिटिश सेना में वायरलेस आपरेटर का पद ले लिया।
1943 में नूर को ब्रिटेन ने अपने गुप्तचर विभाग में नियुक्ति दे दी ताकि वह फ्रांस जाकर जर्मन नाजी सेना के विरुद्ध गुप्तचरी करे। नूर ने जबर्दस्त काम किया लेकिन नाजिय़ों ने उसे गिरफ्तार करके 1944 में उसकी हत्या कर दी। नूर के अहसान को अंग्रेज लोग आज तक नहीं भूले हैं। भारत को भी अपनी बेटी पर गर्व है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-सुनीता नरैन
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने जोर देकर कहा है कि अमेरिका में कोविड-19 के कारण होनेवाली मौतों की संख्या इतनी अधिक नहीं हैं। ऐसा उन्होंने उस दिन कहा जिस दिन इस वायरस के कारण अमेरिका में हुई मौतों की संख्या 1,60,000 को पार कर गई। हालांकि ट्रम्प कितने भी गलत क्यों न प्रतीत हों, उनकी बात में सच्चाई अवश्य है। यदि उनकी ही तरह आप भी अमेरिका में हो रही मौतों को कुल मामलों की तुलना में देखें, यानि केवल मृत्यु दर पर ध्यान दें, तो यह सच है कि अमरीका की हालत कई अन्य देशों से बेहतर है। अमेरिका में, मृत्यु दर 3.3 प्रतिशत के आसपास है, यह यूके और इटली में 14 प्रतिशत और जर्मनी में लगभग 4 प्रतिशत है। अतः वह सही भी है और पूरी तरह से गलत भी। अमेरिका में संक्रमण नियंत्रण से बाहर है। दुनिया की 4 प्रतिशत आबादी वाला देश 22 प्रतिशत मौतों के लिए जिम्मेदार है। लेकिन अंततः बात इस पर आकर टिकती है कि आप किन बिंदुओं को चुनते हैं और किन आंकड़ों को प्रमुखता देते हैं।
यही कारण है कि भारत सरकार कहती आ रही है कि हमारी हालत भी अधिक बुरी नहीं है। भारत में मृत्यु दर कम (2.1 प्रतिशत) तो है ही, साथ ही यह अमेिरका की मृत्यु दर से भी कम है। इसका मतलब यह हुआ कि हमारे यहां संक्रमण की दर भले ही अधिक है लेकिन लोगों की उस हिसाब से मृत्यु नहीं हो रही है । लेकिन फिर सरकार यह भी कहती है कि भारत एक बड़ा देश है और इसलिए हमारे यहां होने वाले संक्रमण एवं मौतों की संख्या तुलनात्मक रूप से अधिक होगी। यही कारण है कि भारत में रोजाना औसतन 60,000 नए मामले (6 अगस्त तक, 2020 के पहले हफ्ते तक) आने के बावजूद, दस लाख आबादी पर कुल 140 मामले ही हैं और हम यह कह सकते हैं कि दुनिया के अन्य देशों के बनिस्पत हमारे यहां हालात नियंत्रण में हैं। अमेरिका में दस लाख पर 14,500 मामले हैं, ब्रिटेन में 4,500 और सिंगापुर में भी दस लाख पर 9,200 मामले हैं।
लेकिन हमारे यहां मामलों की संख्या इसलिए भी कम हो सकती है क्योंकि भारत में टेस्टिंग की दर बढ़ी अवश्य है लेकिन यह अब भी हमारी कुल आबादी की तुलना में नगण्य है। 6 अगस्त तक भारत ने प्रति हजार लोगों पर 16 परीक्षण किए जबकि अमेरिका ने 178 किए। यह स्पष्ट है कि हमारे देश के आकार और हमारी आर्थिक क्षमताओं को देखते हुए, अमेरिकी परीक्षण दर की बराबरी करना असंभव होगा। लेकिन फिर अपनी स्थिति को बेहतर दिखाने के लिए अमेिरका के साथ तुलना करने की क्या आवश्यकता है।
ऐसे में सवाल यह है कि हमसे क्या गलतियां हुई हैं और आगे क्या करना चाहिए। मेरा मानना है कि यही वह क्षेत्र है जिसमें भारत ने अमेरिका से बेहतर काम किया है। हमारी सरकार ने शुरू से ही मास्क पहनने की आवश्यकता पर जोर दिया और कभी इस वायरस को कमतर करके नहीं आंका है। हमने दुनिया के अन्य हिस्सों में सफल रहे सुरक्षा नुस्खों का पालन करने की पुरजोर कोशिश की है।
भारत ने मार्च के अंतिम सप्ताह में एक सख्त लॉकडाउन लगाया जिसकी हमें बड़ी आर्थिक कीमत चुकानी पड़ी है। इस लॉकडाउन की वजह से हमारे देश के सबसे गरीब तबके को जान माल की भारी हानि उठानी पड़ी है। जो भी संभव था हमने किया। लेकिन साथ ही यह भी सच है कि वायरस हमसे जीत चुका है या कम से कम फिलहाल तो जीत रहा है। हमें हालात को समझने की आवश्यकता है और इस बार विषय बदलने और लीपापोती से काम नहीं चलेगा।
इसका मतलब है कि हमें अपनी रणनीति का विश्लेषण करके अर्थव्यवस्था को फिर से चालू करने और करोड़ों गरीब जनता तक नगद मदद पहुंचाने की आवश्यकता है। देश में व्यापक संकट है, भूख है, बेरोजगारी है, चारों ओर अभाव का आलम है। इसकी भी लीपापोती नहीं की जा सकती।
हमारे समक्ष शीर्ष पर जो एजेंडा है वह है सार्वजनिक बुनियादी ढांचे और उससे भी महत्वपूर्ण, स्वास्थ्य सेवाओं की कमी के मुद्दे का समाधान। हमारे सबसे सर्वोत्तम शहरों में भी गरीब लोग रहते हैं। ऐसा न होता तो हमारे गृह मंत्री सहित हमारे सभी उच्च अधिकारी जरूरत पड़ने पर निजी स्वास्थ्य सेवाओं की मदद क्यों लेते। संदेश स्पष्ट है, भले ही हम इन प्रणालियों को चलाते हों, लेकिन जब अपने खुद के स्वास्थ्य की बात आती है तो हम उन सरकारी प्रणालियों पर भरोसा नहीं करते। इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि उन राज्यों, जिलों और गांवों में, जहां संक्रमण में इजाफा हो रहा है, वहां स्वास्थ्य का बुनियादी ढांचा न के बराबर है।
यह भी एक तथ्य है कि सरकारी प्रणालियां अपनी क्षमता से कहीं अधिक बोझ उठाते-उठाते थक चुकी हैं। वायरस के जीतने के पीछे की असली वजह यही है। डॉक्टर, नर्स, क्लीनर, नगरपालिका के अधिकारी, प्रयोगशाला तकनीशियन, पुलिस आदि सभी दिन-रात काम कर रहे हैं और ऐसा कई महीनों से चला आ रहा है। सार्वजनिक बुनियादी ढांचे में शीघ्र निवेश किए जाने की आवश्यकता है। लेकिन इसका मतलब यह भी है कि अब समय आ चुका है जब सरकार को इन एजेंसियों और संस्थानों के महत्व को स्वीकार करना चाहिए। हम सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की अनदेखी भी करें और समय आने पर वे निजी सेवाओं से बेहतर प्रदर्शन करें, यह संभव नहीं है।
अतः हमारी आगे की रणनीति ऐसी ही होनी चाहिए। हमें सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों और नगरपालिका शासन में भारी निवेश करने की आवश्यकता है। हमें इस मामले में न केवल आवाज उठानी है बल्कि इसे पूरा भी करना है। सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च करने की हमारी वर्तमान दर न के बराबर है। जीडीपी का लगभग 1.28 प्रतिशत।
हमारी तुलना में, चीन अपनी कहीं विशाल जीडीपी का लगभग 3 प्रतिशत सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च करता है और पिछले कई वर्षों से ऐसा करता आया है। हम इस एजेंडे को अब और नजरअंदाज नहीं कर सकते। कोविड-19 का मतलब है स्वास्थ्य को पहले नंबर पर रखना। इसका मतलब यह भी है कि हमें अपना पैसा वहां लगाना चाहिए जहां इसकी सर्वाधिक आवश्यकता हो। यह स्पष्ट है कि हमें बीमारियों को रोकने के लिए बहुत कुछ करना होगा। दूषित हवा, खराब भोजन एवं पानी और स्वच्छता की कमी के कारण होने वाली बीमारियों पर लगाम लगाना हमारा उद्देश्य होना चाहिए। अब बात हमारे देश, हमारे स्वास्थ्य की है।(DOWNTOEARTH)
भारत से सरहद पर तनाव के बीच चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने एक ‘नए आधुनिक समाजवादी तिब्बत’ के निर्माण की कोशिश करने का आह्वान किया है। इससे पहले चीन के विदेश मंत्री ने वांग यी ने तिब्बत का दौरा किया था और भारत से लगी सीमा पर निर्माण कार्यों की जायज़ा लिया था। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव और चीन के सेंट्रल मिलिटरी कमिशन के चेयरमैन शी जिनपिंग ने बीजिंग में तिब्बत को लेकर हुई एक उच्च स्तरीय बैठक में यह टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि चीन को तिब्बत में स्थिरता बनाए रखने और राष्ट्रीय एकता की रक्षा करने के लिए और कोशिशें करने की जरूरत है। चीन ने 1950 में तिब्बत पर अपना नियंत्रण स्थापित किया था।
निर्वासित आध्यात्मिक नेता दलाई लामा के साथ खड़े होने वाले आलोचकों का कहना है कि ‘चीन ने तिब्बत के लोगों और वहाँ की संस्कृति के साथ बुरा किया।’ तिब्बत के भविष्य के शासन पर कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ सदस्यों की इस बैठक में शी जिनपिंग ने उपलब्धियों की प्रशंसा की और फ्रंटलाइन पर काम कर रहे अधिकारियों की भी तारीफ़ की, लेकिन उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र में एकता को बढ़ाने, उसे फिर से जीवंत और मज़बूत करने के लिए और प्रयासों की आवश्यकता थी।
सरकारी समाचार एजेंसी शिन्हुआ के अनुसार, शी जिनपिंग ने बैठक में कहा कि ‘तिब्बत के स्कूलों में राजनीतिक और वैचारिक शिक्षा पर और ज़ोर दिए जाने की ज़रूरत है ताकि वहाँ हर युवा दिल में चीन के लिए प्यार का बीज बोया जा सके।’ शी जिनपिंग ने कहा कि तिब्बत में कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका को मजबूत करने और जातीय समूहों को बेहतर ढंग से एकीकृत करने की आवश्यकता है।
इसी संदर्भ में उन्होंने कहा कि ‘हमें एकजुट, समृद्ध, सभ्य, सामंजस्यपूर्ण और सुंदर, आधुनिक, समाजवादी तिब्बत बनाने का संकल्प लेना होगा।’ उन्होंने कहा कि ‘तिब्बती बौद्ध धर्म को भी समाजवाद और चीनी परिस्थितियों के अनुकूल बनाए जाने की जरूरत थी।’ लेकिन आलोचकों का कहना है कि ‘अगर चीन से तिब्बत को वाकई इतना फायदा हुआ होता, जितना शी जिनपिंग ने बैठक में दावा किया, तो चीन को अलगाववाद का डर नहीं होता और ना ही चीन तिब्बत के लोगों में शिक्षा के जरिए ‘नई राजनीतिक चेतना’ भरने की बात करता।’
अमरीका और चीन तनाव के बीच भी तिब्बत को लेकर बात उठी थी। जुलाई में, अमरीकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पिओ ने कहा था कि अमरीका तिब्बत में ‘राजनयिक पहुँच को रोकने और मानवाधिकारों के हनन में लिप्त’ कुछ चीनी अधिकारियों के वीजा को प्रतिबंधित करेगा। उन्होंने यह भी कहा कि अमरीका तिब्बत की ‘सार्थक स्वायत्तता’ का समर्थन करता है।

चीन के कब्ज़े में तिब्बत कब और कैसे आया?
मुख्यत: बौद्ध धर्म को मानने वाले लोगों के इस सुदूर इलाक़े को ‘संसार की छत’ के नाम से भी जाना जाता है। चीन में तिब्बत का दर्जा एक स्वायत्तशासी क्षेत्र के तौर पर है। चीन का कहना है कि इस इलाके पर सदियों से उसकी संप्रभुता रही है, जबकि बहुत से तिब्बती लोग अपनी वफ़ादारी अपने निर्वासित आध्यात्मिक नेता दलाई लामा के प्रति रखते हैं।
दलाई लामा को उनके अनुयायी एक जीवित ईश्वर के तौर पर देखते हैं तो चीन उन्हें एक अलगाववादी ख़तरा मानता है। तिब्बत का इतिहास बेहद उथल-पुथल भरा रहा है। कभी वो एक खुदमुख़्तार इलाक़े के तौर पर रहा, तो कभी मंगोलिया और चीन के ताक़तवर राजवंशों ने उस पर हुकूमत की। लेकिन साल 1950 में चीन ने इस इलाके पर अपना झंडा लहराने के लिए हजारों की संख्या में सैनिक भेज दिए। तिब्बत के कुछ इलाकों को स्वायत्तशासी क्षेत्र में बदल दिया गया और बाकी इलाकों को इससे लगने वाले चीनी प्रांतों में मिला दिया गया। लेकिन साल 1959 में चीन के खिलाफ हुए एक नाकाम विद्रोह के बाद 14वें दलाई लामा को तिब्बत छोडक़र भारत में शरण लेनी पड़ी, जहाँ उन्होंने निर्वासित सरकार का गठन किया।
साठ और सत्तर के दशक में चीन की सांस्कृतिक क्रांति के दौरान तिब्बत के ज़्यादातर बौद्ध विहारों को नष्ट कर दिया गया। माना जाता है कि दमन और सैनिक शासन के दौरान हज़ारों तिब्बतियों की जाने गई थीं।
भारत ने रिश्तों को गंभीर नुकसान पहुँचाया- चीन
चीन तिब्बत विवाद कब शुरू हुआ? चीन और तिब्बत के बीच विवाद, तिब्बत की कानूनी स्थिति को लेकर है। चीन कहता है कि तिब्बत तेरहवीं शताब्दी के मध्य से चीन का हिस्सा रहा है लेकिन तिब्बतियों का कहना है कि तिब्बत कई शताब्दियों तक एक स्वतन्त्र राज्य था और चीन का उस पर निरंतर अधिकार नहीं रहा।
मंगोल राजा कुबलई खान ने युआन राजवंश की स्थापना की थी और तिब्बत ही नहीं बल्कि चीन, वियतनाम और कोरिया तक अपने राज्य का विस्तार किया था। फिर सत्रहवीं शताब्दी में चीन के चिंग राजवंश के तिब्बत के साथ संबंध बने।
260 साल के रिश्तों के बाद चिंग सेना ने तिब्बत पर अधिकार कर लिया, लेकिन तीन साल के भीतर ही उसे तिब्बतियों ने खदेड़ दिया और 1912 में तेरहवें दलाई लामा ने तिब्बत की स्वतन्त्रता की घोषणा की। फिर 1951 में चीनी सेना ने एक बार फिर तिब्बत पर नियन्त्रण कर लिया और तिब्बत के एक शिष्टमंडल से एक संधि पर हस्ताक्षर करा लिए जिसके अधीन तिब्बत की प्रभुसत्ता चीन को सौंप दी गई।

दलाई लामा भारत भाग आये और तभी से वे तिब्बत की स्वायत्तता के लिए संघर्ष कर रहे हैं। जब चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया तो उसे बाहरी दुनिया से बिल्कुल काट दिया। इसके बाद तिब्बत के चीनीकरण का काम शुरू हुआ और तिब्बत की भाषा, संस्कृति, धर्म और परम्परा - सबको निशाना बनाया गया।
क्या तिब्बत चीन का हिस्सा है?
चीन-तिब्बत संबंधों से जुड़े कई सवाल हैं जो लोगों के मन में अक्सर आते हैं।
जैसे कि क्या तिब्बत चीन का हिस्सा है? चीन के नियंत्रण में आने से पहले तिब्बत कैसा था? और इसके बाद क्या बदल गया? तिब्बत की निर्वासित सरकार का कहना है, इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि इतिहास के अलग-अलग कालखंडों में तिब्बत विभिन्न विदेशी शक्तियों के प्रभाव में रहा। मंगोलों, नेपाल के गोरखाओं, चीन के मंचू राजवंश और भारत पर राज करने वाले ब्रितानी शासक, सभी की तिब्बत के इतिहास में कुछ भूमिकाएं रही हैं। लेकिन इतिहास के दूसरे कालखंडों में वो तिब्बत था जिसने अपने पड़ोसियों पर ताकत और प्रभाव का इस्तेमाल किया और इन पड़ोसियों में चीन भी शामिल था।
दुनिया में आज कोई ऐसा देश खोजना मुश्किल है, जिस पर इतिहास के किसी दौर में किसी विदेशी ताक़त का प्रभाव या अधिपत्य ना रहा हो। तिब्बत के मामले में विदेशी प्रभाव या दखलंदाज़ी तुलनात्मक रूप से बहुत ही सीमित समय के लिए रही थी। लेकिन चीन का कहना है कि सात सौ साल से भी ज़्यादा समय से तिब्बत पर चीन की संप्रभुता रही है और तिब्बत कभी भी एक स्वतंत्र देश नहीं रहा। दुनिया के किसी भी देश ने कभी भी तिब्बत को एक स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता नहीं दी।
जब भारत ने तिब्बत को चीन का हिस्सा माना
साल 2003 के जून महीने में भारत ने ये आधिकारिक रूप से मान लिया था कि तिब्बत चीन का हिस्सा है। चीन के राष्ट्रपति जियांग जेमिन के साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की मुलाकात के बाद भारत ने पहली बार तिब्बत को चीन का अंग माना। हालांकि तब ये कहा गया था कि ये मान्यता परोक्ष ही है, लेकिन दोनों देशों के बीच रिश्तों में इसे एक महत्वपूर्ण कदम के तौर पर देखा गया था।
वाजपेयी-जियांग जेमिन की वार्ता के बाद चीन ने भी भारत के साथ सिक्किम के रास्ते व्यापार करने की शर्त मान ली थी। तब इस कदम को यूँ देखा गया कि चीन ने भी सिक्किम को भारत के हिस्से के रूप में स्वीकार कर लिया है।
भारतीय अधिकारियों ने उस वक्त ये कहा था कि भारत ने पूरे तिब्बत को मान्यता नहीं दी है जो कि चीन का एक बड़ा हिस्सा है, बल्कि भारत ने उस हिस्से को ही मान्यता दी है जिसे स्वायत्त तिब्बत क्षेत्र माना जाता है। (bbc.com/hindi)
-राकेश दीवान
कई लोगों को यह थोड़ा विचित्र लग सकता है कि करीब 15 हजार की आबादी का मामूली, अनजान, उनींदा-सा एक कस्बा अपने से लगभग सात गुने, एक लाख से ज्यादा लोगों को ढाई-तीन दिन अपने साथ रहने, खाने-पीने और प्रदर्शन करने में शामिल कर सकता है। कस्बे की आबादी और जरूरत-भर संसाधन इतने कम थे कि जमावड़े के लिए मामूली आटा-दाल, साग-भाजी तक के लिए भी करीब साठ किलोमीटर दूर, खंडवा शहर तक जाना-आना पडता था। कार्यक्रम में आने वाले मेहमानों के लिए कस्बेभर के अधिकांश घर खोल दिए गए थे, लेकिन आमंत्रित इतने अधिक थे कि उनके ठहराने के लिए कृषि उपज मंडी, हर दर्जे के स्कूल और तरह-तरह के सरकारी भवनों का उपयोग किया गया था। पीने और निस्तार के पानी के लिए हरसूद के नागरिकों के कुओं, नलकूपों के अलावा सरकारी नलकूप, जरूरत की जगहों पर लगाने के लिए रखी गई झक नई टंकियां तक उपयोग में लाई गई थीं। आबादी से रेलवे-स्टेशन दूर था इसलिए सभी रिक्शोंं-तांगेवालों ने अपनी सेवाएं मुफ्त कर दी थीं। कार्यक्रम के दो दिन पहले पता चला कि कुछ गफलत के चलते बम्बई से आने वाला चंदा नहीं पहुंच सका है और पैसा बिलकुल नहीं है। ऐसे में इसी कस्बे ने आनन-फानन तीन-चार घंटे की मेहनत से 65-70 हजार रुपए इक_ा किए थे। इसके अलावा लघु व्यापारी संघ ने खाने के दस हजार मुफ्त-कूपन देने का वायदा किया था। कार्यक्रम के पहले लगभग रोज निकाली जाने वाली रैलियों, मशाल-जुलूसों के भागीदारों के लिए घरों के सामने पानी से भरा घडा और कहीं-कहीं चाय का इंतजाम किया जाता था।
आज के समय में अजूबा लगने वाली ये बातें खंडवा जिले के जीते-जागते, भरे-पूरे और 2004 में ‘इंदिरा सागर परियोजना’ की राक्षसी डूब में समा चुके सात सौ साल पुराने कस्बे हरसूद में इकतीस साल पहले हुईं थीं। मौका था, 28 सितम्बर 1989 को पर्यावरण-प्रदूषण, खासकर बडे बांधों के विरोध में हुए ‘संकल्प मेले’ के विशाल जमावडे का। दुनियाभर में अस्सी के दशक की दस में से एक बड़ी घटना माने जाने वाले इस मेले की कहानी 1985-86 की उन चार में से एक राष्ट्रीय बैठक से शुरु हुई थी जो हरसूद में ही बड़े बांधों की डूब और लाभ-हानि पर विस्तार से विचार करने की खातिर आयोजित की गई थी। इस श्रंृखला की बाकी बैठकें बडवानी के पड़ौसी कस्बे अंजड, कुक्षी के पास नर्मदा किनारे के कोटेश्वर और इलाके के महानगर इंदौर में हुई थीं। उन दिनों काशीनाथ त्रिवेदी की अगुआई में कुछ वरिष्ठ गांधीवादियों ने निमाड-मालवा में बड़े बांधों के खिलाफ अलख जगाई थी और उनके आग्रह पर इन चार बैठकों का आयोजन किया गया था। तब तक अंतरराज्यीय ‘सरदार सरोवर परियोजना’ के विरोध में आज का ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ जमीन पकडऩे लगा था और वहां भी ऐसे किसी विशाल जमावड़े की जरूरत महसूस होने लगी थी। नतीजे में तय हुआ था कि समूची नर्मदा घाटी में खड़े किए जाने वाले 30 बडे बांधों के प्रभावितों, देशभर में पर्यावरण और वैकल्पिक राजनीति के मुद्दों पर काम करने वाले संगठनों और सरोकार रखने वाले साहित्यकारों, लेखकों, पत्रकारों, नाटककारों, फिल्म-कलाकारों, राजनेताओं और नागरिकों को एक जगह इक_ा करके पर्यावरण, खासकर बड़े बांधों पर बातचीत की जाए।
नर्मदा घाटी के सरकारी विकास के मंसूबों में सबसे बड़े ‘इंदिरा सागर’ बांध को लेकर हरसूद में पहले ही सुगबुगाहट शुरु हो चुकी थी। लोग बांध की आशंका से इतने डर गए थे कि घरों की आम-फहम टूट-फूट भी नहीं सुधरवाते थे। बेंकों ने यहां भी कर्ज देने में आनाकानी शुरु कर दी थी। इसी समय होशंगाबाद जिले में स्कूली शिक्षा के काम में लगी संस्था ‘किशोर भारती’ ने इतिहासकार और पुरातत्वविद् रमेश बिल्लौरे से आग्रह किया था कि वे नर्मदा पर बनने वाले बांधों, खासकर ‘इंदिरा सागर’ पर शोध करें। नतीजे में बिल्लौरे के साथ पत्रकार क्लॉड अल्वारिस ने मिलकर 1988 में नर्मदा बांधों पर पहली किताब ‘डेमिंग दि नर्मदा : इंडियाज ग्रेटेस्ट प्लॉन्ड इनवायरनमेंटल डिजास्टर’ लिखी थी जिसे मलेशिया स्थित मीडिया समूह ‘थर्ड वल्र्ड नेटवर्क’ ने प्रकाशित किया था। रमेश बिल्लौरे कोई शोधार्थी, लेखक भर नहीं थे, उन्हें लगता था कि सीधे मैदान में जाकर बांध का विरोध किया जाना चाहिए। उस समय, यानि 1986-87 तक हरसूद और आसपास के लक्ष्मीनारायण खण्डेेलवाल, गयाप्रसाद दीवान, शब्बीरभाई पटैल, कमल बाबा, दगडूलाल सांड जैसे भिन्न-भिन्न कामकाजों में लगे लोगों ने ‘नर्मदा सागर संघर्ष समिति’ का गठन कर लिया था और खण्डेलवालजी के घर में दफ्तर खोलकर रमेश बिल्लौरे, सतीनाथ षड्ंगी, नीति आनंद जैसे कई कार्यकर्ताओं ने विस्थापितों और डूब प्रभावितों से सम्पर्क करना शुरु कर दिया था।
पहले से तैयार इस पृष्ठभूमि में ‘संकल्प मेले’ के लिए लामबंदी शुरु की गई। देशभर को जोडने वाले इटारसी जंक्शन की गोठी-धर्मशाला में हुई तैयारी बैठक के बाद हरसूद कार्यक्रम का स्वरूप उभरने लगा। उन दिनों ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ के समर्थकों का गढ़ माना जाने वाला होशंगाबाद हरसूद के लिए भी कमर कसकर तैयार हो गया। वहां के न सिर्फ ढेरों कार्यकर्ता दो-ढाई महीने पहले से हरसूद में डेरा डालकर बैठ गए, बल्कि चंदा, अनाज, नुक्कड़-नाटक, गीत-संगीत और दूसरी तरह की सहायताएंं भी वहां से मिलने लगीं। तैयारी की इस प्रक्रिया में इंदौर, भोपाल तथा महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, गुजरात, बिहार, पश्चिम बंगाल जैसे दूर-दराज के राज्यों के लोग भी महीनों पहले से शामिल हुए। आखिरकार ‘संकल्प मेले’ का दिन भी आ ही गया, लेकिन इसके भी पहले कुछ बेहद अहम बातें हो रही थीं। एक तो, देश के प्रसिद्ध कलाकार विष्णु चिंचालकर ‘गुरुजी’ की देख-रेख में हरसूद के एन बीच में एक ‘संकल्प स्तंभ’ का निर्माण किया जा रहा था। इस ‘संकल्प स्तंभ’ की नींव में देशभर से आने वाले लोगों ने एकजुटता के प्रतीक स्वरूप अपने-अपने इलाकों से लाई मु_ीभर मिट्टी डाली थी। जमावडे में बीबीसी, ‘टाइम मैगजीन,’ न्यूयार्क टाईम्स , ल’मांद, वाशिंगटन पोस्ट, ऑब्जर्वर, इंडियन एक्सप्रेस, टाईम्स ऑफ इंडिया, द हिन्दू, फ्रंटलाइन, हिन्दुस्तान टाईम्स, जनसत्ता, नई दुनिया, भास्कर, नवभारत आदि राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मीडिया के करीब डेढ़ सौ पत्रकारों के आने की संभावना थी, इसलिए उनके ठहरने, खाने-पीने और समाचार देने की व्यवस्था की गई थी। कस्बे के कुछ फोन-धारी परिवारों ने अपने-अपने फोन पत्रकारों के उपयोग के लिए समर्पित कर दिए थे और कुछ संसाधन-धारी पत्रकारों ने अपने लिए बीएसएनएल की ओबी वैन लगवा ली थी।

वैसे तो 26 और 27 सितम्बर से ही लोगों का आना शुरु हो गया था, लेकिन 28 को असली जमावडा हुआ। कार्यक्रम बाबा आमटे की अगुआई में होना था, उन्हें ही ‘संकल्प मेले’ में मौजूद लोगों को संकल्प दिलवाना था इसलिए पहले वे ही मंचासीन हुए। अनिल त्रिवेदी के संचालन में हुए कार्यक्रम में शबाना आजमी, शिवराम कारंत, एसआर हीरेमठ, बबलू गांगुली, स्वामी अग्निवेश, सुन्दरलाल बहु्गुणा, मेधा पाटकर, स्मितु कोठारी, ओमप्रकाश रावल, महेन्द्र कुमार, विनोद रैना के साथ देशभर के पर्यावरणविद्, सामाजिक कार्यकर्ता और वैकल्पिक राजनीति में लगे अनेक लोग शामिल थे। सभा में मेेनका गांधी और विद्याचरण शुक्ल भी पहुंचे थेे, लेकिन सत्ता की राजनीति से परहेज रखने की मान्यता के चलते उन्हें विनम्रता-पूर्वक मंच से उतरने का आग्रह किया गया। दिनभर गणमान्यों और बांध-प्रभावितों ने पर्यावरण और बडे बांधों से होने वाली आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक हानियों के बारे में विस्तार से बताया। इस तरह के कार्यक्रमों का यह शुरुआती दौर था और इसीलिए सभी की बातें नई और भारी उत्सुकता जगाने वाली थीं।
‘संकल्प मेले’ की इस प्रक्रिया में एक जो सर्वाधिक महत्व?पूर्ण बात हुई, वह थी- ‘जन विकास आंदोलन’ का गठन। असल में बाबा आमटे और ओमप्रकाश रावल का आग्रह था कि हमें भी अब राष्ट्रीय स्तर पर ‘ग्रीन पार्टी’ की घोषणा कर देना चाहिए और उसके लिए ‘संकल्प मेले’ से बेहतर कोई अवसर नहीं हो सकता था। लेकिन बाबा और रावलजी की इस बात से कई लोगों की असहमति थी। उनका कहना था कि पार्टी गठित करने के पहले हमें आपस में एक-दूसरे की वैचारिक समझ, व्यापक राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय माहौल का ज्ञान और राजनीति में उतरने की इच्छा पर बात कर लेनी चाहिए। अंत में तय हुआ कि इस मौके का लाभ लेते हुए कम-से-कम एक गठबंधन तो बनाना ही चाहिए और नतीजे में ‘जन विकास आंदोलन’ का जन्म हुआ। ‘संकल्प मेले’ के बाद कुछ साल ‘जन विकास आंदोलन’ सक्रिय भी रहा, लेकिन फिर उसके सहभागी संगठनों-व्यक्तियों ने अपनी-अपनी जरूरतों, समझ और व्यक्तिगत महात्वाकांक्षाओं के चलते इस महत्वपूर्ण प्रक्रिया से किनारा कर लिया। इस तरह इतिहास में दशक की एक महत्वपूर्ण घटना की तरह दर्ज हरसूद का ‘संकल्प मेला’ समाप्त हो गया और उसी के साथ नए हरसूद या छनेरा में तब्दील हो गया वह हरसूद, जो अपनी जीवन्तता, संघर्ष और आपसी भाई-चारे के लिए जाना-पहचाना जाता था। अंत में रह गया वह मासूम बच्चा जिसने डूब क्षेत्र का दौरा करने आईं लेखिका अरुन्धति राय के यह पूछने पर कि तुम जंगल के फूल क्यों इकट्ठा कर रहे हो, जबकि यहां दूर-दूर तक कोई देवी-देवता नहीं हैं, कहा था कि फूल ‘कित्ते खबसूरत हैं न?!’ उम्मीद है कि अपने समय और समाज को डुबोने वालों को भी इस बच्चे जैसी समझ आ सके !!
- Lalit Maurya
अब तक महाराष्ट्र में 747,995 मामलों की पुष्टि हो चुकी है। इनमें से 543,170 ठीक हो चुके हैं। ऊपर ग्राफ में देखिए कि किस राज्य में कब कितने मामले सामने आए। दूसरे नंबर पर तमिलनाडु है जहाँ अब तक 409,238 मामले सामने आ चुके हैं। तीसरे नंबर पर आंध्रप्रदेश है, जहां अब तक 403,616 मामले सामने आ चुके हैं। कर्नाटक में 318,752, उत्तरप्रदेश में 213,824, दिल्ली 169,412, पश्चिम बंगाल में 153,754, बिहार में 131,057, तेलंगाना में 120,166, असम में 101,367, ओडिशा में 94,668 जबकि गुजरात में भी अब तक संक्रमण के करीब 92,457 मामले सामने आ चुके हैं। जबकि उनमें से 74,525 मरीज ठीक हो चुके हैं। गौरतलब है कि गुजरात में पहला मामला 20 मार्च को सामने आया था।
पिछले 24 घंटों में सबसे ज्यादा मामले महाराष्ट्र में 14,427 सामने आये हैं। जबकि आंध्रप्रदेश में (10,526), तमिलनाडु (5,996), कर्नाटक(8,960), उत्तरप्रदेश (5,405), दिल्ली (1,808), जम्मू कश्मीर (696), गुजरात (1,273), पश्चिम बंगाल (2,982), राजस्थान (1,355), मध्यप्रदेश में 1252 मामले सामने आये हैं।
जबकि राजस्थान में अब तक 77,370 मामले सामने आ चुके हैं। इसके बाद केरल (69,304) का नंबर आता है। देश भर में 26,48,998 लोग इस बीमारी से ठीक हो चुके हैं।
स्रोत: स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार
भारत दुनिया का तीसरा ऐसा देश है जहां सबसे ज्यादा मामले सामने आए हैं, जबकि प्रति दस लाख आबादी पर सिर्फ 29,234 टेस्ट किये गए हैं
भारत में अब तक कोरोना के 34,63,972 मामले सामने आ चुके हैं। जिसके साथ वो दुनिया का तीसरा सबसे संक्रमित देश बन गया है। यदि गंभीर मामलों को देखें तो अमेरिका के बाद भारत का दूसरा स्थान है। जहां 8,944 मरीज गंभीर रूप से बीमार हैं।
कब सामने आए कितने मामले
स्रोत: स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार, अंतिम आंकड़ें दिनांक 29 अगस्त 2020, सुबह 8:00 बजे
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा 29 अगस्त 2020, सुबह 8:00 बजे तक जारी आंकड़ों के मुताबिक देश में मामलों की संख्या बढ़कर 34,63,972 पर पहुंच चुकी है। जिनमें 111 विदेशी नागरिक भी शामिल हैं। इस संक्रमण से अब तक 62,550 लोगों की मृत्यु हो चुकी है। पिछले 24 घंटों में 76,472 नए मामले सामने आये हैं और 1,021 लोगों की मौत हुई। जबकि देश भर में 26,48,998 मरीज ठीक हो चुके हैं। (downtoearth)
- Dayanidhi
कोविड-19 महामारी में सार्वजनिक रूप से बाहर निकलने से पहले मास्क पहनना जरूरी हो गया है। हालांकि, अभी भी कई लोग मास्क पहनने से संक्रमण फैलेगा या नहीं, इसकी प्रभावशीलता पर सवाल उठाते हैं।
इन शंकाओं को दूर करने के लिए, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन से पद्मनाभ प्रसन्ना सिम्हा, और श्री जयदेव इंस्टीट्यूट ऑफ कार्डियोवस्कुलर साइंसेज एंड रिसर्च से प्रसन्ना सिम्हा मोहन राव ने विभिन्न मास्कों के साथ, अलग-अलग परिदृश्यों में खांसी के प्रवाह को लेकर एक प्रयोग किया है।
सिम्हा ने कहा कि कोई भी व्यक्ति संक्रमण के प्रसार को कम करके वातावरण में संक्रमण फैलने से रोक सकता है, यह अन्य स्वस्थ व्यक्तियों के लिए बेहतर स्थिति है।
घनत्व और तापमान की तीव्रता एक दूसरे से जुड़े होते हैं। खांसी उनके आसपास के क्षेत्र की तुलना में गर्म होती है। इस संबंध को देखते हुए, सिम्हा और राव ने एक तकनीक का उपयोग किया जिसका नाम स्कॉलरिन इमेजिंग है। यह घनत्व में परिवर्तन की कल्पना करता है, जिसमें किसी व्यक्ति पर परीक्षण किए जा रहे पांच तरह के खांसी की तस्वीरें कैप्चर की जाती हैं। क्रमिक छवियों पर खांसी की गति पर नजर रखने से, टीम ने अनुमानित बूंदों की गति और प्रसार का अनुमान लगाया।
अप्रत्याशित रूप से, उन्होंने खांसी के क्षैतिज प्रसार को कम करने में एन 95 मास्क को सबसे प्रभावी पाया। एन 95 मास्क ने खांसी के शुरुआती गति को 10 तक कम कर दिया और इसके प्रसार को 0.1 से 0.25 मीटर के बीच सीमित कर दिया। अध्ययन के निष्कर्ष एआईपी प्रकाशन के जर्नल ऑफ फ़्लूइड्स में प्रकाशित हुए हैं।
बिना मास्क की खांसी की बूंदें (ड्रॉपलेट) 3 मीटर तक फैल सकती है, लेकिन यहां तक कि एक साधारण डिस्पोजेबल मास्क भी इनके फैलने की दूरी को 0.5 मीटर तक नीचे ला सकता है।
सिम्हा ने कहा, भले ही एक मास्क सभी कणों को फ़िल्टर नहीं करता है, अगर हम ऐसे बूंदों, कणों को बहुत दूर तक फैलने से रोक सकते हैं, तो कुछ न करने से तो बेहतर है कुछ करना अर्थात मास्क जरूर पहनना चाहिए, ताकि बूंदें वातावरण में फैल न पाएं। उन स्थितियों में जहां परिष्कृत मास्क उपलब्ध नहीं हो, संक्रमण के प्रसार को धीमा करने में किसी भी मास्क को पहना जा सकता है।
हालांकि कुछ अन्य तुलनाओं में हमें इन पर भी विचार करना चाहिए
उदाहरण के लिए, खांसी को कवर करने के लिए कोहनी का उपयोग करना आमतौर पर एक जल्दबाजी में लिया गया एक अच्छा विकल्प माना जाता है, जो कि अध्ययनकर्ताओं को गलत लगता है। अध्ययनकर्ताओं का कहना है जब तक आस्तीन को कवर नहीं किया गया हो, एक नंगा हाथ एयरफ्लो को रोकने के लिए नाक के खिलाफ उचित सील नहीं बना सकता है। खांसी में मौजूद बूंदें तो किसी भी खुले भाग से रिस (लीक) सकती हैं और कई दिशाओं में फैल सकती हैं।
सिम्हा और राव को उम्मीद है कि उनके निष्कर्ष इस तर्क को गलत साबित कर देंगे, जिसमें कहा गया है कि नियमित कपड़े के मास्क अप्रभावी होते हैं। लेकिन वे इस बात पर जोर देते हैं कि मास्क को सामाजिक दूरी के साथ इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
सिम्हा ने कहा एक तय दूरी, एक ऐसी चीज है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि मास्क अपने आप में सम्पूर्ण हल (फूलप्रूफ) नहीं हैं। (downtoearth)
- Angela Saini
हम कई दशकों से जानते आ रहे हैं कि नस्ल कोई जैविक सच्चाई नहीं है। आज हम विभिन्न नस्लों के वर्गीकरण का जो तरीका इस्तेमाल करते हैं, उन तरीकों का इजाद कई शताब्दियों पहले काफी मनमाने ढंग से किया गया था। ये तरीके मानवीय भिन्नताओं को बहुत गलत रूप से व्याख्या करते हैं। असल में कोई “काला” या “गोरा” जीन नहीं होता! लगभग सभी तरह की आनुवंशिक भिन्नताएं, जो हम मनुष्यों के बीच देखते हैं, वह व्यक्तिगत स्तर पर मौजूद है। व्यक्ति से व्यक्ति के बीच अलग-अलग। यह जनसंख्या के स्तर पर भिन्न नहीं होता है। वास्तव में, विभिन्न समुदायों (जनसंख्या) के बीच की तुलना में किसी एक समुदाय (जनसंख्या) के बीच कहीं अधिक आनुवांशिक विविधता है।
लेकिन कई शताब्दियों तक पश्चिमी विज्ञान पर संभ्रांत गोरे लोगों का कब्जा रहा है। 18वीं शताब्दी में भी, जब ज्ञान का प्रचार-प्रसार हुआ, लोगों के बीच एक आम धारणा थी कि महिलाएं और अन्य “नस्ल” बौद्धिक रूप से असमर्थ होते हैं। नस्लवाद को शुरू से ही विज्ञान में उलझा दिया गया था और इसी आधार पर पश्चिमी वैज्ञानिकों ने सदियों से मानव भिन्नताओं का अध्ययन किया। उन्होंने “रेस साइंस” (नस्ल विज्ञान) का आविष्कार किया। इस झूठे वैज्ञानिक सोच का इस्तेमाल औपनिवेशिक व्यवस्था, दासता, नरसंहार और लाखों लोगों के साथ दुर्व्यवहार को सही ठहराने के लिए किया गया, जैसाकि आज हम अमेरिका में अश्वेत लोगों के साथ हो रहे व्यवहार के रूप में देख रहे हैं। यह हमारी सोच में इतना गहरा समा चुका है कि हम अब भी हर दिन इसके विनाशकारी प्रभावों के साथ जी रहे हैं। हालांकि पिछले 70 वर्षों के दौरान, अधिकांश वैज्ञानिकों ने इस बात की पुष्टि की है कि केवल एक ही मानव जाति है और हम प्रजाति के रूप में एक है।
लेकिन, अब भी कुछ ऐसे हैं जो पुरानी सोच पर कायम हैं और मानते हैं कि हमारी नस्लीय श्रेणियों के कुछ अर्थ है। ऐसा इसलिए है क्योंकि वैज्ञानिकों को अक्सर महान वैज्ञानिकों की विरासत से संघर्ष करना पड़ता है। ये ऐसे महान वैज्ञानिक हैं, जिनके वैज्ञानिक, राजनीतिक और नैतिक विचार आपत्तिजनक थे। यूरोप में 19वीं शताब्दी में यह मानना काफी आम था कि मनुष्य को उप-प्रजाति में विभाजित किया जा सकता है और कई प्रसिद्ध वैज्ञानिक आधुनिक मानकों के अनुसार नस्लवादी थे। भयावह बात यह है कि 21वीं सदी में भी नस्लवादियों को बर्दाश्त किया गया है। कई सम्मानित वैज्ञानिकों को नोबेल पुरस्कार विजेता और अमेरिकी जीवविज्ञानी जेम्स वास्टन (जो खुले तौर पर नस्लवादी थे) को नकारने में दशकों का समय लगा। कोई भी महान काम कर सकता है। लेकिन, हमें नस्लवादियों को वैज्ञानिक क्षेत्र में सिर्फ इसलिए स्वीकार नहीं कर लेना चाहिए कि उन्होंने महान काम किया है।
भूल सुधारने का वक्त?
इस वक्त दुनियाभर में नस्लवाद के खिलाफ विरोध जारी है। क्या ये वक्त अपनी भूल सुधारने और परिवर्तन का है? क्योंकि हम अब भी वहां है, जहां हमने समाज के लिए जरूरी सुधारों को नहीं अपनाया है। लेकिन मौजूदा समय निश्चित रूप से अलग दिख रहा है। संस्थान और कॉरपोरेशंस साफ तौर पर जवाब दे रहे हैं। बेशक, सरकारें उलझन में दिख रही हैं, लेकिन उम्मीद है कि हम आने वाले चुनावों में प्रभावी बदलाव देखें। ऐसा इसलिए है क्योंकि दुनिया के कुछ हिस्सों में, जहां नस्लवाद की वजह से सत्ता असंतुलन है, कुछ-कुछ वैसा ही दुनिया के अन्य हिस्सों में भी देखा जा रहा है। नस्लवाद की तर्ज पर ही सत्ता कई जगहों पर जातिवाद, वर्गवाद, लिंगवाद आदि का इस्तेमाल कर रही हैं। मैंने अपनी किताब, “सुपीरियर” में जाति का जिक्र किया है। नस्ल की तरह ही जाति को लेकर भी समाज में पूर्वाग्रह की जड़ें गहरी हैं। मुझे कोई संदेह नहीं है कि यह पूर्वाग्रह भारत में भी नस्लवाद की तरह ही भूमिका निभाता है, जिसे हम भारतीय समाज में लोगों के साथ हर दिन होने वाले व्यवहार के रूप में देखते हैं।
उदाहरण के लिए, अश्वेत अमेरिकियों की जीवन प्रत्याशा श्वेत अमेरिकियों की तुलना में कम है, क्योंकि उनके उत्पीड़न का एक लंबा इतिहास है, जो उनके स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव डालता हैं। मैं ब्रिटेन में रहती हूं। यहां भारतीय मूल के डॉक्टर अन्य ब्रिटिश डॉक्टरों की तुलना में बड़ी संख्या में मर रहे हैं। ऐसा इसलिए नहीं कि वे आनुवांशिक रूप से भिन्न हैं, बल्कि वे कई तरह के नस्लीय भेदभाव को झेलते हैं, जिससे उनका स्वास्थ्य प्रभावित होता है। हम पैदाइशी अलग नहीं होते हैं, हमें समाज अलग बना देता है।
कुछ लोगों का जीवन दूसरों की तुलना में तुच्छ माना जाता है। यहां, घोर-दक्षिणपंथी हमें यह विश्वास दिलाना चाहते हैं कि समाज में जो नस्लीय असमानताएं हैं, वे ऐतिहासिक कारकों से नहीं, बल्कि प्राकृतिक रूप से मौजूद हैं। यही कारण है कि वे 19वीं शताब्दी की पुरानी लाइन को आगे बढ़ाते रहे हैं, जो कहती है कि नस्ल जैविक वास्तविकता है। मुख्यधारा का विज्ञान उनके पक्ष में नहीं है। लेकिन घोर-दक्षिणपंथी अविश्वसनीय रूप से चालाक और धूर्त हैं और साथ ही ऑनलाइन मीडिया पर काफी सक्रिय भी हैं। सोशल मीडिया पर इन लोगों से अगर आमना-सामना हो जाए, तो मेरी सलाह है कि उनकी उपेक्षा करें। ये उनकी रणनीति है कि ऑनलाइन मीडिया पर इस पर बहस हो और ये भ्रम पैदा हो कि इन मुद्दों पर वैज्ञानिक बहस जारी है, जबकि ऐसा कुछ नहीं है।
सच्चाई यह है कि विज्ञान हर दिन इस मूल तथ्य की पुष्टि कर रहा है कि हम एक ही मानव प्रजाति हैं। हम किसी भी अन्य प्रजाति की तुलना में अधिक समरूप हैं। यहां तक कि कुछ समुदायों को, जिन्हें कभी भौगोलिक और सांस्कृतिक अलगाव के कारण, आनुवांशिक रूप से अलग माना जाता था, उन्हें भी अब अलग नहीं माना जाता है। लेकिन इन तथ्यों का तब तक कोई अर्थ नहीं है, जब तक हम अपने दिमाग में भरे पूर्वाग्रहों से आगे नहीं बढ़ जाते हैं। नस्ल और जाति सामाजिक आविष्कार थे। हम एक-दूसरे के बारे में क्या और कैसे सोचते हैं, इस पर इन सामाजिक मान्यताओं का गहरा प्रभाव है। लेकिन, यह वक्त सत्य को जानने-समझने और मानने का है। ये ऐसा सच है, जिसके जरिए हम अपनी उस सोच को ठीक कर सकते हैं, जो हमें अन्य को देखने-समझने का रास्ता बता सकती है और हमारी पूर्व-निर्धारित धारणाओं को दुरुस्त कर सकती है।
(लेखक ब्रिटिश साइंस जर्नलिस्ट और “सुपीरियर: द रिटर्न ऑफ रेस साइंस” की लेखक हैं)(downtoearth)
- Bhagirath Srivas
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में रहने वाले 39 साल के जुगल किशोर शर्मा 27 अप्रैल 2020 को जब कोरोनावायरस (कोविड-19) से जंग जीतकर अस्पताल से निकले, तब उनके हाथ में गुलाब का फूल और चेहरे पर विजयी मुस्कान थी। उनकी खुशी लाजिमी थी क्योंकि वह भोपाल के उन पांच शुरुआती लोगों में से एक थे जो जानलेवा वायरस के संक्रमण से सबसे पहले उबरे थे। 3 अप्रैल को वह कोरोना संक्रमित पाए गए थे। तब उन्होंने डाउन टू अर्थ को बताया था, “यह वायरस उतना डरावना नहीं है, जितना हम इसे समझते हैं। जरूरत पड़ने पर मुझे 18 घंटे तक ऑक्सीजन दी गई। मैंने खूब पानी किया और डॉक्टरों ने लक्षणों के आधार पर मेरा इलाज किया जिससे मैं रिकवर हो गया।”
तब से अब तक करीब चार महीने का वक्त गुजर चुका है। डाउन टू अर्थ ने अगस्त में जब उनकी स्थिति जानने के लिए दोबारा संपर्क साधा तब पता चला कि उनकी परेशानियां खत्म नहीं हुई हैं। रिकवरी के बाद उन्हें थकान और कमजोरी की शिकायत थी जो अब तक बरकरार है। अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद उन्हें लगा था कि कुछ दिनों बाद ये परेशानियां खत्म हो जाएंगी लेकिन वह गलत निकले। अब उन्हें लगता है कि इनके साथ ही जीना पड़ेगा। अपना अनुभव साझा करते हुए वह बताते हैं, “कोरोनावायरस ने मेरे फेफड़ों पर गहरा असर डाला है। वायरस ने फेफड़ों को इतना नुकसान पहुंचा दिया कि थोड़ा ज्यादा चलने पर हांफने लगता हूं।” उन्हें आशंका है कि वह भविष्य में अस्थमा का शिकार हो सकते हैं। जुगल ने रिकवरी के बाद चार बार फेफड़ों का एक्सरे कराया है। हर एक्सरे में फेफड़ों को हुआ नुकसान साफ दिख रहा है।
दिल्ली के पांडव नगर में रहने वाले 34 साल के चंदन कुमार भी जुगल किशोर शर्मा की तरह कोरोनावायरस से संक्रमित होने के बाद चिकित्सीय भाषा में रिकवर तो हो गए लेकिन पूरी तरह ठीक नहीं हुए हैं। चंदन कुमार को जीवन में कभी सिरदर्द नहीं हुआ था लेकिन संक्रमण के बाद असामान्य ढंग से उन्हें कभी-कभी अचानक तेज सिरदर्द होने लगता है। यह दर्द भी एक जगह नहीं बल्कि सिर के अलग-अलग हिस्सों में होता है। संक्रमण से पहले चंदन चार से पांच मंजिल तक आसानी से सीढ़ियां चढ़ लेते थे लेकिन अब दूसरी मंजिल तक पहुंचते-पहुंचते उनकी सांस फूलने लगती है। रात को सोने के दौरान भी सांसों के अचानक उतार-चढ़ाव से वह परेशान हो उठते हैं। चंदन बताते हैं,“कभी-कभी चलते वक्त लगता है कि चक्कर खाकर गिर पडूंगा। हमेशा कमजोरी और थकान महसूस होती है।” चंदन के सास, ससुर और साले भी संक्रमण के बाद रिकवर हुए हैं। वह बताते हैं कि सास और ससुर की सूंघने की क्षमता अब भी नहीं लौटी है। चंदन 28 जून को बुखार, सूखी खांसी और सिरदर्द के लक्षणों साथ बीमार हुए थे। 8 जुलाई को उन्होंने टेस्ट कराया और एक दिन बाद आई रिपोर्ट में वह संक्रमित पाए गए। चंदन बताते हैं कि उन्हें हल्के लक्षण थे, लिहाजा डॉक्टर ने घर पर ही आइसोलेशन में रहने की सलाह दी। इस दौरान बुखार और मल्टीविटामिंस की दवा खाते रहे। 25 जुलाई को फिर जांच कराई तो रिपोर्ट नेगेटिव आई। चंदन को कोरोनावायरस के संक्रमण के दौरान इतनी परेशानी नहीं हुई, जितनी रिकवरी के बाद हो रही है। उन्हें उम्मीद है कि एक-दो महीने का वक्त गुजरने के साथ उनकी समस्याएं खत्म हो जाएंगी।
लेकिन क्या चंदन दो महीने बाद परेशानियों से उबर जाएंगे? यह दावा के साथ नहीं कहा जा सकता क्योंकि बहुत से लोग तीन से चार महीने बाद भी पूरी तरह ठीक नहीं हो पाए हैं। उदाहरण के लिए एक समाचार चैनल में काम करने वाले अवनीश चौधरी को ही लीजिए। शुरुआत में उन्हें भी चंदन की तरह लगता था कि कोरोनावायरस के कारण उनके शरीर में आई कमजोरी और थकान की समस्या कुछ दिनों के लिए है। अवनीश को कोरोनावायरस से उबरे तीन महीने से ज्यादा हो गए हैं लेकिन समस्याएं जस की तस हैं। अवनीश को भी चलते या सीढ़ियां चढ़ते वक्त सांस फूलने की समस्या हो रही है। वह डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि रात को सोते समय पीठ के बल लेटने पर सांस लेने में अचानक तकलीफ होने लगती है। सांसों का टूटना और जल्दी-जल्दी चलना अब सामान्य होता जा रहा है। वह अब यह मानकर चल रहे हैं कि यह समस्या लंबे समय तक बनी रहेगी। अवनीश ने भी चंदन की तरह रिपोर्ट पॉजिटिव आने पर खुद को घर में आइसोलेट कर लिया था। रिपोर्ट नेगेटिव आने के बाद दोनों का डॉक्टर से संपर्क टूट गया।
चंदन और अवनीश से उलट कोरोनावायरस से उबरे ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने एक बार कोविड-19 पॉजिटिव आने के बाद दोबारा जांच नहीं कराई और लक्षण खत्म होने पर खुद को रिकवर मान लिया। इनमें से बहुत से लोगों ने डॉक्टरों की सलाह पर ही दोबारा जांच नहीं कराई। उदाहरण के लिए, दिल्ली के उत्तम नगर इलाके में रहने वाली 38 वर्षीय शिक्षिका सुशीला ने 7 जून को टेस्ट कराया था। तीन दिन बाद उनकी रिपोर्ट पॉजिटिव आई। इसके बाद डॉक्टर ने उन्हें जांच कराने से मना कर दिया और उन्होंने 15 दिन बाद मान लिया कि वह संक्रमण से मुक्त हो गई हैं। उनके परिवार के किसी अन्य सदस्य की भी जांच नहीं हुई। डॉक्टर ने उन्हें भले ही कोरोना से रिकवर बता दिया लेकिन अब वह एक अजीब किस्म की समस्या से जूझ रही हैं। उन्हें अचानक घबराहट होने लगती है और दिल की धड़कन अप्रत्याशित रूप से तेज हो जाती है। कई बार यह धड़कन इतनी तेज होती है कि उन्हें लगता है कलेजा सीने से बाहर न निकल जाए। सुशीला बताती हैं कि कोरोनावायरस से संक्रमित होने से पहले दिल का इतना तेज धड़कना दुर्लभ था लेकिन संक्रमण के बाद हफ्ते में एक-दो बार ऐसा नियमित हो जाता है। उन्हें हैरानी तब होती है जब चेक करने पर धड़कन सामान्य आती है।
सुशीला की तरह दिल्ली के मयूर विहार, फेज-3 में रहने वाली 35 वर्षीय पूनम बिष्ट के परिवार के सभी छह सदस्य कोरोनावायरस के संक्रमण से दो महीने पहले मुक्त हुए हैं। पूनम के ससुर के अलावा घर के किसी भी सदस्य की जांच नहीं हुई। परिवार के सभी सदस्यों में लक्षण आने पर डॉक्टर ने उन्हें संक्रमित मान लिया और जून के आखिर में लक्षण समाप्त होने पर उन्होंने परिवार को कोरोना मुक्त समझ लिया। अन्य लोगों की तरह पूनम और उनके परिवार के सदस्यों को अब भी कोई न कोई समस्या बनी हुई है। पूनम अस्थमा की मरीज हैं। लक्षण समाप्त होने के बाद उन्हें लगा था कि सब ठीक हो गया है। लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने महसूस किया कि उनकी सूंघने की क्षमता अब भी पूरी तरह से नहीं लौटी है। उन्हें अक्सर थकान महसूस होती है और एसी में रहने पर सांस लेने में तकलीफ होने लगती है। उनके 63 वर्षीय ससुर को अब भी हल्की खांसी है। सास-ससुर दोनों कमजोरी महसूस करते हैं।
उपरोक्त मामले बताते हैं कि कोरोना से होने वाली रिकवरी को भले ही हम उपलब्धि समझकर खुश हो लें लेकिन सभी रिकवर मरीजों को स्वस्थ मान लेना बड़ी भूल है। भारत में 19 अगस्त 2020 तक 21 लाख से अधिक लोग रिकवर हो चुके थे और रिकवरी की दर करीब 72 प्रतिशत पहुंच चुकी थी। राजधानी दिल्ली में जहां मई-जून को कोरोना संक्रमितों के मामले तेजी से बढ़ रहे थे, वहां जुलाई और अगस्त में सुधरी रिकवरी के बूते ही हालात नियंत्रण में बताए जा रहे हैं। राजधानी में रिकवरी दर करीब 90 प्रतिशत पर पहुंच गई है। इसका अर्थ है कि राज्य में 19 अगस्त तक आए 1,56,139 मामलों में करीब 1,40,767 संक्रमित रिकवर हो चुके हैं। वैश्विक स्तर पर सामने आए करीब सवा दो करोड़ मामलों में डेढ़ करोड़ संक्रमित रिकवर हो चुके हैं (देखें, रिकवरी बनाम संक्रमण, पेज 14)। ये आंकड़े बताते हैं कि रिकवर होने वाले लोगों की संख्या मामूली नहीं है। अगर इनमें से 10-15 प्रतिशत लोगों की तकलीफों में भी इजाफा होता है तो इनकी कुल संख्या लाखों में होगी, इसलिए ऐसे लोगों को नजरअंदाज करना भारी पड़ सकता है।
केंद्र सरकार भी इस तथ्य को स्वीकार करती है। यही वजह है कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकारी राजेश भूषण ने दिल्ली में मीडिया के सामने माना “कुछ रिकवर मरीजों को सांस, हृदय, लिवर और आंखों से संबंधित समस्याएं हो सकती हैं। हमारे विशेषज्ञ लोगों के मार्गदर्शन के लिए काम कर रहे हैं। वे पता लगा रहे हैं कि दीर्घकाल में लोगों की किस तरह की देखभाल की जरूरत है और वे भविष्य में किस प्रकार की समस्याओं का सामना कर सकते हैं।” नीति आयोग के सदस्य वीके पॉल ने भी 18 अगस्त को बताया, “बीमारी का एक नया पहलू सामने आ रहा है। वैज्ञानिक और चिकित्सा समुदाय की इस पर नजर है। हम सभी को सचेत रहना होगा कि बाद में भी इसका प्रभाव पड़ सकता है। जैसे-जैसे हम इसे अधिक समझेंगे, वैसे-वैसे हम इसके बारे में अधिक बता पाएंगे।”
स्त्रोत: साइंस ऑफ द टोटल एनवायरमेंट जर्नल में प्रकाशित “फॉलोअप स्टडीज इन कोविड-19 रिकवर्ड पेशेंट्स - इज इट मेंडेटरी” अध्ययन
चिंता में डालते अध्ययन
दुनियाभर में इस वक्त ज्यादातर देशों का ध्यान संक्रमण रोकने और मरीजों की जान बचाने पर केंद्रित है। रिकवर मरीजों को प्राथमिकता के आधार पर देखना अभी संभव नहीं हो रहा है। इस संबंध में हुए कुछ अध्ययन बताते हैं कि रिकवर हुए मरीजों पर ध्यान नहीं दिया गया तो आगे चलकर स्थिति नियंत्रण से बाहर हो सकती है। दरअसल, बहुत से लोगों की रिकवरी के बाद हृदय, फेफड़ों, मस्तिष्क, लीवर आदि में विभिन्न तरह की समस्याएं सामने आ रही हैं (देखें, अंगों पर असर,)।
जर्नल ऑफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन (जामा) कार्डियोलॉजी में 27 जुलाई, 2020 को प्रकाशित यूनिवर्सिटी हॉस्पिटल फ्रैंकफर्ट के अध्ययन में रिकवरी के बाद होने वाली हृदय की परेशानियों पर रोशनी डाली गई है। जर्मनी में कोरोनावायरस से रिकवर हुए लोगों पर किया गया यह अध्ययन बताता है कि सीएमआर (कार्डियक मैग्नेटिक रेजोनेंस) जांच में कोविड-19 से रिकवर हुए 100 में से 78 लोगों के हृदय में संरचनात्मक परिवर्तन और 60 प्रतिशत लोगों में मायोकार्डियल यानी हृदयघात के लक्षण पाए गए। अध्ययन बताता है कि कोविड-19 हृदय तंत्र पर गहरा असर डालता है। यह वायरस पहले से हृदय की समस्याओं से जूझ रहे लोगों में हार्ट फेल की समस्या को काफी गंभीर कर सकता है। अध्ययन में शामिल 100 लोगों में 67 असिंप्टोमैटिक और हल्के लक्षण वाले थे और घर में ही रिकवर हुए थे। शेष 23 लोगों को अस्पताल में भर्ती करना पड़ा था। जामा का अध्ययन बताता है कि कोविड-19 के कारण लंबे समय तक रक्त प्रवाह को सुचारू रखने की हृदय की क्षमता घट सकती है।
ब्रिटेन स्थित एडिनबर्ग विश्वविद्यालय के डॉक्टरों का विश्लेषण भी इसी तरह के निष्कर्ष पर पहुंचता है। डॉक्टरों ने 69 देशों के 1,200 मरीजों की अल्ट्रासाउंड (एकोकार्डियोग्राम) जांच की और पाया कि 55 प्रतिशत लोगों के हृदय में गंभीर गड़बड़ियां हैं। जांच में एक तिहाई से अधिक लोगों के हृदय के दो मुख्य चैंबरों (वेंट्रिकल्स) में क्षति पाई गई। इसके अलावा तीन प्रतिशत लोगों ने हृदयाघात और अन्य तीन प्रतिशत लोगों ने हृदय की कोशिकाओं में जलन की शिकायत की। इसी दौरान एक अन्य अध्ययन भी हुआ है जिसमें कोविड-19 से मारे गए 39 लोगों की ऑटोप्सी जांच की गई। इन लोगों की औसत आयु 85 साल थी। जांच में पाया गया कि 24 मृतकों के हृदय में बड़ी मात्रा में वायरस मौजूद हैं।
नेचर रिव्यू कार्डियोलॉजी में मार्च 2020 को प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, सार्स सीओवी-2 (कोविड-19) और एमईआरएस सीओवी (मिडिल ईस्ट रेस्पिटेरटी सिंड्रोम कोरोनावायरस) में काफी समानता है। अध्ययन बताता है कि इन वायरस के संक्रमण से नि:संदेह मायोकार्डियल को क्षति पहुंचती है और मरीज को उबरने में दिक्कत होती है। इसके अनुसार, वुहान में कोविड-19 से संक्रमित पाए गए शुरुआती 41 में से 5 लोगों के हृदय को गंभीर नुकसान पहुंचा। हृदय के अलावा कोविड-19 फेफड़ों को भी स्थायी क्षति पहुंचा सकता है। अमेरिकन लंग असोसिएशन के एमडी व मुख्य चिकित्सा अधिकारी अलबर्ट लिज्जो के अनुसार, हलके लक्षण वाले मरीजों के फेफड़े तो संक्रमण से पूरी तरह मुक्त हो सकते हैं लेकिन जिन मरीजों को अस्पताल में भर्ती किया गया है अथवा जिनके वेंटीलेटर पर पहुंचने की नौबत आई है, उनके फेफड़ों को पहुंचा नुकसान स्थायी हो सकता है। इसकी प्रबल आशंका है कि ऐसे लोगों के फेफड़ों पहले की तरह काम न कर पाएं। फेफड़ों को पहुंचा स्थायी नुकसान फाइब्रोसिस कहलाता है। उनका मानना है कि वायरस से दीर्घकाल में स्वास्थ्य को होने वाली परेशानियां जीवन की गुणवत्ता पर असर डाल सकती हैं।
कोविड-19 केंद्रीय तंत्रिका तंत्र (सीएनएस) को भी बुरी तरह प्रभावित कर सकता है। यह वायरस नाक के रास्ते दाखिल होकर दिमाग में मौजूद आल्फैक्टरी बल्ब में पहुंचकर संक्रमण फैला सकता है। यही वजह है कि संक्रमण के बाद संूघने और स्वाद की क्षमता प्रभावित हो जाती है। साथ ही सिरदर्द जैसी समस्याएं भी सामने आती हैं। इसके अलावा सीएनएस में इस वायरस की मौजूदगी का असर मानसिक विकार के रूप में देखा जा सकता है। अमेरिका में कोविड-19 से संक्रमित पाई गई एक 50 वर्षीय महिला के सीटी स्कैन से पता चला कि उसके मस्तिष्क की नसों में रिसाव आ गया है। एक 74 वर्षीय संक्रमित पुरुष में भी मानसिक विकार देखे गए। पार्किंसन और फेफड़ों की बीमारियों से पीड़ित यह शख्य कोविड-19 से संक्रमित होने के बाद बोलने की क्षमता खो बैठा। यह भी देखा गया है कि कोविड-19 से रिकवर होने वाले अधिकांश मरीज कुछ हफ्तों तक तनाव महसूस करते हैं। आमतौर पर कुछ समय पर बाद यह तनाव खत्म हो जाता है लेकिन अवसाद, डर और घबराहट जैसे मनोवैज्ञानिक लक्षण लंबे समय तक बने रहते हैं।
न्यूरोसाइकोफार्माकोलाॅजी जर्नल में 13 अगस्त 2020 को प्रकाशित डेनिज वेतेनसेवर, शोयन वॉन्ग और बार्बरा जैकलीन सहाकियन का शोधपत्र बताता है कि कोिवड-19 महामारी में अवसाद से संबंधित विकारों में सुनामी लाने की क्षमता है। अपनों को खोने की चिंता, असहायता और वायरस के संपर्क मंे आने के डर से बड़ी संख्या मंे लोग अवसाद, बेचैनी से घिर सकते हैं और उनके मन में खुदखुशी के विचार आ सकते हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार, महामारी से आए अकेलेपन और चिंताओं के कारण ब्रेन केमिस्ट्री में बदलाव आ सकता है जो मूड डिसऑर्डर का कारण बन सकता है। दिल्ली स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन बिहेवियर एंड एलाइड साइंसेस (इहबास) में मनोचिकित्सक व सहायक प्रोफेसर ओमप्रकाश ने डाउन टू अर्थ को बताते हैं, “हमारी नजर में ऐसे मामले आ रहे हैं जिनमें कोविड-19 का दिमाग पर असर देखा जा रहा है। अधिकांश लोगों को एंजाइटी प्रॉब्लम है। उनके दिमाग मंे एक अलग तरह की बेचैनी है।”
भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) से संबद्ध चेन्नई स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एपिडेमियोलॉजी (एनआईई) के वैज्ञानिक तरुण भटनागर ने डाउन टू अर्थ से बातचीत में स्वीकार किया कि कोविड-19 से रिकवरी के बाद लोगों की कई तरह की परेशानियां आ रही हैं। वह मानते हैं कि रिकवरी के बाद थकान, सिरदर्द और सांसों का फूलना बहुत आम है। गंभीर संक्रमण की स्थिति में फेफड़ों में बदलाव भी देखने को मिल रहे हैं। वह कहते हैं कि अभी यह कह पाना मुश्किल है कि कोविड-19 से संक्रमितों की पूर्ण रिकवरी कब तक होगी।
भटनागर के अनुसार, “कई तरह की परेशानियों के चलते बहुत से लोग रिकवरी के बाद पहले जितनी सक्रियता से काम नहीं कर पा रहे हैं। रिकवर हुए लोगों के आंकड़ों को जुटाकर उनका व्यापक विश्लेषण जरूरी है। विदेशों में कुछ अध्ययन जरूर हुए हैं लेकिन अभी भारतीय परिप्रेक्ष्य में इस संबंध में कोई अध्ययन नहीं हुआ है। लोगों की परेशानियों को देखते हुए इसकी शीघ्र जरूरत है।” भटनागर मानते हैं कि गंभीर संक्रमण के मामलों में फाइब्रोसिस का खतरा है। डब्ल्यूएचओ की प्रमुख वैज्ञानिक सौम्या स्वामीनाथन ने 12 अगस्त को एक समाचार चैनल में स्वीकार किया कि रिकवर लोगों को स्वास्थ्य से संबंधित तरह-तरह की परेशानियां आ रही हैं। उन्हांेने ऐसे लोगों पर ध्यान देने की जरूरत पर जोर िदया।
खत्म होती एंटीबॉडी, नया खतरा
नेचर मेडिसिन में 18 जून 2020 को प्रकाशित एक शोधपत्र बताता है कि कोविड-19 से संक्रमित मरीजों की एंटीबॉडी दो से तीन महीने में क्षीण हो रही है। चीन में हुए इस शोध में 37 सिंप्टोमैटिक और 37 असिंप्टोमैटिक मरीजों का अध्ययन किया गया। अध्ययन के बाद शोधकर्ता इस नतीजे पर पहुंचे कि 90 प्रतिशत मरीजों की इम्युनोग्लोबुलिन जी (आईजीजी) एंटीबॉडी 2-3 महीने में तेजी से कम हो गई। इसका सीधा सा मतलब है कि एक बार एंटीबॉडी विकसित होने का यह कतई मतलब नहीं है कि फिर से संक्रमण नहीं हो सकता। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में ऐसे बहुत से मामले सामने आए हैं जिनमें लोग रिकवरी के बाद भी दोबारा संक्रमित हुए हैं। उत्तर प्रदेश में कोरोना का हॉटस्पॉट बन चुके कानपुर में 45 साल का व्यक्ति एक महीने में दूसरी बार कोरोना संक्रमित पाया गया। 17 जुलाई को उसकी रिपोर्ट नेगेटिव आने पर उसे अस्पताल से छुट्टी दे दी गई थी लेकिन 3 अगस्त को फिर से तबीयत खराब होने पर जांच हुई तो रिपोर्ट पॉजिटिव आ गई।
सफदरजंग अस्पताल में यूरोलॉजी, रोबोटिक्ट एवं रेनल ट्रांसप्लांट विभाग के प्रमुख (एचओडी) अनूप कुमार डाउन टू अर्थ को बताते हैं, “मेरी जानकारी में कोविड-19 के कुछ ऐसे मामले सामने आए हैं जिनकी रिपोर्ट कुछ समय बाद फिर से पॉजिटिव आई है। कुछ लोगों को फिर से पुराने और नए लक्षण उभर रहे हैं। इसकी दो वजह हो सकती हैं। पहला कमजोर इम्युनिटी और दूसरी रिपोर्ट में विसंगति।”
इम्युनिटी के संबंध में तो डब्ल्यूएचओ ने अप्रैल 2020 में ही कह दिया था कि संक्रमण न तो इम्युनिटी का पासपोर्ट है और न ही चिंताओं के खत्म होने की वजह। डब्ल्यूएचओ के अनुसार, इस बात के कोई प्रमाण नहीं है कि एंटीबॉडी से दोबारा संक्रमण नहीं होगा। देश के अलग-अलग हिस्सों में फिर से रहे संक्रमण के मामले डब्ल्यूएचओ की बातों को पुष्ट करते हैं। कोविड-19 पर शोध करने वाले यूनिवर्सिटी ऑफ वर्जीनिया के भौतिक वैज्ञानिक विलियम पेट्री कहते हैं, “एक अनुत्तरित प्रश्न यह है कि रिकवर हुए लोगों में कितने समय तक वायरस छुपा रह सकता है।
अगर यह वायरस व्यक्ति के अंदर मौजूद रहा तो देर सवेर रिकवरी के बाद भी लक्षण दिख सकते हैं और वह दूसरों को भी संक्रमित कर सकता है।” छोटे स्तर पर हुए कुछ अध्ययन बताते हैं कि कोरोनावायरस ऐसे अंगों में भी पाया गया है जो पहले इम्यून हो गए थे।
फॉलोअप जरूरी
डब्ल्यूएचओ के अनुसार, कोविड-19 से मृत्युदर 3-5 प्रतिशत के बीच है। इसका अर्थ है कि शेष 95 से 97 प्रतिशत लोगों को देर सवेर रिकवर हो जाएंगे। रिसर्चर मानते हैं कि हलके लक्षणों से रिकवर हुए आधे लोग अपने तंत्र में वायरस को कैरी कर सकते हैं। ऐसे में अगर इन लोगों पर ध्यान नहीं दिया गया तो वायरस को नियंत्रित करना बेहद मुश्किल हो जाएगा। यही वजह है कि विशेषज्ञ रिकवरी के बाद भी लगातार फॉलोअप और जांच की सलाह देते हैं (देखें, समाज की भलाई के लिए जरूरी है कोविड-19 से रिकवर मरीजों का लंबा निरीक्षण, पेज 15)। अनूप कुमार बताते हैं कि संक्रमितों को डिस्चार्ज करने के बाद हम एक महीने तक तो उनका फॉलोअप करते हैं। घर में रिकवर होने वाले मरीजों के साथ भी ऐसा होता है लेकिन एक महीने बाद उनकी निगरानी नहीं हो पाती। वह मानते हैं कि रिकवरी के बाद लंबे समय तक फॉलोअप जरूरी है। विशेषकर किडनी, लिवर, हृदय और मधुमेह से पीड़ित अधिक जोखिम वाले मरीजों की कम से कम तीन महीने तक गहन निगरानी आवश्यक है। बहुत से लोग रिकवरी के बाद परेशानियों के बाद भी डॉक्टर से संपर्क नहीं करते। ऐसे लोगों को समझाने की जरूरत है कि वे तुरंत डॉक्टर से संपर्क नहीं करेंगे तो आगे चलकर उनकी तकलीफें काफी बढ़ सकती हैं।
पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (पीएचएफआई) के अध्यक्ष श्रीनाथ रेड्डी बताते हैं कि वायरस शरीर के इम्युनोलॉजी रिएक्शन पर असर डालता है, लेकिन यह शरीर के अंगों को कितना नुकसान पहुंचा सकता है, यह पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। यह संक्रमित की उम्र के हिसाब से अलग-अलग हो सकता है। इस पर अधिक स्पष्टता के लिए जरूरी है कि भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद व्यापक अध्ययन कराए। रेड्डी संक्रमण से रिकवर होने वाले मरीजों की गहन निगरानी पर जोर देते हैं। इससे मरीज से सामाजिक रूप से जुड़े लोगों को भी पता चल जाएगा कि उनका दोस्त या परिवार का सदस्य खतरे में नहीं है।
साइंस ऑफ द टोटल एनवायरमेंट जर्नल में प्रकाशित अध्ययन “फॉलोअप स्टडीज इन कोविड-19 रिकवर्ड पेशेंट्स- इज इट मेंडेटरी” बताता है, “अगर कुछ समय बाद कोविड-19 से रिकवर हुए मरीजों की बीमारियों में उछाल आता है तो स्वास्थ्य तंत्र पर अचानक बोझ बढ़ेगा जिससे वह चरमरा सकता है। इसलिए नियमित अंतराल पर रिकवर मरीजों की देखभाल जरूरी है। इससे भविष्य में होने वाले बहुत से खतरों से भी बचा जा सकता है। साथ ही यह बेहतर टीके का मार्ग भी प्रशस्त करेगा।”
श्रीनाथ रेड्डी चेताते हैं कि हमें रिकवर हुए मरीजों पर सावधानी से ध्यान देने की जरूरत है। उनका कहना है, “हम यह पूरी तरह से नहीं समझ पाए हैं कि रिकवर हुए मरीज कैसा व्यवहार करते हैं। जामा में प्रकाशित हुआ जर्मन शोध बताता है कि युवा लोगों में भी रिकवरी के बाद हृदय में संक्रमण की समस्या आ रही है। यह हमारी समझ को विकसित करने के लिए महज शुरुआत भर है। इसलिए यह कहना गलत होगा कि असिंप्टोमैटिक सहित सभी रिकवर हुए मरीज पूरी तरह रिकवर हो चुके हैं।”(downtoearth)


