संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’का संपादकीय : 2017 से चल रहा बुलडोजरी इंसाफ और जस्टिस चन्द्रचूड़
07-Nov-2024 12:55 PM
‘छत्तीसगढ़’का संपादकीय : 2017 से चल रहा बुलडोजरी  इंसाफ और जस्टिस चन्द्रचूड़

सुप्रीम कोर्ट ने उत्तरप्रदेश सरकार पर इस बात को लेकर भारी नाराजगी जाहिर की है कि उसने बिना नोटिस सडक़ किनारे के एक घर को गिरा दिया। मनोज टिबरेवाल नाम के इस आदमी के घरतले सडक़ किनारे के कुल 3.7 मीटर से कम की जगह पर कब्जा था, लेकिन इसके लिए पूरे घर को बुलडोजर से गिरा दिया गया, और इस आदमी ने जब सुप्रीम कोर्ट को चिट्ठी लिखी तो अदालत ने, चीफ जस्टिस डी.वाई.चन्द्रचूड़ ने इसे खुद होकर एक केस की तरह दर्ज किया, और उसकी सुनवाई शुरू की। इस पर यूपी सरकार को इस मकान मालिक को 25 लाख रूपए मुआवजा देने का हुक्म देते हुए अदालत ने इस बात को दोहराया कि तोडफ़ोड़ के बारे में सुप्रीम कोर्ट से देश भर में जो आदेश पहले जारी किए गए थे, उनका सभी राज्य सख्ती से पालन करें। यह मामला 2019 में सडक़ चौड़ीकरण के लिए किनारे के कब्जों और निर्माणों को हटाने का था। यह मामला उत्तरप्रदेश से शुरू बुलडोजर जस्टिस किस्म का नहीं था जो कि 2017 में योगी सरकार ने शुरू किया, और जिसका निशाना मोटेतौर पर वे मुस्लिम लोग थे जो सरकार को किसी वजह से पसंद नहीं थे। इस बुलडोजर जस्टिस के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक अलग मामला चल ही रहा है, जिसे लेकर जजों ने पूरे देश के लिए दिशा-निर्देश बनाने का काम शुरू किया है। 2017 से यूपी में शुरू किए गए बुलडोजरी-इंसाफ को बाद में मध्यप्रदेश जैसे दूसरे भाजपा-राज्यों ने भी अपना लिया, और किसी भी तरह के जुर्म में किसी का नाम आने पर उस आरोपी के घर-दुकान सबको गिरा देने के लिए कोई पुराने नोटिस ढूंढकर निकाल लिए जाते हैं, और दो-चार दिन के आखिरी नोटिस के बाद छांट-छांटकर उन चुनिंदा ढांचों को गिरा दिया जाता है। जाहिर तौर पर यह उस इलाके के बाकी अवैध निर्माणों से परे का मामला रहता है, और कई जगहों पर तो सरकार की नजरें तिरछी होते ही अधिकारी जनता के एक तबके की फरमाईश पर बुलडोजर लेकर पहुंच जाते हैं, और किसी आरोपी के परिवार के और लोगों के नाम से बने हुए निर्माण भी गिरा देते हैं। हम बरसों से इसके खिलाफ लिखते चले आ रहे हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अभी कुछ महीने पहले से ही इस मामले की सुनवाई शुरू की है, और यह पाया है कि यह राजनीतिक और अफसरी मनमानी के अलावा और कुछ नहीं है। अदालत ने यह साफ किया है कि किसी व्यक्ति पर आरोप लगने से, या उसे सजा हो जाने से भी उसके परिवार के किसी निर्माण को अलग से छांटकर गिरा देने का अधिकार किसी सरकार को नहीं मिल जाता। लेकिन जिन हजारों मकान-दुकान को यूपी-एमपी सरकारों ने साम्प्रदायिक आधार पर अंधाधुंध गिराया, उनमें से किसी को मुआवजा सुप्रीम कोर्ट ने दिलवाया हो ऐसा याद नहीं पड़ता। बल्कि हाल ही में जब कुछ जनसंगठन सुप्रीम कोर्ट पहुंचे, और अदालत से कहा कि उसके साफ-साफ हुक्म के बाद भी कुछ राज्य सरकारें बुलडोजर से इसी तरह की तोडफ़ोड़ जारी रखे हुए है, तो अदालत ने इन संगठनों की अपील सुनने से मना कर दिया, और कहा कि जो प्रभावित परिवार हैं वे सामने आएंगे, तो अदालत उन्हें सुनेगी।

सुप्रीम कोर्ट का रूख बड़ी निराशा पैदा करता है, और कुछ रहस्यमय भी लगता है। जिन सैकड़ों या हजारों घर-दुकान को अफसरों ने रातोंरात गिरा दिया, और जिनमें से अधिकतर मुस्लिमों के थे, उनमें से किसी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह हर्जाना दिलवाया हो, ऐसा याद नहीं पड़ता है, जबकि उन मामलों में सरकारों का एक साम्प्रदायिक नजरिया भी खुलकर सामने आया है। अब सडक़ चौड़ीकरण के एक मामले में मनोज टिबरेवाल नाम के एक व्यक्ति के मकान को पूरा गिरा देने पर सुप्रीम कोर्ट ने यह मुआवजा देने का आदेश दिया है। 2017 से जो सिलसिला लगातार सुर्खियों में बना हुआ था, और देश के हर अखबार, हर टीवी चैनल पर मुस्लिमों के नामों सहित रातोंरात उनके परिवारों के निर्माण गिरा देने के नजारे बने हुए थे। सुप्रीम कोर्ट किस तरह उन मामलों पर सोया हुआ था, यह समझने में हमें कुछ दिक्कत हो रही है। सुप्रीम कोर्ट के मामलों को कवर करने वाली एक वेबसाईट, सुप्रीमकोर्ट ऑब्जर्वर की एक रिपोर्ट बताती है कि 2022 से अब तक देश में डेढ़ लाख से अधिक मकानों को बुलडोजरों से गिरा दिया गया है, जिनमें 7 लाख 38 हजार लोग बेघर हो गए हैं। इनमें से बहुत से मामलों में सिर्फ एक बात लागू होती थी कि निर्माण से परे के किसी विवाद में इन परिवारों के किसी का नाम जुड़ जाना। आरोपियों के नाम की, या उनके परिवार की प्रॉपर्टी को कोई पुराना नोटिस ढूंढकर गिरा देने का सिलसिला चले आ रहा था। 2022 से अलग-अलग कई हाईकोर्ट में ऐसे मामले चल रहे थे, और कुछ अदालतों ने तो मनमानी बुलडोजरी-इंसाफ के खिलाफ आदेश देते हुए मुआवजा देने को भी कहा था। सुप्रीम कोर्ट ने अभी इसी बरस सितंबर के महीने से इसकी सुनवाई चालू की, और जज सारे मामलों को सुनकर हक्का-बक्का रह गए। वह सुप्रीम कोर्ट की एक अलग बेंच है जिसमें दूसरे दो जज हैं, और अभी कल के इस ताजा आदेश में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश वाली तीन जजों की बेंच ने मुआवजे का आदेश दिया है।

हम अदालती जटिलताओं में एक सीमा से अधिक घुसना नहीं चाहते, और एक सामान्य समझबूझ के व्यक्ति की तरह यह सवाल सामने रख रहे हैं कि जस्टिस चन्द्रचूड़ की अगुवाई वाली बेंच ने इस नए मामले पर मुआवजे का जो फैसला दिया है, उस तरह का अदालती फैसला पहले के दूसरे हजारों मामले में क्यों नहीं दिए गए? और तो और सुप्रीम कोर्ट की मौजूदा बेंच ने सितंबर से चल रही एक व्यापक सुनवाई के तहत दिए गए आदेशों की कई राज्यों में अनदेखी की शिकायतों को भी सुनने से इंकार कर दिया कि प्रभावित पक्ष खुद आएं। जो बेघर हो गए हैं, बेरोजगार हो गए हैं, जिनके सिर पर छत नहीं रह गई, उनकी क्षमता क्या इतनी हो सकती है कि वे खुद सुप्रीम कोर्ट पहुंच सकें? और अगर अदालत की अवमानना के ऐसे मामले कोई जनसंगठन उठाते हैं, तो अदालत को उन्हें क्यों नहीं सुनना चाहिए?

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ का यह शायद आखिरी हफ्ता चल रहा है, और जाते-जाते उन्होंने 2017 से देश में चल रहे बुलडोजरी-इंसाफ पर पहली बार कोई आदेश दिया है, और यह आदेश भी बेइंसाफी के शिकार अल्पसंख्यक समुदाय के किसी मामले में नहीं है, और सडक़ किनारे कुछ अवैध कब्जे वाले एक हिन्दू-पत्रकार की याचिका पर है। हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट के जजों की नीयत एकदम ही पाक-साफ हो, लेकिन 2017 से देश में चल रहे बुलडोजरी-इंसाफ पर अपने पूरे कार्यकाल में मुख्य न्यायाधीश ने अब तक पूरे देश के लिए कोई फैसला क्यों नहीं दिया था? क्यों राज्य सरकारों का हौसला अभी भी सुप्रीम कोर्ट की एक दूसरी बेंच के साफ-साफ आदेश के खिलाफ जाकर बुलडोजरी-तोडफ़ोड़ करने का जारी है? ऐसे कई सवाल परेशान करते हैं। जस्टिस चन्द्रचूड़ को अपने आराध्य के सामने बैठकर इस बारे में मार्गदर्शन पाना चाहिए कि अपनी भावी किसी आत्मकथा में वे अपनी बुलडोजर से भी विकराल अनदेखी के बारे में कितना लंबा चैप्टर लिखें? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


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