संपादकीय
भारत के सेनाप्रमुख, चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ अनिल चौहान ने अभी एक-दो इंटरव्यू में कही बातों से कई किस्म की खलबली मचाई हैं। एक तो उन्होंने गोलमोल शब्दों में यह बात मानी है कि पाकिस्तान के साथ चार दिनों की फौजी मुठभेड़ में भारत के एक या अधिक लड़ाकू विमान गिरे हैं। उन्होंने विमान गिरने का खंडन नहीं किया, हालांकि एक सवाल के जवाब में यह जरूर कहा कि पाकिस्तान 6 विमान गिराने की जो बात कहता है, वह गलत है। उन्होंने कुछ दूसरे मुद्दों पर भी फौज की वर्दी की सीमाओं से बाहर जाकर भारत और पाकिस्तान के कूटनीतिक संबंधों, और मोदी-नवाज शरीफ की आवाजाही के बारे में टिप्पणियां कीं, और हलचल मचाई है। लेकिन बाकी चीजों के साथ-साथ उन्होंने यह भी कहा कि ऑपरेशन सिंदूर के दौरान हमारे जवानों का 15 फीसदी वक्त फर्जी खबरों से निपटने में बर्बाद हो गया। यह बात कुछ अटपटी इसलिए है कि फौज की तरफ से दो महिला अधिकारी ही रोज मीडिया की ब्रीफिंग कर रही थीं, और वह भी अंतहीन नहीं चलती थी, आधे या चौथाई घंटे के भीतर की ही रहती थी, इसलिए यह कल्पना संभव नहीं है कि भारत की फौज का गरीब 15 फीसदी वक्त कैसे झूठ से जूझने में ही निकल गया। उन्होंने कहा कि झूठी खबरों से जूझना एक लगातार चलने वाली कोशिश रही, क्योंकि बड़ी फौजी कार्रवाई के दौरान झूठी जानकारी से जनधारणा गलत बन सकती है। उनकी बात अटपटी है, और भरोसेमंद नहीं लग रही है क्योंकि झूठी खबरों से जूझना सीधे-सीधे फौज का काम तो था नहीं। उसके लिए भारत सरकार का एक अलग विभाग है, और समय-समय पर प्रतिरक्षा मंत्री, और देश के विदेश सचिव भी मीडिया से बात कर रहे थे। ऐसे में झूठ से जूझने में फौज का वक्त भला कैसे बर्बाद हो सकता है? फौज अपने हमले मीडिया पर तैर रहे झूठ के आधार पर तो कर नहीं रही थी, भारतीय फौज ने पाकिस्तान पर जो भी हमले किए, वह अपनी खुफिया जानकारी, और उपग्रह से मिली जानकारी के आधार पर किए होंगे।
लेकिन हम पल भर के लिए, और महज बहस के लिए उनकी बात को सही मान लेते हैं कि फर्जी खबरों से जूझने में फौज का 15 फीसदी समय बर्बाद हुआ। अगर ऐसा रहा तो भारत सरकार ने अपने इस सबसे महंगे और रणनीतिक महत्व के विभाग के सैनिकों का यह 15 फीसदी समय बचाने के लिए क्या किया? मोटेतौर पर फेक न्यूज दो जगहों पर चल रही थी, एक तो सोशल मीडिया पर, और दूसरा उससे भी बढक़र टीवी चैनलों पर। लोगों को याद है कि किस तरह भारत के टीवी चैनलों ने पाकिस्तान के हर बड़े शहर पर भारतीय फौज का कब्जा दिखा दिया था, उन शहरों में कहीं बंदरगाह, तो कहीं एयरपोर्ट खत्म कर दिए थे, और पाकिस्तान की जिंदगी के आखिरी 5 या 8 घंटे की घोषणा भी कर दी थी। ऐसे समाचार चैनलों के कर्मचारी भी इस बात को लेकर शर्मिंदा थे कि उनके मैनेजमेंट ने आपसी गलाकाट मुकाबले के चलते इस तरह की गैरजिम्मेदारी दिखाई। लेकिन यह तो पकड़ में आने लायक झूठ थे कि भारतीय फौजें पाकिस्तान के उन प्रमुख शहरों तक कभी पहुंची ही नहीं थीं, क्योंकि वहां के लिए रवानगी ही नहीं हुई थी। लेकिन इससे परे भारत के भीतर जितने किस्म का युद्धोन्माद फैलाया जा सकता था, वह टीवी चैनलों ने फैलाया, जिनमें से हर चैनल भारत सरकार के पास अच्छी तरह रजिस्टर है, और सरकार लंबी-चौड़ी शर्तों के तहत ही इन्हें लाइसेंस देती है। अब सवाल यह उठता है कि जंग के माहौल में भी अगर सरकार अपने देश में झूठ फैला रहे चैनलों पर कार्रवाई न करे, सोशल मीडिया पर यही काम करने वाले लोगों पर कार्रवाई न करे, तो यह देश में किस तरह की अराजकता, और गैरजिम्मेदारी को बढ़ावा देना है? एक बार जब मीडिया जैसे संवेदनशील कारोबार में टीवी चैनल सोच-समझकर, और महज आपसी गलाकाट मुकाबले में आगे बढऩे के लिए बढ़-चढक़र झूठ फैलाएं, युद्धोन्माद का लावा पूरे देश में ऐसे बिखराएं कि उससे जंग की हसरत के साथ-साथ मुल्क के भीतर नफरत भी फैल जाए, तो ऐसे देश की सरकार की क्या जवाबदेही बनती थी? केन्द्र सरकार ने सिर्फ एक सलाह-पत्र ऐसा जारी किया था कि समाचार चैनल झूठी खबरों को न फैलाएं। लेकिन जब फैलाया गया झूठ अपने पूरे सुबूतों के साथ सरकार के सामने नाच रहा था, तब सरकार की जिम्मेदारी क्या इससे कुछ अधिक नहीं बन रही थी?
लोकतंत्र में जब किसी एक अराजकता पर, और सोची-समझी नफरती हिंसक मुकाबले पर कार्रवाई नहीं होती है, तो फिर यह बेरूखी दूसरे लोगों को भी ऐसे मुकाबले में शामिल होने को उकसाती है। फिर टीवी चैनलों से प्रभावित होकर, और पीछे रह जाने के डर से इंटरनेट पर खबरों के डिजिटल मीडिया को भी इस मुकाबले में शामिल होते देखा गया, और इनमें से जो सबसे अधिक गैरजिम्मेदार थे, उन्होंने सबसे अधिक ध्यान खींचा, और सोशल मीडिया के लोगों पर भी असर डाला। जिस तरह किसी फूटे हुए ज्वालामुखी से निकलता, खौलता, और जलता-सुलगता पिघला हुआ बहता लावा बेकाबू रहता है, उसी तरह उन्माद से गढ़ी हुई झूठी खबरें फैलती जाती हैं, और बेकाबू हो जाती हैं।
अगर हम देश के सबसे बड़े फौजी अफसर, सीडीएस की बात को सही मानें, तो अब तो फौजी कार्रवाई के दिन भी गुजर गए हैं, और अब जब सरहद पर हमले स्थगित हंै, सरकार के पास देश के भीतर जांच और कार्रवाई का वक्त है, तो संगठित समाचार चैनलों की सोची-समझी युद्धोन्मादी, और नफरती साजिशों पर कार्रवाई क्यों नहीं हो रही है? आज देश भर में गिने-चुने कुछ दर्जन यूट्यूबरों पर कार्रवाई अलग-अलग राज्यों की पुलिस ने की है, लेकिन टीवी चैनलों पर नजर रखने की जो सीधी जिम्मेदारी केन्द्र सरकार पर आती है, जिसका पूरा अधिकार केन्द्र सरकार ने अपने पास रखा है, वह जिम्मेदारी किसी पेड़ की छाँह में सोती हुई दिख रही है। अगर भारत में तथाकथित मीडिया का ऐसा ही भयानक गैरजिम्मेदार रूख सुधारना है, तो इससे बड़ी कोई दूसरी मिसाल भारत सरकार को नहीं मिल सकती। और अगर इस पर भी कोई कार्रवाई नहीं होगी, तो किस दिन देश के भीतर साम्प्रदायिकता भडक़ाने, और अराजकता फैलाने में ये उत्साही कैमरे और माइक्रोफोन जुट जाएंगे, उसका कोई ठिकाना तो है नहीं। जिस धंधे का अकेला उसूल टीआरपी हो, उसे उसकी मनमानी देना लोकतंत्र को खतरे में डालने से कम नहीं है। पड़ोसी दुश्मन देश के साथ टकराव तो बहुत कम होता है, लेकिन देश के भीतर जिस दिन, भाजपा सांसद निशिकांत दुबे के शब्दों में, सचमुच गृहयुद्ध की नौबत रहेगी, उस दिन यह गैरजिम्मेदार मीडिया-सोशल मीडिया पेट्रोल छिडक़कर आग ही लगा देगा। सरकार को कम से कम अपने सीडीएस के गिनाए हुए खतरे के बारे में तो सोचना ही चाहिए। जवानों की 15 फीसदी ताकत का मतलब अरबों रूपए भी होता है, और सरहद पर चल रही नाजुक जंग के बीच उसका एक रणनीतिक महत्व भी होता है। क्या सरकार इस बात को भी हल्के में ले सकती है?


