संपादकीय
तस्वीर / सोशल मीडिया
छत्तीसगढ़ के बेमेतरा जिले के एक गांव की स्कूल में एक महिला शिक्षिका के खिलाफ छात्राओं की बड़ी गंभीर शिकायतों के बाद शिक्षिका को निलंबित कर दिया गया है। स्कूल की लड़कियों ने 22 किलोमीटर दूर कलेक्टर के पास जाकर कई तरह की शिकायतें की थीं जिनमें यह भी था कि शायद प्रधानपाठिका का काम देख रही यह शिक्षिका छात्राओं से मोबाइल पर वीडियो बनवाने में लगी रहती थी, उन्हें सज-धजकर आकर सोशल मीडिया के लिए रील बनाने दबाती थी। छात्राओं का कहना है कि मना करने पर शिक्षिका उन्हें टीसी दे देने की धमकी देती थी, हाथ-पैर तुड़वा देने की बात कहती थी, और गालियां देती थी। छात्राओं का यह भी कहना है कि स्कूल में शौचालय भी नहीं बनाया गया है, और माहवारी के दौरान उन्हें बड़ी दिक्कत होती है। विभाग की जांच में आरोप सही मिले, और कलेक्टर ने शिक्षिका को निलंबित कर दिया है। हम इस एक मामले की खबरों पर पहले इसलिए नहीं लिख रहे थे कि जांच रिपोर्ट सामने नहीं आई थी, और सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की थी। इन दोनों के बाद अब यह जाहिर है कि मामले में शिक्षिका की कुछ गलतियां तो निकली होंगी।
राज्य की स्कूलों में कई तरह की घटनाएं हो रही हैं। छेडख़ानी से लेकर बलात्कार तक, और नाबालिग स्कूल छात्रों के किए हुए कई और किस्म के जुर्म तक। पहली नजर में ऐसा लगता है कि सरकारी स्कूलों का, छात्रावासों का हाल बेकाबू है। और इनमें छात्र-छात्राओं की संख्या भी काफी अधिक है। 30 लाख या उससे भी अधिक छात्र-छात्राओं का इंतजाम आसान भी नहीं है क्योंकि शाला भवनों और फर्नीचर से लेकर स्कूल ड्रेस और किताब-साइकिल तक, मिड-डे-मील से लेकर स्कॉलरशिप तक हर किस्म के काम स्कूलों से होते हैं। फिर यह भी है कि सरकार के बहुत किस्म के गैरस्कूली काम भी स्कूल शिक्षकों के मत्थे आते हैं। स्कूलों में बड़े पैमाने पर बदअमनी की घटनाएं सामने आती हैं, और बहुत सी जगहों पर, खासकर आदिवासी इलाकों में बहुत से शिक्षक नशे में धुत्त स्कूल पहुंचते हैं। बहुत सी जगहों पर एक-एक शिक्षक कई कक्षाओं को पढ़ा रहे हैं, और किसी जगह शिक्षक की मांग करते हुए, तो किसी जगह शाला भवन की दिक्कतों को लेकर छात्र-छात्राओं को सडक़ों पर देखा जाता है। छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने खुद होकर स्कूलों के बुरे हाल पर सुनवाई चालू की है, और सरकार को कटघरे में खड़ा किया है।
किसी भी जनकल्याणकारी शासन में स्कूल शिक्षा, और चिकित्सा, ये दो विभाग सबसे अधिक प्राथमिकता के रहते हैं, और छत्तीसगढ़ में इन्हीं दोनों की हालत सबसे खराब दिखती है। सच तो यह है कि खराब हालत की स्कूलों से निकले बच्चे किसी भी राष्ट्रीय दाखिला इम्तिहान के लायक तैयार नहीं हो पाते। दूसरी तरफ अगर स्कूलों के वक्त ही जुर्म से उनका सामना होने लगता है, तो स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के पहले ही वे नाबालिग मुजरिम बनने लगते हैं। स्कूलों को सिर्फ पढ़ाई की जगह मानना ठीक नहीं होगा, यहां पर बचपन से लेकर किशोरावस्था तक का व्यक्तित्व विकास भी होता है, और ऐसे में अगर कहीं शिक्षक नहीं, कहीं इमारत नहीं, और कहीं शौचालय तक नहीं, तो ऐसे में बच्चे लोकतंत्र और सरकार के बारे में किस तरह की धारणा के साथ बड़े होंगे? और स्कूल की पढ़ाई पूरी होने, या पढ़ाई छोड़ देने के तुरंत बाद ही ये बच्चे वोटर भी बनते हैं, और एक गैरजिम्मेदार व्यक्तित्व विकास उनसे किस तरह के उम्मीदवार या पार्टी को छांटने का काम करवाता होगा, यह सोचना अधिक मुश्किल नहीं है। फिर यह भी है कि स्कूल की पढ़ाई छोड़ देने वाले बच्चों के जुर्म में दाखिल हो जाने का एक बहुत बड़ा खतरा रहता है। इसलिए स्कूलों को पढ़ाने के साथ-साथ, बच्चों और किशोरों को पटरी पर बनाए रखने की जगह भी मानना चाहिए। आज स्कूलों की जो हालत दिख रही है, उसके चलते हुए हम खेलों में बहुत आगे बढऩे, या किसी और किस्म की प्रतिभा के विकसित होने की बात सोच भी नहीं पा रहे हैं। और छत्तीसगढ़ की आम सरकारी स्कूल के बच्चों की शायद ही कोई और कामयाबी हो। इसलिए इस विभाग को बहुत मेहनत और काबिलीयत के साथ चलाने की जरूरत है। स्कूल शिक्षा मंत्री बृजमोहन अग्रवाल कुछ महीने काम करने के बाद ही सांसद बनाकर दिल्ली भेज दिए गए, और तब से इस विभाग का अतिरिक्त कार्यभार मुख्यमंत्री के पास चले आ रहा है, मंत्रिमंडल का विस्तार उसके बाद से हुआ नहीं है, और पूर्णकालिक मंत्री के बिना किसी को इसकी जिम्मेदारी देनी भी नहीं चाहिए।
केन्द्र सरकार के कई तरह के सर्वे में बरसों से यह बात सामने आती है कि छत्तीसगढ़ की सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर कितना कमजोर है। पिछली भूपेश बघेल सरकार ने सरकारी स्कूलों के बीच कुछ सौ चुनिंदा बेहतर स्कूलों को छांटकर उन्हें अंग्रेजी माध्यम की आत्मानंद स्कूलें बना दिया था। अब वे स्कूलें भी तिरस्कृत सी पड़ी दिखती हैं, और जगह-जगह से खबरें आती हैं कि पिछले पांच बरस आम सरकारी स्कूलों का पेट काटकर भी जो आत्मानंद स्कूलें लाड़ले बच्चों की तरह शानदार बनाई गई थीं, अब उन्हें भी खर्च का टोटा पड़ रहा है, और उनकी हालत भी खराब है। हम बदहाल स्कूलों के समंदर में आत्मानंद नाम के ऐसे सुविधा-संपन्न टापुओं के खिलाफ थे, और भूपेश सरकार के वक्त भी हमने ऐसी अनुपातहीन उत्कृष्टता की सोच का विरोध किया था। अब आज की सरकार के सामने यह दुविधा की नौबत है कि भूपेश सरकार की इस महंगी और खर्चीली योजना को आगे बढ़ाए, या फिर इस पर कोई और फैसला ले।
छत्तीसगढ़ में सरकारी स्कूलों को एक मिशन और मुहिम की तरह मेहनत करके सुधारने की जरूरत है। इन्हें भ्रष्टाचार से भी बचाने की भी जरूरत है। पता नहीं इतनी उम्मीद आज के वक्त में किसी सरकार से करना जायज होगा या नहीं, लेकिन हमारी सोच इससे कम पर रूक नहीं पाती है। जब तक कोई स्कूल शिक्षा मंत्री न बने, तब तक मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय को चाहिए कि इसके लिए अलग से कोई इंतजाम करें क्योंकि मुख्यमंत्री के बहुत से अपने विभागों के बाद स्कूल शिक्षा जैसे दसियों लाख बच्चों, और शायद लाखों शिक्षकों-कर्मचारियों वाले इस विभाग को पूरी तरह देख पाना मुमकिन नहीं है। किसी भी सरकारी या राजनीतिक वजह से स्कूल शिक्षा में ऐसा नुकसान नहीं होना चाहिए क्योंकि इसकी भरपाई बाद में नहीं हो पाएगी। खासकर प्रदेश के आदिवासी इलाकों में सरकारी स्कूलों और छात्रावासों में जैसी गंभीर घटनाएं हो रही हैं, और शिक्षकों के बीच जैसी अराजकता की स्थिति है, उसमें नई पीढ़ी का किसी भी तरह से अच्छा बन पाना मुमकिन नहीं है।