विचार/लेख
-राजू पाण्डेय
प्रशांत भूषण के समर्थन में कुछ अत्यंत विद्वतापूर्ण आलेख पढ़ने को मिले। इन आलेखों में विश्व के विभिन्न देशों में न्यायालय की अवमानना को लेकर प्रचलित अवधारणाओं, कानूनी प्रावधानों और इनके क्रियान्वयन की प्रक्रियाओं के गहन मंथन के बाद ससन्दर्भ यह बताया गया है कि भारत का सुप्रीम कोर्ट उदार न्यायिक परंपराओं की अनदेखी कर रहा है और उसका व्यवहार न्यायालय की गरिमा के विपरीत है।
प्रशांत भूषण के समर्थन में लिखे गए यह शोधपरक आलेख हमारी न्याय व्यवस्था में व्याप्त विराट अराजकता, घनघोर भ्रष्टाचार और भाई भतीजावाद की यदि अनदेखी नहीं करते हैं तब भी जाने अनजाने प्रशांत भूषण प्रकरण में इनकी भूमिका को गौण बना देते हैं और इन आलेखों को पढ़ने से कभी कभी यह आभास होता है कि सुप्रीम कोर्ट का वर्तमान आचरण एक आकस्मिक प्रतिक्रिया है तथा यह प्रकरण मानव व्यवहार की जटिलताओं से अधिक संबंधित है। यह एक मेधावी वकील और शायद उससे कम प्रतिभाशाली न्यायाधीशों के बीच अहं का टकराव है एवं दोनों को- और विशेष रूप से न्यायाधीशों को- यदि उनके पद की गरिमा और दायित्वों का स्मरण दिलाया जाए तो इस अप्रिय विवाद का सुखद पटाक्षेप हो सकता है।
जबकि वस्तु स्थिति यह है कि लोकतंत्र पर होने वाले आक्रमणों से रक्षा के लिए एक सशक्त और अभेद्य दुर्ग की भांति खड़ा सुप्रीम कोर्ट अब अपनी अंतर्निहित आत्मघाती कमजोरियों के कारण इतना जीर्ण हो चुका है कि चंद शब्दों के ट्वीट से इसके धराशायी होने की स्थिति आन पड़ी है।
न्यायपालिका का अंग रह चुके न्यायविदों द्वारा समय समय पर की जाने वाली आक्रोश एवं असंतोष की अभिव्यक्ति न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार और पक्षपात के विषाक्त वातावरण की प्रामाणिक और निर्णायक रूप से तसदीक करती रही है। सामान्य लोक व्यवहार में जब यह उक्ति बार बार दुहराई जाती है कि कोर्ट कचहरी के चक्कर में पड़ना ठीक नहीं- पूरी जिंदगी बीत जाएगी, सारी जमा पूंजी खर्च हो जाएगी और हासिल कुछ नहीं होगा तब हम न्यायपालिका की निस्पृह,निर्मम निस्सारता को ही स्वर दे रहे होते हैं। सामंत युगीन राजाओं के न्याय, अंग्रेज शासकों के न्याय और स्वतंत्र भारत की जनता के पैसे से पालित पोषित न्यायाधीशों के न्याय में कोई गुणात्मक बदलाव नहीं आया है और न्याय मोटे तौर पर शासक की इच्छा को उचित ठहराने का साधन बना है। न्यायालय संपन्न और समर्थवान के हर उचित अनुचित कृत्य को संरक्षण देने के केंद्र प्रतीत होते हैं। न्यायपालिका के भ्रष्टाचार के विषय में यह मानना कि इसका प्रसार लोअर जुडिशरी तक है और उच्चतर अदालतें इससे लगभग मुक्त हैं दरअसल एक आत्मप्रवंचना है जो न्यायपालिका में उच्चतर पदों पर रह चुके लोगों को प्रीतिकर लगती है- इस तरह वे न्यायपालिका के भ्रष्टाचार को स्वीकार भी कर लेते हैं और स्वयं को उससे अलग भी कर लेते हैं। बहुत सारे लोग यह विश्वास करते हैं और उनका यह विश्वास अकारण नहीं है कि उच्चतर अदालतों का भ्रष्टाचार परिष्कृत और परिमार्जित है और यह नकद के नग्न आदान प्रदान से कहीं दूर दो शक्ति केंद्रों द्वारा एक दूसरे को उपकृत करने के रूप में दिखाई देता है- न्यायपालिका के कर्ताधर्ताओं के प्रति राजनीति या प्रशासन का कोई शीर्षस्थ व्यक्ति इनके द्वारा की गई अपनी सहायता के लिए आभारी होता है। न तो यह सहायता न्याय संगत होती है न व्यक्त किया गया आभार नीति सम्मत होता है।
अनेक आलेखों में बहुत तार्किक रूप से यह सिद्ध किया गया है कि जिस ट्वीट या बयान के आधार पर प्रशांत भूषण को दंड का पात्र माना गया है उसमें कोई ऐसी बात नहीं है जिससे न्यायालय की अवमानना होती हो। न्यायालय ने इस मामले में असाधारण रूप से हड़बड़ी दिखाई है, परिस्थितियों के सामान्य होने तक प्रतीक्षा की जा सकती थी जब वर्चुअल के स्थान पर भौतिक सुनवाई संभव हो पाती। यदि प्रशांत भूषण के आरोपों का परीक्षण कर उनके असत्य पाए जाने पर उन्हें दंडित किया जाता तो कोई विवाद ही उत्पन्न नहीं होता। पुनः इन आलेखों का मूल भाव यह है कि सर्वोच्च न्यायालय एक बहुत बड़ी भूल करने जा रहा है और जन दबाव उसे ऐसी गलती करने से रोक सकता है।
जिस ढंग से प्रशांत भूषण का प्रकरण आगे बढ़ रहा है उससे तो यही लगता है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रशांत भूषण पर अदालत की अवमानना का आरोप लगाने के लिए एक कमजोर मामले का चयन, हड़बड़ी में सुनवाई और फिर दोषी माना जाना अनायास नहीं था बिल्कुल उसी तरह जिस तरह न्यायालय का यह विश्वास कि न्यायाधीश ही न्याय पालिका का पर्याय है एक खास मकसद की ओर इशारा करता है। यदि यह मकसद न्यायपालिका के कामकाज पर बार बार नुक्ताचीनी करने वाले और जजों की दृष्टि में एक बड़बोले वकील को सबक सिखाने का है तो इसे व्यक्तिगत वैमनस्य का परिणाम माना जा सकता है। किंतु यदि यह राजसत्ता की सरपट और अंधाधुंध दौड़ में बार बार अवरोध पैदा करने वाले विरोध के एक प्रखर स्वर को ऐलानिया ढंग से कमजोर करने और यह जतलाने की कोशिश है कि यदि हम चाहें तो बिना समुचित कारण के भी तुम्हें तुम्हारी हद दिखा सकते हैं तो चिंता स्वाभाविक है।
अभी तक कमिटेड जुडिशरी के विषय में चर्चाएं होती थीं। किंतु अब अनेक सवाल उठ रहे हैं। क्या जुडिशरी को इस सीमा तक कमिटेड बनाया जा सकता है कि वह सरकार के किसी सीबीआई, ईडी या इनकम टैक्स नुमा विंग की तरह कार्य करने लगे? अभी तक न्यायाधीशों को मैनेज करने के किस्से सुनाई देते थे, क्या पूरी न्याय पालिका को ही या उसके एक बड़े भाग को मैनेज करना संभव है? क्या राजसत्ताएं अब न्यायालय की सर्वोच्चता का लाभ उठाकर ऐसे आर्थिक सामाजिक फैसलों को स्वीकार्य बनाने में लगी हैं जिनको लेकर जनता में असंतोष है? क्या अपने प्रयासों में उन्हें सफलता मिल रही है? पिछले कुछ महीनों में वर्तमान सरकार ने जो फैसले लिए हैं उनका दूरगामी प्रभाव भारतीय गणतंत्र के स्वरूप और उसकी प्रकृति पर पड़ना है। संभव है कि आने वाले दिनों में बहुमत वाली सरकार संविधान में ऐसे परिवर्तन करे जो बहुसंख्यक वर्ग के वर्चस्व की स्थापना करें और अल्पसंख्यक धीरे धीरे दोयम दर्जे के नागरिक बना दिए जाएं। यह भी संभव है कि उत्तर कोरोना काल के नए भारत में तकनीकी में निष्णात संपन्न वर्ग का वर्चस्व हमारे आर्थिक-सामाजिक जीवन पर स्थापित हो तथा अप्रत्यक्ष रूप से गुण तंत्र की वापसी हो जाए। ऐसा विशाल अशिक्षित-अकुशल-असंगठित-असहाय आर्थिक-सामाजिक रूप से पिछड़े जन समुदाय के अधिकारों में कटौती द्वारा ही मुमकिन हो सकता है। अनेक ऐसे निर्णय पिछले दिनों में-कभी सरकार द्वारा तो कभी न्यायपालिका द्वारा- लिए गए जिनका प्रभाव अनुसूचित जाति और जनजाति के अधिकारों को संरक्षण देने वाले वैधानिक प्रावधानों को कमजोर करने वाला था किंतु जन असंतोष की तीव्रता को देखकर इन्हें वापस लेना पड़ा। कोरोना का हवाला देकर निजीकरण को बढ़ावा देने वाले अनेक ऐसे फैसले लिए जा रहे हैं जिनका प्रभाव हमारे प्राकृतिक संसाधनों के अनियंत्रित दोहन, पर्यावरण के विनाश और आदिवासियों के विस्थापन के रूप में दिखाई देगा। संविधान की संरचना और संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार इन परिवर्तनों के मार्ग में अवरोध की भांति खड़े हैं। इन जनविरोधी परिवर्तनों को क्रियान्वित करने हेतु कमिटेड जुडिशरी द्वारा संवैधानिक प्रावधानों की सरकार के मनोनुकूल व्याख्या भर से काम नहीं चलेगा, नया संविधान रचना पड़ेगा। यदि नया संविधान गढ़ने का विवादास्पद प्रयास किया जाता है तो न्यायपालिका के विशेष सहयोग के बिना इसकी सफलता संदिग्ध होगी।
न्यायाधीशों की नियुक्तियों, पदस्थापनाओं और पदोन्नति में सरकार का घोषित-अघोषित, नियमतः-जबरिया, उचित-अनुचित, सैद्धांतिक-व्यवहारिक हस्तक्षेप हमेशा से रहा है। वेतन भत्तों और दीगर सुविधाओं के लिए भी सरकार पर न्यायाधीशों की निर्भरता रहती ही है। हर सरकार की इच्छा रहती है कि न्यायपालिका बहुत ज्यादा अड़ंगेबाज और पंगेबाज न हो। यदि न्यायाधीश धन और शक्ति की लालसा जैसी मानवीय दुर्बलताओं से ग्रसित हैं तो स्वाभाविक रूप से वे गलतियां करते हैं और मीडिया को उन पर निशाना साधने और सरकार को उन पर शिकंजा कसने का मौका मिलता है। स्वयं को सार्वजनिक जीवन में संयमित, मर्यादित, अनुशासित तथा सामाजिक- राजनीतिक कार्यक्रमों से अलग-थलग रखना न्यायाधीशों की विवशता है-इस पेशे का ऑक्यूपेशनल हैजर्ड है। या दूसरे शब्दों में कहें तो यह समाज द्वारा स्वयं को मिलने वाले असीमित मान सम्मान की कीमत है जो न्यायाधीशों को चुकानी पड़ती है। किंतु जब कोई न्यायाधीश अपने अंदर उठ रही बालोचित अथवा युवकोचित तरंगों की बिंदास अभिव्यक्ति को अपने निजी जीवन का हिस्सा मानता है तो वह जस्टिस बोबडे की भांति हार्ले डेविडसन बाइक पर सवार हो जाता है और आलोचना तथा टीका टिप्पणी को निमंत्रित करता है। स्थिति तब और जटिल हो जाती है जब ऐसी टीका टिप्पणियों पर निर्णायक रूप से अंकुश लगाने के लिए न्यायपालिका कमर कस लेती है और अपने आलोचकों को कठोर संदेश देने के लिए प्रशांत भूषण जैसी शख्सियत का चयन करती है जो न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार का सबसे मुखर और प्रखर आलोचक रहा है। न्यायपालिका अपने किसी भी आचरण से अगर ऐसे निरंकुश और स्वेच्छाचारी लोगों का गिरोह प्रतीत होने लगे जो अपनी उच्छृंखलता और कदाचरण को उजागर करने वालों का मुँह बंद करने के लिए स्वयं को प्रदत्त शक्तियों का दुरुपयोग करना अपना विशेषाधिकार समझते हैं तब चिंता तो होगी ही। जब न्यायपालिका से जुड़े शीर्ष जन न्यायपालिका की गरिमा की रक्षा और आपसी भाईचारे को बनाए रखने के नाम पर न्यायपालिका के असली चरित्र को उजागर करने वाले अपने ही साथियों को सबक सिखाने पर आमादा हो जाते हैं तब इनका व्यवहार भय उत्पन्न करने लगता है। आखिर यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की न्यायपालिका है जिस पर संविधान और कानून की व्याख्या एवं रक्षा का उत्तरदायित्व है कोई संगठित अपराधी गिरोह नहीं जहाँ संगठन की गोपनीयता भंग करने वालों को कठोर सजा दी जाती है। न्यायाधीशों पर जब भी भ्रष्टाचार और कदाचरण के आरोप लगते हैं, तब हम उन्हें अभूतपूर्व एकता का प्रदर्शन करते हुए आरोपकर्ता पर हमलावर होते देखते हैं। स्वयं पर लगे आरोपों की चर्चा मात्र से ही न्यायाधीश असहज हो जाते हैं और उनकी कोशिश अपारदर्शी एवं गोपनीय आंतरिक जांच द्वारा खुद को जल्द से जल्द क्लीन चिट देने की रहती है। पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर लगे यौन दुराचरण के आरोपों की जांच का हालिया उदाहरण सबके सामने है जब मुख्य न्यायाधीश के पद पर खुद को बरकरार रखते हुए एवं कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न संबंधी कानून में वर्णित प्रक्रिया का पालन न करते हुए जांच की गई और स्वयं को क्लीन चिट भी दे दी गई। आरोप सत्य थे या असत्य यह एक जुदा मसला है किंतु स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने का यह तरीका अटपटा और आपत्तिजनक ही था।
प्रशांत भूषण मामले की जटिलता यह है कि इसका सुखद पटाक्षेप तभी संभव है जब इसे एक वकील और कुछ न्यायाधीशों के अहम के टकराव का रूप दे दिया जाए। एक ऐसा प्रकरण जिसमें दोनों पक्षों ने गुस्से में अपनी सीमाएं लांघी हैं और चूंकि प्रशांत भूषण वकील हैं अतः जजों की तुलना में क्षमा याचना करना उनके लिए अधिक सहज और सरल होगा।उनके ऐसा करने पर न्यायाधीश गण अपनी हठधर्मिता त्यागते हुए तत्काल उन्हें क्षमादान देकर खुद को स्वयं द्वारा ही पैदा गई इस अटपटी स्थिति से निकाल सकेंगे।
किंतु प्रशांत भूषण ने स्वयं को उस विचारधारा के प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत किया है जो हमारे लोकतंत्र की मजबूती के लिए असहमति की बेबाक अभिव्यक्ति को आवश्यक मानती है और यह विश्वास करती है कि सरकार और उत्तरदायित्व के पदों पर आसीन लोगों से प्रश्न पूछकर ही उनकी कार्य प्रणाली को बेहतर बनाया जा सकता है। हर सवाल आरोप नहीं होता और इन सवालों के जवाब देना सफाई देने जैसा तो बिल्कुल नहीं है। प्रशांत भूषण उन मुट्ठी भर न्यायविदों की लड़ाई लड़ रहे हैं जो न्यायपालिका को अधिक उत्तरदायी, पारदर्शी और जनोन्मुख बनाना चाहते हैं- एक ऐसी न्यायपालिका जो लोकतंत्र पर आने वाले संकटों को दूर करे और उस आम आदमी के लिए सोचे जो लोकतंत्र का मूलाधार है। लोकतंत्र को जीवित और जाग्रत बनाए रखने का उत्तरदायित्व बोध प्रशांत भूषण को अपनी बात पर अडिग रहने की शक्ति देगा।
यदि यह मामला अधिक दिन तक चलता है तो मीडिया ट्रायल की आशंका बनी रहेगी। सोशल मीडिया पर ऐसी पोस्टों की शुरुआत हो चुकी है जो प्रशांत भूषण को राष्ट्र द्रोही, आतंकवादियों और नक्सलियों का हिमायती, विरोधी दलों के लिए काम करने वाला वकील आदि के रूप में प्रस्तुत कर रही है। हो सकता है आने वाले दिनों में संबंधित न्यायाधीशों की गौरवशाली पृष्ठभूमि की चर्चा इन वायरल पोस्टों में हो और उनकी राष्ट्र भक्ति को प्रमाणित करने वाले कुछ फैसलों की सूची भी प्रस्तुत की जाए। शायद यह भी कहा जाए कि न्यायपालिका का धीरे धीरे शोधन हो रहा है और आतंकवादियों के मानवाधिकारों की रक्षा के लिए रात को खुलने वाले सुप्रीम कोर्ट का स्वरूप इतना बदल गया है कि वह अब राम मंदिर मामले को देशहित के अन्य मामलों पर वरीयता देते हुए इसकी लगातार सुनवाई करता है। यह भी संभव है कि इस परिवर्तन का श्रेय वर्तमान सरकार और उसके करिश्माई नेतृत्व को दिया जाए। निश्चित ही यह एक करिश्मा ही होगा यदि देश की सर्वोच्च अदालत अपने विवेक का विलय सरकार के हितों और इच्छाओं के साथ कर देगी। हो सकता है कि कुछ सोशल मीडिया पोस्टों में इस बात की ओर संकेत किया जाए कि कमिटेड जुडिशरी का प्रारंभ तो श्रीमती इंदिरा गाँधी के जमाने में हुआ था और बेचारे प्रधानमंत्री एवं उनकी सरकार इस परंपरा को बस आगे बढ़ा रहे हैं।
कुछ बहुत बुनियादी सवाल हमेशा की तरह अनुत्तरित रह जाएंगे। क्या न्यायपालिका को अधिक स्वायत्त और अधिक उत्तरदायी बनाने के लिए इसमें आमूलचूल परिवर्तन आवश्यक है? क्या न्यायपालिका को अपने अंदर व्याप्त भ्रष्टाचार को स्वीकारने और उस पर अंकुश लगाने के लिए बाध्य किया जा सकता है? क्या बहुसंख्यक वर्ग की इच्छा न्याय है? क्या हम ऐसी न्यायपालिका की ओर बढ़ रहे हैं जो प्लेइंग टु द गैलरी पर भरोसा करती है? क्या विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की प्राथमिकताओं का एकाकार हो जाना लोकतंत्र के लिए घातक नहीं है? यदि लोकतंत्र के तीनों आधार स्तंभ अपना मूल चरित्र खोकर किसी खास उद्देश्य, किसी विशेष विचारधारा या किसी ताकतवर शक्ति केंद्र के प्रति समर्पित हो जाएं तो क्या इसे लोकतांत्रिक आवरण में अधिनायकवाद के आगमन की आहट माना जा सकता है? जिस मतभिन्नता को प्रजातंत्र के तीनों आधार स्तंभों की ऐसी टकराहट के रूप में प्रस्तुत किया जाता है जो विकास की गति को अवरुद्ध करती है वह दरअसल विकास प्रक्रिया को पारदर्शी और जनोन्मुख बनाने का जरिया है। क्या हमें लोकतंत्र के इन आधार स्तंभों को सशक्त और स्वायत्त नहीं बनाना चाहिए?
प्रशांत भूषण में अनेक लोग लोकनायक जयप्रकाश नारायण की छवि देख रहे हैं। इनके मन में यह आशा है कि गांधी के देश के बाशिंदे अभिव्यक्ति की आजादी और न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर मुखर होंगे और सरकार के पास ऐसे सत्याग्रहियों को रखने के लिए जेलें कम पड़ जाएंगी। किंतु यथार्थ इससे एकदम विपरीत है। प्रशांत भूषण को समर्थन देने वाले चेहरे वही हैं जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मानवाधिकारों की रक्षा, लोकतंत्र के संविधान सम्मत संचालन और आदर्श न्याय व्यवस्था की स्थापना के लिए दशकों से संघर्ष करते रहे हैं। राजनीतिक दलों का समर्थन इन विषयों पर विशेषज्ञता रखने वाले अपने प्रवक्ताओं के रस्मी बयानों तक सीमित है। राजनीति में अपने पिछले अनुभव के आधार पर प्रशांत भूषण यह समझ ही गए होंगे कि उनके उद्देश्य की पवित्रता की रक्षा के लिए न्यायिक संघर्ष ही श्रेयस्कर है। नए भारत में गांधी और जेपी के करिश्मे को दुहराना आसान नहीं है। हाँ, यदि तथाकथित मुख्यधारा का मीडिया अपनी बाजीगरी दिखाए तो प्रशांत भूषण को दूसरा अन्ना हजारे अवश्य बना सकता है। निश्चित ही प्रशांत भूषण अन्ना के सम्मोहन और मायाजाल से बाहर आ चुके होंगे और कम से कम उन जैसा बनना तो बिल्कुल नहीं चाहेंगे। वैसे भी मीडिया अभी दूसरे कार्य में व्यस्त है। सुप्रीम कोर्ट से राहत प्राप्त कर चुके अर्णव गोस्वामी और अमीश देवगन जैसे नए भारत के नए राष्ट्रवाद की हिमायत करने वाले पत्रकार अभी सुशांत सिंह राजपूत को न्याय दिलाने में व्यस्त हैं। बढ़ती बेरोजगारी, प्रवासी श्रमिकों की दुर्दशा, कोरोना से लड़ने में सरकार की नाकामी, चरम कोरोना संक्रमण के काल में परीक्षाओं के आयोजन की सुप्रीम कोर्ट सम्मत सरकारी जिद जैसे ढेरों मुद्दों की बात करने वाले पत्रकार, बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट इन एंकरों की भांति भाग्यशाली नहीं रहे हैं और विनोद दुआ एवं अरुंधति राय की भांति सुप्रीम कोर्ट की बेरुखी के शिकार हुए हैं। आम आदमी इतने प्रगाढ़ सम्मोहन में है कि ताली और थाली बजाने तथा दीपक जलाने को ही राष्ट्रीय कर्त्तव्य समझ बैठा है- ऐसे में परिवर्तन की आशा कम ही है।
हाल की परिस्थितियां पता नहीं क्यों अमेरिका के फ्रंटियर टाउन्स पर बनी फिल्मों की याद दिलाती हैं। इन फिल्मों की कहानी चार पात्रों मेयर, शेरिफ, जज और जर्नलिस्ट के इर्द गिर्द बुनी गई होती थी। कुछ फिल्मों में इनमें से तीन आपस में गठजोड़ कर अपनी मनमानी चलाते थे और जनता डर के साये में जीती थी। चौथा जो ईमानदार होता था और फ़िल्म का नायक भी- जनता के सहयोग और अपनी वीरता तथा सूझबूझ से इन्हें परास्त कर न्याय का राज्य कायम करता था। ऐसी बहुत कम, बल्कि इक्का दुक्का फिल्में होंगी जिनमें यह चारों मुख्य पात्र नकारात्मक विशेषताओं वाले थे और नायक आम जनता का कोई बहादुर नौजवान था। वह सुखांत फिल्में होती थीं इसलिए उनमें नायकों की जीत होती थी। आज की हकीकत तो अंतहीन ट्रेजेडी की है।
डॉ राजू पाण्डेय
रायगढ़, छत्तीसगढ़
- Sonali Khatri
पीरियड्स के दौरान हर लड़की और महिला का अनुभव एक जैसा नहीं होता। जहां कुछ के लिए यह एक बहुत ही सामान्य बात होती है, वहीं कुछ महिलाओं के लिए पीरियड्स बहुत ही दर्द भरा अनुभव होता है। इसलिए यह बहुत ज़रूरी है कि एक कामकाजी महिला के पास अपनी इच्छानुसार पीरियड्स के लिए छुट्टी यानी पीरियड्स लीव लेने का अधिकार होना चाहिए। हाल ही में जोमैटो ने अपनी महिलाओं कर्मचारियों के लिए दस दिनों की पेड पीरियड्स लीव की पॉलिसी की घोषणा की है। इस नयी पॉलिसी के तहत पीरियड्स के दौरान महिला कर्मचारी पूरे साल भर में अधिकतम 10 छुट्टियां ले सकती हैं। इस पॉलिसी पर कई अलग-अलग प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं और इसने फिर से वह बहस खड़ी कर दी है कि महिलाओं को पीरियड्स लीव मिलनी चाहिए या नहीं।
पीरियड्स लीव का विरोध क्यों हो रहा है ?
महिला कर्मचारियों को पीरियड्स लीव दिए जाने के जोमैटो के फैसले के विरोध के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जा रहे हैं :
अगर कार्यस्थल पर भी लिंग के आधार पर पॉलिसी बनाई जाएगी तो फिर जिस प्रकार का काम पुरुषों को दिया जाता है वह महिलाओं को नहीं दिया जाएगा।
इस प्रकार की छुट्टियों की वजह से महिलाओं को पुरुषों की तरह कार्यस्थल पर बढ़ने के बराबर अवसर नहीं मिलेंगे।
पीरियड्स लीव देने की जगह जो महिलाएं पीरियड्स के दौरान बहुत ही कष्टदायी दर्द से गुजरती हैं, वे मेडिकल लीव ले सकती हैं।
इस प्रकार की छुट्टियों की वजह से कार्यस्थल पर महिलाओं के खिलाफ भेदभाव और बढ़ेगा जैसे कि कम तनख्वाह, कम महिला कर्मचारियों का प्रमोशन, आदि।
यह भी कहा जा रहा है कि जब कार्यस्थल पर महिलाओं को हर चीज़ में बराबरी चाहिए फिर वह तनख्वाह हो, प्रमोशन हो तो फिर छुट्टियों में भी उन्हें बराबरी क्यों नहीं चाहिए। पीरियड्स के लिए अतिरिक्त छुट्टियां क्यों चाहिए। यह बराबरी के नाम पर धोखा है। यह भी कहा जा रहा है कि इस वजह से कार्यस्थल पर महिलाओं को एक कमजोरी और बोझ की तरह देखा जाएगा।
महिलाओं के लिए पीरियड्स लीव क्यों ज़रूरी है ?
इस प्रकार की पॉलिसी की वजह से पीरियड्स के चारों और जो चुप्पी है वह टूटेगी। यह भी माना जा रहा है कि इससे पीरियड्स को कार्यस्थलों पर सामान्य समझना शुरू किया जाएगा। इस मुद्दे पर खुलकर बातचीत भी बढ़ेगी। महिलाएं खुलकर अपने दर्द को अभिव्यक्त कर पाएंगी। जोमैटो की 10 दिन की ये छुट्टियां महिलाओं के इस कष्टकारी दर्द को पहचानते हुए एक ऐसा कार्यस्थल बनाने की कोशिश करती हैं जो महिलाओं के प्रति सवंदेनशील हो। जोमैटो की यह पॉलिसी बताती है कि यह कंपनी वास्तव में यह स्वीकारती है कि दफ्तर में सिर्फ पुरुष नहीं बल्कि महिलाएं भी आती हैं। यह नीति कार्यस्थल में विविधता और समावेश को भी बढ़ावा देती है।
इस पॉलिसी के पक्ष में जो लोग हैं वे कई सारे आंकड़ों का हवाला दे रहे है यह बताने के लिए के पीरियड्स के दौरान कुछ महिलाएं वास्तव में बहुत ही कष्टदायक पीड़ा से गुजरती हैं। पीरियड्स क्रैम्प्स कोई बहाना नहीं है। ऐसे में महिलाओं के लिए यह पॉलिसी बहुत ही मददगार साबित होगी।
मशहूर पत्रकार बरखा दत्त का पीरियड्स लीव के मुद्दे पर कहना है कि इस प्रकार की पॉलिसी की वजह से महिलाएं फाइटर जेट नहीं उड़ा पाएंगी, स्पेस में नहीं जा पाएंगी, वॉर की रिपोर्टिंग नहीं कर पाएंगी, आदि। लेकिन पीरियड्स लीव का समर्थन करने वाले लोगों का कहना है कि क्या औरतों से आगे बढ़ने का मौका सिर्फ इसलिए छीन लिया जाना चाहिए क्योंकि वे पीरियड्स के दौरान छुट्टी ले सकती हैं?
इतना ही नहीं, इस पॉलिसी के खिलाफ यह भी तर्क दिया गया है कि इस प्रकार की पॉलिसी की वजह से महिला कर्मचारियों को कमज़ोर समझा जाएगा। इस तर्क का जवाब कुछ इस तरीके से दिया जा रहा है, ‘अगर पीरियड्स के कष्टदायी दर्द की वजह से किसी महिला को 1 या 2 दिनों की छुट्टी लेनी पड़े, तो उससे यह कैसे साबित होता है कि वह महिला कमज़ोर है?’ अन्य मुद्दों की तरह, इस मुद्दे पर कोई एक मत हो, जरुरी नहीं। मेरी समझ में जोमैटो की यह पॉलिसी नारीवाद-विरोधी नहीं है। बराबरी का मतलब यह नहीं है कि बायॉलॉजिकल स्तर पर पुरुष और महिलाओं को एक समान रूप से देखा जाए। पीरियड्स के दर्द से महिलाएं गुज़रती है न कि पुरुष, बच्चे महिलाएं पैदा करती है न कि पुरुष। ऐसी में अगर कार्यस्थल पर इन जैविक अंतरों को पहचानते हुए महिलाओं के साथ थोड़ा अलग व्यवहार किया जा रहा है तो वह महिला या पुरुष विरोधी नहीं बल्कि लैंगिक रूप से न्यायसंगत है।
भारतीय संविधान में अनुच्छेद 14 के तहत लिंग के आधार पर किसी भी भेदभाव के लिए मना करता है। लेकिन अगले ही अनुच्छेद 15 में संसद को महिलाओं को आगे बढ़ाने के लिए विशेष कदम उठाने की मंजूरी देता है। महिलाओं के लिए ख़ास कदम उठाने की यह मंजूरी क्या नारीवाद विरोधी नहीं है क्योंकि संविधान बनाने वाले यह समझते थे कि बराबरी का मतलब दोनों लिंगों के बीच में समान व्यवहार करना नहीं होता। कभी कभी, समान से कुछ ज्यादा होता है ताकि जो लिंग काफी वर्षों से पीछे छूट गया है वह भी आगे बढ़ पाए। ऐसी में जोमैटो की यह पीरियड पॉलिसी कैसे गलत है? पीरियड्स महिलाओं के लिए एक विकल्प नहीं है। वे चाहे या न चाहे, उन्हें इससे गुजरना ही पड़ता है और अगर इस वजह से वे अपने काम में अपना पूरा योगदान नहीं दे पा रही, तो ऐसे में पीरियड्स के लिए छुट्टियां लेना गलत नहीं है।
( यह लेख पहले 'फेमिनिज्म इन इंडिया' वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ है )
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कांग्रेस पार्टी की दुर्दशा देखकर किसे रोना नहीं आएगा? दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे पुरानी पार्टी अब जिंदा भी रहेगी या नहीं? इस पार्टी की स्थापना 1885 में एक विदेश में जन्मे अंग्रेज ए.ओ. ह्यूम ने की थी। अब क्या इस पार्टी की अंत्येष्टि भी विदेश में जन्मी सोनिया गांधी के हाथों ही होगी? पिछले 135 साल में इस महान पार्टी में दर्जनों बार फूट पड़ी है और नेतृत्व बदला है लेकिन उसके अस्तित्व को जैसा खतरा आजकल पैदा हुआ है, वैसा पहले कभी नहीं हुआ।
आज वह इतनी अधमरी हो गई और उसके नेता इतने अपंग हो गए हैं कि वे फूट डालने लायक भी नहीं रह गए हैं? जिन 23 नेताओं ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखा था, क्या उनमें से किसी की हिम्मत है कि जो बाल गंगाधर तिलक, सुभाषचंद्र बोस, आचार्य कृपालानी, डा. लोहिया, जयप्रकाश, निजलिंगप्पा, शरद पवार आदि की तरह पार्टी-नेतृत्व को चुनौती दे सके?
कांग्रेस में अब तो नारायणदत्त तिवारी, अर्जुनसिंह, नटवरसिंह और शीला दीक्षित जैसे लोग भी नहीं हैं, जो पार्टी में वापिस भी आ गए लेकिन जिन्होंने पार्टी अध्यक्ष को चुनौती देने की हिम्मत तो की थी। जिन 23 नेताओं ने सोनिया को पत्र लिखकर कांग्रेस की दुर्दशा पर विचार करने के लिए कहा था, जब वे कार्यसमिति की बैठक में बोले तो उनकी घिग्घी बंधी हुई थी। राहुल गांधी ने इन सबकी हवा निकाल दी। कौन हैं, ये लोग ? ये सब इंदिरा-सोनिया परिवार के घड़े हुए कठपुतले हैं। इनकी अपनी हैसियत क्या है ? इनमें से किसी की जड़ जमीन में नहीं है। ये राजनीतिक चमगादड़ हैं। ये उध्र्वमूल हैं। इनकी जड़ें छत में हैं। ये उल्टे लटके हुए हैं। इनमें से किसी की हिम्मत नहीं पड़ी कि कांग्रेस जैसी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बन गई है, उसे बाकायदा एक लोकतांत्रिक पार्टी बनाने का आग्रह करें।
छह माह बाद जो कार्यसमिति की बैठक होगी, उसमें यदि गैर-सोनिया परिवार के किसी व्यक्ति को अध्यक्ष बना दिया गया तो वह भी देवकांत बरुआ की तरह दुम हिलाने के अलावा क्या करेगा ? अब तो एक ही रास्ता बचा रह गया है। वह यह कि राहुल गांधी थोड़ा-बहुत पढ़े-लिखे, अनुभवी नेताओं और बुद्धिजीवियों से सतत मार्गदर्शन ले, ठीक से भाषण देना सीखे और इंतजार करे कि मोदी से कोई भयंकर भूल हो जाए। कोई धक्का ऐसा जबर्दस्त लगे कि पस्त होती कांग्रेस की हृदय गति फिर लौट आए तो शायद कांग्रेस बच जाए।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-पंकज मुकाती (राजनीतिक विश्लेषक )
ज्योतिरादित्य सिंधिया ने बुधवार को अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल की। वे अब कभी खुद को वैचारिक मुद्दों वाला नेता नहीं कह सकेंगे। राजनीतिक दलों को छोड़कर दूसरे दल में जाना अलग बात है। सियासत में अब सब जायज है। पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक (आरएसएस ) के मुख्यालय में जाना अलग है।
ऐसा करके ज्योतिरादित्य ने अपनी खुद की गरिमा को अपनी ही नजरों में गिरा लिया। क्योंकि संघ मुख्यालय जाने का मतलब है, अपनी पूरी ज़िंदगी भर की विचारधारा को केवल चुनावी राजनीति और सत्ता हथियाने के लिए कुर्बान कर देना। एक तरह से सिंधिया का ये कदम उनको वैचारिक रूप से शून्य साबित करता है। वे राजनीति के इस बाज़ार में अब निर्वस्त्र दिखाई दे रहे हैं।
कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल होना आवरण बदलना है। पर अपने विचारों को फायदों के लिए किसी ‘संघ’ के चरणों में रख देना दीनता का प्रतीक है। ज्योतिरादित्य ने कुछ ऐसा ही किया। सिंधिया ने अपने पिता स्वर्गीय माधवराव सिंधिया के उसूलों का भी ख्याल नहीं किया।
अपना पहला चुनाव जनसंघ के बैनर तले लड़ने वाले माधवराव सिंधिया ने जब उसे छोड़ा तो फिर कभी पलटकर नहीं देखा। तमाम मतभेदों के बावजूद वे कांग्रेस में बने रहे। कांग्रेस भी उन्हें विचारधारा वाला प्रतिबद्ध नेता मानते हैं।
1996 में माधवराव सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ी पर उस दौर में उन्होंने अपने सोच को ज़िंदा रखा। भाजपा का दामन थामने के बजाय सिंधिया ने मध्यप्रदेश विकास पार्टी बनाकर चुनाव लड़ा और जीते भी। उनका रुतबा और हैसियत ऐसी थी कि भाजपा ने उनके खिलाफ 1996 में कोई उम्मीदवार ही मैदान में नहीं उतारा।
1999 में वे कांग्रेस से सांसद बने। यही कारण है कि माधवराव सिंधिया आज भी राजनीति में एक सम्मानीय नाम है। ज्योतिरादित्य ने ये अवसर खो दिया। अब उनपर अवसरवादी होने की मोहर लग गई।
आखिर ज्योतिरादित्य इतने कमजोर क्यों हो गए ? वो महाराज जिसके नाम पर भाजपा ने पूरा अभियान चलाया हो। माफ़ करो महाराज। वो शिवराज और संघ जिसने हमेशा 1857 की गद्दारी को सिंधिया विरासत को जमकर कोसा, उनके खेल में सिंधिया एक मोहरा बनकर खड़े हो गए। क्या सिर्फ एक चुनाव हारने से कोई आदमी इस कदर हताश हो जाता है।
इसके मायने हैं कि ज्योतिरादित्य एक खोखले और कमजोर नेता हैं। जो एक आंधी में अपने उसूल, परिवार की साख और खुद की गरिमा को बचाने में नाकामयाब रहे। अगर वे मजबूत होते तो कांग्रेस के भीतर ही रहकर संघर्ष करते और खुद को साबित करते। 1857 के ‘गद्दारी’ के दाग को उनकी दादी और उनके पिता ने अपने कर्मों से बड़ी मेहनत करके धोया था। आज संघ की शरण में जाकर ज्योतिरादित्य ने फिर एक नया दाग अपने दामन पर लगा लिया।
इस लेख का मकसद संघ के अच्छे या बुरे होने से कतई नहीं है। संघ अपनी विचारधारा से जुड़ा संगठन है। पर ज्योतिरादित्य जिस संघ के खिलाफ पूरी ज़िंदगी बोलते रहे, वे अब कैसे अपने करीबियों से नजरे मिला पाएंगे। संघ के प्रतिबद्ध #कितने लोग सिंधिया और उनके समर्थकों को वोट देंगे इसका फैसला तो वक्त करेगा। पर जो संघ अपनी विचारधारा के आगे देश और किसी व्यक्ति विशेष दोनों को कुछ न समझता हो, वो क्या सिंधिया के चार कदम चलने से उनके प्रति उदार हो जाएगा ?
शायद, कभी नहीं। सिंधिया ने अपनी गरिमा के साथ अपने समर्थक 22 विधायकों के लिए भी मुश्किल खड़ी कर दी है। संघ से नजदीकी के चलते सिंधिया ने बहुत बड़े वर्ग को नाराज़ भी कर लिया है। उप चुनाव में इसका असर देखने को मिल सकता है। एक पल के लिए सोचिये यदि ज्योतिरादित्य सिंधिया संघ मुख्यालय नागपुर न भी जाते तो उनकी हैसियत में कौन सी कमी हो जाती ?
इलायची… अब शायद ही लोगों को याद हो। रफी अहमद किदवई नामक एक नेता थे। कानून की डिग्री थी उनके पास, पर कभी वकालत नहीं की। उत्तर प्रदेश के बाराबंकी के रहनेवाले. वहां मिट्टी का पुश्तैनी घर था ,खपरैल। आजीवन केंद्रीय मंत्री रहे, पर मरने के बाद उनकी पत्नी और बच्चे गांव, बाराबंकी लौट आये. उसी टूटे-फूटे खपड़ैल घर में। आजीवन केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस के कद्दावर नेता रहने के बावजूद उनके पास कोई संपत्ति नहीं थी, दिल्ली में घर नहीं था। स्वतंत्रता सेनानी किदवई साहब अकेले, गांधीवादी राजनीति के पुष्प नहीं थे। राजनीति में सिद्धांतों-विचारों पर चलनेवाले ऐसे लोगों की तब लंबी कतार थी।
फिर…आज की राजनीति में सामंत और संपन्न व्यक्ति अपनी विचारधारा से समझौता करके खुद को दीन बनाने पर क्यों आमादा रहते हैं।(POLITICSWALA.COM)
-ध्रुव गुप्त
बीसवी सदी के पूर्वार्द्ध ने भारतीय उपशास्त्रीय संगीत का एक स्वर्णकाल देखा था। ठुमरी, दादरा, पूरबी, चैती कजरी जैसी गायन शैलियों के विकास में उस दौर की तवायफ़ों के कोठों का सबसे बड़ा योगदान था। तब वे कोठे देह व्यापार के नहीं, संगीत के केंद्र हुआ करते थे। उन कोठों की कुछ बेहतरीन गायिकाओं में एक थी जानकीबाई 'छप्पनछुरी'। उनके जीवन के बारे में जो थोड़ा कुछ पता है उसके अनुसार बनारस की उनकी मां मानकी धोखे से इलाहाबाद के एक कोठे के हाथों बिक गई। कालांतर में वह उस कोठे की मालकिन भी बनी। जानकी की संगीत में रूचि देखते हुए मानकी ने उसे संगीत की शिक्षा दिलाने के साथ उर्दू, फ़ारसी, हिंदी, अंग्रेजी भाषाओं की जानकार भी बनाया।
संगीत की समझ और मधुर आवाज़ की वज़ह से जानकी के कोठे को शोहरत मिलने लगी। सांवले रंग और मोटे नाकनक्श की जानकी देखने में कुछ सुन्दर नहीं थी, लेकिन संगीत की प्रतिभा और आवाज़ के जादू ने उनकी इस कमी की भरपाई की। खुद्दार जानकी ने संगीत में अश्लीलता को कभी प्रोत्साहन नहीं दिया। एक बार किसी प्रशंसक की अश्लील फरमाईश पर वे उससे लड़ बैठी। अपराधी किस्म के उस व्यक्ति ने उसके चेहरे पर छुरी से छप्पन बार वार कर उनका चेहरा बिगाड़ दिया। 'छप्पनछुरी' का नाम तब से जानकी के साथ हमेशा के लिए जुड़ गया।
इतने जख्म खाकर भी जानकी के दिल से संगीत का जुनून कम नहीं हुआ। वह घूंघट से अपने जख्मों को ढांककर गाती रही। धीरे-धीरे उनका का यश फैला तो उन्हें संगीत-सभाओं और राजाओं, नवाबों, रईसों की महफ़िलों से बुलावा आने लगा। धीरे-धीरे उनकी कला उनके चेहरे पर हावी होती चली गई। संगीत सभाओं में उनपर पैसे बरसते थे। जानकी की लोकप्रियता को भुनाने में ग्रामोफोन कम्पनी ऑफ इंडिया भी पीछे नहीं रहीं। गौहर जान के साथ जानकी देश की पहली गायिका थीं जिनके गीतों के डेढ़ सौ से ज्यादा डिस्क बने। इन गीतों में ठुमरी, दादरा, होरी, चैती, कजरी, भजन और ग़ज़ल सब शामिल थे।
गायन के अलावा जानकी गीत भी लिखती थीं। अपने तमाम गाए गीत उन्होंने ख़ुद लिखे थे। उनके गीतों का एक संग्रह तब 'दीवान-ए-जानकी' नाम से छपा था। उनका एक गीत 'इस नगरी के दस दरवाज़े / ना जाने कौन सी खिड़की खुली थी / सैया निकल गए मैं ना लड़ी थी' बेहद लोकप्रिय हुआ था। राज कपूर ने अपनी फिल्म 'सत्यम शिवम् सुन्दरम' में कुछ फेरबदल के साथ इस गीत का इस्तेमाल किया था। उनके कुछ और प्रसिद्द गीत हैं - राम करे कहीं नैना न उलझे, यार बोली न बोलो चले जाएंगे, नाहीं परत मोहे चैन, प्यारी प्यारी सूरत दिखला जा, एक काफिर पे तबियत आ गई, रूम झूम बदरवा बरसे, मैं भी चलूंगी तोरे साथ, और कान्हा न कर मोसे रार। अपने लिखे गीतों की धुन भी वह ख़ुद बनाती थीं। गायिका के तौर पर तो अद्भुत वह थीं ही।
अपनी तमाम जवानी संगीत को समर्पित करने के बाद बढ़ती उम्र में जानकी ने इलाहाबाद के एक वकील से शादी की लेकिन वह रिश्ता जल्द ही टूट गया। उनके जीवन का शेष भाग सामाजिक कार्यों के लिए समर्पित हो गया।1934 में उनकी मौत हुई। वह समय रसूलन बाई जैसी गायिकाओं के उत्कर्ष और बेगम अख्तर जैसी गायिका के उदय का था। उनकी मृत्यु के साठ साल बाद एच.एम.वी ने 1994 में 'चेयरमैन्स चॉइस' श्रृंखला के अंतर्गत उनके कुछ गीतों के ऑडियो ज़ारी किए थे जिन्हें सुनने वाले संगीत प्रेमियों की संख्या आज भी कम नहीं है।
-श्रवण गर्ग
कांग्रेस में इस समय जो कुछ चल रहा है क्या उसे लेकर जनता में किसी भी तरह की उत्सुकता, भावुकता या बेचैनी है ? उन बचे-खुचे प्रदेशों में भी जहां वह इस समय सत्ता में है ? केरल के उस वायनाड संसदीय क्षेत्र में भी जहां से राहुल गांधी चुने गए हैं ? उत्तर प्रदेश के रायबरेली में जहां से सोनिया गांधी विजयी हुईं हैं और अमेठी जहां से राहुल गांधी हार गए थे ? या फिर देश के उन विपक्षी दलों के बीच जो केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ नेतृत्व के लिए कांग्रेस की तरफ़ ही ताकते रहते हैं ? शायद कहीं भी नहीं ! कांग्रेस के दो दर्जन नेताओं ने सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखकर माँग उठाई है कि पार्टी में अब एक ‘पूर्ण कालिक’, ‘सक्रिय’और ‘दिखाई पड़ने वाले’ नेतृत्व की ज़रूरत आन पड़ी है। कांग्रेस में ऐसे संस्थागत नेतृत्व का तरीक़ा स्थापित हो जो ‘सामूहिक’ रूप से पार्टी को पुनर्जीवित करने के लिए मार्गदर्शन प्रदान कर सके।
सोनिया गांधी को लिखी गई गोपनीय चिट्ठी मीडिया को लीक भी कर दी गई जिससे कि उस पर तुरंत विचार करने का दबाव बनाया जा सके। जिस तरह की माँग चिट्ठी में उठाई गई है, उसे तेईस हस्ताक्षरकर्ताओं में से कुछ अपने तरीक़ों से व्यक्तिगत स्तर पर पूर्व में भी उठाते रहे हैं। जैसा कि होना भी था, कार्य समिति की मंगलवार को बैठक बुलाई गई, जिसमें चिट्ठी पर विचार करने के अलावा बाक़ी सब कुछ हुआ। कोई दो दर्जन हस्ताक्षरकर्ताओं में केवल चार ही कार्य समिति के सदस्य हैं, पर गोपनीय बैठक की सारी जानकारी मीडिया को लगातार प्राप्त होती रही। अब जाँच इस बात की होगी कि चिट्ठी किसने लीक की और बैठक की जानकारी कैसे बाहर आती रही। पार्टियों में आंतरिक प्रजातंत्र के नाम पर जब अराजकता मचती है, तो वह कांग्रेस बन जाती है।
राहुल गांधी ने बैठक में नाराज़गी ज़ाहिर की कि चिट्ठी लिखने के लिए ग़लत वक्त चुना गया पर यह नहीं बताया कि सही वक्त कौन सा हो सकता था। ऐसा इसलिए हुआ होगा कि जनता को अब परवाह नहीं बची है कि उसे कांग्रेस या किसी और दल की कोई ज़रूरत है। मध्य प्रदेश जहाँ कि पहले कांग्रेस की हुकूमत थी और अब भाजपा की है, वहाँ महीनों तक और बाद में राजस्थान में जहाँ वह अभी बची हुई है कई दिनों तक सरकारें ठप रहीं पर जनता की तरफ़ से सोनिया गांधी या जेपी नड्डा को कोई चिट्ठी नहीं लिखी गई। जनता अब सरकार और दल निरपेक्ष हो गई है। इसे किसी भी कल्याणकारी राज्य के अध्ययन योग्य विषयों में शामिल किया जा सकता है कि जनता को उसकी स्वयं की मुसीबतों में व्यस्त कर दिया जाए, तो उसे पता ही नहीं चलेगा कि उसकी क़िस्मत के फ़ैसले क्या और कहाँ लिए जा रहे हैं !
जनता, राजनीतिक दलों में प्रजातांत्रिक मूल्यों और असहमति की आवाज़ को जगह देने की चिंता तब करती है, जब ‘चिट्ठियों के ज़रिए’ उठाई जाने वाली माँगों को एक व्यक्ति के तौर पर अपने लिए और समाज के तौर पर समस्त प्रजातांत्रिक संस्थानों के लिए न सिर्फ़ अत्यंत आवश्यक मानती है, उसे अपने जीने-मरने का सवाल भी बना लेती है।वर्तमान की ओर ही नज़रें घुमाना चाहें तो हांग कांग और बेलारुस सहित कई देशों में इस समय लाखों लोग सड़कों पर यही कर रहे हैं। वहाँ सैन्य उपस्थिति के बावजूद ऐसा हो रहा है। व्यापक जन-उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए हमारे यहाँ आख़िरी बार ऐसा कोई प्रयोग दस वर्ष पूर्व अन्ना हज़ारे के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान देखा गया था, जिसका अरविंद केजरीवाल एंड कम्पनी द्वारा सत्ता प्राप्त कर लेने के साथ ही अंत भी हो गया। जिन मुद्दों को लेकर लड़ाई लड़ी गई थी वे आज भी वैसे ही क़ायम हैं।
कांग्रेस के मामले में व्यापक उदासीनता का एक कारण यह भी हो सकता है कि जिन ‘असंतुष्ट’ लोगों ने चिट्ठी पर हस्ताक्षर किए हैं, उनके वास्तविक उद्देश्यों के प्रति जनता पूरी तरह से आश्वस्त नहीं है ।जनता की जानकारी में यह बात अच्छे से है कि चिट्ठी पर हस्ताक्षर करने वालों में अधिकांश मनमोहन सिंह सरकार में दस वर्षों तक उच्च मंत्री पदों पर रह चुके हैं।तब भी कांग्रेस की स्थिति वही थी, जो आज है। 'सामूहिक निर्णय' की माँग को लेकर तब इस तरह की चिट्ठियाँ नहीं लिखी गईं। या लिखी भी गईं हों तो मीडिया में लीक नहीं की गईं।हस्ताक्षरकर्ताओं में एक ग़ुलाम नबी आज़ाद तो इस समय राज्य सभा में पार्टी के नेता भी हैं। कहा जाता है कि असंतुष्टों का नेतृत्व भी वे ही कर रहे हैं। भाजपा में तो ख़ैर इस तरह की किसी चिट्ठी का सोच मात्र भी कल्पना से परे है। आडवाणी जी, डॉ जोशी और यशवंत सिन्हा के अलावा शांता कुमार, अरुण शौरी,शत्रुघ्न सिन्हा और सिद्धू आदि इस बारे में ज़्यादा जानकारी दे सकते हैं। जनता को पता है इस या उस ‘परिवार’ की ताबेदारी करना अब सभी पार्टी सेवकों की नियति बन गई है।
इस बात की उम्मीद करना कि कांग्रेस के मौजूदा संकट का कोई सर्व सम्मत हल अगले छह महीनों में निकल आएगा कोरोना के अंतिम निदान की खोज करने जैसा है। कोरोना के ताजा मामले उन मरीज़ों के हैं जो दो-चार महीने पहले ठीक घोषित हो चुके थे। असहमति को बर्दाश्त करने की इम्यूनिटी सभी राजनीतिक दलों में काफ़ी पहले समाप्त हो चुकी है। याद किया जा सकता है कि जो प्रशांत भूषण इस समय सबसे ज़्यादा चर्चा में हैं उन्हें असहमति व्यक्त करने के कारण ही योगेन्द्र यादव आदि के साथ केजरीवाल द्वारा पार्टी से बाहर कर दिया गया था।कांग्रेस में जो निर्णय हुआ है, उसे केवल एक युद्ध विराम से दूसरे युद्ध विराम के बीच की अवधि पर सहमति माना जाना चाहिए जिससे कि दोनों ही पक्ष ज़रूरी तैयारी कर सकें।
संकट का हल निकल सकता है अगर सोनिया गांधी साहस दिखा सकें और चिट्ठी लिखने वाले नेताओं को बुलाकर कह दें कि आप ही किसी सर्वसम्मत नेता का नाम तय करके बता दीजिए, गांधी परिवार उसे स्वीकार कर लेगा। ऐसा कुछ नहीं किया गया तो छह महीने बाद ऐसी ही और भी कई चिट्ठियाँ लिखने वालों की संख्या चार दर्जन से ज़्यादा हो जाएगी।तकलीफ़ों के आँकड़े चारों ही ओर तेज़ी से बढ़ रहे हैं। हम जानते हैं कि सोनिया गांधी ऐसा साहस दिखा नहीं पाएँगी।
- स्वेता चौहान
हमारे देश का संविधान कहता है कि भारत में किसी के भी साथ धर्म, जाति, लिंग, जन्मस्थान के आधार पर किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जाएगा क्योंकि यहां सभी वर्ग समान हैं। लेकिन इक्कीसवीं सदी के इस समय में भी भारत के कई कोनों में से ऐसी खबरें हर दिन हमारे सामने आती हैं जिसमें किसी न किसी के साथ धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर बुरा बर्ताव किया जाता है। फिर चाहे वह भीड़ से किसी की हत्या कहे जाने वाली मॉब लिंचिंग हो, दहेज के लिए प्रताड़ित कोई महिला हो या जाति के आधार पर ऊंची जातियों का दलितों पर किए जाने वाले अत्याचार। आज का हमारा लेख ऐसी ही दो घटनाओं के बारे में जहां दलित समुदाय को ऊंची जाति के हाथों जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा है। ये घटनाएं आपको चांद से चमकते ‘मॉडर्न इंडिया’ में मौजूद उन दागों से अवगत कराएंगी जो दूर से भले ही नज़र न आते हो पर गहराई में उतरे तो यह काफी गंभीर समस्या मालूम पड़ती है।
ये खबर है ओडिशा के एक गांव की जहां एक ज्योति नाइक नाम की एक दलित लड़की द्वारा मात्र फूल तोड़ लेने से दलित जाति के चालीस परिवारों का बहिष्कार कर दिया गया। यह मामला ओडिशा के ढेनकनाल जिले के कांटियो केटनी गांव का है जहां एक 15 वर्ष की बच्ची ने ऊंची जाति के लोगों के बगीचे से एक फूल तोड़ लिया जिसके बाद नाराज़ ऊंची जाति के लोगों ने गांव के सभी दलित 40 परिवारों का सामाजिक रूप से बहिष्कार कर दिया।
अखबार द इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए लड़की के पिता निरंजन नाइक ने कहा कि उन्होंने तुरंत अपनी बच्ची की गलती के लिए माफ़ी मांग ली थी जिससे इस मसले को आसानी से सुलझाया जा सके। लेकिन उसके बाद गांव में एक बैठक बुलाई गई और गांव के लोगों ने वहां रह रहे सभी 40 दलित परिवारों का बहिष्कार करने का फैसला लिया। इतना ही नहीं दलितों ने आरोप लगाया है कि उन्हें गांव की सड़क पर शादी या अंतिम संस्कार आयोजन के लिए लोगों की भीड़ नहीं लगाने की चेतावनी दी गई है। यह भी कहा गया है कि दलित समुदाय के बच्चे स्थानीय सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ेंगे।
हमारे देश का संविधान कहता है कि भारत में किसी के भी साथ धर्म, जाति, लिंग, जन्मस्थान के आधार पर किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जाएगा क्योंकि यहां सभी वर्ग समान हैं। लेकिन इक्कीसवीं सदी के इस समय में भी भारत के कई कोनों में से ऐसी खबरें हर दिन हमारे सामने आती हैं जिसमें किसी न किसी के साथ धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर बुरा बर्ताव किया जाता है।
आरोप यह भी है कि स्कूल में पढ़ा रहे दलित समुदाय के शिक्षकों से कहा गया है कि वे अपना ट्रांसफर करवाकर कहीं और की पोस्टिंग ले लें। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक एक ग्रामीण ने बताया कि सार्वजनिक प्रणाली की दुकानों से उन्हें राशन तक नहीं दिया जा रहा है। किराने वाले भी उन्हें सामान नहीं दे रहे हैं। इस वजह से गांव के लोग पांच किलोमीटर दूर जाकर दूसरे गांव से राशन खरीद कर ला रहे हैं। यहां तक की ज्योति नाइक के गांव वाले उनलोगों से बात भी नहीं कर रहे हैं।
इसी बीच एक खबर और स्वंतंत्रता दिवस के मौके पर सामने आयी थी जिसमे एक दलित पंचायत अध्यक्ष को झंडा फहराने से रोक दिया गया। आपको बता दें कि तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई में तिरुवल्लुर जिले के अथुपक्कम गांव की 60 वर्षीय पंचायत प्रमुख वी अमुर्थम को 15 अगस्त के अवसर पर उन्हें एक सरकारी स्कूल में झंडा फहराने के लिए आमंत्रित किया गया था। हालांकि, बाद में उन्हें आने से मना कर दिया गया। दरअसल उन्हें बताया गया कि गांव के अन्य पंचायत सदस्य और इसके सचिव एक ऊंची जाति वन्नियार जाति के हैं और उन्होंने ही 15 अगस्त को पंचायत प्रमुख को झंडा फहराने की अनुमति नहीं दी थी। इसके बाद इस मामले का प्रशासन द्वारा संज्ञान लेते हुए पंचायत उपाध्यक्ष के पति और पंचायत सचिव को हिरासत में ले लिया गया। 15 अगस्त के पांच दिन बीत जाने के बाद यानी 20 अगस्त को वी अमुर्थम ने महिला अध्यक्ष ने जिला कलेक्टर और एसपी की मौजूदगी में झंडा फहराया।
ये दोनों ही घटनाएं समाज की उस बीमार मानसिकता को दर्शाती है जो संविधान में लिखी बातों को नकारने से जरा भी गुरेज नहीं करते क्योंकि सदियों से दिमाग में मौजूद वर्ण व्यवस्था का दीमक संविधान में लिखी बातों को भी मानने को तैयार नहीं होता। ये दोनों घटनाएं दर्शाती हैं कि हमारे समाज में जातिगत भेदभाव नाम का अपराध अब तक मौजूद है। शिक्षा व्यवस्था में बदलाव कर विद्यालयों में पढ़ रहे बच्चों को इस बारें में बताया जा सकता है जिससे आगे आने वाली पीढ़ी में इस तरह की मानसिकता न पनपे। संविधान में मौजूद अधिकारों को जन-जन तक पहुंचाया जाए। समाज की पहल ही जातिगत बीमारी को जड़ से उखाड़ फेंकने में सहायक हो सकती है।
- सुनीता नारायण
कोविड- 19 एक ऐसी समस्या है जिसने हमारा पूरा ध्यान खींच रखा है। हालात ऐसे हो चुके हैं कि हम उन चीजों के बारे में बेखबर हो चले हैं जो हमारे भूतकाल का हिस्सा होने के साथ साथ हमारे भविष्य के निर्माण के लिए भी जिम्मेदार हैं। हमारे जीवन में ऐसा ही एक मुद्दा है प्लास्टिक का। यह एक सर्वव्यापी पदार्थ है जो हमारी भूमि और महासागरों में फैलकर उन्हें प्रदूषित करता है और हमारे स्वास्थ्य संबंधी तनाव में इजाफा करता है। वर्तमान में चल रही स्वास्थ्य आपातकाल जैसी स्थिति ने प्लास्टिक के उपयोग को सामान्य कर दिया है क्योंकि हम वायरस के खिलाफ सुरक्षा उपायों के रूप में अधिक से अधिक उपयोग करते हैं। दस्ताने, मास्क से लेकर बॉडी सूट तक जैसे प्लास्टिक प्रोटेक्शन गियर कोविड-19 के खिलाफ इस युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका अवश्य निभा रहे हैं लेकिन अगर इस मेडिकल कचरे को ठीक से नियंत्रित एवं प्रबंधित नहीं किया गया तो यह हमारे शहरों के कूड़े के पहाड़ों की संख्या में इजाफा ही करेगा।
प्लास्टिक की राजनीति का पूरा किस्सा पुनर्चक्रण नामक एक शब्द में सन्निहित है। वैश्विक उद्योग जगत ने यह तर्क लगातार सफलतापूर्वक दिया है कि हम इस अत्यधिक टिकाऊ पदार्थ का उपयोग करना जारी रख सकते हैं क्योंकि इसका एक बार प्रयोग कर लिए जाने के बाद भी प्लास्टिक को रीसाइकिल किया जा सकता है। हालांकि यह अलग बात है कि इसका अर्थ सबकी समझ से परे है। वर्ष 2018 में चीन ने पुन: प्रसंस्करण के लिए प्लास्टिक कचरे के आयात को रोकने के लिए नेशनल सोर्ड पॉलिसी तैयार की जिसके फलस्वरूप कई अमीर देशों का कठोर वास्तविकताओं से सामना हुआ। प्लास्टिक कचरे से लदे जहाजों को मलेशिया और इंडोनेशिया सहित कई अन्य देशों ने अपने तटों से वापस कर दिया था। यह कचरा किसी के काम का नहीं था। हर देश के पास पहले से ही प्लास्टिक का अंबार है।
आंकड़े बताते हैं कि 2018 के प्रतिबंध से पहले यूरोपीय संघ में रीसाइक्लिंग के लिए एकत्र किए गए कचरे का 95 प्रतिशत और संयुक्त राज्य अमेरिका के प्लास्टिक कचरे का 70 प्रतिशत चीन भेज दिया जाता था। चीन पर निर्भरता का मतलब था कि रीसाइक्लिंग मानक शिथिल हो गए थे। खाद्य अपशिष्ट एवं प्लास्टिक को साथ मिलाकर उद्योग जगत ने कचरे के नए उत्पाद, डिजाइन और रंग बनाने में महारत हासिल की थी। इस सब के कारण कचरा अधिक दूषित हो जाता और उसके पुनर्चक्रण में भी कठिनाइयां आतीं हैं। हालात यहां तक पहुंच गए कि कचरे में भी व्यापार ढूंढ लेने में माहिर चीन जैसे देश को भी इसमें कोई फायदा नहीं नजर आया।
भारत की प्लास्टिक अपशिष्ट समस्या समृद्ध दुनिया के देशों जितनी भयावह तो नहीं है, लेकिन यह लगातार बढ़ती जा रही है। प्लास्टिक कचरे पर केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की नवीनतम वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, गोवा जैसे समृद्ध राज्य प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति 60 ग्राम प्लास्टिक का उत्पादन करते हैं। दिल्ली 37 ग्राम प्रतिव्यक्ति, प्रतिदिन के साथ इस रेस में ज्यादा पीछे नहीं है। राष्ट्रीय औसत लगभग 8 ग्राम प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन है। दूसरे शब्दों में, जैसे-जैसे समाज अधिक समृद्ध होगा वैसे-वैसे प्लास्टिक कचरे की मात्रा भी बढ़ेगी । यह समृद्धि की वह सीढ़ी है जिस पर चढ़ने से हमें बचना होगा।
हालांकि, हमारे शहरों में फैले प्लास्टिक अपशिष्ट की इस भारी मात्रा को देखकर यह अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है कि हालात काबू से बाहर जा रहे हैं और कुछ ही समय में ऐसी स्थिति आएगी जब इस कचरे का निपटान हमारे बस में नहीं रहेगा। इस समस्या के समाधान के लिए अलग तरीके से सोचने और निर्णायक कदम उठाने की आवश्यकता है और आज हमारे समाज में इसकी भारी कमी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2019 में स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर एक ओजपूर्ण भाषण दिया और हमें प्लास्टिक की आदत छोड़ने का आह्वान करते हुए वादा किया कि उनकी सरकार इसके इस्तेमाल में कटौती के लिए महत्वपूर्ण योजनाओं की घोषणा करेगी। लेकिन उनकी सरकार इसका ठीक उल्टा कर रही है।
यहां भी सारी राजनीति रीसाइक्लिंग को लेकर है। उद्योग जगत ने एक बार फिर नीति निर्माताओं को यह समझाने में कामयाबी हासिल कर ली है कि प्लास्टिक कचरा कोई समस्या नहीं है क्योंकि हम लगभग हर चीज को रीसाइकल कर पुन: उपयोग में ला सकते हैं। यह कुछ-कुछ तंबाकू सा है। अगर हम धूम्रपान करना बंद कर देते हैं, तो किसान प्रभावित होंगे। यदि हम प्लास्टिक का उपयोग करना बंद कर देते हैं, तो छोटे स्तर पर चलने वाले रीसाइक्लिंग उद्योग जिसका अधिकांश हिस्सा अनौपचारिक क्षेत्र में है, बंद हो जाएंगे और उनमें काम कर रहे मजदूर बेरोजगार हो जाएंगे। पूरी व्यवस्था चरमरा जाएगी और कई नौकरियां जाएंगी।
आइए पहले चर्चा करें कि उस कचरे का क्या होता है जिसे रीसाइकल नहीं किया जा सकता है? सभी अध्ययन (सीमित रूप में) दिखाते हैं कि नालियों या लैंडफिल में जमा प्लास्टिक अपशिष्ट में कम से कम रिसाइकिल करने योग्य सामग्री शामिल होती है। इसमें बहुस्तरीय पैकेजिंग (सभी प्रकार की खाद्य सामग्री), पाउच , ( गुटखा या शैम्पू) और प्लास्टिक की थैलियां शामिल हैं। 2016 के प्लास्टिक प्रबंधन नियमों ने इस समस्या को स्वीकारा और कहा कि पाउच पर प्रतिबंध लगा दिया जाएगा और दो साल में हर तरह के बहुस्तरीय प्लास्टिक के उपयोग को समाप्त कर दिया जाएगा। वर्ष 2018 में इस कानून को लगभग पूरी तरह बदल दिया गया और केवल वैसे कचरे को इस श्रेणी में रखा जो रीसाइकल न किया जा सके। बशर्तें ऐसी कोई चीज हो।
यह कहना सही नहीं है कि सैद्धांतिक रूप से बहुस्तरीय प्लास्टिक या पाउच को रीसाइकल नहीं किया जा सकता है। उन्हें सीमेंट संयंत्रों में भेजा जा सकता है या सड़क निर्माण में उपयोग किया जा सकता है। लेकिन हर कोई जानता है कि इन खाली, गंदे पैकेजों को पहले अलग करना, इकट्ठा करना और फिर परिवहन करना लगभग असंभव है। इसलिए सब पहले के जैसा ही चल रहा है। हमारी कचरे की समस्या बरकरार है। दूसरा मुद्दा यह है कि हम वास्तव में रीसाइक्लिंग से क्या समझते हैं? हम जानते हैं कि प्लास्टिक के पुनर्चक्रण हेतु घरेलू स्तर पर सावधानी से कचरे का अलगाव करने की आवश्यकता है। यह हमारी और स्थानीय संस्थाओं की जिम्मेदारी बनती है। अतः अब समय या चुका है जब हम रीसाइक्लिंग की इस दुनिया को नए सिरे से निर्मित करें। मैं आपसे आने वाले हफ्तों में इसके बारे में चर्चा करूंगी।(downtoearth)
- संध्या झा
ऊंट यानी रेगिस्तान का टाइटैनिक डूब रहा है। इसे बचाने के तमाम सरकारी उपाय असफल साबित होते दिख रहे हैं। अब से एक दशक पहले आबादी के लिहाज से भारतीय ऊंटों का सूडान और सोमालिया के बाद तीसरा स्थान था। लेकिन इनकी गणना के ताजा आंकड़े बताते हैं कि अब ये 10वें स्थान पर पहुंच गए हैं।
रेगिस्तान का अपना आकर्षण है। जिस तरह समुद्र के किनारे खड़ा होने पर प्रकृति की विराटता का अहसास होता है, उसी प्रकार रेगिस्तान के बीच से गुजरने पर भी ऐसा लगता है। माना जाता है कि जहां आज रेगिस्तान है, वहां कभी न कभी समुद्र रहा है, जो अब या तो सूख गया या फिर पीछे हट गया है। यही कारण है कि रेगिस्तान के गर्भ में तेल, गैस, कोयला या फिर अन्य प्राकृतिक खनिजों का अथाह भंडार छिपा हुआ है। रेगिस्तान के भूगोल का अध्ययन करने से इस बात जानकारी भी मिलती है। इसीलिए ऊंट को रेतीले रेगिस्तान का जहाज (टाइटैनिक) भी कहा जाता है।
रेगिस्तान के टाइटैनिक का इतिहास
पृथ्वी पर विचरण करने वाले सबसे लंबे-चौड़े पशुओं में शामिल ऊंट के बारे में आज यदि यह कहा जाए कि कभी यह खरगोश जितना छोटा हुआ करता था तो किसी को सहसा विश्वास नहीं होगा, लेकिन यह सच है कि पोटीपोलस नामक ऊंट खरगोश जितना ही ऊंचा था। माना जाता है कि लगभग 50 हजार साल पहले विकास क्रम में ऊंट की उत्पत्ति हुई और ऊंट के कैमिलीड वर्ग का उद्भव सबसे पहले उत्तरी अमेरिका में हुआ था। जंगली ऊंट अनुमानतः आटीया और डकटेला कोटि तथा टाइलोपोडा उपकोटि में आने वाले उष्ट्रवंश से ताल्लुक रखता है। प्राचीन काल में एक और दो कूबड़ वाले ऊंट पाए जाते थे।
भारत में एक कूबड़ वाला ऊंट पाया जाता है। भारत में ऊंटों के बारे में इतिहासकार डॉविल्सन ने लिखा है कि ईसा से तीन हजार साल पहले आर्यों के यहां आगमन के दौरान एक कूबड़ वाले ऊंट के बारे में जानकारी नहीं थी, लेकिन लगभग 2300 साल पहले सिकंदर के आक्रमण के समय एक कूबड़ वाले ऊंट भारत में लाए गए थे। ईसा से 3000 से 1800 साल पहले हड़प्पा संस्कृति काल में भी भारत में ऊंटों का उल्लेख मिलता है। लेकिन यह भी माना जाता है कि वर्तमान में सिंध और राजस्थान के रूप में पहचाने जाने वाले क्षेत्र में आदिकाल से एक कूबड़ वाले ऊंट थे।
रेगिस्तानी टाइटैनिक के डूबने का खतरनाक मंजर दिखाने के लिए कुछ आंकड़े रखना जरूरी होगा। साल 2001 में देश में ऊंटों की तादाद 10 लाख से ज्यादा थी। ध्यान रहे कि प्रदेशों में ऊंटों की गणना हर चार साल में होती है। आखिरी गणना 2011 में हुई थी लेकिन उसके आंकड़े अभी उपलब्ध नहीं। और अगर राजस्थान की ही बात करें तो 2001 के मुकाबले 2007 में प्रदेश में ऊंटों की आबादी आधे के करीब आ गई। इस हिसाब से आज की स्थिति का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। देश में सबसे ज्यादा ऊंट राजस्थान में ही पाए जाते हैं। 2007 में 4136 लाख ऊंट यहां के रेगिस्तानी समंदर में तैरने के लिए बचे थे।

देश और प्रदेश में ऊंटों की लगातार कम होती आबादी की सबसे बड़ी वजह है इस पशु का लगातार अनुपयोगी होते जाना। पहले राजस्थान के हजारों किमी के रेतीले समंदर में यातायात और जुताई वगैरह के काम में सबसे उपयोगी साधन ऊंट ही हुआ करता था। पर खेती में मशीनों के बढ़ते उपयोग की वजह से इनकी जरूरत लगातार घटती जा रही है। दूसरी ओर, विकास की तेज लहर में चारागाह भी साफ होते जा रहे हैं, जो ऊंटों के लिए चारे के सबसे बड़े स्त्रोत रहते आए हैं। क्या आपने सोचा है अगर ऐसे ही रेगिस्तान का टाइटैनिक डूबने लगे तो क्या होगा? रेगिस्तान की इकोलॉजी इन पर निर्भर करती है और इनकी संख्या ऐसे ही कम होने लगी तो रेगिस्तान के लिए कई प्रकार की समस्याएं खड़ी हो जाएंगी
मिट्टी का प्रबंधन
ऊंटों से किसानों को खेतों के अंदर जैविक खाद मिल जाती हैं। इससे मिट्टी की उर्वरता बनी रहती है और पानी भी जहरीला नहीं होता। बदले में पशुपालकों को अपने पशुओं हेतु खेतों से फसल निकालने के बाद अनावश्यक बचे फूल-पत्ते, फलियां ओर भूसा मिल जाता है। ये काफी पौष्टिक होता है जिसे पशु बड़े चाव से खाते हैं। ऊंटों के कम होने से ये जुगलबंदी तो टूटेगी ही, साथ में मिट्टी के प्राकृतिक तरीके से होने वाला प्रबन्धन भी बिगड़ेगा।
अरावली और थार के मध्य सम्बन्ध
गुजरात से लेकर दिल्ली तक विश्व की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखला अरावली स्थित है। इसके एक ओर भारत का महान मरुस्थल है और दूसरी ओर दक्कन का पठार। अरावली रेगिस्तान के फैलाव को रोकती है और मॉनसून की स्थिति को निर्धारित करती है, वहीं दूसरी ओर ये जल विभाजक की भूमिका निभाती है।
इसकी अपनी खास पारिस्थितिकी उसे महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करती है। इसे अलग और खास बनाने में ऊटों और घुमन्तू की भूमिका है जो वहां की जैव विविधता को फैलाने में मदद करते हैं। इससे वहां मौजूद पेड़-पौधे ओर झाड़ियों की हर वर्ष कटाई-छंटाई होती रहती है। अरावली को इन जानवरों से खाद मिलती है। वहां से प्राप्त होने वाली असंख्य जड़ी- बूटियों को ये चरवाहे अपने साथ अन्य राज्यों तक ले जाते हैं।
यदि ऊंट और चरवाहे नहीं गए तो ये चक्र रुक जाएगा। तब अरावली को खाद कहां से मिलेगी और वहां मौजूद सूखी झाड़ियों को कौन हटायेगा? हमें ये देखना है कि अरावली में आग लगने की घटनाएं क्यों नहीं होतीं? अरावली केवल राजस्थान से दिल्ली के बीच ही कटा फटा है किंतु इससे पहले गुजरात से लेकर राजस्थान के अलवर तक तो ये निरन्तर फैला है। वहां मौजूद सूखी घास ओर झाड़ियां पशुपालक हर वर्ष हटाते हैं।
ऐसा नहीं है कि अरावली ओर थार के मध्य सम्बन्ध कोई एक-दो साल से बना है। ये सम्बन्ध तो कई हजार सदियों में निर्मित हुआ है। अरावली की जैव विविधता को फैलाने में इन्हीं ऊंटों और घुमन्तू समाज का योगदान है।(downtoearth)
- संजय पराते
हर साल की तरह इस साल भी छत्तीसगढ़ की सहकारी सोसाइटियों में यूरिया खाद की कमी हो गई है। गरीब किसान दो-दो दिनों तक भूखे-प्यासे लाइन में खड़े है और फिर उन्हें निराश होकर वापस होना पड़ रहा है। सरकार उन्हें आश्वासन ही दे रही है कि पर्याप्त स्टॉक है, चिंता न करे और फिजिकल डिस्टेंसिंग को बनाकर रखें। किसान अपने अनुभव से जानता है कि मात्र आश्वासन से उसे खाद नहीं मिलने वाला। और यदि वह जद्दोजहद न करें, तो धरती माता भी उसे माफ नहीं करेगी और पूरी फसल बर्बाद हो जाएगी। अपनी फसल बचाने के लिए अब उसके पास एक सप्ताह का भी समय नहीं है। इसलिए वह सड़कों पर है। प्रशासन की लाठियां भी खा रहा है और अधिकारियों की गालियां भी। यह सब इसलिए कि अपना और इस दुनिया का पेट भरने के लिए उसे धरती माता का पेट भरना है।
धान की फसल के लिए यूरिया प्रमुख खाद है। कृषि वैज्ञानिक पी एन सिंह के अनुसार एक एकड़ धान की खेती के लिए 200 किलो यूरिया खाद चाहिए। इस हिसाब से छत्तीसगढ़ को कितना खाद चाहिए?
छत्तीसगढ़ में लगभग 39 लाख हेक्टेयर में धान की खेती होती है। तो प्रदेश को 19 लाख टन यूरिया की जरूरत होगी, जबकि सहकारी सोसायटियों को केवल 6.3 लाख टन यूरिया उपलब्ध कराने का लक्ष्य ही राज्य सरकार ने रखा है और जुलाई अंत तक केवल 5.77 लाख टन यूरिया ही उपलब्ध कराया गया है।
इस प्रकार प्रदेश में प्रति हेक्टेयर यूरिया की उपलब्धता केवल 122 किलो और प्रति एकड़ 49 किलो ही है। बाकी 12-13 लाख टन यूरिया के लिए किसान बाजार पर निर्भर है। आप कह सकते हैं कि छत्तीसगढ़ में इतनी उन्नत खेती नहीं होती कि 19 लाख टन खाद की जरूरत पड़े। यह सही है। लेकिन क्या सरकार को उन्नत खेती की ओर नहीं बढ़ना चाहिए और इसके लिए जरूरी खाद उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी नहीं बनती?
देश मे रासायनिक खाद का पूरे वर्ष में प्रति हेक्टेयर औसत उपभोग 170 किलो है, जबकि छत्तीसगढ़ में यह मात्र 75 किलो ही है। वर्ष 2009 में यह उपभोग 95 किलो था। स्पष्ट है कि उपलब्धता घटने के साथ उपभोग भी घटा है और इसका कृषि उत्पादन और उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। आदिवासी क्षेत्रों में तो यह उपभोग महज 25 किलो प्रति हेक्टेयर ही है। क्या एक एकड़ में 10 किलो यूरिया खाद के उपयोग से धान की खेती संभव है? आदिवासी क्षेत्रों में यदि खेती इतनी पिछड़ी हुई है, तो इसका कारण उनकी आर्थिक दुरावस्था भी है। सोसाइटियों के खाद तक उनकी पहुंच तो है ही नहीं।
जुलाई अंत तक सरगुजा, सूरजपुर, बलरामपुर, कोरिया और जशपुर जिलों के लिए कुल 2400 टन यूरिया खाद सोसाइटियों को दिया गया है, जबकि पांचों जिलों का सम्मिलित कृषि रकबा 9 लाख हेक्टेयर से अधिक है। इस प्रकार प्रति हेक्टेयर 2.7 किलो या प्रति एकड़ एक किलो यूरिया खाद ही सोसाइटियों को उपलब्ध कराया गया है। अब दावा किया जा रहा है कि 18 अगस्त तक सरगुजा संभाग में 18825 टन यूरिया की आपूर्ति की जा चुकी है, लेकिन सहकारी समितियों तक यह सप्लाई नहीं हुई है! क्या यह दावा अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं लगता? जो सरकार और प्रशासन अप्रैल-जुलाई के 120 दिनों में केवल 2400 टन खाद उपलब्ध कराए, वह महज 18 दिनों में 16000 टन से अधिक यूरिया खाद का जुगाड़ करने का अखबारी दावा करें, तो वास्तविकता की छानबीन भी जरूर होनी चाहिए कि प्रशासन के इस चमत्कार को सराहा जाएं या फिर नमस्कार किया जाये!
छत्तीसगढ़ की 1333 सहकारी सोसाइटियों में सदस्यों की संख्या 14 लाख है, जिसमें से 9 लाख सदस्य ही इन सोसाइटियों से लाभ प्राप्त करते हैं। प्रदेश में 8 लाख बड़े और मध्यम किसान है, जो इन सोसाइटियों की पूरी सुविधा हड़प कर जाते हैं। इन सोसाइटियों से जुड़े 5 लाख सदस्य और इसके दायरे के बाहर के 20 लाख किसान, कुल मिलाकर 25 लाख लघु व सीमांत किसान इनके लाभों से वंचित हैं और बाजार के रहमो-करम पर निर्भर है। उनकी हैसियत इतनी नहीं है कि वे बाजार जाकर सरकारी दरों से दुगुनी-तिगुनी कीमत पर कालाबाजारी में बिक रहे खाद को खरीद सके।
भारत सरकार की वेबसाइट india.gov.in पर 45 किलो और 50 किलो यूरिया की बोरियों की कीमत क्रमशः 242 रुपये और 268 रुपये प्रदर्शित की गई है। इस कीमत पर आज छत्तीसगढ़ में न तो सोसाइटियों में और न ही बाजार में यूरिया खाद उपलब्ध है। सोसाइटियों में पिछले साल की तुलना में यूरिया खाद की कीमत बढ़ गई है - नीम कोटेड यूरिया के नाम पर और 50 किलो की जगह 40 किलो की बारी आ रही है। बाजार में यही यूरिया 700-800 रुपये में बिक रहा है।
गरीब किसानों के सामने इस सरकार ने यही रास्ता छोड़ा है कि वे खेती-किसानी छोड़ दे या फिर आत्महत्या का रास्ता अपनाएं। लेकिन छत्तीसगढ़ के किसानों ने संघर्ष का रास्ता चुना है। पूरे प्रदेश में और खासकर सरगुजा संभाग में किसान सड़कों पर है।
*(लेखक छत्तीसगढ़ किसान सभा के अध्यक्ष हैं। मो.: 094242-31650)*
चारु कार्तिकेय
कहा जा रहा है कि सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या की जांच के सिलसिले में सीबीआई सुशांत की ‘मनोवैज्ञानिक ऑटोप्सी’ करेगी। जानिए क्या और कितनी उपयोगी होती है मनोवैज्ञानिक ऑटोप्सी।
हिंदी फिल्मों के अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या की सीबीआई द्वारा जांच में एक नया मोड़ आया है। मीडिया में आई खबरों के अनुसार सुशांत के घर की जांच और उनसे जुड़े कई लोगों से पूछताछ के बाद केंद्रीय जांच एजेंसी अब सुशांत की ‘मनोवैज्ञानिक ऑटोप्सी’ करेगी। ऑटोप्सी यानी शव का परीक्षण होता है। मनोवैज्ञानिक ऑटोप्सी को एक प्रकार का दिमाग का पोस्टमार्टम कहा जा रहा है।
सुशांत सिंह राजपूत 14 जून को मुंबई में अपने फ्लैट में मृत पाए गए थे। उनकी मौत को शुरू में आत्महत्या माना जा रहा था, लेकिन बाद में पटना में रहने वाले उनके पिता ने दावा किया कि उन्हें आत्महत्या के लिए उकसाया गया था। उन्होंने उनके बेटे को आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप में छह लोगों के खिलाफ एफआईआर भी दर्ज कराई, जिनमें सुशांत की पूर्व गर्लफ्रेंड अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती और उनके परिवार के तीन सदस्य शामिल हैं। सीबीआई द्वारा जांच की मांगों के बीच मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा और सर्वोच्च न्यायालय ने जांच सीबीआई को सौंप दी।
मनोवैज्ञानिक ऑटोप्सी हत्या के मामलों में और विशेष रूप से आत्महत्या के मामलों में जांच की एक तकनीक होती है। इसमें मृतक के जीवन से जुड़े कई पहलुओं की जांच के जरिए मृत्यु के पहले उसकी मनोवैज्ञानिक अवस्था समझने की कोशिश की जाती है। इसका इस्तेमाल खास कर उन मामलों में कारगर होता है जिनमें मृत्यु के कारण को लेकर संदेह हो। इसमें मृतक के नजदीकी लोगों से बातचीत की जाती है, उसका मेडिकल इतिहास देखा जाता है और अगर वो कोई दवाइयां ले रहा हो तो उनका भी अध्ययन किया जाता है।
वो कहां कहां गया था, उसने क्या क्या पढ़ा था और विशेष रूप से उसने इंटरनेट पर क्या क्या किया था, इसकी जांच की जाती है। इसमें मुकम्मल रूप से मृतक की मानसिक अवस्था की रूपरेखा तैयार की जाती है और इसके लिए आवश्यकता पडऩे पर व्यक्ति के निजी इतिहास में लंबे समय तक भी पीछे जाना पड़ता है। उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह के मुताबिक, इस तरह की प्रोफाइलिंग में मृतक की कम से कम छह महीने तक की गतिविधियां तो देखनी ही चाहिए।
मीडिया में आई खबरों में कहा जा रहा है कि मनोवैज्ञानिक ऑटोप्सी का इस्तेमाल इसके पहले सिर्फ सुनंदा पुष्कर की मृत्यु और दिल्ली के बुराड़ी में एक ही परिवार के 11 लोगों के एक साथ मृत पाए जाने वाले मामलों में किया गया था। लेकिन विक्रम सिंह ने डीडब्ल्यू को बताया कि इसका इस्तेमाल बहुत आम है और उन्होंने खुद दहेज को लेकर उत्पीडऩ से संबंधित मौत और दूसरे भी ऐसे कई मामलों में इसका इस्तेमाल किया है।
विक्रम सिंह ने यह भी बताया कि मनोवैज्ञानिक ऑटोप्सी को अदालत में सबूत के तौर पर पेश नहीं किया जा सकता, लेकिन इसके बावजूद उनका मानना है कि इसका इस्तेमाल जांच में बहुत उपयोगी सिद्ध होता है। (dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जम्मू-कश्मीर की छह प्रमुख पार्टियों ने एक बैठक में यह मांग की है कि धारा 370 और 35 को वापस लाया जाए और जम्मू-कश्मीर को वापस राज्य का दर्जा दिया जाए। जो नेता अभी तक नजरबंद हैं, उनको भी रिहा किया जाए। मांगे पेश करनेवाली पार्टियों में कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी भी शामिल हैं।
नजरबंद और मुक्त हुए नेता ऐसी मांगें रखें, यह स्वाभाविक है। अब फारुक अब्दुल्ला और मेहबूबा मुफ्ती यदि फिर से चुने जाएं तो क्या वे उप-राज्यपाल के मातहत लस्त-पस्त मुख्यमंत्री होकर काम कर सकेंगे ? यों भी गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में कहा था कि जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा फिर से मिल सकता है। मैं तो समझता हूं कि कश्मीरी नेताओं को राज्य के दर्जे की वापसी के लिए जरुर संघर्ष करना चाहिए लेकिन यह तभी भी संभव होगा जबकि सारे नेताओं की रिहाई के बाद भी कश्मीर की घाटी में शांति बनी रहे।
यदि राज्य का दर्जा कश्मीर को वापस मिल जाता है तो वह भी उतना ही शक्तिशाली और खुशहाल बन सकता है, जितने कि देश के दूसरे राज्य हैं। लद्दाख के अलग हो जाने से प्रशासनिक क्षमता भी बढ़ेगी और कश्मीर को मिलनेवाली केंद्रीय सहायता में भी वृद्धि होगी।
जहां तक धारा 370 की बात है, वह तो कभी की खोखली हो चुकी थी। जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल जितना ताकतवर होता था, उतना किसी भी राज्य का नहीं होता था। उस धारा का ढोंग बनाए रखने से बेहतर है, अन्य राज्यों की तरह रहना। धारा 35 ए के जैसी धाराओं का पालन नगालैंड और उत्तराखंड- जैसे राज्यों में भी होता है। कश्मीर तो पृथ्वी पर स्वर्ग है। वह वैसा ही बना रहे, यह बेहद जरुरी है। उसे गाजियाबाद या मूसाखेड़ी नहीं बनने देना है। इसीलिए अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि कश्मीर का हल इंसानियत और कश्मीरियत के आधार पर ही होगा। कश्मीर की कश्मीरियत बनी रहे और वह अन्य प्रांतों की तरह पूरी शांति और आजादी में जी सके, यह देखना ही कश्मीरी नेताओं के लिए उचित है। उन्हें पता है कि हिंसक प्रदर्शन और आतंकवाद के जरिए हजार साल में भी कश्मीर को भारत से अलग नहीं किया जा सकता। भारत सरकार को भी चाहिए कि वह सभी कश्मीरी नेताओं को रिहा करे और उनसे स्नेहपूर्ण संवाद कायम करे। (नया इंडिया की अनुमति से)
-सरोज सिंह
बात 2014 लोकसभा चुनाव के बाद की है. कांग्रेस की हार हुई थी और हार पर समीक्षा के लिए टीवी पर डिबेट शो चल रहा था. जाहिर है कांग्रेसी हार से हताश तो थे, लेकिन टीवी स्क्रीन पर उसका कैसे इजहार करते. टीवी डिबेट के दौरान एक कांग्रेसी नेता ने कहा, "देश में कांग्रेस पार्टी एक डिफ़ॉल्टऑप्शन की तरह है."
भले ही उस वक़्त कांग्रेस के नेता ने ये बात अपनी पार्टी के लिए कही थी.
लेकिन जिस नेतृत्व संकट के दौर से कांग्रेस पार्टी इस वक़्त गुज़र रही है, उसमें ये कहना ग़लत नहीं है कि गांधी परिवार भी पार्टी में 'डिफ़ॉल्ट ऑप्शन' ही बन कर रह गया है. जब कहीं से कोई नहीं मिलता, तो पार्टी की कमान अपने आप ही उनके हाथ में चली जाती है.
लेकिन इस बार पार्टी के अंदर इस डिफ़ॉल्ट सेटिंग को बदलने की एक कोशिश हुई है.
कोशिश कितनी कामयाब होगी, इसके लिए 6 महीने और इंतज़ार करना पड़ेगा, लेकिन इतना ज़रूर है कि अगर ये कोशिश सफल हुई तो पार्टी का स्वरूप बदल जाएगा और विफल हुई तो फिर पार्टी में दोबारा ऐसी हिम्मत अगली बार कब होगी, उसमें कितना वक़्त लगेगा, ये बता पाना मुश्किल हो जाएगा.
Resolution passed by Congress Working Committee. pic.twitter.com/yXBg0qi0fE
— Congress (@INCIndia) August 24, 2020
रविवार और सोमवार दो दिन तक कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक की चर्चा अख़बार से लेकर मीडिया चैनलों और विपक्षी पार्टियों के बीच हर जगह छाई रही.
लेकिन मंगलवार को सीडब्लूसी की बैठक की चर्चा के बजाए एक दूसरी ही बैठक की चर्चा हो रही है. वो बैठक, जो वर्किंग कमेटी की बैठक के ठीक बाद हुई कांग्रेस नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद के घर पर.
बताया जा रहा है कि कांग्रेस में नेतृत्व पर सवाल उठाते हुए जो चिट्ठी लिखी गई थी, उसमें दस्तख़त करने वालों की वो बैठक थी. ज़ाहिर है, बैठक के बाद जब दूसरी बैठक होती है, तो पहली बैठक का ज़िक्र होता है, चर्चा भी होती है, और इस बैठक में भी हुई होगी.
ऐसे में सवाल उठता है कि चिट्ठी भी लिख दी, पार्टी की वर्किंग कमेटी की बैठक भी बुला ली, कांग्रेस का अंतरिम अध्यक्ष भी चुन लिया, अब आगे क्या? क्या छह महीने में सब शांत हो जाएगा, दूध की उबाल की तरह, या फिर आँच धीमी कर उसे और उबाला जाना अभी बाक़ी है ?
चिट्ठी में लिखी बातों पर अमल हो
इसका जवाब कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल के आज के ट्वीट से थोड़ा बहुत समझा जा सकता है. कपिल सिब्बल ने ट्वीट में लिखा है- ये एक पोस्ट की बात नहीं, बल्कि उस देश की बात है, जो मेरे लिए सबसे ज़्यादा मायने रखता है.
कपिल सिब्बल का नाम उन 23 नेताओं की लिस्ट में लिया जा रहा है, जिन्होंने वो चिट्ठी सोनिया गांधी को लिखी है और कथित तौर पर पार्टी में 'असंतुष्ट' हैं. सोमवार को कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक के दौरान बीजेपी के साथ सांठ-गांठ के आरोप पर उन्होंने एक ट्वीट किया, जिसे उन्होंने राहुल गांधी के एक फ़ोन कॉल के बाद (कपिल सिब्बल के अनुसार) डिलीट कर दिया.
आज के ट्वीट में कपिल सिब्बल ने जो बातें लिखी हैं, उसके दो अर्थ हो सकते हैं. वो उस डिलीट किए गए पोस्ट के लिए भी हो सकता है. और पार्टी के अध्यक्ष पद या दूसरे पद के लिए भी हो सकता है. तो क्या कांग्रेस के 'असंतुष्ट' नेता, कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ने की तैयारी में हैं?
'ये कहाँ आ गए हम, यूँ ही साथ साथ चलते' - पार्टी को क़रीब से जानने और कवर करने वाले वरिष्ठ पत्रकार विनोद शर्मा पार्टी के असंतुष्ट नेताओं की हालात बॉलीवुड के इसी गाने के अंदाज़ में करते हैं.
वो कहते हैं कि सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखने वाले सभी नेता पार्टी के साथ हैं, लेकिन कुछ बदलाव चाहते हैं.
विनोद शर्मा के मुताबिक़ पार्टी में कुछ नेताओं को इस बात पर आपत्ति है कि वैसे तो राहुल गांधी पार्टी के अध्यक्ष नहीं है, लेकिन वास्तव में अध्यक्ष ही बने हुए हैं. उनकी 100 में से 70 बात आज भी मान ली जाती है. हर मुद्दे पर वीडियो बना रहे हैं.
आज पार्टी में राहुल का रोल क्या हो, ये बात अधर में अटकी है, वो ना ख़ुद अध्यक्ष बन रहे हैं और ना दूसरे को बनने दे रहे है, ये बात ज़्यादा दिन तक नहीं चल सकती. इसलिए पार्टी अध्यक्ष पद के लिए चुनाव होना ही चाहिए.
उनका मानना है कि अगर राहुल गांधी आज भी पार्टी अध्यक्ष के पद के लिए अपना मन बना लें तो वो बिना किसी मुश्किल के दोबारा अध्यक्ष बन सकते हैं. सोमवार को जो कुछ हुआ उससे सोनिया गांधी को एक मोहलत मिल गई है, ताकि पार्टी में जो रायता फैला है उसे समेट लिया जाए.
पार्टी के लिए आगे की राह क्या हो? इस पर विनोद शर्मा कहते हैं कि राह वही है, जो चिट्ठी में सुझाव दिए गए हैं. पार्टी का एक फुल टाइम अध्यक्ष, कांग्रेस वर्किंग कमेटी और संसदीय बोर्ड का दोबारा गठन, यही वो काम हैं, जो पार्टी की प्राथमिकता होनी चाहिए. इसमें काबिलियत और अनुभव दोनों का सही मिश्रण होना ज़रूरी है.
कांग्रेस पार्टी के संविधान के मुताबिक़ हर नए अध्यक्ष के चुनाव के लिए सीडब्लूसी का गठन होना चाहिए. लेकिन पिछले एक साल से सोनिया गांधी ही पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष है, इस वजह से ये नहीं हो पाया था. कांग्रेस वर्किंग कमेटी में कुछ लोग चुनाव से आते हैं, कुछ मनोनीत होते हैं और कुछ स्पेशल इन्वाइटी होते हैं.
2017 में राहुल गांधी पार्टी के अध्यक्ष बने थे. उस वक़्त उनका चुनाव निर्विरोध हुआ था. 2019 में लोकसभा चुनाव के बाद पार्टी की हार की ज़िम्मेदारी देते हुए उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया था. उसके बाद से कांग्रेस में अध्यक्ष पद पर चुनाव नहीं हुआ है. 1998 से 2017 तक सोनिया गांधी पार्टी की अध्यक्ष रही थी.
अध्यक्ष पद पर चुनाव और ग़ैर गांधी अध्यक्ष
ऐसे में अटकलें लगाई जा रही है कि क्या असंतुष्ट नेताओं के खेमें में से कोई नेता पार्टी के अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ सकता है. क्या ग़ुलाम नबी आज़ाद आने वाले समय में पार्टी में गैर-गांधी अध्यक्ष का चेहरा हो सकते हैं. विनोद शर्मा इससे इनकार करते हैं. उनके मुताबिक़ ग़ुलाम नबी ने इस मंशा से कोई काम नहीं किया होगा.
लेकिन कांग्रेस पर किताब लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई इस संभावना से इनकार नहीं करते.
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा कि राहुल गांधी दोबारा अध्यक्ष बनने के लिए तैयार हो जाए तो और बात होगी. लेकिन अगर गांधी परिवार ने ही कांग्रेस में अपने किसी पुराने वफ़ादार को ही अध्यक्ष पद के लिए चुनाव में उतारा, तो बहुत संभव है कि पार्टी के असंतुष्ट नेताओं में से कोई उस उम्मीदवार को टक्कर देने के लिए सामने आए.
ऐसे में वो चेहरा ग़ुलाम नबी आज़ाद का हो सकता है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता. वो यूथ कांग्रेस में रहे हैं, जम्मू- कश्मीर में मुख्यमंत्री रहे हैं, कई बार केंद्र में मंत्री रहे हैं, फ़िलहाल राज्यसभा में पार्टी का चेहरा है. अनुभव और काबिलियत दोनों पैमानों पर उनका क़द पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए कमज़ोर नहीं हैं. ऐसा रशीद का मानना है.
विनोद शर्मा कहते हैं कि पार्टी को फ़िलहाल एक चुनाव वाली सर्जरी की आवश्यकता है. लेकिन उसके लिए ज़रूरी है कि परिस्थितियाँ अनुकूल हों.
जैसे किसी इंसान की सर्जरी के पहले ये देखा जाता है कि उसको ब्लड प्रेशर तो नहीं, किडनी की, लीवर की दिक्क़त तो नहीं. अगर ऐसी कोई दिक्कत सर्जरी के वक़्त होती है तो डॉक्टर दवा दे कर थोड़े दिन मर्ज़ को ठीक करने की कोशिश करता है.
ठीक वैसे ही पार्टी में अध्यक्ष पद के लिए चुनाव कराने के लिए फ़िलहाल वातावरण अनुकूल नहीं है. 6 महीने के वक़्त में वो दवा पार्टी को दी जा सकती है और फिर चुनाव कराए जा सकते हैं. अगर तुंरत चुनाव हुए तो गुटबाज़ी बढ़ने का ख़तरा हो सकता है.
विनोद शर्मा कहते हैं, "अध्यक्ष पद के चुनाव से पहले ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी का सेशन बुलाना एक विकल्प हो सकता है, जहाँ सभी को खुल कर बोलने की इजाज़त होनी चाहिए."
सोमवार की मीटिंग का ज़िक्र करते हुए वो कहते हैं कि एक काम वहाँ बहुत अच्छा हुआ. कपिल सिब्बल ने जैसे ही ट्वीट किया, राहुल ने फ़ोन कर उन्हें कहा कि मैंने ऐसा नही बोला है और सिब्बल ने ट्वीट डिलीट कर दिया गया. ये राहुल गांधी की अच्छी बात थी. जो उन्हें आगे भी जारी रखनी चाहिए. उन्हें दूसरे नेताओं की बात सुननी चाहिए.
विनोद शर्मा कहते हैं कि आज की तारीख़ में राहुल गांधी को किसी दूसरे नेता से कोई ख़तरा नहीं होगा अगर वो दूसरा अध्यक्ष बना दें. बल्कि इससे उनकी साख़ और बेहतर होगी. राहुल की इमेज और बेहतर होगी, परिवार की इमेज बेहतर होगी और पार्टी की इमेज भी और बेहतर होगी.
पार्टी के अंदर एक अलग धड़ा
रशीद एक तीसरे विकल्प की भी बात करते हैं. रशीद के मुताबिक़ सोमवार की बैठक में सुलह सफ़ाई नहीं हुई. दोबारा बैठक करने का मतलब ये है कि असंतुष्ट नेताओं की तरकश में अब भी कई तीर हैं. कल जो हुआ वो पहला राउंड था. लड़ाई लंबी चल सकती है.
इस मौक़े पर रशीद वीपी सिंह को याद करते हैं. जब वीपी सिंह को रक्षा मंत्री के पद से हटाया गया था, तो उन्होंने सीधे पार्टी नहीं छोड़ी थी, अंदर ही अंदर पार्टी को क्षति पहुँचाई थी, फिर जनमोर्चा बनाया था और बाद में जनता दल के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
ऐसे में रशीद को लगता है कि ठीक उसी तरह एक समीकरण आने वाले दिनों में बनते देख सकते हैं. वो कहते हैं कि बहुत मुमकिन है कि कांग्रेस के निकले दल, जैसे शरद पवार हों ममता बनर्जी हों या फिर जगन रेड्डी हों - इनसे असंतुष्ट कांग्रेस नेताओं का खेमा एक साथ आने की पहल कर सकता है.
इस तरह का एक शह-मात का खेल भी पर्दे के पीछे चल रहा है. सीडब्लूसी के बाद की बैठक इसी तरफ़ इशारा करती है. फ़िलहाल ये संभावना दूर की कौड़ी लग सकती है, लेकिन इन नेताओं की भारत की राजनीति में अपनी अलग पहचान है, अपना वज़न है, इसमे दो राय नहीं है. अपने-अपने क्षेत्र में चुनाव जीत कर तीनों नेताओं ने ख़ुद को साबित किया है.
ग़ुलाम नबी आज़ाद के बारे में रशीद कहते हैं कि उनकी सभी पार्टी के नेताओं के साथ ट्यूनिंग अच्छी है. विपक्ष को राज्यसभा में एकजुट रखने में कई बार उन्होंने पहल की है, ये हमने देखा है. फिर कपिल सिब्बल भी उनके साथ है, जिन्होंने पार्टी से इतर जाकर दूसरे राजनीतिक दलों के लिए कोर्ट में केस लड़ा है. मनीष तिवारी भी उनके साथ है.
चिट्ठी पर भले ही 23 नेताओं ने दस्तख़त किया हो, लेकिन कई और नेता हैं जो पार्टी में इन नेताओं के समर्थन में हैं. ऐसे में राजनीति में किसी भी संभावना को ख़ारिज नहीं किया जा सकता.
रशीद कहते हैं कि अभी तक जिन नेताओं ने चिट्ठी लिखी उनसे बुला कर पार्टी नेतृत्व ने अलग से बात नहीं की है, जिसकी उनको एक आस रही होगी. रशीद कहते हैं कि चिट्ठी लिखने वालों में तीन तरह के नेता हैं- एक वो, जिन्हें पार्टी में जो कुछ मनमाने ढंग से चल रहा है उसका दुख है. दूसरे वो नेता हैं, जिन्हें राहुल के साथ काम करने में हिचकिचाहट है और तीसरे वो कांग्रेस नेता हैं, जो वाक़ई में पार्टी को नुक़सान पहुँचाना चाहते हैं, जिसको लगता है कि पार्टी में उनका अच्छा नहीं हो रहा है.
अगर पार्टी नेतृत्व इनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई करने का फ़ैसला लेती है, तो हो सकता है कि असंतुष्ट नेता कोर्ट का सहारा लें. सोमवार को ग़ुलाम नबी आज़ाद के घर हुई बैठक में इस पर भी चर्चा हुई होगी. रशीद ये भी साथ में जोड़ते हैं कि ऐसा बहुत कम होता है कि पार्टी के अंदरूनी संविधान को कोर्ट में चैलेंज किया गया हो.
तो क्या कांग्रेस, अब पुरानी कांग्रेस नहीं रह जाएगी? क्या इसकी संभावना ना के बराबर है? वहाँ पहले जैसे कुछ नहीं रहेगा- इन सवालों के जवाब में रशीद बीजेपी का उदाहरण देते हैं.
जैसे बीजेपी के अटल आडवाणी युग में सारे नेताओं की वफ़ादारी इन्हीं दो नेताओं की तरफ़ थी, नरेंद्र मोदी के आते ही सबकी वफ़ादारी मोदी की तरफ़ हो गई, वैसे ही जब तक कांग्रेस की कमान सोनिया या राहुल गांधी हैं तब तक नेता उनके साथ है, जैसे ही दूसरा विकल्प तैयार होगा, वफ़ादारी बदलते देर नहीं लगेगी.
ऐसे में बहुत ज़रूरी है कि कांग्रेस ख़ुद को देश के डिफ़ॉल्ट आप्शन के तौर पर देखना बंद करे. ख़ुद को पाज़िटिव ऑप्शन के तौर पर तैयार करे. दोनों जानकारों की कांग्रेस को एक ही सलाह है. (bbc)
इस मिशन की सफलता ने जवाहर लाल नेहरू को नये स्वतंत्र हो रहे एशियाई और अफ्रीकी देशों के स्वाभाविक नेता के रूप में स्थापित कर दिया था। उस समय तक ‘विश्व गुरू’ जैसे शब्द तो प्रचलित नहीं थे किन्तु नेहरू के प्रयास भारत को उसी दिशा में ले जा रहे थे। ध्यान देने लायक बात है कि इस मिशन में नेहरू को भारतीय वायुसेना या आर्मी की मदद नहीं मिली थी।
मिशन था : डच सेना की गोलीबारी के फंसे इंडोनेशियाई प्रधानमंत्री और प्रमुख नेताओं को उनके देश से सुरक्षित निकालकर दिल्ली लाना।
उनके इस मिशन को पूरा करने के लिए अपनी जान हथेली पर लेकर उडऩे वाले केवल तीन गैर-सैनिक लेकिन जांबाज पायलट उपलब्ध थे।
उन तीन में से एक थे देश के पहले आदिवासी पायलट - छत्तीसगढ़ के कैप्टन उदयभान सिंह।
-डॉ परिवेश मिश्रा
जुलाई 1947 : देश आजादी के दरवाजे पर खड़ा था। अंतरिम सरकार कामकाज संभाल चुकी थी। नेहरू इस सरकार में प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री थे।
नेहरू के बुलावे पर बिजयानंद (बीजू) पटनायक दिल्ली पंहुचते हैं और दोनों की एक बैठक होती है। एक खुफिया मिशन को अंजाम देना था। नेहरू की ब्रीफिंग स्पष्ट थी।
17 अगस्त 1945 को इंडोनेशिया में एक स्वतंत्र राज्य की घोषणा हो गयी थी। वहां पिछले तीन सौ सालों से डच (नीदरलैंड के निवासियों के लिए यह शब्द प्रयुक्त होता है) कब्जा जमाए बैठे थे। दूसरे विश्वयुद्ध में जब जापानियों की सेना आ धमकी तो भागने वालों में डच सबसे आगे थे। तीन साल के बाद जैसे ही जापानी कब्जे से छुटकारा मिला इंडोनेशिया में राष्ट्रपति सुकर्णो के नेतृत्व में एक सरकार अस्तित्व में आ गयी। डच इस सच्चाई को स्वीकार नहीं कर पाए।
इंडोनेशिया में एक बार फिर कब्ज़ा करने की नीयत से डच सेना ने बड़े स्तर पर फौजी हमले शुरू कर दिये। सुकर्णो की सेना के पास हथियार और गोला बारूद नहीं के बराबर थे और डच के लिए फिर से काबिज होना बहुत आसान दिख रहा था।
नेहरू इंडोनेशिया की इस स्थिति से खुश नहीं थे। ब्रिटेन से ताजी ताजी स्वतंत्रता पाये भारत को इंडोनेशिया के लिए सहानुभूति होना स्वाभाविक था। लेकिन नेहरू का इस मामले में स्टैन्ड का आधार केवल भावनात्मक नहीं था।
नेहरू ने तब तक तय कर लिया था कि विश्व युद्ध के बाद दुनिया में शुरू हो चुके शीत-युद्ध में हो रही बाहुबलियों की खींचतान से न केवल भारत को बल्कि तीसरी दुनिया के बाकी गरीब देशों को भी बचाना है। इसलिए नेहरू इन देशों को संगठित करने का प्रयास शुरू कर चुके थे।
जुलाई 1947 में नेहरू ने दिल्ली में एक बड़ा कार्यक्रम आयोजित किया था : एशियन रिलेशन्स कान्फे्रंस। (गुट निरपेक्ष आंदोलन खड़ा करने की दिशा में नेहरू का यह पहला सार्वजनिक कदम था)। इसमें इंडोनेशिया के नेता भी आमंत्रित थे। वे तो नहीं आ सके लेकिन राष्ट्रपति सुकर्णो का संदेश नेहरू तक पंहुच गया।
सुकर्णो चाहते थे कि डच सेनाओं के कब्ज़े में आने से पहले उनके प्रधानमंत्री और अन्य लोग किसी तरह देश के बाहर निकल जाएं और बाहरी दुनिया को डच अत्याचारों की जानकारी दे कर समर्थन जुटा सकें। इंडोनेशिया की मदद करना और उसे स्वतंत्र रखना भारत के हित में था। इसीलिए नेहरू ने पटनायक को बुलावा भेजा था।
बीजू पटनायक ने कुछ ही समय पहले अपनी एक विमानन कम्पनी स्थापित की थी। नाम था कलिंगा एयरलाइंस और ऑफिस था कलकत्ता में। तब तक बीजू पूर्वी भारत के सबसे तेजी से उभरते हुए उद्योगपति के रूप में स्थापित होने लगे थे। प्रशिक्षित पायलट पटनायक दूसरे विश्वयुद्ध में एयर फोर्स में काम कर चुके थे। वही कलिंगा एयरलाइंस के चीफ पायलट थे और कांग्रेस के उभरते हुए नेता भी थे। कलिंगा एयरलाइंस तब तक इंडोनेशिया के लिए दवाईयां आदि पंहुचाने का काम कर चुका था। लोगों को शक था कि इनमें हथियार भी गये थे।
(भारत में विमानन सेक्टर के इतिहास के बारे में जानकारी कमेन्ट बॉक्स में देखें)
और तभी नेहरू का मिशन सामने आ गया।
दिल्ली से लौटने के बाद पटनायक ने अपनी टीम छोटी रखने का निर्णय लिया और साथ जाने के लिए दो लोगों का चयन किया। पहली थीं पत्नी ज्ञानवती पटनायक। सुकर्णो अपनी नन्ही बेटी को देश से सुरक्षित बाहर निकालना चाहते थे। टीम में महिला की उपस्थिति सबको आश्वस्त करती थी। इसके अलावा मूलत: पंजाब की श्रीमती पटनायक स्वयं एक प्रशिक्षित पायलट भी थीं।
और अपने को-पायलट के रूप में पटनायक ने चुना युवा कैप्टन उदयभान सिंह को। उदयभान सिंह कमर्शियल पायलट बनने वाले देश के पहले आदिवासी युवक थे। उन दिनों देश में इने गिने पायलट उपलब्ध थे। जो थे उनमें भी अधिक संख्या यूरोपियन की थी। इस मिशन में गोपनीयता के साथ साथ दल के सदस्यों का आपस में विश्वास होना बहुत जरूरी थी।
छत्तीसगढ़ के मालखरौदा (वर्तमान चांपा-जांजगीर जिला) के राजपरिवार में सन् 1915 में जन्मे उदय भान सिंह की पढ़ाई लिखाई रायपुर के राजकुमार कॉलेज में हुई थी। उनके नाम पर कॉलेज में एक हॉकी की शील्ड भी प्रदान की जाती है। इस प्रतिभाशाली और कुशाग्र छात्र उदयभान को गाईड कर आगे की शिक्षा दिलाने का जिम्मा लिया दो आदिवासी राजाओं ने - सारंगढ़ के राजा नरेशचन्द्र सिंह और उदयभान के मामा कवर्धा के राजा धर्मराज सिंह ने और उन्हें इलाहाबाद भेजा गया। सारंगढ़ और कवर्धा को उन्होंने हमेशा अपना घर माना।
विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान युवा उदयभान ने फ्लाईंग क्लब में विमान उड़ाना सीखा और पढ़ाई पूरी करने के बाद दिल्ली की इंडियन नेशनल एयरवेज कम्पनी में बतौर पायलट नौकरी कर ली। यह कम्पनी राजा नरेशचन्द्र सिंह के मित्र, ब्रिटिश उद्योगपति ग्रांट गोवेन की थी। इन्हीं ग्रांट गोवेन ने बीसीसीआई (क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड) तथा क्रिकेट क्लब और इंडिया की स्थापना भी की थी। उदयभान सिंह का विवाह हुआ छुरा जमींदारी की कन्या हेमकुमारी देवी से। 1947 में बीजू पटनायक ने कलिंगा एयरलाइंस की शुरुआत की तो वे हमउम्र और मित्र पटनायक की कम्पनी आ गये थे।
विमान में जाने के लिये तैयार तीनों पायलटों को खतरों का पूरा असहास था। पटनायक दम्पति अपने एक वर्षीय पुत्र नवीन को और उदयभान सिंह उसी उम्र के शिशु पुत्र निरंजन को पीछे छोड़ कर जा रहे थे। कुछ सप्ताह पहले ही कलिंगा एयरलाइंस का एक विमान सिंगापुर से रेड क्रॉस से मिली दवाईयों को पंहुचाने इंडोनेशिया जा रहा था। लेकिन लैन्ड करने के पहले ही डच विमानों ने उसे मार गिराया था। उसमे ऑस्ट्रेलियन पायलट समेत सभी नौ लोगों की मृत्यु हो गयी थी।
किन्तु यह मिशन देश के लिए था और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के व्यक्तिगत आग्रह पर था।
तीनों ने अपनी जान की परवाह किये बिना कलकत्ता से अमरीकी डगलस सी-47 बी-20 विमान में यात्रा शुरू की। इस विमान को आम बोलचाल की भाषा में डकोटा या डीसी-3 कहा जाता था। 22 जुलाई 1947 को अपने मिशन पर रवाना हुआ यह विमान मोहनबाड़ी (डिब्रूगढ़ के पास एयरपोर्ट) और सिंगापुर में फ्यूल के लिये रुकने के बाद जावा द्वीप की ओर आगे बढ़ा। उस समय तक दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान लगाये गये सारे रेडार डच सेना के कब्ज़े में नहीं आ पाए थे। दोनों पायलटों ने फिर भी डकोटा को बहुत नीचे - ‘ट्री-टॉप हाईट’ पर रखा और आगे बढऩे में सफल रहे। डच सेना की रेडियो चेतावनियों की परवाह किये बिना जब विमान इंडोनेशिया की एयर स्पेस में घुसता ही चला गया तो डच सेनाओं ने भारी गोलाबारी शुरू कर दी। इनसे बचते हुए चालक दल विमान को जकार्ता के पास मगूवो नामक एक कच्ची सी विमान पट्टी पर उतारने में सफल रहा।
इंडोनेशिया के प्रधानमंत्री सुल्तान जाहरीर तथा उपराष्ट्रपति मोहम्मद हत्ता के साथ इंतज़ार में खड़े दल को तत्काल प्लेन में बिठाया गया और 24 जुलाई को ये लोग सकुशल दिल्ली पंहुचा दिये गये।
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उत्तरकाण्ड :
* कैप्टन उदयभान सिंह इस घटना के बाद एक जांबाज पायलट के रूप में सम्मानित हुए। 1953 में आठ प्रमुख निजी विमान कम्पनियों को राष्ट्रीयकृत कर एयर इंडिया कम्पनी का गठन हुआ और उसके बाद कैप्टन उदयभान सिंह ने इंडियन एयरलाइंस में पायलट के रूप में सेवाएं दीं। 1961 में बीजू पटनायक उड़ीसा के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने कैप्टन उदयभान सिंह को कुछ वर्षों के लिये राज्य के चीफ पायलट के रूप में डेपुटेशन पर उड़ीसा बुला लिया। इंडियन एयरलाइंस में वे वरिष्ठतम पायलटों मे से एक हो चुके थे, जब राजीव गांधी ने इसी इंडियन एयरलाइंस में कैप्टन उदयभान सिंह के साथ सह-पायलट के रूप मे अपना करियर शुरू किया। राजीव गांधी उन्हें हमेशा ‘गुरु जी’ ही संबोधित करते रहे। कैप्टन उदयभान सिंह सेवानिवृत होने के बाद रायपुर में बसे और 1981 में वहीं उनका निधन हुआ। पत्नी श्रीमती हेमकुमारी देवी रायपुर में रहती हैं।
* राष्ट्रपति सुकर्णो की नवजात पुत्री को श्रीमती पटनायक ने अपनी गोद में ले कर यात्रा की थी। पटनायक दम्पति की सलाह पर सुकर्णो ने पुत्री का नामकरण किया-मेघावती। आगे चल कर मेघावती सुकर्णोपुत्री के नाम से इंडोनेशिया की राष्ट्रपति बनीं।
* इस घटना के बाद नेहरू तीसरी दुनिया या थर्ड वल्र्ड के और विशेष कर भारत के आसपास के देशों के नेता के रूप में उभरे। जब नेहरू ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन का पहला विश्व सम्मेलन आयोजित किया तो पाकिस्तान, श्रीलंका और बर्मा के साथ साथ इंडोनेशिया भी भारत के साथ सह-आयोजक बना। इतना ही नहीं, इंडोनेशिया ने इसे जकार्ता के पास बांडुंग में आयोजित भी किया।
* बीजू पटनायक को इंडोनेशिया ने अपने देश का सबसे बड़ा नागरिक सम्मान ‘भूमि-पुत्र’ तथा मानद नागरिकता दे कर सम्मानित किया।
- विकास बहुगुणा
‘सुप्रीम कोर्ट के पांच जज कह चुके हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने लोकतंत्र को निराश किया है और प्रशांत भूषण ने भी अपने ट्वीट्स में यह बात कही है. दूसरी बात, सुप्रीम कोर्ट के नौ जजों ने कहा है कि शीर्ष न्यायपालिका में भ्रष्टाचार है. इनमें से दो ने यह टिप्पणी तब की जब वे कुर्सी पर थे. सात ने यह बात अपने रिटायरमेंट के तुरंत बाद कही. मेरे पास उन सबके ये बयान हैं. मैंने खुद 1987 में भारतीय विधि संस्थान में एक भाषण दिया था...’
ठीक यहीं पर सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अरुण मिश्रा ने भारत के अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल को रोक दिया. यह बीते हफ्ते की बात है. जस्टिस मिश्रा ने कहा कि अदालत अटॉर्नी जनरल से मामले के गुण-दोष के बारे में नहीं जानना चाहती. मामला सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का था जिसमें वह चर्चित अधिवक्ता प्रशांत भूषण को दोषी ठहरा चुका है. इससे पहले अटॉर्नी जनरल अदालत से अपील कर चुके थे कि प्रशांत भूषण को सजा न दी जाए. उनका यह भी कहना था कि बतौर वकील प्रशांत भूषण ने बहुत अच्छे काम किए हैं.
लेकिन अदालत इस दलील से सहमत नहीं थी. जस्टिस अरुण मिश्रा का कहना था कि अच्छे काम का हवाला देकर गलत काम को ढका नहीं जा सकता. लेकिन जब अटॉर्नी जनरल ने यह बताना शुरू किया कि सुप्रीम कोर्ट के कई पूर्व जज और वे खुद भी ऐसा ही कर चुके हैं तो शीर्ष अदालत ने उन्हें आगे बोलने ही नहीं दिया. अदालत ने कहा कि केके वेणुगोपाल का बयान तब तक स्वीकार नहीं किया जाएगा जब तक प्रशांत भूषण अदालत के सामने दिए गए अपने बयान पर पुनर्विचार नहीं करते. इस बयान में वरिष्ठ अधिवक्ता ने कहा था कि उन्होंने जो कहा है वह सोच-समझकर कहा है और अदालत इसके लिए उन्हें जो चाहे सजा दे सकती है.
असल में जब सुप्रीम कोर्ट ने प्रशांत भूषण के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही का नोटिस भेजा था तब न्यायालय की अवमानना कानून 1971 के तहत एक नोटिस अटॉर्नी जनरल को भी भेजा गया था ताकि वे इस मामले में अदालत की मदद कर सकें. बताया जाता है कि सुप्रीम कोर्ट में अपने बयान से पहले केके वेणुगोपाल अपनी लिखित राय शीर्ष अदालत को सौंप चुके थे और उसमें भी उन्होंने प्रशांत भूषण को कोई सजा न देने की सलाह दी थी.
अटॉर्नी जनरल के इस रुख ने एक बड़े वर्ग को चौंकाया है. इसकी वजह यह है कि राज्यपाल की तरह संवैधानिक पद होने के बावजूद अटॉर्नी जनरल को राज्यपाल की तरह ही केंद्र सरकार का आदमी माना जाता है. वह सरकार का मुख्य कानूनी सलाहकार और सुप्रीम कोर्ट में उसका सबसे बड़ा वकील होता है. उसकी नियुक्ति भले ही राष्ट्रपति करते हैं, लेकिन जैसा कि बाकी ऐसी नियुक्तियों के मामले में होता है इसकी सिफारिश केंद्र सरकार करती है. यही वजह है कि संविधान में भले ही अटॉर्नी जनरल का कार्यकाल तय न हो लेकिन अक्सर केंद्र की सरकार बदलने पर उसे भी बदल दिया जाता है. यहां पर एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि संविधान अपने कर्तव्य के निर्वहन के लिए उन अटॉर्नी जनरल को किसी भी अदालत में सुने जाने का अधिकार देता है जिन्हें सर्वोच्च अदालत ने बीच में ही चुप करवा दिया था.
रफाल सहित तमाम मामलों में प्रशांत भूषण मोदी सरकार के लिए सिरदर्द बनते रहे हैं. इससे पहले जब वे आम आदमी पार्टी में थे तब भी भाजपा और उसकी सरकार के लिए सरदर्द बने रहा करते थे. इसलिए कई लोग मान रहे थे कि अटॉर्नी जनरल अवमानना के इस मामले में उनके लिए सजा के पक्षधर होंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. केके वेणुगोपाल ने प्रशांत भूषण को सजा न देने की अपील तो की ही, अदालत के सामने उन्हीं बातों को भी दोहरा दिया जिनका जिक्र प्रशांत भूषण ने भी किया था.
सवाल है कि उन्होंने ऐसा क्यों किया. अलग-अलग लोग इसके अलग-अलग जवाब देते हैं. द वायर में अपने एक लेख में वरिष्ठ पत्रकार वी वेंकटेशन कहते हैं, ‘अटॉर्नी जनरल इस मौके पर केंद्र सरकार के वकील के बजाय अपने पद के (वृहत्तर) दायित्व के हिसाब से काम कर रहे थे.’ यानी वे प्रशांत भूषण के मामले में देश का सर्वोच्च विधि अधिकारी होने की अपनी भूमिका का निर्वहन कर रहे थे जिसका काम सरकार या सुप्रीम कोर्ट को खरी सलाह देना है, भले ही यह उसे भाए या नहीं.

आज के राजनीतिक माहौल में यह सुनकर हैरानी हो सकती है, लेकिन ऐसे उदाहरण अपवाद के तौर पर ही सही, पर रहे हैं. मसलन देश के पहले अटॉर्नी जनरल एमसी सीतलवाड़ (1950-1963) न्यायिक प्रशासन से जुड़े मामलों में खुलकर जवाहरलाल नेहरू सरकार की आलोचना करते थे. इसके चलते यह नौबत आ गई थी कि तत्कालीन कानून मंत्री अशोक कुमार सेन ने कानून मंत्री और अटॉर्नी जनरल के पद के विलय तक का प्रस्ताव दे दिया था. लेकिन इसका भारी विरोध हुआ क्योंकि अटॉर्नी जनरल का अलग पद बनाने का उद्देश्य ही यही था कि सरकार को कानूनी मामलों में एक निष्पक्ष और अराजनीतिक सलाह मिले.
उधर, बीबीसी से बातचीत में संविधान संबंधी मामलों के जानकार और वरिष्ठ अधिवक्ता संग्राम सिंह का मानना है कि प्रशांत भूषण के मामले में केके वेणुगोपाल का रुख बार और बेंच के बीच का मामला है जिसमें कभी-कभी टकराव हो जाता है.’ असल में बार एसोसिएशन ऑफ इंडिया (बीएआई) अवमानना के इस मामले में प्रशांत भूषण के साथ खड़ी है. अपने बयान में उसका कहना है, ‘ऐसे समय में जब नागरिक बड़ी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, तो आलोचनाओं से नाराज़ होने की बजाय उनकी जगह बनाये रखने से उच्चतम न्यायालय का कद बढ़ेगा.’ केके वेणुगोपाल लंबे समय तक सुप्रीम कोर्ट के वकील रहे हैं. यही वजह है कि कुछ लोग प्रशांत भूषण के मामले में उनके रुख को बिरादरी के भाव से भी प्रेरित मानते हैं.
और यह बिरादरी के व्यवहार से भी झलक जाता है. 41 बड़े वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट को एक चिट्ठी लिखकर एक ‘बेहद सम्मानित’ अटॉर्नी जनरल की मौजूदगी के प्रति ‘पूरी तरह से असम्मान’ दिखाने को लेकर अपनी निराशा जताई है. इनमें राजू रामचंद्रन और डेरियस खंबाटा जैसे दिग्गज भी शामिल हैं जो एडिशनल सॉलिसिटर जनरल रह चुके हैं. असल में अदालत ने अटॉर्नी जनरल को बोलने से तो रोका ही, दिन भर की कार्रवाई के रिकॉर्ड में से उनका जिक्र तक गायब कर दिया गया. इन सभी वकीलों का यह भी कहना है कि प्रशांत भूषण के मामले पर एक बड़ी बेंच में विचार होना चाहिए.
इसके अलावा 450 से ज्यादा वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष को एक चिट्ठी लिखकर प्रशांत भूषण को लेकर शीर्ष अदालत के फैसले पर सवाल खड़े किए हैं. उनका कहना है कि सुप्रीम कोर्ट की महानता में किसी आलोचना से उतनी कमी नहीं आई जितनी प्रशांत भूषण की आलोचना पर दी गई उसकी प्रतिक्रिया से आई है.
इस सबका नतीजा यह है कि इस पूरे मामले में सुप्रीम कोर्ट खुद को बुरी तरह उलझाता दिख रहा है. आलम यह है कि माफी मांगने से साफ इनकार करते हुए प्रशांत भूषण लगातार कह रहे हैं कि वे कोई नरमी नहीं चाहते और अदालत उन्हें सख्त से सख्त सजा दे. लेकिन अदालत कह रही है कि वे सोचने के लिए थोड़ा और समय ले लें. इससे ऐसा लग रहा है कि शीर्ष अदालत के लिए न उगलते और न निगलते बनने वाली स्थिति हो गई है. जैसा कि एन वेंकटेशन कहते हैं, ‘प्रशांत भूषण, जिन्हें पिछले हफ्ते अपने दो ट्वीट्स के लिए अदालत की अवमानना का दोषी ठहराया जा चुका है, की सजा को लेकर सुप्रीम कोर्ट में जिस तरह से सुनवाई हुई उससे हैरानी होती है. क्या दोषी से ज्यादा अदालत सजा सुनाए जाने से बचना चाहती है?’
इसके चलते बहुत से लोग मानते हैं कि अब नतीजा जो भी आए, शीर्ष अदालत की प्रतिष्ठा पर एक और चोट पड़ना तय है. उनके मुताबिक अगर प्रशांत भूषण को सजा हुई तो सुप्रीम कोर्ट की आलोचना होगी और अगर नहीं हुई तो भी एक बड़े वर्ग में उसकी किरकिरी होना तय है क्योंकि वह इस चर्चित अधिवक्ता को पहले ही दोषी ठहरा चुका है.
अवमानना के इस मामले में प्रशांत भूषण को वकीलों का ही नहीं बल्कि पूर्व जजों का भी समर्थन मिल रहा है. कुछ दिन पहले उनके समर्थन में जो हस्ताक्षर अभियान चलाया गया उस पर सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के 13 पूर्व जजों ने भी दस्तखत किए थे. बीते महीने भी कई पूर्व जजों सहित 131 हस्तियों ने प्रशांत भूषण के समर्थन में बयान जारी किया था. पूर्व मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा ने भी हाल में कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में इस कदर जल्दी दिखाकर दूसरे पक्ष को उसके अधिकार से वंचित किया है.
इसके अलावा सिविल सोसायटी से जुड़े संगठनों ने भी प्रशांत भूषण को लेकर सुप्रीम कोर्ट के रुख की आलोचना की है. मसलन कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव ने अपने एक बयान में कहा है, ‘न्यायपालिका में जनता का भरोसा जनता के अधिकार सुनिश्चित करने से बनता है, अवमानना के कानून का इस्तेमाल करने से नहीं और वह भी ऐसे समय पर जब महामारी के चलते अदालत की गतिविधियां पहले से ही सीमित हैं और कई अहम मामलों की सुनवाई नहीं हो रही.’ दिलचस्प बात है कि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मदन बी लोकुर और दिल्ली और मद्रास हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एपी शाह इस संगठन के एक्जीक्यूटिव बोर्ड में शामिल हैं.
अकादमिक जगत की तरफ से भी सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर सवाल उठाए जा रहे हैं. द इंडियन एक्सप्रेस में अपने एक लेख में हैदराबाद स्थित नालसर यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ के वाइस चांसलर फैजान मुस्तफा कहते हैं, ‘11 जनवरी 2018 को सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चार सबसे वरिष्ठ जजों ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की. इसमें उन्होंने कहा कि शीर्ष न्यायपालिका की विश्वसनीयता दांव पर है. उन्होंने जोर देकर कहा कि स्वतंत्र न्यायपालिका एक सफल लोकतंत्र की कसौटी है और इसके बिना लोकतंत्र नहीं बच सकता. सुप्रीम कोर्ट ने तब खुद और तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा पर लगा इतना बड़ा आरोप सह लिया. अब वह एक वकील और सामाजिक कार्यकर्ता के ट्टीट की उपेक्षा नहीं कर पा रहा.’
इसके अलावा कई राजनेताओं ने भी सुप्रीम कोर्ट की आलोचना की है. शशि थरूर से लेकर सीताराम येचुरी और डी राजा तक अलग-अलग पार्टियों से ताल्लुक रखने वाले इन राजनेताओं का मानना है कि प्रशांत भूषण देश की सर्वोच्च अदालत के जमीर को जगाए रखने वाले शख्स हैं और उनके खिलाफ इस फैसले का अभिव्यक्ति और असहमति की आजादी पर बहुत बुरा असर होगा.
इसके अलावा इस प्रकरण के दौरान अवमानना को लेकर अतीत में सुप्रीम कोर्ट की उदारता के उदाहरण भी दिए जा रहे हैं. मसलन 1999 की वह घटना जब आउटलुक पत्रिका में छपा अरुंधति रॉय का एक लेख विवाद का कारण बन गया था. बुकर विजेता इस चर्चित लेखिका ने सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले की आलोचना की थी जिसमें नर्मदा पर बन रहे सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने पर लगी रोक हटा दी गई थी. इस मामले में भी अवमानना की मांग हुई. लेकिन अरुंधति रॉय के लेख पर नाखुशी और इससे असहमति जताने के बाद भी सुप्रीम कोर्ट ने उनके खिलाफ अवमानना की कार्रवाई शुरू करने से इनकार कर दिया. शीर्ष अदालत के तत्कालीन जस्टिस एसपी भरुचा का कहना था, ‘अदालत के कंधे इतने विशाल हैं कि ऐसी टिप्पणियों से उस पर फर्क नहीं पड़ता और फिर यह बात भी है कि इस मामले में हमारा ध्यान विस्थापितों के पुनर्वास और राहत के मुद्दे से भटकना नहीं चाहिए.’ सवाल उठ रहा है कि अब उन विशाल कंधों को क्या हो गया है.
यानी देखा जाए तो प्रशांत भूषण के मामले में हर तरफ से सुप्रीम कोर्ट पर एक तरह का नैतिक दबाव बन गया है. जानकारों के मुताबिक यही वजह है कि उसने प्रशांत भूषण को दोषी मान लेने के बाद भी उनकी सजा पर राय लेने के लिए अटॉर्नी जनरल को अदालत में बुलाया. यह अलग बात है कि इससे बात और उलझती दिख रही है. अब सबकी नजरें कल के दिन पर हैं जिसे शीर्ष अदालत ने प्रशांत भूषण को सजा सुनाने के लिए मुकर्रर किया है.(satyagrah)
- सलमान रावी
आम और ख़ास, सबकी रूचि कांग्रेस की आंतरिक बैठक पर बनी रही. वैसी ही उत्सुकता जैसी कि चर्चित सीरीज़, 'गेम ऑफ़ थ्रोन्स' को लेकर बनी रही.
कई सालों तक कांग्रेस को कवर करने वाले टेलीग्राफ़ अख़बार के वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार झा ने ट्वीट कर कहा कि कांग्रेस जैसी एक बड़ी पार्टी अपनी अहम आंतरिक बैठक 'वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग' के ज़रिये करती है और उसकी 'गुप्त कार्यवाही' की पल-पल की 'रनिंग कमेंटरी' लगभग हर मीडिया पर चल रही थी. वो लिखते हैं कि "ये दिवालियापन है.'
झा के ट्वीट में संकेत साफ़ हैं. वो ये कि आंतरिक बैठकों की पल पल की जानकारी आम होती रहे तो वो संगठन और उसे चलाने वालों के बारे में बहुत कुछ कहती है.
आख़िर ऐसा कैसे हुआ कि भारत के सबसे प्रभावशाली राजनीतिक दल का ये हाल हो गया जब ना वो कोई आत्ममंथन करने की स्थिति में है और ना ही वो कोई ठोस फ़ैसला लेने की हालत में ही नज़र आ रही है. एक लंबे अरसे से कांग्रेस, नेतृत्व के सवाल पर अंदरूनी खींचतान से रूबरू होती रही है.
जिस उद्देश्य से कांग्रेस का गठन किया गया था वो थी आज़ादी. आज़ादी की लड़ाई के दौरान कांग्रेस में अलग अलग विचारधारा के लोग साथ मिलकर काम कर रहे थे. इसमें वामपंथी, दक्षिणपंथियों के अलावा मध्यमार्गी भी शामिल थे.
राजनीतिक विश्लेषक शिवम विज ने बीबीसी से बात करते हुए कहा कि आज़ादी मिलते ही महात्मा गांधी का सुझाव था कि कांग्रेस ने अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया है इसलिए इसे अब एक सामाजिक संगठन के रूप में लोक कल्याण के काम करने चाहिए ना कि सत्ता के पीछे जाएँ.

विज कहते हैं कि जिस दल ने जवाहरलाल नेहरु, नरसिम्हा राव, लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गाँधी जैसे करिश्माई नेता दिए हों, आज नेतृत्व के अभाव से जूझ रहा है, ये अपने आप में बहुत ही गंभीर स्थिति है उस पार्टी के लिए.
लेकिन कांग्रेस पर नज़र रखने वालों को ये भी लगता है कि शुरू से ही गांधी परिवार का संगठन पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दबदबा बना ही रहा. जवाहरलाल नेहरु से जो कड़ी शुरू हुई उसमे इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी तक आते हैं.
लेकिन वर्ष 2019 में राहुल गांधी ने इस्तीफ़ा देते हुए किसी ग़ैर गांधी परिवार वाले नेता को पार्टी की कमान सौंपने की वकालत की थी जो बाद में उनकी बहन और पार्टी की महासचिव प्रियंका गांधी ने भी दोहराया.
मगर कांग्रेस की राजनीति को क़रीब से समझने वालों को लगता है कि गांधी परिवार से अलग अगर किसी भी नेता के हाथों में संगठन की कमान आती है तो वो उसके लिए काँटों वाला ताज ही साबित होगा क्योंकि इसके कई उदाहरण हैं.
कुल मिलाकर कांग्रेस के 13 अध्यक्ष रह चुके हैं जो गाँधी परिवार के नहीं थे. लेकिन संगठन चलाना इनके लिए तबतक चुनौती रही जबतक वो पद पर बने रहे.
मिसाल के तौर पर जीवटराम भगवान दास कृपलानी आज़ादी के बाद तब कांग्रेस के अध्यक्ष बने जब जवाहरलाल नेहरु प्रधानमंत्री बन गए थे.
बाद में कृपलानी, नेहरु के सबसे बड़े आलोचक बने जब उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि बेशक वो पार्टी के अध्यक्ष थे, मगर उनके अधिकार सीमित ही थे क्योकि संगठन के भी बड़े फैसलों में प्रधानमंत्री का दख़ल रहता था.
फिर वर्ष 1950 में नेहरु के ज़बरदस्त विरोध के बावजूद पुरुषोत्तम दस टंडन कांग्रेस के अध्यक्ष बने. कांग्रेस का एक धड़ा उन्हें रूढ़िवादी मानता था.
मगर सरदार वल्लभ भाई पटेल उनके ज़बरदस्त समर्थक थे. ये कहा जाता है नेहरु के इतने विरोध के बावजूद टंडन इसलिए जीत गए क्योंकि उनके साथ पटेल थे.
टंडन के अध्यक्ष बनने की वजह से जवाहरलाल नेहरु ने कांग्रेस कार्यकारी समिति से इस्तीफ़ा भी दे दिया था.
बाद में जब सरदार वल्लभ भाई पटेल का निधन हुआ तो खुद टंडन ने भी इस्तीफ़ा दे दिया और जवाहरलाल नेहरु वर्ष 1951 में कांग्रेस के अध्यक्ष भी बन गए और साथ साथ प्रधानमंत्री भी बने रहे. यानी संगठन और सत्ता, दोनों उनके पास आ गए. वो 1954 तक इस पद पर बने रहे.
फिर यू एन ढेबर चार सालों तक अध्यक्ष रहे लेकिन उन्हें नेहरु का ही करीबी माना जाता रहा. वो चार सालों तक इसी पद पर बने रहे.
लेकिन इसी बीच इंदिरा गाँधी को 1959 में इस पद के लिए चुन लिया गया और कांग्रेस के पुराने लोग बताते हैं कि खुद जवाहरलाल नेहरु उनका मार्गदर्शन करते थे.
फिर भी अपना कार्यकाल पूरा होने के बाद भी इंदिरा गांधी ने फिर से अध्यक्ष का चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया था.
वरिष्ठ पत्रकार सागरिका घोष ने इंदिरा गांधी पर किताब लिखी है. बीबीसी से बात करते हुए वो कहती हैं इसमें कोई शक नहीं कि राहुल गांधी को चुनाव हारने वाले नेता के रूप में देखा जाता है. वो मानती हैं कि कमज़ोर कांग्रेस की वजह से ही विपक्ष भी कमज़ोर है.
उनका कहना था,"कांग्रेस ने कई करिश्माई और कद्दावर नेता देखे हैं जिनकी मास अपील थी. नौबत यहाँ तक आ गई है कि खुद राहुल गाँधी अमेठी का चुनाव हार गए जो सीट गांधी परिवार का गढ़ मानी जाती थी. हालांकि राहुल की तुलना में सोनिया गाँधी ने वर्ष 2004 और वर्ष 2009 का चुनाव जीतकर दिखा दिया कि वो ज्यादा परिपक्व नेता हैं."
इंदिरा गाँधी के अध्यक्ष पद से हटने के बाद 1960 में नीलम संजीव रेड्डी कांग्रेस के सबसे कम उम्र के अध्यक्ष बने और वो तीन साल तक इस पद पर भी रहे.
लेकिन जानकार बताते हैं कि 1964 में चुने गए के कामराज का कार्यकाल सबसे चुनौती भरा रहा क्योंकि उन्हीं के कार्यकाल में जवाहरलाल नेहरु का निधन हुआ और उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री को प्रधानमंत्री बनानने के लिए सभी नेताओं को विश्वास में लिया.
कामराज के कार्यकाल में लाल बहादुर शास्त्री का भी निधन हुआ लेकिन मोरारजी देसाई के वरिष्ठ होने के बावजूद इंदिरा गांधी के नाम पर सहमति बनी.
वर्ष 1969 में जब एस निजलिंगप्पा और इंदिरा गांधी के बीच विचारों की लड़ाई शुरू हो गयी. स्वतंत्र विश्लेषक कहते हैं कि इंदिरा गांधी भी चाहती थीं कि अधिकार उनतक ही केंद्रित रहे. इस लिए कांग्रेस का आख़िरकार बँटवारा हो गया और इंदिरा गांधी के गुट ने जगजीवन राम को अध्यक्ष चुना.
शिवम विज कहते हैं कि जगजीवन राम के बाद जो भी कांग्रेस के अध्यक्ष बने, यानी शंकर दयाल शर्मा और देवकांत बरुआ, वो इन्दिरा गांधी के करीबी ही थे. बरुआ ने तो वो मशहूर नारा तक दे डाला था जब उन्होंने कहा था : "इंदिरा इज़ इंडिया एंड इंडिया इज़ इंदिरा".
हालांकि आपातकाल के दौरान मिली हार के बाद इंदिरा गांधी ने अपने अंतिम वक़्त तक पार्टी की कमान खुद संभाल रखी थी.
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गाँधी प्रधानमंत्री भी थे और पार्टी के अध्यक्ष भी. लेकिन 1989 के आम चुनावों में कांग्रेस की हार के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने जबकि राजीव गांधी अपनी हत्या तक पार्टी के अध्यक्ष बने रहे.
राजीव गांधी के बाद सोनिया गांधी ख़ुद भी राजनीति में आना नहीं चाहती थीं और ना ही वो चाहती थीं कि उनके परिवार से कोई भी राजनीति में आये.
वर्ष 1992 में पार्टी की कमान पीवी नरसिम्हा राव के हाथों में आई. ये पहला मौक़ा था जब न संगठन और ना ही सरकार में गांधी परिवार का कोई सदस्य मौजूद था.
लेकिन पार्टी में नरसिम्हा राव के विरोधियों ने सोनिया गांधी को राजनीति में आने को मजबूर कर किया. लेकिन तबतक सीताराम केसरी पार्टी के अध्यक्ष बन चुके थे.
संयोग था कि केसरी के कार्यकाल में सिर्फ 6 महीनों में कांग्रेस की दो सरकारें गिर गयीं और इसका ठीकरा सीताराम केसरी के नेतृत्व पर फोड़ा गया.
वर्ष 1998 में सोनिया गांधी ने अध्यक्ष पद की कमान संभाली और वो सबसे लंबे काल तक अध्यक्ष रहीं.
राहुल गांधी 2017 में अध्यक्ष बने और तीन राज्यों में कांग्रेस की जीत हुई. फिर भी 2019 के आम चुनावों में हार के बाद उन्होंने पद से हटने की पेशकश की और गांधी परिवार के अलावा किसी अन्य नेता के हाथ में संगठन की कमान सौंपने की सिफ़ारिश की.
आलोक मेहता कई समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के सम्पादक रह चुके हैं. बीबीसी के साथ बातचीत के दौरान वो कहते हैं कि अगर गांधी परिवार के अलावा किसी नेता को संगठन की कमान सौंपी भी जाती है तो ये अटकलें भी जारी रहेंगी कि उस नेता की बागडोर गांधी परिवार के हाथों में ही होगी.
उनका कहना है कि जो भी इस पद पर आयेगा इसकी पूरी संभावना है कि वो गाँधी परिवार की पसंद का नेता ही होगा.
हालांकि सागरिका घोष कहती हैं कि अगर ऐसा होता है तो ये भी कांग्रेस की बड़ी भूल होगी क्योंकि भारतीय जनता पार्टी के पास नरेंद्र मोदी जैसा चेहरा है. अगर कांग्रेस दोबारा अपनी पुरानी साख हासिल करना चाहती है तो उसे ऐसे चेहरे आगे करने होंगे जो जनता में लोकप्रिय हैं.
घोष के अनुसार कांग्रेस का मौजूदा संगठन विपक्ष की भूमिका भी सही तौर पर निभा नहीं पा रहा है जबकि कई ऐसे मुद्दे हैं जिनको लेकर कांग्रेस संघर्ष कर सकती थी.
वो कहती हैं,"संघर्ष ट्विटर की बजाय सड़कों पर होना चाहिए और वो भी जन सरोकार के मुद्दों को लेकर. मुद्दे विपक्ष को थाली में परोसे हुए मिले हैं. चाहे वो गिरती हुई अर्थव्यवस्था हो, बेरोज़गारी हो या फिर महामारी पर ठोस क़दम नहीं उठा पाने की बात हो. विपक्ष ने कुछ नहीं किया."
उनका मानना है कि कांग्रेस को चाहिए कि नयी पौध को आगे करे और भारतीय जनता पार्टी की तरह पुराने लोगों के लिए मार्ग दर्शक मंडल बनाए.(bbc)
प्रकाश दुबे
चुनाव आयोग की छटपटाहट से छूटकर अशोक लवासा एशियन विकास बैंक गए। एडीबी से लौटने वाले दिवाकर गुप्ता की अगवानी का इंतजाम रिजर्व बैंक आफ इंडिया के काबिल गवर्नर शक्तिकांत दास ने पहले से कर रखा है। कोरोना महामारी के कारण बड़े बड़े परेशान हैं। कर्ज चुकता नहीं कर पाने वाले इन बड़ों की परेशानी का समाधान तलाश करने के लिए रिजर्व बैंक ने महारथी विशेषज्ञों की समिति बनाई है। गुप्ता इस विशेषज्ञ समिति में गुप्ता बहैसियत विशेषज्ञ शामिल होंगे। जिन दिनों शक्ति कांत दास देश के वित्त सचिव थे, उन दिनों दिवाकर स्टेट बैंक से एडीबी में भेजे गए थे। कुंदापुर वामन कामथ समिति के अध्यक्ष हैं। अजी, कामथ को नहीं जानते? वही, कई शून्य वाली योजना का मखौल उडऩे पर, जिन्हें निर्मला सीतारामन की जगह वित्त मंत्री बनाए जाने की चर्चा गरम थी। के वी कामथ को ब्राजील, रूस, भारत, चीन,दक्षिण अफ्रीका के संगठन ब्रिक्स में जि़म्मेदारी सौंपी गई थी। अम्बानी परिवार के मित्र कामथ के कामकाज से प्रधानमंत्री परिचित भी हैं और प्रभावित भी।
हरियाणा में वक्रतुंड
ताकतवर अमेरिका के डोनाल्ड ट्रंप जैसे राष्ट्रपति ने गलबहिंयां यार नरेन्द्र मोदी से दो पहिया वाहनों के आयात पर शुल्क कम करने की सिफारिश की। दुनिया की संभवत: सबसे महंगी हार्ले डेविडसन को भारत में अधिक मुनाफा दिलाना था। खड़ी बाइक पर विराजमान अतिविशिष्ट की छवि सार्वजनिक होने पर बखेड़ा हो चुका है। तस्वीर पर फब्ती कसने वाले वकील प्रशांत भूषण कटघरे में खड़े हैं। पौराणिक अप्सरा मेनका विश्वामित्र को छोडक़र चल दी थी। इस कंपनी ने भारत छोडऩे का मन बना लिया है। कारखाने पर ताला लगने पर हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल को आत्मनिर्भरता का अवसर मिलेगा। प्रचार में दम लगाने के बावजूद कोरोना काल में रोजाना एक बाइक नहीं बिकी। दम भाई किसके? दम लगाई लेकिन अब...।
विघ्नहर्ता और मूषक
तेज़तर्रार लोकदलवादी सत्यपाल मलिक जम्मू-कश्मीर को भारत में मिलाने के बाद जिला स्तर के गोवा राज्य फेंके गए। साल भर पूरा करने से पहले बादलों के घर मेघालय उड़े। केन्द्र शासित जम्मू कश्मीर के उपराज्यपाल बने नौकरशाह गिरीश चन्द्र मुर्मू भारत के नियंत्रक एवं महालेखा निरीक्षक बनाए गए हैं। अपनी अपनी किस्मत। मलिक प्रधानमंत्री के चुनावी राज्य के राजनीतिक हैं। मुर्मू उनके गृहराज्य के आइएएस। सीएजी देश के हिसाब किताब की जांच पड़ताल का सबसे बड़ा अधिकारी है। मूर्मू के कामों की झलक पाकर उनकी जिम्मेदारी का अनुमान लगाना आसान होगा। सुपुर्द चालू साल के अंदर सीएजी को कई बड़ी योजना के खर्च की आडिट करनी है। मसलन- प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना, प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना, प्रधानमंत्री सहज बिजली योजना आदि आदि। और हां, कोरोना काल में खरीदी में भ्रष्टाचार की शिकायतों की जांच भी होनी है।
स्वराज द्वीप में श्रीगणेश
नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद सेना ने 15 अगस्त 1947 से पहले ही अंडमान निकोबार द्वीप समूह को स्वतंत्र कर स्वराज द्वीप नाम करण किया। स्वराज नाम सरकारी कागज़ात में दर्ज कराने में आज़ाद भारत को सत्तर साल लगे।स्वतंत्रता दिवस से पांच दिन पहले प्रधानमंत्री ने दिल्ली में बटन दबाकर चेन्नई से अंडमान को जोडऩे वाली संचार योजना का श्री गणेश किया था। इस उपलब्धि की स्वतंत्रता दिवस पर जानकारी दी। लक्षद्वीप भी इसी तकनीक से जोडऩे का ऐलान किया।
परियोजना के उद्घाटन से लेकर लाल किले का कंगूरा चढऩे तक किसी ने प्रधानमंत्री को द्वीप समूह में इंटरनेट की सही स्थिति की जानकारी नहीं दी। प्रधानमंत्री का संबोधन सुनने के लिए द्वीपवासी दूरदर्शन और आन लाइन मीडिया टटोलते रहे। सुस्त इंटरनेट ने तेज गति से चलने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। विकास की मीठी बातें सुनने वाले काला पानी के निवासियों ने संचार मंत्री और भारत संचार निगम से गुहार लगाई- इंटरनेट की गति बढ़ाने वाला बटन दबाना भूल गए क्या?
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आयुष मंत्रालय के सचिव राजेश कोटेचा ने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है। द्रमुक की नेता कनिमोझी ने मांग की है कि सरकार उन्हें तुरंत मुअत्तिल करे, क्योंकि उन्होंने कहा था कि जो उनका भाषण हिंदी में नहीं सुनना चाहे, वह बाहर चला जाए। वे देश के आयुर्वेदिक वैद्यों और प्राकृतिक चिकित्सकों को संबोधित कर रहे थे। इस सरकारी कार्यक्रम में विभिन्न राज्यों के 300 लोग भाग ले रहे थे। उनमें 40 तमिलनाडु से थे।
जाहिर है कि तमिलनाडु में हिंदी-विरोधी आंदोलन इतने लंबे अर्से से चला आ रहा है कि तमिल लोग दूसरे प्रांतों के लोगों के मुकाबले हिंदी कम समझते हैं। यदि वे समझते हैं तो भी वे नहीं समझने का दिखावा करते हैं। ऐसे में क्या करना चाहिए ? कोटेचा को चाहिए था कि वे वहां किसी अनुवादक को अपने पास बिठा लेते। वह तमिल में अनुवाद करता चलता, जैसा कि संसद में होता है। दूसरा रास्ता यह था कि वे संक्षेप में अपनी बात अंग्रेजी में भी कह देते लेकिन उनका यह कहना कि जो उनका हिंदी भाषण नहीं सुनना चाहे, वह बाहर चला जाए, उचित नहीं है। यह सरकारी नीति के तो विरुद्ध है ही, मानवीय दृष्टि से भी यह ठीक नहीं है। महात्मा गांधी और डॉ. राममनोहर लोहिया अंग्रेजी हटाओ आंदोलन के प्रणेता थे लेकिन गांधीजी और लोहियाजी क्रमश: ‘यंग इंडिया’ और ‘मेनकांइड’ पत्रिका अंग्रेजी में निकालते थे।
उनके बाद इस आंदोलन को देश में मैंने चलाया लेकिन मैं जवाहरलाल नेहरु विवि और दिल्ली में विवि में जब व्याख्यान देता था तो मेरे कई विदेशी और तमिल छात्रों के लिए मुझे अंग्रेजी ही नहीं, रुसी और फारसी भाषा में भी बोलना पड़ता था। हमें अंग्रेजी भाषा का नहीं, उसके वर्चस्व का विरोध करना है। राजेश कोटेचा का हिंदी में बोलना इसलिए ठीक मालूम पड़ता है कि देश के ज्यादातर वैद्य हिंदी और संस्कृत भाषा समझते हैं लेकिन तमिलभाषियों के प्रति उनका रवैया थोड़ा व्यावहारिक होता तो बेहतर रहता। उनका यह कहना भी सही हो सकता है कि कुछ हुड़दंगियों ने फिजूल ही माहौल बिगाडऩे का काम किया लेकिन सरकारी अफसरों से यह उम्मीद की जाती है कि वे अपनी मर्यादा का ध्यान रखें। यों भी कनिमोझी और तमिल वैद्यों को यह तो पता होगा कि कोटेचा हिंदीभाषी नहीं हैं। उन्हीं की तरह वे अहिंदीभाषी गुजराती हैं। उनको मुअत्तिल करने की मांग बिल्कुल बेतुकी है। यदि उनकी इस मांग को मान लिया जाए तो देश में पता नहीं किस-किस को मुअत्तिल होना पड़ेगा।
कोटेचा ने कहा था कि मैं अंग्रेजी बढिय़ा नहीं बोल पाता हूं, इसलिए मैं हिंदी में बोलूंगा। जब तक देश में अंग्रेजी की गुलामी जारी रहेगी, मु_ीभर भद्रलोक भारतीय भाषा-भाषियों को इसी तरह तंग करते रहेंगे। कनिमोझी जैसी महिला नेताओं को चाहिए कि वे रामास्वामी नाइकर, अन्नादुराई और करुणानिधि से थोड़ा आगे का रास्ता पकड़ें। तमिल को जरुर आगे बढ़ाएं लेकिन अंग्रेजी के मायामोह से मुक्त हो जाएं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
- ललित मौर्य
वैज्ञानिकों के अनुसार बिल्डिंग्स और पब्लिक ट्रांसपोर्ट में जहां आद्रता 40 फीसद से कम होती है, वहां कोरोनावायरस आसानी से फैल सकता है। यह चौंका देने वाली जानकारी भारत और जर्मनी के वैज्ञानिकों द्वारा संयुक्त रूप से किए एक नए अध्ययन में सामने आई है। इसलिए वैज्ञानिकों ने अस्पताल, स्कूलों, पब्लिक ट्रांसपोर्ट और कार्यालयों में जहां ज्यादा लोग हो वहां आद्रता का स्तर कम से कम 40 फीसदी बनाए रखने की सलाह दी है।
यह शोध जर्मनी के लीबनिज इंस्टीट्यूट फॉर ट्रोपोस्फेरिक रिसर्च और नई दिल्ली में सीएसआईआर नेशनल फिजिकल लेबोरेटरी के शोधकर्ताओं द्वारा संयुक्त रूप से किया गया है, जोकि जर्नल एयरोसोल एंड एयर क्वॉलिटी रिसर्च में छपा है। वैज्ञानिकों का मानना है पांच माइक्रोमीटर की छोटी बूंदें हवा में लगभग नौ मिनट तक तैर सकती हैं। ऐसे में जिन स्थानों पर आद्रता का स्तर 40 से 60 फीसदी के बीच होता है, वहां नमी भी ज्यादा होती है, जिसकी वजह से वायरस नाक में मौजूद श्लेष्मा झिल्ली से आगे नहीं जा पाता। ऐसे में वायरस का प्रसार भी रुक जाता है। ऐसे में सार्वजनिक स्थानों पर जहां अधिक संख्या में लोगो हो वहां आद्रता के निर्धारित स्तर को बनाए रखना अत्यंत जरुरी है।
अध्ययन में क्या कुछ आया सामने
इस शोध से जुड़े शोधकर्ता अजीत अहलावत ने बताया कि एयरोसोल के अध्ययन में यह हवा में आद्रता की मात्रा मायने रखती है। उनके अनुसार आद्रता (नमी) बूंदों में मौजूद वायरस और सूक्ष्मजीवों के व्यवहार पर असर डालती है। सतह पर मौजूद वायरस का बने रहना और खत्म होना, आद्रता से प्रभावित होता है। इसके साथ ही आद्रता शुष्क हवा में वायरस के प्रसार को भी प्रभावित करती है। अहलावत ने समझाया, "अगर घर के अंदर हवा में मौजूद नमी 40 फीसदी से कम है, तो संक्रमित लोगों द्वारा उत्सर्जित कण कम पानी सोखते हैं, हल्के रहते हैं, और ज्यादा देर तक हवा में मौजूद रहते हैं। जिससे उनके स्वस्थ लोगों में पहुंचने की संभावना भी अधिक होती है।"
इसके साथ ही हवा के शुष्क होने पर नाक में मौजूद श्लेष्मा झिल्ली आसानी से वायरस को अवशोषित कर लेती है और शरीर में जाने देती है। वैज्ञानिकों के अनुसार सर्दियों का मौसम आने वाला है ऐसे में यह शोध मायने रखता है क्योंकि सर्दी से बचने के लिए लोग गर्म कमरों में रहेंगें जहां वातावरण में नमी कम होगी। इसी तरह ठन्डे इलाकों में भी घर के अंदर हवा बहुत शुष्क होती है, जिससे इस वायरस को फैलने का मौका मिल जाता है।
जबकि इसके विपरीत यदि नमी अधिक होती है तो बूंदे बहुत तेजी से बढ़ती है और जल्द जमीन पर गिर जाती हैं। जिससे इनके स्वस्थ लोगों की सांस में पहुंचने का खतरा कम हो जाता है।
एयर कंडीशन का बहुत ज्यादा उपयोग भी है हानिकारक
इस शोध से जुड़े एक अन्य वैज्ञानिक सुमित कुमार मिश्रा जोकि नई दिल्ली स्थित सीएसआईआर नेशनल फिजिकल लेबोरेटरी से सम्बन्ध रखते हैं ने बताया कि आद्रता के इस स्तर को बनाए रखने से न केवल कोविड-19 बल्कि कई अन्य वायरल बीमारियों जैसे मौसमी फ्लू से भी बचा जा सकता है। ऐसे में भविष्य में कमरे के अंदर तापमान से जुड़े दिशानिर्देशों में इसे भी शामिल किया जाना चाहिए।
शोधकर्ताओं ने चेताया है कि जहां एक तरफ ठन्डे क्षेत्रों में आद्रता के स्तर को बनाए रखना जरुरी है। वहीं गर्म इलाकों में इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए की एयर कंडीशनिंग की मदद से कमरों को बहुत ज्यादा ठंडा न किया जाए। क्योंकि जब हवा बहुत ज्यादा सर्द हो जाती है तो वो हवा और उसमें मौजूद कणों को शुष्क बना देती है। जिससे यह शुष्क कण बहुत देर तक हवा में मौजूद रहते हैं।
दुनिया भर में 2 करोड़ से ज्यादा लोग इससे हो चुके हैं पीड़ित
दुनिया भर में यह वायरस 2 करोड़ से भी ज्यादा लोगों को अपनी जद में ले चुका है, जबकि इसकी वजह से अब तक 797,601 लोगों की जान जा चुकी है। भारत में अब तक कोरोना के 29,05,823 मामले सामने आ चुके हैं। ऐसे में इससे बचने के लिए सामाजिक दूरी बनाए रखना, मास्क का उपयोग आदि उपायों को अपनाने की पहले ही सलाह दी जा रही है। यह नया शोध बिल्डिंग्स और पब्लिक ट्रांसपोर्ट में कम से कम 40 फीसदी की नमी को बनाए रखने की सलाह देता है जिससे बंद जगहों पर जहां मास्क का उपयोग सीमित है वहां भी इस वायरस के प्रसार को रोका जा सके।(downtoearth)
- मृणाल पाण्डे
इक्कीसवीं सदी का दूसरा दशक अब समाप्ति पर है। विश्वव्यापी महामारी और तेजी से बदलते पर्यावरण ने दुनिया को एक बार फिर युद्ध और विनाश के कगार पर ला खड़ा किया है। जिधर तक निगाह जाती है, अ-शांति की नई भूमिकाएं बन रही हैं। रंगभेद, नस्ल वैमनस्य, धार्मिक कट्टरपंथिता और दुनिया का इकलौता आर्थिक ध्रुव बनने की अश्लील उतावली उफान पर है। जाहिर है कि अपने तमाम तकनीकी विकास, राजनीतिक, आर्थिक और दार्शनिक चिंतन के बावजूद इक्कीसवीं सदी भी युद्ध, बेपनाह पैसा कमाई की हवस और कलह को बेमतलब बनाने वाली मानसिकता नहीं रच पाई है। दहलीज पर खड़े अमेरिकी चुनावों ने कई गड़े मुर्दे उखाड़े हैं जिनमें से गत चुनावों में ट्रंप द्वारा नई तकनीकी और पुतिन की मदद से प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ रचे गलतबयानी के चक्रव्यूह बनाना भी शामिल है। उसी नई तकनीकी पर फेसबुक और वाट्सएप की मार्फत हमारे लोकतंत्र में भी राजनीतिक दलों के दबाव से प्रतिबंधित दुर्भावनामय टिप्पणियों पर रोक लगाने-नलगाने को लेकर नागरिकों की निजता सुरक्षा पर तीखे सवाल खड़े किए जा रहे हैं। सरकार एक विदेशी अखबार के आरोप को गलत कह रही है कि फेसबुक की भारतीय प्रमुख ने चुनावों के दौरान कुछ विद्वेषी टिप्पणियों को न हटाने के आदेश दिए थे क्योंकि उनका खुद राजनीतिक दल विशेष से पारिवारिक धरातल पर जुड़ाव था। खुद कंपनी की तरफ से भरोसेमंद जवाब जब आएगा, तब आएगा लेकिन यह अनायास नहीं कि अमेरिका में भी उसके कामकाज की महीन जांच हो रही है। इस वाकये ने सभी उपभोक्ताओं को याद दिलाया है कि आज नहीं तो कल, उनके निजी डेटा का उनकी जानकारी बिना व्यावसायिक इस्तेमाल होना लगभग तय है। तमाम दैनिक व्यस्तताओं, पुरानी कट्टरपंथिता और नई तकनीकी मजबूरियों के उभार के बीच लोकतंत्रों के मीडिया और राजनीति में आज मनुष्यकी निजी आजादियों के लिए कोई गहरा सम्मान या सुरक्षित जगह वैसे भी इन दो दशकों में कहां बची है?
यह साल जाते-जाते बताता है कि जो जीवनशैली और बाहर से आयातित सूचना प्रसार तकनीकी पिछले बीस सालों में हमने बांहें पसार कर अपनाई है, उनसे चुनावी राजनीति और गंदली और अपारदर्शी हो जाने का भारी खतरा है। और दुनिया के हर लोकतंत्र में कोविड के पैर पसारने के बाद से मीडिया द्वारा मतदाता को सभ्य और समझदार बनाने के बजाय सभ्यता की बुनियाद: कला, दार्शनिक विचार और भाषा पर खुले संवाद के लिए जगह या अभिव्यक्ति की आजादी तेजी से कमजोर की जा रही है। कोविड के लॉकडाउन ने मिलेनियल पीढ़ी को भी जिसकी खुद से सोचने की क्षमता लगातार कम होती गई थी, जीवन में पहली बार असली अकेलेपन से परिचित करा दिया है। मानसिक संतुलन खो कर अचकचाए बुजुर्ग ही नहीं, बीसेक बरस के युवा भी पा रहे हैं कि बेदिमाग अकेलेपन को ओटीटी की धाराप्रवाह फिल्में देख कर या ऑनलाइन ऑर्डर की गई चीजों से नहीं भरा जा सकता। नई सदी के सारे वैभव और उदासी को एक साथ अनुभव करने वाले वे अमीर और प्रोफेशनल लोग भी खुद को प्रेम और विश्वास से रहित पा रहे हैं। सड़क से स्कूली बच्चे तक- सब कहीं अनिद्रा जनित बीमारियां, मानसिक अवसाद, और आत्महत्या के विचार बढ़ रहे हैं। इसकी कई विचलित करने वाली खबरें इधर हर छोटे-बड़े शहर से लगातार मिल रही हैं। कभी चहकता रहा बॉलीवुड भी इसका अपवाद नहीं।
जब मनुष्य उदासी और अकेलेपन के बीच ईमानदारी से अपने जिये जीवन पर सोचता है, तो उस समय साहित्य और कलाओं का महत्व समझ आता है। अफसोस यह कि हमारी पिछले दशकों की राजनीति, पारिवारिक जीवनशैली, शिक्षा पद्धति और भाषाई सिकुड़न ने अधिकतर भारतीयों के लिए इनपर आजादी के शुरुआती दिनों की तरह कई पीढ़ियों, कलाकारों और राजनेताओं के एकजुट होकर खुलेपन से विचार साझी करना असंभव बना दिया है। बड़े लोग मीडिया पर शिक्षा के माध्यम से लेकर किसी फिल्मी सितारे की आकस्मिक मौत तक पर विचार करने बैठें, तो राजनीति पर काबिज धरतीपुत्रों के बीच तुरंत क्षेत्रीय तलवारें म्यानों से निकलने लगती हैं। और देश का ध्यान लोकतंत्र, कला या साहित्य की दशा-दिशा के बजाय क्षेत्रीय अपने-परायेपन पर भटक जाता है। हिंदी दक्षिण के लिए पराई है। सुशांत सिंह राजपूत या रिया चक्रवर्ती फिल्म स्टारों से पहले बिहारी-बंगाली हैं। किसी सूबे में थानेदारों की जातिकी तालिका बनाई जाने का आदेश सुनाई देता है तो किसी प्रदेश के मुख्यमंत्री कहते हैं कि उनके राज्य में आगे से सरकारी नौकरियां केवल प्रदेश के लोगों के वास्ते ही आरक्षित होंगी। ऐसे माहौल में व्यास, कबीर, तुलसी, अष्टछाप कवियों, दक्षिणी अलावार संतों, जायसी, खुसरो, गालिब, मीर की रचनाएं जो सदियों से सारे भारत में सबके सुख-दुख की भाषा बनी हुई हैं, को पढ़ने-पढ़ाने की बात करने वाला पागल मानलिया जाए तो अचंभा क्या?
आज के माहौल में जब हम सुनते हैं कि कई भाषाओं के उदारवादी साहित्य को शिक्षा और सरकारी सोच से बुरी तरह बेदखल किया जा रहा है, तो यह लेखिका एक तरह से तो सुरक्षित अनुभव करती है कि अब हम अपनी कला की दुनिया में निरापद होकर रह सकते हैं। पर पहले केवल अंत:करण में जगमगाते इस अद्भुत घर में आज सेंधमारी या उपभोक्तावाद की घुसपैठ की आशंका बनचली है। उधर, राज-समाज से जुड़े एक पत्रकार के दिल में यह सवाल भी रह-रहकर सर उठाता है कि कोविड का उफान उतरने पर स्थानीयता में किसी तरह की गहरी जड़ों से रहित हमारी नई पीढ़ी में नई ग्लोबल व्यवस्था में राजनीति से सामाजिक जीवन तक में सही भागीदारी करने लायक कितनी योग्यता होगी? क्या भारत को हर कीमत पर ग्लोबल ताकत बनाने का मतलब इतना ही बचा है कि हम सिर्फ आर्थिक, औद्योगिक और व्यापारिक तरक्की को ही राष्ट्र की तरक्की मानलें? हाशिये का समाज बेदखल होता रहे, गांव, वन, पहाड़- सब विकास के सुरसा मुख में समाते चले जाएं, निजीकरण के तहत आते जा रहे आरोग्य और शिक्षा केवल उनको मिले जो इसकी वाजिब कीमत दे सकें, तो कुछ सालों बाद हम कहां होंगे? प्लास्टिक के पेड़, नायलॉन के फूल, रबर की नकली चिड़ियां ही नहीं, ट्विटर, फेसबुक की भाषा और कथनियां, टीवी की बेबुनियाद खरीदी बेची जा रही बहसें और सीरियल- सभी हमारे संभावित मानसिक पतन का जीता-जागता प्रमाण बन चले हैं। अचरज नहीं कि महामारी के बीच भी आभासी मनोरंजन व्यवसाय इकलौता उद्योग है जो घर कैद भोगते परिवारों के बीच खूब फलता- फूलता रहा है। और यह कतई अकारण नहीं कि सरकारें जनभावना के सबसे उच्छृंखल पक्ष से जुड़े इस क्षेत्र का अब जमकर राजनीतिक इस्तेमाल कर रही हैं। 90 के दशक मंदिर निर्माण का माहौल रचने में राम और कृष्ण की जिन शालीन छवियों को धर्म ग्रंथों से निकाल कर छोटे पर्दे पर लाया गया था, उनकी भारी भूमिका रही। इस नई बुद्धिहीनता के बीच पुनरुत्थानवाद से अंधा लगाव फिर लगातार बढ़ाया जा रहा है। ऐनलॉक डाउन के बीच भी भूमिपूजन से पहले इन छवियों को बार-बार दिखाया गया। क्योंकि पुनरुत्थानवाद का डायनामो है देश की जनता को हिंदुत्व के खंभों: सतयुग, त्रेता या द्वापर की पुरानी दंतकथाओं, अंधविश्वासों के बीच लौटाना जब समाज जड़, स्त्री-शूद्र विरोधी और गो-ब्राह्मण पूजक था। इसीलिए इधर राजनीति में नेता और ग्लैमर जगत से खिलाड़ी तथा अभिनेता 90 के दशक की ही तरह दोबारा गले मिल रहे हैं। जन भावना के साथ हास्यास्पद होता यह खिलवाड़ दरअसल बहुत खतरनाक है। यह जनता में धार्मिक विवेक या वसुधैव कुटुंबकम के विचार का पुनर्जागरण नहीं, धार्मिक- राजनीतिक अज्ञान और नाटकीय मरीचिका का पुनरुत्थान है।
वसुधैव कुटुंबकम् का सही अर्थ इतिहास के मुर्दों और खंडहरों की तरफ देखना नहीं, जीवन की तरफ, समन्वय की तरफ मुड़ना होता है। भारत का इतिहास बौद्ध और बौद्ध पूर्व समय से लाखों हमलावरों, आतताइयों, युद्धों और रक्तपात से सना हुआ है। फिर भी अपने साहित्य और संस्कृति-लेखन की मदद से यह देश गांधी के आने तक कई-कई संस्कृतियों के मेल से बनी अहिंसा, शांति और आध्यात्मिक बोध की अपनी जड़ें हरी रख पाया। उनको अब चुनावी राजनीति की दुधारी तलवार और नई तकनीकी की मदद से काटना तकलीफदेह तो है ही, इस समय, जब सारी मनुष्य जाति खुद को और अपने पर्यावरण को बचाने के लिए एक बड़ा युद्ध लड़रही है, यह एक आत्मघाती कदम भी साबित होगा।(navjivan)
कैसे किया जाता हैै, VPN का इस्तेमाल
अगर कोई देश किसी वेबसाइट को ब्लॉक कर देता है तो तमाम इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर उस वेबसाइट को एक्सेस नहीं देते हैं। सामान्य तौर पर अगर आप कुछ वेबसाइटों का यूआरएल ओपन करेंगे, तो उसे ओपन नहीं कर पाएंगे। ऐसी स्थिति में लोग वीपीएन का इस्तेमाल करते हैं। इंटरनेट इस्तेमाल करते समय आपने कई बार वीपीएन के बारे में सुना होगा। सीधे-सीधे बोलें, तो वीपीएन मतलब वर्चुअल प्राइवेट नेटवर्क और इसका इस्तेमाल उन वेबसाइट्स को ओपन करने में किया जाता है जो इंटरनेट पर ब्लॉक की गयी होती हैं।
आइये डिटेल जानते हैं-
वीपीएन के बारे में अगर गहराई से जानकारी ली जाए तो इसका इस्तेमाल तमाम बड़ी कंपनियां और यहां तक कि कई देश अपनी वेबसाइट के डाटा को सिक्योर रखने के लिए इस्तेमाल करते हैं, ताकि इंटरनेट पर उनकी महत्वपूर्ण सूचनाएं चोरी न की जा सकें। आपके मन में एक प्रश्न उठ सकता है कि अगर यह साइट्स इतनी गुप्त होती हैं तो फिर जरूरत पड़ने पर इनके ओनर इसको कैसे एक्सेस करते हैं, तो इसका जवाब यही है कि इसके लिए एक खास आईपी और यूजर नेम और पासवर्ड की सहायता से इसे एक्सेस किया जा सकता है। वर्तमान में कई कंपनियां फ्री में भी वीपीएन सर्विसेज प्रोवाइड करती हैं। हालांकि अगर आपको रेगुलर और स्मूथ वीपीएन सर्विस चाहिए, तो कई कंपनियां इसके लिए चार्ज करती हैं पेड वीपीएन का यह फायदा होता है कि आपको ऐड फ्री एक्सपीरियंस मिलता है, साथ ही फ्री वीपीएन की तुलना में यहां से फ्री होता है ऐड फ्री! सॉफ्टवेयर डेवलपर के अनुसार, एक वीपीएन फ्री होने के बावजूद भी सेफ्टी के मामले में काफी एडवांस है और एक्सेस करने के लिए इन्हीं में से एक है ओपेरा का डेवलपर सॉफ्टवेयर। इन्टरनेट से इसे आसानी से डाउनलोड कर सकते हैं। कंप्यूटर में इसका इस्तेमाल करने के लिए सबसे पहले आपको इसे इंस्टॉल करना पड़ेगा और मीनू ऑप्शन में जाकर सेटिंग पर क्लिक करना होगा। यहां आपको प्राइवेसी और सिक्योरिटी का ऑप्शन दिखेगा, जहां पर आपको वीपीएन को इनेबल करना है। अब इसके बाद इस ब्राउजर में आप किसी भी ब्लॉग वेबसाइट को आसानी से ओपन कर पाएंगे, जो सामान्य तौर पर ब्लॉक्ड होती हैं। न केवल कंप्यूटर में, बल्कि मोबाइल में भी आप वीपीएन इस्तेमाल कर सकते हैं। इसके लिए आपको TouchVPN जैसे ऐप इंस्टाल करने पड़ेंगे। स्पेसिफिकली अगर टच वीपीएन की बात करें तो, इसके लिए आपको लोकेशन सेलेक्ट करके कनेक्ट पर क्लिक करना पड़ेगा, जिसके बाद वीपीएन सक्रीय हो जायेगा।
- मिथिलेश कुमार सिंह
-सुसान चाको, ललित मौर्या
सुप्रीम कोर्ट ने 18 अगस्त, 2020 को दिए अपने आदेश में साफ कर दिया है कि देश में कोरोनावायरस से निपटने के लिए अलग से नई राष्ट्रीय नीति बनाने की जरुरत नहीं है। कोर्ट इस मामले में सरकार को नई राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना बनाने और उसे लागु करने के लिए बाध्य नहीं कर सकता। कोर्ट ने कहा है कि आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 के तहत पहले ही अलग-अलग आदेशों के अनुरूप 2019 में एक राष्ट्रीय योजना पहले ही लागु की जा चुकी है।
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन द्वारा दायर याचिका पर दिया गया है। यह जनहित याचिका कोविड-19 महामारी के मद्देनजर दायर की गई थी। जिसमें कोरोनावायरस से निपटने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक नई योजना तैयार, अधिसूचित और लागू करने की मांग की गई थी।
इस मामले में याचिकाकर्ताओं ने इस महामारी से निपटने और जरुरी मदद देने के लिए राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया कोष (एनडीआरएफ) के उपयोग की भी मांग की थी। इसके साथ ही यह भी मांग की गई थी कि सभी व्यक्तियों/ संस्थानों से जो भी अंशदान और अनुदान कोविड-19 से निपटने के लिए दिया जा रहा है उसे राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया कोष में जमा कराया जाए। साथ ही अब तक इस उद्देश्य के लिए जो फण्ड पीएम केयर में डाला गया है उसे भी राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया कोष में जमा कराया जाए। कोर्ट ने सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन की इस मांग को अस्वीकार कर दिया है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में साफ कर दिया है कि राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया कोष और पीएम केयर दो अलग तरह के फण्ड हैं, जिनके उद्देश्य भी अलग हैं। कोर्ट ने यह भी कहा है कि केंद्र सरकार महामारी से लड़ने में राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया कोष का बहुत बेहतर तरीके से इस्तेमाल कर रही है। इसमें नए दिशानिर्देशों के अनुसार, राज्यों के अनुरोध पर फंड जारी किया जा रहा है।
आदेश के अनुसार पीएम केयर फंड एक अलग तरह का फण्ड है जोकि एक तरह का सार्वजनिक धर्मार्थ ट्रस्ट है।
देश में 30 लाख से ज्यादा हो चुके हैं मामले
भारत ही नहीं दुनिया भर के सामने कोरोनावायरस एक बड़ी चुनौती बन गया है। यह बीमारी दुनिया भर में 2 करोड़ से भी ज्यादा लोगों को अपनी गिरफ्त में ले चुकी है। अकेले भारत में इसके 30,44,940 मामले सामने आ चुके हैं। इस संक्रमण से अब तक 56,706 लोगों की मृत्यु हो चुकी है। पिछले 24 घंटों में 69,239 नए मामले सामने आये हैं और 912 लोगों की मौत हुई। जबकि देश भर में 22,80,565 मरीज ठीक हो चुके हैं।
यदि राज्यस्तर पर देखें तो अब तक महाराष्ट्र में इसके 671,942 मामलों की पुष्टि हो चुकी है। इनमें से 480,114 ठीक हो चुके हैं। जबकि दूसरे नंबर पर तमिलनाडु है जहां अब तक 373,410 मामले सामने आ चुके हैं। तीसरे नंबर पर आंध्रप्रदेश है, जहां अब तक 345,216 मामले सामने आ चुके हैं। कर्नाटक में 271,876, उत्तरप्रदेश में 182,453, दिल्ली 160,016, पश्चिम बंगाल में 135,596, बिहार में 119,529, तेलंगाना में 104,249, असम में 89,468 जबकि गुजरात में भी अब तक संक्रमण के करीब 85,523 मामले सामने आ चुके हैं। (downtoearth)
-रश्मि सहगल
कोविड-19 महामारी डैने फैलाकर बढ़ रही है। इसकी रफ्तार ऐसी है कि कोई आश्चर्य नहीं कि इससे संक्रमित लोगों की संख्या के मामले में भारत अमेरिका को पछाड़कर पहले नंबर पर पहुंच जाए। संक्रमण की स्थिति की पहचान और इससे बचाव के लिए 2 अप्रैल को आरोग्य सेतु ऐप की घोषणा की गई थी। 2 अप्रैल को जब इसकी घोषणा की गई, वह पहले लॉकडाउन का नौवां दिन था। उस वक्त कोविड-19 के मामले काफी कम थे और अधिकांश लोगों को भरोसा था कि कुछ ही हफ्तों में इसकी बढ़ने की रफ्तार पर हम काबू पा लेंगे।
हमें बताया गया था कि कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग के खयाल से आरोग्य सेतु ऐप महत्वपूर्ण कदम होगा- इसका उपयोग करने वाले व्यक्ति को संक्रमित व्यक्ति के आसपास आने या होने पर सतर्क करने वाली सूचना मिल जाएगी। इस ऐप ने इस कदर आशा जगाई थी कि सिर्फ 13 दिनों के रिकॉर्ड समय में इसे पांच करोड़ लोगों ने डाउनलोड कर लिया था। यह पूरी दुनिया में डाउनलोड किया गया सबसे तेज ऐप बन गया। लगभग दस करोड़ लोग इसे डाउनलोड कर चुके हैं।
कोविड-19 से निबटने में टेक्नोलॉजी और डाटा प्रबंधन के मामलों की देखरेख करने वाले समूह 9 के चेयरमैन के तत्वावधान में 12 मई को हुई प्रेस मीट में एक अधिकारी ने बताया कि यह मोबाइल ऐप्लीकेशन संक्रमित व्यक्ति के आसपास होने की वजह से संक्रमण के संभावित खतरे को लेकर लगभग 1.4 लाख लोगों को चेतावनी दे चुका है और इसने देश में करीब 700 हॉटस्पॉट को लेकर सूचना जुटाने में मदद की है। आरोग्य सेतु आपके फोन के ब्लूटूथ और लोकेशन डेटा का उपयोग करते हुए आपको संक्रमण के पहचाने जा चुके मामलों के डाटाबेस को स्कैन कर बताता है कि आप कोविड-19 वाले किसी व्यक्ति के आसपास हैं या नहीं। फिर, ये आंकड़े सरकार को दिए जाते हैं।
कई विशेषज्ञों ने इस बारे में चेताया है कि कोविड-19 के नए मामलों का पता लगाने के खयाल से ब्लूटूथ एप्लीकेशन किस तरह बेकार है। फिर भी, सरकार ने इस बात पर जोर देते हुए इसे आगे बढ़ाया कि अगर कोई व्यक्ति पिछले दो हफ्तों में कोविड-19 पॉजिटिव पाया गया है, तो यह ऐप संक्रमण और निकटता के खतरे की गणना कर सकता है और वह इसका उपयोग करने वाले व्यक्ति को सलाह दे सकता है कि वह संक्रमण से किस तरह बचे। कुछ अन्य विशेषज्ञ सवाल उठाते हैं कि आखिर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐसी टेक्नोलॉजी डाउनलोड करने का अनुरोध क्यों किया जिसकी क्षमता को लेकर पूरी तरह प्रामाणिकता सिद्ध नहीं है। फिजीशियन और हार्वर्ड में मानवाधिकारों के लिए एफएक्सबी सेंटर के फेलो डॉ. सचित बल्सारी का कहना है कि अधिकांश देशों ने पाया है कि कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग वाले ऐप काम नहीं करते और उन्होंने इसे वापस ले लिया है। वह कहते हैं कि ‘पारंपरिक कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग बहुत कठिन है इसलिए इसका वैसी टेक्नोलॉजी के साथ संवर्धन करना होगा जो वैध हैं। लेकिन इस किस्म का सार्वजनिक स्वास्थ्य हस्तक्षेप तब ही बढ़ाया जाना चाहिए जब टेक्नोलॉजी विधि मान्य हो।’
दरअसल, ये ऐप यूनिवर्सिटी कैंपस जैसे अपेक्षाकृत छोटे क्षेत्रों में काफी ज्यादा संख्यावाले स्मार्टफोन वाली आबादी में कुछ भूमिका निभाने वाले पाए गए हैं। लेकिन ज्यादा बड़े क्षेत्र में उनकी क्षमता कई तरह की चीजों पर निर्भर करती है। यह बिल्कुल सटीकता के साथ गतिविधि को पकड़ने की संवेदनशीलता पर निर्भर है। यह ऐप किसी शॉपिंग मॉल के दो छोरों या किसी दीवार के दोनों तरफ के लोगों के भी विवरण पकड़ पाने में असमर्थ पाया गया है। यह उन नाजुक फर्क को पकड़ने में भी सक्षम नहीं है कि कोविड-19 वायरस कैसे फैलता है।
और तब भी, कन्टेनमेंट जोन में रहने वाले लोगों तथा सरकारी और निजी क्षेत्र के कर्मचारियों के लिए इसे अनिवार्य बना दिया गया है। नोएडा में इसे डाउनलोड करना अनिवार्य है और जो ऐसा नहीं करते, उन्हें छह माह की जेल हो सकती है। जोमैटो और स्विगी-जैसे खाना पहुंचाने वाले स्टार्ट-अप ने भी इसे अनिवार्य कर दिया है। हवाई और ट्रेन यात्रा करने वालों के लिए भी यह अनिवार्य है। हाल में दिल्ली से अहमदाबाद जाने और वहां से वापस हवाई यात्रा करने वाली गुड़गांव की एक होम मेकर मिन्नी मेहता ने बताया, ‘जब आप एयरपोर्ट में प्रवेश करते हैं और जब वहां सिक्योरिटी चेक करवाने जाते हैं- दोनों ही अवसरों पर आपको अपना ऐप दिखाना पडता है, अन्यथा आपको आगे जाने की अनुमति नहीं मिलेगी।’ उन्होंने बताया कि ‘जब मैं हवाई अड्डेपर थी, तो ऐप ने मुझे बताया कि 'आप किसी संक्रमित व्यक्ति के पास नहीं हैं।’ जब मैं अहमदाबाद हवाई अड्डे पर पहुंची, तब भी मुझ उसी तरह का संदेश मिला।’
कई लोगों ने इसे एक्टिवेट किए बिना भी इसे डाउनलोड कर लिया है। उद्यमी तृप्ति जोशी ने बताया कि 'मैंने इसे डाउनलोड कर लिया है क्योंकि मुझे कम समय के नोटिस पर यात्रा करनी पड़ती है। लेकिन मैंने अपने ऐप को एक्टिवेट नहीं किया है क्योंकि मुझे इसके कुछ फीचर्स बहुत ही आक्रामक लगते हैं।’
इस ऐप को लेकर कुछ अन्य चीजें हैं जिनसे संदेह पैदा हो रहे हैं। भारत की आबादी का 70 फीसदी से ज्यादा बड़े हिस्से के पास स्मार्टफोन नहीं हैं और इसलिए वे लोग इस ऐप को डाउनलोड करने की हालत में नहीं हैं। एक बिजनेस मैन ने कहा कि ‘रेलवे पहले 16,000 ट्रेन चला रही थी। सरकार इस वक्त महज 260 ट्रेन चला रही है। यह भी चलेगी या नहीं, इसका तब की स्थिति पर फैसला होता है। ऐसे में, इस बड़ी आबादी की ट्रेन यात्रा फिलहाल दूर की कौड़ी ही है।’ और इसलिए उनके बारे में कोई जानकारी नहीं मिलनी है।
कोई व्यक्ति कोविड-19 पॉजिटिव पाया जाता है, तो इस ऐप में यह सूचना डाल दी जाती है। लेकिन वैसे लक्षणहीन (एसिम्पटोमैटिक) लोगों का क्या जिन्हें खुद भी पता नहीं है कि वे संक्रमित और वायरस के कैरियर हैं? उनकी केस हिस्ट्री इस ऐप में दर्ज नहीं होगी और वे संक्रमण फैलाते रहेंगे। सवाल यह भी है कि अगर ऐप आधारित कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग के परिणाम इतने ही असाधारण थे, तो सरकार टेस्टिंग को लगातार बढ़ाने पर क्यों जोर देती रही है। अभी 17 अगस्त को एक ही दिन में नौ लाख लोगों के टेस्ट किए गए और स्वास्थ्य विशेषज्ञ कह रहे हैं कि इनकी संख्या और बढ़ानी होगी।
गुड़गांव में कोलम्बिया एशिया अस्पताल के प्रमुख कार्डियोलॉजिस्ट डॉ. मोनिक मेहता दावा करते हैं कि इस ऐप का एक मात्र लाभ यह है कि यह हमारे बिल्कुल आसपास के इलाके को लेकर हमें कुछ जानकारी देता है। वह कहते हैं, ‘अभी के हाल में यह एकमात्र ऐप है जिसे सरकार या कोई प्राइवेट ऑपरेटर कुछ नया लेकर सामने आया है।’
भारत दुनिया में एकमात्र ऐसा लोकतांत्रिक देश है जिसने करोड़ों लोगों के लिए कोराना वायरस ट्रैकिंग ऐप को अनिवार्य बनाया है। वह भी ऐसे समय में जब हमारे यहां कोई राष्ट्रीय डेटा प्राइवेसी कानून नहीं है और यह भी साफ नहीं है कि इस ऐप से किसे और किन स्थितियों में डाटा एक्सेस करने का अधिकार है। इस वक्त, डेटा को एक्सेस करने या उसका उपयोग करने को लेकर कोई कड़ी, पारदर्शी नीतिया डिजाइन सीमाएं भी नहीं हैं। यह बात कई नागरिक अधिकार विशेषज्ञ रेखांकित कर चुके हैं। कई लोगों ने यह भी कहा है कि इसका कोड ओपन सोर्स नहीं है और सरकार जो कुछ कह रही है, उसमें कई झोल लगते हैं।
यह प्रमुख सवाल भी विशेषज्ञ भी उठाते हैं कि टेक्नोक्रेट्स की टीम कौन-सी है जिसने यह दावा करते हुए प्रधानमंत्री को गुमराह किया है कि यह महामारी के नियंत्रण में प्रमुख भूमिका निभाएगा जबकि ऐसा है नहीं। (navjivan)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कल दो दृश्य देखने लायक हुए। एक तो पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने चीन पहुंच कर फिर कश्मीर की ढपली बजाई और दूसरा, फ्रांस के राष्ट्रपति और जर्मनी की चांसलर जब मिले तो दोनों ने एक-दूसरे को हाथ जोडक़र और नमस्ते बोलकर अभिवादन किया। ऐसा ही ट्रंप और इस्राइल के प्रधानमंत्री भी करते हैं। यह देखकर दिल खुश हुआ लेकिन समझ में नहीं आता कि पाकिस्तान अपने इस्लामी मित्र-देशों से क्यों कटता जा रहा है ?
वह ज़माना लद गया जब अंतरराष्ट्रीय इस्लामी संगठन कश्मीर पर पाकिस्तान की पीठ ठोका करता था। सालों-साल वह भारत-विरोधी प्रस्ताव पारित करता रहा। पिछले साल जब भारत सरकार ने धारा 370 हटाई तो पाकिस्तान का साथ सिर्फ दो देशों ने दिया। तुर्की और मलेशिया। सउदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, मालदीव, बांग्लादेश और अफगानिस्तान जैसी इस्लामी राष्ट्रों ने उसे भारत का आतंरिक मामला घोषित किया। पाकिस्तान के आग्रह के बावजूद सउदी अरब ने कश्मीर पर इस्लामी संगठन की बैठक नहीं बुलाई। इस पर उत्तेजित होकर कुरैशी ने कह दिया कि यदि सउदी अरब वह बैठक नहीं बुलाएगा तो हम बुला लेंगे। इस पर सउदी अरब ने पाकिस्तान को जो 6.2 बिलियन डॉलर का कर्ज 2018 में दिया था, उसे वह वापस मांगने लगा। उसने पाकिस्तान को तेल बेचना भी बंद कर दिया।
पाकिस्तान के सेनापति कमर जावेद बाजवा सउदी शहजादे को पटाने के लिए रियाद पहुंचे लेकिन वह उनसे मिला ही नहीं। इसीलिए अब चीन जाकर विदेश मंत्री कुरैशी ने अपनी झोली फैलाई होगी लेकिन चीन भी आखिर कब तक पाकिस्तान की झोली भरते रहेगा ? वह कश्मीर के सवाल पर पाकिस्तान का दबी जुबान से पक्ष इसलिए लेता रहता है कि उसे पाकिस्तान ने अपने ‘आजाद कश्मीर’ का मोटा हिस्सा सौंप रखा है। वह लद्दाख के भी केंद्र-प्रशासित क्षेत्र बन जाने से चिढ़ा हुआ है।
पाकिस्तान के नेता यह क्यों नहीं सोचते कि चीन अपने स्वार्थ के खातिर उसे चने के पेड़ पर चढ़ाए रखता है ? राजीव गांधी के जमाने में जब भारत-चीन संबंध सुधरने लगे थे, तब यही चीन कश्मीर पर तटस्थ होता दिखाई देने लगा था। सबको पता है कि दुनिया की कोई ताकत डंडे के जोर पर कश्मीर को भारत से नहीं छीन सकती। हां, पाकिस्तान बातचीत का रास्ता अपनाए तथा आक्रमण और आतंकवाद का सहारा न ले तो निश्चय ही कश्मीर का मसला हल हो सकता है। वास्तव में कश्मीर तो पाकिस्तान के पांव की बेड़ी बन गया है।
इसके कारण पाकिस्तान का फौजीकरण हो गया है। गरीबों पर खर्च करने की बजाय सरकार हथियारों पर पैसा बहा रही है। उसके आतंकवादी जितनी हत्याएं भारत में करते हैं, उससे कहीं ज्यादा वे पाकिस्तान में करते हैं। पाकिस्तान, जो कभी भारत ही था, वह दूसरे देशों के आगे कब तक झोली फैलाता रहेगा ?
(नया इंडिया की अनुमति से)
-कनक तिवारी
1. प्रशांत भूषण के अवमानना प्रकरण के कारण जिरह में संविधान के इतिहास और उसकी भविष्यमूलकता को लेकर कई तरह के पेंच और द्वैध पैदा हो गए हैं। उनकी भू्रणहत्या नहीं की जानी चाहिए। ये सवाल फिलहाल तो जस्टिसगण अरुण मिश्रा,बी आर गवई और कृष्ण मुरारी की बेंच में आश्वस्ति मांग रहे हैं कि उन पर ‘पब्लिक डोमेन’ में बहस सुनी जाए। संविधान न्यायालय भी दरबार-ए-खास नहीं दरबार-ए-आम होते हैं। सभी संस्थाओं की लोकतांत्रिक बादशाहत में संवैधानिक तेवर होना भी ज़रूरी है। प्रशांत भूषण पर चल रहे अवमानना मामले ने देश क्या दुनिया के समझदार नागरिक वर्ग में चिंताजनक और चिन्तनीय बौद्धिक खलबली मचा रखी है। लोग सीधे संविधान से ही सवाल पूछ रहे हैं कि तुम्हारी उद्देशिका में ही लिखा है न कि ‘हम भारत के लोग’ ही संविधान निर्माता हैं। ‘हम भारत के लोग’ ही सार्वभौम हैं। न राष्ट्रपति, न प्रधानमंत्री, न संसद और न खुद संविधान ही सार्वभौम है। इसलिए संविधान के रचयिता खुद अपने लिखे के पाठ संविधान, अर्थात अपने खुद के विवेक से ‘पब्लिक डोमेन’ में खुली जिरह करने के लिए सक्रिय होकर आश्वस्त हैं।
2. तथ्यात्मक मुद्दा इतना ही है कि प्रशांत भूषण सुप्रीम कोर्ट के बहुत सक्रिय वकील हैं। अपनी अलग पहचान बनाते जनहित के मामले उठाते वकीलों में लगभग अव्वल हैं। उन्होंने कई बार ऐसा भी कुछ कहा और किया भी है जिसे लेकर सुप्रीम कोर्ट में अवमानना अधिनियम, 1971 के प्रावधानों के तहत उन पर अवमानना प्रकरण कायम हुए हैं। मेधा पाटकर, अरुंधति रॉय और प्रशांत भूषण ने ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ के सिलसिले में विस्थापितों के पक्ष में भाषण और वक्तव्य देते सुप्रीम कोर्ट के सामने धरना भी दिया था। तब सुप्रीम कोर्ट के कुछ वकीलों की शिकायत पर तीनों के खिलाफ अवमानना का मुकदमा दर्ज हुआ। प्रशांत भूषण और मेधा पाटकर के खिलाफ कार्यवाही नहीं की लेकिन ख्यातिप्राप्त लेखिका अरुंधति रॉय ने नोटिस के जवाब में सुप्रीम कोर्ट की समझ के अनुसार ऐसी भाषा का इस्तेमाल किया जो अवमाननाकारक लगी। जिन भाषणों के आधार पर मुकदमा था वे तो अलग थलग हो गए। नतीजतन अरुंधति को सजा दी गई। केरल के प्रसिद्ध मुख्यमंत्री ई. एम. एस. नम्बूदिरीपाद को न्यायपालिका की अकादेमिक आलोचना करने के कारण में सजा दी गई। अजीबोगरीब कारण बताया गया कि उनकी और उनके विख्यात वकील वी. के. कृष्णमेनन की न्यायपालिका को लेकर माक्र्स और एंजिल्स के विचारों के अनुरूप भाषण देने का दावा सही नहीं है। देश के कानून मंत्री पी. शिवशंकर सुप्रीम कोर्ट की कड़ी आलोचना में कह गए कि दहेजलोभी लोग बहुओं को जला रहे हैं, काले बाजारिए, भ्रष्ट लोग और विदेशी विनिमय वगैरह के अभियुक्त भी सुप्रीम कोर्ट में स्वर्ग पा लेते हैं। चीफ जस्टिस सव्यसाची मुखर्जी ने उसे एक विधिशास्त्री का ‘एप्रोच’ और ‘एटिट्यूट कहा, ‘लेकिन सजा नहीं दी। 1919 में अंगरेज जज ने ‘यंग इंडिया’ के सम्पादक गांधीजी को बार बार माफी मांगने का कहने पर भी गांधी के माफी नहीं मांगने पर भी सजा नहीं दी। केवल चेतावनी देकर छोड़ दिया। गांधी ने साफ कह दिया था वे अपनी अभिव्यक्ति की आजादी पर कोई अदालती अंकुश स्वीकार नहीं करते। जज जो चाहे सो सजा दे दे।
एक जज हेवार्ड ने उन्हें और प्रकाशक महादेव देसाई को सत्याग्रही मान लिया था। कई मामलों में निहित न्याय सिद्धांतों को अपने लंबे चैड़े जवाब और सैकड़ों पृष्ठों के दस्तावेजों के साथ प्रशांत भूषण ने विचारण के लिए तीन जजों की बेंच के सामने दाखिल किया। मजा यह कि आठ दस दिनों में ही उन जवाबी बिंदुओं और दस्तावेजों को मुनासिब प्रक्रिया के चलते बहुत कम समय में सुप्रीम कोर्ट ने अपनी समझ में 108 पृष्ठों का आदेश पारित करते प्रशांत भूषण को जिम्मेदार ठहरा दिया। उनको कितनी सजा दी जाए केवल इस पर विचार होना है। प्रशांत भूषण के वकील डॉ. राजीव धवन ने यह भी कह दिया कि उसमें से कई पृष्ठ तो किसी अन्य मामले से शब्दष: उठा लिए गए लगते हैं।
3. संविधान सभा में नागरिकों के मूल अधिकार अमेरिकी संविधान से हूबहू उधार लिए गए हैं। अभिव्यक्ति के नागरिक अधिकारों पर प्रतिबंध लगाते संविधान सभा में कई आधारों सहित मानहानि और अदालत की अवमानना के संबंध में संसद को अधिनियम बनाने के अधिकार दिए गए। हालांकि दमदार सदस्य आर. के. सिधवा और विश्वनाथ दास ने ऐसी कड़ी बातें कही थीं कि आज कोई कह नहीं सकता। वरना सीधा सीधा अवमानना का मामला बन जाएगा। प्रशांत भूषण ने तो वैसा कुछ नहीं कहा। उन सदस्यों ने तो यहां तक कह दिया था कि जज भी आखिर मनुष्य ही होते हैं। उनके सिर पर दो सींग नहीं होते। उनसे भी गलतियां होती हैं। कई कंगाल वकील तक जज बना दिए जाते हैं। आजादी के बाद भी जजों की ब्रिटिश हुकूमतशाही के वक्त की मानसिकता कायम चली आई है।
बहरहाल प्रतिबंध तो अनुच्छेद 19 (2) में लगा ही वह कहता है, ‘‘19. वाक्-स्वातंत्र्य आदि विषयक कुछ अधिकारों का संरक्षण-(2) खण्ड (1) के उपखण्ड (क) की कोई बात उक्त उपखण्ड द्वारा दिए गए अधिकार के प्रयोग पर भारत की प्रभुता और अखण्डता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों, लोक व्यवस्था, शिष्टाचार या सदाचार के हितों में अथवा न्यायालय-अपमान, मानहानि या अपराध-उद्दीपन के सम्बन्ध में युक्तियुक्त निर्बंन्धन जहां तक कोई विद्यमान विधि अधिरोपित करती है वहां तक उसके प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी या वैसे निर्बंन्धन अधिरोपित करने वाली कोई विधि बनाने से राज्य को निवारित नही करेगी।’’
21 साल की उम्र में ही प्रशांत भूषण ने आपातकाल के वक्त ‘दी केस दैट शूक इंडिया’ नामक किताब लिख दी थी।
4. प्रशांत भूषण में युवकोचित बौद्धिक गुस्सा भी रहता है। मनुष्य में विचार उसके संस्कार, पैतृक गुण, सामाजिक हैसियत आदि के कारण सार्वजनिक अभिव्यक्तियों में वाचाल रहते है। मानो अनुसूचित जातियों के प्रतिनिधि पी. शिवशंकर ने कहा था कि न्यायपालिका में उच्च वर्णों और वर्गों की दबंगई होने से वहां वंचितों की वेदना का फलसफा सूखा सूखा सा है। यही तो जस्टिस कर्णन को अदालत की अवमानना पर सजा होने से कई बुद्धिजीवी कह रहे हैं। न्यायिक इतिहास के भीष्म पितामह शताब्दी पुरुष जज वी. आर. कृष्ण अय्यर ने रिटायरमेंट के बाद कह दिया था कि न्यायपालिका तो अस्तित्वहीन संस्था हो गई है। वहां ईसा मसीह को तो सूली पर चढ़ाया जाता है लेकिन खलनायकों को नहीं। कई बार उसका सभ्यता से भी संस्पर्ष बिछुड़ जाता है। उन पर भी मुकदमा दायर किया गया लेकिन केरल के चीफ जस्टिस रहे सुब्रमणियम पोट्टी की बेंच ने नोटिस तक देने की जरूरत नहीं समझी। कहा कि न्यायपालिका की छाती इतनी चैड़ी होनी चाहिए कि वह सवालों को अपने विवेक से सुलझाती रहे। अमेरिका और इंग्लैंड में भी जजों को मीडिया में मूर्ख और बूढ़ा तक कहकर उनका सिर नीचे और पैर ऊपर दिखाते तस्वीरें छाप दी गई हैं। वहां भी शिकायतकुनिंदा पहुंचे लेकिन उन्हीं जजों ने साफ किया कि यह तो सच है कि हम बूढ़े हैं। कोई हमें बेवकूफ समझ रहा है। तो यह तो उसकी निजी राय है, हमारी अपने बारे में ऐसी राय नहीं है।
5. 2009 में प्रशांत भूषण के कहने के वक्त कि पिछले छ: वर्ष के दौर में न्यायपालिका में लोकतंत्र का क्षरण हुआ या पिछले चार मुख्य न्यायाधीषों के वक्त भ्रष्टाचार रहा है, सोषल मीडिया सक्रिय होकर आया नहीं था। अरुंधति के पक्ष में भी देश के सैकड़ों बुद्धिजीवी और विदेशों के प्रख्यात विद्वान और सांसद वगैरह सुप्रीम कोर्ट को लिख चुके थे कि अदालती अवमानना को लेकर संवैधानिक अधिकारों की समझ को ही तो अरुंधति ने अपने जवाब में विन्यस्त किया है। वह अवमानना का नहीं बौद्धिक वादविवाद का मामला है और पूरी तौर पर अभिव्यक्ति की आजादी के तहत है। नॉम चॉम्की जैसे विख्यात बुद्धिजीवी, पत्रकार, राजनेता, प्राध्यापक जिनमें ‘हिन्दू’ के संपादक एन. राम, ‘जनसत्ता‘ के संपादक प्रभाष जोशी और न जाने कितने लोग शामिल थे सामने आए। जिस जज ने मामला पंजीबद्ध कर नोटिस जारी की थी, अरुंधति ने सवाल उठाया था कि उन्हें नोटिस के जवाब की सुनवाई अन्य जज से करानी चाहिए, तभी वस्तुपरक आकलन होगा। लेकिन जस्टिस जी. बी. पटनायक ने दलील नहीं मानी।
6. हालिया कोविड-19 के भयानक प्रकोप के दौर में चीफ जस्टिस शरद अरविंद बोबडे की अपने गृहनगर नागपुर पहुंचकर पचास लाख रुपये की भाजपा कार्यकर्ता की विदेशी हारले डेविडसन की मोटरसायकल पर बैठकर तस्वीर खींची गई। वह सोशल मीडिया में वायरल हो गई। हजारों नागरिकों ने तरह तरह की असहज क्या भद्दी और अपमानजनक टिप्पणियां कर दीं। प्रशांत भूषण ने भी शायद इस आशय का ट्वीट कर दिया होगा कि न्याय मिलने की मुश्किलों के इस महामारी के दौर में सुप्रीम कोर्ट में त्वरित और जरूरी सुनवाई के वक्त ऐसी फोटो खिंचाने और संपूर्ण व्यापक न्यायिक व्यवस्था के आचरण का आकलन करने से आने वाली पीढिय़ां भारतीय न्यायपालिका के बारे में क्या धारणाएं कायम करेंगी। कुछ शिकायतखोर नस्ल के वकीलों का कानूनी ज्ञानशास्त्र के विकास में महत्वपूर्ण योगदान रेखांकित होता रहता है। एक शिकायत के आधार पर प्रशांत भूषण को अवमानना का नोटिस आननफानन में मिला। तुर्रा यह कि 2009 में उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के कुछ जजों के खिलाफ जो कथित कटाक्ष किया था, उसे भी सुनवाई के लिए साथ साथ सूचीबद्ध कर दिया गया। बहुत कम दिनों में फैसला देने का इरादा तेज प्रक्रिया के चलते इशारों इशारों में ‘कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है‘ की तर्ज पर जाहिर कर दिया गया। अपनी रीढ़ की हड्डी पर आज भी सुप्रीम कोर्ट में कुछ तेजतर्रार वकील संविधान के ज्ञान, फलक और जन-अभिमुखता के विकास के लिए लगातार जजों के कई क्रोधी तेवर झेलते जद्दोजहद कर रहे हैं। अभी भी सब कुछ बरबाद नहीं हुआ है। डॉ. राजीव धवन, दुष्यंत दवे, कोलिन गोन्जाल्वीस, इंदिरा जयसिंह, कामिनी जायसवाल, वृंदा ग्रोवर जैसे प्रसिद्ध वकीलों ने कई सवाल उठाए हैं। न्यायिक प्रक्रिया की हड़बड़ी में उनका व्यापक विचारण कई बार नहीं हो पाता। यह पहला वक्त है जब एक नागरिक/वकील पर सुप्रीम कोर्ट ने अवमानना का मामला चलाने का खुद संज्ञान इस तेज गति और मति से लिया है लेकिन नेपथ्य से प्रॉम्पिटंग की कई आवाजें फुसफुसाती हुई लग रही हैं। संविधान के अंतरिक्ष में अब अनसुनी कैसे हो सकती है? प्रशांत भूषण द्वारा दिए गए जवाब पर कोई टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट की प्रक्रिया के चलते नहीं की जानी चाहिए। वह तो तीन सदस्यीय पीठ के जेहन में है ही।
7. पहली बार लेकिन कुछ नए सवाल पैदा हुए हैं। सोशल मीडिया की वजह से जन-इजलास में इन मुद्दों पर बातचीत करना संभव और जरूरी है। वह बातचीत संविधान के निर्माता ‘हम भारत के लोग’ कर सकते हैं। इन्हें सारसंक्षेप में समेटा जा सकता है:
(1) अरुंधति के समर्थन में सैकड़ों बुद्धिजीवियों की राय को इसलिए दरकिनार किया गया होगा क्योंकि वे ‘बाहरी व्यक्ति’ थे। उनकी राय अकादेमिक लगने से संविधान के इस्तेमाल के अनुभवों की विशेषज्ञता की नहीं रही होगी। प्रशांत भूषण के मामले में जस्टिस चीफ जस्टिस रहे राजेन्द्रमल लोढ़ा ने (जिनकी अध्यक्षता के कॉलेजियम में मौजूदा तीन सदस्यीय पीठ के मुखिया जज की नियुक्ति की सिफारिश की गई थी) तो कह दिया है कि कोविड-19 की महामारी के चलते यह महत्वपूर्ण मामला ‘वर्चुअल कोर्ट’ के जरिए निपटाने की क्या ज़रूरत थी? उसे महामारी के बाद औपचारिक भौतिक अदालती प्रक्रिया के तहत निपटाने से बहुत कुछ कहने सुनने की स्थिति बनती। इंग्लैंड से भारत ने संवैधानिक ज्ञान उधार लिया है। वहां की पुष्ट परंपराएं कहती हैं ‘न्याय केवल होना नहीं चाहिए। वह होता हुआ दिखना भी चाहिए।’ बिना आपातकाल लगाए और अब तो मैदान में लाए गए (गोदी?) इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साथ गलबहियां करते प्रिंट मीडिया बेतरह, बेवजह चुप है। प्रशांत भूषण के मामले में सुप्रीम कोर्ट की चिंतातुर व्याकुलता पर साजिशी चुप्पी साधकर जैसे सेंसर लगा है। अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत का मामला मीडिया के अंतरिक्ष में नया उपग्रह बनाकर उछाला गया है। उस घटना का इतना प्रचार है कि भारत में चीन की घुसपैठ, लाखों लोगों का कोरोना में मरना खपना और सदा मीडिया के फोकस में रहने वाले बेचैन प्रधानमंत्री तक के लिए जगह और समय की कमी हो रही है। संविधान सभा ने कभी नहीं सोचा होगा कि मीडिया (तब प्रेस कहा था) जनता के मुद्दों तो क्या मुंह पर सेंसर लगा देगा। जनअभिव्यक्तियों के खिलाफ लिख और कुचलकर सत्ता प्रतिष्ठान का बगलगीर बनेगा। फिर भी नागरिकों के बराबर आजादी पा लेगा। सुप्रीम कोर्ट ने अधिकारों के तहत जनता और न्याय हित में कई अदालती प्रक्रियाओं की खबरों को मीडिया में प्रकाशित होने से रोका है। सुप्रीम कोर्ट को यह अजूबा भी तो देखना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट खुद नागरिक आज़ादी के अहम सवाल से जूझते अपने ही वरिष्ठ रहे पूर्व जजों की राय तक को मीडिया में नहीं पढ़ या सुन पा रहा हो। तब क्या करना चाहिए? सोशल मीडिया नहीं होता तो इस मामले की जनसरोकारिता की ही मौत हो जाती!
(2) चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के वक्त जनवरी 2018 में वरिष्ठ जजों रंजन गोगोई,जे. चेलमेश्वर, मदन बी. लोकुर और कुरियन जोसेफ ने सीधे मीडिया से बात की थी। वह सुप्रीम कोर्ट के इतिहास का अकेला अपवाद है। उन्होंने खुलकर चीफ जस्टिस पर कई आरोप लगाए। उनमें यह भी था कि चीफ जस्टिस बहुत संवेदनशील राष्ट्रीय मुद्दों को भी उस वक्त के सुप्रीम कोर्ट के 24 जजों में से अपेक्षाकृत कनिष्ठ जज की अध्यक्षता की पीठ को दे देते हैं। प्रशांत भूषण के मामले में भी वरिष्ठता का सिद्धांत नहीं, चीफ जस्टिस के अधिकार से वरिष्ठता क्रम के जजों को सौंपा नहीं गया है। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने कहा था मामला देने का चीफ जस्टिस का अधिकार है क्योंकि अंगरेजी परम्परा में वही ‘मास्टर ऑफ द रोस्टर’ होता है। अंगरेजी परंपरा में तो वरिष्ठता का भी सिद्धांत रहा है-यह नहीं कहा था। परम्परा में तो यह भी है जिस जज साहब पर भरोसा नहीं हो, तो उन्हें मामले से हट जाना चाहिए। प्रशांत भूषण ने तो ऐसा कुछ नहीं कहा है। सुप्रीम कोर्ट के एक जज एच. एस. कपाडिय़ा के कई शेयर एक प्राइवेट कम्पनी स्टरलाइट में रहे हैं। फिर भी वकीलों से उन्होंने स्टरलाइट कम्पनी के मामले में वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे न्याय मित्र (एमिकस क्यूरी) थे। इसकी आलोचना प्रशांत भूषण ने खुलकर की। उन्होंने ही प्रशांत भूषण के खिलाफ जजों के भ्रष्टाचार वाले कथन के खिलाफ अवमानना की शिकायत की थी। उसे अभी सुना जा रहा है। किसी भी आरोपी को पूरी सुनवाई का मौका दिए बिना या उठाए गए मुद्दों पर संवैधानिक तुष्टि हासिल किए बिना फैसला नहीं देना चाहिए जजों के अनुसार पारदर्शी प्रक्रिया का अनुपालन किया जाना चाहिए। शुरुआती 5 जज सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम के सदस्य होते हैं। जस्टिस रंजन गोगोई के विवादास्पद अपवाद को छोडक़र (जो राम मंदिर के फैसले के बाद राज्यसभा में मनोनीत हुए) तीन वरिष्ठ जजों जस्टिस चेलमेश्वर, मदन बी. लोकुर और कुरियन जोसेफ ने प्रशांत भूषण के पक्ष में खुलकर बयान दिए हैं कि कोई मामला ही नहीं बनता।
(3) जस्टिस कुरियन जोसेफ के तर्क में बहुत दम है कि सुप्रीम कोर्ट खुद अवमानना करार देकर मामला चलाना चाहे तब भी जब आरोपी कहे मुझे अभिव्यक्ति की अबाधित आजादी है। सच तो यह है यह मामला भारत-चीन की सरहदों की तरह नहीं, माता पिता के प्रेम के बटवारे की सरहद का किसी तरह निर्धारण करे) यही संविधान का बेहद नाजुक बिन्दु है। संविधान निर्माता जनता के भी खिलाफ सुप्रीम कोर्ट न्यायिक व्याख्या का संवैधानिक अधिकारी होने से कोई विपरीत अमलकारी फैसला दे, तो भाष्यकार जनता का क्या होगा? ऐसे (संभावित) विवाद की कल्पना संविधान सभा में जवाहरलाल नेहरू, डॉ. भीमराव अंबेडकर और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की अगुवाई के करीब 300 सदस्यों को नहीं रही है। इसलिए कुरियन जोसेफ ठीक कहते हैं कि प्रशांत भूषण का मामला कम से कम 5 या अधिक जजों की संविधान पीठ को भेजा जाना चाहिए। उनके अनुसार प्रकरण में कई सैद्धांतिक सवाल निहित हैं। जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। जस्टिस कर्णन के अवमानना मामले में पूरी सुप्रीम की राय के अनुपालन में सात वरिष्ठ जजों की पीठ में सुनवाई होकर फैसला हुआ था। अभी तो उन्हीं में से कुछ सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जजों ने संयुक्त पत्र प्रशांत भूषण के तर्कों के पक्ष में लिखा है।
(4) कानून यह है कि फौजदारी नस्ल का अवमानना मामला आवश्यकतानुसार अटॉर्नी जनरल की अनुमति के बाद अदालत के सामने रखा जाए। अवमानना अधिनियम, 1971 की धारा 15 के अनुसार ‘‘आपराधिक अवमानना की दशा में, उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय या तो स्वप्ररेणा से या (क) महाधिवक्ता के, अथवा (ख) महाधिवक्ता की लिखित सम्मति से किसी अन्य व्यक्ति के समावेदन पर कार्रवाई कर सकेगा। स्पष्टीकरण-इस धारा में ‘‘महाधिवक्ता’’ पद से अभिप्रेत है-(क) उच्चतम न्यायालय के सम्बन्ध में, महान्यायवादी या महासालिसिटर।
प्रशांत भूषण के मामले में रजिस्ट्री को या तो संकोच रहा या उसने इस नियम के अनुसार एटार्नी जनरल की राय लेने संबंधी नोट लगाकर जजों के सामने मामला रखा होगा। बेंच ने उसे गैरजरूरी प्रावधान मानते सुनवाई की होगी। अटॉर्नी जनरल से सहमति ले ली जाती तो क्या दिक्कत थी? प्रशांत भूषण ने 2009 में जो कथित अवमाननाकारक बयान दिया, उस मामले में तो अटॉर्नी जनरल की राय ली गई थी। वह मामला 11 साल तक सुप्रीम कोर्ट के रिकॉर्ड रूम में पड़ा रहा। वहां कई मामले अपना अपना दुखड़ा सुनाते, नसीब ढूंढते बिसूरते पड़े रहते हैं। मामला इतना विस्फोटक समझा गया होता तो सुप्रीम कोर्ट के जो जज और चीफ जस्टिस 2009 से लेकर चीफ जस्टिस रंजन गोगोई के वक्त तक रहे हैं, तब तक सुनवाई क्यों नहीं हुई? मौजूदा चीफ जस्टिस भी 18 नवम्बर 2019 से हैं। तब कोरोना और हारवे मोटर साइकिल वाली दुर्घटना नहीं हुई थी। जो सभी संभावित जज उस मामले को सुन सकते थे। उनमें से ही जज प्रशांत भूषण के पक्ष में खड़े होकर वैधता पर सवाल उठा रहे हैं। इनमें जस्टिस ए. के. गांगुली (2012), चीफ जस्टिस राजेन्द्रमल लोढ़ा (2014), जस्टिस विक्रमजीत सेन (2015), जस्टिस चेलमेश्वर (2018), जस्टिस कुरियन जोसफ (2019), जस्टिस आफताब आलम (), जस्टिस ए. के. गांगुली (2012), जस्टिस मदन बी. लोकुर भी (2018), जस्टिस जी. एस. सिंघवी (2013) कई और जज हैं। सवाल उठ रहे हैं कि हम होते तो क्या फैसला करते? सुदर्षन रेड्डी (2011), जस्टिस गोपाल गौड़ा (2016) रिटायर हो गए हैं। जस्टिस रूमा पॉल भी साथ हैं, जो अलबत्ता 2006 में रिटायर हो गई थीं।
(5) अटॉर्नी जनरल के. के. वेणुगोपाल में असाधारण समझ, योग्यता और निष्ठायुक्त आचरण आदर्श है। पहले झिझकते हुए और बाद में साफगोई में उन्होंने बेंच से अनुरोध किया कि प्रशांत भूषण को सजा नहीं दी जाए। अनुरोध भावुक नहीं है। भारत के महान्यायवादी की संवैधानिक समझ का फलसफा है। अटॉर्नी जनरल सरकारी नौकर नहीं होते। असाधारण विद्वता के विधिशास्त्री को संविधान की रक्षा के लिए अटॉर्नी जनरल बनाया जाता है। वह राष्ट्रपति/उप राष्ट्रपति और मंत्रिपरिषद के साथ संविधान में कार्यपालिका का अंग है। ‘‘52. भारत का राष्ट्रपति-भारत का एक राष्ट्रपति होगा।‘‘ ‘‘63. भारत का उपराष्ट्रपति-भारत का एक उपराष्ट्रपति होगा।’’ ‘‘74. राष्ट्रपति को सहायता और सलाह देने के लिए मंत्रि-परिषद्-(1) राष्ट्रपति को सहायता और सलाह देनेे लिए एक मंत्रि-परिषद होगी जिसका प्रधान, प्रधानमंत्री होगा और राष्ट्रपति अपने कृत्यों का प्रयोग करने में ऐसी सलाह के अनुसार कार्य करेगा।’’ ‘‘76. भारत का महान्यायवादी-(1) राष्ट्रपति उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त होने के लिए अर्हित किसी व्यक्ति को महान्यायवादी नियुक्त करेगा। (2) महान्यायवादी का यह कर्तव्य होगा कि वह भारत सरकार को विधि संबंधी ऐसे विषयों पर सलाह दे और विधिक स्वरूप के ऐसे अन्य कर्तव्यों का पालन करे जो राष्ट्रपति उसको समय-समय पर निर्देर्षित करे या सौंपे और उन कृत्यों का निर्वहन करे जो उसको इस संविधान अथवा तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि द्वारा या उसके अधीन प्रदान किए गए हों। (3) महान्यायवादी को अपने कर्तव्यों के पालन में भारत के राज्यक्षेत्र में सभी न्यायालयों में सुनवाई का अधिकार होगा।’’
अटॉर्नी जनरल की अनसुनी कर दी गई। इस तरह का सवाल सुप्रीम कोर्ट में पहली बार आया जब सुप्रीम कोर्ट ने खुद संज्ञान लेते वक्त अटॉर्नी जनरल की राय नहीं ली गई को जरूरी नहीं माना। अटार्नी जनरल से राय नहीं लेने पर भी उनके द्वारा क्षतिपूर्ति के रूप में (?) अनुरोध करने की संवैधानिक स्थिति तय नहीं हुई है। संविधान या अधिनियम खामोश हैं। कहा जा सकता है कि क्या यह भी स्थिति संविधान पीठ के लायक नहीं बनती? फैसला जो हो वह तो संवैधानिक इतिहास का हिस्सा बनेगा।
(6) अवमानना अधिनियम की धारा 19 इस तरह है। 19. अपीलें-(1) अवमान के लिए दण्डित करने की अपने अधिकारिता के प्रयोग में उच्च न्यायालय के किसी आदेश या विनिश्चय की साधिकार अपील-(क) यदि आदेश या विनिश्चय एकल न्यायाधीश का है, तो न्यायालय के कम से कम दो न्यायाधीशों की न्यायपीठ को होगी। (ख) यदि आदेश या विनिश्चय न्यायपीठ का है, तो उच्चतम न्यायालय को होगी। परन्तु यदि आदेश या विनिश्चय किसी संघ राज्यक्षेत्र के किसी न्यायिक आयुक्त के न्यायालय का है तो ऐसी अपील उच्चतम न्यायालय को होगी। (2) किसी अपील के लम्बित रहने पर, अपील न्यायालय आदेश दे सकेगा कि-(क) उस दण्ड या आदेश का निष्पादन, जिसके विरुद्ध अपील की गई है, निलम्बित कर दिया जाए। (ख) यदि अपीलार्थी परिरोध में है तो वह जमानत पर छोड़ दिया जाए, और (ग) अपील की सुनवाई इस बात के होते हुए भी की जाए कि अपीलार्थी ने अपने अवमान का मार्जन नहीं किया है। (3) यदि किसी आदेश से, जिसके विरुद्ध अपील फाइल की जा सकती है, व्यथित कोई व्यक्ति उच्च न्यायालय का समाधान कर देता है कि वह अपील करने का आशय रखता है तो उच्च न्यायालय की उपधारा (2) द्वारा प्रदत्त सभी शक्तियों का या उनमें से किन्हीं का प्रयोग भी कर सकेगा। (4) उपधारा (1) के अधीन अपील, उस आदेश की तारीख से जिसके विरुद्ध अपील की जाती है। (क) उच्च न्यायालय की किसी न्यायपीठ को अपील की दशा में, तीस दिन के भीतर की जाएगी। (ख) उच्चतम न्यायालय की अपील की दशा में, साठ दिन के भीतर की जाएगी।
कुरियन जोसेफ ने यही बुनियादी सवाल उठाया है। यह न्याय के सिद्धांत और अधिनियम में बड़ी चूक है। अकबर इलाहाबादी ने यहां गैरलागू अन्य सन्दर्भ में कहा था ‘‘वो ही कातिल, वो ही शाहिद, वो ही मुंसिफ ठहरे। अंगरेजों से उधार लेकर उस पर आचरण करना भारतीय न्यायशास्त्र में पारम्परिक हो गया है। यह कि पीठ पीछे सुनवाई नहीं होनी चाहिए। आरोपी को अपने बचाव का विधिसंगत पूरा मौका मिलना चाहिए। सौ मुलजिम छूट जाएं, लेकिन एक निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के जज द्वारा दी गई सजा के बारे में अपील नहीं है। संविधान पीठ तक कई मामले बार बार समझाए जाते या बड़ी पीठ में भेेजे जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कई बार सरकार को सलाह भी दी है कि अमुक तरह का कानून बनाने पर सोचे क्योंकि वैसा कानून नहीं होने से न्याय मुकम्मिल तौर पर करने में कठिनाई या असंभाव्यता हो सकती है। अवमानना अधिनियम 1971 मुकम्मिल कानून कतई नहीं है। उसमें खुद सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड वरिष्ठ जजों की राय के अनुसार संशोधन की जरूरत है। तब उसकी भी अनदेखी बिना संविधान पीठ में विचारण के क्या हो सकती है?
(7) सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के कई पूर्व जजों ने इस मामले में अलग अलग कारण (भी) लिखते लेकिन एक दूसरे से सहमत तार्किक सिद्धांत मौजूदा जजों के सामने एकजाई कर भेज दिए हैं। वह फकत बौद्धिक या अकादेमिक बांझ राय नहीं है। वह ‘अन्दरखाने’ के वरिष्ठों की अनुभवजन्य संवैधानिक ‘सलाह’ है। उसका आशय या संकेत यही है कि हमारे वक्त यह मामला आया होता (जो कि आ सकता था, लेकिन नहीं लाया गया) तो हम वैसा ही फैसला करते, जैसी राय अभी दे रहे हैं। इस तरह यह भी यह एक संवैधानिक ऊहापोह की चुनौतीपूर्ण स्थिति है कि न्याय उस वक्त किया जा रहा है, जब बहुत देर हो चुकी है। उस वक्त नहीं किया जा सका जब उसे विचारण में लिया जा सकता था। सुप्रीम कोर्ट प्रशासनिक हैसियत में चूक करे, तो न्यायिक हैसियत में उसका खामियाजा वाचाल और झगड़ालू समझा जाता कर्मठ और असमझौताशील वकील अपनी छाती पर अकेला क्यों झेले?
अवमानना अधिनियम की धारा 20 कहती है ‘‘अवमान के लिए कार्यवाहियां करने की परिसीमा कोई न्यायालय अवमान के लिए कार्यवाहियां, यो तो स्वयं स्वप्रेरणा पर या अन्यथा, उस तारीख को जिसको अवमान का किया जाना अभिकथित है, एक वर्ष की अवधि के अवसान के पश्चात् प्रारम्भ नहीं करेगा।’’ इसका क्या आशय है? सुप्रीम कोर्ट एक वर्ष तक खामोश रहकर अवमानना की कोई कार्रवाई नहीं कर सकता। प्रशांत का मामला पंजीबद्ध होकर ग्यारह साल तक ठंडे बस्ते में रहे। फिर एकाएक मामला गर्म हो जाए। यह मुद्दा भी विचारण मांगता है कि कब तक कोई संशय में रखा जाए। खुद सुप्रीम कोर्ट भुला दे। फिर एकाएक याद करे कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के पूर्व जजों सहित जनमानस ही उद्वेलित हो जाए।
(8) अवमानना अधिनियम की धारा 13 कहती है: ‘‘13. कतिपय मामलों में अवमानों का दंडनीय न होना-तत्समय प्रवृत्त किसी विधि में किसी बात के होते हुए भी-(क) कोई न्यायालय इस अधिनियम के अधीन न्यायालय अवमान के लिये दंड तब तक अधिरोपित नहीं करेगा जब तक उसका यह समाधान नहीं हो जाता है कि अवमान ऐसी प्रकृति का है कि वह न्याय के सम्यक् उनुक्रम में पर्याप्त हस्तक्षेप करता है, या उसकी प्रवृत्ति पर्याप्त हस्तक्षेप करने की है, (ख) न्यायालय, न्यायालय अवमान के लिए किसी कार्यवाही में, किसी विधिमान्य प्रतिरक्षा के रूप में सत्य द्वारा न्यायानुमत की अनुज्ञा दे सकेगा यदि उसका यह समाधान हो जाता है कि वह लोकहित में है और उक्त प्रतिरक्षा का आश्रय लेने के लिए अनुरोध स्वभाविक है।’’
उपरोक्त प्रावधान से स्पष्ट है कि अदालतों द्वारा यक- ब-यक किसी नागरिक की अभिव्यक्ति के खिलाफ अवमानना अधिनियम के तहत कार्यवाही नहीं की जा सकती। सुप्रीम कोर्ट ने यदि मान लिया है कि प्रशांत भूषण की टिप्पणियां संयत, भद्र, माकूल और तर्कसम्मत नहीं हैं। तो भी क्या विचार हो सकता है कि वे बाद में लगातार मुकदमे लड़ते और कई कथित कटाक्ष भी करते रहे। उनके द्वारा सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन में नागेश्वर राव की नियुक्ति को लेकर गलत तथ्य कहने का आरोप लगाते अटॉर्नी जनरल ने शिकायत भी की थी। प्रशांत भूषण को मिली जानकारी विश्वसनीय नहीं होने से उन्हें उस मामले से पीछे हटना पड़ा था और वह सफाई उन्होंने अटॉर्नी जनरल को दी थी। तब मामला रफा दफा कर दिया गया था। धारा 13 की इबारत के अनुसार क्या प्रशांत भूषण की टिप्पणी जनहित में नहीं है। फिलहाल यह सुप्रीम कोर्ट ने मान लिया है। लोकहित तो बहुत खुला हुआ शब्द है। सुप्रीम कोर्ट लोकहित का प्रतिनिधि नहीं है तो क्या निर्धारक हो सकता है? वह तो न्याय करता है। क्या देश के मशहूर विद्वानों, सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के रिटायर्ड जजों की राय और सोशल मीडिया पर डाली जा रही टिप्पणियों का आकलन करने के बाद सुप्रीम कोर्ट को फिर भी लगा सकता है कि प्रशांत भूषण ने जनहित के खिलाफ आचरण किया है। सुप्रीम कोर्ट के अधिकार बहुत व्यापक और असरकारी होते हैं। इसलिए यदि सुप्रीम कोर्ट से केवल यही अनुरोध किया जा रहा है कि वह तेज गति से चलने के बदले धीमी गति से चले। तो मामले का ऐतिहासिक व्याख्या में निरूपण जरूरी भी हो सकता है। गांधी भी तो कहते थे कि जीवन में धीमी गति जरूरी है जिससे कोई दुर्घटना नहीं हो।
(9) सोशल मीडिया पर विद्वानों की बहार है। अब उन्हें साजिश के तहत इक_ा किया जा रहा है कि वे सबसे बड़ी अदालत की कथित प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए लामबंद होना महसूस करें। अन्यथा वे प्रशांत भूषण के लिए 2009 से खामोशी में बैठे थे। बहुतों को नहीं मालूम होगा कि दंड प्रक्रिया संहिता की परिभाषा में सुप्रीम कोर्ट अदालत नहीं है। सुप्रीम कोर्ट को संविधान निर्मााताओं ने अदालती परिभाषा से ऊपर रखते हुए उसे मूल अधिकारों के परिच्छेद में अनुच्छेद 32 में रखा।’’ 32. इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए उपचार-(1) इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए समुचित कार्यवाहियों द्वारा उच्चतम न्यायालय में समवेदन करने का अधिकार प्रत्याभूत किया जाता है। (2) इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से किसी को प्रवर्तित कराने के लिए उच्चतम न्यायालय को ऐसे निर्देश या आदेश या रिट, जिनके अंतर्गत बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार-पृच्छा और उत्प्रेषण रिट हैं, जो भी समुचित हो, निकालने की शक्ति होगी।’’
सुप्रीम कोर्ट भी संसद की तरह कानून बना सकने की गंगोत्री है। उसके अस्तित्व में ही संविधान के मर्म का निचोड़ है। अनुच्छेद 141 के अनुसार उसका हर फैसला बल्कि कानून देश की सभी अदालतों पर हुक्मनामे की तरह चस्पा हो जाता है। ‘‘141. उच्चतम न्यायालय द्वारा घोषित विधि का सभी न्यायालयों पर आबद्धकर होना-उच्चतम न्यायालय द्वारा घोषित विधि भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर सभी न्यायालयों पर आबद्धकर होगी।’’ प्रशांत भूषण के मामले का फैसला न्यायिक भविष्य में सभी निचली अदालतें मानने बाध्य होंगी। प्रशांत भूषण की नस्ल और प्रकृति के संविधान जिज्ञासु न जाने कितने अज्ञात वकील और नागरिक इस संभावित फैसले को नज़ीर बनाकर प्रभावित किए जाएंगे। इसलिए भी सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा जजों से संविधान का इतिहास और भविष्य भी खुद जिरह कर रहे हैं। वे ऐसे निर्णय की उम्मीद कर रहे हैं जिससे संविधान का चेहरा अंतरराष्ट्रीय इजलास में जगमगाता दिखाई दे।
(10) विश्व के महानतम जजों में एक लॉर्ड डेनिंग के फैसलों से अवगत हुए बिना सुप्रीम कोर्ट के एक जज ने 1950 के दशक में उसी बिन्दु पर फैसला किया था जो विश्व इतिहास में अमर है। नागरिक आजादी के क्षितिज का सबसे बड़ा विस्तारण 5 जजों की संविधान पीठ के अल्पमत जज हंसराज खन्ना ने किया। वह पूरी दुनिया में संविधान के विद्यार्थियों द्वारा सिर माथे लगाया जाता है। खन्ना आपातकाल के लागू रहते भी अपने न्यायिक ज्ञान की रीढ़ की हड्डी सीधी रख पाए थे। सुप्रीम कोर्ट जवाबदेह प्रजातांत्रिक संस्था है।
हाई कोर्ट के जजों के तिहाई पदों पर उसी हाईकोर्ट के वकील वरिष्ठ जजों के आंतरिक फैसलों के जरिए मनोनीत कर माई लॉर्ड बना दिए जाते हैं। तरक्की पाकर सुप्रीम कोर्ट के जज हो जाते हैं। यह संकीर्ण आत्मतुष्ट सिद्धांत है। उसे संसद और विधि आयोग ने बदलकर लोकतांत्रिक बनाने की कोशिश की है। सुप्रीम कोर्ट ने वैसे एक अधिनियम को असंवैधानिक घोषित कर दिया। हालांकि उसमें खामियां भी थीं। जज बनाने के लिए संविधान कहता है सुप्रीम कोर्ट (या चीफ जस्टिस) से सलाह की जाएगी। ‘सलाह’ शब्द की खुद व्याख्या करते सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया कि उसे ‘सहमति’ समझा जाए। इसके बाद हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्तियों के लिए एक आंतरिक संस्था कॉलेजियम (जिसमें सुप्रीम कोर्ट वरिष्ठतम पांच जज होंगे) के नाम से खुद बना ली। अब उसकी सहमति लेनी होती है। 2009 से 2014 के दरम्यान सुप्रीम कोर्ट के कम से कम 50 जज रिटायर हो गए होंगे। उनमें से ही कुछ जज मुखर और तार्किक होकर प्रशांत भूषण के पक्ष में अपने संवैधानिक ज्ञान का लोकव्यापीकरण कर रहे हैं। रिटायर हो जाने से उनकी संवैधानिक समझ की हैसियत की ‘पब्लिक डोमेन’ में आने के बावजूद अनदेखी के लायक हो सकती है? उनके ही पुराने फैसलों को नजीर बनाकर बाद के जज उन बौद्धिक सीढिय़ों पर चढ़ते संवैधानिक व्याख्याओं को तरोताजा बनाए रखते हैं।
(11) किसी साधारण नागरिक की मानहानि हो। तो भारतीय दंड संहिता में कई अपवाद उसे बचाने के लिए हैं।
मसलन यदि वह सच कहता हुआ लांछन लगा रहा हो, या किसी लोकसेवक के आचरण के विषय में सद्भावनापूर्वक कह रहा हो, या परनिंदा कर रहा हो कि वह उस व्यक्ति पर विधिपूर्ण प्राधिकार रखने वाले व्यक्ति तक जानकारी पहुंचाए, या अपने या अन्य के हितों की संरक्षा के लिए सद्भावनापूर्वक लांछन लगा रहा हो, या जिस व्यक्ति के खिलाफ कह रहा हो वह लांछन उसे सुधारने या लोककल्याण के लिए हो।
तब वह मानहानि का मामला नहीं ही बनता है। संविधान सभा ने 1949 में और संसद ने 1971 में विधायन करते सुप्रीम कोर्ट पर भरोसा किया है। इसलिए अदालत की अवमानना के लिए नागरिक अधिकारों की हिफाजत की तरह अपवाद नहीं लिखे। यह इतिहास सुप्रीम कोर्ट के विचारण में रहा है। कोई प्रशांत भूषण बनकर व्यवस्था से उत्पन्न कुछ परिणामों को लेकर उत्तेजित होकर अनर्गल भी कह दे। तो उसे पी. शिवशंकर के प्रकरण में जस्टिस सव्यसाची मुखर्जी या गांधीजी के प्रकरण में अंगरेज जज जस्टिस हेवार्ड की भाषा में अवमाननाकारक नहीं माना गया था। ऐसे साहसी (?) व्यक्तियों को सुप्रीम कोर्ट अपनी उदारता में लचीलेपन के साथ व्याख्यायित कर दे। तो उससे तो सुप्रीम कोर्ट का मर्तबा और बढ़ सकता है।
(12) आज न्यायपालिका की देश को पहले से ज्यादा जरूरत है। कार्यपालिका अर्थात मंत्रियों और विधायिका अर्थात (कई गैरजिम्मेदार) विधायकों और सांसदों में से कुछ ने (जिनमें लगभग आधे अपराधी भी कहे जाते हैं) देश का माहौल जहरीला बना दिया है। जनता सुप्रीम कोर्ट की ओर लगातार टकटकी लगाकर देखती रहती है। जनता हताश भीड़ नहीं है। वह महान जनसैलाब से है जिसकी कुर्बानियों के कारण भारत को आज़ादी मिली। उसी जनसंकुल के प्रतिनिधियों ने खुद सुप्रीम कोर्ट की राय के अनुसार दुनिया का सबसे बड़ा 90 हजार शब्दों का संविधान रचा। किसी को भी नायक या खलनायक बनाने का सवाल नहीं होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की अंतरराष्ट्रीय अहमियत, प्रसिद्धि और स्वीकार्यता होने से ही भारतीय लोकतंत्र दुनिया का सिरमौर बन सकेगा। यही हर विवेकशील नागरिक के विवेक की कशिश है। सुप्रीम कोर्ट के जजों की कलमें न्याय के क्षेत्र में इतिहास भी लिखती हैं। संविधान सभा के सदस्यों ने नेहरू, अंबेडकर और राजेन्द्र प्रसाद की अगुवाई में खास चरित्र के विवेक की उसमें रोशनाई भरी है। वह विवेक प्रकारांतर से जनता के खून, पसीने और आंसू बहाने के बाद के संघर्ष से उपजा था। प्रशांत भूषण का मामला केवल पक्षकारों का विवाद नहीं है। प्रशांत भूषण को तो इतिहास ने अब अवसर दे दिया है कि वे जनअपेक्षाओं के प्रतीक, प्रवक्ता या प्रस्तोता बनकर सुप्रीम कोर्ट के सामने संविधान निर्माताओं और व्याख्याताओं की जिरह को विन्यस्त, विकसित और विस्तारित करें। सुप्रीम कोर्ट के जजों के सम्मान, स्वाभिमान और स्वविवेक की रक्षा तथा संस्था की हिफाजत करना हर नागरिक का संवैधानिक और लोकतांत्रिक कर्तव्य है। अज्ञान, हताशा अतिरिक्त आत्मविश्वास और नासमझी के कारण सोशल मीडिया पर टिप्पणियां होती रहती हैं। उन्हें संविधान रामायण के मूल पाठ की चैपाई, दोहा या सोरठा नहीं समझा जाना चाहिए। वे ज्यादा से ज्यादा क्षेपक हैं। यह लेख भी एक क्षेपक है। इसमें मुझ अभिव्यक्तिकार की पीड़ा, जिज्ञासा, परेशानदिमागी और उत्कंठा है। इसमें पूर्वग्रह, खीझ, आक्रोश, अविश्वास या नासमझी की ऊहापोह नहीं है। देखें! भारत की जनता संविधान निर्मााता के रूप में अपना खुद का भविष्य आने वाले इतिहास के बियाबान में किस तरह बांचती है।
(13) यूरो-अमेरिकी मॉडल के संविधान से लिए गए अधिकारों के बचाव के लिए संविधान सलाहकार बी.एन. राव, अमेरिका के मुख्य न्यायाधीश फेलिक्स फ्रैंकफर्टर से मिले। उनकी सलाह पर नागरिक आजादी और अधिकारों पर कुछ प्रतिबंध रचे गए। मूल अधिकारों की सलाहकार समिति के अध्यक्ष सरदार पटेल ने रिपोर्ट सौंपते कहा था यदि मूल अधिकार छीने जाएं तो अदालतें हस्तक्षेप करेंगी। डॉक्टर अंबेडकर ने कहा था अदालतों को पूरी आजादी दे देने से सुप्रीम कोर्ट को विधायिका की मर्यादा और कार्यपालिका की जवाबदेही तय करने के अधिकार दिए गए तो सुप्रीम कोर्ट अमेरिकन थ्योरी के तहत, पुलिस अधिकारों के तहत शक्तियों की मीमांसा कर सकता है। नागरिक आजादी पर प्रतिबंध लगाने के बावजूद हम बार बार डींग मारते हैं कि भारत का संविधान दुनिया के सबसे उदार संविधानों में एक है। संविधान सभा में महबूब अली बेग ने बताया कि अलबत्ता ऐसे प्रतिबंध जर्मनी के संविधान में हैं। तानाषाह हिटलर चाहता था ऐसे कानून बनें जिनका विरोध तक नहीं किया जा सके। स्वतंत्र बुद्धि के अंगरेज पत्रकार बी.जी. हार्निमेन और महात्मा गांधी के बेटे देवदास गांधी को भी अपने अखबारों में अभिव्यक्ति की आजादी का इस्तेमाल करने के कारण अदालती अवमानना के नाम पर जेल की सजा हुई थी। अवमानना का प्रतिबंध फिर भी संविधान की आंत में ठहर गया।
(14) सुप्रीम कोर्ट में जब बहुत जटिल संवैधानिक जिरह होती है, तो पांच या अधिक जजों की संविधान पीठ बनाने का नियम और परंपरा है। सुप्रीम कोर्ट में आज तक के सबसे बड़े मुकदमे केशवानन्द भारती में संविधान का बुनियादी ढांचा क्या है, पर फैसला 7 बनाम 6 के बहुमत से हुआ। अल्पमत के 6 जजों की समझ का इतिहास में क्या लब्बोलुबाब बनेगा? टी.एम. ए पाई फाउंडेशन के 11 सदस्यीय बेंच के फैसले ने क्या कहा, उसे। बाद में 5 जजों की इस्लामिक एजुकेशन सोसायटी वाली बेंच ने समझाया। फिर दूसरी बेंच के खिलाफ भी 7 जजों की पी. ए. इनामदार के मामले वाली तीसरी बेंच ने समझाया। अटपटी भाषा में लिखे फैसलों को खुद सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जज तक समझ नहीं पाते। तब बार बार उन्हें तर्क की सान पर खुद चढ़ाते हैं। प्रशांत भूषण के कारण हर नागरिक की अदालत की आलोचना करने के अधिकार पर बंदिश लगने के खतरे भी कुलबुला रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट को हर तरह के आरोप, दुराचरण और छींटाकशी से मुक्त रखना भी संविधान का आग्रह है। हर नागरिक की अभिव्यक्ति की आजादी की पतंग आसमान में जितनी ऊंचाई तक चाहे उड़ाई जा सकती है। उसकी डोर अंतत: सुप्रीम कोर्ट के हाथ होती है। उड़ती तो वही है जो उड़े, कटे नहीं। आसमान तक उडऩा ही तो नागरिक अभिव्यक्तियों का लक्ष्य होता है।
(15) मशहूर संविधानविद एस.पी. साठे अपनी पुस्तक में सवाल उठाते हैं ‘‘क्या अवमानना के कानून को सामाजिक सक्रिय संगठनों द्वारा की जा रही आलोचना के लिए ज्यादा सहिष्णुता प्रदर्शित नहीं करनी चाहिए?’’ एक महत्वपूर्ण जज चिनप्पा रेड्डी ने फैसले को असंगत, गैरतार्किक और अरुंधति की पीड़ा समझने में असमर्थ करार दिया है। बाबरी मस्जिद को बचाने का झूठा हलफनामा देकर मस्जिद का ढांचा गिर जाने पर भी तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के अवमानना प्रकरण में 28 साल बाद भी चुप्पी है। कई प्रबुद्ध व्यक्ति सच कहना चाहते हैं लेकिन अवमानना कानून के पसरते हुए डैनों के डर के कारण संभव नहीं होता। इसलिए सुप्रीमकोर्ट के वे फैसले महत्वपूर्ण हैं जहां संविधान और कानून के जानकारों तथा उस प्रक्रिया में संलग्न विधि विशेषज्ञों द्वारा कभी उत्साह में भी कर दी जाती रही टिप्पणियों पर उदार और सजारहित लोकतांत्रिक फैसले हुए हैं।
(16) सुप्रीम कोर्ट द्वारा जनहित में न्याय करने का एक और पक्ष है। (संभवत) जस्टिस पी. एन. भगवती ने साधारण नागरिकों से प्राप्त चिट्ठियों को जनहित याचिकाओं में बदलकर अथवा अखबारों के समाचार पढक़र संविधान न्यायालय के मुताबिक न्याय देने की कोशिश करने की पहल की थी। उसे कई जजों ने लगातार कायम रखा। भले ही मौजूदा सुप्रीम कोर्ट ने एक अनुदार संकोच ओढ़ लिया है।
एक दिलचस्प मोड़ तो इस तरह भी आ सकता था कि सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा चार जज रोहिंग्टन, नरीमन, उदय ललित, एन. नागेश्वर राव और इंदु महोत्रा वर्षों से प्रशांत भूषण के सुप्रीम कोर्ट बार में साथी वकील रहे हैं। यदि इनमें से से बेंच बनती तो मामले में कई ऐसे तथ्य भी आते अथवा बहस होती जो पुरानी घटनाओं के सिलसिले में उनके पास पुष्ट सूचनाओं के रूप में उपलब्ध समझे जा सकते हैं। जस्टिस नरीमन, उदय ललित तथा प्रशांत भूषण के पिता सुप्रीम कोर्ट के बहुत वरिष्ठ वकीलों में गिने जाते हैं। हालांकि यह केवल एक मनोविलास का तर्क है। सुप्रीम कोर्ट तो सार्वभौम है।
देश के कई हाई कोर्ट में नए नए बने जज भी सैकड़ों की संख्या में पक्षकारेां को और कुछ वकीलों को भी अवमानना नोटिस देते रहते हैं। भले ही तीन चौथाई मुकदमों में बस केवल माफीनामा दे देते हैं। ऐसे में इस बहुत महत्वपूर्ण प्रावधान का बहुत लोकधर्मी चलन भी तो होना मुनासिब नहीं लगता। संभवत: सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे आंकड़े मंगाकर उस पर कभी विचार किया हो। विधि आयोग की भी अपनी सिफारिशें रही हैं। कुल मिलाकर यह जरूरी है कि न्याय किया जाने पर भी उससे जुड़ी परिस्थितियों और परिणामों के सिलसिले में उसे बहस के लिए न्याय्य (जस्टिशिएबल) बनाया जाना भी संविधान का मकसद, आग्रह और आदेश है। सुप्रीम कोर्ट के संबंध में बिना किसी पूर्वग्रह के उसकी गरिमा की रक्षा करना संसद, सरकार, वकीलों, जनता, मीडिया और खुद सुप्रीम कोर्ट का संविधान के प्रति अर्थात जनता के प्रति बुनियादी कर्तव्य है।


