संपादकीय

दुनिया के इतिहास ने कई किस्म के भूकम्प देखे हैं, सुनामी भी देखी है, बाढ़ और ज्वालामुखी भी देखे हैं, लेकिन ट्रम्प का यह दूसरा कार्यकाल विश्व इतिहास की किसी भी प्राकृतिक विपदा से हजारों गुना अधिक उथल-पुथल करने वाला है। इसने दुनिया के तकरीबन हर देश को हिलाकर रख दिया है, उन्हें जो कि अमरीकी मदद पर भुखमरी से जूझ रहे थे, और जानलेवा बीमारियों का इलाज कर रहे थे, ऐसे देशों से लेकर योरप के देशों और चीन-हिन्दुस्तान तक हर किसी को ट्रम्प ने हिलाकर रख दिया है। गरीब देशों को अमरीकी मदद एक झटके में खत्म कर दी है, और दसियों लाख एड्स-मरीजों को दवाई की अगली खुराक भी नहीं मिल पाई है, करोड़ों बच्चों को टीका नहीं लग पाया है। और चीन, भारत, ब्रिटेन, फ्रांस या जर्मनी जैसी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं को ऐसा आर्थिक झटका ट्रम्प ने दिया है कि सबके पांव उखड़ गए हैं। दुनिया का शायद कोई भी ऐसा शेयर बाजार नहीं बचा है, जो तबाह न हो चुका हो, खुद अमरीका का भी।
लेकिन जैसा कि लंबे समय से कहा जाता है, बहुत सी आपदाएं ऐसी रहती हैं जिनमें कोई अवसर भी छुपा रहता है। और समझदारी की बात भी यही रहती है कि हर आपदा में अवसर ढूंढने की कोशिश करनी चाहिए, किसी-किसी में मिल भी जाता है। आज जब ट्रम्प ने अमरीका में आने वाले किसी भी देश के सामान पर उसी अनुपात में इम्पोर्ट टैरिफ लगा दिया है जिस अनुपात में वैसे अमरीकी सामानों पर उन देशों में इम्पोर्ट ड्यूटी लगती थी। जैसे को तैसा, एक कारोबारी से राष्ट्रपति बने ट्रम्प का हिसाब-किताब किसी लोकतांत्रिक देश की मुखिया का न होकर एक बेरहम और आत्मकेन्द्रित कारोबारी का है जो कि दुनिया से हिसाब-किताब बराबर रखना चाहता है। कारोबारी के लिए समाजसेवा जरूरी नहीं होती है, इसलिए ट्रम्प ने भी यूएस-एड के बैनरतले दुनिया भर के जरूरतमंद देशों और संगठनों को अमरीका से मिलने वाली मदद को खत्म ही कर दिया है। कोई कारोबारी जिस अंदाज में छंटनी करता है, उस अंदाज में ट्रम्प ने एलन मस्क नाम के एक जल्लाद को नियुक्त किया है जो नौकरियों के सिर काटते चल रहा है। किसी कारोबारी के लिए समझदारी यही होती है कि गैरजरूरी कर्मचारियों की भीड़ इकट्ठी न हो, और जो काम कर रहे हैं उनकी पूरी उत्पादकता मिले, फिजूलखर्ची में कारोबार डूब न जाए, जैसा कि हम भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की बहुत सी कंपनियों को देखते आए हैं। इसलिए ट्रम्प अगर अमरीकी सरकार में फिजूलखर्ची को घटाना चाहते हैं, तो यह एक कारोबारी का नजरिया तो है ही, एक समझदार सरकार का भी नजरिया रहना चाहिए। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हमने सरकारी फिजूलखर्ची घटाने की ट्रम्प की पहल का पहले दिन ही स्वागत किया था, और यह भी कहा था कि भारत में भी देश-प्रदेश की सरकारी कामकाज की फिजूलखर्ची घटानी चाहिए, और उत्पादकता बढ़ानी चाहिए। इसलिए हम सरकार को चलाने में कारोबारी नजरिए वाले हुनर के खिलाफ नहीं हैं। और ट्रम्प आज दुनिया के बाकी देशों के साथ अगर टैक्स-ढांचे की एक बराबरी करना चाहता है, तो हम उसके भी खिलाफ नहीं हैं, हर देश को अपने टैक्स-ढांचे को तय करने का हक रहता है, और दुनिया के तमाम देश एक-दूसरे से सीधी बात करके, या कोई अंतरराष्ट्रीय व्यापार-समझौता करके शर्तें तय करते ही हैं। विश्व व्यापार संगठन जैसे मंच पर हर देश अपने-अपने कारोबारी हित के तर्क लेकर संघर्ष करते ही हैं।
अब चूंकि ट्रम्प अगले तकरीबन चार बरस तक एक हकीकत बना हुआ है, इसलिए दुनिया के बाकी देशों को अमरीका के साथ कारोबारी संबंधों को लेकर अपनी-अपनी रणनीति बनानी चाहिए, और यहीं पर हमें ट्रम्प नाम की वैश्विक-आपदा के बीच अमरीकाविहीन-संभावना दिखती है। जिस देश की अमरीका के साथ कारोबार की जो मजबूरी हो, उसे निभाने के बाद तमाम देशों को यह सोचना चाहिए कि उसके पास अमरीकाविहीन-विकल्प कौन से बचते हैं? वे अमरीका के बजाय दुनिया के किन देशों से सामान ले सकते हैं, और दुनिया के किन देशों को सामान दे सकते हैं? यह मौका पूरे विश्व के सामने आज की वैश्विक स्थिति में अमरीका की एकध्रुवीय सत्ता के विकल्प ढूंढने का भी है। आज दुनिया में अलग-अलग दर्जनों संगठन ऐसे हैं जिनमें कुछ-कुछ देश अपने सरीखे हितों को लेकर साथ रहते हैं। भारत भी ऐसे दर्जन भर से अधिक संगठनों का सदस्य है। इन सबको अमरीका से परे के भविष्य के बारे में भी सोचना चाहिए कि वे वैसे भविष्य में क्या-क्या कर सकते हैं? अमरीका के साथ कारोबारी लेन-देन से दुनिया के देश, और दुनिया के कारोबार जिस तरह निश्चिंत चल रहे थे, अब उस निश्ंिचतता को छोडक़र नई संभावनाओं को देखने, नए ग्राहक और सप्लायर ढूंढने, नई शर्तों पर कारोबार करने, इन सबकी एक बड़ी नई संभावना आज आ खड़ी हुई है। चीन ने यह कहा भी है कि वह भारत के साथ अपना कारोबार बढ़ाएगा। फ्रांस और योरप के कई दूसरे देश, कनाडा, और ऑस्ट्रेलिया जैसे देश अपने नागरिकों के साथ मिलकर अमरीकी सामानों का बहिष्कार कर रहे हैं, और उनकी जगह दूसरे सामानों का इस्तेमाल बढ़ा रहे हैं। अब अगर अमरीकी सामान दुनिया के कुछ बाजारों से हटाए जाते हैं, तो वहां पर दूसरे देशों के उत्पादकों और निर्यातकों को एक नई संभावना मिल सकती है। इसके लिए नए सिरे से मेहनत जरूर करनी होगी, लेकिन अपने एयरकंडीशंड दफ्तरों में बैठे कारोबार करने वाले करोड़पति और अरबपति आयातकों और निर्यातकों को, उत्पादकों को अब अपनी चर्बी पर जोर डालना होगा, दूसरे देशों के लोगों से मिलना होगा, नए समझौते करने होंगे। जब अमरीका पर निर्भरता कम हो रही है, तो यह एक बड़ा मौका है कि उससे परे के देशों के साथ लोग लेन-देन की नई संभावनाएं तलाशें। जिस तह कोरोना ने लोगों को ऑनलाईन पढऩे, घरों से ऑनलाईन काम करने, कम सामानों से रोज की जिंदगी को चलाने, और साफ-सफाई को अहमियत देने जैसी बहुत सी चीजें सिखाईं, उसी तरह ट्रम्प नाम का यह नया वायरस भी बाकी दुनिया को सम्हलने, एक-दूसरे से सहारा लेने-देने जैसे कई मौके मुहैया करा रहा है। अमरीका तो ट्रम्प-2 नाम के इस वायरस से अगले तकरीबन पौने चार बरस में मुक्त हो जाएगा, लेकिन यह वक्त बाकी दुनिया के लिए अपनी क्षमता, ताकत, और संभावना की शिनाख्त के लिए कम नहीं होगा, काफी होगा। यह जरूर है कि अपने-अपने सुरक्षित गोलों में बैठे हुए देशों और कारोबारियों के इर्द-गिर्द से विश्व व्यवस्था का बुलबुला अब फूट गया है, और उन्हें नए सिरे से अपना सुरक्षाचक्र बनाना होगा। इसमें हो सकता है कि दुनिया के कई देश तबाह हो जाएं, कई देश अपनी बेहतर समझबूझ और तैयारी से अधिक मजबूत हो जाएं, लेकिन ट्रम्प नाम की यह वैश्विक चुनौती, सम्हलने, खड़े होने, और आगे बढऩे की नई संभावनाएं तो हर किसी को दे रही है।