संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अपने-आपको अप्रासंगिक साबित करती यह संसद..
20-Dec-2024 3:45 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : अपने-आपको अप्रासंगिक साबित करती यह संसद..

संसद सत्र के दौरान कल जिस तरह कांग्रेस और भाजपा के सांसदों पर दूसरे पक्षों से धक्का-मुक्की करने के आरोप लगे हैं, और भाजपा के दो सांसद घायल होने की बात कहते हुए, या घायल होने पर अस्पताल में भर्ती हुए हैं, वह पूरा सिलसिला लोकतंत्र को बड़ा निराश करता है। भाजपा ने प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी पर आरोप लगाया है कि उन्होंने भाजपा सांसदों को धक्का देकर गिराया जिससे वे जख्मी हुए। दूसरी तरफ कांग्रेस की तरफ से प्रियंका गांधी ने कहा है कि उनके सामने ही राज्यसभा के नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खरगे को धक्का दिया गया, और वे गिर पड़े, इसके बाद एक सीपीएम सांसद को धक्का दिया गया, और वे खरगे पर गिर पड़े। उन्होंने कहा कि राहुल अंबेडकर की तस्वीर लेकर जय भीम के नारे लगाते हुए संसद में जा रहे थे, और उन्होंने (भाजपा सांसदों ने) विरोध किया, धक्का-मुक्की की, और यह गुंडागर्दी हुई। उसके बाद यह साजिश फैलाना शुरू किया गया कि राहुल ने किसी को धक्का दिया है। यह संसद भवन के एक प्रवेश द्वार पर भाजपा सांसदों द्वारा इंडिया-गठबंधन के सांसदों का दाखिला रोकने के दौरान हुई घटना बताई जा रही है। इसके बाद लोकसभा स्पीकर ओम बिरला ने निर्देश जारी किए हैं कि संसद के किसी भी गेट पर कोई भी सदस्य, उनके समूह, या राजनीतिक दल के सदस्य धरना-प्रदर्शन नहीं करेंगे।

हम न तो इस घटना को लेकर लोगों और पार्टियों के चाल-चलन पर किसी पूर्वाग्रह को काम में लाना चाहते, न ही कोई अटकल लगाना चाहते कि क्या हुआ होगा। अगर कोई ईमानदार जांच होगी, तो यह साफ हो जाएगा कि किसने किसे रोका, और किसने किसे धक्का दिया। हम इस बात पर भी जाना नहीं चाहते कि आज जख्मी होने की बात जिस सांसद के बारे में की जा रही है वह एक वक्त ओडिशा में ग्राह्म स्टेंस और उनके बच्चों को जिंदा जला देने के मामले से किस तरह जुड़ा हुआ था। वह इतिहास कल की घटना में प्रासंगिक नहीं है, और हम इसमें भी जाना नहीं चाहते कि राहुल गांधी को किसी भी कीमत पर घेरने की कैसी कोशिशें चल रही हैं। इन सबसे परे हम भारत के संसदीय लोकतंत्र की कुछ बुनियादी बातों पर आना चाहते हैं कि क्या 140 करोड़ जनता के बीच से चुने गए जनप्रतिनिधियों से देश की जनता ऐसे ही संसदीय आचरण की उम्मीद करती है? क्या संसद का कुख्यात रियायती खाना, सांसदों पर होने वाला बड़ा खर्च, और उन्हें मिले हुए असाधारण विशेषाधिकार क्या इसीलिए हैं कि वे छात्र संघ चुनाव की तरह की धक्का-मुक्की करें? हम कल की घटना के किसी जिम्मेदार के नाम पर अटकल लगाने का काम नहीं करना चाहते, बल्कि देश के संसदीय माहौल पर अपनी निराशा दिखाना चाहते हैं कि संसद की इमारत ही नई नहीं बनी है, इसके चाल-चलन में गिरावट के नए रिकॉर्ड भी बन रहे हैं।

किसी इमारत से किसी संस्था की इज्जत नहीं बढ़ती। अनाथाश्रम या अस्पताल की इमारतें जर्जर हो सकती हैं, लेकिन वे सम्मान का प्रतीक रहती हैं। दूसरी तरफ जुआघर या शराबखाने आलीशान हो सकते हैं, लेकिन वे कलंक ही रहते हैं, उन पर किसी को सम्मान नहीं हो सकता। इसलिए हजारों करोड़ रूपए लगाकर भारतीय संसद की इमारत को आलीशान बनाना, और वहां की परंपराओं को शर्मनाक बनाना, इस पर जाने किसे गर्व हो सकता है। सत्ता और विपक्ष के बीच असहमति एक स्वस्थ लोकतंत्र का सुबूत रहती है, लेकिन जब असहमति बढक़र हिकारत और नफरत में, हिंसा में तब्दील हो जाती है, तो जनता क्या करे? कल की धक्का-मुक्की को लेकर अभी दोनों तरफ की तोहमतें हवा में तैर रही हैं, लेकिन इसी नई आलीशान इमारत के भीतर वह गाली-गलौज याद पड़ती है जो कि सत्तारूढ़ भाजपा के एक सांसद ने बसपा के एक मुस्लिम सांसद को दी थी, तरह-तरह की गंदी साम्प्रदायिक गालियां दी थीं, देश का गद्दार कहा था, और उस पर क्या हुआ, यह याद भी नहीं पड़ता। देश की राजधानी की एक सीट, दक्षिण दिल्ली के भाजपा सांसद रमेश विधुड़ी ने संसद के बाहर के अपने तेवरों की निरंतरता में जिस तरह संसद के भीतर अश्लील और हिंसक, साम्प्रदायिक और राष्ट्रविरोधी जुबान में बसपा के सांसद दानिश अली को गालियां दी थीं, और ऐसी गाली देने वाले के पीछे बैठे बड़े-बड़े नेता जिस अंदाज में हँस रहे थे, वह संसद की नई इमारत पर कालिख पोतने का काम था। अब कल की जिसकी भी जिससे धक्का-मुक्की हुई, उससे यह कालिख कुछ और फैल गई।

यह बात भी कुछ अजीब है कि संसद में जब-जब कुछ जलते-सुलगते मुद्दों पर चर्चा का दौर शुरू होने को रहता है, किसी न किसी तरह का एक असंसदीय बवाल खड़ा हो जाता है, और सदन का पूरा ध्यान उस पर चले जाता है, और जलता-सुलगता मुद्दा हाशिए पर। लोगों को याद होगा कि किस तरह कभी एक चुम्बन-चर्चा शुरू हो जाती है, तो किस तरह कभी एक अरबपति वकील-सांसद की सीट के नीचे 50 हजार रूपए मिलने को लेकर दिन खराब हो जाता है। क्या देश की संसद ऐसे ही निहायत गैरजरूरी और नाजायज विवादों के लिए बनी है? क्या पांच किलो राशन पर जिंदा 80 करोड़ आबादी के साथ अब ऊंची बना दी गई दुकान के इस फीके संसदीय पकवान को इंसाफ कहा जाएगा? ऐसा लगता है कि हम किसी दूसरे ग्रह पर बैठे हुए भारतीय संसद को यह सलाह देते रहते हैं कि एक वक्त यह देश से परे भी पूरी दुनिया के मुद्दों पर चर्चा करती थी, और बहुत से ऐतिहासिक अंतरराष्ट्रीय दौर और घटनाएं भारत की राय से प्रभावित रहते थे। आज तो ऐसा लगता है कि किसी मतदान केन्द्र पर दो प्रमुख पार्टियों के कार्यकर्ताओं के बीच हो रहा हिंसक टकराव, और उनके बीच चलती गाली-गलौज संसद के भीतर तक पहुंच चुके हैं। क्या ऐसे सांसदों को, और ऐसे सदन को किसी भी विशेषाधिकार का हक होना चाहिए? क्या इसकी अवमानना करने को बाहर के किसी व्यक्ति की जरूरत है? क्या इसके अपने लोग इसकी इतनी अवमानना नहीं कर रहे हैं जितनी कि बाहर के लोगों के लिए मुमकिन भी हो?

संसद की इस नई और ऐतिहासिक खर्चीली, महंगी इमारत के ढांचे के आकार को लेकर कई लोग इसे ताबूत सरीखी बताते हैं। हमें आकार की तो अधिक समझ नहीं है, लेकिन लोकतांत्रिक मूल्य, संसदीय परंपराएं, और बुनियादी इंसानियत जरूर यहां दफन होते दिख रही हैं। आज सांसद जिस किस्म की खेमेबाजी का शिकार हो चुकी है, उसके प्रति जनता के मन में शायद ही कोई विश्वास बचा हो। और यह भी हो सकता है कि हम ही कुछ अधिक बारीकी से और उम्मीद से इस ऊंची दुकान के फीके पकवानों से मिठास की उम्मीद करते हैं, और हमारी निराशा आम जनता की निराशा से कुछ अधिक है, लेकिन लोकतंत्र को लेकर हमारी जो बुनियादी समझ है, उसमें हम इससे कम कोई उम्मीद रख नहीं सकते, फिर चाहे यह लोकतंत्र हमें, बार-बार, कितनी ही बार, हर बार ही निराश क्यों न करता चले। बाहुबल और बहुमत लोकतंत्र नहीं होता, और अल्पमत लोकतंत्र में कम मायने नहीं रखता। संसद भवन से निकलती लोकतांत्रिक और संसदीय निराशा दिल्ली के धुंध और धुएं के मुकाबले अधिक गहरी है, और अधिक दमघोंटू भी। 

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