संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पहले सप्लाई, और निर्माण फिर टेंडर की खानापूरी!
27-Dec-2024 5:31 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : पहले सप्लाई, और निर्माण  फिर टेंडर की खानापूरी!

अभी छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक अखबार की खबर पर खुद होकर सुनवाई शुरू कर दी है, और राज्य सरकार को नोटिस दिया है। बस्तर के करीब दो सौ गांवों में बिना किसी टेंडर, और बिना किसी सरकारी आदेश के 18 करोड़ रूपए के सोलर लाईट लगा दिए गए, और जैसा कि हमेशा होता है इसका भी भुगतान बाद में होते रहता, लेकिन अखबारी खबर पर अदालत के सरकार से मांगे गए हलफनामे की वजह से मामला गड़बड़ा गया। लोगों को याद होगा कि प्रदेश में सरकार चाहे जो भी रहे, सरकारी विभागों का इस किस्म का भ्रष्टाचार चलते ही रहता है। सडक़ बन जाती है, इमारत बन जाती है, और टेंडर भी नहीं हुआ रहता। स्वास्थ्य विभाग ने लाखों की मशीनें हर प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र पर एक वक्त ले जाकर फेंक दी गई थीं, और प्रदेश स्तर पर उसका भुगतान किया गया था। यह डॉ. रमन सिंह के मुख्यमंत्री रहते स्वास्थ्य मंत्री डॉ.कृष्णमूर्ति बांधी, और स्वास्थ्य सचिव बाबूलाल अग्रवाल के वक्त का मामला था जब नकली सोनोग्राफी मशीनें सप्लाई की गई थीं। बाद में भी कहीं डीएमएफ फंड से, तो कहीं सीएसआर फंड से असली-नकली सामान सप्लाई कर दिए जाते हैं, निर्माण हो जाता है, और उसके बाद कागजी खानापूरी पूरी होती है। प्रदेश में पिछली भूपेश-सरकार के दौरान राजधानी रायपुर में ही एक सडक़ पर डिवाइडर को करोड़ों के खर्च से सजाया गया था, और बाद में जब हंगामा हुआ कि इसका तो कोई टेंडर ही नहीं हुआ, तो नगर निगम और राज्य सरकार ने मिलकर लीपापोती की थी कि उनकी जानकारी के बिना यह किसी कारोबारी संगठन ने करवाया था। जबकि इसके गवाह मौजूद थे कि यह म्युनिसिपल ने ही करवाया था। स्वास्थ्य विभाग से लगातार ये खबरें आ रही हैं कि बिना डिमांड के जिला अस्पतालों में या पीएचसी में दवाएं और उपकरण सप्लाई किए जाते रहे हैं, जो कि बर्बाद होते ही हैं।

एक तरफ तो सरकारी विभागों में भ्रष्टाचार रोकने के लिए, या उसकी जांच के लिए आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो जैसी एजेंसी है, और दूसरी तरफ सरकार के भीतर के संगठित भ्रष्टाचार को बचाने के लिए नेता, अफसर, और ठेकेदार सब एक हो जाते हैं। पुरानी तारीखों पर कागज बना लिए जाते हैं, नीचे के दफ्तरों से डिलीवरी चालान दस्तखत करवा लिए जाते हैं, और भुगतान हो जाता है। यही सब करते हुए सप्लायर इतनी कमाई कर चुके रहते हैं कि कभी एक बार कुछ करोड़ रूपए डूब जाने पर भी वे नहीं डूब जाते, वे अगली सप्लाई के लिए फिर तैयार रहते हैं। इसके अलावा हर किस्म के सामान की सरकारी सप्लाई के साथ दो बातें जुड़ी रहती हैं, एक तो यह कि इस काम के लिए अतिरिक्त घटिया क्वालिटी के सामान बनाए जाते हैं, और दूसरी बात यह कि उन्हें बाजार से कई गुना अधिक दाम पर खरीदा जाता है। एक मुर्दे के लिए कफन सरकारी खरीदी में इतना महंगा पड़ता है कि उतनी रकम में खुले बाजार से दर्जन भर मुर्दों के लिए कफन आ सकते हैं, और बेहतर क्वालिटी के आएंगे इसकी भी गारंटी रहती है। भारत में सामान बनाने वाले कारखानों में गवर्नमेंट-सप्लाई नाम की एक अलग क्वालिटी रहती है जिसके बारे में बनाने वाले, सप्लाई करने वाले, और सरकारी दफ्तरों में डिलीवरी लेने वाले सभी को मालूम रहता है कि ये सामान कुछ ही दिनों के मेहमान हैं।

हम बरसों से इस बात को उठाते आए हैं कि सरकारी विभागों के भ्रष्टाचार को पकडऩे के लिए एक ऐसी मशीनरी बनानी चाहिए जो कि विभागों के इर्द-गिर्द हवा में तैरती खबरों की जांच करती रहे, और भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, घटिया खरीदी जैसी चीजों पर समय रहते कार्रवाई कर सके। सरकार का, हकीकत में तो जनता का, अधिकतर पैसा या तो सरकार अपने ऊपर स्थापना व्यय के नाम पर खर्च कर लेती है, और बचे हुए एक चौथाई पैसों में तीन चौथाई हिस्सा शायद भ्रष्टाचार में चले जाता है। एक वक्त राजीव गांधी के नाम से यह बात प्रचलित हुई थी कि दिल्ली से निकलने वाला एक रूपया गांव तक पहुंचते हुए सत्रह पैसे रह जाता है, कुछ उसी किस्म की हालत राज्य के अपने बजट की भी रहती है, आधे से लेकर तीन चौथाई तक बजट सरकार अपने ऊपर खर्च करती है, और बची हुई रकम में से खासा पैसा भ्रष्टाचार में चले जाता है, और घटिया क्वालिटी का निर्माण या सामान बहुत जल्द दम तोड़ देता है, और लागत की कोई भरपाई नहीं होती।

हाईकोर्ट ने इस बार राज्य सरकार के आम ढर्रे से हो रहे कुछ मामलों को पकड़ लिया है, और इन्हें हांडी के चांवल के नमूने के एक दाने की तरह परखना चाहिए। ऐसी कौन सी दानदाता कंपनी हो सकती है जो कि दो सौ गांवों में करोड़ों के सोलर लाईट लगा दे? इस पूरे मामले की अदालत को बारीकी से जांच करवानी चाहिए, और जिम्मेदार अफसरों को पूछना चाहिए कि ‘दानदाता’ सप्लायर उन्होंने जुटाए कैसे हैं? और ऐसे ‘दानदाताओं’से बाकी प्रदेश में भी लाईट लगवानी चाहिए ताकि समाजसेवा की उनकी भावना का बेहतर सम्मान हो सके। अगर सरकारें अखबारों में आने वाली भ्रष्टाचार की खबरों पर बारीकी से कार्रवाई करती रहें, तो ऐसी नौबत घटती भी जाएगी, लेकिन ऐसा हो नहीं पाता है। कहीं पर बीज निगम, तो कहीं हार्टिकल्चर सोसायटी, तो कहीं सीएसआईडीसी से अंधाधुंध रेट कांट्रेक्ट होते हैं, एक से बढक़र एक नकली और घटिया सामान सप्लाई होते हैं, उसमें भी गिनती में कम सप्लाई होते हैं, और सरकार का काम यूं ही चलते रहता है। जो बात सरकारों को खुद होकर देखनी चाहिए, उसके लिए हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट की जरूरत पड़ती है, तो फिर संविधान की शपथ लेकर काम करने की सरकार की औपचारिकता की क्या जरूरत है?

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