विचार / लेख
मनजीत कौर बल
विगत दो दिनों से छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में एचआईवी संक्रमित बच्चियों के संरक्षण और ‘आश्रयगृह’ को लेकर ‘विवाद सुखिऱ्यों में आया। मुद्दा बहुत गंभीर लगा और अभी भी है। मुद्दा इसलिए गंभीर नहीं लगा कि वो किस आश्रय गृह में हैं और उन्हें किस आश्रय गृह में ले जाया जा रहा है? (क्योंकि हर सामाजिक कार्यकर्ता का संस्थाएं चाहती ही हैं कि सरकारी व्यवस्थाएं ऐसी स्थिति को संभालें) वरन इसलिए लगा कि उनके सरंक्षण और स्थानांतरण पर असुरक्षित होने का भय पैदा हुआ और गलत तरीके से ले जाए जाने के लिए प्रशासन ने शक्ति का उपयोग किया। इसके कारण बड़ा विवाद होने लगा।
कौन सही और कौन गलत जब तक स्पष्ट हो पाता तब तक दो ही दिनों में विवाद का मुद्दा बच्चियों से हटकर व्यक्ति विशेष की ओर सहानुभूति के साथ जाने लगा और पूरे सोशल मीडिया में मुद्दे का स्वरुप बदलकर पुलिस और प्रशासन की कार्यवाही के साथ प्रशासन में बैठे लोगों की अनियमितता पर केंद्रित होते-होते सहानुभूति के साथ एक व्यक्ति विशेष पर होने लगी।
इस तरह जब भी कोई किसी सामाजिक मुद्दे को उठाता है, तो एक स्पष्टता हमेशा रहती है या होनी चाहिए कि किस भूमिका में उठाया जा रहा है और उस मुद्दे को हल करने कि रणनीति उस भूमिका के साथ कैसी है या होनी चाहिए? एक राजनीतिज्ञ विरोधी पार्टी के सदस्य के रूप में, एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में, एक पत्रकार या एक प्रोफेशनल व्यक्ति के रूप में?
इस घटनाक्रम में मुद्दे को हल करने की शुरुआत हुई एक वकील के रूप में, फिर परिस्थिति की गंभीरता या आवश्यकता या भावनात्मक दबाव या राजनितिक जिम्मेदारी के रूप में भूमिका बदली लेकिन इस में रणनीति व्यवस्था सुधार के बजाए आश्रय गृह संचालित करने वाले दंपत्ति विशेष के साथ खड़े होना आश्चर्य करता रहा हो सकता है चिंता जायज हो कि जितने बेहतर तरीके से उन दंपत्ति ने बच्चियों को रखा था, उतना बेहतर सरकारी व्यवस्था में नहीं रखा जायेगा। लेकिन जब ऐसी चिंता हो तब भी सरकारी व्यवस्था में स्थानांतरित करने के मुद्दे के बजाय सरकारी व्यवस्था को मजबूत करने के मुद्दे पर लड़ाई होती तो इस लड़ाई में सभी आगे आते क्योंकि पूरे राज्य के आश्रय गृहों के संचालन पर मॉनिटरिंग की आवश्यकता होती है और करनी भी चाहिए क्योंकि एक राजनीतिज्ञ या सोशल एक्टिविस्ट की भूमिका में हर कोई सरकारी व्यवस्था को मजबूत करने की और ही लड़ाई लड़ता है।
लेकिन जब लड़ाई किसी स्थान या व्यक्ति विशेष की हो तब यह लड़ाई मुद्दे के लिए नहीं वरन अपने जिद को पूरा करने का दिखाई देता है। ऐसी लड़ाईयों का समाधान इसलिए भी कभी नहीं निकलता क्योंकि यह दो व्यक्तियों के पोजीशन की लड़ाई बनते जाती है, इसमें मुद्दा भटक जाता है।
ऐसी स्थिति को स्पष्ट करके इस लड़ाई को पुन: सही दिशा में ले जाया जाना चाहिए कि यह मुद्दा-
1. बच्चियों के सरकारी व्यवस्था में ले जाए जाने के बाद के असुरक्षा की आशंका को लेकर है?
2. बिलासपुर के महिला बाल विकास विभाग के किसी अधिकारी विशेष के कार्य प्रणाली और भ्रष्टाचार को लेकर है?
3. दंपत्ति के द्वारा संचालित किए जा रहे आश्रय गृह के संचालन की निरंतरता को लेकर है?
4. यह मुद्दा कार्यवाही के दौरान पुलिस और प्रशासन द्वारा किए गए बर्ताव पर है?
5. या उपरोक्त सभी पर है?
इसके स्पस्टता के बाद बहुत से साथी ठीक से मुद्दे के साथ खड़े हो पाएंगे क्योंकि शासन की कार्यवाही पर सवाल उठाते समय एक्टिविस्ट को बेहतर पाता होता है कि आगे कितने जोखिम आएंगे, मुझे नहीं लगता कि कार्यवाहियां मुद्दे बनेंगी वरन बच्चियों के आश्रय गृह को लेकर दोनों पक्षों की रूचि को ठीक से समझकर ही लड़ाई आगे सार्वजानिक रूप से लड़ी जानी चाहिए।
सवाल है कि
1. आखिर एक पक्ष सरकार की व्यवस्था पर विश्वास क्यों नहीं कर पा रहा है और सरकार इसे गंभीरता से क्यों नहीं ले रही है?
2. क्यों कोई अधिकारी दोनों पक्ष के बीच बेहतर समन्वय नहीं करवा पा रहा, जबकि दोनों ही पक्ष बच्चियों की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार मानते है स्वयं को।
3. दूसरा पक्ष सरकारी आश्रय गृह में स्थानांतरित करने की जिद क्यों कर रहा? उसके बजाए सरकारी व्यवस्था में सही करवाने के लिए प्रयासरत हो सकता है?
4. अगर यह लड़ाई न्यायालय तक पहुंची थी तो आगे अपील क्यों नहीं की गई?
इस पूरे प्रकरण में किसी भी दुव्र्यवहार और गलत कार्यवाही (जिसकी स्पष्ट जानकारी मुझे नहीं हुई है, अगर ऐसा कुछ हुआ हो तो) का सभी भरपूर विरोध करते हैं लेकिन इस बात की चिंता अभी भी बनी हुई है कि दंपत्ति द्वारा संचालित आश्रय गृह की शुरुआत में बच्चियां वहां कैसे आईं? और अचानक उन्हें सरकारी आश्रय गृह में कैसे ले जाया जाने लगा?
कुछ लेखों से पढऩे से जानकारी हुई कि माननीय न्यायलय के आदेशानुसार किया जा रहा है? तो आदेश का विरोध क्यों? वर्तमान में बच्चियों कि स्थिति कैसी है? क्या आशंकाएं सही हो रही है? अगर हाँ ! तो आगे की रणनीति क्या है? अगर नहीं तो पूरी लड़ाई क्यों हुई? और क्या आगे पुलिस और प्रसाशन की कार्यवाही पर लड़ाई जारी किया जाना है?
ऐसे कुछ सवाल हैं? इसके साथ ही किसी भी तरह से बच्चियों की सुरक्षा या देखभाल में कमी पर नजर रखने के लिए हमेशा साथ खड़े हैं और उस व्यवस्था को मजबूत करने की लड़ाई में मैं भी साथ हूँ अगर यह लड़ाई अनियमितता और गलत नियुक्ति को लेकर है तो कागजों से ही लगातार लड़ी जानी चाहिए और अगर यह लड़ाई मात्र सहानुभूति पाने का प्रयास है तो लडऩे की विधि में बच्चियों को केंद्रित करने पर सोचने की आवश्यकता है? क्योंकि कोई भी लड़ाई मजबूती के साथ लड़ी जानी चाहिए, सहानुभूति के साथ नहीं।
बस अंतिम बार एक प्रयास सभी के लिए कि अभी भी समय है बच्चियों की स्थिति पर सभी नजर रखें और पूरे राज्य में ऐसे व्यवस्था को मजबूत करने आगे आएं।


