संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : स्कूलों में चाकू-पिस्तौल, गुजरात से लेकर छत्तीसगढ़, और उत्तराखंड तक एक हाल
सुनील कुमार ने लिखा है
23-Aug-2025 5:11 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : स्कूलों में चाकू-पिस्तौल, गुजरात से लेकर छत्तीसगढ़, और उत्तराखंड तक एक हाल

दो दिन पहले गुजरात की राजधानी अहमदाबाद के एक स्कूल में 8वीं के छात्र ने 10वीं के छात्र को चाकू मार दिया और उसकी मौत के बाद स्कूल में घुसकर लोगों ने जमकर तोडफ़ोड़ की। चाकू मारने वाले इस छात्र के मोबाइल फोन से दूसरे छात्र की बातचीत भी सामने आई है जिसमें मौत की खबर मिलने पर भी यह चाकूबाज लडक़ा बेफिक्र रहता है। आज गुजरात के एक और जिले में चाकूबाजी हुई, वहां भी 8वीं के छात्र ने 10वीं के एक छात्र को चाकू घोंप दिया, और घायल लडक़ा अस्पताल में है। लेकिन गुजरात ऐसा अनोखा राज्य नहीं है, छत्तीसगढ़ में रायपुर, बिलासपुर जैसे कई शहरों में स्कूलों में चाकूबाजी धड़ल्ले से चल रही है, और कहीं उसके वीडियो सामने आते हैं, तो कहीं खून से लहूलुहान छात्रों की तस्वीरें आती हैं। उत्तराखंड की एक अलग खबर है कि 9वीं कक्षा का एक छात्र होमवर्क पूरा न करने पर टीचर की डांट से खफा था, और वह घर से टिफिन में देसी पिस्तौल लेकर गया, और उस टीचर पर गोली चलाकर उसे जख्मी कर दिया। टीचर अभी अस्पताल में है, और छात्र स्कूल छोडक़र भाग गया।

यहां पर दो चीजें अलग-अलग चर्चा के लायक हैं, पहली तो यह कि स्कूली छात्रों के बीच हिंसा इतनी क्यों बढ़ रही है? दूसरी बात यह कि स्कूल-कॉलेज के छात्र-छात्राओं से परे भी चाकू का इतना इस्तेमाल क्यों हो रहा है? इन दोनों के पीछे सोशल मीडिया पर डाली जा रही रील का भी असर है, पेशेवर मुजरिमों से लेकर शौकिया शेखी बघारने वाले लोगों तक को वीडियो बना-बनाकर जगह-जगह पोस्ट करना इतना पसंद है कि लोग अपने खुद के जुर्म के वीडियो डाल रहे हैं, यह जानते-समझते कि ऐसे ही वीडियो पर कार्रवाई करना पुलिस के आसान इसलिए हो जाता है कि वे सीधे-सीधे सुबूत भी रहते हैं, और जहां से पोस्ट किए गए हैं, वे फोन नंबर या इंटरनेट कनेक्शन भी तुरंत ही पुख्ता सुबूत बन जाते हैं। हर दिन ऐसे कई लोग गिरफ्तार होते हैं, और उससे सैकड़ों गुना अधिक लोग अपने ऐसे ही जुर्म पोस्ट करते रहते हैं। शायद समाज में हिंसक ताकत का ऐसा प्रदर्शन एक फैशन बन गया है, और इन दिनों इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया पर अपनी रील बना-बनाकर डालने वाले स्कूली बच्चों से लेकर नौजवान और अधेड़ लोगों तक को अपने जुर्म के वीडियो भी शान का सामान लगते हैं। हर दिन आवारा और मवाली लडक़ों के वीडियो आते रहते हैं जिनमें वे पिस्तौल और चाकू दिखाते हुए, अपने आपको डॉन कहते हुए दिखते हैं, और कमउम्र के या नौजवान बाकी लोगों पर भी ऐसी ही हरकत करने का एक मानसिक दबाव बन जाता है। फिर कब सिर्फ वीडियो के लिए लाए गए चाकू-कट्टा असल हिंसा का सामान बन जाते हैं, यह पता भी नहीं चलता।

स्कूल के छात्रों के बीच हिंसा इतनी बढऩे की दो वजहें हमें और लगती हैं। जिन राज्यों में पढ़ाई-लिखाई से जिंदगी में आगे बढऩे का बहुत अधिक लेना-देना नहीं रहता है, वहां पर मां-बाप की छाती पर मूंग दलते हुए टीनएजर्स और नौजवान स्कूल-कॉलेज में जाते जरूर हैं, लेकिन उनके सामने पढ़ाई के लिए कोई प्रेरणा नहीं रहती। पढ़-लिखकर क्या होगा जब नौकरी के लिए तो रिश्वत देनी ही होगी! ऐसी सोच में जीने वाले लडक़े-लड़कियों के बीच हिंसा आसानी से पनप जाती है, और हिंसा से परे के दूसरे किस्म के जुर्म भी। अभी हमारे पास उत्तर भारत, या हिन्दी राज्यों के स्कूली छात्रों के जुर्म के आंकड़ों की दक्षिणी राज्यों से तुलना नहीं है, लेकिन फिर भी ऐसा लगता है कि जिन राज्यों में पढ़ाई-लिखाई का आगे की जिंदगी से सीधा रिश्ता रहता है, वहां स्कूल-कॉलेज की उम्र में इस तरह के जुर्म कम होते होंगे क्योंकि पढ़ाई उनके लिए मायने रखती है। 

दूसरी बात यह भी लगती है कि सरकारी या गैरसरकारी, किसी भी किस्म की स्कूलों में अब शिक्षकों का छात्र-छात्राओं से पहले सरीखा रिश्ता नहीं रह गया है। अब क्लासरूम की पढ़ाई से परे बहुत अधिक मेहनत करना शिक्षक-शिक्षिकाओं के लिए जरूरी नहीं है, बल्कि मेहनत करने का नतीजा दिख रहा है कि किस तरह होमवर्क के मुद्दे पर टीचर को गोली खानी पड़ी है। कुछ बहुत महंगी निजी स्कूलों में तो परामर्शदाता रहते भी होंगे, लेकिन अब सरकारी स्कूलों में तो जहां शिक्षक भी पूरे नहीं हैं, हैं तो वे दारू पीकर पड़े हैं, ठेके पर दूसरे को पढ़ाने के लिए रख लिया है, लड़कियों से छेडख़ानी कर रहे हैं, तो वे छात्र-छात्राओं को हिंसा के प्रति क्या जागरूक करेंगे? एक किस्म से स्कूली उम्र के बच्चे न मां-बाप के काबू के रह जाते, और न स्कूल के। वे बस अपने हमउम्र बच्चों के साथ बुरी आदतें सीखने के लिए आजाद रहते हैं, और उनमें से कुछ तब पकड़ाते हैं जब वे कोई बड़ा जुर्म कर बैठते हैं। वरना इसी उम्र के लडक़े-लड़कियों के बीच सेक्स के जुर्म होते हैं, वीडियो बनाकर ब्लैकमेलिंग चलती है। 

भारत में आज सरकारों की प्राथमिकता जुर्म दर्ज होने के बाद जांच और सजा तक सीमित है, या फिर महापुरूषों की जीवनियां पढ़ाने तक। ये बच्चे आज मोबाइल की मेहरबानी से हर दिन कई घंटे जिन सोशल मीडिया प्लेटफॉम्र्स पर गुजारते हैं, वहां पर इन्हें दिखने वाली सामग्री पर सरकार या समाज का कोई काबू नहीं है। और तो और जो कमउम्र बच्चे स्कूटर-मोटरसाइकिलों पर स्कूल जाते हैं, उन पर हेलमेट अनिवार्य करने जैसी मामूली सी बात भी स्कूल लागू नहीं करते, और सरकार उस पर कोई कार्रवाई नहीं करती। ट्रैफिक-नियम तोडऩे से जो दुस्साहस मिलता है, वह बाकी-कानून तोडऩे तक, और जुर्म करने तक जारी रहता है, और कोई अगर यह सोचे कि छात्रों के बीच चाकूबाजी को मैटल डिटेक्टर लगाकर रोका जा सकता है, तो वह गलतफहमी होगी। कानून की इज्जत किस्तों या कतरों में नहीं आती, वह आती है तो मिजाज में आती है, नहीं तो फिर दूर चली जाती है। इसलिए राज्य सरकारों को, या कि निजी स्कूल संचालकों को अपने छात्र-छात्राओं के बीच कानून के सम्मान का मिजाज ही बनाना पड़ेगा, उन्हें हेलमेट जैसी छोटी चीज से भी कानून की इज्जत सिखानी होगी, वरना बढक़र वह चाकूबाजी तक पहुंच रही है। सरकारों को पुलिस और अदालत से परे भी इस बारे में सोचना होगा, वरना यह सिलसिला बढ़ते ही चलेगा। अब तो बहुत सारे लोग अपनी हिंसा के वीडियो पोस्ट करते हुए यह परवाह भी नहीं करते कि यह उनके जुर्म का पुख्ता सुबूत भी है।

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