संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सलामी गारद की समाप्ति, हमारे लिखने का इतिहास
25-Dec-2025 2:34 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  सलामी गारद की समाप्ति,  हमारे लिखने का इतिहास

छत्तीसगढ़ सरकार ने यह तय किया है कि मंत्रियों और बड़े अफसरों को औपचारिक रूप से दी जाने वाली सलामी, गार्ड ऑफ ऑनर को बंद कर दिया जाए। इसके पहले कई दूसरे राज्य यह फैसला लेकर उसे लागू कर चुके हैं क्योंकि कहीं पहुंचने वाले मंत्री या आला अफसर के इंतजार में दर्जन-दो दर्जन पुलिसवाले एक अलग किस्म की पोशाक में दिन-दिन भर इंतजार करते हैं ताकि आने वाले तथाकथित अतिमहत्वपूर्ण व्यक्ति को सलामी दी जा सके, ताकि उनके अहंकार शांत हो सके। 2019 में ओडिशा ने यह फैसला लागू कर दिया था, 2018 में राजस्थान ने, और 2015 में महाराष्ट्र ने सलामी की प्रथा खत्म कर दी थी। खैर, जब जागे तभी सबेरा। हम इस किस्म की सामंती प्रथाओं को खत्म करने के लिए दशकों से लिखते चले आ रहे हैं। प्रणब मुखर्जी जब राष्ट्रपति थे, तब उन्होंने अपने लिए महामहिम शब्द का इस्तेमाल खत्म करवाया था, और बाद में उनके देखादेखी, शायद मजबूरी में मन मारकर, राज्यपालों को भी इस मोह को छोडऩा पड़ा था।

कम्प्यूटर की मेहरबानी से पिछले कुछ बरसों के हमारे संपादकीय एक जगह इकट्ठा हैं, और हमारे सामने 2014 का एक संपादकीय है जिसमें दागियों को मंत्री बनाने के खिलाफ दायर जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला है, और उसमें हमने लिखा है कि दागियों को सलाम करने वाली सरकारी सलामी गारद वाला लोकतंत्र कभी गौरवशाली नहीं हो सकता। 2012 में एक संपादकीय में हमने लिखा था कि राष्ट्रपति भवन से लेकर राजभवनों, और अदालतों तक सामंती प्रतीक खत्म करने चाहिए, और राज्यों के राजभवन से लेकर राष्ट्रपति भवन तक दरबार हॉल जैसे शब्द हटाने चाहिए। इसी के साथ हमने लिखा था कि राज्यपाल के कार्यक्रमों के शुरू और आखिर में राष्ट्रधुन बजाने के लिए पुलिस का एक पूरा बैंड ही उनके साथ सफर करता है, और पूरे वक्त यही एक काम करता है। गांधी के देश में ऐसी सामंती फिजूलखर्ची खत्म होनी चाहिए। इसी संपादकीय में हमने सलामी गारद के खिलाफ भी लिखा था। 2017 में हमने फिर दरबार हॉल, झंडा फहराने और उतारने की औपचारिकता, सलामी गारद, राष्ट्रपति के अंगरक्षकों की घुड़सवार पलटन जैसी सामंती और अहंकारी फिजूलखर्ची के खिलाफ लिखा था। उसी साल एक और संपादकीय में हमने राज्यपाल के साथ चलने वाले पुलिस बैंड, और देश में सलामी गारद की प्रथा खत्म करने के बारे में लिखा था कि राजा के साथ गाने-बजाने वाले और चारणभाट की तरह के जो लोग चलते थे, वह राजशाही के दिनों में ही ठीक लगता था। 2015 में  प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के छत्तीसगढ़ प्रवास के समय एक कलेक्टर के चिलचिलाती धूप में धूप का चश्मा लगाने पर मुख्य सचिव द्वारा दिए गए नोटिस के खिलाफ लिखा था कि इतनी धूप में चश्मा न लगाने, और बंद गले का कोट पहनने का यह रिवाज अंग्रेजों की छोड़ी गई गंदगी है, और हिन्दुस्तान को इसे सिर पर ढोना बंद करना चाहिए। हमने उसमें लिखा था कि जहां पुलिस की कमी से विचाराधीन कैदियों को अदालतों तक नहीं ले जाया जाता, बरसों तक बिना सुनवाई कैदी जेल में रहने को मजबूर रहते हैं, वहां सलामी के लिए पुलिस का इस्तेमाल पूरी तरह अलोकतांत्रिक और हिंसक है, ऐसे लोग किसी सलामी के हकदार भी नहीं हो सकते जो कि देश की गरीब जनता के पैसों से इस अंग्रेजी केक की जूठन को लोकतंत्र के फ्रिज में संभालकर रख रहे हैं। 2023 में हमने संपादकीय में लिखा था कि कुपोषण और गरीबी से लदे हुए इस देश में राजभवनों में पुलिस बैंड, और सलामी गारद जैसे सामंती इंतजाम खत्म होने चाहिए, और झंडा फहराने या उतारने के लिए भी सलामी गारद की तैनाती फिजूलखर्ची है। 2018 में हमने राजभवन के दरबार हॉल, राष्ट्रगान के लिए पुलिस बैंड, सलामी गारद, राजदंड, खौलती गर्मी में कोट जैसी अंग्रेजी जूठन और सामंती फिजूलखर्ची के खिलाफ लिखा था। 2015 में हमने सलामी गारद, राज्यपाल के लिए पुलिस बैंड, और ऐसे तथाकथित वीवीआईपी लोगों के लिए सडक़ों पर ट्रैफिक रोकने के खिलाफ लिखा था, और उस वक्त के छत्तीसगढ़ के राज्यपाल ने अपने लिए ट्रैफिक रोकने पर जनता से माफी भी मांगी थी। यह संपादकीय हमने महाराष्ट्र सरकार द्वारा सलामी प्रथा खत्म करने के मौके पर लिखा था। 2020 में हमने ऐसी ही सामंती प्रथाओं को लेकर झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की घोषणा पर लिखा था कि वे गार्ड ऑफ ऑनर खत्म करने वाले हैं। उन्होंने उनके खड़ी कर दी गई सलामी गारद को खत्म करने की घोषणा की थी, और हमने हेमंत सोरेन की तारीफ में यह लिखा था। उसमें हमने पुलिस बैंड के ऐसे दिखावटी और सजावटी इस्तेमाल के खिलाफ भी लिखा था कि राज्यपाल की ऐसी झूठी शान के लिए लाखों रूपए महीने खर्च किए जा रहे हैं, जो गर्व की नहीं, शर्म की बात है।

 

 

छत्तीसगढ़ सरकार ने यह तय किया है कि मंत्रियों और बड़े अफसरों को औपचारिक रूप से दी जाने वाली सलामी, गार्ड ऑफ ऑनर को बंद कर दिया जाए। इसके पहले कई दूसरे राज्य यह फैसला लेकर उसे लागू कर चुके हैं क्योंकि कहीं पहुंचने वाले मंत्री या आला अफसर के इंतजार में दर्जन-दो दर्जन पुलिसवाले एक अलग किस्म की पोशाक में दिन-दिन भर इंतजार करते हैं ताकि आने वाले तथाकथित अतिमहत्वपूर्ण व्यक्ति को सलामी दी जा सके, ताकि उनके अहंकार शांत हो सके। 2019 में ओडिशा ने यह फैसला लागू कर दिया था, 2018 में राजस्थान ने, और 2015 में महाराष्ट्र ने सलामी की प्रथा खत्म कर दी थी। खैर, जब जागे तभी सबेरा। हम इस किस्म की सामंती प्रथाओं को खत्म करने के लिए दशकों से लिखते चले आ रहे हैं। प्रणब मुखर्जी जब राष्ट्रपति थे, तब उन्होंने अपने लिए महामहिम शब्द का इस्तेमाल खत्म करवाया था, और बाद में उनके देखादेखी, शायद मजबूरी में मन मारकर, राज्यपालों को भी इस मोह को छोडऩा पड़ा था।

कम्प्यूटर की मेहरबानी से पिछले कुछ बरसों के हमारे संपादकीय एक जगह इकट्ठा हैं, और हमारे सामने 2014 का एक संपादकीय है जिसमें दागियों को मंत्री बनाने के खिलाफ दायर जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला है, और उसमें हमने लिखा है कि दागियों को सलाम करने वाली सरकारी सलामी गारद वाला लोकतंत्र कभी गौरवशाली नहीं हो सकता। 2012 में एक संपादकीय में हमने लिखा था कि राष्ट्रपति भवन से लेकर राजभवनों, और अदालतों तक सामंती प्रतीक खत्म करने चाहिए, और राज्यों के राजभवन से लेकर राष्ट्रपति भवन तक दरबार हॉल जैसे शब्द हटाने चाहिए। इसी के साथ हमने लिखा था कि राज्यपाल के कार्यक्रमों के शुरू और आखिर में राष्ट्रधुन बजाने के लिए पुलिस का एक पूरा बैंड ही उनके साथ सफर करता है, और पूरे वक्त यही एक काम करता है। गांधी के देश में ऐसी सामंती फिजूलखर्ची खत्म होनी चाहिए। इसी संपादकीय में हमने सलामी गारद के खिलाफ भी लिखा था। 2017 में हमने फिर दरबार हॉल, झंडा फहराने और उतारने की औपचारिकता, सलामी गारद, राष्ट्रपति के अंगरक्षकों की घुड़सवार पलटन जैसी सामंती और अहंकारी फिजूलखर्ची के खिलाफ लिखा था। उसी साल एक और संपादकीय में हमने राज्यपाल के साथ चलने वाले पुलिस बैंड, और देश में सलामी गारद की प्रथा खत्म करने के बारे में लिखा था कि राजा के साथ गाने-बजाने वाले और चारणभाट की तरह के जो लोग चलते थे, वह राजशाही के दिनों में ही ठीक लगता था। 2015 में  प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के छत्तीसगढ़ प्रवास के समय एक कलेक्टर के चिलचिलाती धूप में धूप का चश्मा लगाने पर मुख्य सचिव द्वारा दिए गए नोटिस के खिलाफ लिखा था कि इतनी धूप में चश्मा न लगाने, और बंद गले का कोट पहनने का यह रिवाज अंग्रेजों की छोड़ी गई गंदगी है, और हिन्दुस्तान को इसे सिर पर ढोना बंद करना चाहिए। हमने उसमें लिखा था कि जहां पुलिस की कमी से विचाराधीन कैदियों को अदालतों तक नहीं ले जाया जाता, बरसों तक बिना सुनवाई कैदी जेल में रहने को मजबूर रहते हैं, वहां सलामी के लिए पुलिस का इस्तेमाल पूरी तरह अलोकतांत्रिक और हिंसक है, ऐसे लोग किसी सलामी के हकदार भी नहीं हो सकते जो कि देश की गरीब जनता के पैसों से इस अंग्रेजी केक की जूठन को लोकतंत्र के फ्रिज में संभालकर रख रहे हैं। 2023 में हमने संपादकीय में लिखा था कि कुपोषण और गरीबी से लदे हुए इस देश में राजभवनों में पुलिस बैंड, और सलामी गारद जैसे सामंती इंतजाम खत्म होने चाहिए, और झंडा फहराने या उतारने के लिए भी सलामी गारद की तैनाती फिजूलखर्ची है। 2018 में हमने राजभवन के दरबार हॉल, राष्ट्रगान के लिए पुलिस बैंड, सलामी गारद, राजदंड, खौलती गर्मी में कोट जैसी अंग्रेजी जूठन और सामंती फिजूलखर्ची के खिलाफ लिखा था। 2015 में हमने सलामी गारद, राज्यपाल के लिए पुलिस बैंड, और ऐसे तथाकथित वीवीआईपी लोगों के लिए सडक़ों पर ट्रैफिक रोकने के खिलाफ लिखा था, और उस वक्त के छत्तीसगढ़ के राज्यपाल ने अपने लिए ट्रैफिक रोकने पर जनता से माफी भी मांगी थी। यह संपादकीय हमने महाराष्ट्र सरकार द्वारा सलामी प्रथा खत्म करने के मौके पर लिखा था। 2020 में हमने ऐसी ही सामंती प्रथाओं को लेकर झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की घोषणा पर लिखा था कि वे गार्ड ऑफ ऑनर खत्म करने वाले हैं। उन्होंने उनके खड़ी कर दी गई सलामी गारद को खत्म करने की घोषणा की थी, और हमने हेमंत सोरेन की तारीफ में यह लिखा था। उसमें हमने पुलिस बैंड के ऐसे दिखावटी और सजावटी इस्तेमाल के खिलाफ भी लिखा था कि राज्यपाल की ऐसी झूठी शान के लिए लाखों रूपए महीने खर्च किए जा रहे हैं, जो गर्व की नहीं, शर्म की बात है।

इसके पहले के कुछ दशकों में इस अखबार के संपादक ने जगह-जगह इस बात को जोर-शोर से लिखा था कि अंग्रेजी की छोड़ी गई गंदगी के टोकरे को सिर पर उठाकर चलने को जो भारतीय अपनी शान मानते हैं, उन्हें शर्म आनी चाहिए। महज एक कुर्सी पर कुछ वक्त तक रहने से कोई व्यक्ति जनता के पैसों की बर्बादी की कीमत पर सलामी के हकदार कैसे हो सकते हैं? सरकारी अमले का ऐसा बेजा इस्तेमाल उन कर्मचारियों के मनोबल को भी तोड़ता है, और जनता के पैसों की तो अंधाधुंध आपराधिक बर्बादी करता ही है। हमने अखबार में लिखने के अलावा निजी मुलाकातों में भी कई मुख्यमंत्रियों और राज्यपालों को यह बात सुझाई थी, लेकिन सादगी की थोड़ी-बहुत शुरूआत भी प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रपति भवन से की थी, उनके पहले एपीजे अब्दुल कलाम ने अपने निजी तौर-तरीकों में सादगी बरती थी, लेकिन आडंबर की प्रथाओं को खत्म करने की तरफ उनका ध्यान नहीं गया था।

किसी लोकतंत्र में सत्ता और संवैधानिक संस्थाओं पर सवार लोगों को लालबत्ती, मोटरगाडिय़ों के काफिले जैसे निरर्थक लालच छोडऩे चाहिए। इन बातों से किसी की इज्जत नहीं बढ़ती, और ये बातें किसी कुर्सी पर काबिज रहने तक ही चलती हैं। जो सचमुच ही इज्जत के लायक रहते हैं, वे आडंबरों के मोहताज नहीं रहते। जो लोग सादगी का जीवन जीने वाले महान लोगों को अपने नेता मानते हैं, उन्हें तो कम से कम सादगी और किफायत पर अमल करना चाहिए। इस तरह के खर्च लोकतंत्र पर कलंक हैं, और सरकारों को चाहिए कि ऐसी तमाम प्रथाओं को खत्म करे।

 

इसके पहले के कुछ दशकों में इस अखबार के संपादक ने जगह-जगह इस बात को जोर-शोर से लिखा था कि अंग्रेजी की छोड़ी गई गंदगी के टोकरे को सिर पर उठाकर चलने को जो भारतीय अपनी शान मानते हैं, उन्हें शर्म आनी चाहिए। महज एक कुर्सी पर कुछ वक्त तक रहने से कोई व्यक्ति जनता के पैसों की बर्बादी की कीमत पर सलामी के हकदार कैसे हो सकते हैं? सरकारी अमले का ऐसा बेजा इस्तेमाल उन कर्मचारियों के मनोबल को भी तोड़ता है, और जनता के पैसों की तो अंधाधुंध आपराधिक बर्बादी करता ही है। हमने अखबार में लिखने के अलावा निजी मुलाकातों में भी कई मुख्यमंत्रियों और राज्यपालों को यह बात सुझाई थी, लेकिन सादगी की थोड़ी-बहुत शुरूआत भी प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रपति भवन से की थी, उनके पहले एपीजे अब्दुल कलाम ने अपने निजी तौर-तरीकों में सादगी बरती थी, लेकिन आडंबर की प्रथाओं को खत्म करने की तरफ उनका ध्यान नहीं गया था।

किसी लोकतंत्र में सत्ता और संवैधानिक संस्थाओं पर सवार लोगों को लालबत्ती, मोटरगाडिय़ों के काफिले जैसे निरर्थक लालच छोडऩे चाहिए। इन बातों से किसी की इज्जत नहीं बढ़ती, और ये बातें किसी कुर्सी पर काबिज रहने तक ही चलती हैं। जो सचमुच ही इज्जत के लायक रहते हैं, वे आडंबरों के मोहताज नहीं रहते। जो लोग सादगी का जीवन जीने वाले महान लोगों को अपने नेता मानते हैं, उन्हें तो कम से कम सादगी और किफायत पर अमल करना चाहिए। इस तरह के खर्च लोकतंत्र पर कलंक हैं, और सरकारों को चाहिए कि ऐसी तमाम प्रथाओं को खत्म करे।

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