संपादकीय
ऑस्ट्रेलिया में कल का दिन भारी टकराव का रहा। सिडनी, मेलबोर्न सहित बहुत से बड़े शहरों में अप्रवासियों के खिलाफ रैलियां निकलीं, और ऑस्ट्रेलियाई नागरिकों ने हजारों की संख्या में सडक़ों पर आकर बहुत बुरे नस्लवादी प्रदर्शन किए। पश्चिम के मीडिया में इन्हें नवनाजीवादी प्रदर्शन कहा गया जो कि दूसरे देशों से आए हुए लोगों की राष्ट्रीयता, उनके धर्म, और उनके रंग पर निशाना बनाते हुए थे। इनके पीछे सिर्फ वहां के राष्ट्रवादी और नस्लवादी संगठन ही नहीं थे, विपक्ष के कई नेता भी इसमें शामिल हुए, और उन्होंने भी उत्तेजक और भडक़ाऊ बातें कहीं। योरप के कुछ देशों की तरह ऑस्ट्रेलिया में भी हाल के बरसों में दक्षिणपंथी उग्रवाद बढ़ते चल रहा है, और इसी साल की शुरूआत में देश की संसद में नाजी सलामी को कैद के लायक जुर्म बनाया है। कई जगहों पर अपने आपको राष्ट्रवादी कहने वाले ऐसे लोगों के प्रदर्शन के खिलाफ दूसरे प्रदर्शनकारियों के सडक़ों पर उतर जाने से आपस में टकराव भी हुए। ऑस्ट्रेलिया में वन-नेशन नाम की पार्टी लगातार राष्ट्रवादी उग्रवाद को बढ़ा रही है, और इसे वहां के कुछ दूसरे धर्मनिरपेक्ष नेताओं ने नफरत की सौदागर पार्टी कहा है। कुछ दूसरे नेताओं ने इसे विभाजन बोने वाली हरकत बताया है, और ऑस्ट्रेलिया के सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने वाले लगातार बढ़ते उग्रवाद का दर्जा दिया है।
इटली, जर्मनी, फ्रांस की तरह ऑस्ट्रेलिया में भी दूसरे देशों से आकर काम करने वाले लोगों के खिलाफ एक तनाव खड़ा हो रहा है। लेकिन ‘मार्च फॉर ऑस्ट्रेलिया’ नाम से किए गए ऐसे प्रदर्शनों में नफरत की भाषा में ऑस्ट्रेलिया के लोगों को भी थोड़ा हक्का-बक्का कर दिया है। लोग इन्हें ऑस्ट्रेलिया की बहुसांस्कृतिक सामाजिकता के खिलाफ मान रहे हैं, और इन्हें लेकर फिक्रमंद हैं। दरअसल अमरीकी राष्ट्रपति पद पर पहुंचने के बाद से डोनल्ड ट्रम्प ने जिस तरह दूसरे देशों से वहां पहुंचे लोगों के खिलाफ नफरत और हिंसा की बातें कहीं, उनकी गूंज दुनिया में कई दूसरी जगहों पर भी हुई। शुरूआती महीनों में ट्रम्प के दाएं हाथ रहे एलन मस्क ने तो जर्मनी के चुनावों में वहां की सबसे दक्षिणपंथी और नस्लवादी पार्टी को खूब बढ़ावा दिया, और उसकी जीत की कामना की। ट्रम्प की पहचान ही एक घोर राष्ट्रवादी और नस्लवादी की है जिसे दूसरे देशों से आए लोग इतने नापसंद हैं कि अमरीकी अर्थव्यवस्था चौपट हो जाने की कीमत पर भी वह अमरीका से बाहरी मजदूरों और कामगारों को निकाल रहा है। ट्रम्प के शुरूआती हफ्ते ऐसे वैध-अवैध रूप से आए हुए, और शायद अधिक वक्त तक ठहर चुके लोगों को अमरीकी फौजी विमानों में सामानों की तरह लादकर, हथकड़ी-बेड़ी से जकडक़र उनके देशों में छोडऩे के रहे। भारत में भी ऐसे कई विमान देखे जिनमें हथकड़ी-बेड़ी से जकड़े हुए हिन्दुस्तानी लाकर यहां पटके गए थे।
आज दुनिया में एक देश की प्रतिक्रिया दूसरे देश पर भी होती है। योरप के देशों की प्रतिक्रिया अमरीका में हुई, और भारत में आज जिस तरह अवैध बांग्लादेशियों के नाम पर एक आक्रामक सरकारी कार्रवाई चल रही है, उसकी प्रतिक्रिया पड़ोस के देशों पर भी हो रही है, और इस देश में उन लोगों के बीच भी हो रही है जो बांग्लादेशियों की तरह भारत की बांग्ला जुबान बोलते हैं, और मुस्लिम होने की वजह से उन्हें बांग्लादेशी कहकर सरहद के पार फेंक दिया जा रहा है। दुनिया के एक देश की कट्टरता, और चुनावों में उसकी सफलता से दुनिया के दूसरे देशों में ऐसी ही मिसालें बढ़ती चल रही हैं, और लोगों को याद होगा कि किस तरह ट्रम्प के संग रहते हुए मस्क ने सार्वजनिक रूप से हिटलर की नाजी सलामी दी थी। अभी का ऑस्ट्रेलिया का ताजा प्रदर्शन भारत के लोगों के खिलाफ अधिक था, और वहां बड़ी संख्या में पहुंचे हुए और काम कर रहे भारतवंशियों को ऑस्ट्रेलिया में रोजगार खा लेने के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। ऑस्ट्रेलिया की खबरें बताती हैं कि ट्रम्प से प्रेरणा लेकर लोग आप्रवासियों के खिलाफ हिंसक हो रहे हैं। वहां के स्थानीय लोगों में भी एक हिटलरी सोच वाले लोग अपने आपको देश के कानून से ऊपर मानते हैं, और वे सरकार के आदेशों, और कानूनों के खिलाफ मनमानी करते हैं। अब इस सोच के लोग लगातार उग्रवादी, और हिंसक भी होते चल रहे हैं, और कानून जगह-जगह अपने हाथ में ले रहे हैं। यह सब देखकर लगता है कि दुनिया के एक देश से हिंसा का नारा जब उठता है, तो उसकी गूंज कई देशों में वहां के स्थानीय मुद्दों को लेकर फैलती है।
अमरीका दूसरे देशों से आए हुए वैध-अवैध कामगारों को अधिक रफ्तार से निकालकर अब खेतों से लेकर कारखानों तक, और हाथ से होने वाले तमाम कामों में कामगारों की कमी का शिकार हो गया है। भारत में भी जिस रफ्तार से बांग्लादेश से आए हुए लोगों को निकाला जा रहा है, उस रफ्तार से तो शिनाख्त भी मुमकिन नहीं है, और यही नतीजा है कि इसी देश के दूसरे प्रदेशों के लोगों को कई प्रदेशों से निकाल-निकालकर बांग्लादेश भेज दिया गया, या गिरफ्तार कर लिया गया। इससे देश के नागरिकों के बुनियादी हक कुचले जा रहे हैं कि वे किसी भी प्रदेश में जाकर काम कर सकते हैं। यह हिंसक नौबत सिर्फ बांग्लादेशी होने से जुड़ी हुई नहीं है, मुस्लिम होने से भी जुड़ी हुई है, और सरकारों का यह अभियान राष्ट्रीयता के विवाद से आगे बढक़र धर्मआधारित हो चला है। जब भारत के भीतर ऐसा एक तनाव खड़ा हुआ है, तो ऑस्ट्रेलिया हो, या अमरीका, इन जगहों पर अपने नागरिकों को बचाने के लिए अधिक बोलने का नैतिक अधिकार भी भारत का नहीं रह जाता। साम्प्रदायिकता, उग्र राष्ट्रवाद, नस्लभेद जैसी हिंसक सोच के साथ एक दिक्कत यह रहती है कि इसे बढ़ावा देना आसान रहता है, लेकिन जिस दिन इनके फतवे देने वाली राजनीतिक ताकतें अपनी हरकतों को रोकना चाहती हैं, उस दिन उन्हें पता लगता है कि उनके देश में नौबत अब उनके काबू में नहीं रह गई है।
दुनिया के सौ से अधिक देशों में भारत के लोग बसे हुए हैं, और काम कर रहे हैं। दर्जनों देश ऐसे हैं जहां पर हिन्दुस्तानी लोग दसियों हजार से अधिक संख्या में हैं। जब भारत दुनिया के सामने एक तंगदिल देश की मिसाल पेश करता है, तो फिर उसके पास दुनिया के बाकी देशों से भारतवंशियों के लिए उदारता की उम्मीद करने की जुबान भी नहीं रह जाती। दुनिया के बहुत से देशों में एक-एक करके नस्लभेदी और हिटलरवादी सरकारें बन रही हैं। यह पूरी दुनिया के सामाजिक ताने-बाने के खिलाफ है, और इससे दुनिया रहने के लिए एक बहुत बुरी जगह बनती जा रही है। हर देश को इस पर अलग-अलग भी फिक्र करनी होगी, क्योंकि अपनी जमीन पर स्थाई और निरंतर तनाव खड़ा करके कोई सरकार अपने देश को ठीक से नहीं चला सकती।


