संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कुणाल कामरा पर हमले से लोकतंत्र पर उठे सवाल
25-Mar-2025 1:32 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : कुणाल कामरा पर हमले से लोकतंत्र पर उठे सवाल

कुछ महीनों के बाद स्टैंडअप कॉमेडियन कुणाल कामरा एक बार फिर खबरों में है। उनके तेजाबी हास्य-व्यंग्य से घायल होने वाले सत्तारूढ़ लोग अपने-अपने प्रदेशों में उनके खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करते रहते हैं, और कुणाल कामरा उससे एक किस्म से बेपरवाह रहकर उसी तल्ख जुबान में तंज कसते हैं। अब ताजा मामला मुम्बई में उनके एक कार्यक्रम का है जिसकी रिकॉर्डिंग यूट्यूब पर पोस्ट की गई है। इसमें कहा जाता है कि उन्होंने इशारों में महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री, और शिवसेना के एकनाथ शिंदे पर कुछ तंज कसे थे। इसे लेकर शिवसैनिकों ने जिस रिकॉर्डिंग स्टूडियो में जाकर खूब तोडफ़ोड़ की, और मुम्बई म्युनिसिपल कार्पोरेशन ने बुलडोजर भेजकर बड़े होटल के इस स्टूडियो को ध्वस्त कर दिया। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडनवीस ने कहा कि कुणाल कामरा ने महाराष्ट्र की जनता के चुने हुए लोगों का अपमान किया है, और शिवसेना अब कुणाल कामरा से माफी मांगने की मांग कर रही है, वरना सडक़ पर उससे निपटने की खुली धमकी दी है। शिवसेना के सांसद नरेश म्हस्के ने कहा है कि कुणाल कामरा को महाराष्ट्र ही नहीं हिन्दुस्तान में भी नहीं घूमने देंगे, शिवसैनिक पीछे लगेंगे, तो भारत छोडक़र भागना पड़ेगा, जहां भी वह दिखेगा, उसके मुंह पर कालिख पोती जाएगी।

दो दिनों से सोशल मीडिया पर कुणाल कामरा छाए हुए हैं। उन्होंने अपनी रिकॉर्डिंग में शायद कुछ और नेताओं के बारे में भी टिप्पणी की है। वे पेशेवर कॉमेडियन हैं, और हास्य-व्यंग्य का उनका अपना एक अलग स्तर है जो बहुत से लोगों को कुछ अधिक चुभ सकता है, चुभता है। इसके पहले भी भारत में कुछ और स्टैंडअप कॉमेडियन तरह-तरह से हमले झेल चुके हैं, और उनके कार्यक्रम हो पाना अब मुमकिन नहीं रह गया है। कुछ कॉमेडियन देश के कई प्रदेशों में एफआईआर झेल रहे हैं, जो कि सत्ता की नापसंदगी के किसी भी निशाने के खिलाफ आसानी से दर्ज हो जाती है। पुलिस चूंकि राज्य का मामला रहता है, इसलिए राज्य सरकार के मातहत उसकी मर्जी पर पुलिस तेजी से ऐसी कार्रवाई करती है। मुम्बई में जिस रफ्तार से इस रिकॉर्डिंग स्टूडियो पर बुलडोजर चलाया गया है, वह भी बताता है कि भारतीय लोकतंत्र में राज्य सरकार को नाराज करना, या सत्तारूढ़ ताकतों और विचारधारा के खिलाफ कुछ बोलना या लिखना कितना भारी पड़ सकता है। अभी नागपुर के दंगों को लेकर, और कुछ दूसरे मामलों में आरोपियों पर बुलडोजर चलाने को लेकर महाराष्ट्र हाईकोर्ट ने राज्य सरकार के खिलाफ नाराजगी दिखाई ही है, और उस पर रोक लगाई है, इस बीच कल शायद जिस वक्त हाईकोर्ट यह रोक लगा रहा था, उसी वक्त मुम्बई का यह रिकॉर्डिंग स्टूडियो गिराया जा रहा था।

अब एक बुनियादी सवाल यह खड़ा होता है कि भारत जैसे लोकतंत्र में अगर जिंदा और सक्रिय नेताओं पर तंज कसना इतना खतरनाक हो चुका है, तो क्या यह लोकतंत्र की बुनियादी समझ और जरूरत के ठीक खिलाफ नहीं हैं? हम स्टैंडअप कॉमेडियनों की कई बातों से सहमत नहीं रहते। अभी कुणाल कामरा ने भी अपनी इस रिकॉर्डिंग में महिलाओं पर केन्द्रित गालियां दी हैं, किसी महिला पर निशाना भी साधा है, और उनके उस हिस्से को लेकर लोग आलोचना भी कर रहे हैं। लेकिन पेशेवर राजनेताओं को लेकर, उनका नाम लेकर या नाम लिए बिना अगर कोई व्यंग्य किया जाता है, तो उसे भी बर्दाश्त न करना लोकतंत्र के अंत की शुरूआत सरीखी है। महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे ने शिवसेना के साथ, खासकर उसके उस वक्त के मुखिया उद्धव ठाकरे के साथ जो किया था, उसे लेकर उन्हें महाराष्ट्र की राजनीति के बाहर भी गद्दार कहा गया था। यह एक अलग बात है कि विधायकों का बहुमत सत्ता में भागीदार होने के लिए उनके साथ चले गया, और आखिर में उन्हें ही असली शिवसेना होने की मान्यता मिल गई, लेकिन उन्हें गद्दार तो माना ही गया था। अब अगर उनका नाम लिए बिना एक व्यंग्यात्मक गाने में गद्दार शब्द का इस्तेमाल किया गया है, तो इसे लेकर उनकी पार्टी शिवसेना अगर कुणाल कामरा को मुम्बई में रहने न देने की बात कह रही है, जहां दिखें वहां मुंह काला करने की बात कह रही है, और ऐसी हिंसा कर रही है जो कि किसी सत्तारूढ़ पार्टी को शोभा नहीं देती, तो क्या यह लोकतंत्र रह गया है?

लोकतंत्र में राज्य सरकार हांकने वाली पार्टी या गठबंधन को पुलिस के स्तर पर असाधारण अधिकार मिले रहते हैं। इनका सबसे बेजा इस्तेमाल भी अदालत में जवाबदेह ठहराए जाने के पहले नापसंद लोगों की जिंदगी को तबाह कर ही सकता है, और भारत के कई राज्यों में जिस तरह सत्ता के अहंकार, और उसके गुंडागर्दी में बुलडोजर-इंसाफ जारी रखा हुआ है, वह सुप्रीम कोर्ट के मुंह पर एक तमाचा भी है। सुप्रीम कोर्ट को अपनी औकात के बारे में एक बार सोचना चाहिए कि उसकी बार-बार की चेतावनियां, और बार-बार के फैसले-आदेश इसी महाराष्ट्र में पिछले दो-तीन दिनों में लगतार किस तरह बुलडोजर से नेस्तनाबूत किए जा रहे हैं, इसमें उसके सामने अब क्या विकल्प बचते हैं? क्या वह धमकाने वाले नेताओं को कटघरे में ला सकता है, क्या वह बुलडोजर भेजने वाले अफसरों को जेल भेज सकता है? क्या वह सरकार या म्युनिसिपल पर मोटा जुर्माना लगा सकता है, या फिर वह महज अपनी हेठी देखकर चुप बैठे रह सकता है? और हमारे सामने आज का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट की बेइज्जती का नहीं है, लोकतंत्र की बेइज्जती का है। कुणाल कामरा की कही बातें अगर किसी की मानहानि हैं, तो उसके लिए देश में मानहानि का कानून है। अगर उससे कोई धार्मिक भावनाएं आहत होती हैं, तो उसके लिए भी अलग कानून है। लेकिन किसी भी नापसंद बात के लिए बुलडोजर भेज देना, किसी इमारत को गिरा देना, किसी भी तरह से लोकतांत्रिक नहीं है। महाराष्ट्र जैसी ताकतवर सरकार के पास, और उसके नेताओं के पास कानून की बहुत बड़ी ताकत है, ऐसे में अपनी पार्टी के हिंसक और अराजक कार्यकर्ताओं को भेजकर सडक़ की लड़ाई लडऩा सत्तारूढ़ पार्टी का काम नहीं लगता, यह विपक्ष का तेवर अधिक लगता है। कहने के लिए महाराष्ट्र पुलिस ने तोडफ़ोड़ करने वाले कुछ शिवसैनिकों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज की है, लेकिन मानो उन्हीं की मदद करने के लिए उनके निशाने को गिराने के लिए बुलडोजर भी भेजा था। एक कॉमेडियन लोकतंत्र में बहुत बड़ी बहस का सामान नहीं होना चाहिए था, लोकतंत्र एक बड़ी लचीली व्यवस्था है, और उसमें व्यंग्य की पर्याप्त जगह रहनी चाहिए। यह वह हिन्दुस्तान है, जहां हिन्दू धर्म के भीतर नास्तिकों के लिए भी पर्याप्त मान्यता है। लोकतंत्र में असहमति और आलोचना का जवाब देने के लोकतांत्रिक तरीके होने चाहिए, जब यह जवाब हिंसा से, और बुलडोजर से दिए जाते हैं, तो यह समझ पड़ता है कि सत्ता के पास इनके खिलाफ कोई तर्क नहीं हैं।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)  


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