रायपुर

रायपुर, 27 अगस्त। मन के प्रदूषण को मिटाने के लिए यह पर्युषण पर्व आता है। व्यक्ति के मन के भीतर पलने वाला पहला प्रदूषण है बैर-विरोध का प्रदूषण। दूसरा है- मन में लगी हुई द्वेष की गांठ। जिस आदमी के मन में गांठ बंध जाती है, उसकी जिंदगी रसमय होकर भी नीरस हो जाती है।
जैसे मीठे रस से भरे हुए गन्ने में जहां-जहां गांठें होती है, वहां-वहां उसमें रस नहीं होता। आदमी कितना जबरदस्त है कि वह टूटने तैयार हो जाता है पर वह झुकने तैयार नहीं होता। याद रहे हम अरिहंतों की संतानें हैं तो इतने कमजोर भी नहीं हो सकते कि हम झुकने को भी तैयार न हों। अगर भूल-चूक कर भी आपकी किसी से बोलचाल बंद हो तो आज उस गांठ को खोल दें। उसका सर हमसे बड़ा होता है जो हमारे सामने झुका होता है। याद रखें कि अगर आपने रात को सोने से पहले किसी की एक गलती को माफ कर दिया तो भगवान सुबह आने से पहले ही आपकी सौ गलतियां माफ कर देता है।’’
ये प्रेरक उद्गार राष्ट्रसंत श्रीललितप्रभ सागरजी महाराज ने आउटडोर स्टेडियम बूढ़ापारा में जारी दिव्य सत्संग जीने की कला के अंतर्गत पर्युषण पर्व आराधना सप्ताह के द्वितीय दिवस गुरुवार को ‘पर्युषण पर्व के संदेश एवं कर्तव्य’ विषय पर व्यक्त किए।
विषयान्तर्गत संतप्रवर ने आगे कहा कि भगवान कहते हैं श्रावक घर में रहे कोई दिक्कत नहीं, पर श्रावक के अंदर घर न आ जाये। श्रावक घर में जिए कोई दिक्कत नहीं पर श्रावक की चेतना में घर न आ जाए। श्रावक संसार में रहे कोई दिक्कत नहीं पर श्रावक के भीतर संसार न आज जाए।
पर्युषण पर्व के आज दूसरे दिन हम दो चीजें अपने जीवन से दूर करने का संकल्प लेवें पहला- राग और दूसरा- द्वेष । राग में हम जुड़ते हैं और द्वेष में हम टूटते हैं। पर एक बात तय है टूटकर भी आदमी जुड़ा है। आदमी उसको कम याद करता है जो उसका दोस्त है, आदमी उसको ज्यादा याद करता है जो उसका दुश्मन है।
दोस्त को देखकर आपने कभी यह नहीं कहा होगा कि तुझे छोडुंगा नहीं पर दुश्मन को जरूर कहा होगा कि तुझे छोडुंगा नहीं। इसका मतलब है दोनों से ही हमें जुड़ाव है।
जो राग-द्वेष को जीत लेता है, वो वीतरागी होता है। आदमी को रंग, स्वाद, जमीन, धन, नाम का बड़ा राग होता है। जो नाम काया को मिला, वह काया के साथ ही खत्म हो जाता है फिर भी आदमी अपने नाम का राग करता है। कर्म के दो ही बीज हैं- राग और द्वेष।
यह पर्युषण पर्व स्वयं के अन्तरशोधन के लिए आया है।
सात जगहों पर कभी न करें गुस्सा
संतप्रवर ने सत्संगप्रेमियों को प्रेरणा प्रदान करते कहा कि सात जगहों पर हमें कभी गुस्सा नहीं करना चाहिए। पहला- सुबह आंख खुलते ही। दूसरा- जब नास्ता या खाना खाने बैठे हों। तीसरा- जब घर से बाहर निकल रहे हों। चौथा- जब बाहर से घर में आएं हों। पांचवा- जब धार्मिक क्रिया कर रहे हों या मंदिर, उपाश्रय-स्थानक में हों। छठवा- जब अपने शयन कक्ष में प्रवेश कर रहे हों। सातवा स्थान वह है जहां व्यक्ति को गुस्सा बिलकुल भी नहीं करना चाहिए वह है- जब कोई व्यक्ति फोन पर हो तुम्हारे सामने ना हो। यदि फोन आपने किसी के प्रति गुस्सा किया तो वह व्यक्ति न जाने कितनी देर तक और कितनी ही बददुआएं तुम्हें देता रहेगा।