संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अपने दोस्त ट्रम्प की पहल से मोदी सबक ले सकते हैं
13-Nov-2024 4:11 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : अपने दोस्त ट्रम्प की पहल से मोदी सबक ले सकते हैं

अमरीका के अगले राष्ट्रपति चुने गए डोनल्ड ट्रम्प ने काम संभालने के दो महीने पहले से अपनी सरकार का ढांचा बनाना शुरू कर दिया है। वे एक-एक करके मंत्री तय करते जा रहे हैं, और अब उन्होंने सरकार में एक बड़ी जिम्मेदारी के काम के लिए दुनिया के सबसे दौलतमंद कारोबारी एलन मस्क और एक दूसरे कारोबारी विवेक रामास्वामी का नाम तय किया है। ये दोनों सरकार के कामकाज की उत्पादकता बढ़ाने, सरकारीकरण को घटाने, नियमों के जाल को काटने, और कई एजेंसियों के कामकाज देखते हुए उन्हें फिर नए सिरे से बनाने का काम करेंगे। ये सरकार के बाहर रहेंगे, लेकिन सरकारी कामकाज की एक बड़ी जिम्मेदारी पूरी करेंगे। इन दोनों के बारे में यह बताना जरूरी है कि टेस्ला नाम की दुनिया की सबसे बड़ी बैटरी कार कंपनी, और ट्विटर के मालिक एलन मस्क ने अभी हुए चुनाव में ट्रम्प पर अरबों का खर्च भी किया था, और ट्रम्प के प्रचार में खुद हिस्सा भी लिया था। दूसरी तरफ विवेक रामास्वामी ट्रम्प की ही पार्टी रिपब्लिकन पार्टी के नेता हैं, और इस बार राष्ट्रपति पद के लिए पार्टी के उम्मीदवार का नाम तय होने के वक्त वे भी दावेदारों में से एक थे। उनके नाम से ही यह जाहिर है कि वे दक्षिण भारतीय भारतवंशी हैं, और अमरीका में कारोबारी तो हैं ही। 

अमरीका के बारे में यह समझना जरूरी है कि वहां राष्ट्रपति चुन लिए जाने के बाद वे बहुत हद तक अपनी निजी मर्जी से, और कुछ हद तक पार्टी के दानदाताओं का ख्याल रखते हुए सरकार के मंत्री तय करते हैं, और दूसरे महत्वपूर्ण ओहदों पर लोगों को नियुक्त करते हैं। पहले से इस बात की अटकलें लग रही थीं कि ट्रम्प प्रशासन में एलन मस्क की महत्वपूर्ण भूमिका रहेगी। अब उन्हें सरकार के इफिसिएंसी (कार्यकुशलता या दक्षता) विभाग का जिम्मा दिया जा रहा है, तो इसके पीछे मस्क का यह इतिहास भी है कि वे अपनी कंपनियों में बेदर्दी से छंटनी करने के लिए जाने जाते हैं, और कर्मचारियों की संख्या तेजी से घटाते हैं। ट्विटर खरीदने के बाद उन्होंने यही किया था, और ट्रम्प के चुनाव अभियान के दौरान भी यह अंदाज लगाया जा रहा था कि वे ट्रम्प के जीतने पर सरकार की चर्बी छांटने में मदद करेंगे। 

अमरीका के इस घरेलू मामले पर लिखने का हमारा कोई इरादा नहीं है, लेकिन हम अमरीका के इस पूरे एक विभाग को देखते हुए यह जरूर सोचते हैं कि भारत में केन्द्र, और राज्य सरकारों की चर्बी छांटने, उनकी कार्यकुशलता बढ़ाने, उन्हें जनता का मददगार बनाने, और सरकारी खर्च को घटाने के लिए क्या किया जाना चाहिए? किफायत कोई बुरी बात नहीं होती, खासकर ऐसे देश में जहां पर 80 करोड़ गरीब जनता के बारे में खुद सरकार यह मानती है कि वह अपना अनाज खरीदकर खाने लायक हालत में नहीं हैं। ऐसे देश में जनता के हक का सरकारी बजट अगर खुद सरकार के ऊपर, और उसकी फिजूलखर्ची से अनुपातहीन तरीके से बर्बाद होता है, तो उसका मतलब यही है कि जनता के लिए अधिक जरूरी बहुत से काम नहीं हो पाएंगे। आज हर प्रदेश में स्थानीय म्युनिसिपल से लेकर सरकारी विभागों तक हाल यह है कि वे बहुत जरूरी सेवाओं पर भी खर्च नहीं कर पा रहे, बिजली का बिल नहीं पटा पा रहे। और भारत में अधिक से अधिक नौकरियां देना एक राजनीतिक-चुनावी मुद्दा है, इसलिए इसके खतरे को बारीकी से समझने की जरूरत भी है। सरकारें अधिक से अधिक नौकरियां पैदा करने को एक लुभावना और लोकप्रिय काम मानकर चलती हैं, और इस बात को एक उपलब्धि की तरह बताया जाता है कि उसने कितने बेरोजगारों को नौकरियां दी हैं। लेकिन अगर कोई सरकार से पूछे कि उसके अमले की उत्पादकता कितनी है, वे दिन में कितने घंटे काम करते हैं, काम की उत्कृष्टता क्या है, अपनी जिम्मेदारी को लेकर उनकी जवाबदेही क्या है, उनकी टेबिलों पर फाईलें औसतन कितने महीने जमी रहती हैं, और हर विभाग में गैरजरूरी जानकारी मांगने का सिलसिला क्यों है, तो ये सवाल बहुत लुभावने और लोकप्रिय नहीं रहेंगे। भारत में आमतौर पर यह मान लिया जाता है कि सरकारी नौकरी में अधिक काम नहीं करना पड़ता, ऊपरी कमाई बहुत रहती है, और एक बार सरकारी नौकरी लग गई तो वह जिंदगी भर की गारंटी रहती है। आज हालत यह है कि हिन्दुस्तान के हर सरकारी दफ्तर में गैरजरूरी कागजों को मांगने की लंबी-लंबी लिस्ट रहती हैं, ताकि उसमें छूट देने के लिए रिश्वत ली जा सके। कोई जमीन खरीदे, तो रजिस्ट्री ऑफिस उसकी एक कॉपी तहसील और पटवारी को भेजती है, लेकिन नए मालिक के नाम पर उसे चढ़वाने के लिए नए मालिक को महीनों का वक्त लगता है, और हजारों की रिश्वत देनी पड़ती है। दूसरी तरफ अमरीका जैसे देश में किसी भी सरकारी फॉर्म को भरने में औसतन कितना वक्त लगेगा, यह उस फॉर्म पर ही छपा रहता है, और किस-किस जानकारी को मांगे बिना काम चल सकता है, इसकी कोशिश लगातार की जाती है। हिन्दुस्तान में सरकारी कामकाज का तरीका इसका ठीक उल्टा है। यहां विश्वविद्यालय में परीक्षा का फॉर्म भरते हुए उसी विश्वविद्यालय में पहले से जमा कागजों को एक बार फिर जमा करना पड़ता है, और ऐसा ही हाल हर शहर विभाग, हर निगम और मंडल में रहता है। अभी तो हालत यह है कि सरकारें लोगों से इतनी अधिक गैरजरूरी जानकारी मांगती हैं कि उनकी गोपनीयता निभा पाना उनके ही बस में नहीं रहता, और सरकारों पर डिजिटल पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन एक्ट की शर्तों को निभा पाना भी मुमकिन नहीं रहता है। लेकिन 2023 के बने हुए इस एक्ट के तहत अभी तक किसी सरकार को सजा नहीं हुई है, इसलिए सरकारें धड़ल्ले से गैरजरूरी जानकारी मांगती रहती हैं। 

अमरीका में ट्रम्प दो बड़े काबिल कारोबारियों को सरकार की चर्बी छांटने का जिम्मा दे रहे हैं। यह बात समझने की जरूरत है कि भारत में बहुत सी सरकारों का अपने खुद पर खर्च इतना अधिक है कि वहां प्रदेश के विकास के लिए रकम बचती भी नहीं है, और अगर केन्द्र सरकार से रकम न मिले, तो राज्य चल ही न पाए। सरकार को छोटा करने, सरकारी नियंत्रण घटाने, और बहुत कड़ाई से किफायत लागू करने की जरूरत भारत में केन्द्र सरकार से लेकर पंचायत तक है। भ्रष्टाचार से होने वाली बर्बादी तो है ही, सरकार की उत्पादकता शर्मनाक स्तर तक कम है। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अपने निजी दोस्त डोनल्ड ट्रम्प की इस पहल को समझना चाहिए, और भारत में भी इसे लागू करना चाहिए। सरकार की उत्पादकता का स्तर जमीन पर औंधे मुंह पड़े रहे, और राजनीतिक दल अधिक नौकरियां देने पर फख्र करते रहें, यह बहुत खराब नौबत है। देश में आर्थिक नीतियां, और स्वरोजगार के अवसर ऐसे रहने चाहिए कि उनसे लोगों को काम मिले, न कि सरकारी कुर्सी तोडऩे के लिए। भारत के हर सरकारी काम में जितनी गैरजरूरी जानकारी ली जाती है, गैरजरूरी कागज मांगे जाते हैं, वह सिलसिला भी खत्म करना चाहिए।

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