संपादकीय

हिन्दुस्तान में शादियों पर खर्च सामाजिक प्रतिष्ठा पाने का एक बड़ा जरिया रहता है। देश के एक सबसे बड़े उद्योगपति मुकेश अंबानी ने अभी कुछ महीने पहले अपने बेटे की शादी में कई देशों और कई प्रदेशों में बिखरा हुआ ऐसा समारोह किया कि दुनिया देखती रह गई। दुनिया के सबसे मशहूर गायकों को बुलाने के लिए असंभव सी लगती रकम दी गई, और सौ-दो सौ करोड़ रूपए तो दो-तीन गायकों पर ही खर्च होने की खबरें छपी थीं। यह भी छपा था कि इटली के जिस शहर में इस शादी का एक अंतरराष्ट्रीय जलसा किया गया था, वहां पर दिन भर शहर का बाजार सिर्फ इन्हीं मेहमानों के लिए खुला था, और उस शहर के बाशिंदों का, पर्यटकों का उस दिन सडक़ों पर निकलना बंद था। किस तरह की सोच ऐसा मजा ले सकती है, यह हमारी छोटी सी समझ से परे है। खैर, फिलहाल आज का मुद्दा यह है कि हिन्दुस्तान में अलग-अलग कई समाजों के लोग अपने समाज के गरीब और मध्यमवर्गीय लोगों की फिक्र करते हुए फिजूलखर्ची के खिलाफ सामाजिक प्रतिबंध लगाने की कोशिश कर रहे हैं। कल एक अखबार में खबर थी कि किस तरह भारत में शादी के पहले के समारोहों और रिवाजों पर होने वाले खर्च शादी के मुख्य समारोह के खर्च से अधिक हो चुके हैं। आज की एक खबर है कि जैन समाज के कुछ लोग छत्तीसगढ़ में बिना दिखावे के, सादगी की शादी के लिए नियम-कायदे बना रहे हैं, जिससे फिजूलखर्ची रूकेगी। हालांकि अलग-अलग समाज में सादगी के अलग-अलग पैमाने रहते हैं, और जैन समाज में मुख्य भोज में अधिकतम 35 व्यंजन रखने की सीमा रखी गई है, जो कि मध्यमवर्गीय लोगों की पहुंच से दुगुनी तो होगी ही। ऐसा लगता है कि आज इस समाज में इससे भी अधिक संख्या में खानपान रखने का माहौल होगा। लेकिन बहुत सी जातियों में, बहुत से शहरों में सुधार की बात सोची जा रही है, और हो सकता है कि कम या अधिक हद तक इस पर अमल भी हो रहा हो।
शादियों पर फिजूलखर्ची इस हिसाब हिंसक है कि किसी भी समाज में संपन्न तबके के समारोहों और रिवाजों की नकल विपन्न तबके पर अपने आप लद जाती है। हर किसी को अपने से अधिक संपन्न लोगों की बराबरी का खर्च करना पड़ता है, वरना समाज उन्हें नीची नजरों से देखता है। यह देखादेखी परिवार पर बहुत भारी पड़ती है, और अगर परिवार में बेटियां अधिक हों तो मां-बाप की पूरी जिंदगी इन्हीं की शादी के इंतजाम में झुलस जाती है। हालत यह रहती है कि लडक़ी की शादी पर होने वाले खर्च को उन्हें संपत्ति में हिस्सा देने के बराबर मान लिया जाता है, जबकि इस खर्च के बाद इससे उस लडक़ी की न आत्मनिर्भरता बढ़ती है, न उसे कोई बचत होती है। बहुत से परिवारों में लड़कियों को इसी वजह से पराया सामान मान लिया जाता है, और उनकी पढ़ाई या उनके इलाज में भी कई बार कटौती की जाती है। मध्यमवर्गीय परिवारों पर उच्च वर्ग की बराबरी करने का जो दबाव रहता है, उसके चलते हुए परिवार कर्ज लेकर भी महंगी शादी करते हैं, और इस खर्च को जुटाने के लिए जिंदगी के दूसरे कई जरूरी काम छोड़ देते हैं। इन्हीं सब वजहों से हर समाज में एक सुधार आना ही चाहिए जो कि पूरी तरह से गैरजरूरी, और अनुत्पादक फिजूलखर्ची को घटा सके, और समाज के गरीबों को भी सिर उठाकर जीने का मौका दे सके।
जहां तक देश की अर्थव्यवस्था की बात है, तो उसमें शादियों पर होने वाली फिजूलखर्ची उतनी फिजूल भी नहीं रहती क्योंकि उससे सैकड़ों या हजारों लोगों का रोजगार चलता है। शादियों में किस-किस तरह के कारोबार, और काम करने वाले लोगों की कमाई होती है, वह फेहरिस्त सबको मालूम है, इसलिए हम उसे यहां गिनाना नहीं चाहते। लेकिन जिस परिवार पर शादी का बोझ पड़ता है, उस परिवार की दिक्कतों को गिनाना जरूर चाहते हैं कि उनके गहने बिक जाते हैं, उन पर कर्ज चढ़ जाता है, और परिवार में मुसीबत के वक्त के लिए रखी गई थोड़ी-बहुत बचत भी पूरी तरह खत्म हो जाती है। जिंदगी में शादियों पर खर्च का अनुपातहीन तरीके से इतना अधिक होना किसी भी जाति के भीतर एक हिंसक दिखावे के अलावा कुछ नहीं है, जिसकी सबसे बुरी मार कमजोर लोगों पर पड़ती है। इसलिए कुछ लोगों के कारोबार पर पडऩे वाले तात्कालिक असर को अनदेखा करके भी एक समाज सुधार की बड़ी जरूरत है ताकि लोग अपने पैसों का उत्पादक इस्तेमाल करें, और कर्ज में डूबने से बचें।
इस मामले में सरकार भी एक मदद कर सकती है। हर शहर में चारों तरफ सरकार ऐसे सामूहिक विवाह केन्द्र बना सकती है जो कि सिर्फ सामूहिक विवाहों के लिए मुफ्त दिए जाएं। आज बहुत से प्रदेशों में राज्य सरकारें भी सरकारी अनुदान से सामूहिक विवाह करवाती हैं, लेकिन इनसे परे निजी इंतजाम से होने वाले विवाह इनसे सैकड़ों गुना अधिक हैं। सरकार को ऐसे बड़े-बड़े सामूहिक विवाह केन्द्र बनाने चाहिए जिन्हें अलग-अलग समाजों के लोग ले सकें, और वहां पर अपने समाज के सामूहिक विवाह बहुत कम खर्च में करवा सकें। देश में कई ऐसी भी मिसालें हैं जिनमें बहुत बड़े-बड़े धन्नासेठ लोगों ने अपने बच्चों की शादियां ऐसे ही सामूहिक विवाहों में करवाईं जिससे समाज के बाकी लोग भी उत्साह से अपने बच्चों को लेकर इनमें शामिल हुए। जब किसी समाज के संपन्न लोग कोई मिसाल कायम करते हैं तो वह उनसे नीचे की संपन्नता वाले लोगों के काम आती है। अब अगर मुकेश अंबानी ने अपने बेटे की शादी के साथ मुम्बई या गुजरात में दस हजार और शादियों का जिम्मा उठाकर सबकी एक बराबर, एक साथ शादी करवाई होती, तो वह एक अलग मिसाल कायम हो सकती थी। लेकिन लोकतंत्र में हर किसी को अपनी मर्जी से फिजूलखर्ची की आजादी है, और समाज प्रमुख और संपन्न लोगों से उम्मीद करने के अलावा क्या कर सकता है।
लगे हाथों यह भी देखने की जरूरत है कि सरकार शादियों या दूसरे निजी जलसों की फिजूलखर्ची किस तरह रोक सकती है। 2017 की एक रिपोर्ट हमारे सामने है जिसमें सांसद रंजीत रंजन ने संसद में एक निजी विधेयक पेश किया था जिसमें शादियों पर अधिकतम पांच लाख खर्च की सीमा तय करने की बात थी, और कहा गया था कि अगर इस सीमा से अधिक पैसे खर्च किए जाते हैं, तो उस पर 10 फीसदी टैक्स लिया जाए, जो कि गरीब लड़कियों की शादियों पर खर्च किया जाए। उनका कहना था कि वे खुद 6 बहनों में से एक हैं, और उन्होंंने अपने माता-पिता के चेहरों पर परेशानी देखी हुई है। कहने के लिए अलग-अलग कुछ राज्यों में, और केन्द्र सरकार की तरफ से भी खाने की बर्बादी रोकने के लिए अतिथि नियंत्रण कानून बने हुए हैं, लेकिन इस पर अमल तो कहीं भी होते नहीं दिखता है। एक मामूली सा सर्च पहले ही पन्ने पर बता देता है कि किस तरह उत्तरप्रदेश, असम, दिल्ली, मेघालय, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, गुजरात जैसे राज्यों की एक अंतहीन लिस्ट है जहां नाम के लिए ऐसा कानून लागू है, लेकिन इस पर अमल तो कहीं भी होते नहीं दिखता है। सामाजिक सुधार के लिए सरकारी कानून, उन पर अमल की जितनी जरूरत है, उतनी ही जरूरत हर समाज के भीतर से सुधार आने की भी है। इस सुधार की एक अच्छी मिसाल भिलाई के एक उद्योगपति परिवार के भीतर की है जहां एक वक्त बुजुर्ग पति-पत्नी ने संकल्प लिया हुआ था कि वे एक सीमा से अधिक मेहमानों वाली दावत में नहीं जाएंगे, और इसी संकल्प के चलते वे अपने पोते की शादी की दावत में भी नहीं गए थे। समाज में ऐसा तय करने वाले लोग भी बढ़ें, तो उससे भी सुधार आ सकता है।