रायपुर

रायपुर, 26 अगस्त। ‘‘यह आठ दिनों का यह पर्युषण पर्व अष्टमंगल देने वाला, अष्टसिद्धी देने वाला है। यह दूसरों को जीतने का नहीं यह आत्मविजय करने का पर्व है। जो दूसरों को जीतता है वह सिकंदर कहलाता है और जो अपने-आपको जीतता है वह महावीर और तीर्थंकर कहलाता है।
याद रखें सडक़ कितनी भी अच्छी हो, धूल तो हो ही जाती है और रिश्ते कितने भी मीठे हों भूल तो हो ही जाती है। क्षमापणा करना, अपने-आपका आत्मावलोकन करना इसी का नाम पर्युषण पर्व है। अपने दिमाग को हमेशा शीतल, जुबान को मीठा-मधुर और दिल में हमेशा सबके प्रति प्यार रखो, पर्युषण पर्व की यही तो हमारे लिए सीख है।
हम वीतराग बन पाए तो बहुत अच्छी बात है पर अगर हम वीत-राग न भी बन पाए तो वीत द्वेष बनने का संकल्प अवश्य कर लें। वीत-राग न बन पाए तो वीत-द्वेष जरूर बनें। वीत-द्वेष का मतलब है मेरा किसी से भी बैर भाव नहीं है। मेरी किसी से भी दूरियां नहीं है।
राग को जीत सको तो अच्छी बात है और यदि न भी जीत पाओ तो ये संकल्प जरूर कर लो कि मैं आज से द्वेष पर विजय प्राप्त करता हूं। मेरा किसी से भी कभी बैर-विरोध न हो।’’
ये प्रेरक उद्गार राष्ट्रसंत श्रीललितप्रभ सागरजी महाराज ने आउटडोर स्टेडियम बूढ़ापारा में जारी दिव्य सत्संग जीने की कला के अंतर्गत पर्युषण पर्व आराधना सप्ताह के प्रथम दिवस बुधवार को ‘पर्युषण: मिटाए भीतर का प्रदूषण’ विषय पर व्यक्त किए।
राष्ट:संतों की पावन निश्रा में पर्वाधिराज पर्युषण पर्व की आराधना बुधवार को प्रात: ठीक 8.40 बजे प्रवचन से आरंभ हुई। इससे पूर्व हजारों श्रद्धालुओं ने प्रात:काल पौषध धारण कर सामायिक की। आठ दिनों के इस पर्वाधिराज पर्युषण पर्व के प्रवचनों का लाइव प्रसारण भी दुनिया के 135 देशों में अरिहंत टीवी के माध्यम से किया जा रहा है।
विषयान्तर्गत राष्ट्रसंत श्रीललितप्रभजी महाराज ने पर्वाधिराज पर्युषण पर्व के महात्म्य पर प्रकाश डालते हुए कहा कि जैसे देवों में गणपति, जैसे तीर्थों में शत्रुंजय, नदियों में गंगा, पर्वतों में हिमालय वैसे ही दुनियाभर के सारे पर्वों में सबसे महान अगर कोई पर्व है तो उसका नाम है पर्वाधिराज पर्युषण। यह वह पर्व है जो शरीर को सजाने का पर्व नहीं, जो घरों को सजाने का पर्व नहीं, यह पर्व है व्यक्ति की मन की दशा को सुधारने का, व्यक्ति के अन्तर्मन को निर्मल और पवित्र करने का है।
व्यक्ति के भाव विशुद्ध करने का यह पर्व है। दिवाली में भी हम खर्च करते हैं और पर्युषण में हम खर्च किया करते हैं।
फर्क केवल यह है कि दिवाली में किया हुआ खर्च हम घर-परिवार के लिए करते हैं और पर्युषण में हम जो खर्च करते हैं वह धर्म-अध्यात्म और भगवान के लिए करते हैं।
दिवाली में भी हम सजावट करते हैं और पर्युषण में भी हम सजाते हैं, दिवाली में हम खुद को घरों-मंदिरों को सजाते-रौशन करते हैं लेकिन पर्युषण पर्व कपड़ों को-घरों को सजाने का पर्व नहीं यह पर्व है अपने-आपको सजाने का। संभव है व्यक्ति से वर्षभर में कभी भी कोई भूल हो सकती है।
गलतियों से जुदा तू भी नहीं और गलतियों से जुदा मैं भी नहीं, दोनों इंसान हैं खुदा तू भी नहीं और खुदा मैं भी नहीं। गलती दुनिया में किसी से भी हो सकती है। इंसान की प्रकृति है गलती हो जाना, लेकिन गलती हो जाने पर भी उसको मानने के लिए तैयार न होना और ऊपर से अपने ईगो को संतुष्ट करना और गलती को ना मानना यह हमारी विकृति है। गलती होना हमारी प्रकृति है तो गलती हो जाने पर सॉरी कहना यही हमारी महान संस्कृति है। यह पर्युषण पर्व अपने-आपका लेखा-जोखा करने का पर्व है। यह पर्व आत्मावलोकन करने का है। आदमी सालभर दूसरों को देखता है वह क्या कर रहा है-क्या नहीं कर रहा है पर ये आठ दिन दूसरों को देखने का नहीं स्वयं को देखने का पर्व है। पर्युषण पर्व औरों को देखने का नहीं अपने-आपको देखने का पर्व है। संभव है हमने वर्षभर में किसी की हिंसा कर दी हो, किसी का मन दुखा दिया हो, हमने अवांछित शब्दों का प्रयोग कर दिया हो, इन सबके लिए क्षमापणा करने का यह पर्व है। यह वह महान पर्व है जिसमें लोग एक-दूजे के पांवों को छूकर, एक-दूजे को प्रणाम करके और क्षमापणा कर अपने तन-मन को निर्मल करते हैं।