संपादकीय
पिछले दो-चार दिनों से छत्तीसगढ़ में एक राजनीतिक बहस चल रही है कि राज्य के एक सबसे बड़े आदिवासी नेता अरविन्द नेताम को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अपने नागपुर मुख्यालय के एक कार्यक्रम में अतिथि बनाकर बुलाया है, तो उन्हें वहां जाना चाहिए या नहीं? विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष डॉ.चरणदास महंत ने मीडिया से बात करते हुए नेताम के इस न्यौते को मंजूर करने पर अफसोस जाहिर किया, और कहा कि उन्हें नहीं जाना चाहिए, और वे उनसे इस बारे में बात करेंगे। अब सवाल यह उठता है कि अरविन्द नेताम कांग्रेस में तो हैं नहीं, और वे तो कई चुनाव कांग्रेस के खिलाफ भी लड़ चुके हैं, ऐसे में उन्हें महंत किस आधार पर रोकने की कोशिश कर सकते हैं? सच तो यह है कि अरविन्द नेताम पिछले बरसों में लगातार चुनावी राजनीति की मूलधारा से किनारे होते चले गए, और अभी सर्वआदिवासी समाज के एक चुनावी-राजनीतिक संगठन के बैनरतले उन्होंने विधानसभा चुनाव में कुछ उम्मीदवार खड़े किए थे, लेकिन उन्हें कुछ हासिल नहीं हो पाया। प्रदेश के सबसे उम्रदराज आदिवासी नेता की हैसियत से नेताम आज भी अपनी शारीरिक सक्रियता के चलते राजनीति के संपर्क में रहते हैं, और इस नाते वे आदिवासी मुद्दों को हर तरह से उठाते हैं।
अब चूंकि संघ मुख्यालय के कार्यक्रम में नेताम को अतिथि बनाने की खबर बन गई, उस पर टीवी चैनलों पर मुर्गा लड़ाई भी होने लगी, इसलिए नेताम को कल जगदलपुर में एक प्रेस कांफ्रेंस करके चीजों को साफ करना पड़ा। उन्होंने कहा कि उनके और आरएसएस के बीच कोई संबंध नहीं है। लेकिन संघ ने अपने वार्षिक उत्सव में उन्हें मुख्य अतिथि बनाया है, तो वे वहां जाकर, आदिवासी समाज के प्रतिनिधि के रूप में समाज के हित की बातें संघ के नेताओं के सामने रखेंगे। उन्होंने कहा कि देश में (और प्रदेश में भी) भारतीय जनता पार्टी का शासन है, और शासन की नीति में किसी भी तरह का प्रभाव डालना है, तो उसके पूर्व आरएसएस की मंजूरी भी जरूरी जान पड़ती है। उन्होंने कहा कि अपनी बात रखने का जो मौका उन्हें मिला है, उसे आदिवासियों के हित में, और संघ परिवार को सहमत कराने में वे इस्तेमाल करेंगे। उन्होंने कहा कि कुछ अरसा पहले रायपुर आए हुए संघ प्रमुख मोहन भागवत से उनकी मुलाकात हुई थी, और उस वक्त भी उन्होंने भागवत से कहा था कि संघ और आदिवासी समाज के बीच जो दूरी है उसे दूर करने के लिए संघ को अपनी हिन्दुत्ववादी विचारधारा में कुछ परिवर्तन करना होगा।
जिन लोगों को बिना बात के बतंगड़ बनाकर खबरों और बखेड़े में बने रहने का शौक है, उनके लिए तो नेताम का आरएसएस में जाना बड़ा मुद्दा हो सकता है, वरना वे तो पहले भाजपा में जा भी चुके हैं, बसपा में भी जा चुके हैं, और कांग्रेस में भी एक से अधिक बार उनका आना-जाना हो चुका है, इसलिए संघ के कार्यक्रम में जाकर वे कोई अनहोनी नहीं कर रहे हैं। दूसरी बात यह कि न सिर्फ अरविन्द नेताम, बल्कि किसी के भी संघ के कार्यक्रम में जाने में आपत्ति क्यों होनी चाहिए? वहां पर तो संघ से वैचारिक रूप से असहमत लोग भी जा सकते हैं, और संघ की विचारधारा से अपनी असहमति बता सकते हैं, उसका विरोध भी करके आ सकते हैं। और जैसा कि नेताम ने कहा है, वे वहां जाकर आदिवासी के मुद्दों को सामने रखना चाहेंगे, और भाजपा सरकारों से कोई काम करवाने में संघ की सहमति मायने रखती है, तो इस हिसाब से नेताम आदिवासियों के हित का काम करने जा रहे हैं। संपादकीय के इस कॉलम में किसी निजी बात का जिक्र ठीक नहीं होता, लेकिन इसी से मिलती-जुलती एक बात इस संपादक (इस संपादकीय के लेखक) को लेकर भी है। दशकों पहले छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में भाजपा के एक छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के एक प्रशिक्षण कार्यक्रम के समापन शिविर में उस वक्त भाजपा के एक बड़े प्रखर नेता, गोविंदाचार्य के साथ मंच पर संविधान संशोधन के मुद्दे पर विचार रखने के लिए इस संपादक को भी आमंत्रित किया गया था, और कार्ड में नाम छपने पर लोगों में बड़ी सनसनी फैली थी। लेकिन कार्यक्रम में जब गोविंदाचार्य बोल चुके थे, तब इस संपादक ने उनके कथन और उनके तथ्य-तर्क सबकी उसी मंच और माईक से खूब धज्जियां उड़ाई थीं, और उसके बाद भी वहां मौजूद विद्यार्थी परिषद के सैकड़ों नौजवानों ने शिष्टाचार में तालियां भी बजाई थीं। अब अगर किसी के कार्यक्रम में जाकर उनसे वैचारिक असहमति जाहिर करने की ताकत हो, तो जाने में क्या दिक्कत होनी चाहिए? इस कार्यक्रम को दशकों गुजर गए, और इस संपादक का भाजपा और कांग्रेस से, या किसी भी और राजनीतिक दल से बराबरी की दूरी का रिश्ता बना हुआ है।
अरविन्द नेताम उस बस्तर से आते हैं जहां पर भाजपा और कांग्रेस सरकारों के अलग-अलग कार्यकालों में नक्सल-उन्मूलन नीतियां अलग-अलग रहीं, और सरकार की नीति से आदिवासियों की जिंदगी पर बड़ा असर भी पड़ा। वही बस्तर आज खदानों को लेकर भी असमंजस से गुजर रहा है, वहां पर आदिवासियों के ईसाई बनने को लेकर भी बड़ा बवाल चल रहा है, और सामाजिक मोर्चे पर तगड़ी धार्मिक लड़ाई लड़ी जा रही है, कहीं लाशों को दफनाने से रोका जा रहा है, तो कहीं दफन की गई लाशों को उखाड़ा जा रहा है। ऐसे बस्तर से आने वाले आदिवासी नेता अरविन्द नेताम आज 80-85 बरस की उम्र में भी अगर आदिवासियों के हितों की बात उठाने के लिए आरएसएस के मंच पर जा रहे हैं, तो वे एक शानदार काम कर रहे हैं। देश-प्रदेश में जो पार्टी सत्तारूढ़ है, उस पार्टी के मार्गदर्शक संगठन आरएसएस को अगर नेताम आदिवासी नजरिए से परिचित करा सकते हैं, और सहमत करा सकते हैं, तो यह आदिवासी हितों की ही बात होगी। अब वे चुनावी राजनीति की उम्र पार कर चुके हैं, और एक आदिवासी नेता के रूप में उनमें ऊर्जा अभी बाकी है, देश के हित में अगर विचार-विमर्श में उसका इस्तेमाल हो सकता है, तो उनसे सवाल करना फिजूल है। वे अपनी मर्जी के मालिक हैं, और आरएसएस के मंच पर जाना कोई जुर्म नहीं है। देश के बहुत से अलग-अलग पेशों के लोग भी वहां पर आरएसएस से सहमति के बिना भी जाते रहे हैं, और संघ परिवार की विचारधारा से प्रभावित हुए बिना अपने घर लौटते भी रहे हैं। विचारधाराओं का आदान-प्रदान पार्टियों की तंग सरहदों से नहीं बांधा जाना चाहिए।


