संपादकीय
छत्तीसगढ़ में मुख्य सूचना आयुक्त की तीन बरस से खाली पड़ी कुर्सी को छांटने के लिए आज राज्य में बैठक होने जा रही है, जिसमें प्रदेश के मुख्य सचिव और डीजीपी रह चुके लोगों के नाम तो हैं ही, मौजूदा मुख्य सचिव अमिताभ जैन भी बड़ी सहूलियतों और मोटी तनख्वाह वाली इस कुर्सी के लिए बाकी लोगों के साथ कतार में हैं। और दिलचस्प बात यह है कि आज इन तमाम लोगों से इंटरव्यू लेकर जो पैनल बनाकर सरकार को दिया जाएगा, उसके चारों सदस्य अमिताभ जैन के मातहत काम कर रहे हैं, उनकी सीआर अमिताभ जैन को ही लिखनी है, आज अपने कामकाज के लिए वे अमिताभ जैन के लिए ही जवाबदेह हैं। हमारी नजर में यह एक विचित्र स्थिति इसलिए है कि इंटरव्यू बोर्ड के सारे ही सदस्य मुख्य सचिव के मातहत हैं। अब बोलचाल की जुबान में कहा जाए, तो उनको अपनी अगली सीआर भी अमिताभ जैन से लिखवानी है, और हितों का यह टकराव छोटा नहीं है। इसके पहले भी कई ऐसे मौके आए हैं जिसमें इसी राज्य के भूतपूर्व नौकरशाह, या भूतपूर्व जज अलग-अलग संवैधानिक पदों के लिए दिलचस्पी दिखाते मिले हैं, और उन्हीं में से सरकार ने छांटकर चुनिंदा लोगों को उपकृत किया है। लेकिन अर्जी देने वाले, या मनोनीत होने वाले ऐसे लोग कुर्सियों पर बैठे-बैठे मनोनीत नहीं हुए थे। हम मौजूदा सीएस अमिताभ जैन के नाम के खिलाफ नहीं हैं, वे कुछ दूसरे लोगों के मुकाबले बेहतर भी हैं, लेकिन इस मौके पर हम हितों के टकराव के एक व्यापक मुद्दे को एक बार फिर लिख रहे हैं।
इसके पहले भी हम कई बार यह बात उठा चुके हैं कि जज या अफसर, ये जिस राज्य में काम कर चुके हैं, वहां के किसी भी संवैधानिक, या दूसरे किस्म के पद के लिए उनके नाम पर विचार नहीं होना चाहिए। और तो और कुछ पत्रकारों के नाम भी सूचना आयोग सहित दूसरी जगह के लिए चलते हैं, उन्हें बीच-बीच में नियुक्त भी किया जाता है, और वह भी इसी तरह के हितों के टकराव का एक मामला है जिसे बारीकी से समझना जरूरी है। जब किसी राज्य में रिटायर होने के बाद संवैधानिक या दूसरी सरकारी कुर्सियों पर मनोनीत होने की एक संभावना रहती है, और वृद्धावस्था पुनर्वास बड़े महत्व, और मोटी तनख्वाह, भत्ते, और ओहदे से जुड़ी ढेरों सहूलियतों से जुड़ा रहता है, तो फिर बड़े-बड़े जजों और अफसरों की लार टपकने लगती है। ऐसे में अपने कार्यकाल के आखिरी बरसों में उनका रूख उस सरकार के मुखिया, या सत्तारूढ़ पार्टी को खुश करने का भी हो सकता है, या कि आमतौर पर रहता है, जो कि उन्हें वृद्धावस्था पुनर्वास दे सकते हैं। उनके आखिरी बरसों के फैसले, कामकाज, रूख और रूझान अपने इस निजी स्वार्थ से प्रभावित हो सकते हैं, इसलिए हम बार-बार उसी राज्य में किसी के भी मनोनयन के खिलाफ लगातार लिखते आ रहे हैं, और यह बात आज हम एक बार फिर उठा रहे हैं क्योंकि इस बार की राज्य सरकार की चयन समिति तो हितों के एक बहुत ही बेहूदा टकराव की मिसाल है। यह भी समझना कुछ मुश्किल है कि बड़े-बड़े आईएएस अफसरों की इस कमेटी में ऐसे व्यक्ति के आवेदन पर विचार करने की जिम्मेदारी कैसे ली है जो कि उनसे वरिष्ठ है, और उनकी अगली सीआर भी लिखने वाला है?
ऐसे मामलों में हमारा सुझाव यह है कि देश में राष्ट्रीय स्तर पर एक टेलेंट-पूल बनाना चाहिए जिसमें रिटायर्ड जज और अफसर, और बाकी लोग भी अपनी अर्जियां भेज सकें, और जब किसी राज्य को, या केन्द्र सरकार को इनमें से किसी योग्यता वाले लोगों की जरूरत हो, तो राज्यों को उन लोगों के नामों के पैनल सुझाए जाएं जिन्होंने उन राज्यों में कभी काम नहीं किया है, और केन्द्र सरकार के स्तर पर मनोनयन के लिए उनके नाम सुझाए जाएं जिन्होंने कभी केन्द्र सरकार में काम नहीं किया है, सिर्फ राज्यों में काम किया है। ऐसे और भी कुछ पैमाने तय किए जा सकते हैं, और हम उसकी अधिक बारीकी में जाना नहीं चाहते हैं, लेकिन एक बात बिल्कुल साफ रहनी चाहिए कि राज्यों में काम कर चुके जज, अफसर, पत्रकार उसी राज्य में सरकार की ओर से रिटायरमेंट के बाद मनोनीत नहीं होने चाहिए। इसमें एक बड़ी दिक्कत यह भी रहती है कि रिटायर्ड आईपीएस को उसी राज्य में मानवाधिकार आयोग में बिठा दिया जाता है, और वहां पर बहुत सारे मानवाधिकार-हनन के ऐसे मामले आते हैं जो कि या तो उनके खुद के कार्यकाल के रहते हैं, या कि उनके पसंदीदा, या उनको नापसंद अफसरों के खिलाफ रहते हैं। अब अगर राज्य में रिटायर्ड आईएएस और आईपीएस को मुख्य सूचना आयुक्त बनाया जाएगा, तो सूचना के अधिकार के तहत वहां पहुंचने वाली अधिकतर अपीलें सरकार के खिलाफ ही रहेंगी, उन पर कोई भी फैसला देते हुए इन्हीं राज्यों से रिटायर होने वाले आईएएस और आईपीएस अफसरों के सामने यह हितों के टकराव का मामला रहेगा कि अपने ही कार्यकाल में आरटीआई में जो जानकारी नहीं दी गई थी, जिस जानकारी को वे कुर्सी पर रहते हुए दबाकर बैठे थे, अब उसके खिलाफ लगी अपील पर वे क्या खाकर ईमानदारी से फैसला दे सकते हैं?
हो सकता है कि हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में कोई पीआईएल लगने पर भी हमारे इस तर्क को जायज नहीं माना जाए, क्योंकि इस देश में रिटायर्ड जजों के लिए भी ढेर सारी कुर्सियों पर संवैधानिक रूमाल रखा गया है, जिन पर वे ही बैठ सकते हैं। जब किसी पीआईएल में हितों के टकराव की बात उठेगी, तो फिर उन राज्यों के हाईकोर्ट के जजों के लिए भी दिक्कत और दुविधा खड़ी होगी कि ऐसे में तो रिटायर होने के बाद वे भी उस राज्य में लोकायुक्त नहीं बन सकेंगे, या आधा दर्जन दूसरी कुर्सियों पर नहीं जा सकेंगे। यह एक व्यापक संवैधानिक मुद्दा है जो कि इस लोकतंत्र में बनाई गई बहुत सारी संवैधानिक कुर्सियों की प्रासंगिकता को ही खत्म करता है। इस पर खुली चर्चा होनी चाहिए, और अगर पीआईएल में दिलचस्पी रखने वाले कोई बड़े वकील हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में इसे लेकर जाएं, तो इसे खारिज करते हुए जजों को भी कुछ मुश्किल तो होगी, वे बहुत आसानी से हितों के टकराव को अनदेखा नहीं कर सकेेंगे। लोकतंत्र के हित में यह पारदर्शिता जरूरी है, और छत्तीसगढ़ के आईएएस अफसरों से भी यह पूछा जाना चाहिए कि वे अपने मौजूदा बॉस को छांटने या खारिज करने की कौन सी अलौकिक ताकत रखते हैं?