पिछले चार दिनों में छत्तीसगढ़ की सडक़ों पर जितने किस्म के हादसे हुए हैं उनसे सरकार को सबक लेने की जरूरत है। दो अलग-अलग सडक़ दुर्घटनाओं में दो मंत्रियों की कारें हादसे की शिकार हुईं, और वे कम-अधिक जख्मी हुए। दूसरा एक हादसा बस्तर में हुआ जहां सडक़ पर चल रही पुलिस जांच से बचने के लिए दो मोटरसाइकिल सवार नौजवान रेलवे पटरी पर भाग निकले, और उसी पटरी पर आती हुई ट्रेन से बचने के लिए कूदे, या पुल से गिरे, और बुरी तरह जख्मी हुए। राजधानी रायपुर की खबरें है कि किस तरह यहां पर दो आवारा नौजवान अपने दुपहियों की नंबर प्लेट पर कोई संख्या बदलकर ट्रैफिक नियम तोड़ते थे, और चालान दूसरे लोगों तक पहुंचता था। इसी तरह की नंबर प्लेट छेडख़ानी का एक अलग मामला भी सामने आया है। इनसे परे हर दिन इस प्रदेश में सडक़ों पर कई मौतें हो रही हैं। मालवाहक गाडिय़ों में मजदूर या गरीब परिवार के लोग सामान की तरह लदकर जाते हैं, और गाड़ी पलटने से थोक में एक साथ जख्मी होते हैं। बिना हेलमेट हर दिन एक से अधिक दुपहिया वाले मारे जा रहे हैं। और न सिर्फ मौजूदा सरकार का, बल्कि पिछली सरकारों का भी रूख इसी तरह का रहता है कि यह तो चलते ही रहता है।
छत्तीसगढ़ में हैरानी की बात यह है कि एक-एक करके कई मुद्दों पर छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट सरकार से जवाब-तलब कर रहा है कि सडक़ों पर से जानवर क्यों नहीं हटाए जा रहे, सडक़ों की मरम्मत क्यों नहीं हो रही, या ट्रैफिक लाईटें कितनी जगह काम कर रही हैं, और कितनी जगह खराब हैं। यह देखकर हैरानी होती है कि जो सरकार की बुनियादी जिम्मेदारी होनी चाहिए, उसके लिए हाईकोर्ट को लाठी लेकर सरकार के पीछे पडऩा पड़ रहा है। देश भर में हर प्रदेश की सरकारों में केन्द्र सरकार के चुने हुए अखिल भारतीय सेवाओं के अफसर काम करते हैं, जिन्हें देश की सबसे महत्वपूर्ण सरकारी सेवाएं माना जाता है। इसके बाद भी अगर छोटी-छोटी सी बुनियादी जिम्मेदारियां भी पूरी नहीं होती हैं, तो किसे जिम्मेदार ठहराया जाए? इन नामी-गिरामी अफसरों को, या इनके राजनीतिक बॉस निर्वाचित नेताओं को? आखिर रोजमर्रा की जिंदगी को सुरक्षित बनाने की एकदम ही जरूरी जिम्मेदारी से शासन-प्रशासन में बैठे हुए नेता और अफसर इस हद तक कैसे कतरा सकते हैं? और फिर मानो हाईकोर्ट की तो कोई कदर ही नहीं है, जजों की आवाज तो डीजे की आवाज में खत्म हो जाती है, और नेताओं-अफसरों के कान तक पहुंच ही नहीं पाती है। नतीजा यह होता है कि आम जनता भयानक शोरगुल में अपना सुख-चैन, और अब तो जिंदगी भी, खोती रहती हैं, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज उसकी फिक्र करते रहते हैं, और जनता के वोटों से बनी हुई सरकारें अदालत को अनसुना करने में मानो पीएचडी कर चुकी है।
और यह हाल सिर्फ हाईकोर्ट और किसी प्रदेश की सरकार का नहीं है, अब तो सुप्रीम कोर्ट भी बहुत से मामलों में यह रोना रोते बैठे रहता है कि सरकारें और उनके अफसर अदालत की बात नहीं सुन रहे। क्या लोकतंत्र में सरकारों के लिए यह शर्मिंदगी की बात नहीं होनी चाहिए? क्या सडक़ से जानवर हटाने, और लाउडस्पीकर का गैरकानूनी शोरगुल रूकवाने का काम भी हाईकोर्ट का होना चाहिए? और अदालत की बात अनसुनी करने का यह नतीजा है कि छत्तीसगढ़ की सडक़ें इतनी असुरक्षित हो चुकी हैं कि दो दिनों में दो मंत्रियों की गाडिय़ों का सडक़ हादसा हो रहा है, और राजधानी में गुंडे-मवाली बेफिक्री से नंबर प्लेट बदल-बदलकर घूम रहे हैं, और पुलिस बेवकूफ बन रही है।
हम सडक़ पर अराजकता को सिर्फ वहीं तक नहीं देखते। हमारा मानना है कि अधिकतर लोगों की जिंदगी में कानून पहली बार सडक़ पर ही तोड़ा जाता है, बिना लाइसेंस, बिना उम्र हुए बच्चे गाडिय़ां दौड़ाते हैं, स्कूल-कॉलेज के छात्र-छात्रा तीन-तीन, चार-चार लदकर दुपहिए दौड़ाते हैं, पुलिस हेलमेट को लागू करने से कतराती है, हर कोई गाड़ी चलाते हुए मोबाइल या तो हाथ में थामे रहते हैं, या फिर गर्दन मोडक़र सिर और कंधे के बीच दबाए रखते हैं। और यह अराजकता लोगों को अगला कानून तोडऩे का हौसला देती है। तमाम अधिक गंभीर जुर्म सडक़ों से ही शुरू होते हैं, और ट्रैफिक नियम तोडऩे के बाद वे अधिक बड़े अपराधों की तरफ बढ़ते हैं। सरकारों के साथ दिक्कत यह है कि वे पिछली सरकारों की परंपराओं से परे कुछ नया सोचने के लिए अपने को मजबूर नहीं पाती हैं। लीक से हटकर कुछ सोचना और करना दिमागी मेहनत मांगता है, और सरकार चलाने वाले अफसर बाबुओं से पिछले फैसले पूछते हैं, और अधिक से अधिक कोशिश करते हैं कि उन घिसे-पिटे फैसलों से परे कहीं खिसका न जाए। नतीजा यह होता है कि टेक्नॉलॉजी और जिंदगी की जरूरतें अंधाधुंध बढ़ चुकी होती हैं, सडक़ों पर सब कुछ बदल गया रहता है, और सरकार का रूख वही पुराना चलते रहता है। जो सरकारें अपनी सडक़ों पर ट्रैफिक और सडक़ सुरक्षा के बाकी नियम कड़ाई से लागू नहीं करती हैं, वे अपने राज्य में अराजकता को बढ़ावा देती हैं।
दो-दो मंत्रियों के सडक़ हादसों के बाद तो सरकार को पूरे प्रदेश के स्तर पर ट्रैफिक सुधारने के लिए, और सडक़ों को सुरक्षित बनाने के लिए गंभीरता से कोई फैसला लेना था। अविभाजित मध्यप्रदेश के समय पूरे प्रदेश में संभाग स्तर पर यातायात सुधार समिति रहती थी जिसमें कुछ वरिष्ठ पत्रकारों को रखा जाता था, और बाजार-कारोबार के कुछ प्रतिनिधि भी उसमें अफसरों के साथ रहते थे। अब वह परंपरा खत्म हो चुकी है। अब सरकारें फैसले लेने, और लागू करने के अपने एकाधिकार का कोई हिस्सा दूसरों के साथ बांटने को तैयार नहीं रहती। और सरकार खुद सडक़ों को सुरक्षित नहीं रख पा रही है, हाईकोर्ट को आए दिन सरकार के सबसे बड़े अफसरों से हलफनामे लेने पड़ रहे हैं। सत्ता का ऐसा रूख सडक़ों पर और अधिक मौतों को तो बढ़ाएगा ही, वह नौजवानों को और भी तरह-तरह के जुर्म करने का हौसला देगा जिसकी शुरूआत ट्रैफिक नियमों को तोडक़र होती है।