संपादकीय

दीवाली पर फटाखों पर रोक कुछ लोगों को अधिक विचलित करती है कि यह रोक सिर्फ हिन्दू त्यौहारों पर क्यों आती है, और बाकी धर्मों के त्यौहारों पर यह रोक क्यों नहीं लगती? कायदे से तो इसका जवाब सवाल पूछने वालों को मालूम रहता है कि और किसी धर्म की इतनी आबादी नहीं है, और किसी धर्म में उनके आराध्य भगवान राम के अयोध्या लौटने की खुशी नहीं मनाई जाती, इस तरह रौशनी नहीं की जाती, इस तरह फटाखे नहीं फोड़े जाते। इसके साथ-साथ जो निर्विवाद रूप से धर्मनिरपेक्ष उपकरण हैं, वे बताते हैं कि किस तरह दीवाली की एक रात ही फटाखों के कारण प्रदूषण कितना बढ़ता है, हवा कितनी जहरीली होती है। और बिना उपकरणों के नंगी आंखों से भी यह देखा जा सकता है कि भारत में और किसी त्यौहार पर न ऐसी रौशनी होती, और न ऐसी आतिशबाजी। इसलिए अगर रोक की कोई जरूरत है, तो वह धर्म के बारे में सोचे बिना ऐसी रात को ही है, जिस रात देश में प्रदूषण सबसे अधिक बढ़ता है। फिर भी सुप्रीम कोर्ट ने कल इस मामले की सुनवाई करते हुए दिल्ली में दीवाली पर फटाखों पर लगाई गई रोक को लागू न करने के लिए पुलिस को फटकारा है, और कहा है कि अदालती आदेश पर अमल का महज दिखावा किया गया। अदालत ने कहा है कि दिल्ली और आसपास के इलाके में साल भर फटाखों पर रोक लगाने के लिए 15 दिन में योजना बनाकर अदालत में पेश की जाए। अब अदालत ने साल भर का कह दिया है, तो कई ऐसे कलेजों को ठंडक पहुंचेगी जो दूसरे धर्मों में न फोड़े जाने वाले फटाखों पर भी रोक लगाने की हसरत रखते थे। किसी लोकतंत्र में इससे अधिक शर्मनाक और क्या बात होगी कि देश की सबसे बड़ी अदालत बेबस बकरी की तरह मिमियाती रह जाती है कि केन्द्र सरकार की मातहत दिल्ली पुलिस उसके इतने बड़े व्यापक जनहित के आदेश पर भी महज दिखावे के लिए अमल करती है।
लेकिन यह बात सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के साथ नहीं है, अलग-अलग बहुत से राज्यों में वहां की सरकारें, और खासकर वहां के पुलिस-प्रशासन किसी धार्मिक आयोजन की अराजकता पर रोक लगाने से कतराते रहते हैं। छत्तीसगढ़ में ही धार्मिक डीजे पर रोक लगाने की कोशिश करते हुए छत्तीसगढ़ का हाईकोर्ट बूढ़ा हो चला है, लेकिन जिस तरह किसी परिवार में गैरजरूरी मान लिए गए बुजुर्ग के बड़बड़ाने को अनसुना करते हुए नई पीढ़ी अपना काम करती रहती है, उसी तरह छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट की कड़ी बातें भी शासन-प्रशासन के उससे भी कड़े कान के पर्दे अनसुनी करते रहते हैं। नतीजा यह होता है कि हाईकोर्ट को हिसाब लगाने के लिए केलकुलेटर का इस्तेमाल करना पड़ेगा कि उसने राज्य के मुख्य सचिव, डीजीपी, और जिले के अफसरों से कुल कितने बार हलफनामे मांगे हैं कि वे कड़ाई और ईमानदारी से इस हिंसक शोरगुल को रोकेंगे।
यह देखकर बड़ी हैरानी होती है कि जनता के हित में खुद होकर शासन-प्रशासन को भीड़ की जिस हिंसक अराजकता को रोकना चाहिए, उसे रोकने के लिए देश की सबसे बड़ी अदालतों को लाठी लेकर पीछे लगना पड़ता है, और उनकी फटकार से भी नेताओं-अफसरों के माथे पर शिकन नहीं आती। यह एक अलग बात है कि शोरगुल से आम जनता के माथों के भीतर की नसें फट जाती हैं, वे मर जाते हैं, कहीं छोटे बच्चे, तो कहीं और बीमार मर जाते हैं। उसके बाद भी धर्मान्ध संगठन लगे रहते हैं कि वे तो डीजे बजाएंगे ही, और लोगों का जीना हराम करेंगे ही। बेबस बड़ी अदालतें देश में धर्म के नाम पर ऐसा हिंसक प्रदर्शन रोकने में नाकामयाब हैं जिस प्रदर्शन का कोई धार्मिक इतिहास नहीं है। जिस वक्त भारत में आज प्रचलित कोई भी धर्म गढ़े गए थे, हजारों बरस पहले के उस वक्त न लाउडस्पीकर थे, न फटाखे थे, और न ही दूर-दूर तक लोगों की नजरों को अंधा करने वाले लाईट ही थे। भारत में लोगों की जागरूकता ऐसी बदहाल है कि धार्मिक जुलूसों में दूर-दूर तक चकाचौंध करने वाली रौशनी फेंकी जाती है, जिससे कि आंखें खराब होती हैं, लेकिन इसे रोकने की कोई पहल नहीं की जाती। नतीजा यह होता है कि बाजार में किराए पर लाईट और साउंड मुहैया कराने वाले लोग चीन से किस्म-किस्म के सामान बुलाकर उनका चलन बढ़ाते रहते हैं क्योंकि शासन-प्रशासन को किसी भी भीड़ के औजारों और हथियारों पर रोक लगाना जहमत लगता है।
हम बहुत सारे अदालती मामलों में यह राय देते हैं कि अगर व्यापक जनजीवन से जुड़े हुए मुद्दों पर अदालत को नजर रखनी है, तो उसे कुछ जांच कमिश्नर नियुक्त करने चाहिए जो कि जमीनी हकीकत पर नजर रखकर तथ्य और सुबूत इकट्ठा करके अदालत के सामने रखे। जरूरत हो तो ऐसे व्यापक महत्व और व्यापक अमल के मामलों में अदालत को किसी वरिष्ठ, सरोकारी, और जिम्मेदार वकील को न्यायमित्र भी नियुक्त करना चाहिए। ऐसी मदद के बिना अदालत सरकार से लडऩे-भिडऩे के इस काम को महज जनहित याचिकाकर्ता, और जजों के सहारे नहीं कर पाएगी। अदालतें वैसे भी तरह-तरह के बोझ से लदी हुई हैं, और सरकारों को अदालती फैसले, और देश के कानून लागू करने के लिए जज रात-दिन कब तक लाठी चलाएँगे?
आज धर्मों के बीच हिंसक और अराजक प्रदर्शन का मुकाबला बढ़ते-बढ़ते यहां तक पहुंच गया है कि लोग अपने परिवार के फेंफड़ों को भी दांव पर लगाकर गुंडागर्दी के अपने हक को साबित करने में लगे रहते हैं। जहरीले-बारूदी प्रदर्शन से उनकी अगली पीढ़ी चाहे अस्थमा की शिकार हो जाए, या उसे कोई और गंभीर बीमारी हो जाए, लोगों को अपने धर्म की दादागिरी साबित करना अधिक जरूरी लगता है। ऐसे मूढ़ समाज को जब सरकारी हिफाजत हासिल रहती है, तब सुप्रीम कोर्ट के जजों के लिए भी यह आसान नहीं रहता कि इस राष्ट्रीय सामूहिक खुदकुशी को रोक सके। शासन-प्रशासन जनता के इस आत्मघाती धार्मिक-सार्वजनिक प्रदर्शन को संरक्षण देते हुए ऐसे जुलूसों के साथ-साथ परेड करते दिखते हैं, और ऐसा लगता है कि अब धर्म-केन्द्रित होती चल रही भारतीय चुनावी-राजनीति में सहज समझ लाना किसी अदालत के बस का भी नहीं है। सुप्रीम कोर्ट की जोर की फटकार भी सुनकर जब दिल्ली पुलिस के कुत्ते भी जगह से न हिलें, तो फिर इस बेअसर अदालत से इस लोकतंत्र के अमन-पसंद लोग अधिक उम्मीद भी नहीं कर सकते। पैसेवाले लोग सबसे प्रदूषण के वक्त दिल्ली छोडक़र दूसरे शहरों में जाने लगे हैं, अब राज्यों की राजधानियों में भी धार्मिक शोरगुल के दिनों में पैसेवाले लोग शहर से बाहर कुछ दिन जाकर रह सकते हैं। और जहां तक आम जनता का सवाल है, तो उसे ईश्वर और सरकार दोनों ने गुठली की तरह बनाकर रखा है, और उसकी नियति यही सब झेलना है, और यह मार बढ़ती चल रही है।