संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : भीतर वही पुरानी हिंसा भरी हो तो नई ‘संवेदनशील’ शब्दावली किस काम की?
30-Mar-2025 4:00 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : भीतर वही पुरानी हिंसा भरी हो तो नई ‘संवेदनशील’ शब्दावली किस काम की?

एक विकलांग-अधिकार कार्यकर्ता, सम्यक ललित, ने अभी विकलांगताडॉटकॉम नाम की अपनी वेबसाइट पर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव का एक बयान पोस्ट किया है जो उन्होंने न्यूज-18 टीवी चैनल पर लिए जा रहे एक इंटरव्यू के साथ दिया था। उन्होंने कांग्रेस के चुनाव चिन्ह, हाथ को कटा हुआ पंजा बताया, और कहा- देखो माफ करना, हमारे यहां ये कटे-फटे शरीर वाले को अच्छा मानते ही नहीं हैं, अब क्या करें, हमारी भी दिक्कत है। हमारे यहां तो पूरे शरीर के साथ हो तो राजा बनेगा, नहीं तो नीचे ही कर देते हैं कि चल जा यहां से। भगवान की कोई मूर्ति खंडित हो जाए, तो भगवान की दया से उसका विसर्जन करना पड़ता है। यह पोस्ट करने वाले सम्यक ललित खुद भी एक विकलांग हैं, और उन्होंने इस बयान से खुद को पहुंची तकलीफ के साथ ये तमाम बातें लिखी हैं।

भारत में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2015 में मन की बात के प्रसारण में यह सुझाव दिया था कि विकलांग शब्द की जगह दिव्यांग शब्द का इस्तेमाल करना चाहिए। उन्होंने अंतरराष्ट्रीय विकलांग व्यक्ति दिवस, 3 दिसंबर के कार्यक्रम में इस पर अमल की अपील की थी, और कहा था कि उनके मन में विचार आया कि क्यों न हम देश में विकलांग की जगह दिव्यांग शब्द का प्रयोग करें। उन्होंने कहा ऐसे अंगों में दिव्यता है। इसके बाद से केन्द्र सरकार और शायद अधिकतर राज्य सरकारों के कामकाज में विकलांग की जगह दिव्यांग शब्द इस्तेमाल होने लगा, और केन्द्र ने दीनदयाल विकलांगजन पुनर्वास योजना जैसी कुछ योजनाएं भी लागू की, और धीरे-धीरे विकलांग शब्द के इस्तेमाल को ही आपत्तिजनक मान लिया गया।

अब मन की भावनाएं चाहे जैसी हों, हिकारत चाहे कितनी भरी हो, विकलांग कहने के बजाय दिव्यांग कहकर लोग यह जाहिर करते हैं कि वे बहुत संवेदनशील हैं। लेकिन नाम बदल देने से सोच बदल जाती तो सब कुछ कितना आसान रहता, धर्मान्ध और साम्प्रदायिक लोग, नफरतजीवी लोग अपने आपका नाम इंसान रख लेते, और इंसान जैसे लगने लगते, किसी और अतिरिक्त तथाकथित इंसानियत की जरूरत नहीं रहती। लेकिन ऐसा होता नहीं है। आमतौर पर तो यह होता है कि किसी किस्म के प्रतीकात्मक सम्मान को लागू करके, या प्रचलित अपमान को प्रतीकात्मक रूप से बंद करके लोग अपराधबोध से उबर जाते हैं। उसके बाद उन्हें लगता है कि वे जब दिव्यांग कह रहे हैं, तो विकलांग लोगों को किसी और अतिरिक्त सम्मान की, बराबरी का दर्जा देने की जरूरत नहीं है। शब्दों का मनोवैज्ञानिक उपयोग लोगों को अपने ही कुकर्मों से उबरने में मदद करता है, और उन्हें अपनी हिंसक सोच को छुपाने के लिए यह खाल मिल जाती है।

अभी भी ब्रिटेन जैसे देश में बीबीसी जैसे एक सावधान रेडियो और टीवी पर विकलांग शब्द का अंग्रेजी विकल्प डिसएबल ही पूरे वक्त सुनाई देता है। कुछ और पश्चिमी जगहों पर विशेष जरूरतों वाले लोग, पीपल विद स्पेशल नीड्स कहा जाता है। लेकिन किसी भी तरह की विकलांगता को दिव्यता का दर्जा देना यह बड़ी ही अटपटी बात रही, लेकिन प्रधानमंत्री के कहे हुए पूरे देश ने उसका इस्तेमाल शुरू कर दिया। अब 2015 की इस नई शब्दावली से पहले जिन लोगों ने अपने बच्चों का नाम दिव्यांग रखा होगा, वे इस शब्द के इस नए सरकारी और कानूनी इस्तेमाल के बाद एकदम से अटपटा महसूस कर रहे होंगे कि उनका बच्चा उन्हें जिंदगी भर कोसेगा कि यह उसका कैसा नाम रखा। किसी की आंखें खराब हो, कान से सुनाई न देता हो, हाथ या पैर खराब हों, रीढ़ की हड्डी मुड़ी हुई हो, या किसी और तरह की शारीरिक विकृति हो, उसे दिव्यांग कहना बहुत ही अटपटा इसलिए है कि यह ईश्वर की किस तरह की खास नेमत कही जा सकती है? इसे भला किस तरह से कुछ खास कहा जा सकता है, इसे दिव्यता कैसे माना जा सकता है? संवेदनशील भाषा तो ऐसे लोगों को विशेष जरूरतों वाले लोग कहते आई थी, और वही इसकी सही व्याख्या भी थी। अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ही पार्टी के एक सबसे बड़े राज्य मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव जिस तरह विकलांग लोगों की खिल्ली उड़ा रहे हैं, उसी से यह जाहिर है कि सामाजिक जागरूकता के बिना नई शब्दावली से कुछ नहीं होता। भारत में वैसे भी नए-नए नाम धरकर राजनीतिक मकसद पूरा करने का सिलसिला इतना चला हुआ है कि सोशल मीडिया पर यूपी सीएम योगी आदित्यनाथ के बहुत से पोस्टर गढक़र डाले जाते हैं कि वे किसका नाम क्या कर दे रहे हैं? एक तथाकथित टीवी समाचार चैनल के मुखिया की एक वीडियो क्लिप के साथ किसी ने एक व्यंग्य-वीडियो बनाकर डाला है। इसकी शुरुआत में यह चैनल-मालिक कहता है कि क्या इजराइल के यहूदी एक वक्त यादव लोग थे? वहां से लेकर इस वीडियो में तरह-तरह की राष्ट्रीयता और धर्म या जाति का मूल भारत की अलग-अलग जातियों को बताकर तंज कसा गया है। नए नामकरण से कुछ हल नहीं होता। राजनीतिक मकसद पूरा करने के लिए शहरों और जगहों के नाम बदल दिए गए हैं, और उनमें वही पुराना ढर्रा जारी है। इससे बेहतर तो यह होता कि नाम पुराना रहता, और हालात नए हो जाते।

नाम दिव्यांग रखने से इस देश के लोग मानो अपराधबोध से मुक्त हो गए कि वे विकलांगों के प्रति हिकारत नहीं रखते हैं, सम्मान रखते हैं, और उन्हें दिव्यकृपा मानते हैं। यह बात अपने आपमें विकलांगता की तकलीफ पाने वाले लोगों के लिए जले हुए पर नया जख्म लग जाने सरीखी अतिरिक्त तकलीफ की बात है, जैसी कि अभी मोहन यादव ने की है। लोगों के मन में संवेदनशीलता किसी शब्दावली से पैदा नहीं होती, यह तो उनके भीतर सामाजिक सरोकार रहने, और बेहतर मानवीय मूल्य रहने से पैदा होने वाली बात है। विकलांग को दिव्यांग कहकर उनके साथ बदसलूकी जारी रखना तो उनके पुराने नाम के इस्तेमाल के मुकाबले अधिक हिंसक बात है। शब्दों के खिलवाड़ के मुकाबले संवेदनशीलता, और सरोकार अधिक जरूरी रहते हैं, वरना बीच-बीच में भीतर की हिंसा जुबान की लगाम हटाकर अपना चेहरा दिखाती रहती है।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)  


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