संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : इंसानियत चली गई, महज ग्राहक रह गए
23-Jan-2025 6:49 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : इंसानियत चली गई, महज ग्राहक रह गए

चारों तरफ से आती खबरों में दो किस्म की खबरें सबसे ऊपर दिखती हैं, एक तो तरह-तरह की उम्र के लोग खुदकुशी कर रहे हैं। इनमें गरीब भी हैं, मध्यवर्गीय भी हैं, और संपन्न लोग भी हैं। दूसरी तरफ हर दिन ही अनगिनत मामले ऐसे वैध-अवैध संबंधों के आ रहे हैं जिनमें लडक़े-लडक़ी के बीच देहसंबंध बने, और फिर शादी का वायदा करके शादी न करने जैसी शिकायत हो गई, और फिर कुछ मामलों में बलात्कार का मामला दर्ज करवाया गया, और कुछ दूसरे मामलों में देहसंबंधों के दिनों में बनाए गए वीडियो दिखा-दिखाकर बलात्कार जारी रखा गया, या फिर ब्लैकमेल किया गया, और देहसंबंधियों के बीच मरने या मारने की नौबत आ गई। कई मामलों में तो प्रेमी-प्रेमिका, और पति के बीच किसी ने किसी को मार डाला, और फिर खुदकुशी कर ली। इन तमाम किस्म की निजी हिंसाओं की वजहों का कोई विश्लेषण किया जा सकता है?

गरीब के बच्चों को मां-बाप के संघर्ष पर रहम नहीं आती, उन्हें स्मार्टफोन पाने की अपनी हसरत इतनी महत्वपूर्ण लगती है कि वह फरमाईश पूरी न होने पर उन्हें खुदकुशी करने में वक्त नहीं लगता। कुछ बच्चे मां-बाप के पैसे चुराकर भी मोबाइल फोन या इस किस्म की दूसरी हसरतें पूरी करते हैं। लेकिन उन गरीब मां-बाप की दिमागी हालत के बारे में सोचा जाए कि स्मार्टफोन न दिला पाने पर बेटे या बेटी ने खुदकुशी कर ली, और उसके बाद वे पूरी जिंदगी इस मलाल में जीते रहेंगे कि कर्ज लेकर भी अगर फोन दिला दिया रहता तो भी बच्चे तो जिंदा रहते। ऐसे दुख में डूबे मां-बाप यह भी नहीं सोच पाते कि फरमाईश फोन पर नहीं थमती, वह फोन के बाद किसी बाइक पर आ जाती, और फिर तब तक फोन का अगला मॉडल आ जाता, और कुछ बरस बाद बाइक का नया मॉडल आ जाता, और इस बीच फोन के री-चार्ज और बाइक के फ्यूल टैंक का खर्च जुड़ा ही रहता। फरमाईशों का कोई अंत नहीं होता। एक-दूसरे के देखादेखी बच्चों और नौजवान पीढ़ी के मन में सामानों की हसरत पैदा होती रहती है, और एक-दूसरे से पिछड़ न जाने के दबाव में वे जायज या नाजायज तरीकों से सामान हासिल करने में लगे रहते हैं, और ऐसे में ही कई बार नाबालिग बच्चे सामानों के मोह में बालिग लोगों के साथ देहसंबंधों में उलझ जाते हैं। इनके बीच मोहब्बत शायद कम मामलों में रहती होगी, अपनी हसरत पूरी होने की हसरत अधिक रहती होगी। कुल मिलाकर लोग संघर्ष की जिंदगी के रास्ते अपनी चाहत पूरी करने, सामान और सहूलियत हासिल करने पर कम भरोसा करते हैं, वे एक ऐसा शॉर्टकट ढूंढते हैं जिससे रातों-रात उन्हें सब कुछ हासिल हो जाए। इसी चक्कर में बहुत सी लड़कियां और महिलाएं सेक्स, वीडियो, बलात्कार, ब्लैकमेल जैसी अंधेरी और अंतहीन सुरंग में फंस जाते हैं। नतीजा यह होता है कि लोग खुदकुशी करते हैं, या ब्लैकमेल करने वाले को मार भी डालते हैं।

आज बाजार जिस हमलावर तेवरों के साथ इंसानों को ग्राहक बनाने पर आमादा है, और हर इंसान अपनी ताकत और औकात से आगे बढक़र अधिक से अधिक बड़े और खर्चीले ग्राहक बनने पर आमादा हैं, उसे देखकर हैरानी होती है कि क्या इंसान महज ग्राहक बनकर ही खुश हैं? क्या उनकी जिंदगी का अकेला मकसद महज ग्राहक बन जाना है? क्या मेहनत और कामयाबी पाए बिना महज सामानों के मालिक होने की शोहरत, दिखावे की चमक-दमक, और उससे लोगों की नजरों में महत्व पाने की चाहत ही सब कुछ रह गई है? क्या जिंदगी के बाकी मूल्य कुछ भी नहीं रह गए हैं? क्या अपने ही परिवार के बड़े लोगों की संघर्ष की जिंदगी और मेहनत की मिसाल कुछ नहीं रह गई है? यह पूरा सिलसिला इतना निराश करता है कि इंसान महज एक ग्राहक और उपभोक्ता की शक्ल में संतुष्ट और खुश हैं, उन्हें बेहतर इंसान बनने की कोई हसरत नहीं है, और जिंदगी की असल कामयाबी पाने की मेहनत करने की उनकी नीयत नहीं है।

आज मध्यमवर्गीय और गरीब परिवार ऐसी दिक्कतों को सबसे अधिक झेल रहे हैं। जो संपन्न परिवार हैं वे अपने बच्चों को लाख रूपए के मोबाइल, और लाखों रूपए की बाइक लेकर देने की हालत में रहते हैं। वे अपने बच्चों को क्रेडिट कार्ड भी दे देते हैं। लेकिन समाज इतना मिलाजुला है कि ऐसे हर संपन्न बच्चे के इर्द-गिर्द उससे बहुत कम संपन्न बच्चे भी रहते हैं, और उनके सामने संपन्नता का यह वैभव प्रदर्शन चलते रहता है, जिससे उनकी आंखें चकाचौंध रहती हैं। अब आए दिन लोगों के इस्तेमाल होने वाले कपड़े, जूते, फिटनेस बैंड, ब्लूटूथ जैसे दर्जनों सामान रहते हैं जो कि सबसे संपन्न के पास आते-जाते रहते हैं, बदलते रहते हैं, और जिन्हें देख-देखकर उनसे कम संपन्न लोग लगातार एक कुंठा में जीते हैं। उनकी अपूरित हसरतें उन्हें अपने ही मां-बाप के खिलाफ बागी बना देती हैं जो कि ऐसे महंगे इंतजाम नहीं कर पाते। भ्रष्ट नेता-अफसर-ठेकेदार की औलादें अपने ईमानदार मां-बाप, या गरीब मां-बाप पर तरस खाती हैं कि न वे कमाना सीख पाए, न अपने बच्चों को ‘अच्छी’ जिंदगी दे पाए। यह सिलसिला स्कूल से कॉलेज तक, और कॉलेज के बाद भी नौजवानों के यारी-दोस्ती, और प्रेमसंबंध के दिनों तक चलते रहता है, भड़ास बढ़ती रहती है, और जाने कब इन चीजों की चाहत में नाबालिग देहसंबंध में फंस जाते हैं, और बालिग लड़कियां या महिलाएं अवांछित संबंधों में, जिनका अंत ब्लैकमेलिंग और हिंसा तक पहुंच जाता है।

हम यहां किसी प्रवचनकर्ता की तरह नैतिकता की नसीहतें देना नहीं चाहते, क्योंकि उनके कोई ग्राहक नहीं रह गए हैं। आज प्रवचन भी सिर्फ धार्मिक, धर्मान्ध, साम्प्रदायिक किस्म के चल पा रहे हैं, इन तीनों विशेषणों से दूर रहने वाले विवेकानंद जैसे व्यक्ति की बातों का भी आज कोई बाजार नहीं है, उन्हें भी सुनने वाले कोई नहीं हैं। लेकिन किया क्या जाए? जैसे-जैसे सरकार और राजनीति में भ्रष्टाचार बढ़ते चल रहा है, समाज में हर किस्म का कारोबार करने वाले लोग कालेधन का सुख पा रहे हैं, वैसे-वैसे समाज में गैरजरूरी फिजलूखर्ची, महंगे सामानों का इस्तेमाल, हिंसक होने की हद तक  का दिखावा, तरह-तरह के आडंबर खूब चल रहे हैं, और इनसे दूर रह पाना, इनसे अछूता रह पाना शायद किसी के लिए भी मुमकिन नहीं रह गया है। आज लोग इस्तेमाल के सामान पाकर भी खुश नहीं हैं, जब तक कि उनके साथ ऐसा ब्रांड जुड़ा हुआ न हो जो कि आज की सामाजिक प्रतिष्ठा का एक प्रतीक बन गया है। ऐसा दिखावा खुद के खिलाफ हिंसक बन जाता है, मां-बाप पर हिंसक कर्ज थोप देता है, और ग्राहक कब कई किस्म के मुजरिम बन जाते हैं, यह पता भी नहीं लगता है। बाजार व्यवस्था ने लोगों के सपनों के साथ मिलकर खून से एक ऐसी तस्वीर बना दी है, जिसमें परंपरागत मूल्यों की कोई जगह नहीं है। आज यह सब लिखते हुए हमारे पास समाधान कुछ भी नहीं है, लेकिन हम समस्या को हिंसा की हद तक बढ़ जाने की नौबत लोगों को याद दिला रहे हैं।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)  


अन्य पोस्ट