संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : हवा-पानी, और रोटी-छत के बाद सबसे जरूरी मुद्दे जलवायु परिवर्तन पर बात
16-Dec-2024 7:39 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : हवा-पानी, और रोटी-छत के बाद सबसे जरूरी मुद्दे जलवायु परिवर्तन पर बात

हिन्द महासागर के एक छोटे टापू मायोट में सदी का सबसे ताकतवर चक्रवाती तूफान टकराया है। कुल सवा तीन लाख आबादी वाले इस टापू पर फ्रांस का कब्जा है, और अभी वहां सैकड़ों लोगों के मारे जाने की आशंका है। फ्रांस सरकार की ओर से कहा गया है कि मौतों की गिनती हजार तक जा सकती है, और हजारों भी हो सकती है। यहां के एक नागरिक ने टेलीफोन पर बताया है कि वहां तबाही का मंजर किसी परमाणु युद्ध के बाद जैसा लग रहा है, और उसके बगल की पूरी बस्ती ही गायब हो गई है। अफ्रीका के करीब का यह टापू कभी ऐसी तबाही से नहीं गुजरा था। लेकिन हम इसी एक घटना को लेकर कुछ लिखना नहीं चाहते, पूरी दुनिया के लिए मौसम की अधिकतम बुरी मार इतनी जल्दी-जल्दी आ रही है, इतनी नई-नई जगहों पर नए किस्म की मार पड़ रही है कि तबाही का कोई अंदाज लगा पाना मुमकिन ही नहीं है।

हम यहां पर प्राकृतिक विपदाओं की बढ़ती भयावहता की लिस्ट गिनाना नहीं चाहते, उसे बड़ी आसानी से तलाशा जा सकता है। लेकिन मौसम के बदलाव के चलते बहुत सी ऐसी जगहों पर सूखा पड़ रहा है जहां बाढ़ आती थी, और जहां पर बाढ़ आती थी, वहां अब सूखा पड़ रहा है। बारिश के महीने बदल जा रहे हैं, और फसलों को पकने का भी वक्त कहीं-कहीं पर नहीं मिल रहा है। तमाम आशंकाओं से अधिक बर्फ गिर रही है, और कई इलाके बर्फबारी में पट जा रहे हैं, कोई देश बाढ़ से तबाह हो जा रहा है, और अफ्रीकी महाद्वीप के बहुत से देशों में पानी की कमी से ऐसा विस्थापन हो रहा है कि पूरा देश ही शरणार्थी की जिंदगी जी रहा है, और उनमें से बड़ी संख्या में लोग मौत के करीब हैं। इन सबके ऊपर फिक्र की बात यह है कि दुनिया के जिन संपन्न देशों की समान और साधन की खपत के चलते धरती पर मौसम का बदलाव हो रहा है, उनके बीच इस बदलाव को धीमा करने, इसके नुकसान की भरपाई करने, और आगे अपनी जीवनशैली को पर्यावरण के मुताबिक ढालने की कोई इच्छा नहीं है। अब एक खतरनाक घटना और हो गई है, अमरीकी राष्ट्रपति पद के लिए डोनल्ड ट्रंप चुन लिया गया है, और वह महज 25 दिन दूर रह गया है काम संभालने के। लोगों को याद होगा कि पिछली बार जब ट्रंप राष्ट्रपति बना था, तो उसने पर्यावरण बचाने और जलवायु परिवर्तन को धीमा करने की तमाम कोशिशों को दुनिया का सबसे बड़ा ग्रीन फ्रॉड कहा था, और जलवायु-समझौते को छोड़ भी दिया था। अब ट्रंप फिर अमरीका को संभालने के साथ-साथ पर्यावरण के लिए विनाशकारी बहुत से विकसित, संपन्न, और पश्चिमी देशों की अगुवाई करने जा रहा है, और उसके चार बरस के कार्यकाल में धरती की किसी बेहतरी की उम्मीद करना मुश्किल होगा।

जलवायु परिवर्तन से बहुत से लोग अपने आपको सुरक्षित मानकर चलते हैं क्योंकि उन्हें उनकी संपन्नता की वजह से इस बात का भरोसा है कि धरती पर किसी सहूलियत के आखिरी दौर में भी वे सरकारी खर्च से, या अपनी गोरी या बुरी कमाई से उसे अपने लिए तो जुटा ही लेंगे। इसलिए उन्हें इस बात की फिक्र नहीं है कि धरती के ध्रुवों पर बर्फ किस रफ्तार से पिघल रही है, समंदर का पानी कितना ऊंचा जा रहा है, कितने शहर या देश अगले कुछ दशकों में डूबने वाले हैं, कहां पर सूखे की वजह से फसल खत्म होने वाली है, कहां पर बाढ़ की वजह से शहर खत्म हो रहे हैं, और कहां-कहां तूफान तबाही ला रहे हैं। अपनी खुद की सहूलियत की अगले कुछ दशकों की गारंटी लोगों को जिम्मेदार बनने ही नहीं दे रही है, और ऐसे लोग अपने देश के साथ-साथ दुनिया को बचाने के भी जिम्मेदार हैं। ऐसे में दुनिया के कमजोर देश, और उनके कमजोर लोग उम्मीद भी क्या कर सकते हैं? संपन्न का पैदा किया गया प्रदूषण विपन्न पर कहर बनकर टूटे पड़ रहा है, और विपन्न के हाथ उसे झेलने के अलावा और कुछ भी नहीं है।

दुनिया के लोगों को अपनी खपत की हवस को काबू में रखने के लिए कहना आसान इसलिए भी नहीं है कि बाजार इस हवस को कोंच-कोंचकर आगे बढ़ाते चलने में लगे रहता है। और चूंकि दुनिया की बहुत सी सरकारें अब कारोबार के हाथों काबू में हैं, सरकार के लोग कारोबार के पैसों से सत्ता में आते हैं, कारोबार के अघोषित भागीदार रहते हैं, और देश की कमाई के आंकड़ों को अधिक दिखाने में कारोबार काम भी आते हैं, इसलिए सरकारों की नीतियां कारोबार को बढ़ाने की रहती हैं, और इसका मतलब खपत बढ़ाना भी रहता है। कहीं डीजल-पेट्रोल की खपत बढ़ाना, कहीं बिजली, तो कहीं खनिजों से बनने वाले सामान की खपत बढ़ावा। और यह सब कुछ धरती पर कार्बन बढ़ाए बिना, प्रदूषण बढ़ाए बिना मुमकिन नहीं होता, एक जगह की खपत दूसरी जगह के लिए कहर में तब्दील हो जाती है। जिन गरीब देशों में पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने के कोई काम नहीं हैं, वहां भी मौसम की ऐसी बुरी मार पड़ रही है कि क्या पूछें।

दिक्कत यह है कि धरती एक है, उसकी जलवायु मिलीजुली और साझा सामान है, लेकिन जलवायु को बर्बाद करने का हक धरती पर नक्शों की सरहदों में बंटा हुआ है। और सबसे ताकतवर के हाथों सबसे अधिक तबाही हो रही है। ताकतवर देशों में सरकारों को बनाने और बिगाडऩे का काम कारोबार करते हैं, और पर्यावरण उनकी लागत में कहीं जगह नहीं पाता। यह सिलसिला इतना खतरनाक होते चल रहा है कि भारत में सुप्रीम कोर्ट और केन्द्र सरकार की आपसी सहमति से जो नदी जोड़ परियोजना चल रही है, उसके बारे में भी एक आशंका खड़ी होती है कि आज जिन इलाकों से अधिक बाढ़ के पानी को देश के जिन सूखे इलाकों की नदियों में ले जाने के लिए देश का सबसे बड़ी लागत का प्रोजेक्ट चलाया जा रहा है, उसका क्या इस्तेमाल रह जाएगा, अगर आज के बाढ़ वाले इलाके कल सूखे हो जाएंगे, और आज के सूखे इलाकों में कल बाढ़ आने लगेगी? मौसम का बदलाव किसी भी भविष्यवाणी से परे हो रहा है, और मौसम विज्ञानी भी तबाही के कुछ दिन पहले ही खतरे की सूचना दे पाते हैं, कई मामलों में महज कुछ घंटे पहले। ऐसे में कुदरत का कोड़ा तो पडऩा ही पडऩा है, संपन्न देश अपनी बीमा व्यवस्था की वजह से, और सरकार की आर्थिक ताकत की वजह से इसके बाद भी जिंदा रह लेंगे, लेकिन गरीब देशों की तो मौत है। दिक्कत यह है कि कहीं चार, और कहीं पांच बरस के लिए चुनी जाने वाली सरकारों के सामने जब अगली आधी-एक सदी की परवाह करने की चुनौती रहती है, तो वह बहुत आकर्षक चुनावी समीकरण नहीं रहती। आम जनता की जागरूकता कोशिश करके कमजोर और नीची रखी जाती है ताकि वह जिंदगी के असल मुद्दों को समझ न ले। और यह भी एक वजह है कि जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण, और मौसम की मार जैसी बातों से अधिकतर दुनिया के तकरीबन तमाम आम लोग नावाकिफ और बेफिक्र रहते हैं। ऐसे में न सिर्फ तूफान से तबाही वाले इलाकों में बिजली चौपट हो जाने से अंधेरा है, बल्कि धरती का भविष्य ही अंधकारमय है। कम से कम नई पीढ़ी को पर्यावरण के प्रति जागरूक बनाना जरूरी है, क्योंकि उसके सामने पहाड़ सी बाकी जिंदगी बाकी है, आज के नेताओं, और कारोबारियों की अधेड़ और बूढ़ी हो चली पीढ़ी को तो आधी सदी बाद के खतरे दिखने की कोई गुंजाइश है नहीं।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


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