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बढ़ते स्क्रीन टाइम का बच्चों के दिमाग पर क्या असर पड़ता है?
03-Aug-2025 10:45 PM
बढ़ते स्क्रीन टाइम का बच्चों के दिमाग पर क्या असर पड़ता है?

-जो क्लाइमैन

कुछ दिन पहले जब मैं घरेलू कामों में व्यस्त थी तो मैंने अपने सबसे छोटे बच्चे को उसका ध्यान बंटाने के लिए आईपैड दे दिया। लेकिन थोड़ी देर बाद मैं अचानक थोड़ी असहज हो गई और उससे कहा कि अब इसे बंद करने का समय हो गया है।

असल में मैं इस बात पर नजऱ नहीं रख पा रही थी कि वह कितनी देर से इसका इस्तेमाल कर रहा है या वह क्या देख रहा है।

फिर तो जैसे तूफान आ गया। वह चिल्लाया, पैर चलाए, आईपैड को पकड़ कर बैठ गया और मुझे दूर धकेलने की कोशिश करने लगा, पूरे गुस्से में और पांच साल के छोटे बच्चे की पूरी ताकत के साथ।

ईमानदारी से कहूं तो ये मेरे लिए बेहद परेशान करने वाला लम्हा था। मेरे बच्चे की तीखी प्रतिक्रिया मुझे परेशान कर गई।

मेरे बड़े बच्चे सोशल मीडिया, वर्चुअल रिएलिटी और ऑनलाइन गेमिंग की दुनिया में कदम रख चुके हैं और कई बार वह भी चिंता का कारण बनता है।

एपल के पूर्व सीईओ स्टीव जॉब्स, जिनके सीईओ रहते आईपैड लॉन्च हुआ था, उन्होंने कहा था कि वो अपने बच्चों को ये डिवाइस इस्तेमाल नहीं करने देते। बिल गेट्स ने भी कहा था कि उन्होंने अपने बच्चों के लिए गैजेट्स के इस्तेमाल की सीमा तय कर दी थी।

स्क्रीन टाइम अब बुरी ख़बर का पर्याय बन चुका है। इसे युवाओं में डिप्रेशन, व्यवहार संबंधी समस्याएं और नींद की कमी जैसी समस्याओं के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है।

मशहूर न्यूरोसाइंटिस्ट बैरोनेस सुसान ग्रीनफ़ील्ड ने तो यहां तक कहा है कि इंटरनेट का इस्तेमाल और कंप्यूटर गेम्स किशोर मस्तिष्क को नुकसान पहुंचा सकते हैं।

2013 में उन्होंने लंबे स्क्रीन टाइम के नकारात्मक प्रभावों की तुलना जलवायु परिवर्तन के शुरुआती दौर से की थी, यानी एक ऐसा बड़ा बदलाव जिसे लोग गंभीरता से नहीं ले रहे थे।

आज बहुत से लोग इस मुद्दे को पहले से ज़्यादा गंभीरता से ले रहे हैं। लेकिन स्क्रीन के नकारात्मक पक्ष को लेकर दी जाने वाली चेतावनियां शायद पूरी तस्वीर नहीं दिखातीं।

ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में छपे एक संपादकीय में कहा गया कि बैरोनेस ग्रीनफील्ड के मस्तिष्क संबंधी दावे ‘वैज्ञानिक तथ्यों के निष्पक्ष विश्लेषण पर आधारित नहीं हैं और वे अभिभावकों व आम लोगों को ग़लत दिशा में ले जाते हैं।’

ब्रिटेन के कुछ अन्य वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि स्क्रीन टाइम के दुष्प्रभावों को लेकर पुख़्ता वैज्ञानिक सबूतों की कमी है। तो क्या हम अपने बच्चों की स्क्रीन एक्सेस को लेकर जो चिंता कर रहे हैं वह सही दिशा में है या नहीं?

क्या जितना दिखता है, ये उससे भी बुरा है?

बैथ स्पा यूनिवर्सिटी में साइकोलॉजी के प्रोफेसर पीट एचेल्स उन वैज्ञानिकों में शामिल हैं जो मानते हैं कि स्क्रीन टाइम के नुकसान को लेकर पर्याप्त सबूत नहीं हैं। उन्होंने स्क्रीन टाइम और मानसिक स्वास्थ्य पर सैकड़ों रिसर्च स्टडीज का विश्लेषण किया है, साथ ही युवाओं की स्क्रीन से जुड़ी आदतों का बड़ा डेटा भी खंगाला है।

अपनी किताब ‘अनलॉक्ड : द रियल साइंस ऑफ़ स्क्रीन टाइम’ में उन्होंने तर्क दिया है कि जो अध्ययन मीडिया की सुर्खियां बनते हैं, उनके पीछे की वैज्ञानिक प्रक्रिया अक्सर अधूरी या गलत होती है।

वह लिखते हैं, ‘स्क्रीन टाइम के भयावह नतीजों को लेकर जो कहानियां गढ़ी गई हैं, उन्हें पुख्ता वैज्ञानिक तथ्यों से समर्थन नहीं मिलता।’

2021 में अमेरिकन साइकोलॉजी एसोसिएशन द्वारा प्रकाशित एक रिसर्च में भी इसी तरह की बात कही गई थी। दुनियाभर की अलग-अलग यूनिवर्सिटी से जुड़े 14 लेखकों ने 2015 से 2019 के बीच प्रकाशित 33 अध्ययनों का विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि स्मार्टफ़ोन, सोशल मीडिया और वीडियो गेम का इस्तेमाल मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं के लिए ‘बहुत ज़्यादा जिम्मेदार’ नहीं है।

कुछ शोध में यह जरूर कहा गया है कि स्क्रीन से निकलने वाली नीली रोशनी मेलाटोनिन हॉर्मोन को दबा देती है, जिससे नींद आने में दिक्कत होती है। लेकिन 2024 में दुनियाभर के 11 अध्ययनों की समीक्षा करने वाले एक शोध ने यह निष्कर्ष दिया कि सोने से एक घंटे पहले स्क्रीन देखने से नींद में कोई बड़ी परेशानी आती है इसके कोई ठोस प्रमाण नहीं हैं।

विज्ञान की समस्या

प्रोफेसर एचेल्स बताते हैं कि स्क्रीन टाइम से जुड़े अधिकांश आंकड़े एक बड़ी समस्या से जूझते हैं। ये डेटा ज़्यादातर ‘सेल्फ-रिपोर्टिंग’ पर आधारित होता है। यानी रिसर्चर सीधे युवाओं से पूछते हैं कि उन्होंने कितना समय स्क्रीन पर बिताया और उन्हें कैसा महसूस हुआ।

वह यह भी तर्क देते हैं कि इतने बड़े डेटा सेट की व्याख्या करने के लाखों तरीके हो सकते हैं। वह कहते हैं, ‘हमें सहसंबंध को देखकर सावधानी बरतनी चाहिए।’

वह इसका उदाहरण देते हैं कि गर्मी के मौसम में आइसक्रीम की बिक्री और स्किन कैंसर के लक्षणों में सांख्यिकीय रूप से एक साथ वृद्धि देखी जाती है। दोनों घटनाएं गर्म मौसम से जुड़ी हैं लेकिन आपस में नहीं। आइसक्रीम स्किन कैंसर का कारण नहीं बनती।

वह एक रिसर्च प्रोजेक्ट को भी याद करते हैं, जो एक जनरल फिजिशियन की टिप्पणी से प्रेरित था। डॉक्टर ने दो बातें नोट की थीं। पहली, कि वह अब पहले से ज़्यादा युवाओं से डिप्रेशन और एंग्जायटी को लेकर बातें कर रहे थे और दूसरी, कि बहुत से युवा क्लीनिक के वेटिंग रूम में मोबाइल फोन का इस्तेमाल कर रहे थे।

प्रोफेसर बताते हैं, ‘तो हमने डॉक्टर के साथ मिलकर काम किया और कहा, ठीक है इसे जांचते हैं। हम डेटा का इस्तेमाल करके इस रिश्ते को समझने की कोशिश कर सकते हैं।’

रिसर्च में पाया गया कि फोन के इस्तेमाल और मानसिक स्वास्थ्य की परेशानी में संबंध तो था लेकिन एक और अहम फैक्टर सामने आया। जो युवा डिप्रेशन या एंग्ज़ायटी से जूझ रहे थे, वे अक्सर अकेले ज़्यादा समय बिता रहे थे।

अंतत: स्टडी ने यह संकेत दिया कि मानसिक स्वास्थ्य की इन चुनौतियों के पीछे असली वजह अकेलापन था, न कि सिर्फ स्क्रीन टाइम।

‘डूमस्क्रॉलिंग’ क्या होती है?

इसके अलावा एक और अहम बात अक्सर छूट जाती है, स्क्रीन टाइम की प्रकृति। प्रोफेसर एचेल्स का तर्क है कि ‘स्क्रीन टाइम’ शब्द अपने आप में बहुत अस्पष्ट है। क्या वह अनुभव प्रेरणादायक था? क्या वह उपयोगी था? सूचनात्मक था? या फिर वह सिर्फ ‘डूमस्क्रॉलिंग’ (बेवजह परेशान करने वाला) था? क्या वह युवा अकेले थे या दोस्तों से ऑनलाइन बातचीत कर रहे थे?

हर स्थिति एक अलग अनुभव पैदा करती है।

अमेरिका और ब्रिटेन के शोधकर्ताओं द्वारा की गई एक स्टडी में 9 से 12 साल के बच्चों के 11हज़ार 500 ब्रेन स्कैन, उनके स्वास्थ्य मूल्यांकन और खुद रिपोर्ट किए गए स्क्रीन टाइम डेटा का विश्लेषण किया गया।

स्टडी में यह ज़रूर पाया गया कि स्क्रीन इस्तेमाल के तरीके ब्रेन के अलग-अलग हिस्सों की कनेक्टिविटी में बदलाव से जुड़े हो सकते हैं, लेकिन ऐला कोई सबूत नहीं मिला कि स्क्रीन टाइम का मानसिक स्वास्थ्य या संज्ञानात्मक क्षमता पर नकारात्मक असर पड़ता है। यहां तक कि उन बच्चों पर भी जो दिन में कई घंटे स्क्रीन का इस्तेमाल करते हैं।

यह स्टडी 2016 से 2018 के बीच चली और इसकी निगरानी ऑक्सफर्ड़ यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर एंड्रयू प्रिजबिल्स्की ने की, जिन्होंने वीडियो गेम और सोशल मीडिया के मानसिक स्वास्थ्य पर असर को लेकर व्यापक रिसर्च की है। उनके अध्ययन दिखाते हैं कि ये दोनों माध्यम मानसिक स्वास्थ्य को नुकसान नहीं बल्कि फायदा भी पहुंचा सकते हैं।

प्रोफेसर एचेल्स कहते हैं, ‘अगर यह सच होता कि स्क्रीन मस्तिष्क को नुकसान पहुंचाती है तो इतने बड़े डेटा सेट में यह साफ़ दिखाई देता। लेकिन ऐसा नहीं है। तो यह धारणा कि स्क्रीन का इस्तेमाल दिमाग को लगातार या स्थायी रूप से नुकसान पहुंचा रहा है, फिलहाल तो सही नहीं लगती।’

कार्डिफ यूनिवर्सिटी में ब्रेन स्टिमुलेशन विभाग के प्रमुख प्रोफेसर क्रिस चेम्बर्स भी इसी राय से सहमत हैं। प्रोफेसर एचेल्स की किताब में उनका हवाला दिया गया है, जिसमें वह कहते हैं, ‘अगर कोई गिरावट होती, तो वह साफ दिखती।’

‘पिछले 15 साल के शोधों को देखना आसान होताज् अगर हम पर्यावरण में बदलावों के प्रति इतने संवेदनशील होते तो हम आज अस्तित्व में नहीं होते।’

‘हमें बहुत पहले ही विलुप्त हो जाना चाहिए था।’

‘मेंटल हेल्थ के लिए जटिल फार्मूला’

प्रोफेसर प्रिजबिल्स्की और प्रोफ़ेसर एचेल्स में से कोई भी कुछ ऑनलाइन खतरों, जैसे कि ग्रूमिंग या अश्लील और नुकसानदेह कंटेंट से संपर्क की गंभीरता को नकारते नहीं हैं। लेकिन दोनों का मानना है कि स्क्रीन टाइम को लेकर चल रही मौजूदा बहस इसे और अधिक छिपे तौर पर होने वाली गतिविधियों में बदलने का ख़तरा पैदा कर सकती है।

प्रोफेसर प्रिजबिल्स्की को इस बात की चिंता है कि डिवाइसेज पर पाबंदी लगाने या उनके इस्तेमाल को सीमित करने की दलीलों से उल्टा असर हो सकता है। उनके मुताबिक, अगर स्क्रीन टाइम पर बहुत कड़ाई से नजऱ रखी गई तो यह बच्चों के लिए ‘मनाही’ जैसा बन सकता है।

हालांकि बहुत से लोग इससे असहमत हैं। ब्रिटेन के एक कैंपेन ग्रुप स्मार्टफोन फ्री चाइल्डहुड का कहना है कि अब तक डेढ़ लाख लोग उनके उस संकल्प पर हस्ताक्षर कर चुके हैं, जिसमें 14 साल से छोटे बच्चों को स्मार्टफोन न देने और सोशल मीडिया की पहुंच 16 साल की उम्र तक टालने की मांग की गई है।

सैन डिएगो स्टेट यूनिवर्सिटी में साइकोलॉजी की प्रोफेसर जीन ट्वेंग ने जब अमेरिका में किशोरों में बढ़ते डिप्रेशन पर रिसर्च शुरू की थी, तो उनका मक़सद यह साबित करना नहीं था कि सोशल मीडिया और स्मार्टफोन ‘बहुत बुरे’ हैं, जैसा कि वह बताती हैं।

अब वे मानती हैं कि बच्चों को स्क्रीन से दूर रखना एक बिल्कुल साफ-सुथरा फैसला है और वह अभिभावकों से अपील कर रही हैं कि बच्चों और स्मार्टफोन के बीच दूरी को जितना संभव हो उतना बनाए रखें।

वह कहती हैं, ‘बच्चों का दिमाग 16 साल की उम्र में ज़्यादा विकसित और परिपक्व होता है। साथ ही स्कूल और दोस्ती का सामाजिक माहौल भी 12 साल की उम्र के बजाय 16 की उम्र में ज़्यादा स्थिर होता है।’

हालांकि प्रोफेसर ट्वेंग इस बात से सहमत हैं कि युवाओं के स्क्रीन इस्तेमाल से जुड़े डेटा का बड़ा हिस्सा खुद बताया गया होता है, लेकिन उनका कहना है कि इससे सबूतों की विश्वसनीयता कम नहीं होती।

2024 में प्रकाशित एक डेनिश स्टडी में 89 परिवारों के 181 बच्चों को शामिल किया गया था। दो हफ्तों तक इनमें से आधे बच्चों को प्रति सप्ताह केवल तीन घंटे का स्क्रीन टाइम दिया गया और उनके टैबलेट व स्मार्टफोन जमा कर लिए गए।

स्टडी में निष्कर्ष निकाला गया कि स्क्रीन मीडिया को कम करने से ‘बच्चों और किशोरों के मनोवैज्ञानिक लक्षणों पर सकारात्मक असर’ पड़ा और ‘सामाजिक सहयोगी व्यवहार’ में सुधार देखा गया, हालांकि यह भी कहा गया कि इस दिशा में और शोध की जरूरत है।

वहीं, एक ब्रिटिश स्टडी में, जिसमें प्रतिभागियों से स्क्रीन टाइम की टाइम डायरी रखने को कहा गया था, यह पाया गया कि लड़कियों में सोशल मीडिया का अधिक इस्तेमाल अक्सर डिप्रेशन की भावनाओं से जुड़ा हुआ था।

प्रोफेसर ट्वेंग कहती हैं, ‘आप उस फॉर्मूले को देखिए। ज़्यादातर समय स्क्रीन के साथ, वह भी अकेले। नींद कम, दोस्तों के साथ आमने-सामने वक्त बिताने का समय कम। यह मानसिक स्वास्थ्य के लिए बेहद खराब फॉर्मूला है।’ ‘मुझे समझ नहीं आता कि इसमें विवाद की क्या बात है।’

अभिभावकों में चिंता

जब मेरी प्रोफेसर एचेल्स से बात होती है, तो वह वीडियो चैट के ज़रिए होती है। इस दौरान उनके एक बच्चे और पालतू कुत्ते का आना-जाना लगा रहता है। मैं उनसे पूछती हूं कि क्या वाकई स्क्रीन बच्चों के दिमाग की संरचना को बदल रही हैं, तो वह हँसते हैं और समझाते हैं कि हर चीज दिमाग को बदलती है, इंसान ऐसे ही सीखता है।

हालांकि, वह ये भी साफ़ तौर पर दिखाते हैं कि अभिभावकों की चिंताओं को वह समझते हैं और उनके प्रति सहानुभूति रखते हैं।

अभिभावकों के लिए मुश्किल यह है कि इस विषय पर कोई स्पष्ट दिशानिर्देश नहीं है और यह बहस अक्सर पक्षपात और आलोचना से भरी होती है।

मिशिगन यूनिवर्सिटी की पीडियाट्रिशियन जेनी रेडेस्की ने डाना फ़ाउंडेशन जैसे परोपकारी मंच पर बोलते हुए इस बहस का सार पेश किया। उनका तर्क था कि माता-पिता के बीच ‘निरंतर बढ़ती हुई चिंता’ देखी जा रही है।

उन्होंने कहा, ‘लोग जिस तरह से इस मुद्दे पर बात कर रहे हैं, उससे रिसर्च को समझने में मदद कम और माता-पिता को अपराधबोध महसूस कराने की प्रवृत्ति ज़्यादा दिखती है।’

‘और यही असल समस्या है।’

अब पीछे मुडक़र देखती हूं तो उस वक्त मेरे सबसे छोटे बच्चे का आईपैड को लेकर किया गया गुस्सा मुझे सतर्क कर गया था। लेकिन अब सोचती हूं तो वैसी ही प्रतिक्रियाएं मैंने बाकी समय भी देखी हैं। जैसे जब वह अपने भाइयों के साथ छुपन-छुपाई खेल रहा होता है और सोने की तैयारी नहीं करना चाहता।

स्क्रीन टाइम का मुद्दा मेरी दूसरी अभिभावकों से बातचीत में भी बार-बार आता है। हममें से कुछ लोग इस मामले में ज़्यादा सख्त हैं, कुछ कम।

लेकिन फिलहाल आधिकारिक सलाह स्पष्ट नहीं है। न ही अमेरिका की अमेरिकन एकेडमी ऑफ़ पीडियाट्रिक्स और न ही ब्रिटेन का रॉयल कॉलेज ऑफ़ पीडियाट्रिक्स एंड चाइल्ड हेल्थ बच्चों के लिए कोई तय स्क्रीन टाइम सीमा सुझाते हैं।

वहीं, विश्व स्वास्थ्य संगठन की सलाह है कि एक साल से कम उम्र के बच्चों को बिल्कुल भी स्क्रीन टाइम न दिया जाए और चार साल से कम उम्र के बच्चों को एक दिन में एक घंटे से ज़्यादा नहीं। हालांकि जब आप इसकी नीति को ध्यान से पढ़ते हैं तो साफ होता है कि इसका मकसद शारीरिक गतिविधियों को प्राथमिकता देना है।

इस पूरे मुद्दे की एक बड़ी चुनौती यह भी है कि स्क्रीन टाइम को लेकर कोई ठोस वैज्ञानिक सहमति अब तक नहीं बन सकी है। यही वजह है कि वैज्ञानिक समुदाय इस पर बंटा हुआ है। जबकि समाज में बच्चों की स्क्रीन एक्सेस सीमित करने को लेकर दबाव लगातार बढ़ रहा है।

और जब तय दिशानिर्देश ही नहीं हैं, तो क्या हम एक असमानता को बढ़ावा दे रहे हैं, जहां कुछ बच्चे वयस्क होने तक टेक-सेवी हो जाते हैं, जबकि अन्य पीछे रह जाते हैं और शायद इस वजह से और ज़्यादा असुरक्षित भी?

किसी भी स्थिति में बहुत कुछ दांव पर है। अगर वाकई स्क्रीन बच्चों को नुकसान पहुंचा रही है तो इस बात को विज्ञान साबित करे। इसमें सालों लग सकते हैं। और अगर विज्ञान आखिरकार यह कहता है कि नुकसान नहीं है तो हम न केवल ऊर्जा और संसाधन व्यर्थ करेंगे, बल्कि बच्चों को एक ऐसे उपकरण से दूर रखने की कोशिश कर रहे होंगे जो बेहद उपयोगी भी हो सकता है।

इसी दौरान, टेक्नोलॉजी तेज़ी से बदल रही है। स्क्रीन अब चश्मा बन रही है, सोशल मीडिया छोटे समूहों में सिमट रहा है और लोग होमवर्क या थेरेपी जैसी चीजों में एआई चैटबॉट्स का इस्तेमाल कर रहे हैं।

यानी तकनीक हमारे जीवन में पहले से मौजूद है, चाहे हम बच्चों को इसकी इजाजत दें या न दें।

चित्रांकन: जोडी लाइ

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