राजपथ - जनपथ
निकले और प्रदेश छोड़ चले गए
कोयला घोटाले के आरोपी आईएएस रानू साहू, समीर विश्नोई, और सौम्या चौरसिया, खनिज अफसर संदीप नायक, और ट्रांसपोर्टर वीरेंद्र जायसवाल व रजनीकांत तिवारी रिहाई के बाद प्रदेश छोडक़र चले गए हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने आरोपियों को सशर्त जमानत दी है। उन्हें जमानत की अवधि में प्रदेश से बाहर रहना होगा। और एक हफ्ते में नए पते की सूचना जिला अदालत को देनी होगी।
बताते हैं कि सभी आरोपी शनिवार को कुछ घंटे अपने परिवार के साथ गुजारने के बाद अलग-अलग प्रदेशों में चले गए हैं। आरोपियों के वकील सोमवार को नए पते की सूचना कोर्ट को देंगे। समीर विश्नोई राजस्थान, और सौम्या कर्नाटक शिफ्ट होने की चर्चा है। कर्नाटक के बेंगलुरु में सौम्या के परिवार के सदस्य निवासरत हैं। बाकी आरोपियों का ठिकाना पड़ोसी राज्य मध्यप्रदेश होगा। इस प्रकरण में सूर्यकांत तिवारी भी आरोपी हैं, और वो जेल में बंद हैं। सूर्यकांत को पहली बार जांच एजेंसी ने बेंगलुरु से ही पकड़ा था।
कहा जा रहा है कि उनकी तरफ से सुप्रीम कोर्ट में जमानत आवेदन विलंब से पेश किया गया है। इसलिए बाकी आरोपियों की याचिका के साथ सुनवाई नहीं हो पाई। प्रकरण पर सुनवाई संभवत: अगले महीने हो सकती है। तब तक उन्हें जेल में ही रहना होगा।
वेतन आयोग फिलहाल प्राथमिकता नहीं
केंद्र सरकार द्वारा जनवरी 2025 में आठवें वेतन आयोग के गठन को मंजूरी दे दी थी। उसके बाद से पांच माह बीत गए हैं और अध्यक्ष सदस्यों की नियुक्ति को लेकर सरकार की चुप्पी ने लाखों सरकारी कर्मचारियों के बीच चिंता बढ़ा दी है। सरकार की प्राथमिकता अभी आयोग नहीं ऑपरेशन सिंदूर और पीओके हो गई है।
16 जनवरी के बाद से कर्मचारी हल्कों में लगातार अटकलें लगाई जा रही हैं लेकिन कोई ठोस जानकारी सामने नहीं आई है। यह स्थिति कर्मचारियों की बेचैनी बढ़ाने का काम कर रही है। हालांकि आयोग के लिए प्रतिनियुक्ति के आधार पर लगभग 35 पदों को भरने सर्कुलर जारी किया था ताकि आयोग का कार्यकारी ढांचा तैयार किया जा सके। मार्च 2025 तक आयोग के टर्म्स ऑफ रेफरेंस की समीक्षा के लिए रक्षा, गृह और कार्मिक जैसे प्रमुख मंत्रालयों को संदर्भ भेजे गए थे।
इन सभी तैयारियों से यह स्पष्ट था कि सरकार आयोग के गठन को लेकर गंभीर है। लेकिन इन प्रारंभिक कदमों के बाद भी मुख्य नियुक्तियों में देरी हो रही है जो चिंता का विषय है। विशेषज्ञों का मानना है कि इस देरी के पीछे कई जटिल प्रशासनिक और नीतिगत कारण हो सकते हैं। मई के अंत तक की स्थिति को देखते हुए 1 जनवरी 2026 की निर्धारित समयसीमा पूरी करना एक बड़ी चुनौती बनती जा रही है। वर्तमान में सातवें वेतन आयोग का कार्यकाल 31 दिसंबर 2025 को समाप्त हो रहा है और केवल सात महीने का समय बचा है।
पिछले वेतन आयोगों के अनुभव को देखते हुए आम तौर पर सिफारिशों को तैयार करने और लागू करने में 12 से 18 महीने का समय लगता है। यदि आयोग का गठन भी जून या जुलाई में हो जाता है तो भी समय सीमा पूरी करना कठिन लगता है। इस स्थिति में कर्मचारियों को धैर्य रखना होगा और वास्तविक अपेक्षाएं करनी होंगी। सरकार की प्राथमिकताओं और उपलब्ध संसाधनों को देखते हुए यह देरी अपरिहार्य लग रही है। वैसे भी अभी देश में कहीं कोई चुनाव नहीं है। बिहार के चुनाव आते आयोग भी काम शुरू कर देगा।
ग्रामसभा की असली ताकत, दो पहलू
धमतरी जिले की ग्राम पंचायत परेवाडीह में ग्रामीणों ने सर्वसम्मति से निर्णय लिया है कि वे गांव में मेडिकल कॉलेज की स्थापना के लिए भूमि देंगे। ग्रामीणों की आमसभा में सहमति बनने के बाद ग्राम पंचायत में प्रस्ताव लाया गया और सरपंच ने इस प्रस्ताव की स्वीकृति जिला प्रशासन को दी। यह पूरी प्रक्रिया पारदर्शी रही। एक सार्वजनिक बैठक हुई, गांव वालों के सामने प्रस्ताव रखा गया, लोगों ने राय दी और सहमति जताई, जिसके बाद पंचायत ने प्रस्ताव को आगे बढ़ाया।
यह घटना इसलिए गौर करने लायक है क्योंकि इसी पंचायत में कुछ समय पहले एग्रीकल्चर कॉलेज के लिए भी भूमि देने का प्रस्ताव लाया गया था। आरोप है कि उस समय सरपंच ने गांव के लोगों या पंचों से परामर्श किए बिना ही मंजूरी का पत्र संबंधित विभाग को भेज दिया था। जब ग्रामीणों को इसकी जानकारी मिली तो उन्होंने सरपंच और पंचों से सवाल किए। सरपंच का कहना था कि यह निर्णय गांव के विकास के लिए लिया गया था, जबकि पंचों ने कहा कि उन्हें इस निर्णय की जानकारी नहीं थी।
ग्रामीणों ने पंचों से सरपंच के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की मांग की। अविश्वास प्रस्ताव आने पर सरपंच पर्याप्त समर्थन जुटाकर पद पर बनी रहीं, लेकिन ग्रामीणों ने सरपंच के विरोध में धरना शुरू कर दिया। बाद में दबाव इतना बढ़ा कि सरपंच को इस्तीफा देना पड़ा।
जिस पंचायत के लोग पहले एग्रीकल्चर कॉलेज के लिए भूमि देने को तैयार नहीं थे, वही लोग मेडिकल कॉलेज के लिए राजी हो गए। इसके पीछे कारण यह बताया गया कि पहले भूमि आवंटन के मामले में ग्रामीणों को जानकारी नहीं थी और प्रस्ताव पर उनका कोई विचार नहीं लिया गया था। गांव में चारागाह, आवास योजना और अन्य जरूरतों के लिए भूमि की कमी हो रही है, इसलिए ग्रामीणों ने एकतरफा निर्णय का विरोध किया।
वहीं, जब मेडिकल कॉलेज की बात आई तो गांव वालों ने यह आकलन किया कि इससे गांव में आधुनिक चिकित्सा सुविधा मिल जाएगी। आधुनिक जांच उपकरण और विशेषज्ञ डॉक्टर मिलेंगे। आसपास के दर्जनों गांव लाभान्वित होंगे। निजी महंगे अस्पतालों का एक सरकारी सस्ता विकल्प मिलेगा।
यह घटना ग्रामसभा की भूमिका और महत्व को बताती है। मगर यह एक ही पहलू है। छत्तीसगढ़ के आदिवासी अंचलों में, जहां प्राकृतिक, खनिज संसाधन प्रचुर मात्रा में हैं, उद्योग स्थापना के लिए ग्रामसभा के फर्जी प्रस्ताव तैयार किए जा रहे हैं। आदिवासी न्याय के लिए लगातार लड़ाई लड़ रहे हैं। बस्तर से लेकर सरगुजा तक दर्जनों प्रस्तावों के बारे में कहा जा रहा है कि वे फर्जी हैं। कोई ग्राम सभा ही नहीं हुई। पर उनकी आवाज नहीं सुनी जा रही है।
सडक़ पर धान की बोरियां...
रायपुर-बिलासपुर नेशनल हाईवे पर बेलमुंडी गांव के बस स्टैंड के पास धान की बोरियां फैली हुई दिखीं। थोड़ा आगे बढऩे पर सडक़ पर भी धान का ढेर बिखरा हुआ नजर आया। हाल की बारिश के कारण धान को इस तरह सडक़ पर सुखाया जा रहा है।
दरअसल, यह धान गर्मी में बोई गई दूसरी फसल की उपज है, जिसे मानसून शुरू होने से ठीक पहले काटकर व्यापारियों या मंडियों में बेचा जाता है। सरकार इस गर्मी की फसल को हतोत्साहित करती है, क्योंकि इसमें पानी की खपत बहुत अधिक होती है।
इसके बावजूद ग्रामीण यह फसल उगाते हैं, खासकर वे किसान जिनके पास निजी सिंचाई की सुविधा होती है। इस फसल में कीट-पतंगों का प्रकोप कम होता है और कीटनाशकों की आवश्यकता भी घट जाती है, जिससे लाभ अधिक होता है।
हालांकि, यही फसल भू-जल स्तर में गिरावट का एक बड़ा कारण भी बनती है। बिल्हा ब्लॉक, जहां की यह तस्वीर है, प्रदेश के सर्वाधिक जल संकट वाले क्षेत्रों में शामिल है। यहां भू-जल स्तर में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है।