संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पारिवारिक सम्पत्ति की दो खबरें, दो कहानियां..
सुनील कुमार ने लिखा है
26-Aug-2025 3:52 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : पारिवारिक सम्पत्ति की दो खबरें, दो कहानियां..

आज के अखबारों में दो खबरों को मिलाकर देखने की जरूरत है। पहली खबर मध्यप्रदेश के शिवपुरी जिले की है जिसके साथ एक भयानक वीडियो भी है। एनडीटीवी की खबर बताती है कि वहां एक रिटायर्ड डीएसपी को रिटायरमेंट के वक्त जो भुगतान मिला है, उसे पाने के लिए उस बुजुर्ग की बीवी, और उसके दो जवान बेटे मिलकर उसे पीट रहे हैं, और पड़ोसियों की दखल भी उसे बचा नहीं पा रही है। छोटे से अंतरंग कपड़ों में इस बुजुर्ग को जमीन पर गिराकर अलग रहने वाले उसके बीवी-बेटे उस पर जुल्म कर रहे हैं। एक बेटा उसकी छाती पर चढक़र बैठ गया है, और बीवी ने उसके पैरों को रस्सी से बांध दिया है। इसके बाद उसे रस्सी से बांधकर खींचा जा रहा है, और बीवी उसका एटीएम कार्ड छीनकर भाग गई है। यह वीडियो सामने आने के बाद पुलिस ने इसकी जांच शुरू की है। इन दिनों जब उत्तर भारत में, और छत्तीसगढ़-मध्यप्रदेश जैसे हिन्दीभाषी इलाकों में कई तरह के त्यौहार मनाए जा रहे हैं, महिलाएं कई तरह की कामना करते हुए उपवास रख रही हैं, तब यह वीडियो देखना भी दिल दहलाता है कि एक रिटायर्ड बुजुर्ग से उसकी जिंदगी भर की बचत लूटने के लिए बीवी-बेटे यह कैसी हिंसा कर रहे हैं!

एक दूसरी खबर छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले की है। दैनिक भास्कर ने इसे पहले पन्ने पर छापा है कि किस तरह जून-जुलाई के महीनों में जिला पंजीयन कार्यालय में 103 मामलों में संपत्ति का हित त्याग किया गया, जिनमें 90 फीसदी हित त्याग बहनों ने किया है। भाईयों के हित में बहनों के इस हित त्याग का बड़ा गुणगान इस खबर में किया गया है कि यह छत्तीसगढ़ की माटी में पली-बढ़ी बहनों का भाई के लिए त्याग है, रिश्तों की गहराई और संवेदनशीलता की सबसे बड़ी मिसाल है। समाचार में ही एक विचार भी लिखा गया है कि मायके से एक लोटा पानी, और तीज की एक साड़ी की ही आस रहती है, और इसके लिए छत्तीसगढ़ की बहन-बेटियां करोड़ों की संपत्ति भी ठुकरा देती है, जबकि कानून बेटे-बेटी दोनों को बराबरी का हक देता है।

परिवार के भीतर संपत्ति के बंटवारे के यह दो मामले एक तो हिंसा का है, और दूसरा त्याग बताया जा रहा है। अब सवाल यह उठता है कि दुर्ग जिले के जिस त्याग की महिमा का गुणगान समाचार में किया गया है, वह त्याग क्या अकेली महिला का ही जिम्मा होता है जो कि 90 फीसदी महिलाएं ऐसा करती हैं? या फिर यह उनके भाईयों का भी जिम्मा होना चाहिए कि वे भी अपनी बहन के लिए कुछ करने को तैयार रहें, और वे भी बहन के लिए हित त्याग करें? भारत में महिला जब छोटी बच्ची रहती है, तब से उसे त्याग सिखाया जाता है, और त्याग का गुणगान किया जाता है। प्रायमरी स्कूल की किताब में पढ़ाया जाता था, कमल घर चल, कमला नल पर जल भर। वही सोच लड़कियों के बड़े होने पर भी जारी रहती है, वही सोच लडक़ों को जुल्मी बनाती है, और लड़कियों को अपार सहने की जिम्मेदारी देती है।

मध्यप्रदेश के मामले में चूंकि पुलिस जुर्म दर्ज करके मां-बेटों को ढूंढ रही है, इसलिए हम उस पर कुछ कहना नहीं चाहते, सिवाय इसके कि हर किसी को ऐसी नौबत का ख्याल रखते हुए अपने पैसों की फिक्र करनी चाहिए, और उन्हें अपने आखिरी वक्त के लिए संभालकर रखना चाहिए। अलग रहने वाले मां-बेटे भी आकर अगर रिटायर्ड की ऐसी दुर्गति करके उसकी बचत नोंचना चाहते हैं, तो बाकी लोगों को भी सावधान रहना चाहिए। लेकिन छत्तीसगढ़ के दुर्ग की जो तथाकथित त्याग की खबर है, उस बारे में समाज को अलग से सोचना चाहिए। भारत के कानून में भाई-बहनों का हक संपत्ति पर बराबरी का है। और समाज के भीतर सोच क्या है, वह इस समाचार में दिए गए आंकड़ों से ही साफ हो जाती है कि हित त्याग करने वालों में 90 फीसदी बहनें हैं। समाज की ऐसी सोच को देखते हुए कानून को अपने आप पर गौर करना चाहिए कि बराबरी का हक देने की बात तो उसने कही है, लेकिन वह बात महिलाओं से त्याग की उम्मीदों के चलते परास्त हो जा रही है। कुछ जगहों पर तो ऐसा हो सकता है कि शादीशुदा बहन को संपत्ति की जरूरत न हो, लेकिन 90 फीसदी मामलों में बहन को जरूरत न हो, और भाई को जरूरत हो, यह बात तो गले नहीं उतर सकती। यह सीधे-सीधे समाज की इस सोच से जुड़ी हुई बात दिखती है कि बहन की शादी में जो देना था दे दिया, अब मां-बाप की संपत्ति पर उसका और कोई हक नहीं होना चाहिए। लडक़ी की शादी में खर्च एक ऐसा सामाजिक दिखावा रहता है जो कि जुर्म की हद तक बिखरा हुआ रहता है, और उससे ब्याह कर जाती हुई बेटी की बाकी जिंदगी कोई मदद नहीं मिलती। लडक़े-लड़कियों के मां-बाप सामाजिक दिखावे के लिए इस तरह का दिखावा करते हैं, और इसके साथ ही मां-बाप, और भाई भी लडक़ी से हाथ धो लेते हैं कि अब तुम्हारी अर्थी ससुराल से ही उठना चाहिए। अब यह अर्थी ससुराल से कैसे उठती है, यह दिल्ली के इलाके में अभी सामने आया है जिसमें दहेज की मांग करते हुए पत्नी को जलाकर मार डालने का जुर्म दर्ज हुआ है।

जिस तरह बहन के त्याग का गुणगान होता है, उस तरह के गुणगान का हकदार बनकर भाई को भी दिखाना चाहिए। आज हालत यह है कि देश में अंगदान करने वालों में 90 फीसदी महिलाएं हैं, और अंग पाने वालों में 90 फीसदी पुरूष हैं। दुर्ग जिले में दो महीने में हित त्याग करने वालों में भी स्त्री-पुरूष का यही अनुपात है। ऐसा लगता है कि भारत की महिला की सोच सिर्फ त्याग के लिए ही तैयार की जाती है, और पुरूष की सोच उस त्याग का फायदा पाने वाले की। भारत में परिवार के लिए भूखे रहकर भी पति और बच्चों का पेट भरने वाली महिला का खूब गुणगान किया जाता है। सती सावित्री भी महिला को ही बनना रहता है, और जब पति घर से निकाले, तो महिला को ही चुपचाप चले जाना पड़ता है, फिर चाहे वह गर्भवती ही क्यों न हो। युग-युग से चली आ रही यह सोच आज जब अखबार के पहले पन्ने पर तारीफ भी पाती है, तो लगता है कि इसे अभी और युग-युग तक जारी रहना है। ज्यादा अच्छा तो यह हो कि बाप-भाई बैठकर शादी के खर्च का हिसाब निकालकर रखें, और संपत्ति में जो कानूनी हिस्सा बनता है, उस हिस्से से वह खर्च घटाकर बाकी रकम महिला को देने का रिवाज भी बन जाए, और कानून भी बन जाए। इस तरह का हित त्याग एक सामाजिक हिंसा का पुख्ता सुबूत है, और संसद को भी इस पर विचार करना चाहिए। एक लोटा पानी, और एक साड़ी को हर बरस महिला का मायके से कुलजमा हक मानना नाजायज सोच है।

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