संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : खादी की खाल ओढ़ी जिंदगी के आखिरी नाटक का पर्दा न उठा..
30-Jan-2021 1:46 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : खादी की खाल ओढ़ी जिंदगी के  आखिरी नाटक का पर्दा न उठा..

हिन्दुस्तान का एक सबसे बड़ा पाखंड कल शुरू होने के पहले ही खत्म हो गया। एक किस्म से अन्ना हजारे का किसानों के पक्ष में अनशन शुरू न होना किसानों के लिए अच्छा ही रहा। इस अनशन को समर्थन जुटता, उसे साथ मिलती, उसके बाद अन्ना हजारे इस साख को बेचकर निकल पड़ते तो किसानों के मुद्दे का बड़ा नुकसान होता। खादी की खाल ओढ़े हुए यह स्वघोषित गांधीवादी कल खुद ही उजागर हो गया जब उसने अपने कई हफ्तों पहले के घोषित कृषि कानूनों के खिलाफ अनशन को खुद होकर रद्द कर दिया। उन्होंने मोदी सरकार के तीन विवादास्पद कृषि कानूनों के खिलाफ शनिवार से भूख हड़ताल की घोषणा की थी, लेकिन महाराष्ट्र के भूतपूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा नेता देवेन्द्र फडनवीस की मौजूदगी में उन्होंने इसे रद्द करने की घोषणा की। उन्होंने कहा कि केन्द्र सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य को 50 फीसदी तक बढ़ाने का फैसला लिया है इसलिए वे अपना अनशन वापिस ले रहे हैं। 

देश को अच्छी तरह याद है कि कोई एक दशक पहले दिल्ली में अन्ना हजारे ने जन लोकपाल बनाने का एक आंदोलन छेड़ा था। उस वक्त केन्द्र में मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार का राज था। वह आंदोलन बहुत बड़े पैमाने पर बढ़ाया गया, उसमें अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी, और बाबा रामदेव सरीखे लोग शामिल हुए, और इस आंदोलन का कोई नतीजा निकले इसके पहले केजरीवाल राजनीति में आ गए, और दिल्ली में कांग्रेस सरकार के खिलाफ उन्होंने चुनाव लड़ा, और अपनी सरकार बनाई। बाबा रामदेव ने योग और आयुर्वेद का कारोबार बढ़ाते हुए साबुन तेल और टूथपेस्ट तक उसका विस्तार किया और विदेश के एक सबसे बड़े नवोदित कारोबारी बन गए। इसी आंदोलन में हाथ बंटाने के लिए कर्नाटक से निकलकर स्वघोषित श्रीश्री रविशंकर भी पहुंचे जो कि कर्नाटक में भाजपा के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा के भयानक भ्रष्टाचार पर आंखें बंद किए हुए बैठे थे, लेकिन दिल्ली में भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन में वे लगातार जुटे रहे। यूपीए सरकार को भ्रष्ट साबित करते हुए अन्ना हजारे और उनकी टोली ने जो आंदोलन चलाया था, वह यूपीए के विसर्जन के साथ पूरा हो गया, और सत्ता पर आई मोदी सरकार ने पांच बरस तक उस लोकपाल का गठन नहीं किया जिसके बिना अन्ना हजारे सांस नहीं ले पा रहे थे। लेकिन अन्ना हजारे ने ऊफ भी नहीं किया। 

हिन्दुस्तान में खादी एक सबसे बड़ा धोखा है। कहावतों में जिस तरह भेडिय़ा भेड़ की खाल ओढक़र हमले करता है और लोगों को शक नहीं होता, उसी तरह इस देश में सबसे बड़े जुर्म खादी पहनकर किए जाते हैं, और लोग ऐसे लोगों को गांधीवादी मानते हुए उनके जुर्म की कोई साजिश भी नहीं समझ पाते। अन्ना हजारे ऐसे ही एक धूर्त हैं जिन्हें चुनिंदा पार्टियों और नेताओं के भ्रष्टाचार पर हमला तो देश का सबसे जरूरी मुद्दा लगता है, लेकिन दूसरे लोगों के भ्रष्टाचार, दूसरी पार्टियों के भ्रष्टाचार, गैरआर्थिक भ्रष्टाचार और जुर्म से अन्ना हजारे को कोई शिकायत नहीं रहती। अपने आपको गांधीवादी कहते हुए यह आदमी जिस तरह खादी और गांधी टोपी के नकाब के पीछे से अपनी नीयत के काम करता है, उसकी शिनाख्त करने की ताकत हिन्दुस्तान की जनता में नहीं रह जाती। क्योंकि वह गांधी से परे आमतौर पर नहीं देख पाती। यही वजह है कि हिन्दुस्तान की राजनीति में कई किस्म की पार्टियां हैं, गांधी के कत्ल से सहमत पार्टियां भी हैं, लेकिन खादी पहनना इनमें से अधिकतर की मजबूरी हो जाती है क्योंकि हिन्दुस्तानी चेतना में खादी से परे कोई और पोशाक जनसेवक की हो नहीं सकती।

आज किसानों के मुद्दे गणतंत्र दिवस के पहले के मुकाबले अधिक मुखर हैं, केन्द्र सरकार के साथ किसानों का टकराव और बढ़ा हुआ है, अब आंदोलनकारी किसानों को मुल्क का गद्दार साबित करने की खुली कोशिश हो रही है, किसानों ने राजधानी के आसपास सडक़ों पर तमाम सर्द मौसम के महीने गुजारते हुए दर्जनों साथियों को खोया भी है, लेकिन ऐसे नाजुक मोड़ पर पहुंचे हुए किसानों का मुद्दा अगर इस पाखंडी अन्ना हजारे को सुलझा हुआ दिख रहा है, तो यह बहुत अच्छा हुआ कि इसका पाखंड इतनी जल्द खत्म हो गया। अगर यह किसानों का हमदर्द होकर कुछ और दूर तक उनके साथ चला होता, तो यह उन साख को चौपट कर जाता। लेकिन किसानों ने भी जिंदगी में बहुत से अच्छे काम किए होंगे जो इस बहुरूपिए से उनका छुटकारा पहले ही दिन हो गया।
 
हिन्दुस्तान में, और बाहर भी, एक कहावत चलती है कि हर चमकती हुई चीज सोना नहीं होती, हिन्दुस्तानी जनता को यह याद रखना चाहिए कि खादी की हर खाल के पीछे गांधीवाद समाजसेवक नहीं होते, इसके पीछे अन्ना हजारे जैसे भाड़े पर काम करने वाले लोगों की तरह के लोग भी होते हैं, जिनको भाड़ा पता नहीं किस शक्ल में दिया जाता है, लेकिन जो सरकार गिराने या किसी नेता को हराने की सुपारी लेते हैं। अब जैसा कि अन्ना हजारे ने खुद ही घोषणा की थी, यह उनके जीवन का आखिरी अनशन होने वाला था, अपनी जिंदगी के इस आखिरी नाटक का अन्ना हजारे पर्दा ही नहीं उठा पाए। लोगों को यह मनाना चाहिए कि यह खादी की खाल में जनआंदोलनों के नाम की साजिशों का एक अंत हो। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


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