संपादकीय
मध्यप्रदेश का एक वीडियो दो दिन से सोशल मीडिया पर घूम रहा है, और इन दिनों किसी वीडियो के साथ जोड़ी जा रही सच्ची या झूठी जानकारी की जांच-पड़ताल के बाद अब उसकी जानकारी सही पाकर अब उस पर लिख रहे हैं। भिंड जिले के कलेक्टर-बंगले के गेट पर विधायक अपने दर्जन-दो दर्जन समर्थकों के साथ नारेबाजी कर रहे हैं, और कलेक्टर को गेट के आर-पार से तरह-तरह की धमकियां दे रहे हैं। बीच-बीच में वे खूब गाली-गलौज पर उतरते हैं, फिर अपने समर्थकों को कलेक्टर चोर होने के नारे लगाने के लिए कहते हैं, और नारेबाजी के बीच एक बार फिर वे कलेक्टर को धमकाने में लग जाते हैं। विधायक समर्थकों का बनाया हुआ वीडियो ही बताता है कि विधायक कलेक्टर को मारने के लिए हाथ उठाते हैं, इस दौरान कोई एक सुरक्षागार्ड बीच-बचाव करता है। झगड़ा खाद संकट का बताया जाता है, लेकिन असल मुद्दा शायद रेप-चोरी का था। जो भी हो, सत्तारूढ़ पार्टी का एक बुजुर्ग सा दिखता विधायक जिस हमलावर हाथापाई के अंदाज में कलेक्टर बंगले पहुंचकर कलेक्टर से बदसलूकी करता है, उससे विधायक के साथ-साथ सरकार के तेवर भी उजागर होते हैं।
कई लोगों का यह मानना रहता है कि चूंकि कलेक्टर जिले का सबसे अधिक अधिकारसंपन्न, और सबसे अधिक जिम्मेदार समझे जाने वाला वरिष्ठ अधिकारी रहता है, इसलिए उसके साथ बदसलूकी बर्दाश्त नहीं की जा सकती। हम तो ऐसे किसी ओहदे के दिखावे को सही नहीं मानते, और चपरासी से लेकर कलेक्टर तक, या सिपाही से लेकर सुप्रीम कोर्ट के जज तक हर किसी का सम्मान उनके सरकारी, या अदालती, या संवैधानिक कामकाज के हिसाब से बराबर ही रहना चाहिए, लोकतंत्र में सिपाही से बदसलूकी तो ठीक है, लेकिन बहुत बड़े अफसर, या हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट के जज से बदसलूकी पर जुर्म दर्ज हो जाए, यह तो ठीक नहीं है। यह भी बात समझने की जरूरत है कि बड़े अफसर, नेता, या जज तो अपने से मातहत कर्मचारियों के सुरक्षा घेरे में रहते हैं, और बदसलूकी के उन तक पहुंचने का मतलब नीचे के लोगों से बदसलूकी हो चुकना भी रहता है। इसलिए सरकार हो, अदालत हो, या कोई और संवैधानिक संस्था, इनमें से किसी के भी छोटे या बड़े कर्मचारी-अधिकारी का सम्मान बराबर ही रहना चाहिए, और अगर कोई भी व्यक्ति इनके ओहदों से जुड़े कामकाज को लेकर इन पर हमला करे, तो उसके लिए जो नियम है वे एक बराबरी से लागू होने चाहिए, चाहे कर्मचारी को थप्पड़ मारने वाले मंत्री-मुख्यमंत्री हों, या मातहत से बदसलूकी करने वाले जज ही क्यों न हों।
भारत में ऐसे तो कहने के लिए लोकतंत्र की पौन सदी पूरी हो रही है, और चारों तरफ जलसे चल रहे हैं, लेकिन लोगों की सोच अब तक सामंती बनी हुई है। किसी के सिर पर सत्तारूढ़ पार्टी का होने का गुरूर रहता है, किसी के सिर पर किसी ‘बड़े’ व्यक्ति की औलाद होने का अहंकार रहता है, और बहुत से लोगों पर अपनी संपन्नता का घमंड उनकी गाड़ी के हॉर्सपावर के साथ जुडक़र काम करता है। बड़े शहरों की जितनी संपन्न रिहायशी इमारतें होती हैं, वहां कर्मचारियों के साथ बदसलूकी हिन्दुस्तानियों के आम मिजाज में बैठी हुई है। कई ऊंची बिल्डिंगों में तो घरेलू कामगारों, और चौकीदारों को लिफ्ट में चढऩे की भी मनाही रहती है, और ढेरों वीडियो आते हैं जिनमें कोई संपन्न महिला संपन्नता और दारू के नशे में छोटे-छोटे कर्मचारियों को मां-बहन की गालियां बकते दिखती हैं। लोगों की सोच ऐसी सामंती है कि वे सरकारी अमले को अपने बाप का नौकर मानकर उनसे बदसलूकी को अपना हक मान लेते हैं। फिर यह भी है कि जिनके पास उस वक्त थोड़ी-बहुत ताकत रहती है, उनके आभामंडल के दूसरे लोग उस ताकत को अपनी बपौती मानकर चलते हैं।
मध्यप्रदेश के ही एक डीजीपी के बददिमाग बेटे ने उनके एक जिले के दौरे के दौरान पुलिस के एक डीएसपी के साथ बड़ी बदसलूकी की थी, तो जिले के आईपीएस अफसर ने डीजीपी के बेटे को थप्पड़ मारी थी, और बाद में कई तरह की जांच भी भुगती थी। लेकिन ऐसा जवाब देने का हौसला कितने लोगों का हो सकता है कि वे अपने मातहत के सम्मान की रक्षा के लिए खुद का कॅरियर इस तरह दांव पर लगाएं? छत्तीसगढ़ में भी बहुत से ऐसे मौके आए हैं जब सत्ता की बददिमागी में लोगों ने मातहत कर्मचारियों और अधिकारियों को पीटा है, और ऐसे हर मौके पर हमने उसके खिलाफ लिखा है। मध्यप्रदेश में सत्तारूढ़ विधायक, और कलेक्टर के बीच की ऐसी तनातनी सत्ता की बददिमागी का एक बड़ा सुबूत है। कोई पार्टी अपने विधायक का तो तबादला कर नहीं सकती, कलेक्टर को ही वहां से हटा सकती है, लेकिन ऐसे में हमलावर विधायक का दिमाग और आसमान पर पहुंच जाएगा, और वह अगले कलेक्टर को अपने जूते की नोंक पर लेकर चलेगा।
अभी पिछले हफ्ते-दस दिन से बिहार के दो अलग-अलग वीडियो आए हैं जिनमें से एक में किसी सत्तारूढ़ विधायक को भीड़ खदेड़ रही है, और वह किसी तरह वहां से भागकर जान बचा रहा है। दूसरा वीडियो वहां के एक मंत्री का है जो कुछ मौतों के बाद गांव पहुंचे थे, और वहां ऐसा पथराव करके उन्हें भगाया गया है कि वे भागते चले जा रहे हैं, और कार के शायद शीशे भी टूट गए हैं, किसी तरह उनकी जान बची है। बिहार की जनता का मिजाज कुछ अलग है, हर प्रदेश में जनता कानून इस तरह अपने हाथ में नहीं लेती है। लेकिन जैसा कि बहुत सी फिल्मों में होता है, जुल्मी और जुर्मी नेताओं को कहीं पर बागी तेवर वाला कोई पुलिस अफसर घर-दफ्तर से घसीटकर ले जाकर सडक़ पर मारता है, या जनता मंच से उतारकर ऐसे नेताओं को मारती है, ऐसा भी किसी जगह असल जिंदगी में हो सकता है। गुंडागर्दी सिर्फ निर्वाचित या सत्तारूढ़ नेताओं का एकाधिकार तो है नहीं, कभी उन्हें भी इसका स्वाद चखना पड़ सकता है। विपक्ष के नेता अफसरों से टकराएं, यह तो समझ में आता है, लेकिन सत्तारूढ़ पार्टी का बुजुर्ग विधायक कलेक्टर के बंगले पर जाकर हाथापाई पर उतारू हो जाए, मारने को हाथ उठा ले, तो यह विधायक की ही शान (?) के खिलाफ हैं। विधायक में अगर दमखम होता, अगर उनकी बात सही होती, तो वे मुख्यमंत्री से मिलकर इसे निपटाते, मवालियों जैसी हरकत नहीं करते। इस घटना में विधायक की इतनी इज्जत रह गई कि कलेक्टर अपने बंगले के गेट पर शॉल लपेटे शोले के ठाकुर साहब की तरह बिना हाथ उठाए खड़े रहे, वे अगर चाहते तो पुलिस को बुलाकर लाठी भी चलवा सकते थे, क्योंकि उनके ऊपर हमले का तो एक वास्तविक खतरा था ही। फिर सत्तारूढ़ पार्टी की भला क्या इज्जत रह जाती? नेताओं को तैश दिखाने के पहले कानून की भी परवाह रहनी चाहिए, लेकिन उन्हें यह फिक्र तभी होगी जब कोई अदालत उन्हें बुलाकर कटघरे में खड़े करवाएगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


