संपादकीय

छत्तीसगढ़ में आज सुबह बस्तर में एक बड़े नक्सल ऑपरेशन में 16 या उससे अधिक नक्सली मारे गए हैं, और सुरक्षाबलों की जिंदगी को कोई नुकसान नहीं हुआ है जो कि ऐसे मोर्चे पर एक बड़ी सुरक्षा-कामयाबी है। आज के इन आंकड़ों के साथ करीब साढ़े तीन सौ नक्सली प्रदेश में भाजपा सरकार आने के बाद मारे गए हैं, और इससे कुछ गुना अधिक का आत्मसमर्पण पुलिस ने बताया है। यह भी याद रखने की जरूरत है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने मार्च 2026 तक देश से नक्सलियों को खत्म कर देने का इरादा जाहिर किया है, और ऐसे बिखरे हुए खतरे को लेकर ऐसी भविष्यवाणी चाहे बहुत आसान न हो, लेकिन छत्तीसगढ़ सरकार उस तरफ तेजी से बढ़ती दिख रही है। आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों के लिए राज्य सरकार ने एक पुनर्वास नीति भी बनाई है, हालांकि उस पर अभी तक अलग-अलग तबकों से कोई विश्लेषण सामने नहीं आया है, लेकिन सरकार मुठभेड़ के मोर्चे से परे भी समर्पण और पुनर्वास पर काम कर रही है। छत्तीसगढ़ के बस्तर में नक्सल मौजूदगी सन् 2000 में राज्य बनने के पहले से चली आ रही है, और अभी पिछले करीब सवा साल का यह पहला दौर ऐसा है जब सुरक्षाबलों को इतनी बड़ी कामयाबी मिली है। इसे जब पिछली कांग्रेस सरकार के पांच बरस के साथ रखकर देखा जाए, तो साफ समझ आता है कि उस दौर में नक्सल हिंसा को खत्म करना राज्य सरकार की प्राथमिकता में नहीं था। मौतों के आंकड़ों को हम लोकतंत्र में बहुत बड़ी कामयाबी नहीं मानते, लेकिन जब देश-प्रदेश के सबसे सीधे-सरल आदिवासियों की जिंदगी पर दशकों से मंडराती हुई हिंसा की बात करें, तो नक्सल हिंसा को खत्म करने के दो ही तरीके हो सकते थे, बातचीत से उसे सुलझाना, और सुरक्षाबलों के हाथों नक्सलियों को ही खत्म करना। छत्तीसगढ़ में आज की भाजपा सरकार ने शुरुआत से ही नक्सलियों से शांतिवार्ता की पेशकश की थी, लेकिन वह किन्हीं वजहों से शुरू नहीं हो पाई, या अगर किसी स्तर पर बातचीत शुरू भी हुई, तो उसकी जानकारी सार्वजनिक नहीं हुई है।
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बस्तर में पिछले सवा साल में सुरक्षा मोर्चे पर बहुत बड़ा बदलाव नहीं आया है। केन्द्रीय गृहमंत्री की घोषणा के बाद शायद कुछ हजार सुरक्षाकर्मी वहां बढ़े हैं, लेकिन कमोबेश वहां की स्थिति वैसी ही है जैसी कि पिछली कांग्रेस सरकार के पांच बरस में थी। और तो और, आज बस्तर के दो सबसे बड़े पुलिस अफसर, एडीजी और आईजी, दोनों ही कांग्रेस सरकार के समय से वहां पर काम कर रहे हैं, और ऐसा लगता है कि उन्हें बस्तर से जोड़तोड़ करके निकल भागने की कोई हड़बड़ी भी नहीं है। बहुत से पुलिस अफसर बस्तर की तैनाती से बचने के लिए अपना दायां हाथ भी कुर्बान करने को तैयार रहते हैं, ऐसे में आज अगर बड़े-बड़े ये दो अफसर वहां लगातार बने हुए हैं, दोनों की साख बहुत अच्छी है, न बेईमानी उनके साथ चस्पा है, न ही वे मानवाधिकार हनन के लिए जाने जाते हैं, तो उनकी मौजूदगी और लीडरशिप का भी असर पिछले सवा साल में दिख रहा है। अब अगर भाजपा सरकार आने के पहले तक यही अफसर इस तरह काम नहीं कर पा रहे थे, तो यह एक सहज-अटकल लगाई जा सकती है कि सरकार की तरफ से उन्हें इसकी खुली छूट नहीं मिली थी।
हम देश के भीतर के हथियारबंद समूहों को भी बंदूकों के मोर्चे पर मारने के बजाय उनसे बातचीत करके मतभेद सुलझाने, और हिंसा खत्म करने के हिमायती हैं। लेकिन जब बस्तर में दशकों से यही चले आ रहा है, और नक्सल प्रभावित इलाकों में वहां के मूल निवासियों को बुनियादी संवैधानिक हक भी नहीं मिल पा रहे हैं, तो हमारे सरीखे लोग भी शांतिवार्ता के अलावा और किसी भी रास्ते पर न चलने की बात नहीं कर सकते। हर सरकार की यह जिम्मेदारी भी होती है कि वह अपने देश-प्रदेश में किसी भी तरह की हथियारबंद हिंसा को रोकने के लिए जरूरी तमाम कार्रवाई करे। छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार के आने के बाद अब तक साढ़े तीन सौ के करीब नक्सली मारे गए हैं, और इनमें से शायद आधा दर्जन लोगों के बारे में ही ऐसा कहा गया कि वे नक्सली नहीं थे, और पुलिस और दूसरे केन्द्रीय सुरक्षाबलों ने बेकसूरों को मार डाला। अगर हम इसी राज्य के पिछले आंकड़ों को देखें तो नक्सल इलाकों में मानवाधिकार हनन की अनगिनत शिकायतें सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग तक पहुंचती थीं, और बड़ी-बड़ी ऐसी मुठभेड़ें जांच में फर्जी साबित हुई थीं जिनमें से किसी एक में ही डेढ़ दर्जन बेकसूरों को सुरक्षाबलों ने मार डाला था। बस्तर से अभी आने वाली खबरों में ऐसा मानवाधिकार हनन सुनाई नहीं पड़ता है, और गिने-चुने ही लोगों के बेकसूर मारे जाने के आरोप लगे हैं। नौबत में ऐसी सुधार के लिए बस्तर में तैनात बड़े अफसरों के साथ-साथ राज्य की राजनीतिक लीडरशिप को भी श्रेय दिया जाना चाहिए कि मुठभेड़ों की कामयाबी के चलते बेकसूरों के प्रति लापरवाही नहीं दिखाई गई है।
हम अभी भी शांतिवार्ता की अपनी वकालत पर कायम हैं, लेकिन किसी भी बातचीत के लिए दो पक्षों का तैयार होना तो जरूरी रहता ही है। नक्सली इस सवा साल में बड़े कमजोर हुए हैं, और यह मौका किसी लोकतांत्रिक-निर्वाचित सरकार के लिए ऐसे किसी हथियारबंद आंदोलन को बातचीत की मेज पर लाने का रहता है। हो सकता है सरकार अघोषित रूप से इसकी कोशिश कर रही हो, और उसकी सार्वजनिक घोषणा इस वक्त मुनासिब न हो। लेकिन इसके साथ-साथ नक्सल आंदोलन को कमजोर करने की राज्य सरकार की कोशिशें, और उनमें केन्द्रीय सुरक्षाबलों की भागीदारी की कामयाबी दिख रही है। लोकतंत्र में अंतहीन हिंसा की कोई गुंजाइश नहीं हो सकती। दुनिया के बहुत से देशों में सरकारी बंदूकों की कार्रवाई, और शांतिवार्ता, समझौतों से हथियारबंद आंदोलन खत्म हुए हैं। खुद हिन्दुस्तान में पंजाब से लेकर उत्तर-पूर्व तक इसकी कई मिसालें रही हैं। छत्तीसगढ़ सरकार नक्सलियों के खात्मे में बड़ी सुरक्षा-कामयाबी पा चुकी है, उसे बातचीत के कोई रास्ते तलाशकर शांतिवार्ता भी शुरू करनी चाहिए, ताकि दोनों तरफ की मौतों को रोका जा सके, आम आदिवासियों का बीच में पिसना खत्म हो, और सुरक्षाबलों पर असीमित बड़ा खर्च भी थमे। फिलहाल तो राज्य का राजनीतिक नेतृत्व, और बस्तर में तैनात पुलिस और सुरक्षाबलों के लोग मुठभेड़ों में इतनी बड़ी कामयाबी के लिए छत्तीसगढ़ के विपक्ष से भी तारीफ पा चुके हैं। अमित शाह की तय की हुई समय सीमा तक सारी नक्सल हिंसा चाहे खत्म न हो, लेकिन छत्तीसगढ़ बड़ी तेजी से उस तरफ बढ़ रहा है। ऐसे में देश की उन लोकतांत्रिक ताकतों को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए जिनकी बात नक्सली सुन सकते हैं, और उन्हें शांतिवार्ता के लिए तैयार करना चाहिए।