संपादकीय
देश में चुनाव आयोग भारी शक के घेरे में है। जिस तरह से पिछले कुछ चुनावों में शाम को मतदान का समय खत्म होने के बाद एकाएक वोटों का सैलाब आया, उसने बहुत सी सीटों पर नतीजे बदल दिए। अब अगर सचमुच ही किसी मतदान केन्द्र पर वोट का समय खत्म होने के बाद इतनी लंबी कतारें लगी थीं, तो कांग्रेस पार्टी चुनाव आयोग से ऐसे केन्द्रों के वीडियो मांग रही है, और डरा-सहमा चुनाव आयोग भारतमाता के पल्लू के पीछे जा छुपा है, और तर्क दे रहा है कि माताओं-बहनों के वीडियो देना क्या ठीक होगा? माताओं और बहनों के जो वीडियो चुनाव आयोग मतदान केन्द्र पर खुद ही बनाता है, और प्रचार में उसका इस्तेमाल करता है, वही वीडियो तो प्रमुख विपक्षी दल मांग रहा है, उसमें मां-बहन की आड़ क्यों लेना? खैर, चुनाव आयोग के तौर-तरीके एक कांग्रेसविरोधी राजनीतिक दल सरीखे हो गए हैं, और राहुल गांधी की प्रेस कांफ्रेंस के मिनटों बाद, जब तक सत्तारूढ़ पार्टियों के प्रवक्ताओं के भी बयान नहीं आते, तब तक चुनाव आयोग राहुल गांधी को एक राजनीतिक जुबान वाला नोटिस जारी कर चुका रहता है। ऐसे में गुजरात का एक ताजा मामला जो कि चुनाव आयोग के ही आंकड़ों का है, वह हैरान करता है।
एक प्रमुख अखबार, भास्कर की एक रिपोर्ट बताती है कि गुजरात में दस गुमनाम सरीखे दलों को पिछले पांच बरस में 43 सौ करोड़ रूपए चंदा मिला बताया गया है, और चुनाव आयोग की रिपोर्ट में इनका खर्च कुल 39 लाख बताया गया है जबकि इन पार्टियों की ऑडिट रिपोर्ट में यह खर्च 35 सौ करोड़ रूपए दिखाया गया है। ये पार्टियां कागजी किस्म की दिख रही हैं, और 2019, 2024 के लोकसभा चुनाव, और इनके बीच हुए 2022 के विधानसभा चुनाव में इन्होंने कुल 43 प्रत्याशी उतारे, किसी को भी पांच हजार वोट भी नहीं मिले, और सभी पार्टियों ने कुल मिलाकर चुनाव आयोग को तो 39 लाख का हिसाब दिया, जबकि सीए की ऑडिट रिपोर्ट में 35 सौ करोड़ खर्च दिखा दिया। पहली नजर में यह पूरा मामला कालेधन का दिखता है कि जिन पार्टियों का किसी ने नाम भी न सुना हो, उन्हें करोड़ों रूपए चंदा मिला, और अधिकतर रकम को सीए की रिपोर्ट में खर्च दिखा दिया। हो सकता है कि कालेधन को सफेद करने की लॉंड्री चलाने वाले लोगों ने इसे कोई तरकीब बना लिया हो, लेकिन सवाल यह भी उठता है कि जब इन पार्टियों को इस तरह का अविश्वसनीय चंदा मिल रहा है, तो क्या इस पर इंकम टैक्स या ईडी की नजर नहीं जाती? और फिर जब ये हजारों करोड़ का खर्च दिखा रही हैं, तो भी किसी जांच के घेरे में इनको नहीं लाया जाता? जो चुनाव आयोग राहुल गांधी के जूतों के फीते बंधे न रहने पर उन्हें नोटिस देने के इरादे में दिखता है, उसे इन गैरमौजूद, और कागजी दलों का हजारों करोड़ का लेन-देन नहीं दिखता?
इससे एक दूसरा सवाल यह उठता है कि देश में कालेधन का इतना अधिक बोलबाला अभी तक कैसे बना हुआ है? नोटबंदी को बरसों हो चुके हैं, पांच सौ रूपए से बड़े तमाम नोट बंद हो गए हैं, अधिकतर लेन-देन बैंकों के मार्फत होने लगा है, चारों तरफ छोटे-छोटे लेन-देन भी अब मोबाइल फोन के जरिए हो रहे हैं, तो फिर दो-नंबर की इतनी रकम आती कहां से है? अभी भी हर कुछ दिनों में सडक़ों पर ऐसी गाडिय़ां पकड़ाती है जिनमें कोई खुफिया बक्सा बनाया गया है, और करोड़ों रूपए की नगदी ले जाई जा रही है। कारोबारी लोगों से पता लगता है कि हवाला कारोबार उसी तरह चल रहा है, जैसा पहले चलता था। व्यापार में आज भी देश में कहीं से भी, कहीं भी, कितनी भी रकम नगदी भेजी जा सकती है, और इसके लिए नोट सफर नहीं करते, केवल फोन पर सब काम हो जाता है। तो नोटबंदी के बाद क्या नगदी पर कोई भी रोक नहीं लग पाई? अभी दो दिन पहले ही कर्नाटक के कांग्रेस विधायक पर छापा पड़ा, तो दस करोड़ से अधिक के नगदी नोट मिले। पिछले दिनों बिहार में एक-एक करके कई अफसरों पर छापे पड़े, तो वे करोड़ों के नोट जलाते हुए मिले। दिल्ली में हाईकोर्ट के एक जज के बंगले से जले हुए नोटों से भरी हुई बोरियां मिलीं। आखिर इतने नोट जब जलाए जा रहे हैं कि कहीं बोरियां भरी हुई हैं, कहीं नालियां चोक हो जा रही हैं, तो देश में समानांतर अर्थव्यवस्था तो जारी ही है।
एक अकेले राज्य गुजरात में ऐसे राजनीतिक दलों को हजारों करोड़ रूपए चंदा मिल जाए, जिनका नाम भी किसी ने सुना नहीं था, तो सरकार की एजेंसियां कर क्या रही थीं? क्योंकि जिन पार्टियों का अकाऊंट ऑडिट हो रहा है, उन्हें इंकम टैक्स में हिसाब-किताब देना पड़ता है, चुनाव आयोग को बताना पड़ता है, और चुनाव आयोग में सिर्फ 39 लाख का खर्च इन दस पार्टियों ने मिलकर दिखाया है, और ऑडिट में 35 सौ करोड़! जब आंकड़े ऐसे भयानक है, तो सरकार की एजेंसियों की नजरों में क्यों नहीं आ रहे हैं, और चुनाव आयोग जो कि राहुल गांधी के एक-एक शब्द पर नोटिस जारी करने के लिए कम्प्यूटर-प्रिंटर चालू ही रखता है, उसकी नजर में भी एक राज्य का ऐसा हिसाब-किताब सामने नहीं आए? गुजरात वैसे भी एक संवेदनशील राज्य है। वह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह का अपना राज्य तो है ही, वह समुद्री सरहद वाला राज्य भी है, जहां पर सरकार और अडानी के बंदरगाहों पर हजारों करोड़ का नशा पकड़ा रहा है। जाहिर है कि ऐसे नशे के धंधे में जो पैसा खर्च होता है, या जो कमाई होती है, वे बैंक खातों से तो आते नहीं हैं। ऐसे में गुजरात में जिस तरह हजारों करोड़ की जाहिर तौर पर दिखती अफरा-तफरी पहले ही नजर में आ जानी चाहिए थी।
देश में एनजीओ, दूसरे तथाकथित समाजसेवी संगठन, और राजनीतिक दल दो-नंबर के पैसों के लिए एक बड़ा अड्डा बने हुए हैं। केन्द्र और राज्य सरकारों को चाहिए कि अपने-अपने दायरे में इन पर नजर रखें। फिलहाल तो गुजरात का यह बड़ा बवाल सामने आया है, और इस पर चुनाव आयोग, या केन्द्र सरकार की कोई प्रतिक्रिया भी अभी सामने नहीं आई है।


