राजपथ - जनपथ
सबकी टिकट कटने वाली है?
गुजरात फार्मूले के बाद प्रदेश भाजपा में काफी बेचैनी है। शिव प्रकाश ने रायपुर में एक कार्यक्रम के बीच में यह कह गए कि गुजरात फार्मूला कहीं भी संभव है। यदि यह फार्मूला लागू हुआ, तो दिग्गजों की टिकट काटकर नए चेहरों को आगे लाया जा सकता है।
वैसे भी छत्तीसगढ़ में लोकसभा चुनाव में सारी टिकट बदलकर नए चेहरों को टिकट देने का प्रयोग सफल रहा है, और अब पार्टी के कई नेता आपसी चर्चा में हारे हुए नेताओं को टिकट नहीं देने की वकालत कर रहे हैं। खैर, विधानसभा चुनाव अभी दूर है, लेकिन गुजरात फार्मूले का उदाहरण देकर कांग्रेस नेता, भाजपाइयों पर तंज कसने से नहीं चूक रहे हैं। सीएम भूपेश बघेल ने तो भविष्यवाणी कर दी है कि भाजपा में सबकी टिकट कटने वाली है।
पिछले दिनों रायपुर के एक होटल में मीडिया कर्मी के जन्मदिन पार्टी में बृजमोहन अग्रवाल पहुंचे, तो कांग्रेस के नेता उनसे गुजरात फार्मूले पर काफी देर गपियाते रहे। और जब वो (बृजमोहन) निकलने की तैयारी कर रहे थे तभी संजय श्रीवास्तव वहां पहुंचे। संजय श्रीवास्तव को देखकर शैलेष नितिन त्रिवेदी ने मजाकिया लहजे में बृजमोहन से कहा, आप जाइए। आपकी कुर्सी पर संजय श्रीवास्तव बैठेंगे।
बृजमोहन कुछ बोल पाते, इसके पहले ही विकास तिवारी, शैलेश की टिप्पणी का मतलब समझाने लगे और कहा कि आप रायपुर दक्षिण की सीट खाली कीजिए, उसमें संजयजी लड़ेंगे। इस पर बृजमोहन मुस्कुराकर निकल गए। संजय श्रीवास्तव के भी खुशी का ठिकाना नहीं रहा, और बृजमोहन के जाने के बाद विकास तिवारी को गले से लगा लिया।
थोड़ी तसल्ली मिली...
धर्मांतरण मसले पर भाजपा आक्रामक दिख रही है। प्रदेश अध्यक्ष विष्णुदेव साय कुछ नेताओं के साथ सेंट्रल जेल पहुंचकर पुरानी बस्ती थाने में मारपीट करने वाले युवा मोर्चा से मिलने पहुंच गए। युवा मोर्चा के तीन कार्यकर्ता हफ्ते-दस दिन से जेल में बंद है। परेशान युवा मोर्चा कार्यकर्ताओं ने जेलर के कक्ष में विष्णुदेव साय से हाथ जोडक़र गुजारिश की कि बहुत दिन हो गए हैं, और जमानत करा दीजिए।
साय ने उन्हें सांत्वना दी कि आप लोग राष्ट्रहित में जेल में हैं। आपने कोई गलत काम नहीं किया है। इस मौके पर राजेश मूणत ने कार्यकर्ताओं को समझाइश दी, कि वो भी विरोध प्रदर्शन करते हुए कई बार जेल जा चुके हैं, लेकिन कोई मिलने नहीं आता था। अब खुद प्रदेश अध्यक्ष आपसे मिलने आए हैं। तब जाकर कार्यकर्ताओं को थोड़ी तसल्ली मिली।
कौवों पर पड़ी पर्यावरण की मार...
पूरी दुनिया में कौवों को लेकर तरह-तरह की धार्मिक मान्यताएं हैं। अपने देश में तो कागशास्त्र जैसे ग्रंथ लिखे गए, तुलसीदास ने काग भुसुंडी के चरित्र का अपने काव्य में विस्तार से वर्णन किया है। भले ही वैज्ञानिक कहते हैं कि कौवे चिंपाजी की तरह तेज दिमाग वाले होते हैं पर उसे आम दिनों में अशुभ पक्षी माना जाता है। उसकी पूछ परख होती है मकर संक्रांति और पितृपक्ष में।
कुछ साल पहले एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था। वीडियो क्लिप शायद बंगाल की थी। इसमें कौवों के पैर बांध दिए गए थे और लोग पितरों के नाम का भोग लाकर उसके सामने रख रहे थे। कौवे जिसका भोग ग्रहण करते थे वे खुश हो जाते थे और जिनका भोग वह ग्रहण नहीं करता था, वे मायूस लौट रहे थे। पितृ पक्ष को मानने वालों की आस्था है कि कौवे ने भोजन या प्रसाद ग्रहण कर लिया तो वह उनके पूर्वजों को मिल जाता है।
इधर, कौवे अब कम दिखाई देते हैं। पहले छतों के ऊपर आसमान में झुंड के झुंड उडऩे वाले कौवे इक्के दुक्के किसी डाली, मुंडेर में मिलते हैं। छत्तीसगढ़ ही नहीं बल्कि देश के दूसरे हिस्सों में भी शहरीकरण का ऐसे प्रभाव पड़ा है कि कौवों का ठिकाना उजड़ गया। पर्यावरण और प्राकृतिक संतुलन के लिए कौवों की मौजूदगी को जरूरी माना जाता है। यह मांसाहारी है, कीड़े मकोड़ों के अलावा चूहे इनको प्रिय हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि फसलों को चूहे नष्ट करते हैं। चूहों को खत्म करने के लिये खेत और गोदामों में जहरीली दवा डाली जाती है। ऐसे ही शहरों में भी घरों से चूहे जहर देकर भगाए जाते हैं। कौवों को यह जहरीला भोजन नसीब होने लगा और वे विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गये। सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो तो अपवाद है जिसमें कौवों को बांध कर रखा गया है। अब लोग पितरों और अपनी नसीब के सहारे छत या आंगन में भोजन छोड़ देते हैं। कोई पक्षी आए तो ठीक, ना आए तो भी ठीक। पर रायपुर जैसे शहरों में ऐसे भी लोग दिख जाएंगे जो कांक्रीट के जंगल से निकलकर शहर के आउटर हिस्से में पूर्वजों का प्रसाद लेकर निकल पड़ते हैं। कई बार उनकी तलाश पूरी भी हो जाती है।
नहीं चाहिए नया, पुराने में रहने दो..
नए जिलों के बनने से सरकारी योजनाओं का लाभ आम लोगों तक पहुंचाना आसान हो जाता है। कानून व्यवस्था को भी चुस्त किया जा सकता है। पर कई दिक्कतें भी खड़ी तो जाती हैं। खासकर उन लोगों को जो विभाजन के बाद नए जिले के आखिरी छोर में आ जाते हैं। एक समझ बनी है सरिया और बरमकेला के लोगों की। वे नए जिले सारंगढ़ में शामिल होने के लिए तैयार नहीं हैं। पंचायतों में बैठकें हो रही है। विरोध की रणनीति बनाई जा रही है। दोनों ब्लॉक के लोग कह रहे हैं कि उन्हें रायगढ़ में ही रहना है। रायगढ़ में उद्योग हैं इसलिए यहां रोजगार, स्वास्थ्य और शिक्षा की सुविधा है। दूसरी ओर सारंगढ़ में ऐसा ढांचा विकसित होने में कितना समय लगता है कह नहीं सकते। पहले बने नये जिलों का हाल उन्हें मालूम है। कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए भी यह मसला गंभीर हो चुका है। जो लोग पुराने जिले में रहना चाहते हैं उनकी रायगढ़ और सरिया विधानसभा में निर्णायक भूमिका है। समझ नहीं पा रहे हैं कि विरोध में साथ दें या नहीं। ऐसा ही हुआ था जब पसान इलाके के 16 गावों के लोग नए जीपीएम जिले में रखे जाने पर नाराजगी जताई थी। वे कोरबा में ही रहना चाहते हैं। यह मुद्दा अभी सुलझाने के वादे पर शांत है।
भाजपा का अल्पसंख्यक प्रतिनिधि...
सन 2003 में जब डॉ. रमन सिंह के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी तब दो चरणों में मंत्रिमंडल में 17 विधायक शामिल कर लिए गए थे। मुख्यमंत्री सहित केबिनेट 18 की हो गई थी। पर ठीक एक साल बाद सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले की वजह से मंत्रिमंडल नए सदस्यों की संख्या 15 प्रतिशत तक सीमित रखने की बाध्यता सामने आ गई। उस समय पांच मंत्रियों को हटाना पड़ा जिनमें महेश बघेल, सत्यानंद राठिया, विक्रम उसेंडी, पूनम चंद्राकर और राजेंद्र पाल सिंह भाटिया थे। हालांकि हटाए गए मंत्रियों में ओबीसी और एसटी एससी मंत्री भी शामिल थे मगर छोटा किए जाने के बावजूद इन वर्गों का प्रतिनिधित्व मंत्रिमंडल में बना हुआ था। भाटिया के हटने से अल्पसंख्यक प्रतिनिधित्व मंत्रिमंडल में नहीं रहा। इसका काफी विरोध हुआ। सिख समाज के लिये यह प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया। उसके बाद भाटिया को सीएसआईडीसी का चेयरमैन बनाकर नाराजगी दूर करने की कोशिश की गई। सन् 2013 में जब भाजपा ने उन्हें टिकट नहीं दी तो वे निर्दलीय मैदान में उतर गए। भाजपा इसके चलते चुनाव हार गई और भाटिया दूसरे स्थान पर रहे। खुज्जी विधानसभा से कांग्रेस को जीत मिल गई।
राजनांदगांव इलाके में ही नहीं बल्कि छत्तीसगढ़ में भाजपा के अल्पसंख्यक आधार को मजबूत करने में भाटिया की बड़ी भूमिका रही।
कल उनका 72 वर्ष की आयु में दुखद निधन हो गया। अब तक जो बात सामने आ रही है वह यह है कि वह अपनी सेहत को लेकर परेशान थे।