संपादकीय
अभी अमिताभ बच्चन के एक लोकप्रिय कार्यक्रम कौन बनेगा करोड़पति में विशेष आमंत्रित मेहमानों के दर्जे में भारतीय फौज की उन महिला अधिकारियों को अमिताभ के सामने बिठाया गया जिन्होंने ऑपरेशन सिंदूर के दौरान मीडिया को ब्रीफ किया था। उस बात की भी कुछ लोगों ने आलोचना की थी कि फौज की जिम्मेदारियों का इस तरह से लोक-लुभावनीकरण नहीं किया जाना चाहिए। खैर, वह बात आई-गई हुई, अब दिल्ली में मिस यूनिवर्स बनी स्मृति छाबड़ा का एक ऐसा वीडियो सामने आया है जिसमें वे कर्नल सोफिया कुरैशी, और विंग कमांडर व्योमिका सिंह दोनों को टू-इन-वन दिखा रही हैं। वे भारत के प्रतीक, शायद इंडिया-गेट की प्रतिकृति के नीचे एक फौजी यूनिफॉर्म पहनकर परेड के अंदाज में चलकर आती हैं, और फौजी सलामी देती हैं। इसमें एक बड़ी दिक्कत यह है कि वे जो यूनिफॉर्म पहने दिखती हैं, वह शिव के अर्धनारीश्वर रूप की तरह आधी थलसेना की है, और आधी वायुसेना की। कोई और कार्यक्रम रहता, मिस यूनिवर्स किसी और धर्म की रहती, तो अब तक उसका किसी पड़ोसी देश का वीजा बन गया रहता। अब सवाल यह उठता है कि लोकप्रियता के लुभावने अभियानों में फौज का कितना इस्तेमाल करना चाहिए?
दुनिया भर में फौज की टीमें उनका हौसला बरकरार रखने के लिए, उन्हें फिटनेस की तरफ बढ़ाने के लिए तरह-तरह के रोमांचक अभियानों में लगाई जाती हैं। कहीं वे पर्वतारोहण करती हैं, कहीं वे समंदर पर अकेले बोट के सफर पर चली जाती हैं। लेकिन इसका रोमांच और हौसले से सीधा लेना-देना रहता है। फौज के लोग आमतौर पर स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस की परेड जैसे कार्यक्रमों तक सीमित रखे जाते हैं। ऐसे में कौन बनेगा करोड़पति तक फौज का जो विस्तार हुआ, वह मिस यूनिवर्स की रैम्पवॉक-परेड तक बिखर गया। कुछ लोगों को इसमें कुछ भी गलत नहीं लगेगा, लेकिन जिस फौज को अपनी संवेदनशील भूमिका को ध्यान में रखते हुए अपने दायरे को सीमित रखना चाहिए, जिसे सोशल मीडिया से भी दूर रहने को कहा जाता है, इधर-उधर दोस्ती करने से भी जिसे रोका जाता है, उसे, या उसकी वर्दी को अर्धनारीश्वर की तरह पेश करना फौज की गंभीरता को कम करना है या नहीं, उस बारे में भी सोचना चाहिए। अभी वह विवाद तो खत्म हुआ ही नहीं है जिसमें मध्यप्रदेश के एक भाजपा मंत्री ने ऑपरेशन सिंदूर की मीडिया प्रभारी कर्नल सोफिया को मंच से चीख-चीखकर आतंकियों की बहन कहा था, और जो सुप्रीम कोर्ट की बड़ी कड़ी फटकार के बाद भी माफी मांगने के लिए भी तैयार नहीं हैं।
फौज को लेकर न तो कोई राष्ट्रवादी उन्माद जायज है, और न ही फौज का कोई मनोरंजक इस्तेमाल। फौज को उसकी पूरी जरूरी-गंभीरता के साथ अलग-थलग रहने देना चाहिए। देश वैसे भी इस विवाद को बरसों से झेल रहा है कि फौज से निकलने के बाद अफसरों का तुरंत ही राजनीति में आ जाना, और चुनाव लडऩा कितना जायज है, और कितना नहीं। यह बात सिर्फ फौजी अफसरों के लिए हो रही हो ऐसा भी नहीं है, यह बात जजों के बारे में भी हो रही है कि एक दिन पहले तक राजनीतिक रूझान वाले मामलों पर सक्रियता से फैसले देने वाले जज कार्यकाल के बीच इस्तीफा देकर अगले दिन एक राजनीतिक दल में आ जाएं, और उसके उम्मीदवार बनकर चुनाव भी लड़ लें। फौज हो या अदालत, इनको घरेलू जमीन पर, और अपने दायरे में किसी लगाव या दुराव से परे रहना चाहिए। एक वक्त था जब सरहद पर जवानों के मनोरंजन के लिए सुनील दत्त और नरगिस जैसे कलाकार लगातार वहां जाते थे। अब फौजी अफसर ऑपरेशन सिंदूर के बारे में बोलने के लिए देश के सबसे बड़े, और खालिस बाजारू टीवी कार्यक्रम पर जा रहे हैं। इस सिलसिले की संवेदनशीलता हो सकता है कि बहुत लोगों को समझ भी न आए क्योंकि आम जनता जटिल पहलुओं को समझने से अपने आपको आजाद रखती है, और यह भी मानकर चलती है कि किसी जटिलता का अस्तित्व भी नहीं है। लेकिन जब जिंदगी के किसी एक दायरे में किसी संवेदनशील सरहद को पार किया जाता है, तो उसकी मिसाल का कई और जगहों पर बेजा इस्तेमाल भी होता है।
जिस तरह आईएएस अफसरों पर यह बंदिश रहती है कि वे नौकरी छोडऩे के बाद कुछ वक्त तक किसी निजी कंपनी में काम नहीं कर सकते। यह बंदिश तो रहती ही है कि जिस कंपनी से उनका सरकारी नौकरी में रहते हुए कोई वास्ता पड़ा हो, वहां तो तुरंत बिल्कुल ही नहीं जा सकते। ऐसे में अभी जब कुछ अरसा पहले एक केन्द्रीय जांच एजेंसी का एक अफसर नौकरी छोडक़र तुरंत ही देश की एक सबसे बड़ी, और खासी विवादास्पद कंपनी में चले गया तो भी लोगों ने जायज और नाजायज के सवाल उठाए। आखिर में हम इसी बात को दोहराना चाहते हैं कि फौज और अदालत जैसी जगहों से निकलकर, या इन जगहों पर रहते हुए भी लोगों को यह ध्यान रखना चाहिए कि वे कहां जा रहे हैं, क्या कर रहे हैं, या क्या कह रहे हैं। लोकतंत्र में जो महत्वपूर्ण संस्थान हैं, उन्हें विवादों से एकदम ही दूर रहना चाहिए।


