संपादकीय

उत्तरप्रदेश के प्रयागराज में 2021 में जिला प्रशासन और विकास प्राधिकरण ने कई मुस्लिमों को नोटिस देकर चौबीस घंटे के भीतर उनके मकान गिरा दिए थे। इसके खिलाफ ये लोग अदालत गए थे, और अब सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही कुछ पुराने आदेशों और फैसलों का जिक्र करते हुए यूपी सरकार को आदेश दिया है कि जो पांच लोग अदालत तक पहुंचे हैं, इनको छह हफ्ते में दस-दस लाख रूपए मुआवजा दिया जाए। मुआवजे की रकम से अधिक बड़ी बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट जजों ने कहा है कि यह कार्रवाई हमारी अंतरात्मा को झकझोरती है। आश्रय का अधिकार, और कानून की उचित प्रक्रिया नाम की भी कोई चीज होती है। सुप्रीम कोर्ट ने नवंबर 2024 में बुलडोजर से लोगों के मकान-दुकान तोडऩे के जगह-जगह हो रहे सरकारी मामलों को लेकर साफ-साफ फैसला दिया था, और कहा था कि किसी व्यक्ति के घर या सम्पत्ति को सिर्फ इसलिए तोड़ देना कि उस पर किसी जुर्म का आरोप है, यह कानून के शासन के खिलाफ है। अदालत ने कहा था कि लोगों के अवैध कब्जे या निर्माण के खिलाफ पारदर्शी तरीके से नोटिस दिया जाना चाहिए, और लोगों को जवाब देने का मौका मिलना चाहिए, नोटिस चिपकाने की भी वीडियोग्राफी करनी चाहिए, और किसी निर्माण को गिराने की भी। उस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि एक आम व्यक्ति के लिए घर बनाना कई साल की मेहनत, सपनों, और महत्वाकाक्षांओं का नतीजा होता है। इसके पहले भी कई प्रदेशों के मामलों में सुप्रीम कोर्ट लगातार लोगों के खिलाफ आरोप होने पर ही उनके निर्माण गिरा देने के खिलाफ सख्त नाराजगी जाहिर कर चुका है। ऐसा सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार किया है, लेकिन अभी पिछले ही महीने महाराष्ट्र में नागपुर के साम्प्रदायिक तनाव, और मुम्बई में एक कॉमेडी नापसंद होने पर राज्य सरकार ने फिर बुलडोजर की कार्रवाई की है, और महाराष्ट्र हाईकोर्ट ने उसे रोका है।
हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम लगातार यह बात लिखते आ रहे हैं, और अपने यूट्यूब चैनल, इंडिया-आजकल, पर लगातार बोलते भी आ रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट के साफ-साफ फैसले को भी राज्य सरकारें सुनने को तैयार नहीं हैं, और एक-एक करके कई राज्यों में सत्ता को नापसंद लोगों के मकान-दुकान या दूसरे निर्माण खड़े-खड़े बुलडोजर से गिरा दिए जा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट चाहे कितना ही याद दिलाए कि देश में कानून का राज है, सुप्रीम कोर्ट इसे लागू कर नहीं पा रहा है। वरना ऐसा कैसे हो सकता है कि लोगों के निर्माण गिरा देने के चार बरस बाद जाकर सुप्रीम कोर्ट को अपने सवा साल पहले के फैसले को दुहराना पड़ रहा है, और उन्हीं बातों को सरकार को फिर से बताना पड़ रहा है, जो वह कई बार बता चुका है। यह सिलसिला आरोपियों पर लगे आरोपों से कहीं अधिक गंभीर आरोप सरकार पर लगाता है जो कि संविधान की शपथ लेने के बाद भी अपनी धार्मिक या राजनीतिक नापसंद को बुलडोजर से पूरा करती है। यह बहुत भयानक नौबत है। लेकिन इससे भी भयानक नौबत यह है कि बेघर हो गए लोगों को यह मुआवजा दिलवाने में सुप्रीम कोर्ट को चार बरस लग गए। गरीबों के मामलों में चार बरस बाद का मुआवजा लोगों की जिंदगी तबाह हो जाने के बाद किसी काम का भी नहीं रह जाता। आम लोग इस बात को जानते हैं कि मकान-दुकान टूट जाने, काम-धंधा बंद हो जाने से बच्चों की पढ़ाई छूट जाती है, तय की हुई शादियां टूट जाती हैं, इलाज की कमी से बुजुर्गों की सांस थम जाती है, और परिवार बिखर जाता है। इसलिए यह मुआवजा भी देश की राजनीतिक निर्वाचित सरकारों, और उसके गुलाम अफसरों को रोकने के लिए काफी नहीं होगा। खासकर नवंबर 2024 के सुप्रीम कोर्ट के साफ-साफ फैसले और बुलडोजर-एक्शन के बारे में जारी लंबे-चौड़े दिशा-निर्देश के बाद जो अफसर सत्ता के तलुए सहलाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ मनमानी कर रहे हैं, उन अफसरों को जेल भी भेजा जाना चाहिए। वैसे तो देश का कानून इस बारे में बड़ा साफ है, और जब कोई जिम्मेदारी के ओहदे पर बैठा हुआ अफसर सबसे बड़ी अदालत के इतने लंबे-चौड़े, और बहुप्रचारित फैसले के खिलाफ काम करता है, तो फिर उसे जेल भी भेजा जाना चाहिए। अभी नागपुर और मुम्बई में जिन अफसरों ने सुप्रीम कोर्ट फैसले के सवा साल बाद इस तरह की हरकत की है, उन्हीं से अगर शुरुआत की जाए, तो अदालत को देखना चाहिए कि वह कैसे इन लोगों को जेल भेजकर बाकी देश के सामने कैसे एक मिसाल पेश कर सकती है।
देश और प्रदेश की सरकारों का यह रूख एक बहुत बड़ा लोकतांत्रिक खतरा भी बताता है कि जहां अदालतों के जज और सरकारों के मंत्री-अफसर सभी संविधान की शपथ लेकर, या संविधान के तहत काम करने की नौकरी पाकर फैसले लेते हैं, वहां पर कुछ सरकारों के फैसले लगातार देश की सबसे बड़ी अदालत के सामने लुका-छिपी खेलने वाले रहते हैं। जिस तरह कोई पेशेवर मुजरिम अदालती कटघरे में खड़े होकर तरह-तरह के कुतर्क करता है, और बहाने बनाता है, संदेह का लाभ पाने की कोशिश करता है, जब उसी तरह की कोशिश देश की निर्वाचित और संविधान की शपथ ली हुई सरकारें करती हैं, तो यह लोकतंत्र के लिए बहुत बड़ी शर्मिंदगी की बात है, और बहुत बड़ा खतरा भी है। लोकतंत्र अदालत और सरकार के बीच सांप-नेवले जैसे टकराव से नहीं चल सकता। जब सरकारें लगातार बदनीयत दिखाती हैं, मनमानी करती हैं, और पेशेवर मुजरिम के अंदाज में कानून में छेद ढूंढ-ढूंढकर अपने जुर्मों से बच निकलने की कोशिश करती हैं, तो लोकतंत्र असफल होना तय रहता है। लोकतंत्र मवाली-मुजरिमों के अंदाज में नहीं चलाया जा सकता कि सुबूत और गवाह टूट जाने पर जिस तरह वे बच जाते हैं, उसी तरह सरकारें भी अपने कुकर्मों को बचाने के लिए अदालत में चकमेबाजी करती रहें। सुप्रीम कोर्ट को बहुत से मामलों में एक कड़ा रूख दिखाने की जरूरत है। लोगों के मकान गैरकानूनी तरीके से गिरा दिए गए, और उसका दस लाख मुआवजा चार बरस बाद जाकर मिला, तो क्या मिला? यह तो जिंदगी के चार बरस तबाह हो जाने के बाद सिर्फ नगद मुआवजा है, इन बरसों का मुआवजा नहीं है। हमारा बड़ा साफ मानना है कि जो मंत्री-मुख्यमंत्री, अफसर ऐसे बुलडोजरी-इंसाफ के पीछे जिम्मेदार हैं, उनको जेल भेजे बिना सुप्रीम कोर्ट देश में कोई इंसाफ लागू नहीं कर सकता। यह ढीलाढाला इंसाफ मनमानी करने वाली सरकारों का हौसला पस्त भी नहीं कर सकता क्योंकि दस-दस लाख का ऐसा मुआवजा सरकार की क्षमता के मुकाबले कुछ भी नहीं है, और सरकारें ऐसे मुआवजे की कीमत पर ऐसी मनमानी जारी रखेंगी। सिर्फ बड़े अफसरों को कैद से ही सरकारी गुंडागर्दी का हौसला कुछ पस्त हो सकता है।